संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुस्लिम लडक़ी और महिला के हक धार्मिक कानूनों से ऊपर होने चाहिए लोकतंत्र में
05-Nov-2025 5:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : मुस्लिम लडक़ी और महिला के हक धार्मिक कानूनों से ऊपर होने चाहिए लोकतंत्र में

केरल हाईकोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला सामने आया है जिसमें जस्टिस पी.वी. कुन्हीकृष्णन ने कहा कि केरल विवाह पंजीकरण नियम 2008 के तहत मुस्लिम पुरूष पहली पत्नी के जीवित रहते और विवाह कायम रहते किसी और महिला से शादी के रजिस्ट्रेशन की इजाजत नहीं देता। उन्होंने कहा कि उसके सामने पेश एक मामले में राज्य सरकार को ऐसी दूसरी शादी रजिस्टर करने का निर्देश देने की अपील की गई थी, लेकिन अदालत ऐसा इसलिए नहीं करेगी कि उसकी पहली पत्नी को इस मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया था। उन्होंने कहा कि मुस्लिम कानून के तहत विशेष परिस्थितियों में दूसरी शादी की अनुमति है, और उसे देखते हुए कोई मुस्लिम पत्नी अपने पति की दूसरी शादी के पंजीकरण के दौरान मूकदर्शक बनी नहीं रहती। उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ दूसरी शादी की इजाजत देता है, तो पुरूष दूसरी शादी कर सकता है, लेकिन दूसरी शादी को रजिस्टर कराने के मामले में देश का कानून लागू होगा। उन्होंने अपना यह विचार भी सामने रखा कि 99.99 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अपने पति के साथ शादी के बंधन में रहते हुए उसकी दूसरी शादी के खिलाफ होंगी। उनका यह भी कहना है कि पहली पत्नी अगर मौजूद है, और उसका पति अपनी दूसरी शादी को देश के कानून के मुताबिक रजिस्टर कराता है, अदालत पहली पत्नी की भावनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। जज ने लिखा है कि धर्म बाद में आता है, संवैधानिक अधिकार सबसे पहले है। उन्होंने कहा कि जब दूसरी शादी के पंजीकरण की बात आती है, तो धार्मिक-रस्मी कानून लागू नहीं होते।

 यह कानून मुस्लिम महिला के हक की एक स्पष्ट व्याख्या करता है कि अगर उसका पति उसके रहते हुए और शादी कायम रहते हुए कोई दूसरी शादी करता है, तो पहली बीवी की सहमति के बिना दूसरी शादी का रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता। यहां पर दो कानून एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होते हैं, एक मुस्लिम विवाह कानून है जो कि मुस्लिम पुरूष को कुछ नियम और शर्तों के साथ चार शादियां समानांतर करने और रखने की छूट देता है। दूसरा कानून विवाह पंजीयन का है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश के लिए अनिवार्य किया है, और किसी भी तरह की शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है। केरल हाईकोर्ट के इस अकेले जज के फैसले ने मुस्लिम पुरूष की दूसरी शादी को नहीं रोका गया है, क्योंकि वह उस समुदाय के विवाह कानून के तहत मुमकिन है, लेकिन उसका रजिस्ट्रेशन करने से अदालत ने इंकार कर दिया है।

 

