संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक ने किए कत्ल, बाकी तमाम उसे भुगतेंगे...
सुनील कुमार ने लिखा है
28-Nov-2025 3:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : एक ने किए कत्ल, बाकी तमाम उसे भुगतेंगे...

अमरीका के वॉशिन्गटन में दो दिन पहले एक अफगान नागरिक ने जिस तरह वहां के दो सैनिकों को गोली मार दी, उससे अमरीका में बाहर से आकर शरण पाए हुए, या कामकाज कर रहे लोगों पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वैसे भी आप्रवासियों के खासे विरोधी रहते आए हैं, और अब उन्हें अपने को नापसंद देशों पर और अधिक कड़े प्रतिबंध लगाने का एक अभूतपूर्व मौका मिला है। किसी भी देश को अपनी हिफाजत की कीमत पर दूसरे देशों के लोगों को जगह देने की कोई मजबूरी तो रहती नहीं है। ट्रंप ने अपनी चुनावी घोषणाओं के वक्त से ही जिन देशों के नागरिकों पर रोक लगाने की बात कही थी, उन्हीं देशों के लोग अगर अमरीका में सैनिकों को मार डालने जैसी हरकत करेंगे, तो उसका नुकसान अमरीका की जमीन पर ठहरे हुए उनके दूसरे देशवासियों को, उनके धर्म के लोगों को झेलना पड़ेगा। आज एक अफगान की वजह से अमरीका में सारे अफगानों की दाखिला अजऱ्ी पर रोक लग गई है।

जब किसी मुस्लिम या अफ्रीकी देश से योरप पहुंचे हुए शरणार्थियों में से कोई हिंसा करते हैं, तो उसका नुकसान बाकी सारे ही मुस्लिम लोगों को झेलना पड़ता है। योरप में एक-एक करके कई देशों में ऐसे ही शरणार्थियों की वजह से राजनीतिक उथल-पुथल हुई है, और कुछ जगहों पर कट्टरपंथी पार्टियों को अभूतपूर्व जनसमर्थन भी मिला है। जब एक बार कट्टरपंथी पार्टियां सत्ता पर भागीदार बन जाती हैं, तो फिर उन देशों में दूसरे देशों से आए हुए लोगों पर रोक-टोक और भी बढ़ जाती है। इसलिए जिस देश या जिस धर्म के लोगों को दूसरी जगह जगह चाहिए, उन्हें अधिक सावधान रहना होता है क्योंकि उन जगहों के मूलनिवासी अगर बागी हो जाते हैं, तो फिर उनमें से किसी को भी उस जमीन पर जगह नहीं मिलती। भारत की ही बात करें, तो आज यहां पर बांग्लादेशी, या म्यांमारी लोगों के आने और बसने का मुद्दा एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो चुका है। अब इनमें से अगर कोई भारत की जमीन पर किसी जुर्म में शामिल रहते हैं, तो उसका नुकसान इन देशों से यहां आए हुए दसियों लाख लोगों को उठाना पड़ता है। फिर धीरे-धीरे यह धर्म के आधार पर भी एक चुनावी नारा बनने लगता है, जैसाकि अमरीका और योरप के देशों में वहां की ईसाई-बहुल आबादी के बीच मुस्लिम शरणार्थियों का मुद्दा बना हुआ है।

यह भी समझने की जरूरत है कि सिर्फ विदेशी शरणार्थी होने से स्थानीय लोगों की नाराजगी नहीं हो जाती, नाराजगी के पीछे कामकाज के अवसर घटना भी रहता है, और संस्कृतियों का टकराव भी रहता है। पश्चिम के देशों में जाकर बसे हुए मुस्लिम शरणार्थी जब वहां की स्थानीय लोकतांत्रिक परंपराओं के साथ घुल-मिल नहीं पाते, तब भी एक टकराव खड़ा होता है, और स्थानीय लोग यह पाते हैं कि विदेशी शरणार्थी अपनी खुद की महिलाओं के साथ बुरा सुलूक करते हैं जो कि वे अपने बच्चों की नजरों में आने देना नहीं चाहते। ऑस्ट्रेलिया में अभी दो-चार दिन पहले ही एक दक्षिणपंथी महिला सांसद ने संसद में सनसनी फैला दी जब वे वहां बुरका पहनकर चली गईं। उनकी अपनी पोशाक के मुताबिक उनकी टांगें खुली हुई थीं, और उस पर बुरका अटपटा भी लग रहा था, लेकिन वे देश में बुरके पर रोक लगाने के मुद्दे को एक बार फिर उठाना चाहती थीं। संसद ने उनके इस व्यवहार को नामंजूर करते हुए उन्हें पूरे सत्र से निलंबित कर दिया, लेकिन इससे ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश में भी मुस्लिम रीति-रिवाजों के खिलाफ एक राजनीतिक माहौल का संकेत तो मिलता ही है। लोगों को याद होगा कि योरप के कुछ देशों में भी बुरके पर रोक लगाने के खिलाफ मुस्लिम समुदाय यूरोपीय संसद तक पहुंचा, अदालतों तक के दरवाजे खटखटाए, लेकिन सरकारों का फैसला सही माना गया, और यह रोक जारी रही। संस्कृतियों के ऐसे टकराव के बीच जब बाहर से आए हुए लोग किसी तरह की हिंसा में शामिल होते हैं, तो उससे नौबत बहुत खराब हो जाती है। ट्रंप ने आज अमरीका में आने की अर्जी लगाने वाले तमाम अफगान लोगों की अर्जियों पर रोक लगी दी है। दूसरी तरफ ब्रिटेन में सरकार कानून बनाकर वहां पहुंचने वाले अवैध शरणार्थियों पर आज तक की सबसे कड़ी रोक लगा रही है क्योंकि उन शरणार्थियों को होटलों में ठहराना ब्रिटिश नागरिकों पर बहुत बड़ा बोझ बन रहा था, और सरकारें लगातार अपने नागरिकों को नाखुश बनाकर नहीं चल सकती हैं।

