संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में अभी मुस्लिम समाज में महिला के हक के खिलाफ प्रचलित एक प्रथा पर सुनवाई हो रही है। अदालत ने एक मुस्लिम मर्द के वकील से यह पूछा है कि तलाक-ए-हसन नाम की प्रथा क्या सभ्य समाज में जारी रहनी चाहिए? यह मामला एक पत्रकार बेनजीर हिना का दायर किया हुआ है जिसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिला को तलाक देने का यह तरीका तर्कहीन, मनमानी, और असंवैधानिक है जो कि महिलाओं के सम्मान, और समानता के अधिकार के खिलाफ है। बीते बरसों में भारत में मुस्लिम महिलाओं से जुड़े हुए कई मामले अदालतों में आए, इनमें से एक, तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को 2017 में अदालत ने असंवैधानिक करार दिया था। इसके बाद मोदी सरकार ने तीन तलाक को गैरकानूनी करार देने वाला एक कानून बनाया जो 1 अगस्त 2019 से लागू हो गया। इसके बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई चुनावी रैलियों में कहा था कि मुस्लिम मां-बहनों को तीन तलाक के जुल्म से आजादी दिलानी है। इस कानून में ऐसा करने वाले मुस्लिम मर्द को तीन साल तक की कैद, और जुर्माने का प्रावधान किया गया था। इसके लागू होने के बाद से देश में तीन तलाक देने वाले हजारों मर्दों के खिलाफ उनकी बीवियों की तरफ से पुलिस रिपोर्ट हुई है, और मुकदमे चल रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट में तलाक की एक दूसरी किस्म के खिलाफ मामला पहुंचा है।
भारत में 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधान चले आ रहे हैं। इनमें से बहुत से प्रावधान महिलाओं के हक के खिलाफ हैं। देश में कुछ अलग-अलग प्रदेशों ने मुस्लिमों को इस कानून के तहत नाबालिग लड़कियों की शादी करने की मिली हुई छूट को खत्म करना शुरू किया है, और हमने अपने अखबार में तीन तलाक को सजा के लायक बनाने का भी समर्थन किया था, और नाबालिग लड़कियों की इस्लामिक कानून के हवाले से शादी करने के खिलाफ भी बार-बार लिखा है, अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर इसके खिलाफ कई बार कहा है। आज भी सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के इस दूसरे तरीके के खिलाफ कड़ा रूख दिखाया है, और कहा है कि पति की तरफ से उसका वकील ही महिला को तलाक के तीन नोटिस एक-एक महीने के फासले से भेजकर शादी को खत्म कर सकता है, यह आज के वक्त पर सही कैसे माना जा सकता है? अदालत ने यह भी कहा है कि हर महिला के पास कानूनी लड़ाई लडऩे की ताकत नहीं होती है।
मुस्लिम महिला के तलाक के बाद उसका वही पति अगर दुबारा उससे शादी करना चाहे, तो उसके लिए हलाला नाम का एक रिवाज है जिसके तहत उस औरत को पहले किसी और मर्द से शादी करनी पड़ती है, फिर उससे तलाक लेना पड़ता है, तब जाकर वह अपने पिछले पति से दुबारा निकाह कर सकती है। इस प्रथा के नाम पर मुस्लिम महिलाओं का कई जगह बहुत बुरा शोषण होता है। मुस्लिम मर्द को चार बीवियां रखने का हक है, और यह बात भी मुस्लिम महिला के हक मारने वाली रहती है। मुस्लिम लड़कियों को अपने भाईयों के मुकाबले आधा हक ही मिलता है, और मुस्लिम विधवा को भी कानून के तहत बहुत कम हक मिलता है। तलाक के बाद मुस्लिम महिला को कोई स्थाई गुजारा-भत्ता नहीं मिलता। रूपए-पैसे के कुछ मामलों में मुस्लिम कानून में दो औरतों की गवाही एक मर्द की गवाही मानी जाती है। ऐसे कई बेइंसाफ कानूनों को बदलने की मांग मुस्लिम महिला संगठन लंबे समय से करते आ रहे हैं, और मुस्लिम समाज के बाहर हमारे सरीखे लोग भी इन बातों को बार-बार उठाते हैं।
