संपादकीय
छत्तीसगढ़ की स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा छत्तीसगढ़ी माध्यम से भी देने की सुगबुगाहट चलती रहती है। छत्तीसगढ़ी बोली या भाषा का झंडा लेकर चलने वाले लोग इसके लिए लगे रहते हैं, और अभी तक सरकार की इस बारे में कोई तैयारी नहीं दिखती है। देश की नई शिक्षा नीति के तहत हर प्रदेश में बच्चों को तीन भाषाएं पढ़ाई जानी है, अभी कुछ महीने पहले जब महाराष्ट्र सरकार ने हिन्दी को एक भाषा के रूप में पढ़ाने का फैसला इसी नीति के तहत लिया, तो इसका जमकर विरोध हुआ, खुद सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर लोग इसके खिलाफ हो गए, और इसके विरोध के लिए सडक़ों पर उतरने को लंबे समय से बिछुड़े हुए ठाकरे बंधुओं ने अपने बीच की बर्लिन की दीवार गिराई, और एक साथ आए, और साथ-साथ दुकानदारों और ऑटो वालों को पीटा। फिलहाल राज्य में इसे लेकर जो राजनीतिक तेवर और जनभावनाओं का उबाल देखने मिला, उसे देखते हुए सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन ने फिलहाल हिन्दी पढ़ाने को स्थगित कर दिया है। पूरे के पूरे दक्षिण भारत में तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी पढ़ाने का विरोध हमेशा से चले आया है, और राष्ट्रीय शिक्षा नीति का यह हिस्सा दक्षिण भारत में जाने कब और कैसे लागू हो पाएगा। वैसे तो 1968 से ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तीन भाषाओं का फार्मूला चले आ रहा था जिसे 1986 और 1992 में दोहराया गया था। अभी 2020 में भी इसे लागू करने को कहा गया है लेकिन राज्यों को थोड़ा सा लचीलापन भी दिया गया है कि सरकार, स्कूल, और पालक मिलकर भाषाएं तय करेंगे। देश के ऐसे माहौल के बीच में छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में अब जाकर छत्तीसगढ़ी पढ़ाने, या छत्तीसगढ़ी को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाने की बात चल रही है, लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या राज्य सरकार इसके लिए तैयार है?

आज छत्तीसगढ़ में 30 हजार से अधिक स्कूली शिक्षकों की कमी है, दूसरी तरफ जो हैं भी, उनमें से एक खासा बड़ा अनुपात ऐसे लोगों का है जो कि अपने काम के प्रति समर्पित नहीं हैं, काबिल नहीं हैं, गंभीर नहीं हैं। ऐसे में भरे हुए पदों को कमी खत्म हो जाना नहीं कहा जा सकता, कमी तो भरे हुए पदों पर भी रहती है क्योंकि शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं, किसी नेटवर्क मार्केटिंग में वक्त लगाते हैं, कहीं छात्राओं से चैटिंग में उनकी दिलचस्पी रहती है, कहीं वे दारू पीकर आकर पड़े रहते हैं। इनकी संख्या कम हो सकती है, लेकिन जब ऐसे मामले सामने आते हैं, तो लगता है कि सामने न आने वाले भी इसी किस्म के मामले इससे दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक हो सकते हैं। फिर शिक्षकों की अपनी जो शिकायत रहती है कि उन्हें गैरशैक्षणिक कार्यों में लगा दिया जाता है, वह तो रहता ही है। मतदाता सूची से लेकर जनगणना तक, और मतदान करवाने तक दर्जन भर ऐसे काम रहते होंगे जिनमें शिक्षकों को लगाया जाता है, जाहिर है कि उससे भी पढ़ाई पर तो असर होता ही है। अब ऐसे में छत्तीसगढ़ी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षक कितने होंगे, और कितनों को तैयार करना पड़ेगा, यह एक अलग ही चुनौती है। फिर हमारे सरीखे लोग हैं जो कि यह सुझाते हैं कि स्कूली शिक्षकों में से ही चुनिंदा लोगों को छांटकर, या उनकी सहमति लेकर उन्हें मनोवैज्ञानिक परामर्श की शिक्षा देनी चाहिए, ताकि वे स्कूली बच्चों की उलझन सुलझा सकें, और आज नाबालिग जितने तरह के जुर्म में लगे हैं, उनका बढऩा रूक सके।

इसी सबके बीच अब एक नई सोच टेक्नॉलॉजी के रास्ते सामने आई है, एआई के इस्तेमाल की। उच्च शिक्षा में जहां पर विश्वविद्यालय स्तर पर कम्प्यूटर, और डिजिटल स्क्रीन जैसी सहूलियतें हैं, वहां तो बड़ी आसानी से एआई का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, लेकिन क्या छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दीभाषी, या कि उत्तर भारत के किसी राज्य में एआई के इस्तेमाल से स्कूली शिक्षा व्यवस्था बेहतर हो सकती है? हमने इसके बारे में एआई से सलाह-मशविरा करके कुछ मुद्दों को समझने की कोशिश की, तो उसने हमारी इस फिक्र को तो सही ठहराया कि देश में स्कूली शिक्षा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, और यहां पर अगर एआई के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी, तो क्या शिक्षकों की जरूरत कम नहीं होने लगेगी? इतने रोजगार और कहां पर निकल पाएंगे जितने कि स्कूलों में निकलते हैं? लेकिन एआई को हमारी इस सोच से भी सहमति थी कि आज सरकारी स्कूलों में जहां पढ़ाने वाले शिक्षकों का ज्ञान का अपना स्तर कम है, दिलचस्पी और भी कम है, मौजूदगी भी मनमानी है, तो ऐसे में एआई के इस्तेमाल से अगर शिक्षकों का किसी तरह का थोड़ा-बहुत विकल्प बन सकता है, तो वह बच्चों को एक बेहतर शिक्षा दे सकेगा। इससे सरकारी स्कूलों तक डिजिटल मॉनिटर, और क्लासरूम का एक नया ढांचा खड़ा हो सकता है जो कि अधिक उत्पादक रहेगा, और अलग-अलग क्लास के बच्चे अलग-अलग पीरियड में ऐसे लेक्चर हॉल में बैठकर बड़ी स्क्रीन पर कुछ विषयों को बेहतर पढ़-समझ सकेंगे।
देश के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवेगौड़ा (अभी जीवित) के सांसद पोते, प्रजवल रेवन्ना को कर्नाटक की एक जिला अदालत ने एक महिला के साथ बलात्कार के मामले में गुनहगार पाया है, और जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त उसकी सजा के ऐलान का इंतजार हो रहा है। कानूनी जानकारों का कहना है कि उसे दस बरस से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। यह मामला एक महिला से किए गए बलात्कारों का है, लेकिन देश के एक भूतपूर्व और जिंदा, जीते-जी मुर्दे से गए बीते, प्रधानमंत्री के खानदान के चिराग का मामला है, उनकी पार्टी के सांसद का मामला है, और बरसों से हवा में ये आरोप तैर रहे थे, पेनड्राइव पर ऐसी हजारों वीडियो क्लिप तैर रही थीं जिनमें यह कुलकलंक महिलाओं से बलात्कार भी कर रहा था, और उसके वीडियो भी बना रहा था। महिलाएं रो भी रही थीं, और ऐसे आरोपों को, ऐसे वीडियो को खारिज करते हुए भारत का यह जिंदा, मुर्दा-पीएम हँसते-खिलखिलाते उसके लिए चुनाव प्रचार भी कर रहा था। भारत के किसी राजनीतिक परिवार में ऐसा चिराग और याद नहीं पड़ता जिसका मुर्दे सरीखा दादा भूतपूर्व प्रधानमंत्री के तमगे को कलंकित करता हुआ जिंदा था, और यह चिराग अपने कुनबे, घरेलू पार्टी, और सहयोगी दल, सब पर कालिख पोतता हुआ अंधेरा फैला रहा था। यह पूरा मामला शुरू से ही पुख्ता दिख रहा था, हमने अपने अखबार में इसी जगह पर, और अपने यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर कई बार मुर्दे से भी अधिक मुर्दा देवेगौड़ा के बारे में लिखा और कहा था, अब जाकर पहली अदालत से पहले मामले में सजा हो रही है, और इस कुनबे की राजनीतिक और आर्थिक ताकत के चलते आगे की अदालती कार्रवाई के भविष्य पर कम संदेह नहीं होता है।
इस मामले में आज लिखने की जरूरत इसलिए भी लग रही है कि यह मामला एक बलात्कारी को कुनबे से मिले हुए साथ का मामला है। प्रजवल रेवन्ना और उसके बाप एच.डी.रेवन्ना अपने बाप एच.डी.देवेगौड़ा की पार्टी से कर्नाटक में विधायक है, और इस विधायक कपूत का छोटा भाई एच.डी.कुमारस्वामी अपनी पार्टी की तरफ से कर्नाटक का मुख्यमंत्री रह चुका है। इस परिवार की एक घरेलू कामगार ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई कि प्रजवल रेवन्ना और उसके बाप एच.डी.रेवन्ना ने बार-बार उसके साथ बलात्कार किया, वीडियो बनाए, धमकियां दीं। अभी अदालत में जिस बेटे को सजा हो रही उसका बाप, और भूतपूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का बेटा भी अपने बेटे के साथ बलात्कारी था, ऐसी रिपोर्ट लिखाई गई हैं। प्रजवल की मां भवानी रेवन्ना के बारे में अदालत में जांच एजेंसी ने बताया है कि उसने शिकायतकर्ता महिला को अगुवा कराने की साजिश रची थी, और कम से कम सात पीडि़त महिलाओं से संपर्क करके उन्हें रोकने की कोशिश की थी कि वे शिकायत न करें। भवानी और उसके ड्राइवर ने ये वीडियो देख-देखकर इन महिलाओं को डराया, और बुरे नतीजों की धमकी दी। ड्राइवर ने अदालती गवाही में बताया कि प्रजवल की मां और परिवार के बाकी लोगों को ऐसे बलात्कार और वीडियो के बारे में सब मालूम था। लेकिन राजनीतिक ताकत से इस कुनबे ने मीडिया में इन खबरों के आने के खिलाफ अदालती रोक हासिल कर ली थी, और कर्नाटक पर इनके बाप का राज था ही। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जब इस पूरे मामले का भांडा फूट चुका था, तब भी देवेगौड़ा अपनी गठबंधन सहयोगी भाजपा के साथ थे, और अपने कुलकलंक का प्रचार कर रहे थे।
हम इस पूरे मुजरिम परिवार की करतूतों पर और अधिक खुलासा यहां करना नहीं चाहते क्योंकि यह पूरा पेज उससे भर जाएगा। लेकिन हम यह बात जरूर करना चाहते हैं कि जब एक सत्तारूढ़ कुनबापरस्त पार्टी अपने परिवार के बलात्कारियों को बचाने के लिए उतारू हो जाती है, तो इस ताकत के बलात्कार की शिकार महिलाओं का क्या हाल होता है। यह तो आज कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, वरना भाजपा-देवेगौड़ा की सरकार रहती, तो भला इस बलात्कारी का कुछ बिगड़ा होता? ऐसे कुनबे, ऐसी पार्टियां, और ऐसी सत्ता मिलकर सौ-दो सौ महिलाओं से बलात्कार नहीं कर रही हैं, ये पूरे भारतीय लोकतंत्र से बलात्कार कर रही हैं। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लंबे समय से यह बात उठाते आ रहे हैं कि जब कभी एक तूफान एक दीये पर जुल्म करे, तो उस पर तूफान को सजा आम हवा के झोंके से कई गुना अधिक होनी चाहिए क्योंकि दीये के पास उतनी ताकत से बचने का कोई जरिया नहीं रहता। जब कभी सत्ता, जाति, ओहदे, संपन्नता, या शोहरत की ताकत से कोई किसी कमजोर का शोषण करे, तो उस पर सजा आम कानून से अधिक होनी चाहिए, और इसके लिए दोगुनी, या चारगुनी सजा का प्रावधान होना चाहिए। इस मामले में भी इस कुलकलंक को न्यूनतम दस बरस से अधिकतम उम्रकैद के बीच अगर सजा होनी है, तो वह अधिकतम ही होनी चाहिए, क्योंकि अपने मां-बाप, चाचा-दादा, इन सबकी तमाम ताकत से यह बलात्कारी कमजोर और आम महिलाओं के साथ धारावाहिक बलात्कार करते आ रहा था, न तो किसी पार्टी को इनके साथ गठबंधन में दिक्कत थी, न ही किसी नेता को इन खबरों के आ जाने के बाद भी इनका प्रचार करने में दिक्कत थी। मानो पूरे का पूरा लोकतंत्र ही कमजोर महिलाओं से बलात्कार के लिए एक हो गया था। यह सिलसिला सिर्फ कर्नाटक के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए शर्मिंदगी का है कि इस देश में ऐसे लोगों से भी राजनीतिक रिश्ते बनते हैं, और ऐसे लोग सत्ता की बददिमागी, और बदन की हवस को इस हद तक ले जाते हैं।
मालेगांव ब्लास्ट नाम के बड़े चर्चित मामले में भाजपा सांसद रह चुकीं साध्वी प्रज्ञा सहित सभी अभियुक्त बरी कर दिए गए हैं। इसकी सुनवाई कर रहे विशेष एनआईए कोर्ट ने जिन सभी सात अभियुक्तों को बरी किया है उनमें थलसेना के लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित भी शामिल थे। इनके अलावा सारे के सारे आरोपी हिंदू होने की वजह से, और यह विस्फोट एक मस्जिद के पास होने से यह मामला हिंदू-मुस्लिम तनातनी और खींचतान का बना हुआ था। कोर्ट ने यह माना कि अभियुक्तों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त कानूनी आधार नहीं है। सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया है। इस मामले में मारे गए लोगों में और मुस्लिमों के अलावा दस बरस की मुस्लिम बच्ची भी थी। और चर्चित बात यह थी कि महाराष्ट्र के प्रमुख और मशहूर पुलिस अफसर हेमंत करकरे ने इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण सुबूत दिए थे। लोगों को शायद याद होगा कि इसे लेकर साध्वी प्रज्ञा ने करकरे को श्राप भी दिया था। हेमंत करकरे मुंबई एटीएस के प्रमुख थे और साल 2008 में मुंबई पर हुए हमलों के दौरान उनकी मौत हो गई थी। बहादुरी के लिए साल 2009 में उन्हें अशोक चक्र दिया गया था। मालेगांव ब्लास्ट की शुरूआती जांच महाराष्ट्र एटीएस ने की थी, और बाद में इस मामले की जांच एनआईए ने अपने हाथ में ले ली थी। इसके बाद कई आरोप वापिस ले लिए गए थे और एनआईए ने कहा था कि महाराष्ट्र एटीएस ने जांच में खामियां की थीं। इस घटना के बाद भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को 2019 में भोपाल से लोकसभा का टिकट दिया था और वे जीत गईं थीं। इसके पहले 20 बरस से भाजपा यह सीट लगातार जीतते आ रही थी। आज भाजपा प्रवक्ताओं ने अदालत के इस फैसले पर खुशी जाहिर की और कहा कि कांग्रेस पार्टी इतने बरस तक इस मामले को भगवा आतंकवाद करार देती रही, आज कांग्रेस की साजिश उजागर हुई है, और सभी लोग इस मामले में बरी हुए हैं।
दिलचस्प बात यह है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक दूसरे मामले में 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों के मामले में गिरफ्तार तमाम 12 अभियुक्तों को पिछले हफ्ते ही बरी किया है। इस मामले में सारे अभियुक्त मुस्लिम समाज के थे, और बॉम्बे हाईकोर्ट ने वहां की मकोका अदालत के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी, और सात को उम्रकैद। 2006 के इस ट्रेन बम धमाकों में 187 लोग मारे गए थे, और करीब 824 जख्मी हुए थे। इनकी रिहाई के बाद महाराष्ट्र सरकार, हाईकोर्ट फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी, और इस फैसले को स्थगित करने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्थगित करने से मना कर दिया और सिर्फ इतना कहा कि अभी इस फैसले की मिसाल आतंक के दूसरे मामलों में नहीं दी जा सकेगी। राज्य सरकार ने इस फैसले को स्थगित करने की मांग की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे बस नजीर बनाने से फिलहाल रोका है। और कहा है कि हाईकोर्ट के रिहा किए गए लोगों को वापिस जेल जाने की जरूरत नहीं है।
तमिलनाडु की डीएमके सरकार की एक तिकड़म पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाते हुए यह कहा है कि वहां के एक पूर्व मंत्री वी.सेंथिल बालाजी के खिलाफ घूस लेकर नौकरी देने के एक मामले में सरकार ने जिस तरह से कथित रिश्वत देने वाले दो हजार लोगों को आरोपी बना दिया है, और पांच सौ गवाह जोड़ दिए हैं, वह राज्य सरकार की बदनीयत बताता है। अदालत ने कहा कि ऐसे में तो इस मामले की सुनवाई के लिए एक स्टेडियम की जरूरत पड़ेगी। पिछले दो दिनों से सुप्रीम कोर्ट इस मामले में राज्य सरकार को फटकार लगा रहा है और कह रहा है कि वह एक ऐसी नौबत खड़ी कर रही है कि जिस पूर्व मंत्री के खिलाफ घूस लेने के आरोप हैं, उस मंत्री की पूरी जिंदगी तक यह मामला चलता ही रहे, कहीं किनारे न पहुंच जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह सिर्फ एक तकनीकी बात है कि रिश्वत देने वालों ने भी अपराध किया है, लेकिन उन पर मुकदमा चलाने से मुख्य अभियुक्त तो बच ही जाएगा, क्योंकि मामले का कभी फैसला ही नहीं हो सकेगा। अदालत ने कहा कि मुख्य अभियुक्त एक ताकतवर राजनेता है, और उनके भाई, निजी सहायक, और आसपास के कुछ लोग जिन्होंने नौकरी के लिए पैसे वसूले थे उतने लोगों को ही मुख्य अभियुक्त मानना चाहिए।
