विचार/लेख
-शेरिलान मोलान
भारतीय लेखिका, वकील और कार्यकर्ता बानू मुश्ताक़ ने लघु कथा संकलन, ‘हार्ट लैंप’ के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया है।
कन्नड़ भाषा में लिखी गई यह पहली किताब है जिसे यह प्रतिष्ठित पुरस्कार हासिल हुआ है।
‘हार्ट लैंप’ की कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद दीपा भास्ती ने किया है।
1990 से 2023 के बीच मुश्ताक की लिखी 12 लघु कथाओं वाली किताब ‘हार्ट’ लैंप में, दक्षिण भारत में मुस्लिम महिलाओं की मुश्किलों का बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है।
मुश्ताक़ को मिला पुरस्कार बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिफऱ् उनके काम को ही रेखांकित नहीं करता बल्कि भारत की संपन्न क्षेत्रीय साहित्यिक परंपरा को भी दर्शाता है।
इससे पहले साल 2022 में गीतांजलि श्री की पुस्तक ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’ को ये पुरस्कार मिला था। ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’ का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद डेजी रॉकवेल ने किया था।
पुस्तक प्रेमियों के बीच बानू मुश्ताक़ की लेखनी चिर-परिचित है, लेकिन इंटरनेशनल बुकर अवार्ड ने उनकी जि़ंदगी और साहित्य को दुनिया के सामने पेश किया है।
उनका साहित्य महिलाओं के सामने आने वाली उन चुनौतियों की झलक देता है जो धार्मिक संकीर्णता और पितृसत्तात्मक समाज से पैदा हुई हैं।
यह उनकी अपनी जागरूकता ही है जिसने शायद मुश्ताक़ को बारीक चरित्र और कथानक गढऩे में मदद की।
इस किताब के बारे में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे रिव्यू में लिखा गया है, ‘जहां साहित्य में अक्सर बड़े कथानक को पुरस्कृत किया जाता है, वहीं हार्ट लैंप हाशिए पर जि़ंदगियों के बारे में है। ये किताब टिकी है अनदेखे विकल्पों के बारे में बारीक़ नजऱ पर। और यही उसकी ताक़त है। यही बानू मुश्ताक़ की ख़ामोश ताक़त है।’
मुश्ताक़ कर्नाटक के एक छोटे से कस्बे में मुस्लिम इलाके में पली-बढ़ीं और अपने आसपास की अधिकांश लड़कियों की तरह उन्होंने भी स्कूल में उर्दू भाषा में क़ुरान का अध्ययन किया।
लेकिन सरकारी कर्मचारी रहे उनके पिता चाहते थे कि बानू मुश्ताक़ आम स्कूल में पढ़ें।
जब वह आठ साल की थीं, तब उनके पिता ने उनका दाख़िला एक कॉन्वेंट स्कूल में करवाया जहां कन्नड़ भाषा में पढ़ाई होती थी।
शादी के बाद का जीवन
मुश्ताक़ ने कन्नड़ भाषा में माहिर होने के लिए कड़ी मेहनत की। बाद में यही भाषा उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा बन गई।
स्कूल के समय से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया। जब उनकी सहेलियां शादी करने लगीं तो बानू मुश्ताक़ ने कॉलेज जाने का विकल्प चुना।
मुश्ताक़ का लेखन छपने में सालों लगे और यह तब हुआ जब वह ख़ास तौर पर अपनी जि़ंदगी के सबसे चुनौतीपूर्ण पलों से गुजर रही थीं।
26 साल की उम्र में अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी के एक साल बाद उनकी लघु कथा एक स्थानीय मैग्ज़ीन में छपी, लेकिन उनका शुरुआती विवाहित जीवन संघर्षों और कलह वाला रहा। इस बारे में उन्होंने कई बार खुलकर बात की है।
वोग मैग्जीन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं हमेशा से लिखना चाहती थी लेकिन कुछ लिखने को नहीं था। फिर लव मैरिज के बाद अचानक मुझे बुरक़ा पहनने को कहा गया और पूरी जिंदगी घरेलू काम में लगाने को कहा गया। 29 साल की उम्र में मैं पोस्टपार्टम डिप्रेशन से पीडि़त मां बन गई।’
‘द वीक’ मैग्ज़ीन को दिए एक अन्य इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि किस तरह उनकी जि़ंदगी घर के अंदर बंध कर रह गई थी।
हालात से विद्रोह
इसके बाद, एक चौंकाने वाले विद्रोह ने बानू मुश्ताक़ को मुक्त कर दिया।
उन्होंने पत्रिका को बताया, ‘एक बार बहुत निराशा के पलों में मैंने खुद को आग लगाने के लिए अपने ऊपर पेट्रोल छिडक़ लिया था। शुक्र है कि मेरे पति समय रहते भांप गए। उन्होंने मुझे गले लगाया और माचिस दूर फेंक दी। फिर मेरे पांव में बच्चे को रख कर मिन्नत की कि हमें मत छोड़ो।’
हार्ट लैंप में उनकी महिला किरदार प्रतिरोध और विद्रोह के इसी जज़्बे को प्रतिबिंबित करती हैं।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ अख़बार में छपे एक रिव्यू के अनुसार, ‘मुख्य धारा के भारतीय साहित्य में, मुस्लिम महिलाओं को अक्सर एक जैसे सपाट रूपकों में ढाल दिया जाता है। मुश्ताक़ ने इसे खारिज किया। उनके किरदार मेहनती हैं, मोलभाव करते हैं और कभी कभी विरोध भी दर्ज करते हैं। ये विरोध वैसा नहीं है जिससे सुर्खियां बनें बल्कि ऐसा है जिससे उनकी जिंदगी में फर्क पड़े।’
-अशोक पांडे
दुनिया भर की फ़ौजों का एक अलिखित नैतिक कोड है-ड्यूटी पर खड़े सिपाही को अगर मौत या समर्पण में से किसी एक को चुनना हो तो उसने मौत को तरजीह देनी चाहिए। जब तक देह में जान हो उसने दुश्मन से लडऩा नहीं छोडऩा है।
जापान के लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा की कहानी इस फौजी कोड पर डटे रहने की अविश्वसनीय मिसाल है।
दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। तेईस साल के हीरू को फ़ौज में भरती हुए तीन बरस हो चुके थे। बचपन में तलवारबाजी के गुर सीख चुके पांच फुट चार इंच लम्बे इस सिपाही को गुप्तचर गतिविधियों की ट्रेनिंग मिली थी। दिसंबर 1944 के शुरू में उसे आदेश मिला कि उसकी ड्यूटी फिलिपीन्स की राजधानी मनीला के नज़दीक लुबांग नाम के द्वीप में लगाई गयी है जहाँ उसका काम था अमेरिकी जहाज़ों को न उतरने देने के लिए हरसंभव प्रयास करना। कुछ ही दिनों में वह लुबांग में था।
28 फरवरी 1945 को अमेरिकी फौजों ने जब इस द्वीप पर हवाई आक्रमण किया, तमाम जापानी सैनिक या तो मारे गए या वहां से भागने की जुगत में लग गए। उधर जंगल में छिपे लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा को उसके अधिकारी मेजर योशिमी तानीगुची का लिखित आदेश मिला- ‘जहाँ हो वहां खड़े रहकर लड़ते रहो। हो सकता है इस युद्ध में तीन साल लग जाएँ। या हो सकता है पांच साल लग जाएँ। कुछ भी हो जाय हम तुम्हें वापस ले जाने ज़रूर आएँगे।’
मेजर का यह वादा हीरू ओनोदा के लिए जीवनदायी औषधि साबित हुआ और उसने अपने तीन साथियों के साथ जंगल में अपनी ड्यूटी निभाना जारी रखा।
उधर हिरोशिमा-नागासाकी घटने के बाद सितम्बर 1945 में जापान ने अमेरिका के सामने हथियार डाल दिए। इस के बाद हज़ारों जापानी सैनिक चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी पैसिफिक जैसे इलाकों में बिखर गए। इनमें से कईयों को गिरफ्तार कर वापस देश भेजा गया। सैकड़ों ने आत्महत्या कर ली, कई सारे बीमारी और भूख से मारे गए। जापान के हार जाने की खबरें लगातार रेडियो पर प्रसारित की जाती रहीं और इस आशय के पर्चे हवाई जहाजों से गिराए जाते रहे।
लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा और उसके तीन साथियों को भी ऐसे पर्चे मिले लेकिन उन्होंने उन पर लिखे शब्दों पर यकीन नहीं किया। उन्होंने सोचा कि यह दुश्मन के गलत प्रचार का हिस्सा था।
चारों सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त गुरिल्ले थे और कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीना जानते थे।जंगल में करीब दस माह रहने के बाद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि लड़ाई लम्बी चलने वाली है। उन्होंने अपने तम्बुओं की बगल में बांस की झोपडिय़ां बनाईं और पेट भरने के लिए आसपास के गाँवों से चावल और मांस की चोरी करना शुरू किया। जंगल में बेतहाशा गर्मी पड़ती थी और मच्छरों और चूहों के कारण रहना बहुत मुश्किल होता था।
धीरे-धीरे उनकी वर्दियां फटने लगीं। उन्होंने तार के टुकड़ों को सीधा कर सुईयां बनाईं और पौधों के रेशों से धागों का काम लिया। तम्बुओं के टुकड़े फाडक़र वर्दियों की तब तक मरम्मत की जब तक कि वे तार-तार नहीं हो गईं। कभी-कभी कोई अभागा ग्रामीण उनकी चौकी की तरफ आ निकलता तो उनकी गोलियों का शिकार बन जाता। फिलीपीनी सेना की टुकडिय़ां भी गश्त करती रहती थीं। उन्हें चकमा देना भी बड़ी मुश्किल का काम होता था।
पांच साल बीतने पर बुरी तरह आजिज़ आ गए हीरू ओनोदा के एक साथी सैनिक ने फिलीपीनी सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। यह बेहद निराशा पैदा करने वाली घटना थी लेकिन बचे हुए सैनिकों ने हिम्मत नहीं खोई और किसी तरह जीवित रहे। चार साल और बीते जब विद्रोहियों की तलाश में निकली स्थानीय पुलिस के हाथों उनमें से एक की मौत हो गई।
1954 से लेकर 1972 तक लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा और उसका साथी किनशीची कोजूका ने अगले अठारह साल साथ बिताये। इस बीच 1959 में जापानी सेना ने दोनों को आधिकारिक रूप से मृत घोषित कर दिया था। 1972 में कोजूका भी पुलिस के हाथों मारा गया।
जंगलों में छिपा हीरू ओनोदा उस समय तक पचास साल का हो चुका था। इन पचास में से सत्ताईस साल उसने ड्यूटी पर रहते हुए काटे थे। उसने अभी दो साल और इसी तरह काटने थे।
1970 के दशक में टोक्यो यूनिवर्सिटी में शोध कर रहे नोरियो सुजुकी नाम के एक सनकी छात्र को यकीन था कि जापान के कुछ सिपाही फिलीपींस में छिपे मिल सकते हैं। इस सिलसिले में वह अनेक इत्तफाकों के चलते 1973 के आखिऱी महीनों में में हीरू ओनोदा से मिल सका।
कई गुप्त मुलाकातों के बाद ही वह उसका विश्वास जीत सका। उसने उससे कहा वापस जापान चले। हीरू ने उत्तर दिया कि वह अपने अधिकारियों के आदेशों का इंतज़ार करेगा।
कुछ समय बाद सुजुकी लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा के सगे भाई और एक सरकारी प्रतिनिधिमंडल के साथ वापस लौटा। इसके बावजूद हीरू ओनोदा नहीं माना और उसने सुजुकी से कहा कि जब तक उसका कमांडर आदेश नहीं देगा वह अपनी पोस्ट से नहीं हिलेगा।
आखिरकार उसी बूढ़े मेजर योशिमी तानीगुची को लुबांग द्वीप लाया गया जिसने दिसम्बर 1944 में हीरू को लड़ाई जारी रखने का आदेश दिया था। मेजर साहब तब तक रिटायर हो चुके थे और अपने गृहनगर में किताबों की दुकान चला रहे थे।
-आतिफ रब्बानी
बहुत पहले, कऱीब दो दशक पहले, जब लखनऊ से अपने गाँव जाना होता, तो रास्ते में बाराबंकी बस अड्डे पर एक बहुत बड़ा बिलबोर्ड दिखाई देता था, जिसपर लिखा रहता था- ‘पान खाइए मगर ऐसे नहीं!’ इस इबारत के बैकग्राउन्ड में पान की पीक और इसकी फुहारें-लाल और कत्थई रंगत में पुती रहती थी। यह बिलबोर्ड सालों-साल लगा रहा। आजकल नहीं दिखता है। शायद बाराबंकी के लोग पान खाना ‘सीख’ गए हों। बहरहाल, अजऱ् यह करना है कि इश्तहार में पान खाने की मनाही नहीं थी, बल्कि मनाही थी पीक इधर-उधर थूकने की। पान तो हमारी अज़ीम हिन्दुस्तानी तहज़ीब का हिस्सा है।
पान खाने का एक अपना सलीका हुआ करता है। पान पेश करने की अपनी अदा। पान का मामला नाज़-ओ-अदा का भी है। कोई हसीना पान मुँह में रखे; गिलौरी में महकी हुई बातें करे; दो-शीजग़ी का जलवा हो; बेगमाती लहजे का हल्का-सा छिडक़ाव हो; और फिर आपको पान पेश करे। अहा! क्या कहने! बक़ौल अकबर इलाहाबादी-
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाजिऱ है
कय़ामत है सितम है दिल फि़दा है जान हाजिऱ है।
एक ज़माने तक अदब, आदाब और ज़बान-ओ-बयान की एक पूरी तहज़ीब पानदान के आस-पास रही है। बुजुर्गों का अपने से छोटों को पान पेश करना, दोनों हाथ आगे करके पान लेना और तकरीम से सलाम-अलैकुम या आदाब कहना।
घर कोई मेहमान आता तो बड़ी-बूढिय़ाँ अपना पानदान खोलतीं, पान लगातीं और खासदान में पान रखकर इसपर गुंबदनुमा ढक्कन रखकर, मेहमानखाने में पान पहुँचवाती। इज्जत-ओ-एहतराम के साथ, तहजीब-ओ-तकरीम के साथ मेहमानों को पेश किया जाता – कहाँ गए वे दिन!
बात सही है-गंगा-जमुनी ख़ासदान से वकऱ् लगी गिलौरी उठाकर सही लबो-लहजा और अंदाज से आदाब-अर्ज कहने के लिए कई नस्लों का रचाव चाहिए। बक़ौल बशीर बद्र–
सुना के कोई कहानी हमें सुलाती थी
दुआओं जैसी बड़े पान-दान की ख़ुशबू।
आज हमारे कोलीग (और जेएनयू के सीनियर) आलोक भाई ने पान मंगवाया, लेकिन फड़ जमाई गई विपुलजी के चैंबर में (वह भी उनकी गैरमौजूदगी में)। विपुल जी गणित के प्रोफेसर हैं, बहुत फॉर्मूला बताते हैं। अक्सर लोग समझते है कि वह क़ानून के प्रोफ़ेसर हैं। हैं तो वह जन्मना बनारसी ही। बनारसी लोग संगीत, गाली-गुफ़्तारी और पान के बग़ैर अधूरे हैं। लेकिन उनमें ये कोई सिफ़त मौजूद नहीं!