कर्नाटक की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं पर वहां की पिछली भाजपा सरकार के वक्त हिजाब पहनने पर यह कहते हुए रोक लगाई गई थी कि यह स्कूली पोशाक का हिस्सा नहीं है। सरकार की इस रोक के खिलाफ मुस्लिम समुदाय सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन उसे कोई राहत नहीं मिली। हमने इस मुद्दे पर शुरू से अंत तक यही लिखा था कि कोई समुदाय हिजाब की शर्त पर अडक़र अपनी लड़कियों को स्कूल-कॉलेज से निकाल देने का काम करता है, तो वह परले दर्जे की मर्दाना बेअक्ली है। दुनिया में बहुत से ऐसे इस्लामिक या मुस्लिम देश हैं जहां पर हिजाब की कोई बंदिश नहीं है, बुर्के की कोई बंदिश नहीं है। इस पर भी अगर मुस्लिम मर्द अपने समाज की महिलाओं को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि यह उनका हक है, तो यह एक मर्दानी कामयाबी है, और सदियों से उसकी गुलाम चली आ रही महिलाओं की नासमझी भी है। जिस बोझ को मुस्लिम महिला का हक करार देने में मर्द कामयाब हो गए हैं, उस साजिश को भी समझना चाहिए, और समाज सुधार के रास्ते, या कानून के रास्ते, सिर्फ महिलाओं पर लादे जाने वाले ऐसे रिवाज खत्म किए ही जाने चाहिए। यह कोई हक नहीं है एक बोझ है। एक वक्त राजस्थान में हिन्दू महिला के पति के गुजर जाने पर उसे भी साथ-साथ सती कर देने की घटना होती थी, और उसे हिन्दू महिला का हक करार दिया जाता था। बाद में कानून बनाकर उसके इस तथाकथित हक को खत्म किया गया है।
किसी भी लोकतंत्र में किसी भी धर्म के ऊपर औरत और मर्द की बराबरी रहनी चाहिए। लैंगिक समानता, मानवाधिकार, गरिमा से जीने का हक, इन सब पर किसी तरह का मोलभाव नहीं किया जाना चाहिए। इन बातों को नॉन-निगोशिएबल मानकर चलना चाहिए, कि इन पर कोई समझौता नहीं हो सकता। और इसके बाद ही किसी धार्मिक रीति-रिवाज के कानूनी होने या न होने पर बात होनी चाहिए। एक नाबालिग लडक़ी की शादी कर देने का हक लोकतंत्र में किसी को नहीं मिलना चाहिए, चाहे वह मुस्लिम बेटी के मां-बाप ही क्यों न हों। बुनियादी मानवाधिकार, और लोकतांत्रिक न्याय किसी भी धार्मिक कानून से ऊपर रहने चाहिए। एक वक्त तो हिन्दू लडक़े-लड़कियों का भी धड़ल्ले से बाल विवाह होता था, बाद में कानून बनाकर उसे गैरकानूनी करार दिया गया, लेकिन आज भी उस कानून पर अमल के लिए सरकार को समाज से संघर्ष करना पड़ता है।
सिर्फ अल्पसंख्यक हो जाने से किसी समुदाय को ऐसे धार्मिक अधिकार नहीं दिए जाने चाहिए जो कि उस समाज के भीतर की महिलाओं को इंसान भी मानने के खिलाफ हों, जाहिर तौर पर गैरबराबरी और बेइंसाफी के हों। भारत में जिस-जिस धर्म में महिलाओं के हक के खिलाफ जो भी कानून हैं, उन सबको खत्म किया जाना चाहिए। यह एक अच्छी बात है कि एक मुस्लिम महिला का यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है, और जजों को भी यह समझना चाहिए कि मुस्लिमों के बीच सदियों से प्रचलित, और पिछले कुछ दशकों से कानून बनकर लागू बातों को लोकतंत्र की रौशनी में देखने-परखने का समय आ चुका है, और अब किसी समाज के भीतर महिलाओं को दूसरे दर्जे की नागरिक, या गुलाम बनाकर रखना देश के लोकतंत्र के खिलाफ कहलाएगा। अदालत को दकियानूसी कानूनों को जारी रखने के बजाय 21वीं सदी को भी देखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