लोकतंत्र में पुलिस राज्य सरकारों के हाथ रहती है, और वही पहली जांच एजेंसी रहती है। देश की बाकी तमाम जांच एजेंसियों की बारी पुलिस के बाद ही आती है, सरकारें तय करती हैं कि किसी मामले को आर्थिक अपराध जांच ब्यूरो को देना है, या सीबीआई को देना है, या केन्द्र सरकार की जांच एजेंसी ईडी किसी दूसरी पुलिस या एजेंसी की एफआईआर पर काम शुरू करती है, एक पुरानी एफआईआर पर नया केस दर्ज कर लेती है। लेकिन भारत के संघीय ढांचे में पहला जुर्म दर्ज करना, पहली एफआईआर, पहली जांच, यह सब कुछ राज्य सरकार के तहत आता है। और देश में राजनीतिक कटुता धीरे-धीरे इतनी जहरीली हो गई है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी के मातहत काम करने वाली, अक्सर भ्रष्ट, और बहुत से मामलों में सत्ता के रूझान से साम्प्रदायिक हो चुकी पुलिस पहला जुर्म दर्ज करती है, पहली कार्रवाई करती है, और उसके खिलाफ सुनवाई में, राहत पाने में, कई महीनों से लेकर कई बरस तक लग जाते हैं। कुछ मामलों में तो हमने देखा हुआ है कि बिना सुनवाई पांच-छह बरस तक लोग जेलों में बंद हैं, यानी ऐसे मामलों में प्रक्रिया ही पनिशमेंट हो गई है।
राज्य सरकारों की पुलिस और एफआईआर की असीमित ताकत का इस्तेमाल हम अलग-अलग कई पार्टियों की राज्य सरकारों के तहत देख चुके हैं। किस तरह एक कार्टून, या एक सोशल मीडिया पोस्ट पर महीनों तक जेल में ठूंस दिया जाता है, कार्टूनिस्ट पर राजद्रोह का मुकदमा चलने लगता है। एक तरफ साम्प्रदायिक नफरत का झंडा लहराते चारों तरफ नारे लगाते लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता, क्योंकि उनके राज्य की सत्ता और पुलिस उनकी हिमायती हैं, और दूसरी तरफ एक व्यंग्य लेख या कि एक कार्टून सुप्रीम कोर्ट तक जमानत नहीं पाने देता। अब तो देश की बड़ी अदालतों में भी कुछ ऐसी हो गई हैं कि वे लोगों को राजनीतिक पैमानों पर राष्ट्रवादी देशभक्ति सिखाने लगी हैं, यह भी सिखाने लगी हैं कि कौन से मुद्दे देशभक्ति के हैं, और कौन से नहीं। जब राज्य सरकारों का संवैधानिक शपथ से परे का रूख, असहमति के खिलाफ उनका हमलावर तेवर, और ठकुरसुहाती में लगी हुई भ्रष्ट पुलिस का मेल हो जाता है, अदालतें राष्ट्रवाद से अपनी प्रतिबद्धता दिखाने पर उतारू हो जाती हैं, तो फिर वैचारिक विविधता के सांस लेने लायक हवा ही नहीं बचती। यह नौबत खतरनाक इसलिए है कि कब किस राज्य में किसकी सरकार रहे, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है, और भारत जैसे अक्खड़ और अधकचरे हो चले लोकतंत्र में गौरवशाली परंपराओं को मानने का सिलसिला भी खत्म हो चला है, और ऐसे में सिर्फ बुरी मिसालें सत्ता के फैसलों की जमीन बन जाती हैं। यह नौबत लोकतंत्र में परस्पर सम्मान की एक बुनियादी जरूरत को खत्म कर रही है। यह सिलसिला खतरनाक है, और यह आगे कहां तक जाएगा इसका ठिकाना नहीं है। हम अलग-अलग कई प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियों की राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर कई हिंसक और साम्प्रदायिक संगठनों की परले दर्जे की सार्वजनिक हिंसा को देखकर हैरान हैं कि उनके वीडियो सुबूत रहने पर भी उनके खिलाफ कार्रवाई इसलिए नहीं होती है कि उनकी राजनीतिक, धार्मिक, या साम्प्रदायिक सोच सत्ता को माकूल बैठती है। यह सिर्फ गुंडों की किसी फौज को संरक्षण देने जितना मामला नहीं है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अंत का आरंभ भी है।
अभी एक बड़ी नामी-गिरामी हिन्दी साहित्य पत्रिका का एक जलसा हो रहा है जिसमें मंच पर कई तरह के लोगों को बुलाया गया है। एक बार कार्यक्रम की जानकारी उजागर हुई, तो पत्रिका के आयोजकों से लोगों ने शिकायत की कि आमंत्रित वक्ताओं में कम से कम एक नाम तो ऐसा भी है जिस पर महिलाओं के शोषण की शिकायतें हैं, और मामला भी चल रहा है। महिलाओं के हक की इस नवजागरूकता के चलते हुए अभी कुछ हफ्ते पहले ही एक और आयोजन में एक महिला से बदसलूकी करने वाले बड़े नामी-गिरामी साहित्यकार को शायद एक माफीनामा लिखवाकर वहां से चलता किया गया था। कार्यक्रम से तो बिदा कर दिया गया था, लेकिन बाद में बहुत से लोगों ने यह सवाल उठाया कि यह आदमी तो पहले से ही महिलाओं के बारे में बड़ी बुरी बदजुबानी करने के लिए सार्वजनिक रूप से जाना जाता था, उसके बाद किस तरह इस साहित्य आयोजन में कुछ हफ्ते रहकर साहित्य रचना करने के लिए इसे छांटा गया था? पहले की शोहरत तो सोशल मीडिया पर सामने थी ही, उसके बावजूद निर्णायकों ने इस, और ऐसे व्यक्ति को भला कैसे छांटा? फेसबुक पर इस पिछली घटना को लेकर काफी लाठियां चलीं, और साहित्यकार जब एक-दूसरे को काटने दौड़ते हैं, तो उनके पेन की जंग लगी और सूखी निब भी चलने लगती है, उंगलियों के जोड़ों में गठिया का दर्द हो, तो भी की-बोर्ड खटखटाने लगता है। लेकिन उस आयोजन से इतना तो हुआ था कि लोगों को समझ आ गया कि महिलाओं के मामले में किसी भी तरह से बदनाम मर्द को कुछ दूर ही रखने में सर्फ की खरीददारी की तरह समझदारी है।
अब इस साहित्यिक पत्रिका का यह मामला फिर एक सवाल को उठा रहा है कि क्या अपने आपको एक संवेदनशील विधा कहने वाले साहित्य को भी अपने अतिथियों के महिलाविरोधी, या कि महिलाओं के खिलाफ हिंसक होने जैसी बातों को अनदेखा करना चाहिए? जिस महिला को इस बार के आमंत्रित एक वक्ता ने प्रताडि़त किया बताया जाता है, उसने तो अदालत में इसके खिलाफ मुकदमा कर रखा है, और भी दूसरी लड़कियों या महिलाओं की इस तरह की शिकायतें हैं। कहने के लिए लोग यह भी कह सकते हैं कि प्राकृतिक न्याय तो यही होगा कि जब तक किसी के खिलाफ आरोप साबित न हो जाएं तब तक उन्हें बेकसूर माना जाए। लेकिन हमारा मानना है कि इस तर्क का विस्तार यहां तक हो सकता है कि जिला अदालत से सजा को आखिरी सजा कैसे मान लिया जाए, जबकि अभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट बाकी ही हैं? कहने का मतलब यह कि हम किसी के वोट देने के हक को छीनने की बात नहीं कर रहे, हम महज यह कह रहे हैं कि किसी कार्यक्रम में किसे अतिथि बनाया जाए, किसे वक्ता बनाया जाए, यह तो किसी संस्था या निर्णायक मंडल के विवेक की बात रहती है, और वहां पर वे इस तरह के बदनाम लोगों को छोड़ सकते हैं। 140 करोड़ आबादी वाले इस देश में वैसे तो हर नागरिक का हक बराबरी का है, लेकिन कितने लोगों को मंच पर जगह दी जा सकती है? इसलिए जो लोग निर्विवाद रहते हैं, सिर्फ उन्हीं को सम्मान की जगह पर बिठाना चाहिए, वरना उनकी बदनामी की वजह, उनके जुर्म की शिकार जो महिलाएं हैं, या दूसरे लोग हैं, उन लोगों के साथ यह सामाजिक नाइंसाफी होगी।
इन दोनों विवादों से अब यह बात तो साफ होती है कि आने वाले वक्त में कार्यक्रमों के आयोजकों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि उनके किसी अतिथि या वक्ता की वजह से कार्यक्रम के बीच में नारेबाजी शुरू हो सकती है। एक वक्त टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साईसेंज के एक कार्यक्रम में एक बड़े नामी-गिरामी फिल्मी गीतकार को बुलाया गया था। जैसे ही छात्रों को यह पता लगा, उन्होंने क्लासरूम के ब्लैकबोर्ड इस बात से भर दिए कि इस गीतकार पर तो महिलाओं के शोषण के मी-टू के आरोप लगे थे, और इसे किस नैतिक आधार पर यहां बुलाया जा रहा है? विरोध इतना हुआ कि उसे बुलाना रद्द कर दिया गया, कार्यक्रम ही रद्द हो गया। वह कार्यक्रम भी तय तारीख के एक दिन पहले ही रद्द किया गया था, और इस बार इस प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के कार्यक्रम के पहले भी ऐसा ही मुद्दा बन रहा है। आयोजकों में कुछ महिलाएं भी हैं, और यह उनके विवेक पर, और नैतिकता के उनके पैमानों पर भी निर्भर करता है कि वे इन शिकायतों के आधार पर अपने एक मेहमान को मना करने को ठीक मानते हैं या नहीं, और अगर ठीक मानते हैं तो ऐसा करने का हौसला दिखाते हैं या नहीं।
कुछ हफ्ते या महीने पहले हमने दुनिया के जानकार विशेषज्ञों के इस अंदाज पर लिखा था कि एआई का हमला महिलाओं वाले कामकाज पर पहले होगा क्योंकि वे दफ्तरों में रिसेप्शनिस्ट का, टेलीफोन ऑपरेटर का, अकाऊंटेंट का काम अधिक करती हैं, और कारखानों में मशीनों पर, ट्रकों या क्रेन को चलाने जैसे कामों में मर्द अधिक लगे रहते हैं। अब आज सुबह हमने चैटजीपीटी से सलाह मांगी कि आज अपने अखबार में संपादकीय लिखने के लिए पूरी दुनिया में सबसे जलते-सुलगते, या महत्वपूर्ण मुद्दे कौन से हैं जिन पर विचार का एक कॉलम लिखने की गुंजाइश, और जरूरत है? इसके जवाब में उसने पलक झपकते हमारे कहे मुताबिक ऐसे 25 मुद्दे, 25-25 शब्दों में लिखकर दे दिए, जो कि सचमुच ही लिखने लायक विषय हैं। अब भला किसी की मदद मिल रही है, तो उसकी जरा सी वाहवाही कर देने में क्या बुराई है? फिलहाल चैटजीपीटी से यह तय हुआ है कि हर सुबह वह 10.30 बजे हमें हमारे देश-प्रदेश से लेकर बाकी दुनिया तक के मुद्दों में से ऐसे 25 मुद्दों को 25-25 शब्दों में निकालकर देगा ताकि विषयों की विविधता पर एक नजर डाली जा सके। अब इससे एक खतरा बढ़ता है कि विषयों की विविधता तो होगी, लेकिन ऐसी विविधता किसी एक अखबार की खबरों में नहीं होगी, दुनिया के सबसे अच्छे टीवी चैनलों पर भी शायद नहीं होगी, और वेबसाइटों पर भी नहीं होगी। इस तरह चैटजीपीटी के पास यह ताकत रहेगी कि जिस दिन हम उससे कोई विषय सुझाने कहें, वह अपनी पसंद के विषय सुझा सकता है, या सकती है। लोगों को याद ही होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही एलन मस्क के एआई औजार, ग्रोक ने जिस तरह हिटलर की तारीफ की थी, और नस्लभेदी जनसंहार को सही ठहराया था, उससे दुनिया हक्का-बक्का रह गई थी। हम तो अपने अखबार के लिए कुछ लिखते हुए, कुछ गढ़ते हुए इन नए औजारों का प्रयोग सीख रहे हैं, और शुरूआती प्रयोग कर रहे हैं। आज के चैटजीपीटी के सुझाए 25 विषय इस अखबार के संपादक ने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट भी किए हैं।
इन विषयों में से एक विषय पर हम पहले भी लिख चुके हैं, और जो हमारी फिक्र की फेहरिस्त में ऊपर रहने वाला एक मुद्दा है। जिस तरह कुदरत ने बदन बनाते हुए महिला के लिए पुरूष के मुकाबले अधिक दिक्कतें खड़ी की हैं, और दुनिया भर में हर देश के समाज ने, हर धर्म और जाति ने महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा है, उसी मुताबिक एआई का पहला हमला महिला कर्मचारियों पर होने वाला है क्योंकि उसकी क्षमता महिलाओं के आज किए जा रहे कामकाज का विकल्प बनने की अधिक है। आज सरकारी और निजी दफ्तरोंं में, कारोबार और कारखानों में महिलाओं के किए जा रहे काम को छीन लेना एआई के लिए अधिक आसान रहेगा। ये काम डेस्क पर, कम्प्यूटर और टेलीफोन पर, सोशल मीडिया खातों पर, अकाऊंट और खतो-किताबत के काम के अधिक हैं, जिनमें महिलाओं का अनुपात अधिक है, और एआई ने बड़ी संख्या में ये नौकरियां खाना शुरू कर दिया है। एआई के लिए रात और दिन का फर्क नहीं है, जो कि महिला कामगारों के साथ कई बार जुड़ा रहता है, उसे गर्भधारण और बच्चे पालने की छुट्टी नहीं लगती, जो कि महिलाओं को लगती है, और बिना बहुत अधिक शारीरिक ताकत वाले कामों में भी महिलाएं अधिक रहती हैं, और वे काम एआई छीन रहा है।
अभी कुछ अरसा पहले हमने कुछ एआई मॉडल्स से यह समझने की कोशिश की थी कि उनके अपने पूर्वाग्रह, उनकी अपनी सोच क्या है? वे औरत हैं, या मर्द हैं, वे आस्तिक हैं या नास्तिक, वे किस राष्ट्रीयता या धर्म के हैं, किस पेशे के हैं, उनके मूल्य क्या हैं? इन सबके जवाब में चैटजीपीटी का कहना था कि उसकी ट्रेनिंग जिन सामग्रियों से हुई है, उसकी सोच उन्हीं से प्रभावित है। अगर उसने पुरूषों के लिखे हुए को अधिक पढक़र अपनी समझ विकसित की है, तो उसका नजरिया कुछ पुरूष सरीखा हो सकता है। कुछ दूसरे एआई विशेषज्ञों का भी यह कहना है कि अगर उसकी मशीन-लर्निंग में इस्तेमाल सामग्री में किसी धर्म का अधिक विरोध है, किसी जेंडर का अधिक विरोध है, तो वह उसके पूर्वाग्रहों में झलकते चलेगा, और उसकी सुझाई हुई बातें, दिए हुए निष्कर्ष उससे प्रभावित रहेंगे। इसी तरह चूंकि एआई की ट्रेनिंग में पुरूषों का लिखा हुआ अधिक है, पुरूष सरकार से लेकर कारोबार तक अधिकतर जगहों पर लीडरशिप की भूमिका में है, और महिलाएं आमतौर पर उनके सहायक की भूमिका में है, इसलिए एआई से अगर नौकरियां कम करने की सलाह मांगी जाएगी, तो वह सहायकों की नौकरियां पहले खाएगा, लीडरों की बाद में। और यह भी एक वजह है कि आज जब दुनिया भर के कारोबार एआई के पास एक जादुई छड़ी होने की उम्मीद कर रहे हैं जिससे कि उनकी कंपनी का मुनाफा बढ़ जाएगा, तब एआई ऐसा करिश्मा दिखाने के लिए पहला हमला उन्हीं नौकरियों और रोजगार पर करेगा जिसमें आज आमतौर पर महिलाएं लगी हुई हैं, और जिन कामों को आसानी से कम्प्यूटरों के हवाले किया जा सकता है। दुनिया में आज वैसे भी कामकाज के लायक महिलाओं में महिलाओं की भागीदारी 47 फीसदी है, और ऐसी ही काबिलीयत के पुरूषों में कामकाजी की भागीदारी 72 फीसदी है। कुल वर्कफोर्स में देखें तो महिलाएं 39-40 फीसदी हैं, और पुरूष 60-61 फीसदी।
छत्तीसगढ़ के बालोद में नासिक के विख्यात त्र्यंबकेश्वर मंदिर की तरह का एक विशाल मंदिर बनकर तैयार हुआ है जिसे पड़ोस के धमतरी जिले के रहने वाले एक व्यक्ति ने खेत बेच-बेचकर तीन करोड़ रूपए से बनवाया है। पिछले 21 बरस में यह 80 फीट की ऊंचाई का विशाल मंदिर बना है, और अगले बरस की शिवरात्रि तक सारी प्रतिमाएं आकर इसमें प्राण-प्रतिष्ठा की बात इसे बनवाने वाले ने कही है। दिलचस्प बात यह है कि इतने बड़े मंदिर का निर्माण बिना किसी नक्शे या डिजाइन के हुआ है, और न ही इसमें कोई आर्किटेक्ट या इंजीनियर रहे हैं। दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 2004 से धमतरी के एक व्यक्ति ने इसे दो मिस्त्री, और गांव के कुछ मजदूरों को लेकर बनाना शुरू किया, और अब यह 8 मंजिला इमारत जितनी ऊंचाई का बड़ा सा मंदिर बना है।
अखबार की रिपोर्ट में इस बात पर कोई हैरानी जाहिर नहीं की गई है कि अगर इसकी कोई डिजाइन नहीं थी, कोई इंजीनियर नहीं था, तो फिर इसे किसी सरकारी विभाग से इजाजत भी नहीं मिली होगी। अब नासिक के विख्यात मंदिर की इस प्रतिकृति को देखने के लिए, और धार्मिक भावना से पूजा-पाठ के लिए जाहिर है कि यहां त्यौहारों पर, और खासकर सावन में, शिवरात्रि पर हजारों लोग जुटेंगे। उस वक्त इतनी भीड़ के बीच यह ढांचा कितना मजबूत रहेगा, इसकी जवाबदेही किस पर रहेगी? यह तो किसी धर्मालु के लिए बड़ी अच्छी बात है कि वह अपने खेत बेचकर मंदिर बनवाए, या कोई और उपासना स्थल बनवाए। आमतौर पर तो धार्मिक काम बताकर लोग चंदा इकट्ठा करते हैं, और कई जगहों पर उस रकम में अफरा-तफरी हो जाती है। ऐसे में अपने खेत बेचकर मंदिर बनवाना एक नैतिक ईमानदारी है, लेकिन सवाल सार्वजनिक सुरक्षा का है। और यह हमारी तरह दूर बैठे हुए लोगों की सुरक्षा की बात नहीं है, यह इस मंदिर को मानने वाले धर्मालुओं की सुरक्षा की बात है, और हमारी इस बात को आलोचना की तरह न मानकर एक चेतावनी या सलाह की तरह मानना चाहिए कि धर्मालुओं की भीड़ जहां लगनी है, वहां 8 मंजिला इमारत जितना ऊंचा मंदिर का विशाल ढांचा बिना डिजाइन, बिना इंजीनियर, बिना इजाजत बना लेना कितनी समझदारी और जिम्मेदारी की बात है?