शहनाई के उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को ही देख लीजिए। दुनिया घूमते थे मगर उनकी रूह को शांति बनारस में ही मिलती थी। गंगा जी के पानी से वज़ू करते, जामा मस्जिद में नमाज पढ़ते, शहनाई और पानदान लेकर बालाजी मंदिर में बैठ जाते थे। कल्ले में गिलौरी दबाई और रियाज शुरू।
यही हाल मौजूदा जमाने में कव्वाल फरीद अयाज़ का है- मुँह में मुलेठी-मिश्रित पान की गिलौरी दबाई और अपने गायन का जादू बिखेरा। क्या कहना! ‘कन्हैया! याद है कुछ भी हमारी।’ अहा! क्या क़व्वाली है! पान बिना मुमकिन नहीं।
वाजिद अली शाह जिन्हें लखनऊ के अवाम प्यार से ‘जाने-आलम’ कहते थे, परीखाना में इंदरसभा सजाते। कृष्ण का रूप इख्तियार करते, रासलीला रचाते और गोपियाँ उन्हें पान पेश करती।
राजपूतों के सेनापति हथेली पर बीड़ा यानी पान रखकर पीछे खड़े कमांडरों और सैनिकों से पूछते- ‘है कोई राजपुताना की माटी का जाँबाज़ जो उतरे मैदान में?’ जो कमांडर आगे बढक़र हथेली से बीड़ा उठा लेता वह दरअसल मार्का अपने सर ले लेता। जंग में फ़तह के लिए बेकरार हो उठता। जान लगा देता। इसी रस्म से जिम्मेदारी उठाने के लिए ‘बीड़ा उठाने’ का मुहावरा चल निकला। आलोक सर ने आज बीड़ा तो उठवाया लेकिन अभीतक अपने इरादे जाहिर नहीं किए!
जर्मनी में राष्ट्रवादी पार्टी, एएफडी ने बाकी पार्टियों को सकते में डाल दिया है. यूरोप के दूसरे देशों में भी दक्षिणपंथी पार्टियों का उभार मजबूत होता जा रहा है. कुछ तो सरकार भी चला रही हैं.
डॉयचे वैले पर क्रिस्टॉफ हासेलबाख का लिखा-
मई की शुरुआत में जर्मनी के फेडरल ऑफिस फॉर प्रोटेक्शन ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन (बीएफबी) ने अपनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट देश की धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) को ‘चरमपंथी दक्षिणपंथी’ पार्टी करार दिया। बीएफबी, जर्मनी की आंतरिक खुफिया एजेंसी है और एएफडी देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी है। एएफडी ने इस फैसले को अदालत में चुनौती दी है। इस बीच बीएफबी का कहना है कि वह पार्टी पर चरमपंथी होने का चस्पा तब तक नहीं लगाएगी, जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता। इस मामले ने जर्मनी में फिर से यह राजनीतिक बहस छेड़ दी है कि क्या एएफडी पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए?
यूरोप के किसी और देश में धुर दक्षिणपंथी पार्टी पर प्रतिबंध लगाने की ऐसी बहस नहीं हो रही है। इसके उलट कुछ देशों में तो इस तरह की पार्टियां सरकार में शामिल हैं और कहीं कहीं तो वे ही सरकार की नेतृत्व कर रही हैं।
यूरोपीय देशों में धुर दक्षिणपंथियों पार्टियों की मौजूदगी पर डीडब्ल्यू की एक नजर।
फ्रीडम पार्टी ऑफ ऑस्ट्रिया
चांसलर क्रिस्टियान स्टोकर की रुढि़वादी ऑस्ट्रियन पीपल्स पार्टी (ओपीवी) हेर्बट किक्ल की फ्रीडम पार्टी ऑफ ऑस्ट्रिया (एफपीओ) को धुर दक्षिणपंथी नहीं मानती है। ऑस्ट्रिया की अन्य पार्टियों ने भी एफपीओ के साथ सहयोग को सिरे से खारिज नहीं किया है। ओपीवी खुद दो बार एफपीओ के साथ गठबंधन सरकार बना चुकी है। सन 2000 में पहली बार ऐसी सरकार बनी थी। उस वक्त यूरोपीय संघ के स्तर पर इसे एक स्कैंडल की तरह देखा गया। कुछ महीनों तक संघ के अन्य देशों ने ऑस्ट्रिया सरकार के साथ अपने रिश्ते न्यूनतम स्तर पर रखे।
ऑस्ट्रिया के संसदीय इतिहास में एफपीओ तुलनात्मक रूप से नई पार्टी है। इसे 1955 में एक पूर्व नाजी ने स्थापित किया। हालांकि बाद में पार्टी का रुख कई मुद्दों पर मुलायम पड़ा। एएफडी की तरह एफपीओ भी आप्रवासन, भूमंडलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) और यूरोपीय संघ की आलोचक है। हालांकि ज्यादातर मामलों में एफपीओ का रुख, समझौता करने को तैयार और कम सैद्धांतिक जिद वाला लगता है। इसकी वजह शायद यह भी हो सकती है कि पार्टी कई बार सरकार का हिस्सा रह चुकी है। 2024 में एफपीओ ने पहली बार 28.8 फीसदी वोट हासिल कर संसदीय चुनाव जीते। इसके बावजूद पार्टी सरकार नहीं बना सकी। हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि इस वक्त पार्टी बीते चुनावों में किए प्रदर्शन से भी आगे निकल चुकी है।
फ्रांस : द नेशनल रैली (एनआर)
1972 में जॉं मारी ले पेन द्वारा स्थापित की गई ये पार्टी, फ्रांस में एक लंबा राजनीतिक सफर तय कर चुकी है। शुरुआत में इसका नाम फ्रंट नेशनल था। पार्टी की कमान जब जॉं मारी की बेटी मारीन ले पेन के हाथ में आई तो उन्होंने इसका नाम बदल दिया और एजेंडा भी कुछ हद तक मध्यमार्गी सा बना दिया।
हालांकि पार्टी अब भी आप्रवासन और इस्लाम की आलोचक है, लेकिन अब वह खुले तौर पर यहूदीविरोधी नहीं दिखती है। इस बदलाव के चलते पार्टी नए वोटरों तक पहुंचने में सफल हो रही है। ले पेन तीन बार राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुकी हैं। बीते चुनाव में तो वे दूसरे चरण के सीधे मुकाबले तक गईं। दोनों ही चरणों में उन्हें पहले का मुकाबले ज्यादा वोट मिले।
सार्वजनिक फंड का दुरुपयोग करने के दोष में, अदालत ने हाल ही में उनके चुनाव लडऩे पर पांच साल तक प्रतिबंध लगाया। ताजा सर्वेक्षण दिखा रहे हैं कि अगर मारीन ले पेन या उनकी पार्टी के नेता जॉर्डन बारदेल चुनाव लड़ते हैं तो वे पहले चरण की बाधा आराम से पार कर सकते हैं। 2024 के संसदीय चुनावों में आरएन सबसे मजबूत पार्टी बनकर उभरी।
आरएन संरक्षणवादी और सरकारवादी नजरिया रखती है। सरल शब्दों में कहें तो पार्टी को यकीन है कि सरकार बड़ी बड़ी दिक्कतें अपने दम पर सुलझा सकती है। आरएन का यह नजरिया एएफडी का उल्टा है। ले पेन, खुद भी एएफडी से दूरी बनाकर रखती हैं। उनके लिए ये जर्मन पार्टी कथित रूप से बहुत अतिवादी है। लेकिन हो सकता है कि ऐसा दिखाकर ले पेन, घरेलू मोर्चे पर खुद को ज्यादा उदार पेश करना चाहती हों।
ब्रदर्स ऑफ इटली
जियोर्जिया मेलोनी, ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी का मुख्य चेहरा है। वह शायद यूरोपीय संघ के भीतर सबसे सफल धुर दक्षिणपंथी राष्ट्र प्रमुख हैं। ब्रदर्स ऑफ इटली के कई सदस्य, फासीवाद को सकारात्मक मानते हैं। वह मानते हैं की इटली में राष्ट्रवादी समाजवाद होना चाहिए। इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जियो मेलोनी एक बार खुद भी कह चुकी हैं कि, उनका ‘फासीवाद से समस्याविहीन रिश्ता’ रहा है। वह हिटलर के साझेदार और इटली के फासीवादी नेता बेनिटो मुसोलिनी को ‘एक अच्छा राजनेता’ बता चुकी हैं।
2022 में चुनाव अभियान के दौरान, मेलोनी का नारा था, ‘ईश्वर, परिवार और पितृभूमि।’ पार्टी को उन चुनावों में जीत मिली।
मेलोनी और उनकी पार्टी, गर्भपात, एलजीबीटीक्यू+ लोगों और आप्रवासियों के खिलाफ अभियान जारी रखे हुए हैं। लेकिन कई धुर दक्षिणपंथियों के उलट, मेलोनी ने यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस के खिलाफ स्पष्ट रूप से अपना नजरिया रखा। इस मुद्दे को वह एएफडी के साथ ‘समझौता न कर सकने वाला मतभेद’ करार देती हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के साथ मेलोनी का करीबी नाता है। इसी वजह से ब्रसेल्स में उन्हें ट्रांसअलटलांटिक मध्यस्थ के तौर पर भाव दिया जाता है।
स्वीडन डेमोक्रैट्स
स्वीडन डेमोक्रैट्स पार्टी की जड़ें, धुर दक्षिणपंथी आंदोलन ‘स्वीडन को स्वीडिश ही रहना चाहिए’ आंदोलन तक जाती हैं। सन 2000 की शुरुआत से ठीक पहले पार्टी ने खुद को इन जड़ों से दूर करने की कोशिश की। उस दौरान पार्टी ने जताया कि वह ज्यादा मध्यमार्गी सोच रखती है।
पार्टी के वर्तमान नेता जिमी अकेसन, इस रणनीति को सफलता से जारी रखे हुए हैं। 2022 के संसदीय चुनावों में उन्होंने स्वीडन डेमोक्रैट्स को देश की दूसरी मजबूत पार्टी बना दिया। तब से पार्टी ने प्रधानमंत्री उल्फ यालमार क्रिस्टर्सन की अल्पमत सरकार सहारा दे रखा है।
दूसरे देशों की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की तरह ही, स्वीडन डेमोक्रैट्स के लिए आप्रवासन सबसे अहम मुद्दा है। स्वीडन के कई बड़े शहरों में फैली गैंगवॉर हिंसा भी पार्टी की सफलता के लिए जिम्मेदार है। धुर दक्षिणपंथी विचारधारा वाली अन्य पार्टियों के उलट, स्वीडन डेमोक्रैट्स ने जलवायु सुरक्षा का समर्थन करती है।
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट कहती है कि अफगानिस्तान में तालिबान के शासन में अधिकारी धार्मिक और जातीय रूप से अल्पसंख्यकों के साथ-साथ महिलाओं के अधिकारों को भी लगातार दबा रहे हैं.
