संपादकीय
राजधानी दिल्ली में बीती शाम ऐतिहासिक लालकिले के करीब एक कार में हुए विस्फोट में अब तक करीब दर्जनभर लोगों के मारे जाने की खबर है, और दर्जनों लोग जख्मी हैं। सडक़ पर व्यस्त टै्रफिक के बीच इस धमाके में उस कार के तो परखच्चे तो उड़ ही गए और आसपास की कई गाडिय़ां जलकर राख हो गईं। दिल्ली में बरसों बाद ऐसा विस्फोट हुआ है, और पिछले दो दिनों से दिल्ली के इलाके के फरीदाबाद में एक जगह 3 टन विस्फोटक मिला था, अटकलें इन दोनों बातों का रिश्ता जोड़ रही हैं। कश्मीर से रिश्ता रखने वाले दो अलग-अलग डॉक्टरों से राजस्थान और हरियाणा में जिस तरह हथियार और विस्फोटक मिले हैं, उनसे भी यह घटना जुड़ी हुई हो सकती है। लेकिन भारत में राजनीति ऐसी है कि लोग इसे बिहार चुनाव में मतदान के ठीक पहले विस्फोट भी समझ रहे हैं।
जिन लोगों ने दिल्ली में दर्जनभर से अधिक दाखिल होने वाली सडक़ों से आकर इस राजधानी-महानगर में गाडिय़ों का सैलाब देखा हुआ नहीं होगा, वे ही यह मानकर चल सकते हैं कि दूसरी जगहों पर विस्फोटक मिलने के बाद दिल्ली में सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ाई गई, गाडिय़ों की जांच क्यों नहीं की गई। जिस शहर में बिना किसी जांच ही लगातार टै्रफिक जाम रहते हों, उस शहर में अगर गाडिय़ों की जांच की जाए, तो जिंदगी थम ही जाएगी। दूसरी बात यह भी है कि विस्फोटकों के जो बड़े-बड़े जखीरे मिलना बताया गया है, वे भी किसी जांच और खुफिया कार्रवाई की कामयाबी का ही सुबूत हैं। इस बात को समझना होगा कि देश के चारों तरफ के सरहदी मुल्कों से खराब रिश्तों के चलते हुए किसी तरफ से आतंकी किस तरह के विस्फोटक या हथियार लेकर घुस सकते हैं, यह अंदाज लगा पाना, और काबू करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। समझदारी हमेशा इसी बात में रहती है कि पड़ोसियों के बीच रिश्ते अच्छे रहें। रिश्तेदारों से रिश्ते अच्छे न रहना एक बार चल सकता है, क्योंकि लोग उनसे कम मिलकर भी काम चला सकते हैं, और बिना मिले भी, लेकिन पड़ोसी तो सोते-जागते सामने पड़ते हैं, उनसे तो बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए जब योरप के देश एक समुदाय बनाकर आपस में रिश्ते अच्छे रखते हैं, सरहदों को कई बातों के लिए मिटा देते हैं, तो वे चैन से भी जीते हैं।
यह चौदह बरस बाद दिल्ली का पहला बड़ा विस्फोट है। वर्ष 2011 में दिल्ली हाईकोर्ट के अहाते में एक विस्फोट में 15 मौतें हुई थीं, और 80 के करीब लोग घायल हुए थे, उसकी जिम्मेदारी एक इस्लामी-आतंकी संगठन ने ली थी, और इस केस में तीन लोगों को उम्रकैद हुई थी। इस रिकॉर्ड को देखते हुए दिल्ली में कल सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों की नाकामयाबी गिनना ठीक नहीं है। इन दोनों का काम जब कामयाबी से होता है, तो वह दिखता नहीं है, इमारत की नींव में दब जाता है, और जब असफल रहता तो वह छत पर चढक़र चीखता है। बीते बरसों में कश्मीर में जरूर बड़े-बड़े हमले हुए, लेकिन दिल्ली सुरक्षित रही। दिल्ली की हिफाजत भी केंद्र सरकार के जिम्मे है, और मणिपुर से लेकर कश्मीर तक तोहमत झेलने वाली इस केंद्र सरकार को दिल्ली की सुरक्षा के लिए एक तारीफ भी मिलनी चाहिए। कल शाम के धमाके से फिलहाल तारीफ की संभावनाएं खत्म हो गई हैं।
भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं को लेकर लंबा तजुर्बा यह रहा है कि पाकिस्तान की जमीन से ऐसी साजिशों की शुरूआत होती है, फिर उनके पीछे सरकार हो, मिलिट्री खुफिया एजेंसी हो, या कोई और सरकार प्रायोजित आतंकी संगठन हो। अब जिस तरह बांग्लादेश इस्लामी कट्टरता की गिरफ्त में है, और यह अस्थिर चल रहा देश जिस तरह पाकिस्तान के साथ हमजोली बना हुआ है, और जिस तरह ये दोनों ही देश चीन के साए में चल रहे हैं, यह सबकुछ भारत के लिए खतरे के बादल हैं। इन देशों के साथ भारत की इतनी लंबी जमीनी सरहद है कि कहीं से भी घुसपैठ हो सकती है। मुंबई धमाकों के वक्त यह दिखा ही था कि किस तरह पाकिस्तान से मोटरबोट से आतंकी हथियारों और विस्फोटकों सहित भारत पहुंच सकते हैं। कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, बंगाल, उत्तर-पूर्व, जैसे भारत के कितने ही प्रदेश और इलाके हैं जो कि खराब पड़ोसी-रिश्तों वाले देशों से लगे हुए हैं।
आतंकी साजिशों के बहुत से मामले अदालतों में जाकर खड़े नहीं हो पाते, और हिंदू हों, या मुस्लिम, कई तरह के आतंक-आरोपी सुबूतों की कमी से छूट भी जाते हैं। कई लोग तो 20-25 बरस बाद भी छूटे हैं। ऐसे में सचमुच के हमलावर कौन हैं, यह जानने में कई बार कुछ दशक भी लग सकते हैं। इसलिए जनधारणा को अदालत में सही साबित होने का काम बड़ा लंबा होता है, और इस बीच एक नहीं, कई चुनाव निपट जाते हैं। दिल्ली के कल के विस्फोट में देश की सुरक्षा व्यवस्था की असलियत सामने रख दी है कि सौ फीसदी हिफाजत किसी भी तरह मुमकिन नहीं हो सकती। दिल्ली राज्य और केंद्र सरकार दोनों एक ही पार्टी की हैं, और दिल्ली की हिफाजत पूरी तरह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है, दिल्ली से लगे हुए राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की ही सरकारें हैं, इसलिए खुफिया निगरानी और सुरक्षा के कोई राजनीतिक मतभेद नहीं हैं। फिलहाल यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सुरक्षा इंतजाम में दिल्ली में हुआ पहला बड़ा विस्फोट है, और यह इसी वक्त आसपास के दूसरे विस्फोटक जब्तियों से जुड़ा हुआ भी हो सकता है। यह मौका राजनीतिक तोहमतों का नहीं है, इसलिए हम केंद्र सरकार को इस धमाके के पीछे के जिम्मेदार लोगों तक पहुंचने के लिए वक्त देना बेहतर समझेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