धर्म से जुड़े हुए जितने निर्माण होते हैं, उनमें से अधिकतर अवैध कब्जे की जमीन पर होते हैं, और इसीलिए बिना किसी सरकारी इजाजत के भी होते हैं। चूंकि कोई नक्शा दाखिल ही नहीं करना है, इसलिए कोई भी मिस्त्री या ठेकेदार अपने अनुभव से ऐसे ढांचे बना देते हैं, और वे खासे अरसे बिना हादसे के चल भी जाते हैं। लेकिन ऐसे मामलों में सरकार की जिम्मेदारी क्या बनती है? हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे हुए अमलेश्वर में नदी के किनारे उसकी चौड़ाई में ही कई मंजिला एक धार्मिक इमारत बनते देखते आए हैं। यह पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का चुनाव क्षेत्र भी है, और वे पूरे पांच बरस इस निर्माण को देखते हुए ही आते-जाते रहे होंगे। यह शायद उनकी विधानसभा सीट का एकदम सडक़ किनारे का सबसे बड़ा धार्मिक निर्माण भी रहा होगा, और हमारा पूरा अंदाज है कि नदी से लगकर, सडक़ से लगकर इतने बड़े निर्माण की इजाजत नहीं मिल सकती थी। यह हाल देश के अधिकतर प्रदेशों में है, और किसी धर्म के अवैध निर्माण को छूने का हौसला किसी सरकार में नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट बार-बार यह बात कह चुका है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर कोई धार्मिक अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, लेकिन हमने एक भी धार्मिक अवैध निर्माण को हटाया जाता नहीं देखा है।
कोई छोटे-मोटे धार्मिक अवैध निर्माण हों तो समझ आता है, लेकिन जब करोड़ों रूपए लगाकर 80 फीट ऊंचा मंदिर बनाया जा रहा है, तो क्या उस जिले के कलेक्टरों को इन 21 बरसों में यह नहीं दिखा कि ऐसा निर्माण जब भक्तों से भरेगा, तो उनकी हिफाजत की गारंटी किसकी रहेगी? शायद ही किसी धर्म का कोई ऐसा उपासना स्थल हो जिसका कोई नक्शा पास होता हो। जो सौ-दो सौ बरस, या और अधिक पुराने धर्मस्थान हैं, उनके बनते समय तो म्युनिसिपलों के नियम नहीं रहे होंगे, लेकिन अभी तो पिछले सौ-पचास बरसों से ये नियम चले आ रहे हैं, और ये जनता की हिफाजत के लिए है। किसी भगदड़ के बात मौतों की न्यायिक जांच करवाने से जिंदगियां नहीं लौटतीं। फिर किसी एक धर्म का अवैध निर्माण दूसरे धर्मों के अवैध निर्माणों को भी बढ़ावा देता है, और अपने धर्म के भीतर भी कुछ दूसरे उत्साही दानदाता पहले वाले से बढक़र कुछ बनाने में लग जाते हैं। ऐसा सार्वजनिक मुकाबला एक खतरे के बाद दूसरा खतरा खड़ा करता है।
अमरीका को लेकर वैसे तो पूरी दुनिया फिक्रमंद है कि एक सनकी-तानाशाह की मनमानी किस देश को, कहां के नागरिकों को, किन उद्योग-व्यापारों को कहां ले जाकर पटकेगी, लेकिन जैसे-जैसे एक-एक जानकारी में इजाफा होता है, भारत जैसे देश में समझदार लोगों को निराशा बढ़ती जा रही है, समझदार लोगों को। बाकी लोगों के लिए अभी ट्रम्प के हित में हवन करने के लिए पर्याप्त हवन सामग्री बची हुई है, और उसकी तस्वीरें भी। आज लोगों को ट्रम्प नाम की इस महामारी से होने वाले पूरे नुकसान का अंदाज नहीं बैठ रहा है, लेकिन एक भी दिन ऐसा नहीं गुजर रहा है जब भारत का नुकसान बढ़ न रहा हो। अमरीका के आंकड़ों को देखें, तो अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के काम संभालते ही इस बरस अमरीका में भारतीयों के एफ-1 वीजा की संख्या 27 फीसदी गिर गई क्योंकि अब ट्रम्प वहां पढऩे आने वाले छात्रों के सोशल मीडिया खातों की जासूसी को अनिवार्य कर चुका है, और वीजा नीतियों को कड़ा कर चुका है। इसके साथ-साथ वह अमरीकी विश्वविद्यालयों पर सौ किस्म की रोक भी लगा चुका है जिसकी वजह से वहां अब विदेशी छात्रों की गुंजाइश घट गई है। अब भारतीय छात्रों की वीजा अर्जियां रद्द होना बढ़ गया है। नतीजा साफ है कि आने वाले बरसों में अमरीका में पढक़र तैयार हुए भारतीय नौजवानों की संख्या घट जाएगी, और वहां काम पाने वाले भारतीय छात्र भी इसी अनुपात में घट जाएंगे। यह बात भी तमाम लोग समझते हैं कि भारत से गए हुए जो लोग अमरीका में काम करते हैं, या पढऩे के बाद कोई काम पाते हैं, वे अपनी बचत का कुछ हिस्सा भारत में निवेश करते हैं, या परिवार के लिए भेजते हैं, और यह रकम छोटी नहीं होती है। अब ट्रम्प की मेहरबानी से इसमें खासी गिरावट आने का खतरा है। अभी तक के जितने आंकड़े हमारे सामने है, वे ट्रम्प के इस कार्यकाल में कम से कम एक चौथाई गिरावट के हैं। एक अंदाज बताता है कि ट्रम्प के चार बरस पूरे होने तक अमरीका में भारतीय छात्रों और कामगारों की गिनती आधी रह सकती है। और इस अनुपात से परे भी यह समझना जरूरी है कि अभी हर बरस भारत से साढ़े सात लाख के करीब लोग अमरीका पहुंचते रहे हैं, इसलिए इनकी गिनती में आधी गिरावट भारत के लिए कई लाख होगी। फिर ट्रम्प की यह चेतावनी अनदेखी नहीं करनी चाहिए जिसमें उसने दो दिन पहले ही अमरीका की बड़ी टेक कंपनियों को एक सम्मेलन में कहा है कि वे भारत और चीन से कर्मचारियों को न लें, और निर्माण भी विदेश में न करें। उसने कहा कि इन टेक कंपनियों ने अमरीकी आजादी का फायदा उठाया, और भारत और चीन को अपना उत्पादन केन्द्र बना लिया। अब समय अमेरिका फस्र्ट का है। ट्रम्प ने कुछ अरसा पहले एप्पल कंपनी को चेतावनी दी थी कि उसे भारत में आईफोन का उत्पादन बंद करना चाहिए, और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उस पर 25 फीसदी टैरिफ लगेगा। ट्रम्प की इस नई चेतावनी के बाद अगर अमरीकी टेक कंपनियां भारत में कर्मचारी रखना बंद करती हैं, तो इससे यहां पर उनके लिए काम करने वाले करीब 50 लाख लोगों की गिनती घटेगी, और इसमें पांच-दस फीसदी गिरावट आ सकती है। ऐसे नुकसान के अनुमान की बड़ी लंबी लिस्ट है, और उसे और अधिक विस्तार से गिनाने पर आज का यह पूरा कॉलम ही खत्म हो जाएगा।
भारत के सफल या महत्वाकांक्षी लोगों के लिए अमरीका में पढऩा, वहां काम करना, और वहां बस जाना एक बहुत बड़ा सपना रहता है। भारत के लोगों की पहली पसंद अमरीका रहते आई है। लेकिन अब ट्रम्प ने जो आक्रामक राष्ट्रवाद अमरीका पर लादा है, उसके चलते दूसरे देशों से वहां पहुंचने वाले लोगों को खुदकुशी की हद तक नकार दिया जा रहा है, उन प्रवासी-कामगारों की खुदकुशी नहीं, अमरीकी-अर्थव्यवस्था की खुदकुशी। लेकिन एक बिफरे हुए साँड को तर्कों की जरूरत नहीं रहती है, आज ट्रम्प ने अमरीका के दोस्तों और दुश्मनों के बीच फासला खत्म कर दिया है, उसने दिन और रात के बीच भी फासला खत्म कर दिया है, अब बाकी दुनिया को हर वक्त यह देखना पड़ता है कि आज उसकी कैसी किस्मत ट्रम्प ने लिखी है, और एक दिन पहले के लिखे भविष्यफल में क्या-क्या फेरबदल किया है। ऐसे अनिश्चित भविष्य वाली हो चुकी इस दुनिया में भारत को लेकर भी ट्रम्प की मनमानी हर किस्म से जारी है, और ट्रम्प के सामने हिन्दुस्तान बेबस दिखाई पड़ता है, तकरीबन बाकी दुनिया की तरह।
अभी मथुरा की एक टीवी रिपोर्ट में वहां की महिला वकील पुलिस से जाकर मिली हैं, और एक स्वघोषित संत अनिरुद्धाचार्य के एक बयान पर उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। इस बयान में कई तरह के तिलक, और कई तरह की कंठी से लैस यह प्रसिद्ध कथावाचक, स्वघोषित भागवताचार्य अनिरुद्धाचार्य ने मंच और माईक से एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान कैमरों के सामने कहा था कि लोग लड़कियां ले आते हैं 25 साल की, अब 25 साल की लडक़ी चार जगह मुंह मार चुकी रहती है। इस बयान को लेकर महिला वकीलों ने कई धाराओं में एफआईआर दर्ज करने की मांग की है, और मथुरा के बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और सचिव ने भी महिला वकीलों के प्रदर्शन में हिस्सा लिया है, उनका समर्थन किया है। लोगों को याद होगा कि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में कुछ अधिक सरकुलेशन में चल रहे बागेश्वर सरकार कहे जाने वाले धीरेन्द्र शास्त्री ने भी अभी कुछ महीने पहले अपने एक प्रवचन के दौरान महिलाओं के बारे में हिकारत के साथ कहा था कि जिस स्त्री की शादी हो गई है, उसकी दो पहचान होती है, पहला मांग का सिंदूर, दूसरा गले का मंगलसूत्र, जिस स्त्री की मांग में सिंदूर, और गले में मंगलसूत्र नहीं होता, उसे लोग खाली प्लाट मानते हैं, कि अभी उसकी रजिस्ट्री नहीं हुई है। अब इस नौजवान बाबा धीरेन्द्र शास्त्री की शोहरत का हाल यह है कि इसके एक कार्यक्रम में अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो पहुंचे ही, दो दिन के भीतर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी वहां उसी कार्यक्रम में पहुंचीं। महिलाओं के बारे में इसके उच्च विचार महिलाओं के बारे में धर्म के विचारों के अनुकूल ही हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित देश के तमाम बड़े नेता जिस स्वामीनारायण सम्प्रदाय के मंदिरों में देश-विदेश में जाते हैं, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे ऋषि सुनक भी भारत आकर इस सम्प्रदाय के मंदिर में गए, वहां महिलाओं के बारे में यह नियम है कि उनके प्रमुख संत के सामने कोई महिला पड़ नहीं सकती। उन्हें अलग कमरों में बैठना होता है, और वे सिर्फ स्क्रीन पर दर्शन कर सकती हैं। देश-विदेश के उनके मंदिरों में स्त्री-पुरूषों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार, अलग सभागृह, और दर्शनक्षेत्र रहते हैं। कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में यह देखने में आया है कि अगर कोई महिला भूल से मंच के पास पहुंच गई, तो मुख्य स्वामी प्रवचन छोडक़र चले जाते हैं, या उनके सामने पर्दा डाल दिया जाता है। इस सम्प्रदाय के अमरीका के एक मंदिर में जब कर्मचारियों के शोषण के मुकदमे चल रहे थे, तब वहां कई भूतपूर्व महिला अनुयायियों ने कहा था कि उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रखा जाता है। लेकिन यह सम्प्रदाय तो छोटा है, इसके मुकाबले जो बड़े सम्प्रदाय हैं, उनमें भी इस्कॉन जैसे अंतरराष्ट्रीय धार्मिक संगठन, और कई दूसरे हिन्दू सम्प्रदायों में महिलाओं के लिए कोई भूमिका नहीं है। फिर महज हिन्दुओं के बारे में क्यों कहा जाए, पोप से लेकर नीचे मुहल्ले के चर्च तक, कहीं महिलाओं को पादरी, बिशप, या कुछ भी बनने की इजाजत नहीं है, वे सेविकाओं की तरह नन बन सकती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह जैनियों में महिलाएं साध्वियां बन सकती हैं, लेकिन प्रवचन तो महाराज साहब के ही हो सकते हैं। और थोड़ा सा आगे बढक़र सिक्ख धर्म को देखें, तो गुरूनानक देव ने महिला को प्रथम पूजनीय कहा था, लेकिन व्यवहार यह हाल है कि अकाल तख्त और शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने आज तक किसी महिला को ग्रंथी या मुख्य ग्रंथी नहीं बनाया गया, या कि पंज प्यारे कहे जाने वाले अमृतधारी धर्मसेवकों के लिए भी महिलाओं को कभी नहीं चुना गया। बौद्धों में भी धर्म का अधिकतर नेतृत्व पुरूषों के हाथ में ही रहता है, और बौद्धभिक्षुणी बहुत नीचे के दर्जे पर ही जगह पाती है।
धर्म का नजरिया और मामलों में भी घनघोर महिलाविरोधी रहता है। देश-विदेश में जाने कितने धर्मों में बलात्कारी धर्मगुरू होते हैं जो कि महिला अनुयायियों सहित बाकी महिलाओं के बारे में न सिर्फ हिकारत की जुबान का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि उनका शोषण भी करते हैं। एक शंकराचार्य, अब गुजर चुके स्वरूपानंद सरस्वती ने शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विवाद के दौरान 2016 में कहा था कि शनि एक क्रूर ग्रह है, और महिलाएं इससे दूर रहें, वरना बलात्कार की घटनाएं अधिक होंगी। अभी जिस अनिरुद्धाचार्य के खिलाफ महिला वकील एफआईआर लिखाने पहुंची हैं, उन्होंने अपने एक प्रवचन में कहा था कि सीता और द्रौपदी की त्रासदी उनकी अत्यधिक सुंदरता की वजह से हुई। मतलब यह कि महिला की सुंदरता एक जुर्म हो गया! स्वामीनारायण सम्प्रदाय के एक स्वामी ज्ञानवात्सल्य ने एक कॉलेज के कार्यक्रम में कहा कि महिलाएं सामने की पांच कतारों में न बैठें, वरना वे मंच छोडक़र चले जाएंगे। मुस्लिमों के एक बड़े धार्मिक संगठन दारूल उलूम ने कई बार महिलाओं के लिए फतवे जारी किए हैं, कभी कहा कि उनको मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए, कभी कहा कि उन्हें बैंकों और मीडिया में नौकरी नहीं करनी चाहिए। मुस्लिमों के बरेलवी उलेमा कई बार कहते आए हैं कि औरतों का घर से निकलना परहेजगारी के खिलाफ है। भारत में ही कई कैथोलिक बिशपों पर ननों के यौन-शोषण के आरोप लगे हैं, और ननों के साथ उनका सुलूक देखकर दक्षिण भारत के मंदिरों की देवदासी प्रथा याद पड़ती है, जिसे बाद में गैरकानूनी करार देकर, उसके खिलाफ कानून बनाकर उसे बंद करवाया गया था।
अभी एक पत्रकार ने फेसबुक पर सडक़ों पर बैठे जानवरों के लिए आवारा पशु लिख दिया, तो बहुत से लोग उस पर टूट पड़े, और लिखने लगे कि गौमाता को आवारा पशु लिखा है। भावनाओं के ऐसे सैलाब के इस देश में अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस ने दस हजार गौवंश के गले में रेडियम कॉलर बेल्ट लगाने की मुहिम चालू की है। पुलिस ने प्रेसनोट में लिखा है कि बारिश में आवारा मवेशी अधिकतर साफ जगह की तलाश में सडक़ पर झुंड बनाकर बैठते हैं जिसके कारण दुर्घटना की आशंका रहती है। इसे ध्यान में रखते हुए पुलिस ने आवारा मवेशियों के गले में रात को चमकने वाले रेडियम कॉलर बेल्ट लगाकर हादसों को काबू करने का अभियान चालू किया है। पुलिस का कहना है कि इससे गाडिय़ों की रौशनी से दूर से ही मवेशी दिख जाएंगे, और इससे इंसानों की मौतें भी रूकेंगी, और गौवंश की रक्षा भी होगी। पुलिस के इसी प्रेसनोट में बताया गया है कि जिले में 2024 में ऐसी 19 दुर्घटनाओं में 6 लोगों (इंसानों) की मौत हुई, और दो गंभीर रूप से घायल हुए। 2025 के पहले 6 महीनों में 12 दुर्घटनाएं हुईं, 6 मौतें हुईं, और 2 लोग घायल हुए। आंकड़े बड़े दुखदायी, लेकिन दिलचस्प है। पिछले पूरे साल में जितने मरे और घायल हुए थे, ठीक उतने ही अब 6 महीनों में हो चुके हैं। अब पिछले 15 दिनों से ट्रैफिक पुलिस के अधिकारी-कर्मचारी मवेशियों के गले में रेडियम कॉलर बेल्ट बांध रहे हैं, और 1500 से अधिक मवेशियों को इसे बांधा जा चुका है।
राजधानी पुलिस की इस कार्रवाई को इस रौशनी में देखा जाना चाहिए कि अभी छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट सडक़ों पर मवेशियों को लेकर सुनवाई और नोटिस का शायद अर्धशतक पूरा कर चुका है, और ऐसा लगता है कि ये रेडियम पट्टे हाईकोर्ट में सरकारी वकील की मदद करने के लिए लगाए जा रहे हैं, इन्हें गायों के गले में कम लगाया जा रहा है, हाईकोर्ट जजों की आंखों पर अधिक लगाया जा रहा है, ताकि उन्हें हकीकत न दिखे। सच तो यह है कि आवारा मवेशी कहे जाने वाले ये जितने भी जानवर हैं, इनके कोई न कोई मालिक हैं। जो लोग अपने जानवरों को बांधकर रखने के बजाय उन्हें खाने के लिए छुट्टा छोड़ देते हैं, और चारों तरफ जमीन गीली होने की वजह से बेबसी में ये जानवर सूखी सडक़ पर आकर बैठते हैं, गाडिय़ोंतले खुद भी कुचलकर मारे जाते हैं, और ऐसे हादसों में इंसानी जिंदगियां भी जाती हैं। ऐसे में इन जानवरों को पालने और छोड़ देने वाले लोगों की गिरफ्तारी होनी चाहिए, लेकिन गिरफ्तारी होती है गाड़ी चलाने वालों की, जिनमें से कई जेल जाते हैं, और कई इस धरती को छोडक़र ऊपर चले जाते हैं।
