विचार/लेख
बिहार में चुनाव को देखते हुए विपक्षी महागठबंधन सरकार को रोजगार, नौकरी समेत कई मोर्चे पर घेर रहे हैं वहीं बीजेपी समर्थित नीतीश सरकार लगातार लोकलुभावन घोषणाएं कर रही है, जिनके केंद्र में खास तौर पर महिलाएं हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
बिहार में मानदेय पर तैनात आशा-ममता कार्यकर्ताओं का पहले मानदेय बढ़ाया गया, फिर आंगनबाड़ी सेविकाओं-सहायिकाओं का और फिर सभी महिलाओं को अपनी पसंद के रोजगार के लिए पहले मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत दस हजार और फिर आवश्यकतानुसार दो लाख रुपये तक देने की घोषणा की गई.
नीतीश ने महिलाओं को क्यों नहीं दिया कैश ट्रांसफर का ऑफर
सरकार की घोषणाओं में किसानों, युवाओं और उद्यमियों को भी तवज्जो दी जा रही. सड़क संपर्क और यातायात सुविधाओं को बेहतर करने के लिए भी बिहार की डबल इंजन की सरकार काफी संवेदनशील है. ताबड़तोड़ लोकार्पण और शिलान्यास भी किए जा रहे हैं. बीते 15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में पूर्णिया एयरपोर्ट का उद्घाटन किया, वहीं भागलपुर जिले के पीरपैंती में थर्मल पावर प्लांट का शिलान्यास किया. हालांकि इसके लिए अडानी समूह को जमीन देने पर सवाल उठ रहे हैं.
भारत की राजनीति में चुनाव नजदीक आते ही ऐसी घोषणाएं पक्ष-विपक्ष, दोनों ही तरफ से की जाती हैं. राज्य सरकार की इन घोषणाओं को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष व लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव महागठबंधन की घोषणाओं की नकल करार देते हैं. तेजस्वी कहते हैं, ‘‘यह सरकार हमारी घोषणाओं को हड़बड़ी में लागू कर रही. जनता भी जान चुकी है कि सरकार ठगी कर रही. इसलिए लोग अब कहने लगे हैं कि हमें नकली नहीं, असली सीएम चाहिए.''
बिहार में कितना सुधर सका शिक्षा का स्तर
दूसरी तरफ राज्य सरकार कह रही कि उन वादों को धरातल पर उतारा जा रहा, जिनकी घोषणा 23 दिसंबर, 2024 से 21 फरवरी, 2025 के बीच मुख्यमंत्री की प्रगति यात्रा के दौरान की गई थी. इसी के तहत नागरिक सुविधाओं, शिक्षा, सडक़-पुल व बुनियादी ढांचों, स्वास्थ्य व चिकित्सा, खेल-पर्यटन तथा हवाई परिवहन और औद्योगिक विकास की पहल की जा रही है.
नारी स्वावलंबन का विशेष ख्याल
राजनीतिक समीक्षक समीर सौरभ कहते हैं, ‘‘शायद, इस बार फिर नीतीश कुमार महिलाओं के सहारे सत्ता पाने की जुगत में हैं. जीविका दीदियों के सहारे उनका बड़ा वोट बैंक तैयार हुआ है. प्रगति यात्रा के दौरान उनका संवाद भी महिलाओं, खासकर जीविका दीदियों से हुआ था.''
जीविका निधि के जरिए इन सबों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के उद्देश्य से ही जीविका निधि साख सहकारी संघ लिमिटेड को शुरू किया गया और सरकार ने 105 करोड़ की राशि जीविका निधि में ट्रांसफर कर दी. राज्य में 11 लाख से अधिक समूहों से जु़ड़़ी करीब एक करोड़ 40 लाख से अधिक जीविका दीदियां हैं. स्वरोजगार के लिए सरकार ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की शुरुआत की.
महिला उद्यमियों के बनाए उत्पादों की बिक्री के लिए गांव से लेकर शहर तक हाट-बाजार भी विकसित किया जा रहा है. जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा कहते हैं, ‘‘यह पहल ना केवल महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम साबित होगा, बल्कि यह प्रदेश में आर्थिक क्रांति का भी सशक्त वाहक बनेगा.''
आधी आबादी को पूरा हक
महिलाओं को केंद्र में रख ऐसी घोषणाएं पहली बार नहीं की गई हैं. इससे पहले मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, बालिका साइकिल योजना, बालिका पोशाक योजना एवं कन्या विवाह योजना ने पूरे देश का ध्यान खींचा और इसका फायदा भी चुनावों में नीतीश कुमार को मिला.
राजनीति शास्त्र की छात्रा कृतिका कुमारी कहती हैं, ‘‘सरकारी सेवाओं में आरक्षण से वाकई महिलाएं सशक्त हुईं. प्राथमिक शिक्षक नियुक्ति में आरक्षण के साथ-साथ बिहार पुलिस तथा अन्य सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिला. इससे महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो हुईं ही.'
-लोन वेल्स, लिंद्रो प्रेजेरेस
ब्राजील के राष्ट्रपति लुईस इनासियो लूला डा सिल्वा ने बीबीसी को दिए एक खास इंटरव्यू में कहा है कि उनके अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ ‘कोई संबंध नहीं’ हैं।
लूला अक्सर ट्रंप की आलोचना करते रहे हैं। लेकिन इस इंटरव्यू से साफ संकेत मिले हैं कि अब उनकी और अमेरिकी राष्ट्रपति की बातचीत तक बंद हो गई है।
दरअसल ट्रंप ने ब्राजील पर 50 फीसदी टैरिफ लगा दिया है। उम्मीद थी कि दोनों देशों की बातचीत के बाद ट्रंप इसे कम कर देंगे। लेकिन अब लूला के बयान से साफ हो गया है कि बात नहीं बनी।
अमेरिका का ब्राजील के साथ ट्रेड सरप्लस है। इसके बावजूद ट्रंप ने जुलाई में ब्राज़ीलियाई सामान पर 50 फीसदी टैरिफ लगा दिए थे।
उन्होंने इसकी वजह ब्राजील के दक्षिणपंथी पूर्व राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो पर तख़्तापलट की साजिश के लिए चलाए जा रहे मुकदमे को बताया था। लूला ने इन अमेरिकी टैरिफ़ को पूरी तरह राजनीतिक बताया और कहा कि इसके चलते अमेरिकी उपभोक्ताओं को ब्राज़ीलियाई सामान अब ज़्यादा दाम पर खरीदने होंगे।
‘ट्रंप की गलती का खमियाजा अमेरिकी लोग भुगतेंगे’
ट्रंप के टैरिफ ने अमेरिका को बेचे जाने वाले कॉफी और बीफ के निर्यात पर सीधा असर डाला है।
लूला ने कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप ब्राजील के साथ रिश्तों में जो गलतियां कर रहे हैं उसकी कीमत अमेरिकी जनता को चुकानी होगी।’
दोनों नेताओं ने सीधे एक दूसरे से कोई बातचीत नहीं की है। जब लूला से पूछा गया कि उन्होंने ट्रंप को सीधा फोन क्यों नहीं किया और फिर संपर्क करने की कोशिश क्यों नहीं की।
इस पर उन्होंने कहा, ‘मैंने कभी इस तरह का फोन नहीं किया क्योंकि उन्होंने कभी बातचीत करने की इच्छा नहीं जताई।’
ट्रंप पहले कह चुके हैं कि लूला ‘कभी भी उन्हें फोन कर सकते हैं’। लेकिन लूला का कहना है कि ट्रंप प्रशासन के लोग ‘बात करना ही नहीं चाहते’।
लूला ने बीबीसी को बताया कि उन्हें अमेरिकी टैरिफ़ के बारे में जानकारी ब्राजील के अखबारों से मिली।
ट्रंप का जि़क्र करते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने ‘शालीन तरीके से बातचीत नहीं की। उन्होंने बस सोशल मीडिया पर टैरिफ का ऐलान कर दिया।’
जब उनसे पूछा गया कि वे अपने अमेरिकी समकक्ष के साथ अपने रिश्ते को कैसे देखते हैं तो उन्होंने कहा, ‘कोई रिश्ता ही नहीं है।’
‘ट्रंप इस दुनिया के शहंशाह नहीं हैं’
लूला ने कहा कि अमेरिका के राष्ट्रपति के साथ खराब रिश्ते अपवाद हैं। वरना उन्होंने पहले अमेरिकी राष्ट्रपतियों, ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों, यूरोपियन, चीन, यूक्रेन, वेनेज़ुएला और ‘दुनिया के सभी देशों’ के साथ संबंध बनाए हैं।
ब्राजील के राष्ट्रपति इस साल रूस में द्वितीय विश्व युद्ध की वर्षगांठ समारोह में भी शामिल हुए थे। उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से रिश्ते नहीं तोड़े हैं।
जब उनसे पूछा गया कि उनका रिश्ता किसके साथ बेहतर है, ट्रंप या पुतिन के साथ। तो उन्होंने पुतिन के साथ अपने रिश्तों का बचाव किया। उन्होंने कहा कि ये आज के रिश्ते नहीं हैं। ये उसी समय बने हैं जब पुतिन और वो राष्ट्रपति थे।
लूला ने कहा, ‘मेरा ट्रंप से कोई रिश्ता नहीं है क्योंकि जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति चुने गए थे, तब मैं राष्ट्रपति नहीं था। उनका रिश्ता बोल्सोनारो से है, ब्राजील से नहीं।’
उन्होंने यह भी कहा कि अगर उनका अगले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र महासभा में ट्रंप से आमना-सामना होता है तो वो उनका अभिवादन करेंगे क्योंकि 'वो एक सभ्य नागरिक हैं।’ लेकिन ये भी कहा कि ट्रंप भले ही ‘अमेरिका के राष्ट्रपति हों, (लेकिन) वे दुनिया के शहंशाह नहीं हैं।’
लूला की ओर से ट्रंप की आलोचना के बारे में पूछने पर व्हाइट हाउस के एक प्रवक्ता ने कहा कि बीबीसी को अमेरिकी राष्ट्रपति की ब्राज़ील पर की गई पहले की सार्वजनिक टिप्पणियों को देखना चाहिए।
‘बोलसोनारो ने की थी तख्ता पलटने की कोशिश’
लूला ने पूर्व राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो पर भी टिप्पणी की। पिछले हफ्ते उन्हें सजा सुनाई गई थी।
ब्राजील के सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों में से चार ने बोल्सोनारो को तख्तापलट की साजि़श का दोषी पाया था।
चुनाव हारने के बाद तख्तापलट की साजि़श रचने के अपराध में उन्हें 27 साल की कैद की सज़ा सुनाई गई थी।
लूला ने बीबीसी से कहा कि बोल्सोनारो और उनके साथियों ने ‘देश को नुकसान पहुँचाया, तख्तापलट की कोशिश की और मेरी हत्या की साजिश रची।’
बोल्सोनारो के वकीलों की ओर से सज़ा के ख़िलाफ़ अपील दायर किए जाने के बारे में पूछे जाने पर लूला ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि बोल्सोनारो अपनी ‘पैरवी जारी रखेंगे’, लेकिन ‘फिलहाल तो वो दोषी हैं।’ लूला ने ट्रंप की आलोचना करते हुए कहा कि ‘झूठ रच रहे हैं।’
ट्रंप का कहना था कि बोल्सोनारो पर अत्याचार हो रहा है और ब्राजील में लोकतंत्र नहीं है।
लूला ने यह भी कहा कि अगर 6 जनवरी 2021 को अमेरिकी कैपिटल हिल पर हुआ हमला ब्राजील में हुआ होता, तो ट्रंप पर मुकदमा चलाया जाता।
यूएन में स्थायी देश एकतरफा फैसला ले लेते हैं
बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में लूला ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में सुधार की भी वकालत की।
उन्होंने कहा कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को फैसलों पर वीटो का अधिकार है।
इससे शक्ति का संतुलन उन देशों के पक्ष में झुक जाता है जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध जीता था, जबकि अरबों लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले देश और ब्राज़ील, जर्मनी, भारत, जापान और अफ्रीका इससे बाहर रह जाते हैं।
लूला ने कहा यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र ‘संघर्षों को हल करने की ताक़त नहीं रखता’। पांच स्थायी सदस्य युद्ध छेडऩे जैसे मामलों पर ‘एकतरफा’ फैसले कर लेते हैं। उन्होंने एक अधिक ‘लोकतांत्रिक’ संयुक्त राष्ट्र की मांग की।
रूस और चीन से गठजोड़ का बचाव
लूला ने रूस और चीन के साथ अपने गठबंधन का बचाव किया।
जब उनसे पूछा गया कि रूस ने यूक्रेन पर युद्ध थोप दिया है और इसके बावजूद ब्राजील रूस से तेल खरीद रहा है, तो उन्होंने कहा कि सबसे पहले यूक्रेन पर हमले की निंदा करने वाले देशों में ब्राजील शामिल था।
ब्राजील उन पहले देशों में से एक था जिसने रूस के यूक्रेन पर कब्जे की निंदा की थी।
लूला ने कहा, ‘ब्राजील रूस को फंड नहीं करता। हम रूस से तेल इसलिए खरीदते हैं क्योंकि हमें तेल की जरूरत है, ठीक वैसे ही जैसे चीन, भारत, ब्रिटेन या अमेरिका को तेल खरीदने की जरूरत होती है।’
उन्होंने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र ‘सही ढंग से काम कर रहा होता’ तो न यूक्रेन का युद्ध होता और न ही गजा का युद्ध। उन्होंने कहा कि ये ‘युद्ध नहीं, जनसंहार’ है।
बीबीसी ने राष्ट्रपति लूला से नवंबर में होने वाले सीओपी30 जलवायु शिखर सम्मेलन के बारे में भी पूछा। यह सम्मेलन अमेजन के शहर बेलें में होगा।
राष्ट्रपति लूला को अमेजऩ नदी के मुहाने के पास तेल की खोज का समर्थन करने पर आलोचना का सामना करना पड़ा है।
-वंदना
आर्यन ख़ान का डेब्यू अब हकीकत बन चुका है। हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सुपरस्टारों में से एक, शाहरुख खान के बेटे आर्यन ख़ान, बतौर निर्देशक नेटफ़्िलक्स पर 19 सितंबर को अपनी सिरीज ‘द बैड्स ऑफ बॉलीवुड’ लेकर आ रहे हैं।
इस शो का थीम बॉलीवुड और नेपोटिज़्म के इर्द-गिर्द घूमता है।
सिरीज में फिल्मी परिवार से आई हीरोइन कहती है- किसी की परछाई में रहना अपने आप में एक संघर्ष है। जिसके जवाब में बाहरी दुनिया से आया हीरो जवाब देता है कि पापा की परछाई से निकलो तो मालूम पड़ेगा कितनी धूप है बाहर।
पिछले कुछ सालों से हिंदी सिनेमा में नेपोटिज़्म शब्द बहुत चर्चित रहा है।
जब आर्यन बोले ‘पापा हैं न’
आर्यन जब सिरीज लॉन्च पर पहली दफा स्टेज पर आए थे तो उन्होंने शाहरुख खान का नाम लेने से गुरेज नहीं किया।
आर्यन ने खुल कर कहा, ‘पिछले कई दिनों से लगातार प्रैक्टिस किए जा रहा हूं। मैं इतना घबराया हुआ हूं कि मैंने टेलीप्रॉम्प्टर पर भी अपनी स्पीच लिखवा दी है और अगर यहां बिजली चली जाए तो मैं कागज पर अपनी स्पीच लिखकर भी लाया हूं। टॉर्च के साथ और तब भी अगर मुझसे गलती हो जाएज् तो पापा हैं ना!’
कुछ लोगों ने आर्यन के इस जिक्र में सुपरस्टार शाहरुख़ को ढूँढा तो कुछ ने कहा कि वह सुपरस्टार नहीं पिता शाहरुख की बात कर रहे थे।
तो क्या आर्यन खान को भी लोग सिफऱ् और सिफऱ् नेपोकिड के नजरिए से ही देखेंगे या उनके काम के चश्मे से?