डॉयचे वैले पर शबनम फॉन हाइन और अहमद वहीद अहमद का लिखा-
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में जारी कई संकटों के बीच अफगानिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों से गायब है। लेकिन वहां तालिबान सरकार में लाखों लोग अधिकारों के व्यवस्थित हनन का शिकार बन रहे हैं।
अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) के पर्यवेक्षक वहां मानवाधिकारों की स्थिति पर लगातार नजर रखते हैं और इस बारे में रिपोर्ट जारी करते हैं। यूएनएएमए ने अपनी ताजा रिपोर्ट में ना सिर्फ अफगानिस्तान में लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा और कोड़े मारे जाने का जिक्र किया है, बल्कि इस्मायली समुदाय के बढ़ते दमन के बारे में भी बताया है।
इस्मायलीवाद शिया इस्लाम की एक शाखा है जबकि अफगानिस्तान में बहुसंख्यक लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं। इस्मायली समुदाय के ज्यादातर लोग बदकशां या बागलान जैसे अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांतों में रहते हैं। बादाकशान में कम से कम ऐसे 50 मामले सामने आए हैं जहां इस्मायली लोगों को जबरदस्ती सुन्नी इस्लाम अपनाने को मजबूर किया गया। जिन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया, उन्हें शारीरिक यातनाएं और जान से मारने की धमकियां दी गईं।
अल्पसंख्यकों का दमन
इस्मायली समुदाय के सदस्य और पेशे से प्रोफसर याकूब यासना ने डीडब्ल्यू के साथ बातचीत में कहा कि तालिबानी अधिकारी सिर्फ सुन्नी लोगों को ही मुसलमान मानते हैं। 2021 में सत्ता में आने के बाद तालिबान ने यासना पर ईशनिंदा का आरोप लगाया क्योंकि वह समाज में जागरूकता और सहिष्णुता की पैरवी करते हैं। यासना को यूनिवर्सिटी में पद छोडऩा पड़ा और अपनी सुरक्षा के लिए निर्वासन में जाना पड़ा।
यासना बताते हैं कि तालिबान के सत्ता में लौटने से पहले भी अफगानिस्तान में इस्मायली समुदाय के प्रति सहिष्णुता सीमित ही थी, लेकिन राजनीतिक तंत्र कम से कम उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा करता था। वह कहते हैं कि तालिबान के राज में तो सहिष्णुता लगातार घटती गई है।
इस्मायली, अफगानिस्तान में बचे चंद अल्पसंख्यक समुदायों में से एक है। अफगान मानवाधिकार कार्यकर्ता अब्दुल्ला अहमदी भी मानते हैं कि इस समुदाय के आसपास घेरा लगातार तंग होता जा रहा है। वह कहते हैं, ‘हमारे पास कई ऐसी रिपोर्टें आती हैं कि इस्मायली समुदाय के बच्चों को सुन्नियों के मदरसों में जाने को मजबूर किया जाता है। अगर वे इंकार करते हैं या फिर नियमित रूप से पढ़ाई करने नहीं जाते हैं तो उनके परिवारों को भारी जुर्माना भरना पड़ता है।’
अहमदी की शिकायत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उनके देश में मानवाधिकारों के हनन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहा है। वह तालिबानन अधिकारियों के खिलाफ लक्षित प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं। वह कहते हैं कि ‘उन्हें जवाबदेह बनाना होगा।’
-प्रियदर्शन
भारत-पाकिस्तान तनाव के दौरान जब आईपीएल के स्थगित होने की ख़बर आई तो एक पत्रकार मित्र ने तुरंत कहा, ‘ये अच्छा हुआ, सारी ‘व्यूअरशिप’ अब ‘युद्ध के कवरेज’ को मिलेगी।’
आईपीएल के मैच हर शाम करोड़ों लोग देखा करते थे, अलग-अलग मैचों में यह दर्शक संख्या आठ-दस करोड़ से लेकर सत्तर-अस्सी करोड़ तक हो जाया करती थी, तो अब लोगों की शाम ख़ाली थी और टीवी चैनलों को लग रहा था कि यह ख़ाली शाम भारत-पाकिस्तान संघर्ष के रंगारंग और मनभावन ब्योरों से भरी जा सकती है। हालांकि यह काम पहले से शुरू हो चुका था। छह और सात मई की दरमियानी रात पाकिस्तान के नौ ठिकानों पर भारत की सैन्य कार्रवाई की ख़बर जैसे ही आई, लगभग सारे के सारे टीवी चैनल रणभूमि में कूद पड़े।
इस्लामाबाद पर कब्जे, कराची पर हमले और पाकिस्तानी सेना के जनरल आसिम मुनीर की गिरफ़्तारी तक की खबरें चल पड़ीं। किसी को यह देखने-जानने की परवाह नहीं की कि इन खबरों में कितना सच है और वे आ कहाँ से रही हैं।
सोशल मीडिया पर सक्रिय तरह-तरह के आईटी सेल ये खबरें अपने-अपने ढंग से गढ़ और बाँट रहे थे। नई-पुरानी, असली-नकली तस्वीरों और बनावटी वीडियो के साथ भारतीय मीडिया पाकिस्तान पर क़ब्ज़ा करता जा रहा था। पाकिस्तान का मीडिया भी भारत के विमानों, एयर डिफेंस सिस्टम और शहरों को ध्वस्त करने में व्यस्त था।
‘बहुत कम बचा है लोगों का भरोसा’
यह मीडिया के पतन की वह पराकाष्ठा है जो पहले भी दिखती रही है, लेकिन इतने हास्यास्पद ढंग से इस बार सामने आई है।
मीडिया सनसनी को ही इकलौता मूल्य मान बैठा है, उसकी विश्वसनीयता लगातार गिरी है और विडंबना यह है कि उसे इसकी परवाह तक नहीं है।
चार साल पहले रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की डिजिटल न्यूज़ रिपोर्ट में बताया गया था कि सिर्फ 38 फीसदी भारतीय लोग समाचारों पर भरोसा करते हैं, जबकि फिनलैंड में यह तादाद 65 फीसदी है, कीनिया में 61 फ़ीसदी, ब्राज़ील में 54 फीसदी और थाइलैंड में 61 फ़ीसदी।
अंग्रेज़ी अख़बारों में यह गिरावट कुछ कम है, हिंदी अख़बारों में ज़्यादा, टीवी चैनलों में उससे भी ज्यादा और डिजिटल माध्यमों में सबसे ज़्यादा, बल्कि डिजिटल माध्यमों का तो जन्म ही इसी गिरावट के बीच हुआ है।
यह बात इसलिए ज़्यादा चिंताजनक है कि इन दिनों ख़बरों की सबसे ज़्यादा खपत डिजिटल माध्यमों से ही हो रही है।
फिक्की के मुताबिक़, 2024 में हर हफ़्ते 7।5 करोड़ लोगों ने टीवी देखा, इनमें केवल सात फीसदी लोग समाचार देखने वाले थे, बेशक, यह संख्या भी तब हासिल हुई जब 2024 में चुनावों की वजह से टीवी समाचारों की दर्शक-संख्या 13 फ़ीसदी बढ़ी थी, लेकिन कुल मिलाकर केवल 37 लाख लोग टीवी पर समाचार देखने वाले थे।
डिजिटल माध्यमों को देखें तो सिफऱ् यूट्यूब पर 47।6 करोड़ दर्शक हैं, दूसरी बात यह कि यूट्यूब की बढ़ोतरी की रफ्तार बहुत तेज है, 2029 तक इसके 80 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है।
ऑनलाइन माध्यमों पर ख़बर देखने वालों की तादाद 2024 में 46।3 करोड़ रही, इनमें से ज़्यादातर ने ख़बर देखने के लिए मोबाइल का इस्तेमाल किया।
‘दर्शक नागरिक नहीं उपभोक्ता बने’
मीडिया के लिए दर्शक अब लोकतंत्र के नागरिक नहीं, समाचारों के उपभोक्ता हो चुके हैं। उन्हीं उपभोक्ताओं को हमारे टीवी चैनल वह ‘युद्ध’ और ‘विजय’ बेचते रहे, ऐसा प्रोडक्ट जिसे बिना किसी क्वालिटी कंट्रोल के स्टूडियो में तैयार किया जा रहा था। दो देशों के बीच चल रहे टकराव को गंभीरता से समझने और समझाने से चैनलों का कोई वास्ता नहीं था।
दरअसल, माध्यमों के बदले हुए स्वरूप ने भी समाचारों के पतन की प्रक्रिया को बढ़ाया है।
अब ख़बर के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें जैसे छोटी-छोटी प्लेट्स में सजा कर पेश किया जाता है, ध्यान सामग्री पर नहीं रहता, उसके ऐसे नाटकीय प्रस्तुतीकरण पर रहता है, जिससे लोग खिंचे चले आएँ।
देखो और आगे बढ़ो, सोचने की जरूरत नहीं
मोबाइल और इंस्टाग्राम का व्याकरण अलग है जहाँ बड़े वीडियो नहीं, छोटी-छोटी क्लिप चल रही हैं यानी अब किसी ख़बर को विस्तार और गहराई नहीं चाहिए, बस उसकी सतह को छूना है, और वह भी बहुत चुनिंदा तरीके से, जो कुछ है, बिल्कुल कौंधता हुआ-सा आए और निकल जाए, उस पर कुछ सोचने से पहले दूसरी क्लिप अपने-आप चली आती है और सोचना हमेशा के लिए स्थगित हो जाता है।
मीडिया की यह गिरावट सिर्फ ख़बरों के तथ्यों की प्रस्तुति में नहीं है, उथला और भौंडा होना इन दिनों ख़ासतौर पर हिंदी मीडिया के मूल्य बने हुए हैं।
लगभग एक-सी आक्रामक भाषा में सारे टीवी चैनल चलते हैं, कुल पांच सौ शब्दों में वे समाचार को ‘वारदात की तरह अंजाम दे देते हैं।’
सारी कुशलता अनुप्रास और तुकबंदी पर आकर टिक जाती है और अतिरिक्त प्रतिभा किसी फिल्मी गाने की पैरोडी से हेडलाइन बनाने तक सिमट जाती है।
इन लोगों के लिए ‘दहली दिल्ली’ या ‘कांपता कोलकाता’, ‘बौखलाया बेंगलुरु’ या ‘पिटता पटना’ पर्याप्त है।
चैनलों का ब्रीफ़ पाकिस्तान को नरकिस्तान बताने का है और नए भारत को युवा जोश से भरा विकसित भारत जहां कोई समस्या नहीं है।
क्या है पत्रकारिता की भूमिका?
इसका असर पूरी पत्रकारिता के वैचारिक पक्ष पर पड़ रहा है। अब यह बात पुरानी हो चुकी कि टीवी चैनलों की बहसें खली और अंडरटेकर वाली नूरा कुश्ती देखने वाले दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए हो रही हैं।
नया अनुभव यह है कि एंकर भी किसी विषय को लगभग उन्हीं कोणों से प्रस्तुत करते हैं जहां वह अधिक से अधिक आक्रामक दिखें, इन सबके बीच स्क्रीन पर जलते हुए शोले, आते-जाते विमान, तोप और टैंक, गिरती हुई मिसाइलें-सब एकसाथ गड्डमड्ड होकर इस तरह आते हैं कि दर्शक को वीडियो गेम देखने का एहसास हो।
ज़ाहिर है, चैनलों के लिए विश्वसनीयता या गंभीरता जैसा कोई मूल्य नहीं है और सारा जोर दर्शकों को पुकारने और कुछ देर रोके रखने पर है।
किसी राजनेता का एक अच्छा इंटरव्यू आखिरी बार कब किसने किस चैनल पर लिया था, यह याद करने पर ही याद नहीं आता, साहित्य-संस्कृति, कला या विचार के दूसरे पक्ष तो बिल्कुल अनुपस्थित हैं या कभी आते भी हैं तो वही तमाशे की पोशाक पहन कर।
फिलहाल, भारत और पाकिस्तान के बीच चले संघर्ष को कवर करने वाली पत्रकारिता पर लौटें, पत्रकारिता में राष्ट्रवाद का आग्रह नया नहीं है, युद्ध क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की हमेशा से यह दुविधा रही है कि वे क्या बताएं और क्या छिपाएँ।
संघर्ष के दौर में ‘पत्रकारिता का राष्ट्रवाद’
अलग-अलग देशों के पत्रकार अपने यहां से प्राप्त सूचनाओं को आधार बनाने को मजबूर होते हैं और अंतत: उनकी पत्रकारिता पर ‘राष्ट्रहित’ की छाया चली आती है।
2003 के खाड़ी युद्ध में तो अमेरिकी पत्रकार अमेरिकी सेना के साथ गए और उन्होंने ठीक वैसी रिपोर्टिंग की, जैसी अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान चाहता था, इसके लिए बाक़ायदा 775 पत्रकारों और छायाकारों ने सेना के साथ अनुबंध पर दस्तख़त किए थे कि वे वैसी ख़बरें नहीं देंगे जिससे अमेरिकी सेना के अभियान को कोई नुक़सान पहुंचने का अंदेशा हो।
इस प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए यूएस मरीन कोर के लेफ्टिनेंट कर्नल रिक लैंग ने कहा था- ‘साफ़तौर पर हमारा काम युद्ध जीतना है, सूचना युद्ध भी इसी का हिस्सा है, तो हम सूचना के पर्यावरण में भी वर्चस्व हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।’
इस ‘एंबेडेड जर्नलिज़्म’ की तीखी आलोचना हुई और इस पर ‘वॉर मेड ईजी’ जैसी किताबें लिखी गईं और फिल्में बनाई गईं जो युद्धों में अमेरिकी प्रचार के खेल पर केंद्रित थीं।
अबू धाबी के एक टीवी पत्रकार अम्र अल मौनेरी ने तभी कहा था- ‘इस युद्ध के बाद, मुझे एहसास हुआ कि हम मीडिया के लोग राजनीति के सिपाही हैं, सेना के सिपाही नहीं।’ उन्होंने संतोष जताया कि उनके चैनल पर युद्ध संतुलित ढंग से कवर किया गया।
2003 में जो खेल खुलकर हुआ, वह पहले से भी चलता रहा था, साठ के दशक के उत्तरार्ध में चले वियतनाम युद्ध की वास्तविक रपटें बहुत बाद में और बड़ी मुश्किल से आईं।
उन दिनों के ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’और ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की प्रतिस्पर्धा और वॉशिंगटन पोस्ट के संकट पर केंद्रित स्टीवन स्पीलबर्ग की बनाई फिल्म ‘द पोस्ट’ बताती है कि किस तरह अख़बारों पर पहले भी दबाव पड़ते रहे हैं और उनसे निपटने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है।
चीन का मीडिया तियानमेन चौक पर हुए क़त्लेआम की चर्चा अब तक नहीं करता।
सांप्रदायिकता का अंडर करंट
भारत में इस संघर्ष के दौरान जो कुछ चला, वह तो लग रहा था कि यह पत्रकारिता नहीं, युद्ध की गंभीरता को न समझने वाले विदूषकों की होड़ है कि वह सरकार को कितना खुश कर सकते हैं और पाकिस्तान को पीटकर अपनी देशभक्ति को दूसरों से ऊपर साबित कर सकते हैं।
ये ऐसे चीयरलीडर्स बन गए जिन्हें ठीक से नाचना तक नहीं आता था।
बहरहाल, इस सख्त आलोचना के पीछे एक गहरी चिंता भी है। भारत में जो ‘पाकिस्तान-विरोध’ दिखता है, उसका एक पहलू वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी है जो हमारे समाज के बहुसंख्यक हिस्से में लगभग बीमारी की तरह फैल गया है।
हर किसी से देशभक्त होने का सर्टिफिकेट मांगने और जऱा भी असहमति पर उसे देशद्रोही ठहरा देने का नया चलन इसी प्रवृत्ति की देन है।
इसी से वह नासमझ युद्धोन्माद पैदा होता है जिसकी वजह से विदेश सचिव विक्रम मिसरी जब संघर्ष विराम की घोषणा करते हैं तो उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर भयावह ट्रोलिंग शुरू हो जाती है, उनके परिवार तक को नहीं छोड़ा जाता- अंतत: उन्हें अपने एक्स हैंडिल की सेटिंग बदलनी पड़ती है।
इन्हीं दिनों ऐसी और भी घटनाएं घटीं जिनसे पता चलता है कि सांप्रदायिकता इस राष्ट्रवादी उफान से किस तरह जुड़ी हुई है और कितने आक्रामक ढंग से हमला बोलने को बेताब है।
जब पहलगाम में नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमानी नरवाल ने कहा कि उसे कश्मीरियों या मुसलमानों से नफऱत नहीं है तो एक तबका उस पर टूट पड़ा, उसके लिए उमड़ रही सारी सहानुभूति तुरंत ख़त्म-सी हो गई।
यह सच है कि इस पूरे संघर्ष के दौरान भारत सरकार और भारतीय सेना के उन अधिकारियों की प्रतिक्रिया संयत रही जो दैनिक ब्रीफिंग के लिए आते थे, दो महिला सैनिक अधिकारियों के साथ हुई इस पहली ही ब्रीफिंग ने बहुत सारे संदेश दे दिए थे।
लेकिन फिर मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने जिस फूहड़ता के साथ कर्नल सोफिया कुरैशी का उल्लेख किया, वह बताता है कि यह सोच हमारी मानसिकता में कितने धंस चुकी है।
चिंताजनक सवाल बहुत सारे हैं
इस पूरे माहौल में चिंताजनक सवाल और भी हैं, मीडिया में संपादक नाम की संस्था जैसे अप्रासंगिक हो चुकी है, बस इसलिए नहीं कि बहुत पढ़े-लिखे, विद्वान या पुराने दौर के कद्दावर संपादक नहीं बचे हैं- हालांकि यह भी सच है- बल्कि इसलिए भी कि मीडिया में अब खबरों के चुनाव में जिसे ‘मानवीय हस्तक्षेप’ कहते हैं, वह खत्म होता जा रहा है।
यह ‘ट्रेंडिंग’ खबरों का समय है यानी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जो ख़बरें सबसे ज़्यादा देखी-सुनी जा रही हैं, जो बहसें सबसे ज़्यादा भीड़ जुटा रही हैं, उन्हीं के आसपास पूरी कवरेज घूमती रहनी चाहिए।
पुराने दौर का कोई संपादक कह सकता था कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बीच ही एक नक्सल विरोधी अभियान छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है- उसकी भी खबर लेनी चाहिए लेकिन आज इसकी ज़रूरत नहीं है।
बीजापुर के घने जंगलों या दुर्गम पहाड़ों के बीच चल रहे इस अभियान की खबरें सोशल मीडिया पर नहीं हैं तो उन्हें लेने का मतलब नहीं है लेकिन वे ख़बरें क्यों नहीं हैं? क्योंकि बाकायदा एक बाजार है, एक सत्ता तंत्र है जिसे मालूम है कि किन खबरों का बाज़ार बनाया जाना है।
दूसरा सवाल यह है कि पत्रकारिता से जुड़ी संस्थाएं इस दौर में कहां हैं? क्या इस ग़ैर-जि़म्मेदार पत्रकारिता को रोकने की कोई अपील किसी संगठन ने की है?