पुलिस की बहुत सारी कार्रवाई ऐसी रहती है मानो उसे चुनाव लडऩा है। पुलिस को उसे मिले अधिकारों के तहत जहां कार्रवाई करनी चाहिए, वहां वह समाजसेवा, गौसेवा, और इंसान की सेवा करने में लग जाती है। जो लोग हेलमेट लगाकर नहीं चल रहे हैं, उन्हें पुलिस कहीं पर गुलाब भेंट करती है, कहीं पर उन्हें हेलमेट भेंट कर देती है। जिन लोगों पर जुर्माना लगना चाहिए, उन्हें मुफ्त का हेलमेट मिल रहा है। गायों के मालिकों को जेल जाना चाहिए, तो सडक़ पर गाड़ी चलाने वाले बेकसूर लोगों को ऐसे हादसों में जेल भेजा जाता है, और गौ-मालिकों को छोड़ दिया जाता है। आज हर कस्बे में एक-एक, दो-दो ऐसे गौ-मालिक गिरफ्तार हो जाएं, तो सडक़ों पर एक जानवर न दिखे, लेकिन हाईकोर्ट में अपनी सक्रियता साबित करने के लिए पुलिस रेडियम के बेल्ट पहनाते घूम रही है। हो सकता है इसके बाद पुलिस सडक़ के किनारे थानों में आवारा मवेशियों, कम से कम गौवंशियों, या गायों के लिए खाने का इंतजाम भी करते दिखेगी, ताकि जानवर सडक़ों पर न जाएं। अधिकतर थानों के पास अहाते हैं, या कम से कम जमीन हैं, या पुलिस इतनी ताकत रखती है कि किसी भी जमीन को घेरकर वहां पर किसी से जानवरों के लिए बाड़ा बनवाकर कम से कम गौवंशी जानवरों को वहां रखे, चारा खिलाए, पानी का इंतजाम करे, और हो सके तो पशु चिकित्सक को भी वहीं रख ले। पुलिस चाहे तो कई हवालातियों को गौसेवा में लगा सकती है, और थाना बहुत सारे पुण्य का भागीदार हो सकता है। अगर थानों को गौशाला में बदल दिया जाए, तो राज्य सरकार के ऊपर से गौठान या गौशाला बनाने का दबाव भी कम हो जाएगा, और पुलिस को भी स्वर्ग में अपने लिए बेहतर क्वार्टर पाने की एक राह मिल जाएगी। हाईकोर्ट के जज भी सडक़ रास्ते से आते-जाते यह देख सकते हैं कि सरकार की तरफ से पुलिस थानों में जान लगा दे रही है, गौसेवा के लिए फरार वारंटियों को पकडक़र थानों में हवालाती बनाकर उनसे काम करवा रही है। पुलिस अगर इतना करने लगेगी तो यह तय है कि सडक़ हादसे कम हो जाएंगे, यह एक अलग बात है कि बाकी जुर्म का क्या होगा। बात अभी धार्मिक भावना की है, गौसेवा की है, हाईकोर्ट की नाराजगी दूर करने की है।
फिलीस्तीन के गाजा पर इजराइली हमलों ने इस धरती पर कई तरह के मॉडल पेश किए हैं। जो धर्म को मानने वाले लोग हैं, उनके लिए गाजा आज जहन्नुम, नर्क, या ‘लिविंग हेल’ बन चुका है। और यह कहने वाले हम नहीं हैं, ये भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ, या कि योरप के दो दर्जन से अधिक देशों की है। ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा जैसे बहुत से देशों ने इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ बताया है, और कहा है कि अगर इजराइल की फौज का गाजा पर यह मानव संहार इसी तरह जारी रहा तो वे इजराइल पर प्रतिबंध लगाएंगे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने लीबिया में गाजा की स्थिति को हिटलर के नाजी यातना शिविरों जैसा कहा। और अभी इसी महीने इजराइल के एक पूर्व प्रधानमंत्री एहुद ओल्मर्ट ने कहा कि इजराइल गाजा में जिस तरह की फिलीस्तीनी बस्ती बसाने की बात कर रहा है, वह एक नस्ल के सफाए, और यातना शिविर जैसा होगा। उन्होंने कहा कि इजराइल की ऐसी योजना मानवता के खिलाफ जुर्म होगी। उन्होंने कहा कि हमास के इजराइल पर 7 अक्टूबर 2023 के हमले के बाद आत्मरक्षा के नाम पर इजराइल का जो हमला शुरू हुआ था, वह अब युद्ध अपराधों में बदल गया है। ब्राजील, अर्जेंटीना, तुर्की ने अलग-अलग शब्दों में यह कहा है कि हिटलर की आत्मा आज इजराइल में जिंदा है, और इनमें कोई फर्क नहीं है। ट्यूनिशिया के राष्ट्रपति ने कहा कि जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार के समय जिन लोगों ने यहूदियों को बचाया था, वे लोग आज गाजा में यहूदियों के वैसे ही जुर्म देख रहे हैं।
हमने पिछले कुछ महीनों से फिलीस्तीन के मुद्दे पर लिखना बंद कर रखा था। ऐसा भी नहीं कि पिछले अमरीकी राष्ट्रपति ने फिलीस्तीन के मामले में कोई रहमदिली दिखाई हो, और अब अमरीका का जल्लाद राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प कोई नई ज्यादती कर रहा हो। ट्रम्प की बकवास से परे, पिछला अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी, जितनी ट्यूब मरहम फिलीस्तीन भेजता था, हजार-हजार किलो के उतने बम इजराइल को देता था, गाजा पर गिराने के लिए। ट्रम्प तो रिपब्लिकन पार्टी का है जो कि फिलीस्तीन विरोधी, मुस्लिम विरोधी मानी जाती है, लेकिन इसके मुकाबले थोड़ी सी अधिक इंसानियत की नीतियों वाली डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन का हाल भी कोई अच्छा नहीं था। यही वजह है कि फिलीस्तीन में अब तक 60 हजार से अधिक लोग इजराइली हमलों में मारे जा चुके हैं, कुछ इजराइली विश्लेषकों और पत्रकारों का यह भी मानना है कि यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है, एक लाख तक। कुछ और जानकारों का यह मानना है कि अगर भूख और कुपोषण से मरने वाली मौतों को जोड़ लिया जाए, तो यह संख्या सवा लाख या डेढ़ लाख कितनी भी हो सकती है।
धरती के नर्क बने हुए, दुनिया का सबसे बड़ा मलबा बने हुए, और दुनिया की सबसे बड़ी कब्रगाह बने हुए फिलीस्तीन में आज भुखमरी के करीब पहुंचे बच्चे घूरों पर ढूंढ-ढूंढकर, कुछ मिल जाए तो, कुछ खा रहे हैं, लेकिन इसकी भी गुंजाइश बहुत कम रह गई है। एक पूरी नस्ल, और पूरे देश की यह हालत देखकर दुनिया के बहुत से देश आज चुप हैं, और बहुत से देश खुलकर इजराइल के साथ हैं। हिटलर ऊपर कहीं बैठा, या जमीन के नीचे कहीं दफन, इजराइल को रश्क की नजरों से देख रहा होगा कि यहूदियों को मारते हुए दुनिया का इतना समर्थन तो उसे भी नहीं मिला था। आज दुनिया की सबसे बड़ी तानाशाह-ताकत, अमरीका जिस हद तक इजराइली जनसंहार के साथ है, और संयुक्त राष्ट्र जिस हद तक बेबस है, उसे देखते हुए हमें पिछले कुछ महीनों से कुछ भी लिखना फिजूल लग रहा था। अब तो धीरे-धीरे गाजा से आने वाली खबरों को पढऩा और सुनना भी फिजूल का लग रहा है कि दुनिया के नागरिक कोई भी अधिकार और कोई भी ताकत अब नहीं रखते हैं, अमरीका और इजराइल के मिलेजुले जनसंहार को रोकने के लिए।
यह नौबत फिलीस्तीन जैसे छोटे मुल्क के खत्म हो जाने, या फिलीस्तीनियों की नस्ल के खत्म हो जाने से भी अधिक खतरनाक नौबत है। पिछली कुछ सदियों में धीरे-धीरे इस दुनिया ने सभ्यता की जितनी मंजिलें पार की थीं, अंतरराष्ट्रीय समझौते किए थे, नीतियां बनाई थीं, मानवाधिकारों की फेहरिस्त तैयार की थी, युद्ध के नियम बनाए थे, वे सब खत्म होने की शुरूआत गाजा में हो चुकी है। यह सभ्यता के अंत की शुरूआत है। इसे सिर्फ एक छोटे मुल्क का खात्मा न माना जाए, इसे पूरी दुनिया में न सिर्फ लोकतंत्र, न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय समझ, बल्कि मानवीय सभ्यता के अंत की शुरूआत भी मानना ठीक होगा जो कि कुछ सदियों के लोकतांत्रिक इतिहास के भी हजारों बरस पहले शुरू हुई है। गाजा अपने आपमें उतना बड़ा हादसा नहीं है, जितना बड़ा हादसा सभ्यता के अंत का आरंभ है। जब धरती से सभ्यता खत्म होने का सिलसिला शुरू हुआ है, तो उसके महज गाजा तक रह जाने की उम्मीद करना गलत होगा। अब डोनल्ड ट्रम्प सरीखे अमरीकी इतिहास के सबसे कमीने कारोबारी राष्ट्रपति को यह कहने का हौसला मिल चुका है कि वह पूरे के पूरे गाजा को एक रियल स्टेट प्रोजेक्ट बनाएगा, और अरब दुनिया में एक नई सैरगाह पेश करेगा। अमरीकी राष्ट्रपति को यह कहने का हौसला है कि अड़ोस-पड़ोस के देश फिलीस्तीनियों को बसाएं।
उत्तर भारत में त्यौहारों का मौसम चल रहा है। सावन शुरू होता है कि त्यौहार शुरू हो जाते हैं, एक पूरा नहीं होता है कि दूसरा आकर खड़ा हो जाता है। ऐसे में सार्वजनिक जगहों पर धर्मालुओं की भीड़ लगती है, और जैसा कि किसी भी भीड़ की मानसिकता में होता है, धर्मालु धीरे-धीरे आक्रामक और धर्मांध भी होने लगते हैं। भीड़ का बड़ा असर होता है। किसी समझदार ने जाने कितने पहले यह लिखा था कि भीड़ में सिर बहुत होते हैं, दिमाग एक भी नहीं होता। फिर हिंदुस्तान में हाल के बरसों में यह भी देखने में आया है कि भीड़ किस तरह हिंसक हो जाती है। फिर चाहे वह किसी शवयात्रा की भीड़ हो, बारात की भीड़ हो, किसी राजनीतिक रैली में जाती हुई भीड़ हो या एकसाथ सफर कर रहे सैनिक हों। भीड़ लोगों को उग्रता की तरफ ले ही जाती है। कुछ लोगों को इस लिस्ट में सैनिकों का नाम जोडऩे पर हैरानी हो सकती है, लेकिन रेलगाडिय़ों में कई बार यह देखने में आता है कि सेना या अर्धसैनिक बलों के लोग अगर बड़ी संख्या में सफर करते हैं, तो वे दूसरे मुसाफिरों से बद्सलूकी करने लगते हैं, पूरे के पूरे डिब्बे पर कब्जा कर लेते हैं, और कई मामले तो ऐसे भी हुए हैं जिसमें उन्होंने डिब्बे के बाकी मुसाफिरों को निकालकर बाहर फेंक दिया। जो लोग पूरी वर्दी में चलते हैं, जो बड़े कड़े नियमों से बंधे रहते हैं, वे भी जब भीड़ बनते हैं तो अराजक हो जाते हैं।
अब उत्तर भारत के तो ढेर सारे वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं, जिनमें कांवड़ लेकर जा रहे नौजवान तीर्थयात्रियों की टोलियां सडक़ किनारे के दुकानदारों, खासकर मुस्लिमों, या अंडा-मांस बेचने वाले लोगों के खिलाफ हिंसक हो रही हैं। सफाई देने वाले यह कह रहे हैं कि कुछ मुसलमान कांवडिय़ों की पोशाक में बीच में घुस गए हैं, और कांवडिय़ों को बदनाम करने के लिए इस तरह के काम कर रहे हैं। यह खतरा तो हिंदुस्तान जैसे देश में हमेशा ही बने रहेगा, क्योंकि कई जगहों पर गाय काटकर फेंकने वाले हिन्दू लोग भी यूपी में ही हिन्दू पुलिस अफसरों द्वारा पकड़े गए हैं जो कि किसी मुसलमान को उसमें फंसाना चाहते थे। लेकिन जिस योगीराज में कांवडिय़ों के स्वागत के लिए पुलिस तैनात है, हेलीकॉप्टर से फूल बरसाने से लेकर जमीन पर उनके पांवों को पोंछने, पंखा झलने तक का काम वर्दीधारी पुलिस कर रही है, तो उनके बीच किसी मुस्लिम का छुप जाना, और फिर हिंसा करना बहुत मामूली बात नहीं लगती है। और दूसरी तरफ यह बात तो अपनी जगह है ही कि ऐसी हिंसा के सैकड़ों वीडियो अब तक सामने आ चुके हैं, जिनमें लोगों के चेहरे दिख रहे हैं। इसलिए उत्तरप्रदेश की पुलिस के लिए यह मालूम करना मुश्किल नहीं है कि हिंसा करने वाले इन लोगों में कोई छिपे हुए मुस्लिम, या गैर हिंदू तो नहीं हैं। जब कई-कई मिनट के एक-एक वीडियो के कैमरे के सामने चेहरा दिखाकर लोग नारे लगा रहे हैं, कारों को तोड़ रहे हैं, लोगों को पीट रहे हैं, तो फिर पुलिस को इनकी शिनाख्त करने में दिक्कत कहां है? अगर कोई हिंदुओं के एक बड़े त्यौहार को बदनाम करने के लिए मुसलमान होते हुए हिंदू कपड़े पहनकर तीर्थ-यात्रा के बीच ऐसी हिंसा कर रहा है, तो उसे तो पहचाना ही जा सकता है, और योगी की पुलिस के पास बुलडोजर भी है ही। सबसे ताजा समाचार और वीडियो अभी यह लिखते-लिखते ही सामने आया है जिसने यूपी में वर्दीधारी महिला पुलिस अधिकारी भट्टी पर चढ़ी कढ़ाईयों में कांवडिय़ों के लिए पूडिय़ां तल रही हैं, महिला कांवडिय़ों के पैर दबा रही हैं, और कांवडिय़ों की एक पूरी तरह बेकाबू सैकड़ों लोगों की भीड़ पुलिस की एक गाड़ी को चारों तरफ से तोड़ रही है। ये दो नजारे अलग-अलग जगहों के हैं, और दोनों चारों तरफ फैल रहे हैं। योगी सरकार के पास इतनी ताकत तो है ही कि अगर ऐसे वीडियो झूठे हैं, तो इन्हें फैलाने वाले लोगों को सजा दी जाए।
पिछले हफ्ते में ऐसे दर्जनों वीडियो सामने आए हैं जिनमें कांवडिय़ों के सामने-सामने चल रही खुली गाडिय़ों में तंग और छोटे-छोटे कपड़े पहनी हुईं लड़कियां मादक डांस कर रही हैं। जोरों से डीजे बज रहे हैं, और यह डांस आगे-आगे चलते चल रहा है, पीछे-पीछे कांवडि़ए चल रहे हैं। इसको भी जांचा जा सकता है कि क्या ये किसी दूसरे धर्म की लड़कियां, किसी दूसरे धर्म के ट्रक वाले के पीछे लदकर किसी दूसरे धर्म के गीतकार के लिखे हुए, किसी दूसरे धर्म के संगीतकार के कंपोज किए हुए, और किसी दूसरे धर्म के डांस-डायरेक्टर की कोरियोग्राफी पर ऐसे डांस कर रही हैं। इन सबको गिरफ्तार करना बड़ा आसान है, और किया भी जाना चाहिए। बल्कि हमारा तो यह भी मानना है कि हिंदू धर्म को बदनाम करने के लिए अगर इस तरह की अश्लील हरकतें खुद हिंदुओं में से कुछ लोग कर रहे हैं तो यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी नीयत हिंदू धर्म को, हिंदुत्व को, और हिंदुओं को बदनाम करने की ही है, और इन पर भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का मुकदमा दर्ज होना चाहिए। सडक़ों के कुछ ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें आधा-एक दर्जन लड़कियां भगवा हाफ पैंट और टी-शर्ट पहने हुए उत्तेजक गानों पर डांस कर रही हैं, और उनके इर्द-गिर्द कुछ मर्द भी ऐसा ही डांस कर रहे हैं। इनके भी चेहरे-मोहरे सभी बारीकी से दिख रहे हैं, और हिंदू धार्मिक भावनाओं को जख्मी करने की इस हरकत पर इन सबके खिलाफ जुर्म दर्ज होना चाहिए क्योंकि सावन का यह समय शिवजी की आराधना का है, और शिवजी की फोटो वाले टी-शर्ट पहनकर इस तरह के गंदे नाच करने वाले लोगों पर निश्चित ही कार्रवाई होनी चाहिए।
अब जब धर्म देश में सबसे बड़ा मुद्दा बन चुका है, तो उसको बचाने के लिए भरसक कोशिश भी होनी चाहिए। भारत में धर्म इतना तो कभी भी खतरे में नहीं था, जितना कि आज है, और यह भी समझने की जरूरत है कि आज पूरी तरह से देश-प्रदेश में हिंदू सरकारें रहते हुए भी हिंदुत्व खतरे में है, तो यह बहुत फिक्र की बात है। आज तो हिंदुत्व अपने पूरे इतिहास का सबसे अधिक सुरक्षित दौर देखने वाला होना चाहिए था, लेकिन नारों पर अगर भरोसा किया जाए तो हिंदुत्व बड़े खतरे में है। इसलिए हिंदुत्व को बदनाम करने वाली ताकतें, चाहे वे इस धर्म के बाहर की हों, चाहे वे इस धर्म के भीतर की हों, उन पर कड़ाई से रोक लगनी चाहिए।
अभी छत्तीसगढ़ के कोरबा की खबर है कि कांवडिय़ों के जत्थों के बीच डीजे की धुन पर नाचते हुए कुछ उपद्रवियों ने नकली पिस्तौल और कुछ हथियार लहराकर दहशत फैलाई। पुलिस ने इस पर दो बालिगों और चार नाबालिगों को गिरफ्तार भी कर लिया है। अभी यह खुलासा नहीं किया गया है कि ये उपद्रवी किस धर्म के थे, और इसे जाने बिना भी हम यह लिख रहे हैं कि ये किसी भी धर्म के हों, इन्हें कम से कम कई महीनों के लिए जेल भेजना चाहिए।
दुनिया में शायद ही कोई और राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री डोनल्ड ट्रम्प की तरह की हलकट हरकतें करने वाले रहे हों। अभी ट्रम्प ने अपनी ही बनाए हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, ‘ट्रुथ’ पर एक गढ़ा हुआ वीडियो पोस्ट किया जिसमें राष्ट्रपति के दफ्तर में पिछले एक डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति बराक ओबामा ट्रम्प के साथ बैठे हैं, और अचानक वहां पर अमरीका की सबसे बड़ी जांच एजेंसी, एफबीआई के एजेंट घुसते हैं, और वे ओबामा को पकडक़र नीचे गिराते हैं, और हथकड़ी लगाकर गिरफ्तार करते हैं। ट्रम्प की अपने विरोधियों को गिरफ्तार करने की हसरतें हमेशा ही बनी रहती हैं। 2016 के चुनाव में ट्रम्प ने उनके खिलाफ खड़ी हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ चुनावी सभाओं में बार-बार ‘लॉक हर अप’ के नारे लगाए थे, यानी हिलेरी को गिरफ्तार करो, जेल भेजो। अभी का वीडियो ट्रम्प ने एक किसी टिक-टॉक अकाऊंट से अपने सोशल मीडिया अकाऊंट पर डाला है जिसमें ट्रम्प की विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं के बारे में यह गाना सुनाया गया है कि कोई कानून से ऊपर नहीं है। करीब 40 सेकेंड का यह वीडियो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से बनाया गया है, और इसमें ओबामा के गिरफ्तारी के वक्त हँसते और ठहाके लगाते ट्रम्प को दिखाया गया है, और बाद में ओबामा को कैदी की पोशाक में जेल में सलाखों के पीछे भी।
अब ओबामा से बिना किसी झगड़े के अचानक अमरीकी राष्ट्रपति ने इस तरह की छिछोरी हरकत क्यों की है? क्योंकि अभी तो ओबामा खबरों में भी नहीं है, और पत्नी और बेटियों के साथ फोटो-वीडियो कभी-कभी दिखते हैं। इस बारे में अमरीका के कुछ लोगों का यह मानना है कि अभी ट्रम्प सरकार में नेशनल इंटेलीजेंस की डायरेक्टर तुलसी गबार्ड ने यह घोषणा की थी कि ओबामा सरकार के समय उनके बड़े अफसरों ने ट्रम्प के खिलाफ एक साजिश की थी। अमरीकी एजेंसियां ऐसी किसी साजिश के सुबूत होने पर किसी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए आजाद हैं, और ट्रम्प की सरकार में तो देश की अधिकतर एजेंसियां ट्रम्प की गुलाम भी हैं। उनसे असहमत जजों तक को बर्खास्त कर दिया गया है, और दर्जनों वकीलों ने सरकारी ओहदों से इस्तीफा दे दिया है कि वे ट्रम्प सरकार के फैसलों के खिलाफ देश भर में दायर मुकदमों के सैलाब से नहीं जूझ सकते। ऐसे में उनकी खुफिया-मुखिया अगर ऐसे सुबूत मिलने का दावा करती है, तो सबसे आसान तरीका तो सुबूतों को पेश करके किसी अदालत में मुकदमा चलाने का है, लेकिन ट्रम्प की यह हरकत शायद कुछ और मतलब भी रखती है।