फिल्म ट्रेड एनेलिस्ट गिरीश वानखेड़े बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘आर्यन खान ने एक रिस्की शो बनाया है। इसके लिए मैं उन्हें पूरे नंबर दूंगा। उनका पहला शो फि़ल्म इंडस्ट्री और नेपोटिज्म पर ही पैरोडी है। वो चाहते तो एक सुरक्षित रास्ता अपना सकते थे।’
‘बतौर एक्टर भी लॉन्च हो सकते थे। नेपोटिज्म की बहस तो चलती रहेगी। एक्टर का बच्चा एक्टर बनता है, ये स्वाभाविक है। ये सही है कि उन्हें प्लेटफ़ॉर्म मिल जाता है, लेकिन साबित तो ख़ुद को करना ही पड़ता है।’
अनन्या और सिद्धांत हुए थे आमने-सामने
दर्शकों में ही नहीं फि़ल्म इंडस्ट्री के अंदर भी नेपोटिज़्म को लेकर अलग-अलग राय है जो अपने आप में दिलचस्प है।
2022 में एक इंटरव्यू में फि़ल्मी संघर्ष को लेकर एक शो पर अभिनेत्री अनन्या पांडे ने कहा था कि उनके पिता और अभिनेता चंकी पांडे को कॉफ़ी विद करण जैसे शो पर कभी नहीं बुलाया गया। जिस पर अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी का कहना था कि जहाँ हमारे सपने पूरे होते हैं, इनका स्ट्रग्ल शुरू होता है।
सिद्धांत का इशारा इस तरफ़ था कि जो लोग फि़ल्मी बैकग्राउंड से आते हैं, उनके लिए संघर्ष की परिभाषा बाहर से आए लोगों से बहुत अलग होती है।
नेपोटिज़्म है पर मेरे पास दूसरे प्रिवलेज भी हैं- स्वरा
अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी मानती हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज़्म है।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘ये सही है कि मुझे उस किस्म का लॉन्च नहीं मिला जो बड़े सितारों के बच्चों को मिलता है। अगर किसी स्टार के बच्चे को आगे पहुँचने में दो साल लगते हैं, वहाँ मुझे दस साल लग जाते हैं। लेकिन मेरे पास बहुत सारे दूसरे प्रिवलेज भी हैं जो शायद किसी छोटे कस्बे से आने वाली लडक़ी के पास न हों। हर इंडस्ट्री में लोग नेपोटिज़्म का शिकार होते हैं।’
गिरीश वानखेड़े के मुताबिक अगर आर्यन ख़ान जैसे लोगों के लिए उनके माता-पिता का सहारा है, तो ऐसे कितने ही स्टार किड्स हैं जो नहीं चल पाए क्योंकि असली कसौटी टैलेंट और दर्शकों की स्वीकार्यता होती है। आर्यन खान की पहली वेब सिरीज को ही लीजिए जिसमें एक तरफ मेन रोल में गैर-फिल्मी बैकग्राउंड वाले लक्ष्य और सहर हैं तो दूसरी ओर बॉबी देओल भी हैं।
धर्मेंद्र ने अपने बेटों सनी और बॉबी को बरसों पहले धूमधाम से लॉन्च किया था। सनी बेताब के बाद कामयाब होते गए लेकिन बॉबी शुरुआती सफलता के बाद ग़ायब हो गए।
बॉबी की सफलता का ताजा क्रम उनकी दूसरी पारी का कमाल है जो उन्हें रणबीर कपूर की एनिमल जैसी फिल्मों में मिली।
रणबीर का जिक्र आया है तो कपूर ख़ानदान को फस्र्ट फैमिली ऑफ हिंदी सिनेमा कहा जाता है। पृथ्वीराज कपूर की शुरू की हुई परंपरा को उनके बेटों राज कपूर, शशि कपूर और शम्मी कपूर और बाद में ऋषि कपूर, करिश्मा और करीना कपूर ने आगे बढ़ाया।
लेकिन इसी परिवार में राजीव कपूर की भी मिसाल है। यूँ तो राज कपूर ने अपने बेटे राजीव कपूर को भी हिट फि़ल्म राम तेरी गंगा मैली से बड़ा मंच दिया था, लेकिन कुछ फि़ल्मों के बाद राजीव कपूर कहां ग़ुम हो गए किसी को पता भी नहीं चला।
बरसों बाद लोगों को उनके गुजऱ जाने की ही ख़बर मिली।
अगर संजय दत्त, अनिल कपूर, आलिया भट्ट कामयाब रहे तो राज कुमार के बेटे पुरु राज कुमार, देव आनंद के बेटे सुनील आनंद, मनोज कुमार के बेटे कुणाल गोस्वामी, माला सिन्हा, हेमा मालिनी, सुनील शेट्टी के बच्चे भी हैं जिनकी फि़ल्में नहीं चल पाईं।
‘नेपोटिज़्म की क्रूर सच्चाई’
कुछ दिनों पहले करण जौहर का एक वीडियो आया था, जिसमें उन्होंने अपने बेटे को नेपोकिड लिखी टी-शर्ट पहनाई हुई थी।
वरिष्ठ फि़ल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज इस पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘नेपोटिज़्म की क्रूर सच्चाई को मज़ाक के ज़रिए इतना हल्का बना दो कि वह अपना अर्थ खो दे। फिल्म इंडस्ट्री के इनसाइडर यही कर रहे हैं। कभी अवॉर्ड शो में मजाक उड़ाते हैं, तो कभी बेशर्मों की तरह स्वीकार कर हंसते हैं। ताकतवर हमेशा फायदे में रहता है और नेपोकिड को यह ताकत मिल जाती है। पिछली पीढ़ी ने मेहनत की है तो उसका लाभ उनके वंशजों को मिले- ऐसे तर्क गलत प्रवृत्तियों को उचित ठहरा देते हैं।’
नेपोटिज़्म की बहस सुशांत सिंह की मौत के बाद ज़्यादा तेज हुई। जब निर्माता जीपी सिप्पी ने अपने बेटे रमेश सिप्पी को 70 के दशक में लॉन्च किया और बाद में उन्होंने शोले बनाई तो नेपोटिज़्म की बहस उठ खड़ी हुई हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
यहां तक कि जब साल 2000 में ऋतिक रोशन क्रेज़ बनकर उभरे तो भी ये शब्द कोई ख़ास सुनने में नहीं आया।
चिंपैंजी हर दिन कम से कम एक ड्रिंक के बराबर अल्कोहल का उपभोग करते हैं. एक रिसर्च में यह बात सामने आई है. इस खोज से इंसानों में नशे के प्रति आकर्षण को समझने में मदद मिल सकती है.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
चिंपैंजी जैसे वन्यजीवों को यह अल्कोहल पके और सड़े (फर्मेंटेड) फलों से मिलता है. यह रिसर्च अफ्रीका के जंगलों में की गई जहां चिंपैंजी रहते हैं. इस रिसर्च के नतीजों से उन सिद्धांतों को बल मिलता है जिसके मुताबिक इंसानों को अल्कोहल के स्वाद का उनके पूर्वजों यानी कपियों से पता चला था. सिर्फ स्वाद ही नहीं बल्कि जहरीले होने के बावजूद उन्हें पचाने की क्षमता भी शायद इन्हीं जीवों से होते हुए इंसानों तक पहुंची थी.
बीयर का एक पिंट रोजाना
रिसर्चरों ने उन फलों को भी जमा किया जिन्हें चिंपैंजी खाते हैं. इसके बाद उनमें अल्कोहल की मात्रा का पता लगाया गया. इन फलों में मौजूद चीनी के फर्मेंटेशन से अल्कोहल बनता है. रिसर्चर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इंसानों के पूर्वज और शुरुआती रिश्तेदार अल्कोहल का उपभोग रोजाना करते हैं. अल्कोहल की यह मात्रा कम नहीं है. बड़ी मात्रा में जिन फलों को चिंपैंजी खाते हैं उसके आधार पर रिसर्चरों का कहना है कि हर दिन करीब 14 ग्राम अल्कोहल की मात्रा उनके शरीर में जाती है.
उनके शरीर के आकार के हिसाब से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि चिंपैंजी हर दिन एक पाइंट बीयर पी रहे हैं. साइंस एडवांसेज जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट के प्रमुख लेखक आलेक्से मारो का कहना है, "यह अल्कोहल की गैरमामूली मात्रा नहीं है, लेकिन यह बेहद हल्की और ज्यादातर भोजन से जुड़ी होती है."
"नशे में धुत्त बंदर"
मारो ने यह भी कहा, "हमने पहली बार वास्तव में हमारे सबसे करीबी जीवित रिश्तेदारों को शरीर के लिहाज से अल्कोहल की अहम मात्रा नियमित रूप से रोज उपभोग करते देखा है." करीब एक दशक पहले अमेरिकी जीवविज्ञानी रॉबर्ड डुडले ने "नशे में धुत्त" बंदर का सिद्धांत दिया था. नई रिपोर्ट उसी सिद्धांत का समर्थन करती है. रॉबर्ट डुडले नई रिसर्च रिपोर्ट के भी सहलेखक हैं.
इस सिद्धांत के अनुसार इंसानों ने अल्कोहल को पसंद करना और उसे पचाने की क्षमता हमारे पूर्वज कपियों से हासिल किया था जो रोजाना फल खाते थे और इस तरह से उनके शरीर में अल्कोहल जाता था. मारो का कहना है, "नशे में धुत्त बंदर वाले सिद्धांत की सच्चाई सामने आ रही है. इसका नाम दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका बेहतर नाम होगा इवॉल्यूशनरी हैंगओवर."
अल्कोहल वाले फल चुनते चिंपैंजी
विशेषज्ञों ने इस सिद्धांत पर शुरू में संदेह जताया था. हालांकि हाल के वर्षों में इसमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है. खासतौर से जब कुछ रिसर्चों ने दिखाया है कि प्राचीन वानर सड़े हुए फल खाते थे जिसमें उन्हें कुछ चुनिंदा मकरंद और अल्कोहल की अलग अलग मात्रा मिलती थी. वे खासतौर से ज्यादा अल्कोहल की मात्रा वाले फलों को चुनते थे.
जर्मनी के हनोवर में डार्टमाउथ कॉलेज में एंथ्रोपोलॉजी और इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी के प्रोफेसर नाथानील डॉमिनी ने इस रिसर्च का स्वागत किया है. उन्होने यह भी कहा कि, "यह उष्णकटिबंधीय फलों में इथेनॉल की मौजूदगी पर चली आ रही बहस को खत्म कर देगा." हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि इस रिसर्च ने गैरमानव प्राचीन जीवों के लंबे समय तक कम मात्रा में इथेनॉल के संपर्क में आने की वजह से जीवविज्ञानी और व्यावहारिक नतीजों पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं. इसके अलावा इस सवाल का जवाब भी नहीं मिला है कि क्या चिंपैंजी सक्रियता से ऐसे फलों की खोज करते हैं या फिर बस मिलने पर खा लेते हैं.
- शम्भूनाथ
कल एक दृश्य देखकर मेरी यह धारणा और मजबूत हुई कि खंड–खंडवादी जन उभार, आंदोलन और विमर्श से आम भारतीय जीवन की बड़ी समस्याएं और गंदगियां ढकी और बनी रह जाती हैं और वे विकराल रूप धारण करती जाती हैं।
स्त्रियां केवल तब उत्तेजित होती हैं जब यौन उत्पीड़न हो या कोई पितृसत्तात्मक हमला होता है। बाकी मुद्दों पर वे सामान्यतः सोई रहती हैं। दलित केवल तब उत्तेजित होते हैं जब कोई मनुवादी प्रसंग हो। आदिवासी जल–जंगल–जमीन के मुद्दे पर उत्तेजित होकर बाकी सवालों पर सामान्यतः सोए रहते हैं!
हिंदुत्ववादियों के संदर्भ में कुछ कहा जाए तो वे मंदिर–मस्जिद, गोरक्षा या पाकिस्तान–चीन के मुद्दे के अलावा अन्य मुद्दों पर जरा भी उत्तेजित नहीं होते। भ्रष्टाचार के मामले में भी ये सेलेक्टिव हैं। देखा जा सकता है कि कुछ समय से स्त्री, दलित और आदिवासियों पर हिंदुत्ववादी उभार का प्रभाव वृद्धि पर है और उनके विमर्शों को हिंदुत्ववादियों ने निगल लिया है।
मुझे भारतेंदु के नाटक 'भारत जननी’ की ये पंक्तियां याद आ रही है कि भारत माता एक को उठाती है तो दूसरा सो जाता है, दूसरे को उठाती है तो पहला सो जाता है। इस तरह से बारी–बारी से सभी सो जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की आज यही दशा है। और हिंदीतर क्षेत्र का मानसिक हथियार इस समय प्रांतीयतावाद है।
कल जिस दृश्य से मेरी उपर्युक्त धारणा पक्की हुई, वह कोलकाता के आर जी कर अस्पताल का है जहां एक डॉक्टर लड़की के यौन उत्पीड़न और हत्या के बाद ( अभया कांड) निर्भया कांड की तरह ही जबरदस्त नागरिक आंदोलन उभरा था और आंदोलन की लहरें उत्ताल पर थीं।
-अपूर्व गर्ग
हिमाचल हाईकोर्ट ने जो कहा वो सुनिए ‘Shimla Town is losing its touch and culture of walking with "umbrella and jacket’
कोर्ट ने टिप्पणी की कि शिमला अपनी ‘छाता और जैकेट’ के साथ पैदल चलने की संस्क=ति खो रहा है और मसूरी जैसी स्थिति में आ रहा है।
कोर्ट ने कम कहा पर जो हालात हैं वो शिमला के लोग समझते हैं।
25 बरस पहले शिमला ने मुझे इतना सम्मोहित किया कि इसके कुछ बरसों बाद मैंने इसके प्रांगण के एक छोटे कोने में खुद को बसा लिया । पहाड़ों की रानी के इस सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया था ।।आज भी अपलक निहारता हूँ और कभी तृप्त न हो पाता हूँ ।
पहाड़ों, शिखरों की आकाशचुम्बी ख़ूबसूरती को निहारते देवदार और चीड़ के बीच शीतल वायु के सुरभित झोंकों से मन पुलकित हो उठता है पर आजकल मन घबराता है।
जहाँ हमारा फ्लैट है वहाँ बेधडक़ ,बेसुध होकर बरसों से घूमते रहे पर अब तस्वीर बदल चुकी ।कारों का बढ़ता रैला, शोर आपकी शान्ति ही नहीं भंग करता बल्कि आपको रौंद सकता है । खासकर ओल्ड शिमला में पहाड़ों पर चलने का आनंद ,सुकून छिन चुका है।
ये तस्वीर सिर्फ शिमला की ही नहीं बल्कि हिमाचल की है , देश के पहाड़ों की है। अभी एक आंकड़ा मिला 'हिमाचल की जनसंख्या 70 लाख और हर साल पर्यटक आ रहे हैं 1.5 करोड़
क्या इन्हीं पर्यटकों के आगमन के लिए पहाड़ों को काट-छांटकर फोरलेन नहीं बनाये जा रहे?
गाडिय़ों के काफि़ले दर काफि़ले हज़ारों -लाखों की संख्या में पहाड़ों पर धुआँ उड़ाते पर्यावरण को रौंद रहे , पर किसी को कोई फिक्र नहीं , क्यों?
और कितनी तबाही देखनी है ? क्या वक़्त ऐसा नहीं आ चुका जब पहाडिय़ों को अपने पहाड़ों के लिए खड़ा हो जाना चाहिए ?
टूरिज्म किस कीमत पर चाहिए ? पहाड़ समतल हो रहे ,तापमान बढ़ रहा , वर्षा प्रभावित हो रही , स्नो फॉल से लगातार महरूम हो रहे , चट्टानें गेंद की तरह लुढक़ रहीं। और कितनी गाडिय़ां ,कितने टूरिस्ट चाहियें ?
जऱा पलट कर देखिये कितने लोगों को खोया , कितनी सम्पत्ति मिट्टी में मिल गई, कितने आंसू बहते हुए पहाड़ों को रुला गए।
नींद टूटनी चाहिए ।
जिस दिन पहाड़ ‘हृह्र ’ कहेगा तस्वीर बदलेगी। जिस दिन होटल व्यवसायी ‘हृह्र’ कहेंगे ये सबसे बड़ा जवाब होगा क्योंकि होटल वालों की दुहाई देकर विनाशकारी पर्यटन की नीति चलती है।
पहाड़ों में इतिहास के सबसे बड़े हादसे उत्तरकाशी से लेकर केदारनाथ , हिमाचल में जगह -जगह देखिये क्या हुआ ?
