संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम और स्थानीय बच्चों के खेलकूद के बीच कोई रिश्ता नहीं...
सुनील कुमार ने लिखा है
19-Nov-2025 6:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम और स्थानीय बच्चों के खेलकूद के बीच कोई रिश्ता नहीं...

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राज्य सरकार ने एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बनाया था जिसकी निर्माण लागत ही सौ करोड़ रूपए तक पहुंच गई थी, और जमीन के दाम जोड़ें, तो शायद हजार-दो हजार करोड़ का स्टेडियम था। अब सफेद हाथी खाने में तो काले हाथी जितना ही खाता है, लेकिन उसे नहलाने में साबुन अलग से लगता है, जो कि खासा महंगा रहता है। यह स्टेडियम भी भूले-भटके यहां होने वाले किसी क्रिकेट मुकाबले की शकल कभी देख पाता था, और इसके अलावा तो इतने बड़े ढांचे का और तो इस्तेमाल था नहीं। अब सरकार ने पांच साल के लिए यह स्टेडियम छत्तीसगढ़ क्रिकेट एसोसिएशन को दिया है, जिससे सालाना कुछ रकम भी मिलेगी, रखरखाव भी होगा, और हो सकता है कि मैच कुछ अधिक हो जाएं, या कुछ रकम भी सरकार को मिल जाए। हम अभी सरकार के इस फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे, लेकिन इससे जुड़े हुए एक मुद्दे पर बात करना जरूरी है।

प्रदेश में दसियों हजार स्कूल-कॉलेज के खेल मैदान हैं, कुछ छोटे हैं, कुछ बड़े हैं, लेकिन खेल गतिविधियां ठप्प सरीखी रहती हैं। चूंकि सरकार चाहती है इसलिए खेल मुकाबले तो हो जाती है, स्कूलों से लेकर दूसरी टीमें बन जाती हैं, प्रतियोगिताएं हो जाती हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में राज्य के खिलाड़ी राज्य के भीतर ही रह जाते हैं, और गिने-चुने खिलाड़ी ही राष्ट्रीय स्तर पर किसी किनारे पहुंच पाते हैं। भारतीय महिला क्रिकेट टीम की एक फिजियोथैरेपिस्ट युवती छत्तीसगढ़ की है, और टीम विश्वकप जीतकर लौटी, तो यह प्रदेश इस फिजियोथैरेपिस्ट का सम्मान-अभिनंदन करने का मौका पा सका, पूरा प्रदेश इसी बात को लेकर गौरवान्वित रहा। कहने के लिए प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के अलावा, अंतरराष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम भी है, लेकिन इनका प्रदेश के खिलाडिय़ों से कुछ लेना-देना नहीं है। नेता-अफसर-ठेकेदार बड़े-बड़े निर्माण से खुश रहते हैं, और बड़े-बड़े स्टेडियम बनने से तो सरदार खुश हुआ किस्म के फिल्मी डायलॉग भी याद आते हैं। लेकिन प्रदेश के खिलाड़ी इन स्टेडियमों में खेलने लायक बन सकें, वह बात किनारे धरी हुई है। स्कूल और गांव के स्तर के खिलाडिय़ों को आगे बढ़ाने, उन्हें मैदान मुहैया कराने, खेल के सामान और खेल शिक्षक-प्रशिक्षक देने का काम स्टेडियम बनाने जितना आकर्षक नहीं रहता, इसलिए सरकार में किसी की दिलचस्पी ऐसे बिखरे हुए काम में नहीं रहती, जहां स्कूल की स्पोटर््स किट खरीदी से छोटे-छोटे से कमीशन ही मिलें। फिर स्कूलों में खेल के अभ्यास से तो किसी को कुछ नहीं मिलना है, सिर्फ बच्चों को खेलने का मौका मिलेगा, आगे बढऩे का मौका मिलेगा। इसलिए प्रदेश भर में स्कूल-कॉलेज के, और बाकी सार्वजनिक खेल मैदानों पर गैरखेल काम ही चलते रहते हैं। सरकार, राजनीति, बाजार, धर्म, और आध्यात्म, इन सब के तम्बू लगने और उखडऩे के बीच एक-दो दिन खेल मैदानों पर बच्चे पहुंच पाते हैं, तो हाथ-हाथ भर गहरे गड्ढे पड़े रहते हैं, कोई मैदान खेल के लायक नहीं बचते।