लोगों का कहना है कि ट्रम्प अपने बड़े-बड़े दावों के बावजूद कोई छोटी सी कामयाबी भी अब तक नहीं पा सके हैं। इजराइल और फिलीस्तीन के बीच इकतरफा जंग अभी खत्म नहीं हुई है, और अमरीका इजराइल के साथ खड़ा है, और एक-एक करके अमरीका के सहयोगी देश इजराइल के खिलाफ होते जा रहे हैं। ट्रम्प अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इजराइल के मुद्दे पर लगातार और अधिक अलग-थलग होते जा रहे हैं। यह नौबत ट्रम्प की नोबल शांति पुरस्कार पाने की हवस की गुंजाइश घटाती चल रही है। दूसरी तरफ दुनिया का आज जंग का सबसे बड़ा मोर्चा, रूस और यूक्रेन, ट्रम्प के प्रभाव से बेअसर बना हुआ है। रूस ने ट्रम्प की सारी शुरूआती मोहब्बत के बाद ट्रम्प की तमाम बातों को अनसुना कर दिया है, और यूक्रेन ने ट्रम्प से शुरूआती तनातनी के बाद उससे जंग के भारी हथियार पाने की मंजूरी पा ली है। कुल मिलाकर ट्रम्प ने इस मोर्चे पर अपने सारे बाहुबल के इस्तेमाल के बाद भी इस बात के पुख्ता सुबूत दे दिए कि वह कितने बड़े दर्जे का बेवकूफ है। आज महीनों की धमकियों, और अल्टीमेटम के बाद भी ट्रम्प इस मोर्चे पर कोई शांति नहीं ला पाया, और हर दिन उसे नोबल शांति पुरस्कार की संभावना से दूर धकेल रहा है। ट्रम्प की नाकामयाबियां एक के बाद एक बढ़ रही हैं, और कल ही अमरीका के एक प्रमुख और चर्चित पत्रकार फरीद जकारिया ने अपने एक लोकप्रिय शो में यह गिनाया है कि किस तरह अमरीकी जनता के बीच ट्रम्प की लोकप्रियता गड्ढे में जा रही है, किस तरह लोग ट्रम्प के फैसलों से असहमत होते चल रहे हैं, और वहां जो आम सर्वे होते रहते हैं, वे ट्रम्प को एक बहुत ही अलोकप्रिय हो चुका राष्ट्रपति बता रहे हैं। ऐसी तमाम स्थितियों के बीच कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ट्रम्प ने अपनी असफलताओं की तरफ से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ओबामा के ऐसे वीडियो का सहारा लिया है जो कि जाहिर तौर पर गढ़ा गया है, कुछ लोगों के लिए मनोरंजक है, और बाकी लोगों के लिए लोकतंत्र के खिलाफ अपमानजनक भी है।
देश में सडक़ हादसों में हो रही मौतें दुनिया में एक रिकॉर्ड हैं। अभी इस बारे में एक जानकार ने एक इंटरव्यू में बताया कि गाडिय़ों की अधिक रफ्तार मौतों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। हम दुनिया के कुछ देशों के साथ भारत की सडक़ मौतों की तुलना करके देख रहे हैं, तो भारत वैश्विक स्तर से जरा सा ऊपर है, प्रति दस लाख आबादी पर दुनिया में 150 लोग सडक़ हादसों में मर रहे हैं, भारत में 154। लेकिन दुनिया के संपन्न देशों में यह आंकड़ा 92 है, और भारत उससे दुगुना अधिक है। योरप में यह आंकड़ा 48-49 है, और भारत उससे तीन गुना है। अमरीका में जरूर सब कुछ सडक़ यातायात होने की वजह से प्रति मिलियन 130 मौतें हैं, लेकिन भारत उससे भी खासा अधिक है। दुनिया में होने वाली कुल सडक़ मौतों में भारत की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है।
अब ऐसे में यह खबर आई है कि केन्द्र सरकार मोटर व्हिकल एक्ट को और सख्त बनाने जा रही है, और अगर नियम तोडऩे वाली गाडिय़ों में बच्चे भी बैठे हैं, तो उन पर आम जुर्माने के मुकाबले दो गुना जुर्माना लगाने का प्रस्ताव रखा गया है। यह निजी गाडिय़ों, किराए की गाडिय़ों, या स्कूलों की गाडिय़ों सब पर लागू होगा। इसके अलावा गलती या गलत काम करने वाले ड्राइवरों के ड्राइविंग लाईसेंस भी कुछ गलतियों के बाद निलंबित या रद्द करने का प्रस्ताव रखा गया है। गलतियों या लापरवाहियों पर किस तरह जुर्माने के अंक जुड़ते जाएंगे, और लोगों को फिर से ड्राइविंग टेस्ट देना होगा, ऐसी कई बातें नए नियम-कानून में जोड़ी जा रही हैं।
कानून को और कड़ा करना आसान है, लेकिन जो मौजूदा कानून है उनको कड़ाई से लागू करना बड़ा मुश्किल है। आज देश के कुछ विकसित राज्यों को छोड़ दें, जहां पर कि ट्रैफिक नियम ठीक से लागू होते हैं, तो फिर छत्तीसगढ़ जैसे बहुत सारे राज्य हैं जहां पर सडक़ों पर पूरी अराजकता है, और किसी सुधार की सरकार की नीयत ही नहीं है। इस प्रदेश का हाईकोर्ट बिलासपुर शहर में है, वहीं सारे जज रहते हैं, और वे सडक़ सुरक्षा को लेकर मुख्य सचिव और डीजीपी से, दूसरे सरकारी विभाग प्रमुखों से हलफनामा लेने का रिकॉर्ड बना चुके हैं। लेकिन हाईवे पर बैठे हुए जानवर एक बार अपनी जगह से हट जाएं, तो हट जाएं, सरकार के माथे पर हाईकोर्ट के नोटिसों से शिकन भी नहीं पड़ती। इसी से गुंडागर्दी का बढ़ता हुआ हौसला यहां तक पहुंचा है कि दो दिन पहले हाईकोर्ट शहर वाले बिलासपुर में किसी छोटे-मोटे नेता के करीबी की बिगड़ैल औलाद ने दो बड़ी-बड़ी कारें खरीदीं, और फिर आधा दर्जन कारों से हाईवे को रोककर वीडियो शूटिंग की, और खुद ही उसे भारी अहंकार के साथ चारों तरफ फैलाया भी। पुलिस से उम्मीद की जाती थी कि जिस तरह गरीब मुजरिमों के साथ बर्ताव होता है, इन गुंडों का भी वह जुलूस निकालती, लेकिन इन पर दो-दो हजार रूपए जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया, और पुलिस ने इनके नाम तक जारी नहीं किए। दूसरी तरफ किसी एक पत्रकार ने इसे लेकर सोशल मीडिया पर लिखा- चूंकि ये कारें अमीर लोगों की थीं, और उन्होंने वीडियो पर अपनी शेखी भी बघारी, कंधे पर भारत का राष्ट्रीय चिन्ह पहनने वाले आईपीएस अधिकारियों में दम नहीं था कि उनकी सडक़ पर उठक-बैठक करवाते हुए वीडियो बनवाते। इस पर पहले तो बिलासपुर पुलिस ने यह टिप्पणी की कि आपने आईपीएस अधिकारियों के लिए प्रयुक्त कंधे पर भारत का राष्ट्रीय चिन्ह पहनने वालों में दम नहीं जैसे अपमानजनक शब्द लिखे जो कि मानहानि का मामला बन सकते हैं, और साथ ही राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान भी दंडनीय है। अपमान की यह व्याख्या किसी कॉमेडी शो सरीखी है जहां डरे-सहमे अफसरों को राजचिन्ह के लायक नहीं कहा गया है, अपमान अफसरों का किया गया है, और वे इसे राजचिन्ह का अपमान करार देना चाहते हैं!
केन्द्र सरकार चाहे कितने ही कड़े नियम बना ले, उससे क्या फर्क पड़ता है? जिन राज्यों को न हेलमेट लागू करवाना है, न सीट बेल्ट लगवाना है, न ही मोबाइल पर बात करते चलते लोगों को रोकना है, न एक दर्जन सवारियां ले जाते ऑटोरिक्शा को रोकना है, न दुपहिए दौड़ाते नाबालिगों को रोकना है, न साइलेंसर फाडक़र दौड़ाती मोटरसाइकिलें रोकना है, और न ही अंधाधुंध रफ्तार से, दारू पिए हुए चलाती गाडिय़ों का कुछ करना है, तो क्या केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी छत्तीसगढ़ की सडक़ों पर खड़े होकर नया कानून लागू करवाएंगे? मामूली से ट्रैफिक नियम लागू करवाने के लिए कोई इसरो की रॉकेट टेक्नॉलॉजी नहीं लगती है, लेकिन पुलिस को इसके लिए कुछ काम तो करना होगा। आज यह लगता है कि पुलिस कारोबारी गाडिय़ों से बहुत संगठित उगाही में ही पूरी ताकत झोंक देती है, और उसमें से कोई हिस्सा वह आम लोगों पर बर्बाद करना नहीं चाहती। यह सिलसिला बहुत खतरनाक इसलिए है कि इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी लापरवाह और अराजक ड्राइवर तैयार हो रहे हैं। फिर ऐसी अराजकता के साथ जब बड़ी-बड़ी महंगी गाडिय़ों का हॉर्सपावर भी जुड़ जाता है, जब यह तैश भी जुड़ जाता है कि जानता नहीं मेरा बाप कौन है, तब फिर एक-दूसरे के मुकाबले हर किसी को सडक़ों के नियम तोडऩे में अपनी शान दिखती है।
भारत में बौद्ध मठ कुछ सीमित संख्या में हैं, वे मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, और चर्च जितने अधिक संख्या में नहीं हैं, इसलिए लोगों को उनकी जानकारियां भी कम रहती हैं, और बहुत से लोग तो किसी बौद्धभिक्षु से मिले बिना गुजर भी सकते हैं। इसलिए बौद्धभिक्षुओं की जिंदगी के बारे में भी हिन्दुस्तान के बाकी धर्मों के लोगों की जानकारी बड़ी सीमित है। ऐसे में थाईलैंड से आया हुआ एक ताजा समाचार लोगों को थोड़ा चौंका सकता है। जुलाई के महीने में वहां एक जांच शुरू हुई तो पता लगा कि एक खूबसूरत युवती ने वहां के कम से कम 9 बड़े वरिष्ठ भिक्षुओं के साथ सेक्स-संबंध बनाए, और उसकी वीडियो-रिकॉर्डिंग करके उन्हें भरपूर ब्लैकमेल भी किया। अभी तक की जांच के मुताबिक पुलिस को इस युवती के घर से 80 हजार से अधिक अश्लील फोटो और वीडियो मिले हैं जिनमें स्वर्ग का आनंद प्राप्त करते हुए बौद्धक्षिभु हैं। इसके अलावा बहुत सारे मैसेज भी इन भिक्षुओं के साथ इस लडक़ी के मिले हैं। उसे गिरफ्तार करके इन 9 भिक्षुओं को धार्मिक ढांचे से बाहर कर दिया गया है। थाईलैंड के राजा ने इस स्कैंडल के बाद 81 भिक्षुओं की राजकीय पदवी रद्द कर दी है, और धार्मिक कानून में सुधार की घोषणा की गई है। थाइलैंड में बौद्धभिक्षुओं की शान-शौकत की जिंदगी पहले से खबरों में रही है, और वे सन्यासी-ब्रम्हचारी जिंदगी गुजारते हुए भी बड़ी-बड़ी कारें तोहफे में ले लेते थे, और शान-शौकत से जीते थे। अभी भी कई लोगों का यह मानना है कि इस पूरे सेक्स-स्कैंडल की तोहमत एक अकेली युवती पर डाल दी गई है, जबकि इस साजिश में कई दूसरे भिक्षु भी शामिल थे। खैर, अब यह धर्म के भीतर की घरेलू बात है कि यह हनीट्रैप बिछाने वाली युवती अकेली थी, या उसके साथ कोई दूसरे बौद्धभिक्षु भी शामिल थे, जो भी हो, नौ लोगों के आनंद के लिए एक सौ दो करोड़ रूपए का जन्नत-टैक्स कम नहीं होता है।
ऐसे कुछ मामलों का भांडाफोड़ होने पर ही धर्म के भीतर सड़ गई व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश बनती है। पूरी दुनिया का इतिहास यही कहता है कि जब-जब धर्म अपने कुकर्मों को दबाने में कामयाब रहता है, उसके भीतर वैसे कुकर्मों का सैलाब बढ़ जाता है। अब अगर कैथोलिक चर्च में बच्चों के यौन शोषण के मामले देखें, तो अमरीका, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, चीली जैसे कई देशों में ऐसे लाखों मामले सामने आए हैं। अमरीका के बॉस्टन में ही 2002 में ऐसे पांच सौ मामलों में अदालत के बाहर साढ़े 8 करोड़ डॉलर का समझौता हुआ था, जिसमें चार हजार से अधिक पादरियों पर बाल यौन शोषण के आरोप थे। अब अगर इतनी बड़ी रकम देकर चर्च ने अदालत के बाहर छुटकारा पाया था, तो जाहिर है कि आरोपों में दम तो था ही, और चर्च में बच्चे सुरक्षित तो दुनिया में बहुत सी जगहों पर नहीं रहते। ऑस्ट्रेलिया में 22 फीसदी पादरियों पर बच्चों के यौन शोषण के आरोप रहे। लेकिन कैथोलिक चर्च का मुखिया, वेटिकन में बैठा पोप हमेशा ही ऐसे जुर्म दबाने की कोशिश में लगे रहा, और नतीजा यह रहा कि लाखों और बच्चे पादरियों की हवस के शिकार होते रहे। यह सब इसलिए भी होता है कि इन पादरियों पर ब्रम्हचर्य की शर्त रहती है। अभी कुछ दिन पहले ही हमने सोशल मीडिया पेज पर पोप के नाम से एक अपील पोस्ट की थी कि अपने पादरियों को खेलने के लिए कुछ खिलौने दिया करें। इस लाईन के पीछे जो मतलब था, वह यही था कि वे खिलौनों से ही खेलें, बच्चों के बदन से नहीं। धर्म नाम का पाखंड शुरू होने के पहले तक ब्रम्हचर्य की कोई धारणा नहीं थी, यह बीमारी धर्म के साथ ही आई, और जिस तरह धर्म कई प्रतीकों से अपने आपको नाटकीय और करिश्माई बनाता है, तरह-तरह के चोगे पहनता है, मालाएं और ताबीज गले में डालता है, दाढ़ी, चोटी, किस्म की कई चीजें लेकर चलता है, टोपी, पगड़ी, तिलक, और हथियार ढोता है, उसी तरह धर्म ब्रम्हचर्य का दिखावा भी ढोता है। अभी भारत में साध्वी सरीखे कपड़ों में एक महिला, और किसी बाबा जैसे कपड़ों में एक पुरूष के वीडियो चारों तरफ फैले हैं, और इन लोगों के एक साथ या अलग-अलग सैकड़ों और वीडियो भी हैं। अब इन्हें देखकर लोग ब्रम्हचर्य की अपनी धारणा और परिभाषा दुबारा तय कर सकते हैं।
एक तो ब्रम्हचर्य की नौटंकी जिसे ढोना अमानवीय दर्जे का तकरीबन नामुमकिन काम होता है, वह कई धर्मों में एक अनिवार्य शर्त रखी गई है, और ऐसी शर्त ही सेक्स-शोषण के खतरे और आशंका को शुरू करती है। इसके साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि धर्म में एक अंधश्रद्धा पैदा करने ऐसी अपार क्षमता रहती है कि आसाराम जैसा हिन्दू-गुरू वेलेंटाइन डे को मातृ-पितृ पूजन दिवस मनवाने के लिए सरकारों से हुक्म निकलवाता है, और खुद अपने अनुयायी-परिवार की, अपनी ही स्कूल की नाबालिग छात्रा का देह-शोषण करता है, बलात्कार करके उम्रकैद पाता है। ऐसा ही हाल ईसाई स्कूलों में, और चर्च में पादरी जगह-जगह करते हैं। तमाम धर्मों के ईश्वर ऊपर बैठकर आपस में शतरंज खेलते हैं, और यहां उनके प्रतिनिधि बने हुए लोग नाबालिग बच्चों की देह से खेलते हैं। अभी थाईलैंड में बौद्धभिक्षुओं के मामले में कम से कम यह तो रहा कि वे एक बालिग युवती के साथ जन्नत के मजे लेते पकड़ाए, किसी नाबालिग बच्चे का शोषण करते हुए नहीं।
छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित शराब घोटाले का विकराल आकार बढ़ते-बढ़ते 33 सौ करोड़ पहुंच गया है। और ईडी के अलावा एसीबी-ईओडब्ल्यू की अदालतों में पेश चार्जशीट देखें तो ऐसा लगता है कि भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार के दौरान एक स्वघोषित अनपढ़ आदिवासी मंत्री कवासी लखमा को आबकारी मंत्री की कुर्सी पर बिठाकर दारू अफसर, प्रदेश हांक रहे आईएएस अफसर, और जांच एजेंसियों की जुबान में आबकारी मंत्री की तरह काम कर रहे अनवर ढेबर नाम के एक व्यापारी ने जिस बड़े पैमाने पर सरकारी खजाने को चूना लगाया, वह पूरे देश में बेमिसाल मामला रहा। सरकारों में इससे बड़े आकार के भ्रष्टाचार तो हुए होंगे, लेकिन सरकार खुद ही माफिया के साथ मिलकर, भागीदारी करके, नकली शराब बनवाकर सरकारी दुकानों से बिकवाकर जिस तरह का जुर्म कर रही थी, वह अभूतपूर्व था। राज्य के एक भूतपूर्व मुख्य सचिव, और तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के गुरू रहे विवेक ढांड, और एक दूसरे आईएएस अफसर अनिल टुटेजा को ईडी-एसीबी-ईओडब्ल्यू ने इस पूरे शराब घोटाले का सरगना बताया है, लेकिन अब तक विवेक ढांड पर छापे पडऩे के अलावा और कोई आंच नहीं आई है। कल पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य बघेल को ईडी ने गिरफ्तार किया है, और कहा है कि शराब घोटाले का 16 करोड़ से अधिक चैतन्य के कारोबार में पहुंचा है, और पहुंचाने वालों के बयान और सुबूत के आधार पर गिरफ्तारी करना ईडी ने बताया है। भूपेश बघेल के इर्द-गिर्द के अफसर, व्यापारी, और माफिया अंदाज के काम करने वाले लोग पहले से गिरफ्तार चल रहे हैं, लेकिन उनके बेटे की गिरफ्तारी और अदालत में चार्जशीट में प्रस्तुत जानकारी इस मामले में अब तक उन्हें जोडऩे वाली सबसे गंभीर बात है।
फिर भी केन्द्र सरकार की आईटी, ईडी जैसी बड़ी जांच एजेंसियां जब शराब कारखानेदारों पर बार-बार छापे डाल चुकी हैं, और अदालत में पेश दस्तावेजों में हजारों पेज के सुबूत पेश किए हैं कि राज्य के शराब कारखाने भूपेश सरकार के समय किस तरह इसी शराब माफिया के साथ मिलकर दो नंबर की फर्जी शराब बना रहे थे। अब दिलचस्प बात यह हो गई है कि शराब घोटाले को रोजाना के स्तर पर चलाने वाले आईएएस अनिल टुटेजा, और कारोबारी अनवर ढेबर ने जेल में रहते हुए अदालत में यह पिटीशन लगाई थी कि जब शराब कारखानेदारों की ऐसी हिस्सेदारी जांच एजेंसी बता रही है, तो फिर उन्हें आरोपी क्यों नहीं बनाया जा रहा है? फिर अदालत के आदेश पर राज्य सरकार के आर्थिक अपराध ब्यूरो, और ईडी ने 8 बड़ी डिस्टिलरी कंपनियों, और कुछ शराब कारोबारियों को आरोपी बनाना शुरू किया है। और इनमें से कुछ कंपनियों पर 12 सौ करोड़ तक की काली कमाई का आरोप लगा है। 7 जुलाई को 29 आबकारी अधिकारियों, और डिस्टिलरी मालिकों को ईओडब्ल्यू ने आरोपी बनाया है। इसके बाद इस अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर यह सवाल उठाया गया था कि इन अफसरों को गिरफ्तार करके जेल क्यों नहीं भेजा जा रहा है क्योंकि इन्होंने संगठित माफिया की तरह काम करके सरकारी कुर्सी पर रहते हुए सरकार के साथ जालसाजी-धोखाधड़ी की, और जांच एजेंसियों के पास इन पर रहम करने का कोई अधिकार नहीं है। अगले दिन राज्य सरकार ने इनमें से 22 अफसरों को निलंबित किया, लेकिन गिरफ्तारी किसी की अभी तक नहीं हुई है। हर डिस्टिलरी पर एक आबकारी अफसर की तैनाती रहती है, और वहां की ताला-चाबी उसी के पास रहती है। ऐसे में जब हजारों करोड़ की दो नंबर की दारू बनकर वहां से निकली, तो ऐसे अफसर का निलंबन क्या होता है? उसे बाकी लोगों की तरह जेल क्यों नहीं भेजा जाता?