पर कोई सबक नहीं सीखा जा रहा।
बात शिमला से शुरू हुई। आज शिमला की सडक़ें कारों से ढकी हुई हैं।
-अशोक पांडेय
भरवां परांठों का अविष्कार जरूरत से ज्यादा प्यार करने वाली किसी माँ ने इसलिए किया होगा कि उसका बेटा उसके जीते जी उसे छोडक़र परदेस न चला जाए।
चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय की किताब ‘मानसोल्लास’ में बेसन और गुड़ का मिश्रण भर कर बनाए जाने वाले पूरण नाम के परांठों का जि़क्र है। भोजन के इतिहासकारों से पूछिए तो कोई परांठे का मूलस्थान पेशावर को बतलाता है कोई कश्मीर को। बाज़ लोग इसे गुजरात और महाराष्ट्र से निकला बताते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में परांठे को राष्ट्रीय नाश्ते के रूप में मान्यता निश्चय ही आज से तीन-साढ़े तीन सौ साल पहले मिली होगी जब ईस्ट इंडिया कंपनी के किसी जहाज में कोई अंग्रेज़ या पुर्तगाली व्यापारी अपने साथ आलू की बोरियां लेकर कालीकट के तट पर उतरा था। उसके पहले आलू केवल सुदूर लातिन अमेरिकी मुल्क पेरू में खाया जाता था।
हमारे देश में पहली बार परांठे में आलू का भरा जाना मानव जाति के इतिहास का उतना ही बड़ा मरहला है जितना हमारे पूर्वजों द्वारा पहली बार धातु का इस्तेमाल।
पेरू का आलू भारत से पहले यूरोप पहुंचाया जा चुका था जहाँ शुरू में उसे पशुओं के भोजन के रूप में अपनाया गया। सभ्य-सुसंस्कृत घरों की खाने की मेजों पर वह पहुंचा भी तो उबाल कर उसका कचूमर भर बनाया गया और नाम दिया गया मैश्ड पोटैटोज़।
कई दफ़ा कल्पना करता हूँ कि अंग्रेज़ों को अगर पता चल जाए कि आलू के साथ हमारी रसोइयों में क्या-क्या बर्ताव किये जाते हैं तो वहां के सामाजिक ताने-बाने का पता नहीं क्या हश्र होगा। मिसाल के लिए शादी शायद उन्हीं लड़कियों की हो सकेगी जिन्हें आलू भरकर ब्रैड पकौड़ा बनाना आता हो या जो हर तरह की नॉन-वेज डिश में आलू खपाने का हुनर जानती हों।
हमारी रसोइयों की रचनात्मकता का लोहा संसार यूं ही नहीं मानता। गुड़-बेसन से लेकर आलू भरे जाने के बाद से परांठों का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने की दरकार रखता है।
भूसे को छोडक़र दुनिया का कोई ऐसा खाद्य पदार्थ नहीं बचा जिसे आटे की लोई में भरकर परांठे की सूरत न मिली हो। चाऊमीन परांठा और पित्ज़ा परांठा जैसे शाहकार भी रचे जा चुके हैं।
हाल के वर्षों में चिकित्सा के क्षेत्र में किये जाने वाले शोध परांठों के सबसे बड़े दुश्मन बन कर उभरे हैं जो चेताते हैं कि ज्यादा परांठे खाने से आदमी की ‘दिल जिगर दोनों घायल हुए’ वाली हालत हो जाती है। डॉक्टर तो यह भी कहने लगे हैं कि परांठे खाओ पर बगैर घी-मक्खन के।
मेरे कई सारे दोस्त इन डॉक्टरों के छलावों में आ चुके हैं। उनके घरों में परांठे पकाए ही नहीं जाते और ओट्स-स्प्राउट्स जैसी शर्मनाक चीजों का नाश्ता होता है। हां कभी होटल-रेस्तरां में नाश्ता करने का इत्तफाक होता है तो परांठे सर्व किये जाते ही वे बैरे से नैपकिन मंगवाते हैं ताकि उनकी मदद से परांठों का घी सोखा जा सके। बताइये! आदमी का ईमान भी कोई चीज़ होती है।
दिल्ली में बीएमडब्ल्यू गाड़ी के साथ हुए हादसे में वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी घायल हो गए. बीएमडब्ल्यू की ड्राइवर उन्हें इलाज के लिए 19 किमी दूर स्थित एक अस्पताल लेकर गईं. अब यही उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हो रही है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
दिल्ली में 14 सितंबर को हुए इस हादसे में जान गंवाने वाले नवजोत सिंह की पत्नी संदीप कौर ने बीएमडब्ल्यू कार की ड्राइवर गगनप्रीत पर कई आरोप लगाए हैं. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, संदीप का कहना है कि उन्होंने कई बार गगनप्रीत से कहा था कि वे उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए किसी नजदीकी अस्पताल में ले चलें लेकिन गगनप्रीत जानबूझकर उन्हें काफी दूर एक छोटे अस्पताल में लेकर गईं.
वहीं, गननप्रीत ने पूछताछ के दौरान पुलिस को बताया कि वह घबरा गई थीं और केवल उसी अस्पताल के बारे में जानती थी क्योंकि कोरोना महामारी के दौरान वहां उनके बच्चों का इलाज हुआ था. इसके बाद पुलिस को जांच के दौरान पता चला कि उस अस्पताल का मालिक गगनप्रीत का रिश्तेदार है, शायद इसलिए ही गगनप्रीत घायलों को वहां लेकर गई थी.
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, इस मामले में पुलिस ने गगनप्रीत पर भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत, गैर-इरादतन हत्या, सबूतों से छेड़छाड़ और लापरवाही से गाड़ी चलाने के आरोप लगाए हैं. बुधवार को कोर्ट ने उन्हें 27 सितंबर तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया. इसके अलावा, उस अस्पताल के रिकॉर्ड भी पुलिस ने जांच के लिए जब्त कर लिए हैं.
नजदीकी अस्पताल ले जाना क्यों है जरूरी
सड़क सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले हरमन सिंह सिद्धू भी इसे गगनप्रीत की बड़ी गलती बताते हैं. वे कहते हैं, "एक तरफ प्लैटिनम मिनट और गोल्डन आवर की बात होती है, जिसका मतलब होता है कि ऐसी दुर्घटना की स्थिति में घायल को सबसे नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर पहुंचाया जाए. लेकिन आप (गगनप्रीत) उन्हें दिल्ली जैसी जगह में करीब 20 किलोमीटर दूर लेकर जा रहे हो, इसका मतलब है कि इसमें कम से कम 35 से 40 मिनट लगे होंगे. अगर उन्हें कहीं नजदीकी अस्पताल में ले जाया जाता तो इस बात की काफी संभावना है कि वो अधिकारी आज जिंदा होते.”
सिद्धू 1996 में खुद एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुए थे, जिसके बाद उन्होंने सड़क सुरक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ‘अराइव सेफ' एनजीओ की शुरुआत की थी. वे कहते हैं, "घायल को नजदीकी अस्पताल ले जाना इसलिए जरूरी होता है क्योंकि वहां मौजूद डॉक्टर और स्टाफ को आपातकालीन मामलों को संभालना आता है. अधिक खून बहने या सांस लेने में समस्या होने पर वे प्राथमिक उपचार कर सकते हैं और समस्या को देखते हुए आगे के इलाज के लिए सही अस्पताल का सुझाव दे सकते हैं.
क्या होता है गोल्डन आवर और प्लैटिनम मिनट
दुर्घटना होने के बाद के पहले एक घंटे को गोल्डन आवर कहा जाता है. अगर इस समय घायल को उचित मदद मिल जाती है तो उसके जीवित रहने की संभावना काफी बढ़ जाती है, इसलिए घायल को जल्द से जल्द नजदीकी अस्पताल पहुंचाना जरूरी होता है. वहीं, हादसे के बाद के पहले 10 मिनटों को प्लैटिनम 10 मिनट कहा जाता है. यह समय घायल को अस्पताल ले जाने और इलाज शुरू करने के लिहाज से काफी जरूरी होता है.
हालांकि, सिद्धू इस मामले में सावधानी बरतने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं, "अगर घायल हुए व्यक्ति के सिर या रीढ़ की हड्डी में चोट लगती है और उसे थोड़ा भी गलत तरीके से हिलाया जाता है तो उसकी चोट और बढ़ सकती है. इसलिए जरूरी है कि घायल को सीधा लिटाया जाए ताकि उसके दिमाग में खून की आपूर्ति सामान्य रहे.”
सिद्धू यह भी कहते हैं कि अगर एंबुलेस कम समय में आने वाली हो तो घायल को स्ट्रेचर पर एंबुलेंस से ही ले जाना चाहिए क्योंकि सामान्य गाड़ी में झटके भी ज्यादा लग सकते हैं और समस्या बढ़ सकती है. उन्होंने आगे कहा कि एंबुलेंस के ना आने पर पुलिस की पीसीआर गाड़ी भी एक विकल्प हो सकती है क्योंकि उन्हें भी ऐसी घटनाओं को संभालने का प्रशिक्षण मिला होता है.
शेंगेन वीजा के लिए भारतीयों छात्रों में होड़ बढ़ रही है। ऐसे में वीजा अपॉइंटमेंट और आवेदन खारिज होने की दर, दोनों बढ़ते जा रहा हैं। आखिर भारतीय छात्रों को यूरोप के लिए शेंगेन वीजा हासिल करने में क्या दिक्कतें आती हैं।
डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-
दूसरे देश पढऩे जाना हो या किसी काम के सिलसिले में, सबसे जरूरी चीज है वीजा। लेकिन शेंगेन वीजा के लिए आवेदन खारिज होने की सूची में भारतीय पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर आते हैं। 2024 में वीजा आवेदन खारिज होने के कारण भारतीय आवेदकों को 136 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा। यूरोपीय आयोग के अनुसार 2024 में भारत के सभी शेंगेन वीजा का लगभग 12 फीसदी आवेदन केवल जर्मनी के लिए था। इतना ही नहीं जर्मनी के लिए वीजा का सबसे अधिक आवेदन करने वाले तीन देशों में चीन और तुर्की के बाद अब भारत है।
पिछले साल शेंगेन वीजा के लिए भारत से कुल 11,08,239 आवेदन किए गए। जिसमें से लगभग 15 फीसदी यानी 1,65,266 आवेदन खारिज कर दिए गए। 2025 में भारतीयों के लिए शेंगेन वीजा की फीस लगभग 90 यूरो यानी 9,100 रूपये है। पर वीजा खारिज होने पर इस में से एक भी रुपया वापस नहीं मिलता। ऐसे में सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, छात्र, जो पहले ही जद्दोजहद करके एडमिशन से लेकर फीस और टाइम पर वीजा आ जाने की उम्मीद में रहते हैं। एक तरफ बाहर जाकर पढऩे का खर्च पहले ही काफी भारी होता है और अगर ऐसे में वीजा की प्रक्रिया अटक जाए तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं।
छात्रों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत
भारत में जर्मन दूतावास के अनुसार, जर्मनी भारतीय छात्रों के लिए शिक्षा के लिए पसंदीदा देश बनता जा रहा है। 2025 में छात्र वीजा आवेदनों में 35 फीसदी की रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। जिस कारण जर्मनी में भारतीय छात्रों की संख्या 2024 में 46,000 से बढक़र 2025 में 54,000 हो गई है। और अनुमान है कि 2030 यह आंकड़ा बढ़ कर 1.14 लाख तक पहुंच सकता है।
इस बढ़ती रुचि के कारण अब सरकारी विश्वविद्यालयों में दाखिले और साथ ही साथ वीजा अपॉइंटमेंट के लिए भी प्रतियोगिता पहले से कई गुना बढ़ गई है। अक्टूबर और मार्च के सत्रों में पहले से कहीं ज्यादा आवेदन आ रहे हैं। जिस कारण छात्रों के लिए वीजा पाना पहले से बहुत ज्यादा मुश्किल हो रहा है।
समय रहते आवेदन करना जरूरी
24 साल के सौरभ सुमन को पिछले साल हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी में दाखिला मिला। लेकिन वीजा समय पर ना मिलने के कारण उनका एक साल बर्बाद हो गया। इस साल वह वीजा हासिल करने की कोशिश में दोबारा लगे हुए हैं ताकि इस साल कम से कम वह समय पर अपने कोर्स के लिए जर्मनी पहुंच जाएं। जर्मन कॉन्सुलेट में काम करने वाली एक सहायक वीजा अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि ऐसे में जरूरी है कि वीजा के लिए सही समय पर आवेदन किया जाए। आवेदन ज्यादा देर से नहीं करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है कि आवेदन समय से पहले भी ना किया जाए। दोनों ही हालात में वीजा खारिज होने का खतरा बढ़ जाता है।
कहां से कर रहे हैं अप्लाई यह भी जरूरी
शेंगेन वीजा या सी-टाइप वीजा यानी 90 दिन या उससे कम दिन के वीजा के लिए प्रोसेसिंग समय 15 दिन का होता है। लेकिन यह समय तब शुरू होता है, जब पूरी तरह भरी एप्लीकेशन फॉर्म जर्मन कॉन्सुलेट में पहुंच गई है। ठीक इसी तरह, नेशनल वीजा या डी वीजा यानी 90 दिन से अधिक समय के वीजा के लिए प्रोसेसिंग समय केस के अनुसार निर्भर करता है। जैसे स्टूडेंट वीजा के लिए बारह हफ्ते यानी तीन महीने तक का वक्त भी लग सकता है। यह तब जब स्टूडेंट ने पूर्ण एप्लीकेशन सभी जरूरी कागजात के साथ वक्त रहते जमा किया हो।
अधिकारी ने बताया, ‘यह भी जरूरी है कि आवेदक कहां से आवेदन कर रहे हैं और वहां से जर्मन मिशन की दूरी कितनी है। अगर भारत से कोई शेंगेन वीजा के लिए आवेदन कर रहा है और भारत के सभी शेंगेन वीजा की प्रोसेसिंग मुंबई में होती है। ऐसे में आपका पासपोर्ट आपके शहर से मुंबई जाएगा और वापस आएगा, जो कि समय का अंदाजा लगाने में मददगार हो सकता है।’
भारत सरकार ने देश से नक्सलवाद के खात्मे के लिए 31 मार्च, 2026 की समयसीमा तय की है. सालभर में 350 से अधिक नक्सलियों की मौत हुई है और सैकड़ों नक्सलियों ने हथियार भी डाल दिए हैं. क्या यह नक्सलवाद के खात्मे का संकेत है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
सुरक्षाबलों ने झारखंड में तीन शीर्ष नक्सल नेताओं को मार गिराने की जानकारी दी है. न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, 15 सितंबर को हजारीबाग जिले में एक मुठभेड़ में इन नक्सलियों की मौत हुई. इन तीनों पर कुल मिलाकर एक करोड़ 35 लाख रुपये का इनाम था. इनमें से एक सहदेव सोरेन, नक्सलियों की केंद्रीय समिति का सदस्य था और उस अकेले पर एक करोड़ रुपये का इनाम था.
यह सुरक्षाबलों को नक्सलियों के खिलाफ मिल रही सफलता का एक ताजा उदाहरण है. इससे पहले, 13 सितंबर को प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेताओं में शामिल सुजाता ने तेलंगाना में पुलिस महानिदेशक के सामने आत्मसमर्पण किया था. द हिंदू की खबर के मुताबिक, आत्मसमर्पण करने से पहले सुजाता ने 43 सालों तक अंडरग्राउंड रहकर काम किया था.
साल भर में मारे गए 350 से अधिक माओवादी
छत्तीसगढ़ के बस्तर रेंज के आईजी पी सुंदरराज ने 16 जुलाई को मीडिया को सीपीआई (माओवादी) द्वारा जारी किए गए एक पत्र के बारे में बताया था. सुंदरराज के मुताबिक, इस पत्र में सीपीआई (माओवादी) ने स्वीकार किया था कि पिछले साल भर में देशभर में हुई मुठभेड़ों में उसके 350 से ज्यादा सदस्यों ने जान गंवाई है. इनमें केंद्रीय समिति के चार और राज्य स्तरीय समिति के 15 सदस्य शामिल थे.
द हिंदू अखबार की खबर के मुताबिक, सुरक्षाबलों को दण्डकारण्य क्षेत्र में सबसे ज्यादा सफलता मिली है, जो बस्तर रेंज के जिलों और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में फैला हुआ है. पुलिस आईजी सुंदरराज के मुताबिक, अकेले इसी इलाके में पिछले साल भर में 280 से ज्यादा माओवादी मारे गए हैं. यानी करीब 80 फीसदी नक्सली अकेले इसी इलाके में मारे गए हैं.
सुंदरराज ने डीडब्ल्यू हिंदी को बताया कि दण्डकारण्य क्षेत्र पिछले चार-पांच दशकों से नक्सली आंदोलन का केंद्र रहा है. उनके मुताबिक, घने जंगल और दुर्गम क्षेत्र होने की वजह से यह नक्सलियों की पसंद रहा है. उन्होंने बताया कि पिछले कुछ सालों में राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है कि इस क्षेत्र का उपयोग नक्सलियों द्वारा सुरक्षित ठिकाने या छिपने के स्थान के रूप में ना किया जाए.
पुलिस और प्रशासन की रणनीति
पिछले हफ्ते छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में सुरक्षाबलों ने 10 नक्सलियों का मारने की बात कही थी. इनमें नक्सलियों का एक सीनियर कमांडर भी शामिल था. अगस्त के आखिरी हफ्ते में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 30 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था. इससे पहले, 14 अगस्त को सुरक्षाबलों ने 1.16 करोड़ रुपये इनाम वाले दो नक्सलियों को मारने का दावा किया था.