क्या एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के दायित्वों में यह शामिल नहीं है कि वह याद दिलाए कि पत्रकारिता को किन पैमानों पर खरा उतरना होता है? नेशनल ब्रॉडकास्ट एंड डिजिटल एसोसिएशन- एनबीडीए-क्या कर रहा है?
- प्रकाश दुबे
सडक़ पर चलते राहगीर बीचोंबीच खड़े वाहन, वाचाल दोपाए से लेकर होटल-ढाबा चलाने, इमारत बनाने वाले तक को टोंकने से घबराते हैं। आम तौर पर अहंकारी उत्तर मिलता है। नागरिक अधिकारों की जानकारी रखने वाले संबंधित विभाग में शिकायत करने से हिचकिचाते हैं। कोई भी दुत्कारते हुए कह सकता है-तेरे बाप की जमीन है? किसी राहगीर ने हिम्मत की। सलाह दे डाली-अपने पिताजी से नोटिस लगाने कहो। उसकी आयुजनित कृशकाय काया की टूट-फूट की नौबत नहीं आई। निकट खड़े साथी ने अघोषित युद्ध विराम कराया-जाओ बाबा, जाओ। कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकवादी की बहन बताने वाले मध्यप्रदेश के मंत्री का आशय वही था-तुम्हारे बाप की जमीन है? ऐसा सवाल पूछना आजकल आसान है। दबंगई के आदी के मुंह पर गाली की तरह इस तरह की हिकारत भरी धौंस का कब्जा है।
न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका और उज्जल भुयान की पीठ ने पूरे देश में दो महीने के अंदर फुटपाथ अतिक्रमण मुक्त कराने का आदेश 15 मई को जारी किया। न्यायमूर्ति ओका ने जोर देकर कहा-संविधान के अनुच्छेद- 21 के अंतर्गत नागरिकों को फुटपाथ का उपयोग करने की गारंटी है। उनका अधिकार है। न्यायमूर्ति ओका और भुयान दोनों के पिता वकील थे। दोनों उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश का दायित्व संभाल चुके हैं। जस्टिस ओका कर्नाटक में और न्या भुयान तेलंगाना में। न्यायमूर्ति ओका 21 मार्च 2021 को कर्नाटक हाइकोर्ट में सुनवाई के दौरान पहले भी बता चुके थे कि वाहन पार्किंग या किसी तरह के अन्य कारण से अतिक्रमण मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
रोज धक्के खाने वाले और जान गंवाने वालों के अपनों की तरह हम आप नहीं सोचते। वर्ष 2021 में 17 हजार से अधिक पैदल चलने वाले दुर्घटना की चपेट में आए। 9 हजार 462 का प्राणांत हुआ। 2022 में 32 हजार से अधिक की जान गई। 2023 के औसत का निष्कर्ष है कि सडक़ दुर्घटना में जान गंवाने वाला हर पांचवां भारतवासी पैदल चलता था। पैदल चल रहे व्यक्ति को गैरकानूनी कब्जेदार डपटकर पूछता है-सडक़ तुम्हारे बाप की है? समृद्ध, सक्षम किंतु अनधिकार चेष्टा में माहिर व्यक्ति को जनगणमन अधिनायक वाली संवैधानिक भावना तथा सबै भूमि गोपाल की मान्यता कतई नहीं झकझोरती। सत्ता की निकटता से मिलने वाले अधिकार का पहला प्रयोग आम तौर पर कानून तोडऩे के लिए होता है। अशिष्ट कथन से साख खोने वाले मध्यप्रदेश के मंत्री से पूछा नहीं गया कि भारत-भूमि सिर्फ उसके बाप की है? उन देशवासियों को रहने का अधिकार है या नहीं जिनकी पैदाइश, पालन-पोषण यहां हुआ। जो देश सेवा कर रहे हैं? कपोल कल्पना, अतीत या अपने संकुचित विचार के कारण मेरे बाप की जागीर वाली अतिक्रमण भावना मजबूत होती है। हमारे गली कूचे तक सीमित बीमारी नहीं है, यह। ट्रम्प इस रोग से बुरी तरह पीडि़त हैं। उनका दावा है-1 व्यापार बंद कराने की धमकी देकर भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे पर हमला करने से रोक दिया। 2- भारत जीरो टेरिफ पर कारोबार के लिए राजी हुआ। 3- एपल को हिंदुस्तान में निवेश करने से रोका। बिना युद्ध घोषणा वाली मुठभेड़ों को युद्ध विराम कहने वाले की राजनीतिक समझदारी पर भारतवासी चुप हैं। अमेरिकी नागरिक अवश्य पूछेंगे- हे पाकिस्तान और भारत को धौंस देने वाले प्रेसिडेंट, उस व्यक्ति से हाथ मिलाकर कैसा लगा जिसे अमेरिका ने आतंकवादी घोषित कर बरसों कैद किया। करीब नौ करोड़ रुपए का ईनाम उसके सिर पर घोषित किया। अलकायदा के मददगार को ओसामा बिन लादेन की श्रेणी में रखा था। कल का आतंकी अहमद अल शरा सीरिया का अंतरिम राष्ट्राध्यक्ष बन चुका है। अब उसे आकर्षक युवा बताया जा रहा है। ट्रम्प ने मुस्कराकर तारीफ में कसीदे पढ़े- उसका अतीत सशक्त है, बहुत सशक्त। लड़ाकू। समझने वाली बात बस इतनी सी, अतिक्रमण करने वाले ने कहा-यह हमारे बाप की जमीन है। ट्रम्प शैली की कूटनीति में हामी भरी- वाह। क्या बात है!!!
हाल ही में भारत की फुटबॉल टीम ने अपने 40 साल के खिलाड़ी को रिटायरमेंट के बावजूद वापस बुलाया लिया. जबकि, क्रिकेट को 14 साल का एक नया हीरो मिल गया है. क्रिकेट भारत में बहुत लोकप्रिय खेल है, लेकिन फुटबॉल इतना पीछे क्यों है?
डॉयचे वैले पर जॉन डुएर्डेन का लिखा-
2008 में शुरू हुई इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं। ऐसे में 14 साल के वैभव सूर्यवंशी ने केवल 35 गेंदों में शतक लगाकर पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसके साथ उन्होंने सबसे कम उम्र में शतक बनाने वाले खिलाड़ी का रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया। 31 गेंद में शतक लगाने वाले एबी डिविलियर्स के बाद, सूर्यवंशी, क्रिकेट के इतिहास में दूसरे सबसे तेज शतक लगाने वाले खिलाड़ी भी बन गए हैं। उनकी उम्र भले ही अविश्वसनीय हो लेकिन भारतीय क्रिकेट के खेल में ऐसे हुनरमंद युवाओं की कोई कमी नहीं है।
हालांकि 1.4 अरब की आबादी वाले इस देश में सब खेलों का हाल क्रिकेट जैसा नहीं है। खासकर फुटबॉल के लिए हालात काफी अलग नजर आते है। जयपुर में जहां एक ओर वैभव चर्चा का विषय बने हुए थे कि वह भारतीय क्रिकेट टीम में कब चुने जाएंगे। वहीं दूसरी ओर, भारत की फुटबॉल टीम के कोच 40 साल के स्ट्राइकर, सुनील छेत्री को अंतरराष्ट्रीय रिटायरमेंट से वापस बुलाया जा रहा था। छेत्री ने अब तक 95 अंतरराष्ट्रीय गोल किए हैं। जो वर्तमान में खेल रहे खिलाडिय़ों में केवल क्रिस्टियानो रोनाल्डो और लियोनेल मेसी के नीचे है। यह फैसला मीडिया से लेकर फैंस तक एक बड़ी बहस की वजह बना।
रोलमॉडल की जरूरत
इंडियन सुपर लीग (आईएसएल) क्लब मुंबई सिटी की पूर्व सीओओ, अरुणव चौधरी ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘सुनील छेत्री को इसलिए वापस बुलाया गया क्योंकि हमारे पास गोल करने वाले स्ट्राइकरों की कमी है। फिलहाल हमारे पास बेहतरीन युवा खिलाडिय़ों की कमी है। खिलाड़ी लगभग 25 साल की उम्र के बाद ही सिस्टम में जम पाते है।’
क्रिकेट की दुनिया में भारत फिलहाल एक मजबूत ताकत है, लेकिन फुटबॉल की दुनिया में वह बहुत पीछे है। 2023 में भारत की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम फीफा रैंकिंग में टॉप 100 में आ गई थी, जो कि 2018 के बाद पहली बार हुआ था। हालांकि उसके बाद यह रैंकिंग में दोबारा गिरकर 127 नंबर पर आ गई। 2024 के एशिया कप में भारत तीनों मैच हार गया और पूरे साल में एक भी जीत अपने नाम नहीं कर पाया। इस दबाव के कारण ही शायद छेत्री को दोबारा बुलाने का फैसला लिया गया होगा।
क्रिकेट की तुलना में फुटबॉल में युवा खिलाड़ी काफी कम नजर आते हैं। ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) के पूर्व महासचिव, शाजी प्रभाकरन ने डीडब्लू से कहा, ‘फुटबॉल में कोई रोल मॉडल नहीं है, लगभग सभी रोल मॉडल भारत के बाहर के हैं। जबकि क्रिकेट में लगातार नए सितारे सामने आते रहते हैं जिससे प्रभावित होकर युवा अपने रोलमॉडल के रास्ते पर ही चलने की कोशिश करते हैं।’
एक नई राह
क्रिकेट में ढेरों रोलमॉडल हैं और खिलाडिय़ों के आगे बढऩे का रास्ता भी स्पष्ट है। लेकिन फुटबॉल में ऐसा सिस्टम अभी तक विकसित नहीं हो पाया है। शाजी प्रभाकरन कहते हैं, ‘फुटबॉल का ढांचा कमजोर है, और ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जो सही समय पर टैलेंट को पहचान सके और उन्हें सही तरह से ट्रेन कर सके। वहीं क्रिकेट का सिस्टम काफी मजबूत है, जहां युवा खिलाडिय़ों को खोजने और उन्हें आगे बढ़ाने के भरपूर मौके मिलते हैं।’
एशियाई फुटबॉल में युवाओं के विकास के लिए सबसे प्रभावशाली आवाजों में से एक माने जाने वाले, टॉम बायर, को चीन के शिक्षा मंत्रालय ने 2013 में नियुक्त किया था ताकि फुटबॉल को वहां की विशाल आबादी तक पहुंचाया जा सके। वह भारत को भी कुछ हद तक वैसी ही स्थिति में देखते हैं।
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘भारत में 18 करोड़ से ज्यादा बच्चे सात साल से कम उम्र के हैं लेकिन इस शुरुआती उम्र में उनको सही राह दिखाने के लिए कोई राष्ट्रीय रणनीति नहीं है। यही सबसे बड़ी कमी है, लेकिन यही सबसे बड़ा अवसर भी है। अगर भारत फुटबॉल के क्षेत्र में आगे बढऩा चाहता है, तो उसे फुटबॉल की संस्कृति को अपनाना होगा और इसकी शुरुआत अपने घर से ही करनी होगी ना कि किसी विदेशी तरीके से।’
-सलमान रावी
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने पूर्व पीएम शेख़ हसीना की पार्टी अवामी लीग पर पिछले सप्ताह प्रतिबंध लगा दिया। अंतरिम सरकार की एडवाइजऱी काउंसिल की एक बैठक में अवामी लीग पर बैन लगाने का फै़सला लिया गया था।
अवामी लीग की छात्र इकाई यानी ‘छात्र अवामी लीग’ पर पिछले साल ही प्रतिबंध लग चुका है।
ऐसे में बांग्लादेश की राजनीति पर लंबे समय से नजऱ रखने वाले कई जानकार इसे 'राजनीतिक संकट' की तरह देखते हैं।
ये कहा जा रहा है कि देशभर में और ख़ासतौर पर ढाका में लगातार हो रहे प्रदर्शनों के बाद अंतरिम सरकार की ‘कैबिनेट’ ने यह फैसला लिया।
अंतरिम सरकार के क़ानूनी सलाहकार आसिफ़ नज़रूल ने कैबिनेट की बैठक के बाद जो बयान जारी किया था, उसमें कहा गया, ‘ये प्रतिबंध तब तक रहेगा जब तक अवामी लीग का मुक़दमा ‘इंटरनेशनल क्राइम्स (ट्रिब्यूनल) एक्ट’ के तहत ख़त्म नहीं हो जाता।’
अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन जमात-ए-इस्लामी, हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम और ‘नेशनल सिटीजऩ पाटी’ जैसे दल लंबे समय से कर रहे थे।
बांग्लादेश के पत्रकार एसएम अमनुर रहमान 'रफ़त' ने बीबीसी से कहा, ‘वैसे ख़ुद बेग़म ख़ालिदा जिय़ा की पार्टी यानी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) इस प्रतिबंध के पक्ष में नहीं थी क्योंकि अवामी लीग बांग्लादेश के चुनाव आयोग में एक पंजीकृत दल है। लेकिन विरोध प्रदर्शनों की वजह से उसने इस संबंध में टिप्पणी नहीं की।’
हालांकि, जानकारों का मानना है कि इसके पीछे की वजह ये हो सकती है कि ख़ुद बीएनपी भी चाहती है कि देश में जल्द से जल्द लोकतंत्र की बहाली हो जाए और चुनाव घोषित कर दिए जाएं।
बांग्लादेश के कई सामाजिक संगठन और पत्रकारों ने बीबीसी को नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि जिस तरह प्रतिबंध लगाया गया और जो घोषणा अंतरिम सरकार ने की है, उससे सभी डरे हुए हैं। उनका कहना है कि इस तरह से ये अभिव्यक्ति की आज़ादी पर भी प्रतिबंध की बात है।
भारत सरकार की प्रतिक्रिया
भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने 13 मई को दिल्ली में पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि ये एक ‘चिंता का विषय है’ क्योंकि बांग्लादेश में आने वाले चुनाव में सभी दलों की भागीदारी होनी चाहिए। किसी भी दल को इसमें भाग लेने से रोकना लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा।
जायसवाल ने कहा था, ‘बिना क़ानूनी प्रक्रिया अपनाए अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाना चिंता का विषय है।’
उन्होंने कहा, ‘एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत स्वाभाविक रूप से बांग्लादेश में लोकतांत्रिक आज़ादी और सिकुड़ती राजनीतिक जगह को लेकर चिंतित है। हम चाहते हैं कि चुनाव स्वतंत्र और भय मुक्त हों जिनमें सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी हो।’
इस मुद्दे पर भारत के बयान पर बांग्लादेश की भी प्रतिक्रिया सामने आई।
अंतरिम सरकार के सलाहकार मोहम्मद यूनुस के प्रेस सचिव शफ़ीक़ उल इस्लाम ने कहा, ‘अवामी लीग के कार्यकाल में स्वतंत्र राजनीतिक सोच को निचोड़ कर उसे बिल्कुल सीमित कर दिया गया था। अवामी लीग ने देश की संप्रभुता के साथ भी समझौता कर लिया था।’
उन्होंने कहा, ‘अवामी लीग के कार्यकाल में आम लोगों और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर ढाए गए ज़ुल्म की यादें लोगों के दिमाग़ में अब भी बनी हुई हैं। देश की अखंडता और संप्रभुता को बचाए रखने लिए अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाना जरूरी था। चुनाव हमारे देश का आंतरिक मामला है।’
अवामी लीग का दौर और विवाद
बांग्लादेश के वरिष्ठ पत्रकार रफ़त ने बीबीसी से कहा, ‘अपने कार्यकाल में राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ अवामी लीग भी सरकारी शक्तियों और क़ानूनों का दुरुपयोग करती रही और उन्हें प्रताडि़त करने का भी काम किया।’