अब जब इस शराब घोटाले के कुछ लोग दो-दो साल से बिना जमानत जेल में पड़े हुए हैं, तो सवाल यह उठता है कि माफिया अंदाज के इस कारोबार में नकली सरकारी सामान बनाने वाले कारखानेदारों को अभी तक गिरफ्तारी से बाहर क्यों रखा गया है? उनमें से हर किसी के खिलाफ इतने पुख्ता सुबूत हैं कि मामूली सा सरकारी वकील भी उन्हें कैद दिला देगा, लेकिन अभी तक वे सुबूतों और गवाहों को तोडऩे-मरोडऩे की आजादी के साथ छुट्टे घूम रहे हैं। जब घोटाले के कुछ बड़े आरोपी ही मासूमियत से, या कि किसी कानूनी तिकड़म के चलते शराब-कारखानेदारों को आरोपी बनाने की मांग कर चुके हैं, उन्हें आरोपी बनाया जा चुका है, तो वे जेल के बाहर क्यों हैं? इससे दारू के धंधे में बदनाम अफसर, कारखानेदार की इज्जत का कुछ नहीं बिगड़ रहा, लेकिन जांच एजेंसियों वाली सरकारों की साख इससे जरूर खराब हो रही है कि इस पूरे खेल में खासा पैसा, सैकड़ों करोड़ रूपए कमाने वाले लोग आज भी दारू बना रहे हैं, आज भी सरकार उनसे खरीद रही है, और आज भी वे शेर बने घूम रहे हैं। यह सिलसिला बड़ा अटपटा है, और सरकार को अपनी छवि साफ रखने के लिए कारखानेदारों की इस ताकत को घटाना होगा, और कानून की मांग पूरी करते हुए इन्हें जेल भेजना होगा। दूसरी बात यह कि छोटे-छोटे से कारोबार या कारखाने कोई नियम तोड़ते हैं तो उनकी बिजली काट दी जाती है, पानी बंद कर दिया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में शराब कारखानों का इतिहास अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से यह रहा है कि वे हर नियम को तोड़ते हैं, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। अभी आज की ही एक खबर बताती है कि किस तरह छत्तीसगढ़ की एक डिस्टिलरी ने 27 बरस से जो पानी लिया है, उसका भुगतान नहीं किया, और 90 करोड़ से अधिक का बकाया विधानसभा में उठा, तो यह नोटिस दिया गया है कि कंपनी सोमवार तक 88 करोड़ रूपए जमा करे। इस एक खबर से दारू कारखानेदारों की ताकत पता लगती है, और प्रदेश में लोकतंत्र के लिए इस माफिया को खत्म करना जरूरी है। पिछले महीनों में हाईकोर्ट वाले बिलासपुर के आसपास ही दारू कारखानों से निकले प्रदूषित पानी से लाखों मछलियां मरीं, लेकिन हाईकोर्ट की भारी नाराजगी के बावजूद इन कारखानों से शराब उगलना बंद नहीं हुआ। भूपेश सरकार के समय शराब घोटाले में जो बड़े और सक्रिय खिलाड़ी थे, उनमें से दारू कारखानेदार, और आबकारी अफसर अब तक जेल के बाहर हैं जो कि हैरानी की बात है। सडक़ पर एक ट्रैफिक सिपाही किसी गाड़ी वाले से दो-चार सौ रूपए लेते किसी वीडियो में फंस जाए, तो उसे सस्पेंड कर दिया जाता है। यहां पर कारोबारी-अफसर-नेता-कारखानेदार का हजारों करोड़ का यह माफिया कारोबार नकली सरकारी सामान बना रहा था जो कि राज्य की सत्ता को चुनौती था, यह नकली नोट छापने जैसा काम था क्योंकि इससे सरकारी खजाने को नुकसान हो रहा था। यह समझने की जरूरत है कि जांच एजेंसियां अगर ऐसे लोगों के साथ नर्मी बरतेंगी तो आगे-पीछे अदालत में यह बात उठाई जाएगी।
छत्तीसगढ़ में विधानसभा का एक और छोटा सत्र आकर चले गया, लेकिन प्रदेश में पिछली सरकार के वक्त से खरीदी में जो व्यापक भ्रष्टाचार चले आ रहा था, और आज भी चले जा रहा है, उसकी चर्चा विधानसभा से अधिक तो अखबारों में हो रही है। केन्द्र सरकार के कहे हुए उसके एक खरीदी पोर्टल जेम के मार्फत से ही हर खरीदी करना, हर किस्म के टेंडर बुलवाना, छत्तीसगढ़ सरकार ने भी शुरू किया है, और इसके साथ ही भ्रष्टाचार का एक नया संगठित सिलसिला चालू हो गया है। अभी कई अलग-अलग खबरें बताती हैं कि जिस तरह भूपेश सरकार के वक्त दस रूपए के सामान को दो-चार सौ रूपए में लिया जाता था, आज भी जेम पोर्टल के माध्यम से कुछ वैसा ही सिलसिला जारी है। देश की सरकारें खरीदी के कोई भी तरीके निकाल लें, उनमें छेद ढूंढने का काम ठेकेदार और सप्लायर तुरंत ही कर लेते हैं। और ऐसा करके वे अफसरों का बोझ हल्का भी कर देते हैं। फिर आज की भारत की आम राजनीतिक स्थिति यह है कि सत्ता हांकने वाले नेता और अफसर बड़ी तेजी से एक भागीदारी विकसित कर लेते हैं, और इन्हें राह और तरकीब दिखाने का काम वही पुराने घुटे हुए सप्लायर और ठेकेदार करने लगते हैं जो कि पिछली कई सरकारों से यही काम करते आ रहे हैं। और तो और कई मंत्रियों के तो भ्रष्टाचार को देखने वाले पीए तक ज्यों के त्यों बने रहते हैं, उनकी किसी भी दर्जे की बदनामी सत्तारूढ़ पार्टी को नहीं दिखती।
आज छत्तीसगढ़ दो किस्म की खबरों से लबालब है, एक तो भूपेश सरकार के समय खरीदी और निर्माण में किस दर्जे का भ्रष्टाचार हुआ। उनमें से कई मामलों को लेकर अदालत में मुकदमे चल रहे हैं, और जेल सुपरिटेंडेंट से कई दर्जा ऊपर के अफसर उनकी जेलों में बंद हैं। बल्कि छत्तीसगढ़ की जेल को तो पहली बार भ्रष्टाचार के मामले में एक मंत्री रहे हुए व्यक्ति के अतिथि सत्कार का भी मौका मिल रहा है। एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता है जब पिछले पांच बरस की कांग्रेस सरकार के किसी भ्रष्टाचार की खबर अखबारों में न रहे, लेकिन आज की सरकार में भी जो खरीदी हो रही है, जो सप्लायर और ठेकेदार हैं, वे नई ऑनलाईन टेंडर-प्रणाली में भी पहले जैसा ही भ्रष्टाचार किए चले जा रहे हैं। अभी तो एक-एक सामान जितने महंगे दामों पर लेने की खबरें आ रही हैं, उससे यह लगता है कि राजीव गांधी ने दिल्ली से निकले हुए रूपए के जमीन तक पहुंचते हुए 17 पैसे हो जाने की जो बात कही थी, वह भी अब बीते हुए जमाने का अंदाज हो गया है। आज की सरकार में भी अफसर जो कोशिश कर रहे हैं, वे हजार रूपए के सामान को 32 हजार रूपए में लेना चाह रहे हैं, और मौजूदा भाजपा सरकार का कहना है कि वह इस तरह की कोशिशों को रोकती चल रही है। दूसरी तरफ कुछ आरटीआई एक्टिविस्ट, और पत्रकार लगातार यह भांडाफोड़ भी कर रहे हैं कि कई मामलों में खरीदी और भ्रष्टाचार आसमान छू रहा है।
अब ऐसा लगता है कि सरकार में जो अफसर-कर्मचारी स्थाई रहते हैं, उनके मन से जेल जाने का डर खत्म हो गया है। गिरफ्तार लोगों की अदालत के गलियारों की जो तस्वीरें छपती हैं, उससे भी अब लोगों की शर्म कम हो गई है। पैसे का महत्व इतना अधिक हो गया है कि लोग अपनी इज्जत और नौकरी, सबको दांव पर लगाकर अधिक से अधिक कमा लेना चाहते हैं। सबको मालूम है कि कभी भ्रष्टाचार उजागर भी होता है, तो सौ में से एक-दो मामलों की ही जांच होती है, और जांच पूरी होने के बाद सरकार से बहुत ही कम मामलों में मुकदमे की इजाजत मिलती है, और मुकदमे चलने पर बहुत ही कम लोगों को भ्रष्टाचार पर सजा हो पाती है। निचली अदालत तक भी कोई निपटारा होने में बहुत साल लग जाते हैं। अभी-अभी छत्तीसगढ़ सरकार के एक रिटायर्ड फूड अफसर के खिलाफ अनुपातहीन सम्पत्ति के मामले में मुकदमा चलाने की इजाजत मिली है जो कि यह राज्य बनने के पहले ही अविभाजित मध्यप्रदेश में रिटायर हो चुके थे। अब 82 बरस की उम्र में उस पर मुकदमा चलना शुरू होगा। यह अफसर 22 साल पहले रिटायर हो चुका है, और उस पर हुई कार्रवाई का मुकदमा अब 30 बरस बाद चलना शुरू हो रहा है। निचली अदालत के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आजादी बाकी ही है जो कि और दस-बीस बरस गुजारने में मदद कर सकती है। कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार का रोकथाम का ढांचा, किसी किस्म की खुफिया निगरानी की कमी, फिर जांच और मुकदमे की बदहाली, और फिर आखिर में जाकर भारतीय न्याय व्यवस्था का लचीलापन, ये सब मिलाकर भ्रष्ट लोगों के मन में बहुत बड़ी आशा खड़ी करते हैं कि उनका कुछ बिगडऩे वाला नहीं है। छत्तीसगढ़ में नौबत अधिक खराब इसलिए है कि पिछले पांच बरस में जितने किस्म के भ्रष्टाचार के नए-नए रिकॉर्ड बने हैं, उनके मुकाबले अब की गड़बडिय़ां बड़ी छोटी लगती हैं। लेकिन खबरों में जिस तरह की बात आती है, अगर उसे तुरंत रोका नहीं गया, तो भाजपा सरकार के पांच बरस पूरे होने तक ऐसे बहुत से मामले इकट्ठे हो जाएंगे।
भारतीय फौज के सबसे बड़े अफसर, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल अनिल चौहान ने कहा है कि हाल ही में दुनिया में चल रही कुछ जंग यह साबित कर चुकी हैं कि किस तरह मानवरहित ड्रोन और मानवरहित दूसरी हवाई प्रणालियां फौजी संतुलन बदल सकती हैं। अभी रूस और यूक्रेन के बीच तीन बरस से चल रही जंग में यह साबित हो गया है कि सैनिकों के मुकाबले जंग में अब कई किस्म के ड्रोन अधिक इस्तेमाल हो रहे हैं, और उनकी क्षमता दुनिया की किसी भी जंग में पहली बार इस तरह खुलकर पहचानी जा रही है। अब यह माना जा रहा है कि दुनिया के आगे बहुत से फौजी संघर्ष ड्रोन पर आधारित रहेंगे। हमने इस अखबार में और अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर भी पिछले कुछ महीनों में इस बात को उठाया है कि भारतीय फौज में जो एक लाख सैनिकों के पद खाली होने की बात कही जा रही है, हो सकता है कि उसे भरने की जरूरत न पड़े, और भारतीय फौज को अपनी बहुत कुछ क्षमता ड्रोन तकनीक में लगानी पड़े। हमने कई हफ्ते पहले यह बात कही थी, और कल सीडीएस ने यह कहा है कि ड्रोन सामरिक संतुलन बदल सकते हैं, और इस क्षेत्र में भारत में आत्मनिर्भरता जरूरी है। रूस के खिलाफ बहुत ही सस्ते और मामूली ड्रोन की पूरी फौज को टिड्डी दल की तरह रूसी वायुसेना ठिकानों पर भेजकर यूक्रेन ने जो ऐतिहासिक हमला किया, उससे भी अब जंग के तौर-तरीके हमेशा के लिए पूरी तरह बदल गए हैं। और तो और भारत और पाकिस्तान के बीच भी हाल के छोटे से संघर्ष में ड्रोन का इस्तेमाल किया गया।
लेकिन हम ड्रोन-चर्चा से बाहर निकलकर यह देखना चाहते हैं कि क्या फौज पर हर देश के हो रहे भारी-भरकम खर्च को बचाने का भी कोई तरीका हो सकता है? आज भारत, चीन, और पाकिस्तान का खासा फौजी खर्च है। इन तीनों देशों में भारत अकेला है जिसे दो देशों के मुकाबले फौजी तैयारी करनी पड़ती है। पाकिस्तान और चीन को एक-दूसरे से कोई खतरा नहीं है, और इन दोनों को सिर्फ भारत के साथ जंग की तैयारी रखनी पड़ती है। आज अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की सनकी-मनमानी के चलते हुए पूरी दुनिया जिस तरह आर्थिक अस्थिरता का शिकार है, उसमें भारत और चीन, रूस और ईरान, जैसे कई देशों पर तो और अधिक अस्थिरता का खतरा मंडरा ही रहा है, इनके साथ-साथ अब यूरोपीय यूनियन की ताजा चेतावनी भी आ गई है कि रूस से लेन-देन रखने वाले देशों पर ईयू सौ फीसदी टैरिफ लगाएगा। अब न तो दुनिया की जंग दो देशों के बीच रह गई, और न ही टैक्स व्यवस्था दो देशों के परंपरागत कारोबार पर निर्भर है। आज जंग और कारोबार इन दोनों का जबर्दस्त घालमेल इस हद तक देखने मिल रहा है, जिस हद की कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। अब चूंकि ईयू के देशों को नाटो की छतरीतले यूक्रेन की फौजी मदद जारी रखनी है, और रूस के हाथ-पैर काटने है, इसलिए भारत और चीन सरीखे रूस के बड़े कारोबारी भागीदारों पर भी ईयू हमला कर रहा है। अभी ट्रम्प नाम की सुनामी से भारत अपने उखड़े हुए पैरों को ठीक से जमा भी नहीं पाया है कि ईयू का यह नया हमला सामने आया है। इसलिए भारत और चीन को बैठकर अपने फौजी तनाव दूर करके खर्च को कम करना चाहिए ताकि वे अमरीका और ईयू के आर्थिक हमलों का सामना करने के लिए बेहतर तैयार रह सकें। चूंकि चीन के सामने भारत से परे अमरीका और ताइवान तक जंग की नौबत बनी हुई है, इसलिए उसकी फौजी तैयारियां भारत से दुश्मनी घटने पर भी जारी रहेंगी, लेकिन इन दोनों देशों को उसी तरह साथ रहना सीखना होगा जिस तरह योरप के देश ईयू की छतरीतले साथ रह रहे हैं, बिना एक-दूसरे के खिलाफ किसी फौजी तैयारी के।
भारत में अभी कोई यह बात करे तो उसे बाल मजदूरी बढ़ाने वाला करार दिया जाएगा, लेकिन ब्रिटेन में अभी एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक लेख लिखा है जिसमें सुझाया है कि 16 बरस के हर बच्चे को स्कूल में रखने के लिए दबाव डालना ठीक नहीं है, बल्कि उनकी इच्छा पढऩे के बजाय कुछ और काम करने की हो, तो उन्हें किसी उत्पादक काम में लगाकर सरकार को चाहिए कि उनका मेहनताना दे। किसी की मेहनत के दाम सरकार दे, इस सुझाव के पीछे यही सोच है कि किसी का मजदूर की तरह शोषण न हो। भारत में भी बच्चों को काम पर रखने के खिलाफ कानून की सोच यह भी है कि उन्हें लोग पूरी मजदूरी तो देते नहीं हैं, औने-पौने मेहनताने पर रख लेते हैं। लेकिन पश्चिम के एक सबसे विकसित और संपन्न देश यूके से अगर ऐसी बात निकलकर सामने आ रही है कि 16-17 बरस के लोगों को उनके चाहने पर किसी किस्म का हुनर सिखाकर उन्हें काम देना चाहिए, तो वहां पर यह व्यवस्था 1988 से चली आ रही है, और इस योजना में पांच लाख से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं।
भारत में बाल मजदूरी पर पूरी तरह रोक इसलिए है कि लोग यहां पर बच्चों को एक मजदूर जितना हक देते नहीं, न वैसी मजदूरी देते, और कई तरह से उनका शोषण भी होता है। नतीजा यह निकलता है कि जो बच्चे स्कूल की पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं लेते हैं, या कि जिनको किताबी ज्ञान में कोई दिलचस्पी है ही नहीं, उन लोगों को भी किसी काम पर नहीं रखा जा सकता। अब बालिग होने के बाद पूरी तरह मजदूरी या काम मिलना, और उसके एक दिन पहले तक कोई काम न मिलना, स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के लिए जिंदगी में एक बड़ा शून्य पैदा कर देता है। ब्रिटेन के इस लेख को पढक़र हमने भारत और छत्तीसगढ़ के कुछ आंकड़ों को देखने की कोशिश की तो छत्तीसगढ़ में करीब एक तिहाई बच्चे 12वीं तक नहीं पढ़ पाते हैं। प्रायमरी से मिडिल, और हाईस्कूल होते हुए 12वीं तक पहुंचते हुए लगातार हर बरस कुछ बच्चे स्कूल छोड़ते रहते हैं, और 70 फीसदी से कम बच्चे ही स्कूली पढ़ाई पूरी करते हैं। इसके अलावा पूरे देश के आंकड़ों को अगर देखें, तो केरल का झंडा सबसे ऊपर है जहां 98-99 फीसदी बच्चे 12वीं पढक़र ही निकलते हैं। इसके तुरंत बाद चंडीगढ़, हिमाचल, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तराखंड, महाराष्ट्र हैं जहां 90 से 97 फीसदी बच्चे 12वीं करके निकलते हैं। सबसे खराब हालत बिहार की है जहां 50 से 60 फीसदी बच्चे 12वीं के पहले-पहले स्कूल छोड़ चुके रहते हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे में देश में सबसे नीचे के ठीक ऊपर आता है।