आईजी सुंदरराज बताते हैं कि नक्सलियों के खिलाफ बढ़त हासिल करने के लिए चार अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि सुरक्षा अभियानों की पहुंच बढ़ाई जा रही है, सुरक्षाबलों के कैंपों को विकास केंद्र के तौर पर विकसित किया जा रहा है, सड़कें बनाकर कनेक्टिविटी बढ़ाई जा रही है और स्थानीय समुदायों के अंदर सुरक्षाबलों के प्रति भरोसा पैदा करने के लिए भी उपाय किए जा रहे हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से कहा, "पहले भी हम बहुत सारे अभियान चला रहे थे लेकिन पिछले कुछ सालों में हमारे ऑपरेशनल बेस कैंपों की संख्या बढ़ी है, जिससे अब अभियानों की पहुंच बढ़ गई है.” उन्होंने बताया कि सुरक्षाबलों के बेस कैंपों को विकास केंद्रों के रूप में भी विकसित किया जा रहा है, जहां आसपास के इलाकों में रहने वाले लोगों को राशन की दुकानें, प्राइमरी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं, जिससे स्थानीय लोगों में भरोसा बढ़ता है.
क्या बदल रहा है स्थानीय लोगों का नजरिया
नरेश मिश्रा छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बस्तर को कवर करते रहे हैं. वे कहते हैं कि यह नक्सलवाद के लिए बहुत मुश्किल का दौर है और नक्सल संगठनों ने अपने बयानों में इस बात को कबूल किया है. नरेश मिश्रा ने डीडब्ल्यू को बताया, "आत्मसमर्पण करने वाले कई नक्सलियों का कहना है कि वे इसलिए हथियार डाल रहे हैं क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि वे लंबे समय तक इस लड़ाई को जारी रख पाएंगे."
नरेश मिश्रा कहते हैं कि यह एक बदलाव का दौर है. उनके मुताबिक जब नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबलों के कैंप खुलने शुरू हुए तो इनका बहुत विरोध हुआ, लेकिन इनकी वजह से स्थानीय लोगों को सुविधाएं भी मिलने लगीं. उन्होंने यह भी कहा कि स्थानीय लोगों के लिए सरकारी सुविधाएं तो बढ़ रही हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता में समय लग रहा है.
हालांकि, मिश्रा सरकार के इस दावे पर संदेह करते हैं कि नक्सलवाद 31 मार्च, 2026 तक पूरी तरह खत्म हो जाएगा. वे कहते हैं, “भरोसे की जो समस्या लंबे समय से है, उसमें कुछ कदम सरकार आगे बढ़ी है. लेकिन गांवों में और नए क्षेत्रों में पूरी तरह से भरोसा कायम होने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा और अगर ऐसा हो पाया तभी एक तरह से नक्सलवाद का खात्मा होगा, जो मुझे नहीं लगता कि 2026 तक हो पाएगा”.
80 फीसदी कम हुई वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा
भारत की केंद्र सरकार ने हालिया समय में नक्सल आंदोलन के खिलाफ बेहद कड़ा रुख अपनाया है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने देश से नक्सलवाद के खात्मे के लिए 31 मार्च, 2026 की समयसीमा तय की है. उन्होंने इसी महीने की शुरुआत में कहा था कि जब तक सभी नक्सली आत्मसमर्पण नहीं कर देते, पकड़े नहीं जाते या मारे नहीं जाते, तब तक सरकार चैन से नहीं बैठेगी.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 12 अगस्त को लोकसभा को अपने लिखित जवाब में बताया था कि देश में वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा में कमी आई है. उन्होंने बताया कि साल 2010 से लेकर 2024 तक, वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसक घटनाओं में 81 फीसदी की कमी आई है और इनके परिणामस्वरूप होने वाली आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों की मौतों में 85 फीसदी की कमी आई है.
नित्यानंद राय ने अपने जवाब में बताया कि साल 2013 में कुल 126 जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित थे और अप्रैल 2025 में इनकी संख्या घटकर 18 पर आ गई है. उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय नीति और एक्शन प्लान 2015 को अच्छी तरह से लागू करने की वजह से हिंसा में लगातार कमी आई है और वामपंथ उग्रवाद के भौगोलिक विस्तार में भी कमी आई है.
इसके साथ ही, आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की संख्या भी बढ़ी है. प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के मुताबिक, साल 2024 में करीब 930 नक्सलियों ने समर्पण किया था. वहीं, साल 2025 के शुरुआती चार महीनों में ही 700 से ज्यादा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने 12 जुलाई को एक्स पर बताया था कि पिछले 15 महीनों में छत्तीसगढ़ में 1,500 से ज्यादा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है.
ब्रेन ईटिंग अमीबा की वजह से जानलेवा बीमारी होती है. इससे संक्रमित होने के बाद इंसान का बचना बेहद मुश्किल हो जाता है. हालांकि, यह बीमारी संक्रामक नहीं है, यानी एक से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
एक इंसान के शरीर में औसतन 30 हजार अरब से भी ज्यादा कोशिकाएं होती हैं, वहीं, अबीमा एक ऐसा जीव होता है, जिसमें सिर्फ एक कोशिका होती है. इसी एक कोशिका के सहारे अमीबा अपना खाना ढूंढ़ता है, उसे खाता है, पचाता है और फिर अपशिष्ट पदार्थ बाहर निकाल देता है. अक्सर जलाशयों में पाए जाने वाले अमीबा की एक प्रजाति ने इंसानों में सेहत को लेकर एक बड़ा डर पैदा कर दिया है.
दरअसल, भारत के केरल राज्य में इस साल ‘ब्रेन ईटिंग अमीबा' के 65 से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और इसके चलते 18 लोगों की मौत हो चुकी है. इस अमीबा को वैज्ञानिक भाषा में ‘नेग्लीरिया फाउलराए' कहा जाता है. इसे ब्रेन ईटिंग अमीबा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह दिमाग में संक्रमण कर, दिमाग के टिशू यानी ऊतकों को नष्ट कर सकता है.
इंसानों में कैसे पहुंचता है यह अमीबा
अमेरिका के ‘रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र' (सीडीसी) की वेबसाइट के मुताबिक, ब्रेन ईटिंग अमीबा ताजे पानी की झीलों, जलाशयों, नदियों, गर्म झरनों और मिट्टी में पनपता है. जिन स्विमिंग पूलों का ठीक ढंग से रखरखाव नहीं किया जाता, वहां भी इस अमीबा के पनपने का खतरा होता है.
जिस पानी में यह अमीबा मौजूद होता है, उसमें नहाना बेहद खतरनाक होता है. दरअसल, नहाते समय यह अमीबा नाक के जरिए आपके शरीर में प्रवेश कर सकता है और फिर दिमाग तक पहुंच सकता है. इसके चलते, इंसानों में होने वाली बीमारी को प्राइमरी अमीबिक मैनिंगोइंसेफेलाइटिस (पीएएम) कहा जाता है. यह स्थिति बेहद दुर्लभ लेकिन जानलेवा होती है.
केरल में पिछले साल मई से लेकर जुलाई तक पीएएम के चार मामले सामने आए थे और चारों मामलों में पीड़ित बच्चों की मौत हो गई थी. इस साल सामने आए 67 मामलों में से 18 लोगों की मौत हो चुकी है. सीडीसी के मुताबिक, अमेरिका में 1962 से 2024 तक इसके 167 मामले सामने आए और उनमें से सिर्फ चार लोग ही जीवित बच सके.
किन देशों में पाया जाता है यह अमीबा
अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट पर पिछले साल इस अमीबा के बारे में एक अध्ययन छपा था. इसके मुताबिक, अंटार्कटिका को छोड़कर दुनिया के हर देश में इस अमीबा की मौजूदगी दर्ज की जा चुकी है. 1965 से 2018 के बीच, दुनिया भर में इसके करीब 380 मामले ही रिपोर्ट किए गए. जाहिर है कि यह काफी दुर्लभ है लेकिन साथ ही खतरनाक भी.
इस अध्ययन के मुताबिक, यह अमीबा इंसानों में तब प्रवेश करता है, जब इसका प्रजनन चक्र चल रहा होता है. इससे संक्रमित होने के बाद, लक्षण दिखने में एक से 14 दिन का वक्त लग सकता है. हालांकि, इस अमीबा से संक्रमित पानी को पीने से बीमारी नहीं फैलती क्योंकि उसके लिए पानी का नाक में जाना जरूरी होता है. इसके अलावा, यह बीमारी संक्रामक भी नहीं है, यानी एक से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती है.
दिमाग में जाकर क्या करता है यह अमीबा
सीडीसी के मुताबिक, ब्रेन ईटिंग अमीबा आमतौर पर बैक्टीरिया खाता है, लेकिन जब यह अमीबा इंसानों में प्रवेश करता है तो यह उनके दिमाग को खाने के स्रोत की तरह इस्तेमाल करता है. कई अध्ययनों में बताया गया है कि यह अमीबा तंत्रिका कोशिकाओं द्वारा संवाद के लिए छोड़े जाने वाले रसायनों के प्रति आकर्षित होता है. इसके चलते वह नाक में घुसने के बाद, ओलफैक्ट्री नर्व से होते हुए दिमाग के सामने वाले हिस्से में पहुंच जाता है.
दिमाग में जाकर यह अमीबा दिमाग के ऊतकों को तो नष्ट करता है, साथ ही शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी हमला करता है. दरअसल, दिमाग में संक्रमण होने से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली एक मजबूत प्रतिक्रिया देती है. इस प्रतिक्रिया से यह अमीबा तो नहीं मरता है लेकिन दिमाग में गंभीर सूजन हो जाती है.
इसके शुरुआती लक्षणों में उल्टी, बुखार, सिरदर्द और सुस्ती आदि शामिल हैं. बीमारी के गंभीर होने पर भ्रमित होने, गर्दन अकड़ने, रोशनी से डर लगने और दौरे आने जैसे लक्षण दिखने लगते हैं. सीडीसी के मुताबिक, इसके लक्षण दिखने के एक से 18 दिन के भीतर ज्यादातर लोगों की मौत हो जाती है. आमतौर पर पीड़ित पहले कोमा में जाता है और फिर उसकी मौत होती है.
सामान के बदले सामान का विनिमय सिस्टम एक बार फिर रूस में बढ़ गया है. प्रतिबंधों से बचने के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है. कंपनियां गेहूं के बदले चायनीज कार और पटसन के बीजों के बदले निर्माण सामग्री हासिल कर रही हैं.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
प्राकृतिक संसाधनों के दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक देश रुस ने तीन दशक पहले 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक संबंधों का सफर शुरू किया था.
आज भले ही रूस ने चीन और भारत के साथ संबंध मजबूत कर लिए हैं लेकिन अदलबदल वाली व्यवस्था का लौटना दिखा रहा है कि यूक्रेन युद्ध ने किस तरह से रूसी कारोबारी संबंधों पर असर डाला है.
अमेरिका, यूरोप और सहयोगी देशों ने रूस पर 25,000 से ज्यादा अलग अलग तरह के प्रतिबंध लगाए हैं. 2022 में यूक्रेन पर हमला करने और 2014 में क्रीमिया को अलग करने के बाद 2.2 ट्रिलियन डॉलर वाली रूसी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ है और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए समर्थन घटा है. अमेरिका ने तो रूसी तेल खरीदने की वजह से भारत पर भी भारी आयात शुल्क लगा दिया है.
भारत और चीन रूसी तेल ना खरीदें तो क्या होगा
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का कहना है कि रूसी अर्थव्यवस्था ने उम्मीदों से बेहतर प्रदर्शन किया है. यह पिछले दो सालों में जी7 देशों की तुलना में ज्यादा तेजी से आगे बढ़ी है, जबकि पश्चिमी देश इसके ढह जाने की भविष्यवाणी कर रहे थे. पुतिन ने कारोबारियों और अधिकारियों को आदेश दिया है कि वो हर तरीके से प्रतिबंधों का उल्लंघन करें.
रूसी अर्थव्यवस्था में तनाव के संकेत
हालांकि अर्थव्यवस्था पर तनाव के संकेत बढ़ते जा रहे हैं. रूसी सेंट्रल बैंक के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था पहले ही तकनीकी रूप से मंदी झेल रही है और साथ ही महंगाई की दर भी काफी ज्यादा है.
2022 में रूसी बैंकों को स्विफ्ट पेमेंट सिस्टम से बाहर करना और चीन के बैंकों को अमेरिका की धमकी ने दूसरे क्रम के प्रतिबंधों की आशंका पैदा की है. पेमेंट मार्केट से जुड़े एक सूत्र ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "चायनीज बैंकों को प्रतिबंधित बैंकों की सूची में डाले जाने का डर है इसलिए वे रूस से पैसा स्वीकार नहीं कर रहे हैं."
कैसे काम करता है सस्ते रूसी तेल का गणित?
यही डर विनिमय यानी अदल बदल वाली व्यवस्था के उभार के पीछे है जिसका पता लगाना काफी मुश्किल है. 2024 में रूस के अर्थव्यवस्था से जुड़े मंत्रालय ने 14 पन्ने का "विदेशी विनिमय लेनदेन गाइड" जारी किया. इसमें कारोबारियों को सलाह दी गई है कि प्रतिबंधों से बचने के लिए क्या तरीके अपनाए जाएं. यहां तक कि इसमें एक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म बनाने का भी प्रस्ताव है जो अदल बदल के बाजार की तरह काम करेगा.
मंत्रालय के दस्तावेज में कहा गया है, "विदेशी व्यापार विनिमय विदेशी कंपनियों के साथ सामान और सेवाओं के लेन देन को बिना अंतरराष्ट्रीय भुगतान के संभव बनाएगा." इस तरह के भुगतानों में हाल तक बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. हालांकि पिछले साल समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने खबर दी थी कि चीन की हाइनान लॉन्गपान ऑयलफील्ड टेक्नोलॉजी कंपनी मरीन इंजिनों के बदले में स्टील और एल्युमिनियम के अलॉय का लेन देन करने की फिराक में थी.
रूस पर लगाए गए नए प्रतिबंधों से ईयू-भारत संबंधों पर कितना असर होगा?
कंपनी ने इस बारे में पूछने पर जवाब नहीं दिया. रॉयटर्स ने आठ ऐसे सामानों के लेन देन का पता लगाया है. इसके लिए कारोबारी सूत्रों, कस्टम सेवाओं के सार्वजनिक बयानों और कंपनी के स्टेमेंट को आधार बनाया गया है. इससे पहले इस तरह के लेन देन की खबर नहीं थी.
रॉयटर्स इस लेन देन का रूसी अर्थव्यस्था के लिए कुल कीमत या मात्रा का पता नहीं लगा सका लेकिन कारोबार से जुड़े तीन सूत्रों ने कहा कि यह व्यवस्था अब आम होती जा रही है.
रूसी और एशियाई उद्योगपतियों के एक संगठन के सचिव माक्सिम स्पास्की का कहना है, "विनिमय का विकास डॉलर को हटाने, प्रतिबधों के दबाव और सदस्यों में तरलता की समस्या का संकेत है." स्पास्की का कहना है कि विनिमय का तंत्र और आगे बढ़ने के आसार हैं.
रूसी कस्टम सेवा ने इस बात की पुष्टि की है कि अलग अलग देशों के साथ कई चीजों के लिए विनिमय किया जा रहा है. हालांकि बाजार के कुल लेन देन के सामने अब भी यह बहुत कम ही है.
रूस का विदेशी व्यापार मुनाफा जनवरी से जुलाई के बीच एक साल पहले की तुलना में करीब 14 फीसदी गिर कर 77.2 अरब डॉलर पर आ गया. ये आंकड़े फेडरल कस्टम सर्विसेज के हैं. इसी दौर में निर्यात 11.5 अरब डॉलर घट कर 232.6 अरब डॉलर पर आ गया जबकि आयात 11.5 अरब डॉलर बढ़ कर 155.4 अरब डॉलर पर जा पहुंचा.
अनाज के बदले कार
रॉयटर्स को जिन लेन देन का पता चला है उसमें एक है रूसी गेहूं के बदले चीनी कारें. एक सूत्र के मुताबिक डील में शामिल चीनी कार कंपनी ने कार के लिए भुगतान अनाज से करने के लिए कहा.
चीनी साझीदार ने युआन देकर चीन में खार खरीदे. इसी तरह रूसी साझीदार ने रूबल देकर अनाज खरीदे और फिर गेहूं के बदले कारों की लेनदेन की गई. अभी यह पता नहीं चल सका कि कितनी कारों के बदले कितना अनाज दिया गया. इसी तरह के दो और लेन देन में रूसी पटसन के बीजों के बदले निर्माण सामग्री दी गई. अनुमान है कि इसकी कीमत करीब 100,000 अमेरिकी डॉलर थी. चीन रूसी पटसन के बीजों का बड़ा आयातक है, वहां इनका इस्तेमाल औद्योगक प्रक्रियाओं और पोषण से जुड़े सामान बनाने में होता है.