उनके मुताबिक, अभी बांग्लादेश में घरेलू हालात तो खऱाब हैं ही, म्यांमार से लगी सीमा पर अराकान आर्मी के हमले लगातार बढ़ रहे हैं जिसकी वजह से बांग्लादेश की फ़ौज को वहां तैनात किया जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘ऐसे हालात में मुझे नहीं लगता कि जल्द आम चुनाव कराना संभव हो पाएगा।’
अवामी लीग पर अपने शासन के दौरान चुनावों में धांधली के आरोप लगते रहे हैं।
कोलकाता में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक निर्माल्य मुखर्जी कहते हैं कि ये भी याद रखना ज़रूरी है कि अवामी लीग जब सत्ता में आई थी तो उसको कुल मतों का 98 प्रतिशत मिला था जो कि लोकतंत्र में बिल्कुल असंभव है।
बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं, ‘जो कुछ अंतरिम सरकार के सलाहकार कर रहे हैं वो भारत विरोधी ही है। वो पाकिस्तान और चीन से नज़दीकियां बढ़ाने की बात करते रहे हैं। वहाँ की फौज भी तीन हिस्सों में अपनी वफ़ादारी अंजाम दे रही है। फ़ौज का एक धड़ा ऐसा है जो शेख़ हसीना के साथ है और जिसने शेख हसीना को भारत भागने में मदद की थी। एक धड़ा यूनुस के प्रति वफ़ादारी दिखा रहा है तो तीसरा बांग्लादेश के लिए।’
मुखर्जी का कहना है, ‘चूंकि रजाकारों ने शेख हसीना के पिता की हत्या की थी, इसलिए वो लगातार बदला लेती रहीं। ये उर्दू या हिंदी बोलने वाले लोग थे।’
‘रज़ाकार’ शब्द का इस्तेमाल कथित तौर पर उन लोगों के लिए क्या जाता है, जिन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था।
मुखर्जी कहते हैं कि शेख़ हसीना पर भारत के इशारे पर सरकार चलाने के आरोप लगते रहे हैं।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई ने मंगलवार को बारहवीं कक्षा के नतीजे घोषित कर दिए।
सीबीएसई के अलावा यूपी बोर्ड, आईसीएसई जैसे शिक्षा बोर्ड भी बारहवीं के परिणामों का एलान कर चुके हैं।
इन नतीजों के बाद अब छात्रों के लिए अगला पड़ाव सीयूईटी यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट है।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातक की पढ़ाई के दाख़िले के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा साल 2021 से शुरू हुई थी।
सीयूईटी के लिए आवेदन और परीक्षा से जुड़ी अन्य जानकारियों के बारे में हम आपको यहां बता रहे हैं।
क्या होती है सीयूईटी
इस बार आवेदन की तारीख एक मार्च से लेकर 22 मार्च तक थी और परीक्षा का आयोजन 13 मई से 31 मई तक हो रहा है।
हर साल की तरह परीक्षा का आयोजन नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी एनटीए कर रही है।
ये परीक्षा कुल 37 विषयों में हो रही है, जिसमें 13 भाषाओं में परीक्षा दी जा सकती है। परीक्षा कंप्यूटर बेस्ड मोड यानी सीबीटी होती है।
परीक्षा में ऑब्जेक्टिव यानी एक से अधिक विकल्प वाले सवाल पूछे जाएंगे। परीक्षा में पूछे जाने वाले सारे सवाल एनसीईआरटी पाठ्यक्रम की 12वीं कक्षा के स्तर के होंगे।
ऐसे होगी मार्किंग
हर प्रश्नपत्र में 50 सवाल होंगे, जिन सभी के जवाब अनिवार्य हैं।
हर सही जवाब के लिए छात्रों को पांच अंक मिलेंगे और गलत के लिए एक अंक कटेंगे।
अगर किसी प्रश्न का जवाब नहीं दिया गया है तो उसमें शून्य अंक मिलेंगे और अगर किसी सवाल में एक से अधिक सही जवाब हैं तो उन छात्रों को पांच अंक मिलेंगे, जिन्होंने सही जवाबों में से एक को सिलेक्ट किया हो।
छात्रों के अंकों को एनटीए स्कोर में बदला जाएगा। इसकी पूरी प्रक्रिया नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
इस परीक्षा के बाद रि-इवैल्यूएशन या रिचेकिंग नहीं कराई जा सकती है।
सभी परीक्षाएं 60 मिनट की हैं, जिन्हें अलग-अलग पालियों में आयोजित किया जा रहा है।
इस बार ये परीक्षा देश के 285 शहरों और भारत से बाहर 15 शहरों में आयोजित की जा रही है, जिसमें वॉशिंगटन डीसी भी शामिल है।
परिणाम की तारीख एनटीए और सीयूईटी की वेबसाइट पर बाद में घोषित की जाएगी।
किन विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए होती है परीक्षा?
केंद्रीय विश्वविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रमों यानी अंडर ग्रैजुएट कोर्सेस में प्रवेश के लिए ये परीक्षा पास करनी होती है।
इनके अलावा, कई राज्यों के विश्वविद्यालय, निजी विश्वविद्यालय और डीम्ड विश्वविद्यालय भी इस प्रवेश परीक्षा के तहत आते हैं। हालांकि, इनकी सूची बदलती रहती है।
मतलब ये कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बाहर की संस्थाएँ या विश्वविद्यालय भी इस प्रवेश परीक्षा को अपना सकते हैं।
इस बार 46 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इस प्रवेश परीक्षा के ज़रिए दाखिला होगा। साथ ही जो अन्य विश्वविद्यालय इस बार इस परीक्षा में शामिल हैं, उनकी सूची द्धह्लह्लश्चह्य://ष्ह्वद्गह्ल।ठ्ठह्लड्ड।ठ्ठद्बष्।द्बठ्ठ पर जाकर देखी जा सकती है।
क्या एक से अधिक विषय में दी जा सकती है परीक्षा?
हां। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के मुताबिक एक छात्र एप्लीकेशन फ़ी भरकर अधिकतम पाँच विषय चुन सकते हैं, जिनमें भाषाएँ और सामान्य योग्यता परीक्षा शामिल है, भले ही उन्होंने बारहवीं में कोई भी विषय चुना हो। इस परीक्षा के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है। बारहवीं पास करने वाले छात्र ये परीक्षा दे सकते हैं।
अगर कोई छात्र सामान्य श्रेणी से है तो उन्हें सीयूईटी देने के लिए बारहवीं में 50 फ़ीसदी अंक और एससी/एसटी छात्रों के लिए 45 फ़ीसदी अंक लाना ज़रूरी है।
-संदीप राय
भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने गुरुवार को अफगानिस्तान के कार्यकारी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से फोन पर बात की।
यह पहली बार है कि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने बातचीत के बारे में सार्वजनिक तौर पर बयान जारी किया है।
एस जयशंकर ने फोन कॉल के दौरान, पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले को लेकर मुत्ताकी की ओर से की गई निंदा की सराहना की।
भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। भारत काबुल में एक समावेशी सरकार के गठन की वक़ालत करता रहा है।
बीते समय में तालिबान और पाकिस्तान के बीच संबंध खऱाब होते गए हैं।
पाकिस्तान अपने यहां मौजूद लाखों अफग़़ान शरणार्थियों को वापस भेज रहा है। इसका अफग़़ानिस्तान विरोध करता रहा है।
इसके अलावा दोनों देशों के बीच सीमा-विवाद भी रह रह कर बड़ा मुद्दा बनता रहा है। ऐसे में क्या भारत तालिबान को मान्यता दिए बगैर, अफगानिस्तान से अपने संबंध सुधारना चाह रहा है?
हालांकि हाल के महीनों में भारत और तालिबान के बीच संपर्क बढ़ा है। जनवरी में भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने दुबई में आमिर खान मुत्ताकी से मुलाक़ात की थी।
ताजा फोन कॉल की जानकारी एस जयशंकर ने अपने एक्स अकाउंट पर दी है।
दोनों देशों की ओर से क्या कहा गया
गुरुवार को एस जयशंकर ने एक्स पर लिखा, ‘कार्यकारी अफगान विदेश मंत्री मौलवी आमिर ख़ान मुत्ताकी से आज शाम अच्छी बातचीत हुई। हम पहलगाम आतंकी हमले की उनकी निंदा की सराहना करते हैं।’
‘उन्होंने झूठी और निराधार रिपोर्टों के माध्यम से भारत और अफगानिस्तान के बीच अविश्वास पैदा करने की हाल की कोशिशों को दृढ़ता से खारिज किया। मैंने इसका स्वागत किया।’
एस जयशंकर ने आगे कहा, ‘बातचीत में अफगान लोगों के साथ हमारी पारंपरिक दोस्ती और उनके विकास की जरूरतों के प्रति लगातार समर्थन का जिक्र किया गया। सहयोग को आगे ले जाने के तरीकों और साधनों पर चर्चा की गई।’
अफग़़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय की ओर से दी गई जानकारी में कहा गया, ‘रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मौलवी आमिर खान मुत्ताकी और रिपब्लिक ऑफ इंडिया के विदेश मंत्री जयशंकर के बीच फोन पर बातचीत हुई। यह बातचीत द्विपक्षीय संबंधों, व्यापार और कूटनीतिक रिश्ते को मजबूत करने पर केंद्रित थी।’
मुंबई में अफगान कांसुलेट की ओर से जारी बयान के अनुसार, ‘विदेश मंत्री मुत्ताकी ने भारत को एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय देश बताया और अफगानिस्तान-भारत संबंधों की ऐतिहासिक प्रकृति का जिक्र किया। उन्होंने इस संबंध के और मज़बूत होने की उम्मीद जताई। उन्होंने संतुलित विदेश नीति और सभी देशों के साथ रचनात्मक संबंधों के अवसर तलाशने की अफगानिस्तान की प्रतिबद्धता को भी दोहराया।’
बयान के मुताबिक़, ‘इस बातचीत में मुत्ताकी ने अफगान व्यापारियों और मरीजों के लिए वीजा जारी करने में सहूलियत देने और भारत की जेलों में बंद अफगान कैदियों की रिहाई और उनकी वापसी की अपील की। जयशंकर ने दोनों देशों के बीच राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में सहयोग की अहमियत को रेखांकित किया।’
इस बयान में ये भी कहा गया है, ‘जयशंकर ने अफगान कैदियों के मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने का आश्वासन दिया और वीज़ा प्रक्रिया को आसान बनाने का वादा किया।’
पाकिस्तान के हालिया दावे पर विवाद
पहलगाम हमले के बाद सात मई को तडक़े भारत ने पाकिस्तान में 9 जगहों पर हवाई हमले किए थे।
दोनों देशों के बीच शुरू हुई इस सैन्य झड़प के दौरान पाकिस्तान ने दावा किया था भारतीय मिसाइल हमले की जद में अफगान का इलाका भी आया था। तालिबान के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता इनायत खोवाराजम ने इस दावे का खंडन किया।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने भी इस दावे को पूरी तरह बेबुनियाद बताते हुए कहा, ‘अफगान अपने असली दोस्तों और दुश्मनों के बारे में जानते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘अफगान जनता को ये बताने की जरूरत नहीं है कि किस देश ने पिछले डेढ़ साल में कई अफगान नागरिकों और अफगानिस्तान में आधारभूत ढांचे को निशाना बनाया है।’
तालिबान के दूसरे दौर में भारत के साथ संबंध
अगस्त, 2021 में अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के दोबारा कब्ज़े को भारत के लिए कूटनीतिक और रणनीतिक झटके के रूप में देखा गया था।
ऐसा लग रहा था कि भारत ने अफगानिस्तान में जो अरबों डॉलर के निवेश किए हैं, उन पर पानी फिर जाएगा।
भारत ने अफगानिस्तान में 500 से अधिक परियोजनाओं पर 3 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है, जिसमें सडक़ें, बिजली, बांध और अस्पताल तक शामिल हैं।
भारत ने अफगान सैन्य अधिकारियों को प्रशिक्षित किया, हजारों छात्रों को छात्रवृत्ति दी और एक नए संसद भवन का निर्माण कराया।
हालांकि अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत रहे जयंत प्रसाद ने बीते जनवरी में बीबीसी संवाददाता सौतिक बिस्वास को बताया था कि ‘पिछले तीन सालों से भारत ने विदेश सेवा के एक राजनयिक के ज़रिए तालिबान के साथ संपर्क बना रखा है।’
दो साल तक भारत की राजधानी दिल्ली में अशरफ गनी सरकार द्वारा नियुक्त राजदूत फरीद मामुन्दजई ही अफगान दूतावास की जिम्मेदारी निभाते रहे लेकिन अक्तूबर 2023 में ये कहते हुए दूतावास ने काम करना बंद कर दिया कि उसे भारत सरकार की ओर से समर्थन नहीं मिल रहा।
काबुल में सत्ता परिवर्तन के बाद ही दिल्ली में अफग़़ान दूतावास और मुंबई, हैदराबाद में अफगान वाणिज्य दूतावास के बीच तल्ख़ी आ गई थी।
कहा जा रहा था कि इस दूतावास के जरिए तालिबान सरकार भारत से बात नहीं कर रही थी, जबकि वाणिज्य दूतावासों का तालिबान सरकार का समर्थन था। इसलिए दूतावास के कामकाज का बंद होना भारत सरकार के रुख़ में बदलाव का पहला संकेत था।
इसके बाद आठ जनवरी 2025 को भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी और अफगान विदेश मंत्री मुत्ताकी के बीच दुबई में बातचीत हुई। ये दोनों देशों के बीच की सबसे उच्चस्तरीय वार्ताएं थीं।
अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय के बयान के अनुसार, इस मुलाक़ात में ईरान के चाबहार पोर्ट के ज़रिए भारत के साथ व्यापार बढ़ाने पर बात हुई।
भारत ईरान में चाबहार पोर्ट बना रहा है ताकि पाकिस्तान के कराची और ग्वादर पोर्ट को बाइपास कर अफगानिस्तान के साथ ईरान और मध्य एशिया से कारोबार किया जा सके।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के तल्ख होते रिश्ते
अफगानिस्तान में तत्कालीन सोवियत संघ की सेना के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान तालिबान का अहम सहयोगी रहा। लेकिन हाल के सालों में तालिबान के साथ पाकिस्तान के रिश्ते तल्ख़ हुए हैं।