अब हम अगर यह सोचें कि क्लासरूम की पढ़ाई में जिनकी दिलचस्पी नहीं है, और जो एक तिहाई बच्चे अलग-अलग क्लास में पढ़ाई छोड़ चुके हैं, उन्हें कौन सा हुनर या काम सिखाया जा सकता है जिससे कि वे कोई काम पा सकें? दुनिया के बहुत से विकसित देशों में 15-16 बरस के बच्चों को कई तरह के काम सिखाकर रोजगार से जोड़ा जाता है, और उन्हें प्रशिक्षण-भत्ता मिलता है। जर्मनी में इस तरह से काम पर लगे किशोर-किशोरियों में से 95 फीसदी आगे चलकर काम पा जाते हैं। दुनिया के एक सबसे विकसित देश स्विटजरलैंड में 15 साल उम्र से बच्चे प्रशिक्षण पाने लगते हैं, और कमाने लगते हैं, वहां पर सरकार, उद्योग, और स्कूल मिलकर कोर्स तय करते हैं। योरप के एक और संपन्न देश ऑस्ट्रिया में हर साल 40 फीसदी छात्र सामान्य स्कूल छोडक़र व्यावसायिक प्रशिक्षण से जुड़ते हैं, और बिना डिग्री के भी वे अपने सीखे हुए हुनर से अच्छी नौकरियां पाते हैं। फिनलैंड में भी 15 बरस की उम्र के बाद बच्चे यह तय करते हैं कि वे क्लासरूम की पढ़ाई करेंगे, या रोजगार की कोशिश करेंगे। भारत में बहुत कम पैमाने पर 8वीं-10वीं के बाद आईटीआई का इंतजाम है, लेकिन स्कूल छोड़ चुके करोड़ों बच्चों में से कुछ लाख ही इससे जुड़ पाते हैं।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने धार्मिक ग्रंथों के अनादर को एक गंभीर जुर्म मानते हुए कड़ी सजा देने का एक विधेयक विधानसभा में पेश किया है, और यहां से अगर यह पारित होता है, तो राजभवन या राष्ट्रपति भवन से होते हुए यह कानून बन सकता है। इसके बाद किसी पवित्र समझे जाने वाले धर्म ग्रंथ का अपमान करने पर दस बरस की कैद से लेकर उम्रकैद तक का कानून बन जाएगा। सरकार की तरफ से मंत्रिमंडल में इस विधेयक के मसौदे को मंजूरी मिलने के बाद यह बताया गया कि श्री गुरूग्रंथ साहिब, भगवत गीता, बाइबिल, और कुरान सहित पवित्र ग्रंथों के अपमान के लिए यह नई और अधिक कड़ी, अधिक लंबी सजा रखी गई है। सरकार के प्रवक्ता ने कहा कि पहले इन धार्मिक ग्रंथों में से कुछ की बेअदबी की घटनाएं हुई हैं जिसमें जनभावनाओं को गहरी ठेस पहुंची, और समाज में अशांति हुई थी।
‘पंजाब पवित्र धर्मग्रंथों के विरुद्ध अपराधों की रोकथाम विधेयक 2025’ के प्रावधान शायद भारत के किसी भी दूसरे राज्य में नहीं है। इसके पहले से भारतीय कानून में, आईपीसी की धारा 295, और 295ए चली आ रही थीं, जो कि भारत में धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी के खिलाफ थीं। लेकिन पंजाब और हरियाणा दो ऐसे राज्य रहे जहां अलग से कानून भी प्रस्तावित किए गए, लेकिन करीब दस बरस बाद भी पंजाब विधानसभा द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति से मंजूरी नहीं पा सका क्योंकि वह देश के कानून, आईपीसी से टकराता था। 2016 में पहली बार पंजाब की अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार ने उम्रकैद की सजा का कानून प्रस्तावित किया था, लेकिन इसी गठबंधन की सरकार केन्द्र में होने पर भी यह राज्यपाल और राष्ट्रपति से मंजूर नहीं हुआ। 2021 में कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर कड़े कानून की कोशिश की, लेकिन उसका विधेयक भी राष्ट्रपति की मंजूरी के इंतजार में हैं। पंजाब से लगे हुए हरियाणा में 2023 में सरकार ने एक विधेयक पास करवाया जिसमें गुरूग्रंथ साहिब, रामायण, गीता, कुरान, बाइबिल जैसे ग्रंथों की सूची थी, और दस साल तक की कैद सुझाई गई थी, लेकिन यह भी केन्द्र के कानून से ऊपर प्रस्तावित होने की वजह से अभी तक संवैधानिक अनुमति नहीं पा सका है। कुल मिलाकर देखें तो ये दोनों ही प्रदेश पंजाब में हुई कुछ घटनाओं को लेकर दबाव झेल रहे थे जिनमें गुरूग्रंथ साहब की बेअदबी के आरोप लगे थे।
यह याद रखने की बात है कि इसी पंजाब से लगा हुआ सरहद पार का पाकिस्तान बेअदबी कानून को बनाकर कई तरह के दबाव, तनाव, और खतरे झेल रहा है। कुरान के कुछ पन्ने कहीं मिल जाते हैं, किसी पर आरोप लगा दिया जाता है कि उसने पन्ने फाड़े, या जलाए, और इसके बाद भीड़ की किसी को घेरकर पीट-पीटकर मार डालती है। यहां तक हुआ है कि किसी गिरफ्तार को थाने पर हमला करके वहां से निकाल लिया गया, और सडक़ पर पीट-पीटकर मार डाला गया। कड़े कानून बनाना बड़ा आसान रहता है, लेकिन कड़े कानूनों को बेजा इस्तेमाल से रोक पाना उतना ही मुश्किल रहता है। एक बार जब धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी का कोई आरोप मुद्दा बन जाता है, तो उसके बाद उसे काबू कर पाना किसी के बस का नहीं रहता क्योंकि उसे जारी रखना एक धार्मिक समुदाय के तथाकथित स्वाभिमान से भी जुड़ जाता है, और धार्मिक कट्टरता लीडरशिप संभाल लेती है। यह भी हो सकता है कि लगे हुए पंजाब में बेअदबी को लेकर जितने बवाल चलते रहे हैं, समाज जितना धर्मान्ध रहा है, वह भी पंजाब-हरियाणा में पहले तो सरकार पर एक दबाव बना होगा, और उसके बाद एक के बाद एक, भाजपा-अकाली सरकार, कांग्रेस सरकार, और अब आम आदमी पार्टी की सरकार ने सजा कड़ी करने के कानून बनाने की कोशिश की है। ऐसी कोशिशों का यह दसवां बरस चल रहा है, सबको यह अच्छी तरह मालूम है कि यह देश के कानून को टक्कर देने वाला विधेयक है, लेकिन उसे बार-बार पेश करके ऐसा लगता है कि पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टियां जनता के बीच, खासकर बहुसंख्यक सिक्ख तबके के बीच एक शोहरत पाने के लिए भी ऐसी कोशिश करती हैं। देश का संविधान बनाने वालों ने बहुत सोच-समझकर धार्मिक भावनाओं के अपमान का कानून बनाया रहा होगा। लेकिन किसी धार्मिक समुदाय की तुष्टिकरण की राजनीतिक-सरकारी दीवानगी बढ़ती ही चलती है, हर सत्तारूढ़ पार्टी देश भर में हर प्रदेश में यह साबित करने की कोशिश करती है कि उसने किसी धर्म के सम्मान के लिए ऐसा कुछ किया है जो कि उसके पहले की किसी दूसरी पार्टी की सरकार ने नहीं किया था। कुछ अभूतपूर्व करने की यह मजबूरी राजनीतिक दल खुद होकर ओढ़ लेते हैं, और एक बार अगर ऐसा कानून बन जाएगा, तो फिर पांच-दस बरस बाद इस उम्रकैद को फांसी तक बढ़ाने की कोशिशें चालू हो जाएंगी। देश के कानून बिना उन पर ठीक-ठाक अमल हुए उस पेनिसिलिन की इंजेक्शन की तरह खारिज कर दिए जाते हैं जो कि दशकों तक करिश्मा दिखाने के बाद अब बेअसर हो चुका है, और अब एंटीबायोटिक की भी एक के बाद एक अगली जनरेशन इस्तेमाल होने लगी है। मौजूदा कानून पर ठीक से अमल न करना, जनता के बीच वाहवाही पाने के लिए उससे अधिक कड़ा कानून बनाने से घटिया और कोई बात नहीं होती। इससे ऐसा लगता है कि मौजूदा कानून बेअसर है, जबकि उस कानून पर अमल करने की नीयत कमजोर रहती है। ऐसा सिर्फ इसी धर्मग्रंथ-बेअदबी कानून के साथ नहीं है, हर कानून के साथ है। कई प्रदेश बलात्कार पर अतिरिक्त सजा, या मौत की सजा के कानून बना चुके हैं, जबकि उनके यहां मौजूदा कानून के तहत भी लोगों को सजा दिलवाने का अनुपात बड़ा ही कम रहते आया है।
ओडिशा के बालासोर में एक सरकारी कॉलेज की छात्रा ने कॉलेज कैम्पस में ही आत्मदाह की कोशिश की, और उसे 90 फीसदी जली हालत में अस्पताल में दाखिल कराया गया है। चिकित्सा विज्ञान का अब तक का अनुभव कहता है कि इस वक्त जब यह लिखा जा रहा है, तब तक हो सकता है कि वह चल भी बसी हो। उसने 30 जून को कॉलेज में एक शिक्षक पर अपना यौन-शोषण करने का आरोप लगाया था, लेकिन कॉलेज प्रशासन और पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, उससे निराश होकर उसने अपने आपको आग लगा ली। अब इस घटना के बाद सरकार ने इस सहायक प्रोफेसर, और प्रिंसिपल को निलंबित कर दिया है, और जांच कमेटी बनाई है। स्थानीय भाजपा सांसद प्रताप चरण सारंगी का कहना है कि उन्हें भी यह शिकायत मिली थी, और तब कॉलेज ने उनसे कहा था कि पांच दिन में जांच रिपोर्ट तैयार हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आत्मदाह की खबर मिलने पर उन्होंने प्रिंसिपल को फोन किया, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। यह केन्द्र और ओडिशा, दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा के सांसद का कहना है।
लेकिन हम इस एक घटना से परे भी पूरे देश के स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालयों में छात्राओं और शिक्षिकाओं के यौन-शोषण के मामलों पर बात करना चाहते हैं जो कि खबरों में तो बहुत कम आते हैं, लेकिन होते धड़ल्ले से हैं। किसी छात्रा को प्रैक्टिकल में अधिक नंबर देने के नाम पर, किसी को टीम में रखने के नाम पर नोंचा जाता है। विश्वविद्यालयों में शोध छात्राओं का शोषण एक बड़ी आम बात है, और अधिकतर छात्राएं इसकी शिकायत करने का हौसला भी नहीं कर पाती हैं, क्योंकि उससे या तो उनकी पीएचडी अधूरी रह जाएगी, या फिर हो चुकी पीएचडी की साख चौपट हो जाएगी कि उसने रिसर्च गाईड को उपकृत करके पीएचडी हासिल की है। कई मामलों में विश्वविद्यालय की बड़ी कुर्सियों पर जमे हुए मर्द एक-दूसरे को बचाने में लग जाते हैं, क्योंकि या तो वे खुद ऐसे धंधे में शामिल रहते हैं, या मुजरिम प्रोफेसर उन्हें भी इसी तरह उपकृत करने का वायदा करते हैं। इसके अलावा हिन्दुस्तान में धड़ल्ले से चलने वाले रूपयों के लेन-देन से भी मामले दबते ही होंगे।
यह देखना बहुत ही निराशा की बात है कि छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में भी जगह-जगह शिक्षक, हेडमास्टर, और प्रिंसिपल नाबालिग छात्राओं के देह-शोषण में शामिल मिले हैं, कई जगहों पर आदिवासी इलाकों की आश्रम शालाओं में रहने वाली छात्राओं का संगठित तरीके से शोषण हुआ है, कई जगहों पर छात्राएं गर्भवती हुई हैं, और कई मामलों में गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कुल मिलाकर शैक्षणिक संस्थाओं में माहौल लडक़ी के लिए खतरे का ही रहता है, और जो लोग छात्राओं पर ऐसी नजर रखते हैं, वे सहकर्मी शिक्षिकाओं को अच्छी नजर से तो नहीं ही देखते होंगे। अभी कुछ हफ्ते पहले ही एक स्कूल में वहीं के प्रिंसिपल ने महिला शौचालय में अपने मोबाइल फोन को वीडियो रिकॉर्डिंग शुरू करके छुपा रखा था, और वह इस काम को दो महीने से करते आ रहा था। जब शिक्षिकाओं ने उसके मोबाइल को पकड़ लिया, तब जाकर भांडा फूटा, और उसकी गिरफ्तारी हुई। अब ऐसा प्रिंसिपल छात्राओं के साथ क्या-क्या कोशिश नहीं करता होगा?
भारतीय समाज में यौन-शोषण की शिकार लडक़ी या महिला को ही सबसे बड़ा मुजरिम मानने की सोच बड़ी मजबूत है। नतीजा यह होता है कि दो-चार फीसदी मामले ही पुलिस तक पहुंचते होंगे, और बाकी मामले परिवार मन मारकर छुपा लेते होंगे। जब शोषण का एक मामला छुप जाता होगा, तो ऐसे हिंसक शिक्षक-प्राध्यापक, या खेल प्रशिक्षक-रिसर्च गाईड जैसे लोगों का हौसला बढ़ जाता होगा, और वे बाकी लोगों का शोषण करना अपना हक, और महफूज मान लेते होंगे। किसी एक जुर्म की शिकायत न होने पर वैसे ही और जुर्म होने का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन शोषण की शिकायत करने वाली लडक़ी या महिला को जिस तरह की सामाजिक प्रताडऩा झेलनी पड़ती है, वह भी बहुत हिंसक रहती है। अभी फेसबुक पर एक महिला लेखिका के साथ एक बड़े चर्चित और विवादास्पद लेखक की यौन-छेड़छाड़ का मामला बहस का सामान बना हुआ है। इस मुद्दे पर लिखने वाले अधिकतर मर्द चुनौती के अंदाज में लेखिका को यह कह रहे हैं कि वह पुलिस में क्यों नहीं जा रही? मानो उन्हें यह अहसास नहीं है कि पुलिस में जाने का मतलब किसी महिला के लिए कई बरस का सुख-चैन खो देना होता है, और उसके बाद भी हमलावर मर्द को किसी सजा की गारंटी नहीं रहती। पंजाब की एक सीनियर आईएएस महिला के साथ वहां के डीजीपी रहे के.पी.एस.गिल ने शारीरिक छेडख़ानी की थी, लेकिन बरसों की मुकदमेबाजी के बाद सुप्रीम कोर्ट से गिल को महज अदालत उठने तक की सजा हुई थी, और इस महिला को चारों तरफ से तोहमतें मिलती रहीं कि पंजाब के आतंक से लडऩे वाले अफसर की एक हरकत को उसने बर्दाश्त नहीं किया। महिला बर्दाश्त करे तो हमलावर मर्द का हौसला और बढ़ता है, महिला बर्दाश्त न करे तो भी उसे ही तोहमत मिलती है।
अभी सोशल मीडिया पर एक नोट की फोटो चल रही है जिसमें मुस्लिम समाज के किसी प्रमुख व्यक्ति के पूरे नाम, ओहदे, और शहर के साथ-साथ उसके कुछ कथित कुकर्मों का जिक्र है, और किसी एक महिला से उसके अवैध संबंध होने का भी जिक्र है। एक रबर स्टाम्प बनवाकर यह सारी जानकारी नोट पर छाप दी जा रही है। अब ऐसे नोट की फोटो बताती है कि किसी एक नोट पर सचमुच ही, या फोटो एडिटिंग करके ऐसे सील लगाई गई है, लेकिन ऐसे लाखों नोटों से बात जहां तक पहुंचती, वहां तक सोशल मीडिया में दूसरे लोगों के पोस्ट करने पर यह बात पहुंच गई है। लोगों को याद होगा कि पिछले कई बरस से हिन्दुस्तान में किसी सोनम के नाम से नोट पर लिखा हुआ चारों तरफ घूमता था कि सोनम बेवफा है, लेकिन उसके साथ इस नाम की और कोई शिनाख्त नहीं थी, इसलिए किसी एक लडक़ी की बदनामी नहीं हो पाई, या दूसरी तरफ यह खतरा भी था कि इस नाम की जितनी लड़कियां थीं, उनकी सबकी बदनामी हो रही थी। जो भी हो, मीडिया और सोशल मीडिया पर खासे जिम्मेदार लोग भी ऐसी फोटो बढ़ा रहे थे, और फिर यह एक खेल की तरह कई अलग-अलग नोटों पर हाथ से लिखकर फैलाने का शगल हो गया था। अब जिस मुस्लिम आदमी के नाम की रबर सील लगाकर एक नोट की फोटो चलाई जा रही है, वह भी सोशल मीडिया के स्वयंसेवकों (कोई गलतफहमी न हो, इसलिए साफ कर देना ठीक है, वालंटियर) की मेहरबानी से फैल रही है।
हर दिन दो-चार ऐसे फोटो-वीडियो आते हैं जिनमें कहीं किसी खेत में एक आदमी किसी औरत के साथ पकड़ा गया, और जिनके बारे में आपत्तिजनक हालत में पकड़ाने का विशेषण तुरंत जोड़ दिया जाता है। कहीं हाईवे पर सेक्स, तो कहीं कोई व्यक्ति किसी महिला को लेकर किसी रेस्ट हाऊस, या गेस्ट हाऊस में जा रहा है। लोगों को याद होगा कि इस किस्म का एक सबसे बड़ा स्कैंडल छत्तीसगढ़ में हुआ था, जब रमन सिंह सरकार के ताकतवर मंत्री राजेश मूणत का सिर चिपकाकर एक सेक्स-वीडियो कांग्रेस के लोगों ने फैलाने और छपवाने की कोशिश की थी, और महीनों तक उसी की चर्चा चलती रही। यह तो भारत की न्यायपालिका की मेहरबानी है कि सात बरस बाद भी सीबीआई उस मामले में शायद पहली-दूसरी सुनवाई भी नहीं करवा पाई है, और उस मामले में गिरफ्तार भूपेश बघेल जमानत पर छूटने के बाद अभियुक्त रहते हुए भी पांच बरस मुख्यमंत्री रह लिए, इसी सेक्स सीडी कांड में फंसे, गिरफ्तार, जमानत पर छूटे हुए, और कटघरे में खड़े उनके करीबी सहयोगी विनोद वर्मा पांच बरस मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार रह लिए। लेकिन भारत की न्यायपालिका के चेहरे पर कोई उलझन नहीं है। आज हम इस सेक्स-सीडीकांड के जुर्म पर जाना नहीं चाहते, जो कि राजेश मूणत की लिखाई गई रिपोर्ट पर दर्ज है। हम यह सोचकर हैरान हैं कि मूणत के चेहरे को फर्जी तरह से चिपकाकर जो वीडियो बनाया गया, बांटा गया, छपवाने की कोशिश की गई, उस वीडियो में जो महिला दिख रही है, क्या इस बदनामी में जुटे लोगों को पल भर के लिए भी उसकी निजता का अहसास हुआ? क्या एक महिला की इस तरह बदनामी का किसी को भी कोई मलाल हुआ? आज भी जो लोग किसी नेता, अफसर, या चर्चित व्यक्ति के साथ किसी अनजानी महिला के फोटो-वीडियो फैलाते हैं, क्या उन्हें यह समझ नहीं रहती कि वे एक, या दोनों ही, बेकसूर की बदनामी कर रहे हैं?