इसी तरह एक लेनदेन में चीन से मशीनों के बदले उस तक धातुएं पहचाई गईं. चीनी सेनाओं को कच्चे माल से बदला गया और रूसी आयातक कंपनी ने अल्युमिनयम से इसके बदले भुगतान किया. इस तरह का सौदा पाकिस्तान से भी हुआ था. ऐसे लेनदेन ने रूस को प्रतिबंधों के दौर में पश्चिमी देशों का सामान भी लाने में मदद की है.
विनिमय से पहले हो चुकी है समस्या
1990 के देशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब वहां अदल बदल के जरिए व्यापार शुरू किया गया तो इससे वहां की अर्थव्यवस्था में काफी उथल पुथल हुई. तब बिजली से लेकर, आटा, चीनी, जूते जैसे चीजों के लिए यह तंत्र बनाया गया. हालांकि इसमें कीमत तय करने की मुश्किल थी और इसका कुछ लोगों ने भरपूर फायदा उठाया.
उस वक्त देश के पास तैयार मुद्रा नहीं थी इसके अलावा भारी महंगाई और बार बार मुद्रा के अवमूल्यन ने इस व्यवस्था की हालत बिगाड़ दी. अब मुद्रा की तो कमी नहीं है लेकिन विनिमय तंत्र इसलिए लाया जा रहा है ताकि रूस और चीन पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के डर का दबाव कम किया जा सके. रूस पश्चिमी देशों को अवैध तो चीन उन्हें भेदभावपूर्ण बताता है.
-भरत वर्मा
‘सो जा बेटे, रात के 12 बज रहे हैं, कब तक मोबाइल फोन देखते रहोगे?’
‘बस मम्मी, एक फिल्म खत्म कर रहा हूं, दिन में वाई-फाई नहीं मिलता ना!’
‘इस वाई-फाई का कुछ करना होगा!’
नोएडा में रहने वालीं सरिता और आठवीं क्लास में पढऩे वाले उनके बेटे अक्षर के बीच ये बातचीत एक रूटीन की तरह है। हफ़्ते में तीन-चार रातों को यह हो ही जाती है।
कुछ लोग कहते हैं कि वाई-फाई का मतलब ‘वायरलेस फिडेलिटी’ है, जैसे हाई-फाई का मतलब ‘हाई फिडेलिटी’ होता है। लेकिन इंडस्ट्री संगठन वाई-फाई एलायंस का कहना है कि वाई-फाई का कोई पूरा नाम नहीं है।
सीधी भाषा में कहें तो वाई-फाई वह तकनीक है, जो हमें तारों और कनेक्टरों के जाल में फंसे बिना इंटरनेट से जोड़ती है। इसके जरिए हम इंटरनेट से जानकारी हासिल कर सकते हैं और आपस में संपर्क कर सकते हैं।
वाई-फाई ऑन रहने से सेहत पर कुछ असर होता है?
वाई-फ़ाई कंप्यूटर और स्मार्टफ़ोन जैसे डिवाइस को बिना केबल के नेटवर्क से कनेक्ट कर देता है। ये एक वायरलेस राउटर का इस्तेमाल कर वायरलेस लोकल एरिया नेटवर्क (डब्ल्यूएलएएन) बनाता है।
मोबाइल फोन की लत से हम सभी वाकिफ़ हैं और अब वाई-फाई एक नई लत बनकर उभर रहा है। लेकिन इसका एक पहलू ऐसा भी है, जिसकी चर्चा कम होती थी, लेकिन अब ज़ोर पकडऩे लगी है।
अगर कोई देर रात तक मोबाइल फ़ोन, टैबलेट, कंप्यूटर या लैपटॉप पर मनोरंजन या काम की वजह से एक्टिव है तो इसकी संभावना बढ़ जाती है कि वाई-फ़ाई राउटर भी रात में ऑन ही रह जाए।
तो क्या वाई-फ़ाई ऑन रखने से हमारी सेहत पर कुछ असर होता है या उसे बंद करने से हेल्थ के लिए कुछ फायदे हो सकते हैं?
इस सवाल को और पैना करें तो क्या वाई-फ़ाई रात में ऑन रह जाना, इंसानी शरीर के न्यूरोलॉजिकल पक्षों या दिमाग़ को नुक़सान पहुंचा सकता है?
दिल्ली-एनसीआर की यशोदा मेडिसिटी में कंसल्टेंट (मिनीमली इनवेसिव न्यूरो सर्जरी) डॉक्टर दिव्य ज्योति से जब यह सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि सीधे तौर पर ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि साइंटिफिक़ तौर पर अभी तक ऐसा कुछ साबित नहीं हुआ है।
डॉक्टर ने आगे कहा कि तार्किक रूप से देखें तो ऐसा सोचा जा सकता है क्योंकि ब्रेन के इम्पलसेस, इलेक्ट्रिकल इम्पलसेस होते हैं, और वाई-फाई या दूसरे अप्लायंसेज जो होते हैं, वो इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड (ईएमएफ) पर निर्भर करते हैं।
‘तो मुमकिन है कि ये दिमाग के इम्पलसेस के साथ दख़लअंदाजी करें, लेकिन अभी तक हमारे पास ये सोचने का कोई वैज्ञानिक कारण, स्पष्टीकरण या निष्कर्ष नहीं है। लेकिन तर्क तो यही कहता है कि हमें इससे जितना मुमकिन हो बचना चाहिए।’
ये ब्रेन इम्पलसेस होते क्या हैं?
ब्रेन इम्पलसेस वो इलेक्ट्रोकेमिकल सिग्नल होते हैं, जिसकी मदद से न्यूरॉन कम्यूनिकेट करते हैं, और सूचना को प्रोसेस करते हैं। इन नर्व इम्पल्स को एक्शन पोटेंशियल भी कहा जाता है।
जो नर्व इन इम्पल्स को दिमाग तक ले जाती है, वो है सेंसरी नर्व। यह दिमाग तक मैसेज लेकर जाती है, तभी हम और आप स्पर्श, स्वाद, गंध महसूस कर पाते हैं, साथ ही देख पाते हैं।
वाई-फाई राउटर का रात और दिन में असर
क्या वाई-फाई राउटर से रात में बचना चाहिए और दिन के समय क्यों नहीं?
इस पर डॉक्टर दिव्य ज्योति ने बीबीसी से कहा, ‘दिन और रात में शरीर और उसकी गतिविधियों में अंतर होता है। रात के समय शरीर की वेव्स अलग तरह की होती हैं, जो स्लीप वेव्स होती हैं। रात को सबसे ज़रूरी है अच्छी नींद मिलना और वो स्लीप साइकिल से तय होता है।’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए कहा जाता है कि रात में इसे बंद कर देना चाहिए ताकि दिमाग को आराम मिले, साउंड स्लीप मिले, पूरी तरह रेस्ट मिले। लेकिन दिन के समय हमें काम करना होता है, तो नींद में दखल नहीं होती, लेकिन लॉजिक यही है कि ये एक्सपोजऱ जितना कम हो, उतना अच्छा।"
लेकिन क्या रात में वाई-फ़ाई से ही बचने की सलाह दी जाती है। मोबाइल फ़ोन का क्या, जो हम अक्सर अपने सिरहाने रखकर सोते हैं?
इस पर डॉक्टर का कहना है कि मोबाइल फोन भी माइक्रोवेव पर आधारित होते हैं। ये भी एक तरह की रेडिएशन पैदा करते हैं, बस इनकी फ्रीक्वेंसी अलग होती है। तर्क के तौर पर देखें तो ये भी दख़ल दे सकती हैं। यहाँ तक कि अगर आप मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल न भी करें तो भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स मौजूद रहती हैं।
डॉक्टर दिव्य ज्योति ने कहा, ‘बैकग्राउंड रेडिएशन की बात करें तो उसकी तुलना में मोबाइल फोन और वाई-फाई से निकलने वाली रेडिएशन काफी कम होती हैं। क्या इन दोनों से एक्सपोजर बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है तो जवाब है नहीं। इसकी तुलना में बैकग्राउंड रेडिएशन को लेकर हमारा एक्सपोजर कहीं ज़्यादा है।’
जानकारों का कहना है कि हमारे घर-दफ्तर में हर तरह के एप्लायंसेज से रेडिएशन निकलती है। टीवी, फ्रिज से लेकर एसी तक। कोई भी इलेक्ट्रिक अप्लायंस हो, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स उससे जुड़े हैं ही।
कुछ विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि अगर ईएमएफ़ के ओवरएक्सपोजऱ का डर है तो उस कमरे में राउटर लगाने से बचना चाहिए, जिसमें आप सोते हों। या फिर ऐसा मुमकिन ना हो तो सोने के पलंग से राउटर को ठीक-ठाक दूरी पर रख सकते हैं।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
मेडिकल लाइन के अलावा टेक्नोलॉजी से ताल्लुक रखने वाले एक्सपर्ट से भी इस विषय पर हमने चर्चा की।
उनका कहना है कि इस बारे में सटीक रूप से कोई जानकारी सामने नहीं है, जिसके कारण कन्फ्यूजन ज़्यादा है। ऐसे में स्टडी होनी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि असल में इन वेव्स या ईएमएफ से कितना नुक़सान हो सकता है, और कैसे बचा जाना है।
टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट मोहम्मद फै़सल अली का कहना है कि ऐसी कोई स्टडी नहीं है, जो ये साबित कर सके कि हमें रात को वाई-फ़ाई बंद करना चाहिए, ताकि हमें अच्छी नींद आ सके।
‘या फिर वाई-फ़ाई ऑन रखने से ये हमारे न्यूरोलॉजिकल या किसी दूसरे सिस्टम को इम्पैक्ट करता है। लेकिन ये तो कहा ही जा सकता है कि किसी भी तरह के रेडियो वेव को लेकर ओवरएक्सपोजऱ लंबी मियाद में असर तो डाल ही सकता है। ये जेनेरिक बात है।’
अली ने बीबीसी से कहा, ‘साल 1995-96 से मोबाइल की शुरुआत मान लें तो इसका कुल सफऱ तीस साल का है और पिछले दस साल में भारत में मोबाइल और वाई-फ़ाई की ग्रोथ कहीं ज़्यादा हुई है।’
‘तो मुमकिन है कि आगे चलकर कोई स्टडी हो, जिसमें निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके कि इन चीज़ों से ये-ये नुकसान हो सकते हैं, इसलिए लिमिट में ही इस्तेमाल करने चाहिए। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं है।’
यूनिसेफ के मुताबिक, पहली बार ऐसा हुआ है जब मोटापे के शिकार युवाओं की संख्या, दुबले पतलों से आगे निकल चुकी है.
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी का लिखा-
यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड (यूनिसेफ) ने 190 से ज्यादा देशों से आंकड़ें जुटाने के बाद पोषण रिपोर्ट तैयारी की है. रिपोर्ट के लिए बड़ी संख्या में घरों और परिवारों का सर्वे कर स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े भी जुटाए गए. रिपोर्ट के मुताबिक, 5 साल के बच्चों से लेकर 19 साल तक के युवाओं में अब कम वजन (अंडरवेट) के मामले 9.2 फीसदी हैं. 25 साल पहले यह दर 13 प्रतिशत थी. वहीं सन 2000 में इसी आयु वर्ग में मोटापे की दर 3 फीसदी थी, जो अब बढ़कर 9.4 परसेंट हो चुकी है.
बच्चों और युवाओं में मोटापे की दर सबसे ज्यादा अमीर और तेजी से विकास कर रहे देशों में बढ़ी है. दक्षिण अमेरिकी देश चिली में यह 27 फीसदी है, तो जर्मनी में 25 और अमेरिका व यूएई में 21 परसेंट बच्चे और युवा मोटापे का शिकार हैं. मोटापे की इस बढ़ती लहर से अब सिर्फ सब सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया ही बचे हैं.
मोटापा भी कुपोषण है
यूनिसेफ की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर कैथरीन रसेल कहती हैं, "कुपोषण, अब सिर्फ कम वजन वाले बच्चों के बारे में नहीं है."
कई देशों में अब तक यह आम धारणा रही है कि औसत से कम वजन, कुपोषण की निशानी है, जबकि मोटापे जरूरत से ज्यादा बढ़िया खुराक की. लेकिन वैज्ञानिक नजरिए से देखें तो मोटापा भी कुपोषण ही है. रसेल कहती हैं, "मोटापा, एक बढ़ती समस्या है, इसका बच्चों के स्वास्थ्य और विकास पर असर पड़ सकता है. बहुत ज्यादा प्रोसेस किया गया भोजन, तेजी से फलों, सब्जियों और प्रोटीन की जगह ले रहा है."
यूनिसेफ के मुताबिक बचपन से लेकर शुरुआती युवावस्था तक फल, सब्जियां, अनाज और प्रोटीन बेहद जरूरी होते हैं. ऐसी खुराक शारीरिक, मस्तिष्क संबंधी और मानसिक विकास में अहम भूमिका निभाती है.
मोटापे के खिलाफ मेक्सिको का चमकीला उदाहरण
यूनिसेफ की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि सस्ता, अल्ट्रा प्रोसेस्ड और फास्ट फूड मोटापे की दर को बढ़ा रहा है. ऐसा खाना बेचने के लिए बहुत पैसा खर्च कर लुभावने विज्ञापनों की बाढ़ सी बहाई जा रही है.
रिपोर्ट के मुताबिक मोटापा, स्कूल में उपस्थिति, आत्मविश्वास, सामाजिक मेलजोल पर भी असर डाल सकता है. बचपन और किशोरावस्था में ऐसे अनुभवों से स्थापित होने वाली आदतों को बाद में बदलना बहुत ही मुश्किल होता है.
यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में मेक्सिको के कदमों की तारीफ की है. मेक्सिको सरकार ने सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाले भोजन में बड़े बदलाव किए हैं. इन बदलावों के तहत अब बच्चों को अति संवर्धित, ज्यादा नमक या चीनी वाला भोजन परोसना बैन कर दिया गया है. इस प्रतिबंध में बहुत ज्यादा फैट वाले भोजन को भी शामिल किया गया है. इसका फायदा 3.4 करोड़ से ज्यादा बच्चों को हुआ है.
-संजीव शुक्ला
हमारी उम्र के अधिकांश लोगों ने अपना बचपन मोहल्ले में बिताया है, हममें आज भी वह मोहल्ला संस्कृति जीवित है ।
हम जब स्कूल में पढ़ा करते थे तब पूरे मोहल्ले में एक दो घरों में ही फ़ोन होता था और सारा मोहल्ला उनके नंबर को पीपी नंबर के रूप में अपने सारे परिचितों और रिश्तेदारों को दिया करता था यहाँ तक की कुछ उत्साही लोग अपने विजिटिंग कार्ड में भी पड़ोसी के नंबर को पीपी नंबर के रूप में लिख दिया करते थे। रोज-मोहल्ले के किसी ना किसी घर के लिए फोन उनके यहाँ आते वे अपने सब कम छोड़ पड़ोसी को बुलाने जाते और पड़ोसी को घर में बैठकर बात करने की सुविधा ही नहीं देते बल्कि एक टुकड़ा मीठा, कुछ ना हो तो गुड़ और पानी पिला कर विदा करते।
हम बचपन में रायपुर ब्राह्मण पारा में रहते थे पूरे मोहल्ले में सिर्फ दिलीप बैस जी के यहाँ ही टीवी हुआ करता था पूरा मोहल्ला शनिवार को फूल खिले हैं गुलशन गुलशन शुक्रवार को चित्रहार और रविवार को टीवी पर आने वाली हिंदी फि़ल्म देखने उनके घर जाया करता था , घर वाले सबके लिए दरी बिछा कर बैठ कर कार्यक्रम देखने का पूरा इंतजाम ख़ुशी ख़ुशी किया करते थे ।
इन दोनों प्रसंगों को मैं आज इस संदर्भ में याद कर रहाँ हूँ कि पहले मोहल्ले की संस्कृति कितनी जीवंत और मिलनसार हुआ करती थी, लोगों में कितना धैर्य और आत्मीयता हुआ करती थी। फिर हम धीरे धीरे मोहल्ले से निकल कर कॉलोनी में , फिर गेटेट कॉलोनी में, फिर फ्लैट में शिफ्ट होते गए और साथ ही साथ हमारी नजदिकयाँ कम होती गई, धीरज चुकता गया गया और हमे पता ही नहीं चला कब हम मोहल्ले से परिवार और परिवार से एकल परिवार तक का सफर पूरा कर लिए।
-अपूर्वा
हिंदी भाषा लगातार प्रगति करती चली गई, बदलती गई, नए परिधान पहन कर सुंदर होती गई, वैदिक संस्कृत, प्राकृत,अपभ्रंश, प्रादेशिक...उर्दू हिंदी।
महान हिंदी काव्य साहित्य रचे जाते रहे।
हिंदी 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा भारत की राजभाषा बनी।
देश के बड़े हिस्से की भाषा हिंदी। सोचिये हिंदी का क्षेत्र कितना व्यापक है? हिंदी मीडिया, हिंदी प्रकाशक, हिंदी फि़ल्में कितना कमाती हैं?
