संपादकीय
आंकड़े बड़े दिलचस्प होते हैं। खासकर तब जब वे किसी चुनावी-राजनीति की योजना के हों, और उन्हें अर्थव्यवस्था के मुकाबले खड़ा कर दिया जाए। चुनावी समीकरण और अंकगणित का समीकरण बिल्कुल अलग-अलग हो सकते हैं, और हो सकता है कि जमीनी हकीकत इन दोनों के बीच कहीं हो। अभी एक संस्था की रिपोर्ट भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारों द्वारा महिलाओं के बैंक खातों में सीधे नगदी ट्रांसफर करने पर आई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों के बजट का एक खासा बड़ा हिस्सा इस कैश ट्रांसफर पर खर्च हो रहा है। इनमें हिमाचल की इंदिरा सम्मान निधि पर सबसे ही कम पैसा जा रहा है जो कि दशमलव में भी नहीं गिना जा सकता। इसके बाद असम, और फिर उसके ऊपर के राज्य हरियाणा, तमिलाडु, छत्तीसगढ़ हैं। छत्तीसगढ़ में बजट का 3.33 फीसदी महतारी वंदन योजना में जा रहा है। लेकिन इसके ऊपर के राज्य देखें, तो बढ़ते-बढ़ते एमपी में करीब 5 फीसदी, महाराष्ट्र और दिल्ली में 5 फीसदी से अधिक, बंगाल और कर्नाटक में साढ़े 7 फीसदी या उससे अधिक, और झारखंड में बजट का करीब 10 फीसदी महिलाओं को कैश ट्रांसफर में जा रहा है। एक-एक करके चुनावों में ऐसी योजना जीत और हार को तय करने वाली होती चली गई, और जिन पार्टियों के जीत के आसार कम थे, उन्होंने तो बढ़-चढक़र इससे भी अधिक आंकड़े घोषणापत्र में रखे थे।
बजट के तीन फीसदी से लेकर दस फीसदी तक का हिस्सा अगर महिलाओं को सीधे कैश देने की योजनाओं पर जा रहा है, तो यह समझने की जरूरत है कि राज्य का बजट सौ फीसदी तो किसी भी सरकार को उपलब्ध नहीं रहता। जिसे सरकारी अमले की तनख्वाह, बिजली-पेट्रोल, सरकारी इमारतों का रखरखाव, सफर का खर्च कहा जाता है, वह स्थापना व्यय ही अधिकतर सरकारों को बड़ा भारी पड़ता है। एक तिहाई से लेकर 40 फीसदी तक का स्थापना व्यय अलग-अलग राज्यों के बजट आंकड़े बताते हैं, जबकि हकीकत में ये आंकड़े और ऊपर भी जा सकते हैं। एक तिहाई या अधिक स्थापना व्यय के बाद सरकार के पास बजट राशि सीमित ही बचती है, और उसमें से महिलाओं के लिए, या किसी भी और दूसरी योजना के लिए एक बड़ी रकम जाने का मतलब बजट के लचीलेपन को खत्म करना भी रहता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में धान खरीदी पर सरकारी रियायत बजट का बहुत बड़ा हिस्सा रहती है, इसी तरह गरीबों को राशन देने पर भी केन्द्र और राज्य सरकारों का खासा पैसा जाता है। ऐसे में महिलाओं को उनके खातों में मिलने वाली राशि को लेकर अर्थशास्त्रियों, और पुरूषों के बीच खासी बेचैनी रहती है। ऐसी योजना भारत में तो अभी पिछले कुछ बरसों में ही शुरू हुई हैं, लेकिन दुनिया के अलग-अलग कई देशों में महिलाओं की गरीब आबादी को लेकर डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना का जो फायदा मिला है, उस पर भी एक नजर डालना चाहिए।