तालिबान की सत्ता में दोबारा वापसी से पाकिस्तान को उम्मीद थी कि तहरीक-ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) पर लगाम लगेगी। टीटीपी को पाकिस्तानी तालिबान भी कहा जाता है।
टीपीपी अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान के पख्तून बहुल इलाक़ों में सक्रिय है।
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित के अनुसार, ‘हाल के दिनों में पाकिस्तान में आतंकवादी हमले बढ़े हैं और पाकिस्तान सरकार टीटीपी के खिलाफ कार्रवाई कर रही है लेकिन उसकी सुरक्षित पनाहगाह अफगानिस्तान में है।’
भारत और तालिबान के बीच जनवरी 2025 की बातचीत से कुछ दिन पहले, पाकिस्तान ने पूर्वी अफगानिस्तान में हवाई हमले किए थे। तालिबान सरकार के मुताबिक़ इन हमलों में दर्जनों लोग मारे गए थे। इससे दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ गया। इसके अलावा, दोनों देशों के बीच सीमा विवाद रिश्ते को और जटिल बनाता है। बीते कुछ महीनों से पाकिस्तान बिना वैध दस्तावेज वाले अफगान नागरिकों को सामूहिक रूप से निकाल रहा है।
तालिबान अधिकारियों का कहना है कि आने वाले महीनों में कऱीब 20 लाख लोगों को पड़ोसी पाकिस्तान से निकाला जाना। तोरखम बॉर्डर क्रॉसिंग से हर दिन 700 से 800 परिवार अफगानिस्तान भेजे जा रहे हैं।
यूएनएचसीआर के मुताबिक, पाकिस्तान में करीब 35 लाख अफगान नागरिक रह रहे हैं। इनमें वो सात लाख लोग भी शामिल हैं जो 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान पलायन कर गए थे।
- दिलनवाज पाशा
भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी सैन्य टकराव या इसकी आशंका होती है तो सबसे पहले दोनों देशों के परमाणु हथियार ज़ेहन में आते हैं।
भारत और पाकिस्तान दोनों के पास परमाणु हथियार हैं लेकिन इन हथियारों को लेकर दोनों देशों की नीति अलग-अलग है।
पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को ख़तरा होने पर परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की नीति पर चलता है। इसे फस्र्ट यूज पॉलिसी कहते हैं। वहीं भारत हमेशा से जवाबी कार्रवाई के रूप में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की बात करता रहा है और यही देश की निर्धारित नीति भी है। भारतीय नेतृत्व पाकिस्तान के पहले परमाणु इस्तेमाल करने की नीति को 'न्यूक्लियर ब्लैकमेल' कहता है।
पीएम मोदी ने क्या कहा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सोमवार शाम पाकिस्तान पर भारत के मिसाइल हमलों और पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव और फिर संघर्ष विराम को लेकर देश को संबोधित किया तो उन्होंने कहा कि भारत ‘न्यूक्लियर ब्लैकमेल’ नहीं सहेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘भारत पर आतंकी हमला हुआ तो मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। हम अपने तरीक़े से अपनी शर्तों पर जवाब देकर रहेंगे, हर उस जगह जाकर कठोर कार्रवाई करेंगे जहां से आतंकी जड़ें निकलती हैं, दूसरा कोई भी न्यूक्लियर ब्लैकमेल भारत नहीं सहेगा। न्यूक्लियर ब्लैकमेल की आड़ में पनप रहे आतंकी ठिकानों पर भारत सटीक और निर्णायक प्रहार करेगा। हम आतंक की सरपरस्त सरकार और आतंक के आकाओं को अलग-अलग नहीं देखेंगे।’
ये पहली बार नहीं है जब भारत ने अपनी जमीन पर हुए किसी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कदम उठाया है।
2016 में उरी में हुए हमले के बाद भारत ने सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक का दावा किया था। 2019 में जब पुलवामा में सीआरपीएफ़ के काफि़ले पर हमला हुआ तो भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट में ‘टेरर कैंपों’ पर एयरस्ट्राइक का दावा किया।
अब पहलगाम में हुए हमले में 26 लोगों की मौत के बाद भारत ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में 9 ठिकानों पर हवाई हमले किया।
ऐसे में ये सवाल उठ रहा है कि क्या पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने की चेतावनी असरदार बची है या नहीं।
विश्लेषक क्या कहते हैं?
विश्लेषक मानते हैं कि ख़तरा होने पर पहले परमाणु हथियारों के इस्तेमाल पाकिस्तान की नीति सवालों में है। इंस्टीट्यूट ऑफ़ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ में सीनियर रिसर्चर डॉ। मुनीर अहमद कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने का मतलब ये था कि पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ आतंकवाद जैसे ग़ैर-परंपरावादी हमले करता है और फिर भारत के परंपरावादी (सैन्य) हमलों को रोकने के लिए परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की ‘धमकी’ देता है। अब इस तरह का न्यूक्लियर ब्लैकमेल बहुत प्रभावी नहीं है। भारत बालाकोट और अब ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद पाकिस्तान के इस थ्रैशोल्ड को परख चुका है।’
विश्लेषकों का मानना है कि अहम सवाल ये है कि पाकिस्तान का न्यूक्लियर थ्रैशोल्ड क्या है?
मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिफेंस स्टडीज़ में सीनियर रिसर्च एसोसिएसट डॉ. राजीव नयन कहते हैं, ‘उरी के बाद पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक हुईं, फिर 2019 में बालाकोट और अब भारत की मिसाइल स्ट्राइक।’
‘ऐसे में ये सवाल है कि पाकिस्तान का न्यूक्लियर थ्रैशोल्ड क्या है, किस स्थिति में वो इन हथियारों का इस्तेमाल करेगा। पाकिस्तान, रूस और कई राष्ट्र कहते हैं कि जब हमारा अस्तित्व दांव पर होगा तब हम इस्तेमाल करेंगे। लेकिन सवाल ये है कि आप किस स्थिति को अस्तित्व पर ख़तरा मानते हैं।’
डॉ. मुनीर कहते हैं, ‘जब भी भारत की तरफ से पाकिस्तान पर कोई पारंपरिक हमला होता है पाकिस्तान फुल स्पेक्ट्रम डेटेरेंस डॉक्ट्रिन (पूर्ण आयामी प्रतिरोधक सिद्धांत) की बात करता है लेकिन मुझे लगता है कि हम अब इससे आगे बढ़ चुके हैं। पाकिस्तान परमाणु हथियारों की बात करता है क्योंकि पारंपरिक सैन्य ताक़त में पाकिस्तान भारत का मुक़ाबला नहीं कर सकता है।’
भारत और पाकिस्तान की परमाणु हथियारों की होड़
परमाणु हथियारों को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिस्पर्धा रही है।
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो ने साल 1965 में कहा था, ‘अगर भारत बम बनाता है तो भले ही हमें घास या पत्तियां खानी पड़ें या भूखा रहना पड़े हम अपना बम बनाकर रहेंगे।’
जहां तक परमाणु हथियारों को लेकर भारत का सवाल है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1950 के दशक में कहा था, ‘हमने परमाणु हथियारों की भर्त्सना की है और उन्हें बनाने से इनकार किया है। लेकिन हमें मजबूर किया गया तो हम अपनी रक्षा के लिए अपने वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल करेंगे।’
भारत और पाकिस्तान दोनों ही 1970 के दशक से परमाणु शक्ति हासिल करने के प्रयास कर रहे थे। भारत ने साल 1974 में ‘स्माइलिंग बुद्धा’ परीक्षण किया और ये संकेत दिए कि वह परमाणु ताक़त हासिल कर सकता है। लेकिन भारत ने पहले परमाणु हथियारों का परीक्षण ‘ऑपरेशन शक्ति' के तहत 11 और 13 मई 1998 को किया था। इसके कुछ ही दिन बाद 28 और 30 मई को पाकिस्तान ने ‘चगई-1’ और ‘चगई-2’ परीक्षण करके संकेत दिए कि उसके पास भी परमाणु हथियार है।
यानी दोनों देशों के पास अधिकारिक रूप से पिछले 27 सालों से परमाणु हथियार हैं। इस दौरान जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की स्थिति बनी, दोनों देशों के परमाणु हथियार चर्चा और चिंता का केंद्र बने।
परमाणु हथियारों को लेकर भारत-पाकिस्तान
के नेताओं की बयानबाज़ी
1998 में पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था, ‘पाकिस्तान के परमाणु परीक्षणों का उद्देश्य न तो मौजूदा अप्रसार व्यवस्था को चुनौती देना था, और न ही किसी महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा को पूरा करना। हमने ये परीक्षण पाकिस्तान के खिलाफ बल प्रयोग या उसके खतरे को रोकने के लिए किए थे। भारत के जवाब में किए गए हमारे इन परीक्षणों ने इस तरह हमारे क्षेत्र में शांति और स्थिरता के उद्देश्य को पूरा किया है।’
नवाज़ शरीफ़ ने भले ही देश की रक्षा और क्षेत्र में शांति और स्थिरता के लिए परमाणु हथियार बनाने की बात की हो लेकिन पाकिस्तान का नेतृत्व समय- समय पर अपने परमाणु बमों के इस्तेमाल की ‘धमकी’ देता रहा है। साल 2000 में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री शमशाद अहमद ने कहा था, ‘अगर पाकिस्तान पर कभी आक्रमण हुआ या हमला हुआ तो पाकिस्तान अपने पास मौजूद हर हथियार का इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करेगा।’
पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व भी अपने परमाणु हथियारों को लेकर बयान देता रहा है। पाकिस्तान के रिटायर्ड लेफ़्िटनेंट जनरल और पाकिस्तान के स्ट्रेटेजिक प्लान्स डिवीजऩ के पूर्व महानिदेशक खालिद किदवई ने इस्लामाबाद के इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्ट्रेटेजिक स्टडीज में एक भाषण में कहा था, ‘पाकिस्तान के पास तीन श्रेणियों में परमाणु हथियारों का पूरा स्पेक्ट्रम मौजूद है: स्ट्रेटेजिक, ऑपरेशनल और टेक्टिकल। पाकिस्तान के ये हथियार भारत के विशाल भूभाग और उसके बाहरी क्षेत्रों को पूरी तरह से कवर करते हैं, भारत के स्ट्रेटेजिक हथियारों के छिपने के लिए कोई जगह नहीं है।’
एक और बयान में जनरल ख़ालिद किदवई ने कहा था, ‘पाकिस्तान की परमाणु प्रतिरोधक (न्यूक्लियर डिटेरेंट) क्षमता वास्तविक, मज़बूत और सुरक्षित है। इसे हर घंटे, हर दिन, साल के हर दिन पूरी तरह से संचालन योग्य बनाया गया है। इसका उद्देश्य वही है जिसके लिए इसे विकसित किया गया है यानी आक्रामकता को रोकना।’
जनरल ख़ालिद ने ही 2013 में पाकिस्तान का फुल स्पेक्ट्रम डिटेरेंस सिद्धांत दिया था। इसके तहत पाकिस्तान ने स्ट्रेटेजिक, ऑपरेशन और टेक्टिकल हथियार विकसित किए हैं और दावा है कि वे 60 किलोमीटर से लेकर 3000 किलोमीटर तक मार कर सकते हैं।
इसका दूसरा मतलब ये है कि पाकिस्तान ये दावा करता है कि वो भारत के किसी भी हिस्से में परमाणु हमला कर सकता है।
कुछ दिन पहले पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ ने एक साक्षात्कार में पाकिस्तान की परमाणु क्षमता का जिक्र करते हुए कहा था, ‘अस्तित्व को सीधा ख़तरा होने की स्थिति में ही पाकिस्तान अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा।’
इसी साल अप्रैल में पाकिस्तान के रेल मंत्री मोहम्मद हनीफ़ अब्बासी ने कहा था, ‘पाकिस्तान की परमाणु मिसाइलें सजावट के लिए नहीं हैं। इन्हें भारत के लिए ही बनाया गया था। हमने ग़ौरी, शाहीन और गजऩवी जैसी मिसाइलें और 130 परमाणु हथियार ख़ासतौर पर भारत के लिए ही रखे हैं।’
पाकिस्तान के नेतृत्व के बयानों में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की 'धमकी' झलकती रही है। भारतीय नेताओं ने भी समय-समय पर परमाणु हथियारों को लेकर बयान दिए हैं।
मई 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘पोखरण परीक्षण शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट था। ये परमाणु शक्ति का इस्तेमाल विकास के लिए करने के लिए किया गया वैज्ञानिक परीक्षण था।’
मई 1998 में पोखरण-2 परीक्षण के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘भारत अब परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र है। हमारे परमाणु हथियार आत्मरक्षा के लिए हैं। ये सुनिश्चित करने के लिए कि भारत को परमाणु हथियारों या किसी और तरह की ‘धमकी’ ना दी जा सके।’
इसके बाद इसी साल संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि भारत की परमाणु ताक़त आक्रामकता रोकने के लिए है और भारत पहले इस्तेमाल ना करने के सिद्धांत पर चलेगा।
प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था कि भारत परमाणु हथियार रहित दुनिया चाहता है लेकिन आक्रामकता रोकने के लिए हम न्यूनतम परमाणु हथियार रखेंगे।
परमाणु हथियारों को लेकर भारत
और पाकिस्तान की नीतियां
भारत ने साल 1999 में अपनी पहली परमाणु हथियार नीति बनाई थी। ये पहले परमाणु हथिायर इस्तेमाल ना करने पर आधारित है।
साल 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे दोहराते हुए कहा था, ‘भारत की परमाणु नीति पहले इस्तेमाल ना करने और परमाणु हमला होने पर पूरी ताक़त से जवाब देने पर आधारित है। हमारा न्यूक्लियर डिटेरेंट भरोसेमंद और प्रभावशाली है।’