पर हिंदी को विकसित करने वाला हिंदी वैज्ञानिक, हिंदी का इलाज करने वाला हिंदी चिकित्सक, हिंदी को संवारने वाला हिंदी को सुंदर रूप देने वाला हिंदी ‘ब्यूटीशियन’ किस हाल में है ?
गोदान, मैला आँचल, संसद से सडक़ तक ,चाँद का मुँह टेढ़ा है ,अपनी खबर, चुका भी हूँ मैं नहीं, विकलांग श्रद्धा का दौर जैसी कालजयी हिंदी किताबों के लेखक किस हाल में रहे ? ये एक लम्बी सूची है और लेखकों की सूची भी लम्बी है ।
हिंदी लेखकों की पीड़ा की सूची और लम्बी है।
हिंदी मीठी भाषा है । आज मीठा दिवस है कायदे से।
कायदे से आज 14 सितम्बर के सरकारी मीठे-मीठे बोल बोलकर जयकारा लगा देना चाहिए और इतनी जोर से जयजयकार हो ,शोर हो कि हिंदी साहित्यकारों की दशा, उनकी चिंताएं, उनकी चिताएं!..भी यदि सजने को तैयार हो तो ये किसी को खबर न लगे ।
कभी मत सुनियेगा कि रही मासूम रजा साहब ने किस वेदना से कहा था
‘मैं इस दुनिया से क्या मांगूं
मेरी नज़्मों की कीमत इस जि़ंदगी ने कब दी थी
जो अब देगी’
उग्रजी की तबियत बिगडऩे पर जब बच्चनजी ने उन्हें कुछ देने की पेशकश की इज़ाज़त मांगी तो उग्रजी ने कहा था-
‘तुमसे पैसे लेकर तुम्हारे सामने कभी आने पर मुझे अहसान मंद होना पड़ता, वह मैं किसी के सामने नहीं हुआ हूँ। अहसानमंद तो मैं अपनी लाश उठाने वाले का भी न होना चाहूंगा। जब मैं मरुँ और तुमको ख़बर मिले तो मेरी लाश हरिजनों से उठवाकर बस्ती से दूर किसी नदी में फिकवा देना।’
ऐसा ही स्वाभिमान और संघर्ष सवालाख सॉनेट लिखने वाले त्रिलोचन जी का था। भयानक संघर्ष, गर्दिश ही गर्दिश पर अपने उसूलों स्वाभिमान से समझौता नहीं किया।
याद है एक सभा में कैसे निराला जी को कुर्सी से उठकर अपने शरीर के ऊपर एक पतला कम्बल, जो कई जगह से फटा था, उसे सबको दिखाकर कहना पड़ा था-
‘ये है आपकी हिंदी, इसे गौर से देखिये। सोच सकें तो सोचिये ।हम तो काम के आदमी हैं ,बातें कम करते हैं।’
परसाईजी ने लिखा है-‘कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है ओर न कभी गर्दिश का अंत होना है, ये ओर बात है शोभा के लिए कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन ली जाएँ ।उनका मेकअप कर दिया जाए, उन्हें अदाएं सीखा दी जाएँ-थोड़ी चुलबुली गर्दिशें हो तो ओर अच्छा, और पाठक से कहा जाय-‘ले भाई देख मेरी गर्दिश’
ये कुछ सतही, प्रकाशित उद्धरण मैंने बताये । इसकी जितनी गहराई में जायेंगे हिंदी जिनसे चमकती है वो कितने अँधेरे में जीते रहे और आज भी जी रहे, ये पाएंगे।
सोवियत रूस ने कभी गोर्की के नाम पर एक पूरे शहर निजऩी नोवगोरोड को गोर्की नगर कर दिया था।
-सनियारा खान
स्वाभिमानी औरतों को हमेशा पितृसत्तात्मक समाज से लड़ते हुए जि़न्दगी गुजारनी पड़ती हैं। यहां मैं बात करना चाहूंगी एमी बिशेल की। वे ब्रिटेन की एक बहुत ही चर्चित लेखिका है। एक बार उन्हें एक पार्टी के लिए आमंत्रित किया गया था। वे उस पार्टी में अपनी ग्यारह साल की बेटी मेबेल को साथ लेकर गई थी। पार्टी के बीच में एक सत्तर साल के आदमी ने मेबल को ‘तुम तो बहुत ही सुंदर हो’ कहकर उसे घूर रहा था। उस आदमी के कारण मेबेल पूरे समय पार्टी में चुप सी रही और असहज महसूस कर रही थी। बेटी का चेहरा देखकर एमी भी समझ गई थी कि उसे पार्टी में मजा नहीं आ रहा है। लेकिन शिष्टाचार के कारण एमी उस आदमी को कुछ कह नहीं पाई। पार्टी खत्म होने के बाद मां-बेटी दोनों घर आ गए। घर आने के बाद एमी फिर से पूरी घटनाक्रम को याद कर के समझने की कोशिश कर रही थी। सभी पक्षों को ध्यान से सोचकर एमी को लगने लगा कि उससे एक बहुत बड़ी गलती हो गई है। पार्टी में ही सभी के सामने उस आदमी को कह देना चाहिए था कि उनका व्यवहार ग्रहण योग्य नहीं है। अब एमी मेबेल के पास जाकर उससे माफी मांगी। क्योंकि उनको लगा कि वे एक मां होकर भी बेटी के साथ होते हुए अन्याय को चुपचाप देख रही थी। बेटी को कैसा महसूस हो रहा था इस बात को छोडक़र वे एक अनजान आदमी क्या सोचेगा इस बात को लेकर फिक्र कर रही थी। बहुत देर तक बात करने के बाद दोनों ने मिलकर ये तय किया कि जिस तरह की बातों से वे अपमानित या असहज महसूस करे, उस तरह की बातें सुनकर वे खामोश न रहकर उसी समय विरोध जताएंगे। चाहे इसके लिए कोई उनको घमंडी समझे या अशिष्ट समझे! जहां सवाल आत्मसम्मान को लेकर उठता है, वहां किसी भी तरह से समझौता नहीं करना चाहिए। एमी बिशेल ने उनकी जि़ंदगी में घटनेवाली ऐसी ही कई घटनाओं के बारे में अपनी किताब ‘बैड मैनर्स’(Bad Manners) में लिखा है। व्यक्तिगत रूप से वे चाहती थी कि ज्यादा से ज्यादा मर्द ये किताब जरूर पढ़ें। तभी वे समझ पाएंगे कि उनकी किस प्रकार की हरकतों से औरतें अपमान और शर्म महसूस करती हैं! किसी औरत को स्वस्थ रूप से प्रशंसा कर पाना भी एक हूनर है और मर्दों को ये हूनर आना चाहिए। एमी जानती थी कि उनकी बेटी मेबेल की आँखें और बाल बहुत सुंदर हैं। लेकिन उसमें कई और अच्छी बातें भी थी। वह सरल स्वभाव की थी और उसे किताबें पढऩा बहुत पसंद था। पर उसकी इन बातों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, लोग उसकी सुंदरता के कारण उसकी और ज़्यादा तारीफ करने लगें। एमी को भी उसे सजाने संवारने में मजा आता था। उसे नए-नए डिज़ाइन के कपड़े लेकर देती थी। उसकी बालों को अलग-अलग स्टाइल में बनवाती थी। लेकिन उस पार्टी वाली रात के बाद से जि़ंदगी को लेकर एमी का नजरिया ही बदल गया। उनको समझ में आया कि औरतों को बाहरी सुंदरता से ज़्यादा अंदर से हिम्मती होना जरूरी है। हिम्मत न होने के कारण ही वे अपनी बेटी को अपमानित होते देखकर भी उस अनजान आदमी से कुछ नहीं कह पाई। एमी खुद भी अपनी जिंदगी की कुछ घटनाओं को याद करती है। सिर्फ बारह साल की उम्र में ही एक आदमी ने उनके शरीर को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। पंद्रह साल की उम्र में एक रेस्टोरेंट के मैनेजर ने उनको अश्लील ढंग से छुआ था। उस दिन घर आकर एमी पूरी रात रो रही थी। ज़्यादातर बच्चियां, लड़कियां या महिलाओं के अंदर इस तरह की कई अनचाही बातें छुपी रहती हैं। एमी बिशेल की लिखी हुई इस किताब में समाज के हर नागरिक के लिए सीखने लायक कई प्रकार की बातें हैं। जैसे, लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए सभी को मिल कर सामने आना चाहिए।
-संजय श्रमण
यूरोप में दो भारतीय मिलते हैं तो इंगलिश में बातें करते हैं। दोनों को पता हो कि अगला/अगली हिन्दी बेल्ट से है फिर भी इंगलिश में ही बातें करते हैं। तमिल, तेलुगू या मलयाली भारतीय हों तो बात अलग है लेकिन हाय रे दुर्भाग्य, हिन्दी बेल्ट का आदमी हिन्दी नहीं बोलना चाहता।
परदेस में दो बंगाली मिलेंगे तो बांग्ला में बोलेंगे, दो तमिल या मलयाली पंजाबी मिलेंगे तो तमिल या मलयालम या पंजाबी में ही बातें करेंगे। इस बात का हिन्दी भाषी बड़ा मजाक बनाते हैं। हिन्दी बेल्ट वाले ना केवल इंगलिश पर आ जाते हैं बल्कि एक्सेंट भी मारने लगते हैं।
यूरोपीय या अमेरिकन लोगों से बात करने के लिए एक्सेंट ठीक है, लेकिन दो भारतीय हिन्दी भाषी एकदूसरे को एक्सेंट में काहे को बतियाते होंगे?
यहाँ एक और मज़ेदार बात है, पाकिस्तानी मित्र मिलें तो एकदम से उर्दू-हिन्दी शुरू हो जाती है और थोड़ी ही देर में हिन्दी उर्दू में हल्की फुलकी शायरी और गालियों तक आ जाते हैं। जब किसी मुद्दे पर अपने अपने नेताओं और मुल्क की बदहाली पर जी भर के उर्दू हिन्दी पंजाबी में गालियाँ दे देते हैं तो बड़ा भाईचारा बन जाता है। फिर इंगलिश में कभी बात नहीं होती।
लेकिन उफ्फ़़! हिन्दी बेल्ट के भारतीयों से परदेस में मिलना उतना अपनापन नहीं देता।
क्या कारण हो सकता है?
मैंने कई लोगों से पूछा, ख़ासकर यूरोपीय विश्वविद्यालयों में कई लोगों से इस विषय में बात की। वे कहते हैं कि भारतीयों में और कुछ अफ्रीकी देशों में ये बात बहुत ज़्यादा है। जहां भी उपनिवेशी क़ब्ज़ा रहा है, वहाँ अपनी भाषा के प्रति एक हीन भावना प्रवेश कर गई है।
भारत में अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी भाषियों में ये हीन भावना कुछ अधिक है। एक कारण तो ये कि हिन्दी बहुत ही नयी भाषा है। हिन्दी भाषी भारतीय आपस में भी, अपने बच्चों से भी इंगलिश में ही बातें करते हैं। यही हिन्दी-उर्दू बोलने वाले पाकिस्तानियों के बारे में भी है। इस पूरे ख़ित्ते में जहां भी हिन्दी का असर है, वहाँ अपनी भाषा के प्रति एक ख़ास हीन भावना है।
स्विट्जऱलैंड का आधा हिस्सा जर्मन प्रभाव में है और शेष आधा फ्ऱेंच प्रभाव में है। ये मोटा मोटा विभाजन है। ना इटली में न स्विट्जऱलैंड में इंगलिश बोलने को ज्ञान की या शिक्षित होने की निशानी माना जाता है। जर्मनी और फ्ऱांस में तो कतई इंगलिश की धौंस नहीं जमाई जा सकती। वे लोग जर्मन और फ्ऱेंच के आगे किसी भाषा को कुछ नहीं समझते। ब्रिटेन की तो राजभाषा भी लंबे समय तक फ्ऱेंच ही थी। ये बात कम ही लोग जानते हैं। भारत पर फिर से आते हैं।
भारतीयों में विशेष तौर पर हिन्दी भाषियों में ना जाने कब ये प्रवृत्ति घुस गई कि गऱीब किसानों, मज़दूरों, शिल्पकारों, मछुआरों, चरवाहों के शब्द मानक हिन्दी में शामिल नहीं करने हैं। शास्त्रीयता, शुद्धता, संस्कृतनिष्ठता इत्यादि ना जाने कितने तरह के आग्रह हैं जिनकी वजह से हिन्दी अपने ही देश में अपने ही लोगों में धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। सामान्य बोलचाल की हिन्दी में जीतने शब्द हैं वे लाखों की संख्या में हैं, लेकिन मानक हिन्दी में शब्द कम होते जाते हैं।
किसानों, मज़दूरों और ख़ास तौर से गाँव के गऱीबों से या झुग्गी झोपड़ी के मज़दूरों से बात करके देखिए, आपको कई नये शब्द मिलेंगे। उदाहरण के लिए ‘गरियाना’ ‘लतियाना’ ‘वाट’ ‘मूड’ ‘ख़ालिस’ ‘ख़लास’ ‘जुगाड़’ ‘खटारा’ ‘भंगार’ और ना जाने क्या क्या। ये सब उनकी हिन्दी में हैं लेकिन किताबी हिन्दी में ये नहीं आ रहे। किताबी हिन्दी में ऐसे शब्द मिलेंगे जो मु_ी भर लोगों को ही समझ में आ सकते हैं।
इसीलिए हिन्दी की किताबें अगर पाँच सौ भी बिक जाये तो चमत्कार हो जाता है, दो तीन हज़ार कॉपी होते ही किताब बेस्ट सेलर में आने लगती है । डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों में कम से कम साठ करोड़ हिन्दी समझते होंगे उसमें से आधे भी शिक्षित हैं तो दो हज़ार प्रतियों के बेस्ट सेलर बन जाने का क्या मतलब हो सकता है?
हिन्दी को असल में संस्कृत की बीमारी लगी हुई है। उसे ज़मीन पर नहीं उतरना है, आकाश में देवलोक में ही लटके रहना है। जैसे संस्कृत गऱीबों से अछूतों से दूरी बनाकर रखती थी, वैसी ही हिन्दी भी है। हिन्दी में सरल और लोक के शब्दों को अपनाने से परहेज़ किया गया है। इसीलिए उर्दू आजकल उपेक्षित होने के बावजूद बहुत समावेशी और हिन्दी से कहीं ज़्यादा समृद्ध बन गई है। उर्दू ने जितने स्रोतों से शब्दों को लिया है वो गज़़ब की बात है। आम आदमी की हिन्दी भी बहुत समृद्ध है लेकिन उस हिन्दी में साहित्य कम ही मिलेगा।
इस कारण बोलने वाली हिन्दी और लिखी/पढ़ी जाने वाली हिन्दी में भारी अंतर पैदा हो गया है। ये अंतर इतना ज़्यादा है कि क्या बतायें।
मैं अक्सर इसे चेक करने के लिए विश्वविद्यालयों के बच्चों से बात करता हूँ। जान बूझकर कोई किताबी हिन्दी शब्द उछाल देता हूँ और सीधे उनकी आँख में झांकता हूँ। वे एकदम नकार देते हैं इन शब्दों को। जैसे ‘वास्तविकता’ ‘समावेश’ ‘आकर्षण’ ‘उपयोग’ ‘विश्राम’ ‘कर्तव्य’ ‘आभास’ ‘अभिव्यक्ति’ ‘आत्मविश्वास’ इत्यादि इत्यादि। वे इन शब्दों के इंगलिश अर्थ पूछते हैं। अगर डेढ़, ढाई, सवाया, पौना, पैंसठ, अठहत्तर, पच्चासी, पचपन जैसे शब्द कह दो तो वे हंसने लगते हैं कि कहाँ के गँवारों वाले शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं।
अब इस पीढ़ी से इंग्लिश में भी बात करके देख लीजिए। वहाँ भी वही हाल है। इंगलिश एक तो हमारी भाषा नहीं ऊपर से बिलकुल ही कम पढ़े लिखे प्राइवेट स्कूल के प्राइमरी सेकेण्डरी शिक्षकों से पढ़ी हुई ये पीढ़ी कितनी इंगलिश जान सकती है भला?