इस प्रदेश में हर खेल के लिए कोई न कोई खेल संघ है। हरेक पर कोई न कोई बड़ा नेता, बड़ा अफसर, या बहुत बड़ा कारोबारी काबिज है। सत्ता बदलने के साथ-साथ कुछ खेल संघों के मुखिया के नाम बदल जाते हैं, लेकिन वे रहते नेता-अफसर, और कारोबारी ही हैं। खेल मैदानों की बात कुछ अरसा पहले छत्तीसगढ़ बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्षा ने भी उठाई थी। लेकिन प्रदेश के एक भी खेल संघ ने यह बात नहीं उठाई कि खेल मैदानों पर दूसरे काम नहीं होने चाहिए, उन्हें सिर्फ बच्चों और खिलाडिय़ों के खेलने के लिए रखना चाहिए, ताकि वे स्टेडियम में पहुंचने लायक टीम के लायक भी बन सकें, और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ साबित कर सकें। खेल संघ सत्ता से इतने जुड़े रहते हैं, सत्ता का हिस्सा रहते हैं कि वे सरकारी या राजनीतिक हितों से परे कुछ सोच भी नहीं पाते। खेल आयोजनों और खेल संघों के मंच देखें, तो उन पर सत्ता, सत्तारूढ़ पार्टी, और प्रदेश का खेल माफिया हावी रहता है, जिनका खेलों से कुछ लेना-देना नहीं रहता, लेकिन वे इन संघों के नाम पर एक सामाजिक प्रतिष्ठा, और एक ताकत पाते रहते हैं। तमाम खेल एक तरफ तो खेल मैदानों को लेकर सरकारी लापरवाही और उदासीनता के शिकार हैं, और दूसरी तरफ वे खेल संघों के शिकार हैं। आज जितने खिलाड़ी थोड़े-बहुत भी आगे बढ़ पाते हैं, वे खेल संघों की वजह से नहीं, खेल संघों के बावजूद आगे बढ़ जाते हैं।

किसी भी किस्म की सत्ता के बड़े लोगों को छोटे मैदानों की कोई बात नहीं सुहाती, उन्हें बड़े स्टेडियम, अंतरराष्ट्रीय मैच, बड़े सितारे, मुफ्त की बिजली, हजारों करोड़ के स्टेडियम कुछ लाख रूपए में पा लेने की हसरत उनकी रहती है। लेकिन क्या यह प्रदेश बाहर से आए हुए खिलाडिय़ों का नजारा देखने के लिए ही बना है, या फिर यहां के बच्चों के खिलाड़ी बनने के लिए भी गांव-गांव तक सरकार की जो संपत्ति बिखरी हुई है, जो सार्वजनिक खेल मैदान हैं, क्या उनके लिए भी सरकार कोई नीति बनाएगी, क्या खेल संघ यह भी देखेंगे कि उनके खेलों के लिए मैदान हैं या नहीं, वे कितने काम के हैं, और बच्चों को उन खेलों की सुविधा हासिल है, या उनके खेल संघों की राजनीति ही उन खेलों को हासिल है? यह बात हँसी की लगती है कि सरकार अपनी खुद की स्कूलों के मैदानों को न बचाए, उन पर अवैध निर्माण खुद करती रहे, और दूसरी तरफ महंगी टिकट देकर जाने वाले अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम  पर हजारों करोड़ की जमीन लगाए, सैकड़ों करोड़ का निर्माण करे, और लाखों रूपए महीने का रखरखाव करे।

भारत को चीन जैसे देश से सीखना चाहिए कि छोटे-छोटे से बच्चों की प्रतिभा को पहचान कर किस तरह उन्हें चार-छह बरस की उम्र से ही प्रशिक्षण दिया जाता है, और किशोरावस्था में पहुंचने तक तो उनमें से चुनिंदा बच्चे ओलंपिक से गोल्ड मैडल लेकर भी आने लगते हैं। इधर हिन्दुस्तान मैदान और स्टेडियम के बाजारू और कारोबारी इस्तेमाल में डूबा हुआ है, और सत्ता पर काबिज लोग खेल संघों पर काबिज होकर उन खेलों का गला घोंट रहे हैं। ऐसे देश-प्रदेश में बच्चों और बड़ों सबका खेल भविष्य यही है कि सैकड़ों-हजारों रूपए की टिकटें खरीदकर नुमाइशी मैच देखें, और अपनी खुद की उपलब्धि के हसीन सपने देखना छोड़ दें, क्योंकि उनको पूरा करने की फिक्र किसी को नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


अन्य पोस्ट