कुछ सबसे सफल उदाहरण ऐसे देशों के हैं जहां पर गरीबी हावी रहती है, या थी। मैक्सिको में 1997 से अब तक परिवार ने मां के खाते में पैसे जाते थे, और उसके साथ बच्चों के स्कूल जाने, और अस्पताल में जांच करवाने की शर्त जोड़ी गई थी। इससे वहां लड़कियों का स्कूल जाना 15 फीसदी बढ़ा, बच्चों का कुपोषण 20 फीसदी तक घटा, और परिवार में महिला की स्थिति मजबूत हुई। ब्राजील में 2003 से बिना किसी शर्त के गरीब माताओं को हर महीने उनके खाते में पैसे मिलते हैं, और इससे गरीबी 25 फीसदी तक घटी, घरों में मारपीट और झगड़े 10 फीसदी तक कम हुए, और महिलाएं अपना छोटा-मोटा कोई काम शुरू करके आर्थिक रूप से कुछ या अधिक हद तक आत्मनिर्भर बनीं। दक्षिण अफ्रीका में शिशु संरक्षण अनुदान के नाम से सवा करोड़ से अधिक महिलाओं को हर महीने पैसे मिलते हैं, और इससे उनके बच्चों के कद छोटे रह जाने (स्टंटिंग) में 8 फीसदी तक कमी आई, और परिवार में महिला की आवाज अधिक बुलंद हुई। केन्या में महिलाओं को बिना किसी शर्त के सीधे पैसे देना 2018 में ही शुरू हुआ। इससे वहां महिलाओं की कमाई एक तिहाई से अधिक बढ़ गई, उनके किए जाने वाले छोटे-छोटे कारोबार डेढ़ गुना हो गए, घर में पति द्वारा की जाने वाली हिंसा में 16 फीसदी कमी दर्ज की गई।
ऐसी योजनाओं पर किए गए एक सर्वे से यह पता लगता है कि पैसे अगर मां के खाते में जाते हैं, तो उसका 90 फीसदी हिस्सा बच्चों के खाने और पढऩे पर खर्च होता है, जबकि पुरूष के हाथ में पहुंचने वाले पैसों का सिर्फ 30-40 फीसदी बच्चों पर जाता है। इससे महिला-भत्ता बच्चों का कुपोषण कम करता है, बच्चों का स्कूल छोडऩा कम हो जाता है, और घरेलू हिंसा में बड़ी कमी आती है। भारत के बारे में एक अध्ययन बताता है कि घर में पैसा आने पर मर्द काम कुछ कम करने लगे कि उनकी रोजी के बिना भी घर का काम तो चल जाएगा। कुछ परिवारों में मर्दों ने बीवी से मारपीट भी शुरू कर दी कि अब उसके पास सीधे पैसा आ रहा है, तो पति का काबू कम हो रहा है। किसी देश या समाज में जो मानव विकास सूचकांक हो सकते हैं, उनमें महिला को मिलने वाले कैश ट्रांसफर से बड़ी बेहतरी दिखाई पड़ती है। बच्चों के कुपोषण में होने वाली कमी रातोंरात आंकड़ों में नहीं दिखेगी, लेकिन एक-दो पीढ़ी गुजरते न गुजरते यह फर्क समझ आने लगेगा। किसी राज्य के बजट का चार-छह फीसदी पैसा सीधे महिलाओं के हाथ में जाता है, और उससे महिलाओं और बच्चों की स्थितियों में सुधार होता है, तो यह समाज, और देश की अर्थव्यवस्था में एक बड़ी बेहतरी होगी। चूंकि परिवारों में यह फायदा महिला के माध्यम से पहुंच रहा है, इसलिए आमतौर पर समाज पर काबिज बड़बोले मर्दों को वह खटकता भी है। लेकिन अगर हजार-पन्द्रह सौ रूपए महीने की छोटी सी रकम से किसी परिवार में महिला की आवाज मजबूत होती है, तो यह एक समाज सुधार के नजरिए से भी बहुत बड़ी लागत नहीं है।
भारत मेें जैसा कि किसी भी सरकारी अनुदान, या रियायत योजना में होता है, लोग बुनियादी तौर पर भ्रष्ट हैं, और वे अपनी आय छुपाकर भी हर तरह का फायदा ले लेना चाहते हैं। चाहे गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का राशन हो, या महतारी वंदन का पैसा, बहुत से अपात्र लोग इन योजनाओं में घुस जाते हैं जो कि गरीबों के हक के पैसों पर डाका होता है। सरकार को बड़ी बारीकी और कड़ाई से छानबीन करके इस चोरी और बर्बादी को रोकना चाहिए, ताकि सरकारी रियायत का आकार घट सके, और वह सुपात्र लोगों तक ही पहुंचे। हम अपने अखबार की सोच में इसे रेवड़ी नहीं मानते हैं, यह महिलाओं के खिलाफ सदियों से चले आ रहे सामाजिक अन्याय को खत्म करने का एक कदम है, और उसे बजट के अंकगणित के साथ-साथ समाज की बेहतरी से भी जोडक़र देखना चाहिए।