इसी वक्त केरल से एकदम दूर, असम में वहां के कट्टर मुस्लिम विरोधी मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने यह बीड़ा उठाया है कि वे राज्य में किसी भी कीमत पर बहुविवाह रोकेंगे। उन्होंने इसके पहले यह बीड़ा भी उठाया था कि नाबालिगों की शादी कोई नहीं कर सकेंगे, और देश के कानून के मुताबिक उस पर सजा दी जाएगी। उन्होंने बाल विवाह रोकने के लिए एक सरकारी अभियान चलाया है, और हजारों नाबालिग लड़कियों की शादी रूकवाई है जिनमें से अधिकतर मुस्लिम थीं। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम विवाह कानून के मुताबिक किसी लडक़ी को माहवारी शुरू होने के बाद उसकी शादी की जा सकती है। असम में बाल विवाह देश में सबसे अधिक, करीब 32 फीसदी था, और 2022 से वहां पर इसे रोकने की मुहिम बड़ी कड़ाई से चल रही है। 2023 में एक जिले में एक दिन में 4 हजार से अधिक लोग गिरफ्तार हुए थे, जिनमें तकरीबन तमाम लोग मुस्लिम थे। सरमा का कहना है कि बाल विवाह गरीबी, और अशिक्षा की उपज है, और उन्होंने 2022 में असम बाल विवाह निषेध नियम लागू किया, और नाबालिगों की शादी पर पॉक्सो एक्ट के तहत भी कार्रवाई की, इनसे मुस्लिम नाबालिग लड़कियों (हो सकता है कुछ संख्या में दूसरे धर्मों की भी) की शादियां बहुत कम हुई हैं। अब उन्होंने 2024 में एक बहुपत्नी निषेध विधेयक पेश किया है, और 2024 में एक और कानून धर्मांतरण को लेकर बनाया है जिसमें बहुविवाह को भी जुर्म बनाया गया है, उन्होंने अभी-अभी यह कहा है कि वे किसी भी हालत में बहुविवाह नहीं होने देंगे। अल्पसंख्यक समुदाय असम मुख्यमंत्री के इन फैसलों को घोर साम्प्रदायिक करार देता है, लेकिन सीएम का कहना है कि उनका कानून सभी धर्मों पर लागू होता है, न कि किसी एक धर्म के खिलाफ।
 
अब देश को यह सोचना है कि केरल का मामला हो, या असम का, मुस्लिम नाबालिग लडक़ी का मामला हो, या मुस्लिम शादीशुदा महिला का, उनके बुनियादी मानवीय अधिकार अधिक बड़े माने जाएं, या मुस्लिम मर्दों के नाबालिग से शादी करने के हक, और एक से ज्यादा बीवियां रखने के हक? देश में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के निजी और धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए अलग कानून है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि देश के संविधान में नागरिकों के जो मौलिक अधिकार होने चाहिए, और हैं, क्या धार्मिक अधिकार इन मौलिक अधिकारों को कुचलने वाले हो सकते हैं? फिर यह बात भी है कि देश में तमाम किस्म के धार्मिक अधिकार महिलाओं के समान नागरिक अधिकारों के खिलाफ हैं, तो आज 21वीं सदी की चौथाई सदी निकल जाने के बाद भी मुस्लिम लडक़ी और महिला को महिला विरोधी मर्दों का गुलाम बनाकर रखना ठीक है, या ऐसे धार्मिक अधिकारों को बिदा करने का वक्त आ गया है?
 
हम अपने अखबार में, और यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर लगातार इस बात को उठाते हैं कि हमें जब कभी किसी धार्मिक समुदाय के अधिकारों, और उस समुदाय के भीतर महिलाओं के अधिकारों के बीच किसी एक को छांटना होगा, तो हम हमेशा ही महिलाओं के अधिकारों को छांटेंगे। अपने समुदाय की महिलाओं के हितों के साफ-साफ खिलाफ धार्मिक अधिकार अगर मर्दों को मिले हुए हैं, तो ऐसे धार्मिक अधिकार खत्म करने का वक्त कब का आ चुका है। एक वक्त तो राजस्थान में महिलाओं को सती बनाना भी सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त था, फिर कन्या भ्रूण हत्या चलन में थी, छोटी-छोटी बच्चियों की शादी की जाती थी, विधवा विवाह पर सामाजिक रोक थी, लेकिन समाज सुधार करते हुए हिन्दू समाज की भी बहुत सी मान्यताओं, और उसके बहुत से रीति-रिवाजों के खिलाफ कानून बने थे। भारत में मुस्लिम हों, या किसी और अल्पसंख्यक धर्म के लोग हों, उनके धार्मिक अधिकार उन्हीं की बेटियों और बीवियों के इंसानी हक को कुचलने वाले बनाकर रखना ठीक नहीं है। लोकतंत्र को उदारता और प्रगतिशीलता की तरफ बढऩा आना चाहिए। हम पूरे देश में मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम मर्दों की बराबरी के हक देने के हिमायती हैं, इस बारे में संसद, विधानसभाएं, और संवैधानिक-अदालतें जो-जो कर सकें, उन्हें करना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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