छोटे क़स्बे ही नहीं बल्कि अच्छे ख़ासे शहरों के प्राइमरी और मिडिल स्कूलों के शिक्षकों से बात करके देखियेगा। उनके पास कुछ चुनिंदा शब्द होते हैं ‘कीप साइलेंस’ ‘डोंट टॉक’ ‘ओपन योर बुक’ ‘कम हियर’ ‘लिसन केयरफ़ुली’ ‘व्हाट आर यू डूइंग’ ‘व्हाई आर यू लाफि़ंग’ इस तरह के कुछ सिद्ध मंत्र होते हैं जिनके सहारे पहली से बारहवीं कक्षा तक की नैया पार लगती है। क्लास में पढऩे पढ़ाने की बात आते ही वे सीधे किताबें खोलकर ख़ुद पढऩे लगते हैं या दूसरों को रटाने लगते हैं। इंगलिश या हिन्दी में अपने विचार कैसे व्यक्त किए जायें? इस बात से उनका कोई वास्ता ही नहीं होता।
-राजीव सरदारीलाल
किसी भी देश को तरक्की पाने के लिए अन्य कारकों के अलावा वहां की उच्च शिक्षा का भी मजबूत होना एक महत्वपूर्ण कारक है ।अगर भारत को आगे तरक्की पाना है तो उच्च शिक्षा पर सर्वाधिक काम करने की जरूरत है।
उच्च शिक्षा की बेहतरी और उसे बढ़ावा देना तरक्की पाने का सबसे आसान, सस्ता एवं लंबे समय तक के लिए किए जाने वाला उपाय है जो देश के लिए सैकड़ो तरक्की के दरवाजे खोल देगा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण देश में कंप्यूटर आने के बाद देश के युवाओं का उल्लेखनीय प्रदर्शन है।
क्या देश इस ओर काम कर रहा है ? क्या सरकारें इस काम पर पर्याप्त ध्यान और खर्च कर रही हैं? आइये आंकड़ों से स्थिथि को समझते है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उच्च शिक्षा के नाम पर सबसे ज्यादा उल्लेख शिक्षा महाविद्यालयों का किया गया है। शिक्षा महाविद्यालयों की पूरे देश में क्या स्थिति है यह किसी से छुपी नहीं है। हाल के सालों में केंद्र सरकार की संस्था राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जो भारत में शिक्षा पाठ्यक्रमों को संचालित एवं मान्यता देती है, उसने दो साल के पाठ्यक्रम वाले बी।एड। एवं डी।एड। के नए महाविद्यालयों के आवेदन लेने भी बंद कर दिए हैं। नए महाविद्यालय अब सिर्फ चार साल पाठ्यक्रम के खुलेंगे और उसकी गति भी अत्यंत धीमी है।
राज्य सरकार द्वारा संचालित संस्थाएं तो इन चार साल वाले पाठ्यक्रम को खोल पाने के लिए योग्य भी नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा तय मानकों पर राज्य की बहुत सारी संस्थाएं अमानक पाई गई हैं। जाहिर है मांग को देखते हुए देश में शिक्षा महाविद्यालय निजी ही खुलेंगे। इसके अलावा तकनीकी शिक्षा और अन्य पाठ्यक्रमों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं का योगदान लगातार घटता जा रहा है। तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा में सरकारी संस्थाएं शिक्षा के परिदृश्य से गायब होती जा रही है। देश में अभी की स्थिति में सत्तर प्रतिशत उच्च शिक्षण संस्थाएं निजी है।
नामी संस्थाओं जैसे आई.आई. टी., आई.आई.एम., आई.आई.एस.सी. जैसी संस्थाएं बहुत अच्छी हैं लेकिन बहुत कम हैं। इतने बड़े देश में ऐसी उत्कृष्ट संस्थाओं की संख्या नगण्य है। हम भले ऐसे चुनिन्दा संस्थाओं पर छाती ठोंक लें लेकिन बड़ी आबादी के लिए सरकारी विश्वविद्यालय और कॉलेजों की बहुत कमी है ।
अमेरिका लंबे समय से भारत के हस्तकला उद्योग का बड़ा खरीदार रहा है, लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के नए टैरिफ दर लागू होने के बाद से इस उद्योग पर संकट मंडरा रहा है. ऐसे में ग्रामीण कश्मीर के कारीगर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
डॉयचे वैले पर रिफत फरीद का लिखा-
65 वर्षीय अख्तर मीर भारत प्रशासित कश्मीर के हवल में मिट्टी और ईंटों से बने एक पुराने तीन-मंजिला घर में अपने पेपर-मैशे कारीगरों का नेतृत्व करते हैं. कारीगर फर्श पर पालथी मारकर बैठे हैं और वह फूलों और पक्षियों के रंग-बिरंगे डिजाइनों से फूलदान, हाथी और सजावटी डिब्बियां बना रहे हैं. उनके हाथ पूरी तरह रंगों से सने हुए है. इन रंगों की महक वर्कशॉप में जगह-जगह फैली हुई है.
पिछली तीन पीढ़ियों से मीर का परिवार इस नफीस कला को सिखाता और इसके प्रति जुनून को आगे बढ़ाता रहा है. आज, यह वर्कशॉप ना सिर्फ मीर की पारिवारिक विरासत है, बल्कि दर्जनों स्थानीय कारीगरों के लिए उनके परिवार पालने का सहारा भी है.
हर साल मीर और उनकी टीम अमेरिका और यूरोप भेजे जाने वाले क्रिसमस के लिए खास पेपर मैशे उत्पाद तैयार करती है. डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन के भारत पर नए टैरिफ लगाए जाने के बाद इस बार त्योहारों का मौसम अलग हो सकता है.
मीर ने डीडब्ल्यू को बताया, "हम नए टैरिफ को लेकर चिंता में हैं. अभी तक हमें क्रिसमस के लिए ऑर्डर नहीं मिले हैं.” उन्होंने कहा, "अगर हमें ऑर्डर नहीं मिले तो मेरे कारीगरों की रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा.” हालांकि, चिंता की वजह सिर्फ ट्रंप के टैरिफ ही नहीं हैं. कश्मीरी कारीगर अपने बहुत से सामान सैलानियों को भी बेचते हैं. अप्रैल में पहलगाम हमले के बाद इस साल पर्यटकों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है.
‘अब यह काम हमें खुशी नहीं देता'
शानदार कश्मीरी कालीन बुनने वाले लोग भी इस बात से चिंतित हैं कि कहीं अमीर अमेरिकी खरीदारों के नाम होने से उनका व्यापार ना खत्म हो जाए. उत्तर कश्मीर के कुंजर गांव के कालीन बुनकर अब्दुल मजीद ने कहा, "अब यह काम हमें खुशी नहीं देता, इसमें बस तनाव और अनिश्चितता है.”
अमेरिकी टैरिफ के आगे नहीं झुकेगा भारत
कई सालों से अमेरिका में कपड़े, कालीन और हस्तशिल्प की मांग ने कश्मीर के हस्तशिल्प उद्योग को काफी मजबूती दी है. रूस के तेल को लेकर वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच हुए विवाद के चलते अमेरिका ने भारत से आने वाले कई सामानों पर50 फीसदी तक टैरिफ लगा दिया है.
इसके बाद विदेशी खरीदार, जो पहले से ही कश्मीरी हस्तशिल्प के लिए ऊंची कीमतें चुका रहे थे. उनके लिए अब नए टैरिफ लगने के बाद दाम और भी बढ़ गए हैं, जिससे मांग कम होने की आशंका है. इसकी वजह से हजारों कारीगरों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ सकती है.
हस्तशिल्प में इटली बन सकता है भारत का प्रतिद्वंद्वी
कश्मीर चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (केसीसीआई) ने अमेरिकी टैरिफ को हस्तशिल्प क्षेत्र के लिए "विनाशकारी” करार दिया है.
केसीसीआई के अध्यक्ष जावेद अहमद टेंगा ने कहा, "हम मानते हैं कि सरकार इस पर काम कर रही है और निर्यातकों को प्रोत्साहन देकर व्यापार को काफी हद तक संतुलित कर सकती है.”
कश्मीर के हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि कश्मीर से सामान खरीदने के बजाय अमेरिकी ग्राहक इटली जैसे देशों का रुख कर सकते हैं, जहां अमेरिकी टैरिफ केवल 15 फीसदी तक ही सीमित है.
अधिकारी ने कहा, "इसका मतलब साफ है कि कश्मीर का हस्तशिल्प बाजार से बाहर धकेला जा रहा है. कई अमेरिकी ग्राहकों ने पहले ही अपने ऑर्डर रोक दिए हैं, जिससे हमारे करघे और कारीगरों को काम में लगाना मुश्किल हो रहा है. इसका नतीजा बेरोजगारी हो सकता है.”
अमेरिकी टैरिफ के बावजूद भारत खरीद रहा है रूस से सस्ता तेल
लगभग चार लाख कारीगरों के नाम राज्य सरकार के पास दर्ज हैं. एक अधिकारी ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर बताया, अगर उनके काम में कोई बड़ी बाधा आती है तो यह ना केवल रोजगार का नुकसान होगा, बल्कि इससे पारंपरिक कौशल भी खत्म हो सकता है.
अधिकारी ने कहा, "जब कोई कारीगर किसी और पेशे की ओर चला जाता है, तो हम ना सिर्फ मौजूदा कामगारों को खो देते हैं बल्कि भविष्य में इतनी उच्च-गुणवत्ता वाले सामान बनाने की क्षमता को भी गंवा बैठते हैं.”
अमेरिकी खरीदारों की पहुंच से बाहर हुए लग्जरी सामान
भारत और अमेरिका के बीच टैरिफ के तनाव से पहले, निर्यात किए जाने वाले सामान पर सिर्फ 8 से 12 फीसदी आयात शुल्क लगता था. उस समय अमेरिकी खरीदार हर साल करीब 1.2 अरब डॉलर खर्च कर भारत के लगभग 60 फीसदी हस्तशिल्प उत्पाद खरीदते थे.
कश्मीरी हस्तशिल्प निर्यातक, मुजतबा कादरी ने बताया कि ट्रंप के टैरिफ ने इस क्षेत्र के हस्तशिल्प उद्योग को गहरी चोट पहुंचाई है. कादरी के अनुसार, लग्जरी सामान बढ़ती कीमतों से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि खरीदार ऐसे सामान की खरीद को टाल देते हैं या कई बार तो बिल्कुल छोड़ ही देते हैं.
उन्होंने कहा, "50 फीसदी टैरिफ बढ़ने के बाद कश्मीर से अमेरिका जाने वाला हर सामान जैसे कि शॉल, कालीन, पेपर मैशे, लग्जरी और गैर-जरूरी श्रेणी में आ गया है.” मी एंड के नाम की कश्मीरी ऊन की बुनाई और निर्यात करने वाली कंपनी चलाने वाले कादरी ने बताया, "हमारी कंपनी के 80 फीसदी निर्यात अमेरिका जाते हैं. इसलिए इसका असर बहुत बड़ा होगा. जैसे एक शॉल जिसकी कीमत पहले 300 डॉलर थी. वह अब 450 डॉलर में बिकेगी. जो कि एक बड़ा उछाल है. जिसका नतीजा यह हो सकता है कि ज्यादातर लोग अपने ऑर्डर रद्द कर देंगे.”
कारोबार पर अनिश्चितता का साया
विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि नए टैरिफ के कारण भारत का निर्यात आधा हो सकता है. जिससे लगभग पांच से सात लाख कारीगरों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं. कश्मीर की राजधानी, श्रीनगर के बाहरी इलाके जोनिमर में रहने वाली शॉल बुनकर अफरोजा जान भी इस दबाव को महसूस कर रही हैं.
अपने घर के करघे पर दिनभर काम करने वाली 39 वर्षीय अफरोजा ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह बहुत मेहनत और मशक्कत का काम है. काम करते-करते मेरी आंखों में दर्द होता है, पीठ में भी तकलीफ होती है. लेकिन यह हमारा एकमात्र रोजगार है.”उन्होंने बताया , "हमारे डीलर ने भी कुछ ऑर्डर रद्द कर दिए हैं, यह कहकर कि बाजार में अनिश्चितता है.”
अफरोजा के पति और देवरानी भी लग्जरी शॉल बुनते हैं, जिन्हें बनाने में महीनों से लेकर सालों का समय भी लग जाता है. बड़े ऑर्डरों को पूरा करने के लिए उनके परिवार के दस से ज्यादा लोग मिलकर काम करते हैं. उन्होंने कहा, "अगर हम अपना काम खो देंगे तो इससे पूरा परिवार प्रभावित होगा.”
-अशोक पांडेय
हफ़्ते-दस दिन से पहाड़ों की सडकों पर यात्रा कर रहा हूँ। बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा, कम से कम दो-ढाई सौ जगहों पर पहाड़ों से मलबा टूट कर गिरा-बिखरा देखा।
चार जगह राजमार्ग बंद मिले, वापस लौट कर संकरे-अधपक्के-कच्चे रास्तों का सहारा लेना पड़ा - पहाड़ी गाँवों की जीवनरेखा माने जाने वाले इन रास्तों की दुर्दशा देखी।
अल्मोड़ा से हल्द्वानी जाने वाला रास्ता पिछले दो बरसों से स्थानीय अखबारों की सुखिऱ्यों में है - हर हफ्ते उस पर इतना मलबा आ जाता है कि यातायात बंद करना पड़ता है। बहुत दिक्कत होती है। बरसातों में यह दिक्कत आपदा की सूरत ले लेती है जब अमूमन दो-ढाई घंटे का हल्द्वानी-अल्मोड़ा का सफऱ छ: से दस घंटे तक ले लेता है। शुक्र मनाइए हमारे देश में लोगों के पास खूब समय है वरना पता नहीं जीवन कैसे चलता।
जनता को कम असुविधा हो इसके लिए सरकार ने जगह-जगह जेसीबी और पोकलैंड नाम के दैत्य तैनात किये हुए हैं – मलबा आते ही वे खडख़ड़ाते हुए मौक़े पर पहुँचते हैं और सौ मनुष्यों का काम अकेले करते हुए बड़ी-बड़ी चट्टानों को रास्ते से चुटकियों में हटा कर ट्रैफिक को सुचारु बना देते हैं। अवाक जनता हाथ बांधे उनके इस कारनामे को देखती रहती है – विज्ञान की तरक्की पर मुग्ध होती रहती है। एक जगह का मलबा हटता है तो दो जगह और आ जाता है। इन दैत्यों के लिए रोजगार ही रोजगार है!
यात्रा के दौरान मुझे ऐसी सैकड़ों मशीनें काम करती नजऱ आईं। जब बरसात नहीं होती, मौसम ठीक रहता है तो इन मशीनों को पहाड़ काटने, चट्टानों को भेदने और जवान पेड़ों को नेस्तनाबूद करने के काम में लगा दिया जाता है। सडकों पर पर्याप्त मलबा बिखेर देने के बाद इन मशीनों ने उसे निकटतम नदी-धारे के हवाले कर देना होता है – सारी सडक़ें इतनी चौड़ी की जानी हैं कि उन पर से एक साथ दो-दो टैंक गुजऱ सकें। आज के नीति-निर्धारकों ने पहाड़ों की उन्नति की यही परिभाषा गढ़ दी है।
जिन जगहों पर अब भी पुरानी सडक़ें बची रह गई हैं, उनके किनारों पर काटे गए पहाड़ों की सतह पर मजदूरों के सब्बल-गैंतियों के बनाए मानवीय निशान देखे जा सकते हैं। सडक़ के उन हिस्सों के आसपास मलबा नहीं के बराबर दीखता है। पचास मजदूर जितना पहाड़ एक हफ्ते में काटते थे, एक जेसीबी उतना पहाड़ आधे घंटे में काट देती है। सब्बल-गैंतियों की चोटों से उतना ही पहाड़ टूटता था जितनी ज़रूरत होती थी। इसके बरअक्स जेसीबी का लौह-पंजा जिस बेरहमी से पहाड़ की सतह को उधेड़ता है या पोकलैंड जिस क्रूरता के साथ साबुत चट्टान को तोड़ती है उसका असर कई मीटर आगे तक की चट्टानों पर पड़ता है।
परतदार चट्टानों से बना यह निचला हिमालयी इलाका है जिसमें कुमाऊँ-गढ़वाल की तमाम बस्तियां बसी हैं। एक चट्टान के कांपने का असर कितने किलोमीटर दूर तक जाता होगा, भूवैज्ञानिक बेहतर बता सकेंगे।
साल 2009 में समलैंगिक रिश्तों को अपराध बनाने वाले क़ानून को असंवैधानिक ठहराने का फ़ैसला हो या साल 2020 में दिल्ली दंगों के दौरान पुलिस से कड़ी पूछताछ का मामला, डॉ. जस्टिस एस. मुरलीधर अपने कई फ़ैसलों से सुर्ख़ियों में रहे हैं.
वे अगस्त 2023 में ओडिशा हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के पद से रिटायर हुए. पिछले महीने उनकी संपादित एक किताब आई है- '(इन) कम्पलीट जस्टिस? सुप्रीम कोर्ट एट 75.' इसमें अलग-अलग पहलुओं पर क़ानून के कई जानकारों के लेख शामिल हैं.