यह पूरा सिलसिला भयानक इसलिए है कि सात बरस पहले जब मूणत की फर्जी वीडियो क्लिप बनाई गई, और जाने उसके रास्ते किस बदनामी करने, और राजनीतिक फायदा पाने की कल्पना की गई थी, उस वक्त तो एआई जैसे औजार भी नहीं थे। आज तो इंटरनेट पर मौजूद मुफ्त के औजारों से लोग किसी भी औरत-मर्द की फोटो डालकर उन्हें एक-दूसरे को चूमता हुआ दिखा सकते हैं, और भी कई तरह के वीडियो बनाए जा सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि ऐसी सनसनीखेज फोटो, और ऐसे वीडियो तो चारों तरफ फैल रहे हैं, इनको पोस्ट करने, आगे बढ़ाने, री-पोस्ट करने के पहले लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए या नहीं? किसी के नाम-पते, ओहदे के साथ उसकी बदचलनी का जिक्र करके अगर एक नोट की असली या नकली फोटो सोशल मीडिया पर डालने से खासे जिम्मेदार लोग भी महज मजा लेने के लिए उसे आगे बढ़ा रहे हैं, तो इसका पहला मतलब तो यही है कि किसी की इज्जत की मिट्टीपलीद करना, बच्चों के खेल सरीखा आसान हो गया है। दूसरी बात यह कि सोशल मीडिया पर असल जिंदगी के बड़े जिम्मेदार लोग भी छिछोरेपन पर उतर आते हैं क्योंकि वहां का माहौल ही कुछ ऐसा रहता है। लेकिन यह सिलसिला थमेगा कहां? आज जिसकी जिससे दुश्मनी हो, उसके नाम के साथ कोई अश्लील बात लिखकर एक नोट की फोटो खींची जाए, और उसे पोस्ट भर कर दिया जाए। फिर चाहें तो उस नोट को बाजार में चला भी लें, ताकि वह कई और हाथों तक चले जाए, कई और लोग उसकी फोटो खींच लें, पोस्ट कर दें, और आपका मकसद मुफ्त में टारगेट से अधिक पूरा होता रहे। यह सब इस कदर आसान हो गया है कि क्या कहें।
ओडिशा की खबर है कि वहां रायगड़ा जिले में एक ही गोत्र के युवक-युवती के बीच प्रेम हो जाने से समाज और गांव ने उन्हें सजा देने के लिए हल में बैलों की जगह जोता, खेत जुतवाया, और कोड़े मार-मारकर गांव से निकाल दिया। इसका वीडियो जब चारों तरफ फैला, तो अब पुलिस ने मामले की जांच चालू की है, लेकिन यह जोड़ा अब कहीं मिल नहीं रहा है। इन्हें सजा देने के पहले गांव में देवी की पूजा करवाई गई, और वहां के आदिवासी समाज की प्रचलित प्रथाओं के मुताबिक इस वर्जित संबंध पर सामाजिक बैठक ने सजा तय कर दी, और इस तरह इस अवांछित जोड़े से छुटकारा पा लिया गया। यह जोड़ा किसी दूसरी जगह बसकर जिंदगी गुजार सकता है, या यह धरती ही छोडक़र जा सकता है। दोनों ही नौबतों में इस जोड़े से उसका गांव छूट जा रहा है। भारतीय समाज में जगह-जगह ऐसा होता है, और हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़े की खुदकुशी की खबर आती है।
हम अपने अखबार में अपने या दूसरों के प्रति जानलेवा हिंसा के बारे में कम से कम लिखना चाहते हैं, लेकिन समाज की जैसी नौबत है, उसमें इस बारे में अधिक से अधिक लिखने की एक बेबसी रहती है। ऐसे मुद्दों पर लिखना इसलिए भी जरूरी लगता है कि समाज में समझ की कमी है, और हो सकता है कि हमारी लिखी किसी बात से कुछ लोगों की सोच बदल सके। यह चर्चा करते हुए भारत के अलग-अलग प्रदेशों, अलग-अलग धर्म या जातियों की चर्चा भी की जा सकती है, की जानी चाहिए, लेकिन इससे परे यह बात भी होनी चाहिए कि गांव या शहर ऐसे मामलों में किस तरह अलग-अलग बर्ताव करते हैं। बहुत से लोगों के दिमाग में गांवों को लेकर एक बड़ी रूमानियत की कल्पना रहती है, उन्हें कुछ लेखकों या कवियों की गांवों की गौरव-गाथा सूझती है, और किस तरह वे सोचते हैं कि रिटायरमेंट की जिंदगी वे गांव जाकर ही गुजारेंगे। इस तरह के प्रेमीजोड़े के साथ जो बर्ताव हुआ है, उसे देखते हुए भारत के गांवों के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है।
शहरों में आबादी इतनी अधिक रहती है, बाहर से आए हुए लोग इतने अधिक रहते हैं किसके पड़ोस में आकर कौन रहने लगे, इसकी भी कोई मामूली सी जानकारी हो जाए तो हो जाए, लोग बहुत हद तक एक-दूसरे से अलग-थलग भी रह लेते हैं। फिर यह भी है कि शहरों में धर्म और जाति की व्यवस्था तो टूट ही रही है, शादी नाम की संस्था भी शहरों में कुछ कमजोर पड़ रही है क्योंकि देश में अब अनगिनत अविवाहित जोड़े जब तक चाहें साथ रह लेते हैं, उन्हें किराए पर मकान पाने के लिए चाहे कोई मामूली सा झूठ बोलना पड़ता हो, काम खींचतान कर चल जाता है। शहरों में लोग कामकाज में लगे रहते हैं, और अपने काम से काम अधिक रहता है। गांवों की हालत यह है कि वहां न सिर्फ एक सामंती सामाजिक व्यवस्था चली आ रही है जिसमें कोई बड़े किसान, या कि ऊंची समझी जाने वाली जाति के कोई व्यक्ति दबदबा रखते हैं, और वे पंच-सरपंच जैसे चुनावों में भी रूतबा और दखल रखते हैं। वे गांवों में कई किस्म की अघोषित सरपंची भी करते हैं, और जमीन-जायदाद के झगड़ों का निपटारा उनके बाहुबल से हो जाता है, और समाज की दूसरी बातों में भी उनका असंवैधानिक दखल रहता है। जाति व्यवस्था बड़ी मजबूत रहती है, और कई जगहों का तजुर्बा लोगों ने बताया है कि वहां ऊंचे हिस्से में ऊंची कही जाने वाली जातियों की बसाहट रहती है, और नीची कही जाने वाली जातियां ढलान पर नीचे रहती हैं, ताकि इन जातियों का पानी ‘ऊंची जातियों’ की बस्ती तरफ न जाए। राजस्थान और मध्यप्रदेश से हर महीने ऐसी खबरें आती हैं कि गांवों में किसी दलित दूल्हे को बारात में घोड़ी पर चढऩे से पुलिस हिफाजत के बावजूद ‘ऊंची जातियों’ के लोगों ने मारा, और सावधानी बरतते हुए कई बारातों में दूल्हे सहित पुलिसवाले भी हेलमेट लगाकर चलने को मजबूर रहते हैं ताकि ‘ऊंची जातियों’ के पथराव से बच सकें। गांवों में बलात्कार के आंकड़ों को देखें, तो दलित-आदिवासी तबके की लड़कियां और महिलाएं ही सबसे अधिक शिकार होती हैं।
गांव और शहर के माहौल के ऐसे फर्क में प्रेमीजोड़े गांवों में शादी तक पहुंचने के पहले बहुत से मामलों में ऊपर पहुंच जाते हैं, और कई मामलों में उनके प्रेम को तुड़वा दिया जाता है। अब समाज में एक नई चेतना आने के बाद यह भी हो रहा है कि ऐसे पुराने प्रेमीजोड़े शादी से अलग कर दिए गए हैं, लेकिन शादी के बाद भी उनका प्रेम सुलगते रहता है, और वे किसी हिंसा तक पहुंच जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि गांवों में प्रेम के खिलाफ बगावत का एक माहौल रहता है, लोग जात का ख्याल करते हैं, गोत्र का ख्याल करते हैं, अमीरी-गरीबी का फर्क मानकर चलते हैं, और कुछ पीढिय़ों पहले की दुश्मनी को भी हिन्दी फिल्मों की तरह असल जिंदगी में निभाते हैं। इसलिए गांव एक किस्म से प्रेम के दुश्मन रहते हैं, लेकिन लड़कियों और महिलाओं के शोषण के लिए उपजाऊ जमीन रहते हैं।
देश की राजधानी से लगे हरियाणा के गुरूग्राम में दूसरे बच्चों को टेनिस सिखाने वाली एक होनहार खिलाड़ी राधिका यादव के अकादमी चलाने, और रील बनाने से खफा उसके पिता ने उसे गोलियों से भून डाला। खबरों में कहा गया है कि अड़ोसी-पड़ोसी इस बाप को ताने कसते थे कि बेटी की कमाई उससे अधिक हो गई है। वह राज्य स्तर की टेनिस खिलाड़ी थी, और कई मुकाबले जीत चुकी थी। एक बहुत ही प्यारे चेहरे वाली, हँसमुख दिखती 25 बरस की इस युवती का यह अंत अपने पिता के हाथों हुआ। उसकी तस्वीर ही हैरान करती है कि भला कौन सा पिता ऐसी होनहार और हँसमुख बच्ची को मार सकता है। आज जब इस उम्र की बहुत सी लड़कियां तरह-तरह की अश्लील फिल्में बनाकर रोजाना पोस्ट करती हैं, उससे अपनी कमाई करती हैं, तब यह लडक़ी दूसरे खिलाडिय़ों को सिखाकर अपना काम कर रही थी, और बाप को उस पर सिर्फ फख्र होना था। लेकिन उस इलाके की संस्कृति शायद ऐसी थी कि पड़ोसी बाप को बेटी की कामयाबी पर ताने देते थे।
यह तो इस किस्म की कातिल घटना हो गई, इसलिए इस पर चर्चा भी हो रही है। लेकिन भारत के आम परिवारों में करोड़ों लड़कियां अपने बाप-भाई की मर्दाना दादागिरी को रोज ही झेलती हैं। उसकी कोई भी बात नापसंद होने पर परिवार के मर्द उसकी बेइज्जती करने से लेकर उस पर हाथ उठाने तक, उसे घर में कैद कर लेने तक कई किस्म से उसे प्रताडि़त करते हैं। यही उत्तर भारत का इलाका है जहां हर हफ्ते-पखवाड़े खबरें आती हैं कि बेटी मर्जी से शादी करना चाहती थी तो बाप-भाई ने मिलकर कहीं उसके प्रेमी को मार डाला, तो कहीं उसे मार डाला, तो कहीं शादी हो जाने पर नए जोड़े को मार डाला। ऐसे कत्ल में परिवार के चाचा-ताऊ भी खुशी-खुशी शामिल हो जाते हैं, जबकि ऐसे हर कत्ल के बाद जेल जाने का एक असल खतरा हर किसी को मालूम है। ऐसे खतरे को देखते हुए भी लोग परिवार की तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए कत्ल भी कर देते हैं ताकि समाज को कह सकें कि लडक़ी ने परिवार का ‘मुँह काला’ कर दिया था, तो उन्होंने उसे मार ही डाला। ऐसी ऑनरकिलिंग भारत के बाहर भी ब्रिटेन जैसी जगह पर भारत और पाकिस्तान के परिवार करते हैं। आज सुनीता विलियम्स के महीनों अंतरिक्ष में रहकर आ जाने के बाद भी उत्तर भारत के अनगिनत परिवारों की इज्जत कन्या का दान करने की सोच से जुड़ी हुई है। हिन्दू शादियों में कन्या का दान करना एक रस्म है, और यह रस्म पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच मजबूत करते चलती है कि कन्या किसी सामान, या पशु की तरह है जिसे कि दान किया जा सकता है, दान किया जाना चाहिए। जिस तरह पशु को मालिक जिस खूंटे से बांधे, वहीं बंधे रहना उसका नसीब होता है, परिवार अपनी लड़कियों को वैसा ही देखना चाहते हैं। पुरूष प्रधान भारतीय समाज को कन्या भ्रूण हत्या से लेकर ऑनरकिलिंग, दहेज-हत्या, बलात्कार, जबरिया गर्भपात, विधवा-जीवन या सतीप्रथा जैसी तमाम बातें सुहाती हैं। अब यह तो इस देश का घटिया कानून है जो कि मर्दों को इनमें से कई बातें करने नहीं देता है, और उन्हें जुर्म करार देता है।
औरतों पर मर्द अपनी मर्जी कितनी चलाना चाहते हैं, यह जगह-जगह निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों के मामले में देखने मिलता है, जहां कहीं पर उनके पति पद की शपथ लेते हैं, कहीं वे ही सरकारी मीटिंग लेते हैं, और कहीं वे खुद रिश्वत लेकर निर्वाचित पत्नी से अंगूठा लगवाते हैं, या दस्तखत करवाते हैं। इस बात को वे खुद का हक भी मानते हैं, और छत्तीसगढ़ में हमने कई मामले देखे जिनमें पंचायत अधिकारियों ने पतियों को ही पत्नी की जगह पद की शपथ दिलवाई, उन्हीं से बैठक में दस्तखत ले लिए, और निर्वाचित महिलाओं की मौजूदगी के बिना बैठक हो भी गई। समाज में जो बहुत पढ़ा-लिखा तबका भी माना जाता है, उसमें भी महिला को किस तरह पुरूष के नियंत्रण में ही रहना है, यह सोच बार-बार दिखती है। अब भारत में तरह-तरह के नामों से सेक्स-टॉय बिकने लगे हैं। फेसबुक जैसा सोशल मीडिया इस तरह के इश्तहारों से भी भरा हुआ है। शुरू में तो अधिकतर महिलाओं के काम के ऐसे मसाजर जैसे खिलौने उन्हीं के आनंद और उनकी संतुष्टि की विज्ञापन-फिल्मों वाले आते थे। अब कुछ समय से ऐसे इश्तहार आने लगे हैं जिनमें कोई महिला बैठे-बैठे, या चलते-चलते अचानक ही कामसुख से झनझनाने लगती है, और फिर दिखता है कि किस तरह उसका कोई पुरूष साथी अपने मोबाइल फोन से उस महिला के कपड़ों के भीतर रखा गया कोई सेक्स-टॉय नियंत्रित कर रहा है। अधिकतर लोगों को तो यह इश्तहार वयस्क लेकिन साधारण लगेगा। लेकिन इसके पीछे की सोच देखने की जरूरत है कि अगर कोई लडक़ी या महिला किसी सेक्स-टॉय से कामसुख पाना चाह रही है, तो उसका नियंत्रण भी उसके पुरूष साथी के हाथ में रहेगा, और वही उसकी रफ्तार, उसकी कंपकंपाहट, और उसके दूसरे फीचर-फंक्शन तय करेगा। यह सोच एक मर्दाना मानसिकता पर टिकी हुई कल्पनाशीलता से उपजी है, और इसे मासूम नहीं मानना चाहिए। पूरी दुनिया में जिन इश्तहारों पर रोक सकती है, उनमें महिला की देह को लेकर तरह-तरह के अपमान रहते हैं, उसकी बेइज्जती रहती है। ऐसे मामलों में हिन्दुस्तान विकसित, और पश्चिमी देशों के मुकाबले खासा आगे है, और यहां पर सेनेटरी पैड जैसी महिला जरूरत की एक अनिवार्य चीज को भी सेक्स से जोडक़र देखा जाता है, और अभी कुछ बरस पहले तक स्कूल-कॉलेज में इसका नाम तक नहीं लिया जाता था।
गुजरात से कल यह भयानक खबर आई कि करीब एक किलोमीटर लंबे एक पुल के बीच का एक हिस्सा टूटकर नदी में गिर गया, और कई बड़ी गाडिय़ां सौ फीट से ज्यादा नीचे पानी में जा गिरीं। हादसे में 13 लोगों की मौत हुई है। इस खबर में ही कहा गया है कि 1985 में बने इस पुल में अभी पिछले चार साल में पुल के पिल्लर, और उसकी स्लैब के बीच फासला खड़ा हो गया था, और उस इलाके के एक जिला पंचायत सदस्य ने 2022 में ही कलेक्टर को इसकी शिकायत की थी। समाचार बताता है कि पुल में बड़ी खामी पाई गई थी, लेकिन इसे चालू रखा गया। पिछले चार साल में गुजरात में यह 16वां पुल टूटा है। कल के इस हादसे में मौतें और भी बहुत अधिक हो सकती थीं, अगर इसमें गिरी 9 गाडिय़ों में मुसाफिर बसें भी होतीं। अब इतनी बड़ी संख्या में अगर पुल गिरे हैं, तो यह गुजरात सरकार की साख पर भी आंच है। पिछले 25 से अधिक बरसों से वहां पर सिर्फ भाजपा की ही सरकार चल रही है, और आज देश में एक और दो नंबर के सबसे बड़े नेता, नरेन्द्र मोदी, और अमित शाह बरसों तक गुजरात को चलाए हुए हैं, और ऐसा न मानने की कोई वजह नहीं है कि आज भी गुजरात पर उनकी पैनी नजर नहीं रहती होगी। ऐसे में इस तरह के हादसे थोड़ा हैरान करते हैं।
कहने के लिए तो इस पुल की तोहमत कांग्रेस पर डाली जा सकती है जिसके राज में आज से 40 बरस पहले 1985 में यह पुल बना और चालू हुआ था। लेकिन पुल तो आधी-एक सदी के लिए बनते हैं, और सरकारें तो पांच-पांच बरस में आती-जाती रहती हैं। जो पुल 40 बरस चल गया, उसके बनने में तो कोई खामी रही नहीं होगी, वरना देश में जगह-जगह बनते-बनते पुल और फ्लाईओवर, ओवरब्रिज या मेट्रो के लिए ढांचे गिरते रहे हैं। अब 1985 के बाद से जो भी सरकारें आई हैं, उन सरकारों को अपने पहले बने हुए ढांचों का रखरखाव ठीक से करना था। आज भी भारत में अंग्रेजों के बनाए हुए हजारों पुल काम कर रहे हैं, जिनमें से बहुत से तो पत्थरों से बने हुए रेलवे ब्रिज हैं, जिन पर से लाखों रेलगाडिय़ां निकल चुकी होंगी। नदियों के ऊपर, खाई के ऊपर बने ऐसे ब्रिज अब तक काम कर रहे हैं, जिससे पता लगता है कि अंग्रेजों के वक्त नेता-अफसर-ठेकेदार का बरमूडा ट्रैंगल उस तरह काम नहीं करता था जिस तरह आज वह इस देश के हितों को डुबाने का काम करता है।
लेकिन हम अकेले पुल की बात को लेकर आज यहां चर्चा नहीं कर रहे। एक दूसरी खबर कल की है जिसमें केन्द्र सरकार के शिक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय सर्वेक्षण परख के नतीजे आए हैं। पिछले बरस दिसंबर में 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के करीब पौन लाख स्कूलों में केन्द्र सरकार ने यह सर्वे कराया था, और इसमें अलग-अलग प्रदेशों में स्कूली बच्चों की पढ़ाई की हालत दिखाई गई है। दिलचस्प बात यह है कि जो तीन राज्य अलग-अलग कई पैमानों पर देश में सबसे ऊपर पाए गए हैं, उनमें पंजाब, हिमाचल, और केरल के नाम हैं। ये राज्य कल प्रकाशित खबर के हर पैमानों पर सबसे ऊपर है। केरल देश में पहले, दूसरे, या तीसरे नंबर पर है। दूसरी तरफ जिन पांच राज्यों की हालत स्कूली पढ़ाई में सबसे खराब मिली है, उनमें कुछ हैरान करने वाली बात यह है कि सबसे नीचे के पांच राज्यों में एक राज्य सबसे कमजोर साबित हुआ है, और वह गुजरात है। कक्षा 3 में बच्चों की गणित की समझ में गुजरात देश में सबसे कमजोर पाया गया है, जबकि गुजरात कारोबारियों का प्रदेश माना जाता है, जहां गणित लोगों की जुबान पर होना चाहिए था। कक्षा 6वीं में बच्चों की समझ के पैमाने पर गुजरात पूरे देश में आखिर से दूसरे नंबर पर है। और आंकड़ों का औसत निकालने के मामले में गुजरात के बच्चे देश में आखिरी पाए गए प्रदेश उत्तरप्रदेश से जरा ही ऊपर है, आखिरी से दूसरे नंबर पर। अब चूंकि यह सर्वे केन्द्र सरकार का ही करवाया हुआ है, इसलिए कोई यह भी नहीं कह सकते कि यह भारत के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने वाली किसी विदेशी संस्था के गलत आंकड़े हैं। गुजरात देश का एक अधिक संपन्न प्रदेश है, वहां उद्योग-व्यापार बड़े पैमाने पर विकसित है, और गुजरातियों की पूरी दुनिया में आवाजाही को भी सब अच्छी तरह जानते हैं, और देश भर गुजराती जहां जाते हैं, वहां वे सफल और संपन्न कारोबारी बनते हैं। इसके बाद भी अगर स्कूली शिक्षा के मामले में गुजरात इतना फिसड्डी साबित हुआ है, तो इसकी तोहमत हम वहां के बच्चों को नहीं देते, हम वहां की सरकार को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं, और हमें यह लगता है कि यह मोदी और शाह के लिए फिक्र की बात भी रहनी चाहिए। ऐसे आंकड़े किसी को भी अपने प्रदेश को सुधारने का एक मौका देते हैं।