पश्चिम के देशों की जो उदार सरकारें हैं, उनकी उदारता भी शरणार्थियों की हिंसा के सामने लंबे नहीं टिक सकतीं। और जिन मुस्लिम देशों से ऐसे शरणार्थी आए हैं, उन मुस्लिम देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारता का कोई माहौल उन्होंने देखा हुआ नहीं है। अपने गृहयुद्ध से, भुखमरी या, किसी और वजह से उन्हें अपना देश छोडऩा पड़ा, लेकिन शायद उनकी अपनी मातृभाषा में, जैसा देश, वैसा भेष, यह नसीहत उन्हें मिली हुई नहीं थी, इसलिए वे शरण देने वाले देश की परंपराओं का सम्मान नहीं कर पा रहे। दुनिया के विकसित और सभ्य देश अपनी उदार लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश तो कर सकते हैं, लेकिन सत्तारूढ़ लोग इसी मुद्दे पर अपनी सरकार खोने का खतरा नहीं उठा सकते। आज एक-एक करके कई देशों में मतदाताओं का बहुमत बाहरी लोगों के खिलाफ होते जा रहा है, और ऐसा स्थानीय तनाव कोई राजनीतिक पार्टी नहीं झेल सकती। फिर यह भी है कि बाहर से आने वाले शरणार्थियों का कोई एक संगठन तो होता नहीं है कि उनसे किसी अनुशासन की उम्मीद की जा सके। जिनका धर्म और जिनकी संस्कृति उन्हें हिंसा की तरफ आसानी से धकेल देते हैं, उनकी आत्मघाती हरकतों को भला कौन रोक सकते हैं? अब अफगानिस्तान छोड़ते हुए अमरीकी सरकार वहां से अपने मददगार हजारों लोगों को ढोकर ले आई थी, उन्हीं में से एक ने अभी वहां के दो सैनिकों को मार डाला। ऐसे तनाव को कोई भी देश बर्दाश्त नहीं कर सकता, और ऐसे इक्का-दुक्का हिंसक लोग अपनी पूरी बिरादरी की संभावनाओं को तबाह करते हैं, चाहे वे अमरीका में रहें, चाहे हिंदुस्तान में।

पश्चिम के जिन देशों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही के तहत दूसरे देशों के शरणार्थियों को जगह देना जारी रखा है वे एक-एक करके घोषित या अघोषित रूप से पीछे हट रहे हैं। अपनी खुद की जमीन पर तो ये लोग उदार हैं, इसकी एक सबसे बड़ी मिसाल न्यूयॉर्क में सामने आई जहां पर ओसामा बिन लादेन के विमानों ने विश्व व्यापार केंद्र की इमारतें गिरा दी थीं, और अभी उसी शहर ने एक मुस्लिम को अपना पहला मुस्लिम मेयर चुना है। लेकिन यह उदारता उस वक्त हवा हो सकती है जब उसी न्यूयॉर्क में कोई मुस्लिम शरणार्थी दो-चार लोगों को मार डाले। लोकतांत्रिक सभ्यता का विकास एक बहुत धीमी प्रक्रिया रहती है, लेकिन उसे तबाह होने के लिए कई बार कोई एक हादसा काफी होता है। आज न सिर्फ अमरीका में बल्कि इटली, फ्रांस, जर्मनी, और कुछ दूसरे देशों में कट्टरपंथ हावी होते चल रहा है जो कि आप्रवासियों और शरणार्थियों की हिंसा की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ है। दुनिया के बाकी देशों में भी ऐसा खतरा मौजूद है। ऐसा लगता है कि शरण देने के लिए देशों के पास खाली जमीन तो मौजूद हो सकती है, लेकिन जख्मों से भरा हुआ दिल कोई जगह नहीं निकाल पाएगा।

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