जस्टिस मुरलीधर ने बीबीसी हिंदी से ख़ास बातचीत में इस किताब और न्यायपालिका से जुड़े कई मुद्दों के बारे में बात की.
बातचीत में न्यायपालिका की आज़ादी, जजों की भारत के गाँव की ज़िंदगी के बारे में समझ और जजों की नियुक्ति में सरकार की दख़लंदाज़ी जैसे मुद्दे प्रमुखता से आए.
'अधूरा न्याय'
हमने जस्टिस एस. मुरलीधर से जानना चाहा कि इस किताब के शीर्षक से ऐसा लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट से अधूरा न्याय मिला है. क्या ऐसा है?
उनका कहना था कि यह एक सवाल है जिसे इस किताब के 24 लेखों में विशेषज्ञ क़रीब से देखते हैं. उनका मानना था कि कोर्ट में हर प्रकार के मामले हैं. ऐसे मामले जिनमें पूरी तरह से न्याय मिला और ऐसे भी मामला जहाँ पूरा न्याय नहीं मिला.
उन्होंने बताया कि इस किताब में ऐसे बहुत सारे केस का विश्लेषण है जिसमें पूरी तरह इंसाफ़ नहीं मिला. वे जोड़ते हैं, "लेकिन जिन मामलों में पूरी तरह इंसाफ़ नहीं मिला, वे बहुत महत्वपूर्ण केस थे."
उन्होंने इसमें साल 1984 की भोपाल गैस त्रासदी, साल 1984 में सिखों के ख़िलाफ़ दंगों का उदाहरण दिया. उनके मुताबिक, "इन मामलों में निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि न्याय नहीं हुआ."
यही नहीं, जस्टिस मुरलीधर के मुताबिक कुछ मामले ऐसे भी थे जिनमें कोर्ट ने बहुत देरी से फ़ैसले दिए. वे इस सिलसिले में नोटबंदी (डिमॉनेटाइजेशन) और चुनावी बांड से जुड़े केस का उदाहरण देते हैं.
हालाँकि, उनके मुताबिक कई मामले ऐसे भी थे जिनमें सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों से लोगों के हक़ का दायरा बढ़ा. वे बताते हैं, "जैसे, साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए गाइडलाइन बनाई थी. उस वक़्त संसद ने कोई क़ानून नहीं बनाया था."
उन्होंने कहा कि शिक्षा के अधिकार के लिए भी सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से ही पहला क़दम उठाया गया था. उनके मुताबिक इसमें लोगों को मुफ़्त अनाज देने और पर्यावरण से जुड़े मामले भी शामिल हैं.
बाबरी मस्जिद- रामजन्मभूमि केस
किताब के परिचय में जस्टिस मुरलीधर ने अयोध्या के बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि केस के साल 2019 में आए फ़ैसले का भी ज़िक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन हिंदू पक्ष को देने का फ़ैसला बिना किसी क़ानूनी आधार के था.
जब हमने पूछा कि उनकी यह राय क्यों है तो उन्होंने कहा, "यह तो फ़ैसले में ही साफ़ लिखा है कि उन्होंने आस्था को भी मान्यता दी."
अगर वे जज होते तो इस मामले को कैसे तय करते? इस सवाल पर उनकी राय थी कि इस केस में मध्यस्थता पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए था.
गाँव के लोगों की ज़िंदगी और सुप्रीम कोर्ट के जज
किताब में एक लेख वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ का भी है.
उन्होंने इसमें एक सवाल उठाया है, "क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों में भारत के गाँवों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी की समझ है?" अपने लेख में उन्होंने कुछ केस का हवाला भी दिया है. इससे उन्हें लगता है कि जजों में गाँव में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी की समझ की कमी थी.
जस्टिस मुरलीधर का कहना है कि वे पी. साईनाथ की टिप्पणी से सहमत हैं. उन्होंने कहा, "बहुत सारे जज ऐसे हैं जो कभी भी गाँव में नहीं रहे हैं. इसमें मैं भी शामिल हूँ."
उन्होंने कहा कि ज़्यादातर जज मिडिल क्लास या उसके ऊपर की श्रेणी से आते हैं. कई हाई कोर्ट में तो बतौर जज नियुक्त होने के लिए सालाना आमदनी भी देखी जाती है.
उनका मानना था, "ऐसे में वकीलों की भी ज़िम्मेदारी होती है कि वे गाँव में रहने वाले लोगों का अनुभव भी अदालत के सामने लाएँ." इसके साथ ही जजों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे समझें कि भारत में लोग किन हालात में रहते हैं.
जस्टिस मुरलीधर ने कहा, "मेरी आशा हमेशा यह रहती है कि चीज़ें बेहतर होंगी."
जज किन पृष्ठभूमि से आ रहे हैं
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बहुत कम महिला और पिछड़े वर्ग के जज नियुक्त होते हैं. हमने जस्टिस मुरलीधर से पूछा, ऐसा क्यों? क्या अलग-अलग पृष्ठभूमि से जज नियुक्त होंगे तो फ़ैसले बेहतर नहीं आएँगे?
उनका कहना था, "हाँ, यह तो सही है कि रिप्रेजेंटेशन नहीं है. महिलाओं, पिछड़े वर्ग के लोगों, दलितों का न्यायपालिका में रिप्रजेंटेशन कम है. लेकिन ऐसे में 'टोकेनिज़्म' भी नहीं होना चाहिए." 'टोकेनिज़्म' यानी सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर इन वर्गों से जज नियुक्त किए जाएँ.
वह कहते हैं, "हमने कई ऐसे मामले देखे हैं जिसमें महिला जज भी महिलाओं के मुद्दों के प्रति संवेदनशील नहीं रहती हैं. रिप्रजेंटेशन ज़रूरी है लेकिन भारत के हर जज को संविधान में दिए गए सिद्धांतों को आत्मसात करना चाहिए."
'कॉलेजियम सिस्टम' पर उठने वाले सवाल
कॉलेजियम सिस्टम' जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया है. इसे सुप्रीम कोर्ट ने बनाया था. इस सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों को नियुक्त करने के लिए सरकार के पास नाम भेजते हैं.
हाल ही में, भारत के चीफ़ जस्टिस बीआर गवई के भतीजे और उनके चैम्बर के जूनियर वकील का नाम भी हाई कोर्ट में नियुक्ति के लिए भेजा गया है. इसकी आलोचना भी की गई.
हमने उनसे यह भी जानना चाहा कि 'कॉलेजियम' पर सरकार का कितना दबाव रहता है?
इन सब मुद्दों पर जस्टिस मुरलीधर की राय है, "यह धारणाओं की भी बात होती है. अगर मैं चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हूँ तो मैं अपने कार्यकाल में इन नामों का भेजना टाल सकता हूँ."
'कॉलेजियम सिस्टम' की एक और आलोचना है कि ये प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है. जस्टिस मुरलीधर का मानना है कि 'कॉलेजियम सिस्टम' में ज़्यादा पारदर्शिता लाने की ज़रूरत है.
साथ ही वे कहते हैं, "...और ऐसा नहीं है कि जज ही जज को नियुक्त करते हैं. इसमें केंद्र सरकार और (हाई कोर्ट के नामों के लिए) राज्य सरकार की भी भूमिका होती है."
-अशोक पांडेय
राजेश खन्ना की लोकप्रियता के किस्से सुनते बचपन कटा। बताते थे जब वह ‘कटी पतंग’ में लाल स्कार्फ पहनकर पियानो के सामने बैठा ‘प्यार दीवाना होता है’ गाता था तो लड़कियां बेहोश हो जाती थीं। ‘कटी पतंग’ लगी होती तो पिक्चर हॉल के सामने कम से कम दो एम्बुलेंस खड़ी रखे जाने का सरकारी ऑर्डर था। बाज हॉल अपने यहां ग्लूकोज चढ़ाने की व्यवस्था भी रखते थे।
किस्सा यह था कि जब वह एक दफा पीलीभीत आया तो सात लड़कियों ने सिर्फ इस बात पर जहर खा लिया था कि उन्हें उसके प्रोग्राम में जाने की इजाजत नहीं मिली। उसकी वह फोटो ब्लैक में बिका करती थी जिसमें वह दांतों में लाल गुलाब दबाए था। लड़कियाँ उस फोटो को सिरहाने रखकर सपना देखने का सपना देखती थीं।
कस्बाई लड़कियों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले राजेश खन्ना के साथ देव आनंद के साथ भी जोड़े जाते थे। इसका असर यह हुआ कि अकेला होने पर मैं टेढ़ी चाल चलता ‘गाता रहे मेरा दिल’ किया करता।
जवानी फूटने की शुरुआत हुई तो पता नहीं कहाँ से जीतेन्दर नाम के महात्मा ने जीवन में घुसपैठ कर डाली।
तीस इंची मोहरी वाली सफेद बैलबॉटम के उस युग में इस पुण्यात्मा ने अस्सी के दशक के कई सालों तक देश भर के दर्जियों को कलाकारों में तब्दील करने का बीड़ा उठा लिया था।
कमीज सिलाने के लिए सिर्फ दो मीटर गबरडीन-पोलिएस्टर भर से काम नहीं चलता था। पीली जेब, नीली पट्टी और लाल कॉलर के लिए अलग से कटपीस ले जाने होते थे। किस कमीज में किस जगह कितनी चेनें लगेंगी इस हिदायत को दर्ज करने के लिए दर्जियों ने अलग से नोटबुकें बनाना शुरू किया।
जीतेन्दर के कहने पर ही सरकार ने जूतों के लिए अलग से ब्लूप्रिंट जारी किया।
तीखी नोक वाले सफेद जूतों के सामने पीतल की पट्टी, टखनों तक की चेन और तलुवों में कम से कम सात हॉर्स-शू कीलें लगाना अनिवार्य था ताकि पहनने वाला न सिर्फ गधे का बच्चा दिखाई दे उसकी पदचाप भी उसके वैसा होने की उद्घोषणा करे- खट-टक-खट-टक।
कहाँ तो सोचा था जवानी आते ही लड़कियों को अपनी मोहब्बत के लिए तरसा-तरसाकर आत्महत्या के लिए मजबूर कर दूंगा कहाँ जूते-कमीज के भूसा डिजायनों के अनुसंधान में आधी जवानी लपक गई।
-नीलम पांडेय
राजस्थान का अनैतिक धर्मांतरण निषेध विधेयक, 2025 में सख्त प्रावधान और कड़ी सजाएं शामिल हैं। इसमें जबरन और धोखाधड़ी से किए गए धर्मांतरण पर आजीवन कारावास और बुलडोजर कार्रवाई जैसे कदम रखे गए हैं।
मंगलवार को राजस्थान विधानसभा में पारित इस विधेयक में कहा गया है कि पूर्वजों के धर्म में वापसी को धर्मांतरण की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है।
इसमें कहा गया है, ‘यदि कोई व्यक्ति मूल धर्म यानी पूर्वजों के धर्म में लौटता है, तो इसे इस अधिनियम के तहत धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। स्पष्टीकरण।- इस उपधारा के उद्देश्य से मूल धर्म यानी पूर्वजों का धर्म वह है, जिसमें उस व्यक्ति के पूर्वजों का विश्वास था, या वे स्वेच्छा और स्वतंत्र रूप से उसका पालन करते थे।’
विधेयक में लिखा है कि केवल ‘अनैतिक धर्मांतरण या इसके विपरीत’ के लिए की गई शादी को शून्य और अमान्य घोषित किया जाएगा। इसमें यह भी जोड़ा गया कि सबूत का भार आरोपी पर होगा।
‘धार्मिक धर्मांतरण गलत पहचान, गलत जानकारी, दबाव, डर, अनुचित प्रभाव, प्रचार, उकसावे, लालच, ऑनलाइन माध्यम या धोखाधड़ी, विवाह या विवाह के बहाने से नहीं किया गया है, यह साबित करने की जिम्मेदारी उसी व्यक्ति पर होगी जिसने धर्मांतरण कराया है या उसके मददगार पर होगी,’ इसमें कहा गया है।
विधेयक डिजिटल माध्यम से किए जाने वाले धर्मांतरण के प्रयासों का भी जिक्र करता है। इसमें कहा गया है, ‘एक धर्म से दूसरे धर्म में गलत पहचान, गलत जानकारी, दबाव, डर, अनुचित प्रभाव, लालच, ऑनलाइन माध्यम या धोखाधड़ी, विवाह या विवाह के बहाने से किए गए अनैतिक धर्मांतरण पर रोक लगाने और उससे जुड़े मामलों के लिए यह प्रावधान है।’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके सहयोगी संगठन, जिनमें विश्व हिंदू परिषद (ङ्क॥क्क) शामिल है, राजस्थान में धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ के मामलों को लगातार उठाते रहे हैं। जुलाई में, वीएचपी के केंद्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार ने मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा से मुलाकात कर ‘धर्मांतरण विरोधी कानून’ की मांग की थी।
विधेयक के पारित होने के साथ, राजस्थान अब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात जैसे राज्यों की सूची में शामिल हो गया है, जहां पहले से ही धर्मांतरण विरोधी कानून लागू हैं। विपक्षी कांग्रेस इस विधेयक की आलोचना करती रही है और उसने राजस्थान विधानसभा में बहस में भाग नहीं लिया।
नया विधेयक पिछले विधेयक की तुलना में ज्यादा सख्त सजाएं देता है। पिछला विधेयक पिछले सत्र में पेश किया गया था लेकिन इस साल की शुरुआत में वापस ले लिया गया था।
उदाहरण के तौर पर, पूर्वजों के धर्म में वापसी को पिछले विधेयक का हिस्सा नहीं बनाया गया था। साथ ही, मंगलवार को पारित विधेयक में यह प्रावधान किया गया है कि धर्मांतरण से जुड़ी कोई भी जानकारी या शिकायत अब ‘कोई भी व्यक्ति’ दर्ज करा सकता है। पहले यह केवल पीडि़त व्यक्ति या उसके रिश्तेदार ही कर सकते थे।
इसी तरह, अगर कोई व्यक्ति किसी विदेशी या गैर-कानूनी संस्था से अनैतिक धर्मांतरण से जुड़े मामले में पैसे लेता है, तो उसे 10 साल से कम नहीं और 20 साल तक की कठोर सजा दी जा सकती है और 20 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
‘राजस्थान विधानसभा ने आज राज्य में धर्मांतरण की घटनाओं को खत्म करने के लिए एक सख्त कानून देने का काम किया है,’ गृह राज्य मंत्री जवाहर सिंह बेधम ने मीडिया से कहा।
कड़ी सजाएं
जबरन धर्मांतरण के लिए सजा और कड़ी की गई है, जिसमें कुछ मामलों में आजीवन कारावास भी शामिल है। विधेयक के अनुसार, धर्मांतरण में शामिल संस्थानों की इमारतों पर बुलडोजर कार्रवाई की जा सकती है। हालांकि, यह केवल उन संपत्तियों पर लागू होगा, जो सामूहिक धर्मांतरण के लिए इस्तेमाल की गई हों या अतिक्रमण में दोषी पाई जाएं।
-ध्रुव गुप्त
हजारों सालों से ईश्वर की हमारी तलाश चल रही है। एक ऐसा ईश्वर जिसे किसी ने नहीं देखा। लेकिन माना जाता है कि यह ब्रह्मांड उसी की रचना है और हम सबके जीवन, मृत्यु और भाग्य पर उसका नियंत्रण है। धर्म और अध्यात्म दृष्टि में संसार का अतिक्रमण ही उसे पाने का रास्ता है। यह संसार मिथ्या है, अंधकार है जिसमें जाने कितनी योनियों से हम भटक रहे हैं। इस मिथ्या संसार में आवागमन से मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण ही जीवन का लक्ष्य है। यह जीवन के अस्वीकार का दर्शन है। इस संसार का अतिक्रमण कर यदि आप किसी मोक्ष या ईश्वर की तलाश में हैं तो यह आत्मरति के सिवा कुछ नहीं। तमाम मोह, इच्छाओं और गति से परे यदि कोई मोक्ष है तो वह शून्य की ही स्थिति हो सकती है। ऐसा शून्य जीवन की ऊर्जा के नष्ट होने से ही संभव है। ऊर्जा चाहे जीवन की हो या पदार्थ की, कभी नष्ट होती नहीं। उसका रूपांतरण होता चलता है। ईश्वर कहे जाने वाले विराट ब्रह्मांडीय ऊर्जा के हम अंश हैं। बहुत छोटी- छोटी ऊर्जाएं जो रूप बदल-बदलकर इसी प्रकृति में ही बनी रहेंगी। अगला कोई जीवन इस रूप में शायद न मिले लेकिन किसी न किसी रूप में हमें यहीं मिलेगा।