वहीं मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2019 में दिए एक बयान में कहा था, ‘भारत की परमाणु नीति स्पष्ट है। पहले इस्तेमाल ना करना। लेकिन जो हम पर परमाणु से हमला करेंगे उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। हमारी परमाणु क्षमता हमारी संप्रभुता को सुनिश्चित करती है।’
हालांकि साल 2019 में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने इस नीति में स्थिति के हिसाब से बदलाव के संकेत देते हुए कहा था, ’भारत पहले इस्तेमाल ना करने की नीति पर प्रतिबद्ध है लेकिन भविष्य में क्या होगा ये परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।’ वहीं पाकिस्तान की कोई लिखित या स्पष्ट परमाणु नीति नहीं है। विश्लेषक मानते हैं कि इसका मुख्य कारण है कि वह भारत की ‘परंपरागत सैन्य प्रभुत्व’ या कन्वेंशनल मिलिट्री सुपिरियरिटी को रोकना करना चाहता है।
मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिफेंस स्टडीज़ से जुड़े और रक्षा और परमाणु मामलों के विशेषज्ञ राजीव नयन कहते हैं कि जिस किसी की भी फ़र्स्ट यूज़ पॉलिसी है उसमें बहुत अस्पष्टता है।
राजीव नयन कहते हैं, ‘फस्र्ट यूज़ नीति की सबसे बड़ी अस्पष्टता ये है कि किस स्थिति में परमाणु बम का इस्तेमाल किया जाएगा। पाकिस्तान ये तो कहता है कि हम परमाणु बम का इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन ये कभी स्पष्ट नहीं किया है कि इसे इस्तेमाल करने का थ्रैशोल्ड या सीमा क्या होगी। ये भी स्पष्ट नहीं है कि शुरुआत किस तरह के हथियार के इस्तेमाल से की जाएगी। क्या छोटा वेपन इस्तेमाल किया जाएगा जिसे बैटलफ़ील्ड वेपन कहा जाता है या फिर स्ट्रेटेजिक वेपन इस्तेमाल किया जाएगा।’
अभी दुनिया में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को लेकर कोई समझौता नहीं है। लेकिन परमाणु हथियारों को लेकर एक डर और इनके इस्तेमाल को लेकर एक झिझक है।
1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए अमेरिकी परमाणु बमों के बाद से दुनिया में कहीं भी परमाणु हथियारों को इस्तेमाल नहीं किया गया है।
राजीव नयन कहते हैं, ‘भले ही परमाणु हथियारों को रोकने के लिए कोई क़ानून ना हो लेकिन हर परमाणु संपन्न राष्ट्र में इन्हें लेकर नैतिकता है। सवाल ये उठेगा कि जब पाकिस्तान के ख़िलाफ़ परमाणु बम इस्तेमाल नहीं हो रहा है तब वो किस तरह से अपने पहले परमाणु बम के इस्तेमाल को तर्कसंगत ठहराएगा।’
इसी कारण से पाकिस्तान पर न्यूक्लियर ब्लैकमेल का आरोप लगता रहा है क्योंकि भारत ने कभी भी पहले परमाणु बम के इस्तेमाल की ‘धमकी’ नहीं दी है लेकिन पाकिस्तान ऐसी ‘धमकी’ देता रहा है।
भारत-पाकिस्तान संघर्ष
पाकिस्तान या भारत के पास कितने परमाणु हथियार हैं इसका अधिकारिक आंकड़ा नहीं हैं। हालांकि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) और अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ साइंटिस्ट्स परमाणु हथियारों की संख्या का आकलन करते हैं।
सिपरी के साल 2024 के आकलन के मुताबिक भारत के पास 172 और पाकिस्तान के पास 170 परमाणु हथियार हैं। वहीं विश्लेषक मानते हैं कि सवाल ये है कि ये आंकड़े कितने विश्वसनीय हैं और परमाणु हथियारों के मामले में संख्या का कोई महत्व है भी या नहीं।
डॉ. मुनीर अहमद कहते हैं, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ साइंटिस्ट्स ने ताज़ा आकलन में भारत के पास 180 और पाकिस्तान के पास 170 परमाणु हथियारों का अनुमान लगाया है। लेकिन वास्तविकता में परमाणु हथियारों के मामलों में संख्या बहुत मायने नहीं रखती है। अगर बात इनके इस्तेमाल तक पहुंची तो बहुत कम हथियारों से ही बहुत भारी तबाही की जा सकती है।’
राजीव नयन का भी यही मानना है। वह कहते हैं, ‘परमाणु हथियार इतने विनाशकारी होते हैं कि संख्या बहुत अधिक मायने नहीं रखती है क्योंकि एक छोटा परमाणु हथियार भी भारी तबाही मचा सकता है।’
दोनों देशों में परमाणु हथियारों को
लेकर क्या है चेन ऑफ कमांड?
भारत और पाकिस्तान में परमाणु हथियारों को लेकर चेन ऑफ़ कमांड यानी अगर इस्तेमाल करने की स्थिति आई तो इसे लेकर भी अलग-अलग व्यवस्था है।
डॉ. राजीव नयन के अनुसार, भारत में एक न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी (एनसीए) है। इसकी एक राजनीतिक परिषद है जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। इसमें सीसीएस यानी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी है जिसमें रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते हैं।
इसके बाद एक कार्यकारी परिषद है जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) करते हैं। इसमें सभी सेनाओं के प्रमुख, चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़, डिफ़ेंस इंटेलिजेंस के महानिदेशक, परमाणु ऊर्जा एजेंसी (डीईए) के शीर्ष अधिकारी और डीआरडीओ के अधिकारी शामिल होते हैं।
वहीं परमाणु हथियारों के रखरखाव, देखभाल और ऑपरेशनल डिप्लायमेंट यानी संचालन के लिए स्ट्रेटेजिक फ़ोर्सेज कमांड (एसएफ़सी) है जो चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ को रिपोर्ट करती है।
डॉ.राजीव नयन कहते हैं, ‘भारत में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का निर्णय राजनीतिक होगा और अंतिम फ़ैसला देश का नागरिक नेतृत्व करेगा। सैन्य बलों और परमाणु वैज्ञानिकों से सलाह लेने के लिए एनसीए के पास विशेषज्ञ सलाहकार हैं।’
पाकिस्तान में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के लिए जो चेन ऑफ़ कमांड है उसमें सबसे ऊपर नेशनल कमांड अथॉरिटी (एनसीए) है। इसका ढांचा भी लगभग भारत जैसा ही है।
इसके चेयरमैन प्रधानमंत्री होते हैं और इसमें राष्ट्रपति, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, चेयरमैन ऑफ़ ज्वाइंट चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ (सीजेसीएससी), सेना, वायुसेना और नौसेना के प्रमुख और स्ट्रेटेजिक प्लान्स डिवीजऩ के महानिदेशक होते हैं।
एनसीए के तहत स्ट्रेटेजिक प्लान्स डिवीजऩ है जिसका मुख्य काम परमाणु एसेट का प्रबंधन और एनसीए को तकनीकी और ऑपरेशनल सलाह देना है। वहीं स्ट्रेटेजिक फ़ोर्सेज़ कमांड सीजेसीएससी के नीचे काम करती है और इसका काम परमाणु हथियारों को लांच करना है।
ये वॉरहेड ले जाने में सक्ष्म मिसाइलों जैसे शाहीन और नस्र मिसाइलों का प्रबंधन करती है और एनसीए से आदेश मिलने पर परमाणु हथियार दाग सकती है।
-कृष्ण कल्पित
किसी कवि की विदाई इसी तरह होनी चाहिए जैसी पंजाबी में लिखने वाले एक महत्वपूर्ण भारतीय कवि सुरजीत पातर की हुई। राजकीय सम्मान से उन्हें विदाई दी गई। पंजाब के मुख्यमंत्री ने उनकी अर्थी को कंधा दिया। उनकी कविताओं का पाठ किया और सुरजीत पातर के नाम से युवा कवियों के लिए एक पुरस्कार की घोषणा की।
राजकीय सम्मान के अलावा सुरजीत पातर के निधन पर पूरा पंजाब शोकाकुल था। अख़बारों ने पातर पर विशेष अंक और परिशिष्ट निकाले। सोशल मीडिया भी सुरजीत पातर की कविताओं और गज़़लों से रंगा हुआ था। सुरजीत पातर की लोकप्रियता पूरे देश में थी।
क्या किसी हिन्दी कवि की ऐसी विदाई पिछले दशकों में देखी गई? शायद नहीं। हिन्दी कवि और कविता से हिन्दी समाज का जैसे कोई रिश्ता ही नहीं है। राजनीति और राजनीतिज्ञों को तो छोडि़ए। ऐसा क्यों है, इस बात की जांच होनी चाहिए।
सुरजीत पातर पंजाबी के बुद्धिजीवियों के साथ सामान्य पाठकों में भी लोकप्रिय थे। उनकी कविता पंजाब की मिट्टी, जनजीवन से गहरे से जुड़ी हुई थी। उनकी कविताओं में पंजाबी मुहावरे गुंथे हुए थे। जैसे यह पंक्ति : मेहनत से थकान नहीं होती साहेब, बेक़दरी से होती है।
सुरजीत पातर मुक्तछंद और छंद दोनों में लिखते थे। उनकी पंजाबी गज़़लें भी बहुत लोकप्रिय थी। उनकी पंजाबी गज़़लों का एच एम वी ने एक रिकॉर्ड भी निकाला था। सुरजीत पातर को साहित्य अकादमी, सरस्वती सम्मान, पद्मश्री सहित कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाज़ा गया।
-विश्व दीपक
पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारत ने 7 मई को ऑपरेशन सिंदूर लॉन्च किया. 8 मई को ब्रिटिश अखबार ‘द डेली टेलीग्राफ’ ने एक रिपोर्ट छापी जिसका शीर्षक था - How China Helped Pakistan shot down Indian Fighters Jets यानि किस तरह चीन की मदद से पाकिस्तान ने भारत के लड़ाकू विमानों को मार गिराया. मनोहर कहानियां शैली में लिखी गई इस रोमांचक रिपोर्ट में यह साबित किया गया है कि
1. किस तरह चीन की तकनीक की मदद से पाकिस्तान ने भारत के लड़ाकू विमानों को मार गिराया
2. किस तरह चीन अब हथियारों के वैश्विक बाजार में धमक के साथ दाखिल हो चुका है और अब वह अमरीका/पश्चिमी देशों को पीछे धकेल करके दुनिया का दादा नंबर वन बनने की राह पर है।
मैं कोई डिफेंस एक्सपर्ट नहीं लेकिन यह कॉमन सेंस की बात है कि डॉग फाइट में लड़ाकू विमान गिरते हैं। जहां तक मेरी जानकारी है एक राफेल गिरा है। कॉम्बैट सिचुएशन में ऐसा होता है।
चूंकि पाकिस्तान चीन का क्लाइंट स्टेट है, चीनी हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है इसलिए पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ चीनी मिसाइल इस्तेमाल की। आगे भी करेगा। इसमें भी कोई हैरानी की बात नहीं।
हैरानी की बात यह है कि अंग्रेजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद कराया गया और उसका व्यापक प्रचार प्रसार किया गया। इस मनोहर कहानीनुमा रिपोर्ट को हर व्हाट्सएप तक पहुंचाया गया। कौन लोग थे जो इसका प्रचार कर रहे थे? सीजफायर के बाद तो इस रिपोर्ट को गॉस्पेल ट्रुथ की तरह प्रचारित किया गया।
जिन्हें ग्लोबल मीडिया का ककहरा भी पता है वो जानते हैं कि ब्रिटेन का ‘द डेली टेलीग्राफ’ चीनी प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए बेइंतहा बदनाम है।
लड़ाई शुरू होने के ठीक दूसरे दिन जिस तरह के लोमहर्षक विवरण के साथ यह रिपोर्ट छापी गई उससे साबित होता है कि यह रिपोर्ट चीनी डिफेंस लॉबी की तरफ से लिखवाई गई थी। इसमें न तो भारत का पक्ष है, न राफेल, मिग, सुखोई बनाने वाली कंपनियों का।
रिपोर्टर मेम्फिस बार्कर जो इस्लामाबाद में रह चुके हैं, उन्होंने दूसरा पक्ष जानने की कोई कोशिश की – ऐसा इस रिपोर्ट को पढक़र समझ नहीं आता।
मानता हूं कि भारत सरकार इस बारे में कोई कमेंट नहीं करती लेकिन दसॉ एविएशन, मिग, सुखोई आदि का पक्ष लेना चाहिए था।
इसके बिना यह रिपोर्ट डिफेंस डीलर का लिखा हुआ एडवर्टोरियल प्रतीत होती है। यकीन न हो तो डिफेंस का कोई भी एडवर्टोरियल निकाल कर पढ़ लीजिए।
यह कोई इकलौती घटना नहीं है।
‘द डेली टेलीग्राफ’ ने सालों तक तक पैसा लेकर ‘चाइना वॉच’ नाम का सप्लीमेंट छापा है ताकि ब्रिटेन और पश्चिमी देशों में चीन की छवि सुधारी जा सके। जब मामला ब्रिटेन में चीन के बढ़ते दखल और राष्ट्रीय सुरक्षा की सीमा को छूने लगा तब दबाव में ‘टेलीग्राफ’ को चीन की दलाली बंद करनी पड़ी। चीनी प्रोपेगेंडा करने के बदले में ‘द डेली टेलीग्राफ’ चीन से हर साल 7 लाख 50 हज़ार पाउंड लेता था। यह सब मैं नहीं कह रहा। ‘द गार्डियन’ की रिपोर्ट बताती है।
कोविड महामारी के दौरान भी जब चीन पर सवाल उठ रहे थे तब भी इस अखबार ने चीन के पक्ष में अभियान चलाया था। विश्वसनीयता के पैमाने पर ब्रिटेन की जनता के बीच टेलीग्राफ की रैंकिंग बीबीसी, गार्डियन, इंडिपेंडेंट, टाइम्स से काफी पीछे मानी जाती है।
पक्षपात और प्रोपेगेंडा इस अखबार की सोच में शामिल है। कंजर्वेटिव पार्टी को लेकर यह अखबार इतना आग्रही है कि लेबर पार्टी के लोग इसे ‘टोरीग्राफ’ बोलते हैं। जिन्होंने ‘द क्राउन’ सीरीज देखी होगी उन्हें याद होगा।
इस अखबार की निष्पक्षता और प्रतिबद्धता का आलम यह है कि चीन के हाथों बिकने से पहले यह यूएई के सुल्तान के हाथों औपचारिक तौर पर बिकने के लिये तैयार था। यह सिर्फ दो साल पुरानी यानि 2023 की बात है।
उस वक्त भी ब्रिटिश सरकार को हस्तक्षेप कर डील रुकवानी पड़ी थी। राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रेस की आज़ादी के मामले में यूएई के खराब रिकॉर्ड का हवाला देकर ब्रिटिश सरकार ने तब हस्तक्षेप किया था। सोचिए, अगर यूएई से डील हो गई होती तो यह अख़बार सुल्तानशाही के गुण गा रहा होता। इस्लामिक कट्टरपंथ का बचाव कर रहा होता। यह अखबार मेरी निगाह में पहली बार इसी वजह से आया था।
भारतीय मूल की अनीता आनंद को कनाडा का विदेश मंत्री बनाया गया है।
हाल ही में कनाडा के आम चुनाव में लिबरल पार्टी की जीत के बाद मार्क कार्नी प्रधानमंत्री बने हैं और उन्होंने नई कैबिनेट की घोषणा की है।
पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के कार्यकाल में मेलानी जोली विदेश मंत्री थीं लेकिन मार्क कार्नी ने उनकी जगह अनीता आनंद को चुना। पीएम कार्नी ने मेलानी जोली को उद्योग मंत्री बनाया है।
अनीता आनंद इससे पहले रक्षा मंत्री समेत कई जि़म्मेदारियां संभाल चुकी हैं। ट्रूडो की कैबिनेट की तरह मार्क कार्नी के कैबिनेट में भी महिलाओं की हिस्सेदारी आधी है।
विदेश मंत्री चुने जाने पर अनीता आनंद ने एक्स पर लिखा, ‘मुझे कनाडा के विदेश मंत्री के रूप में नियुक्त किया जाना सम्मान की बात है। मैं कनाडा के लोगों के लिए एक सुरक्षित, निष्पक्ष दुनिया बनाने और उन्हें बेहतर सेवाएं देने के लिए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी और हमारी टीम के साथ मिलकर काम करने के लिए उत्सुक हूँ।’
ट्रूडो के कार्यकाल में भारत और कनाडा के रिश्तों में तल्खी देखने को मिली थी लेकिन मार्क कार्नी ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान और जीत के बाद इन रिश्तों में सुधार लाने की उत्सुकता ज़ाहिर की थी।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक्स पर अनीता आनंद को कनाडा का विदेश मंत्री बनाए जाने पर बधाई दी है।
कार्नी की नई कैबिनेट
चुनाव जीतने के दो सप्ताह बाद कार्नी ने कैबिनेट में बदलाव किया है जिनमें चंद पुराने चेहरों के अलावा कई नए चेहरे हैं।
पत्रकारों से बात करते हुए कार्नी ने नई कैबिनेट को ‘अहम पल में हालात संभालने वाली टीम’ कहा।
कार्नी की नई कैबिनेट में 28 मंत्री और 10 राज्यमंत्री हैं। 24 नए चेहरों में 13 पहली बार के सांसद हैं। मेलानी जोली और क्रिस्टिया फ्ऱीलैंड जैसे पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो सरकार में शामिल रहे पुराने लोगों को कैबिनेट में जगह मिली है।
अमेरिका और कनाडा में व्यापार को लेकर चल रहे तनाव के बीच विदेश मंत्री के रूप में अनीता आनंद की भूमिका अहम होने वाली है।
उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के मुख्य न्यायाधीश के पद पर जस्टिस गवई 14 मई से अपना कार्यभार ग्रहण करेंगे। वो भारत के 52वें सीजेआई (मुख्य न्यायधीश) होंगे।
उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 साल है।
मौजूदा मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल आज यानी 13 मई को समाप्त हो रहा है।
उन्होंने ही अगले सीजेआई के रूप में जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई (बीआर गवई) के नाम की सिफ़ारिश की थी।
देश के दूसरे दलित सीजेआई
जस्टिस बीआर गवई देश के दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश होंगे। जस्टिस गवई से पहले जस्टिस केजी बालाकृष्णन 2007 में पहले दलित सीजेआई बने थे।
जस्टिस बीआर गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ था और उन्होंने 1985 में अपने कानूनी करियर की शुरुआत की थी।
उच्चतम न्यायालय की वरिष्ठता सूची में जस्टिस गवई का नाम सबसे ऊपर है इसलिए जस्टिस खन्ना ने उनका नाम आगे बढ़ाया है।
जस्टिस गवई का कार्यकाल 23 नवंबर 2025 तक होगा। यानी वह इस पद से करीब सात महीने में ही रिटायर हो जाएंगे।
1985 से शुरू की वकालत
महाराष्ट्र के अमरावती से आने वाले जस्टिस बीआर गवई 16 मार्च 1985 को बार में शामिल हुए।
1987 तक उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व एडवोकेट जनरल और जज राजा एस भोंसले के साथ काम किया।
1990 के बाद उन्होंने मुख्य रूप से संवैधानिक और प्रशासनिक कानून में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में प्रेक्टिस की।
इस दौरान वह नागपुर नगर निगम, अमरावती नगर निगम और अमरावती विश्वविद्यालय के स्थायी वकील भी रहे।
अगस्त 1992 से जुलाई 1993 तक गवई को बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ में सहायक सरकारी वकील और अतिरिक्त लोक अभियोजक नियुक्त किया गया।
उन्हें 17 जनवरी 2000 से सरकारी वकील और लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया गया।
14 नवंबर 2003 को उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।
12 नवंबर 2005 को जस्टिस बीआर गवई उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश बनाए गए।
24 मई 2019 को वह उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बनाए गए।
संविधान पीठ के बड़े फैसलों में रहे शामिल
जस्टिस बीआर गवई उच्चतम न्यायालय की कई संविधान पीठ का हिस्सा रहे। इस दौरान वह कई ऐतिहासिक फ़ैसलों का हिस्सा बने।
वह पांच न्यायाधीशों की पीठ के सदस्य रहे जिसने सर्वसम्मति से केंद्र के 2019 के फैसले को बरकरार रखा। केंद्र ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया था जिसके तहत जम्मू और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था।
जस्टिस गवई पांच न्यायाधीशों की उस पीठ का भी हिस्सा रहे जिसने राजनीतिक फंडिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया था।
जस्टिस गवई उस पीठ का भी? हिस्सा थे जिसने एक के मुकाबले चार के बहुमत से केंद्र सरकार के 2016 के 1,000 रुपये और 500 रुपये के नोटों को बंद करने के फैसले को बरकरार रखा था।
जस्टिस गवई सात न्यायाधीशों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा थे जिसने एक के मुक़ाबले छह के बहुमत से यह फैसला सुनाया था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है।
नवंबर 2024 में जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की पीठ ने आरोपियों की संपत्तियों पर बुलडोजर के इस्तेमाल की आलोचना की।
इस मामले में उन्होंने फ़ैसला सुनाया कि उचित प्रकिया का पालन किए बिना किसी की भी संपत्तियों को ध्वस्त करना क़ानून के विपरीत है।
-सलमान रावी
बांग्लादेश की तीन बार प्रधानमंत्री रह चुकीं ख़ालिदा जिय़ा बांग्लादेश लौट चुकी हैं। इसके साथ ही देश की अंतरिम सरकार और ख़ास तौर पर उसके सलाहकार मोहम्मद यूनुस पर अब आम चुनाव करवाने का दबाव बढऩे लगा है।
पिछले साल 8 अगस्त को छात्रों के प्रदर्शन और हिंसा के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को देश छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा था।
हसीना फिलहाल भारत में रह रही हैं।
वहीं ख़ालिदा जिय़ा बीमारी का इलाज कराने लंदन गई हुई थीं, जहां से वो पिछले सप्ताह वापस अपने देश लौट गई हैं।
‘नेशनल सिटीजन पार्टी’ का उदय
बांग्लादेश में राजनीतिक दलों की अगर बात की जाए तो प्रमुख रूप से 'बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी' और 'अवामी लीग' के बीच मुकाबला रहा है। लेकिन इन दोनों के अलावा जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का भी देश की राजनीति में ख़ासा महत्वपूर्ण स्थान है।
छात्र आंदोलन के बाद देश में एक 'नेशनल सिटीजन पार्टी' का भी उदय हुआ जिसके संयोजक नाहिद इस्लाम हैं।
इन्हीं के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के खि़लाफ़ पिछले साल जुलाई में प्रदर्शन हुए थे।
ढाका से प्रकाशित दैनिक 'डेली स्टार' से बातचीत के दौरान बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के महासचिव मिजऱ्ा फख़रुल इस्लाम आलमगीर ने कहा कि ख़ालिदा जिय़ा के वापस वतन लौटने से ‘अब लोकतंत्र की राह आसान हो गयी है।’
अंतरिम सरकार का हनीमून ख़त्म
शेख़ हसीना के देश छोडक़र जाने के बाद अंतरिम सरकार के सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने कहा था कि वो साल 2026 की शुरुआत में ही देश में चुनाव करवा लेंगे। लेकिन उससे पहले वो चाहते हैं कि देश के संविधान में संशोधन किया जाए जिसको लेकर कई समितियां भी बनायी गई हैं।
उन्होंने टेलीविजऩ के ज़रिये अपने देश को संबोधित करते हुए स्पष्ट किया था कि संविधान के अलावा देश में और भी सुधारों की ज़रूरत है।
इन सुधारों के बाद चुनाव का रास्ता प्रशस्त हो जाएगा।
लेकिन ‘डेली स्टार’ में ही प्रकाशित अपने लेख में अमेरिका में रहने वाले बांग्लादेश के चर्चित राजनीतिक विश्लेषक एहतेशाम-उल-हक़ कहते हैं कि अब तो ‘बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के लिए हनीमून का समय भी ख़त्म हो गया है।’
उनका कहना है, ‘लोकतंत्र पर विश्वास रखने वाले हर बांग्लादेश के नागरिक की ये प्राथमिकता होनी चाहिए कि देश में जल्द से जल्द आम चुनाव संपन्न हो और बांग्लादेश फिर से विश्व के लोकतांत्रिक देशों में शुमार किया जाने लगे। सुधार तो होते रहेंगे। ’
‘अगर जल्द चुनाव नहीं होंगे तो वो उसी तरह की बात होगी जो आरोप शेख़ हसीना पर लगे थे कि वो चुनावों के परिणाम से डरती हैं। इसलिए उनकी पार्टी पर चुनावी धांधली के भी आरोप लगे।’
वो लिखते हैं कि ‘खऱाब राजनीति’ की सिर्फ एक ही दवा है- ‘अच्छी राजनीति’। वो ये भी कहते हैं कि 15 सालों की जो ‘तानाशाही बांग्लादेश में रही है’ उसका जवाब ही ‘निष्पक्ष चुनाव हैं।
बयान में क्या कहा गया?
बीते हफ्ते बांग्लादेश के विभिन्न राजनीतिक दल और संगठनों ने अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया।
शनिवार को ढाका के शाहबाग़ में मोहम्मद यूनुस के घर के सामने विभिन संगठनों के प्रदर्शन के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने शेख़ हसीन की पार्टी अवामी लीग की सभी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया है।
अंतरिम सरकार के प्रेस विंग ने अपने बयान में कहा, ‘एडवाइजऱी काउंसिल की मीटिंग में अवामी लीग की ऑनलाइन समेत सभी गतिविधियों को बैन करने का फै़सला लिया गया है। ये फै़सला तब तक लागू रहेगा जब तक बांग्लादेश अवामी लीग और उसके नेताओं के ख़िलाफ़ इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल एक्ट में मुक़दमा पूरा नहीं हो जाता।’
58 प्रतिशत लोग इसी साल चाह रहे हैं चुनाव
अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन और रिसर्च की संस्था ‘इन्नोविजऩ कंसल्टिंग’ ने हाल ही में बांग्लादेश में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को साझा किया।
इसमें बताया गया है, ‘सर्वेक्षण में भाग लेने वालों में 58 प्रतिशत लोगों का कहना था कि देश में आम चुनाव इसी साल होने चाहिए।’
ये सर्वेक्षण इस साल फरवरी और मार्च के बीच किया गया है जिसकी जानकारी हाल ही में संस्था के प्रबंध निदेशक रुबाइयात सरवर ने ढाका में आयोजित किये गए एक संवाददाता सम्मेलन में साझा किया।
उन्होंने कहा कि ये सर्वेक्षण देश के 64 जिलों में किया गया जिसमें हिस्सा लेने वाले 75 प्रतिशत लोगों की उम्र 45 वर्ष से कम थी। लेकिन सर्वेक्षण में चौंका देने वाली बात ये सामने आई कि इतने हिंसक प्रदर्शनों और प्रतिबंध की मांग के बावजूद अवामी लीग की तरफ़ 14 प्रतिशत जबकि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की तरफ़ 41.7 प्रतिशत लोगों का रुझान नजर आया।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने सोमवार को देश की शरणार्थी नीति सख्त बनाने की घोषणा की है। ब्रिटेन शरणार्थियों पर रोक लगा कर देश में दक्षिणपंथ के लिए बढ़ते समर्थन पर लगाम कसना चाहता है।
(dw.comhi)
नई शरणार्थी नीति के जरिए ब्रिटेन ‘आखिरकार सीमाओं का नियंत्रण वापस लेने’ की तैयारी कर रहा है। लेबर पार्टी के नेता स्टार्मर ने घोषणा की है कि वे ‘खुली सीमाओं के प्रयोग’ को खत्म कर रहे हैं। पिछली रुढि़वादी सरकार के दौर में ब्रिटेन में करीब 10 लाख और आप्रवासी आ गए। रुढि़वादी सरकार को पिछले आम चुनाव में हार मिली थी।
आप्रवासन घटाने पर जोर
सरकार ने आप्रवासन नीति पर जो दस्तावेज पेश किया है उसमें विदेशी केयर वर्करों की संख्या घटाने की बात है। इसके साथ ही ब्रिटेन में बसने या फिर नागरिकता के लिए जरूरी समय सीमा को पांच साल से बढ़ाकर 10 साल करने की बात है। इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा ज्ञान के नियमों को भी सख्त बनाया जा रहा है। सभी वयस्क आश्रितों को इसकी बुनियादी समझ दिखानी होगी। इतना ही नहीं छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के बाद ब्रिटेन में रहने के लिए मिलने वाली अवधि को भी घटाया जा रहा है। भारत समेत कई देशों के नागरिक इससे प्रभावित होंगे।
स्टार्मर ने कहा है कि ये नीतियां, ‘आखिरकार हमारे देश की सीमाओं का नियंत्रण’ अपने हाथ में ले लेंगी। यह वही नारा है जो 2016 में यूरोपीय संघ से बाहर निकलने से पहले देश में गूंजा था। लेबर पार्टी ने पिछले साल अपने चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि वह आप्रवासियों की संख्या को प्रमुख रूप से घटाएगी। पिछले साल जून से पहले के 12 महीनों में यह संख्या7,28,000 थी। 2023 में यह संख्या सबसे ज्यादा 9,06,000 पर पहुंच गई थी। 2010 के दशक के ज्यादातर सालों में यह संख्या औसत रूप से करीब 2,00,000 थी।
दक्षिणपंथी राजनीति का बढ़ती लोकप्रियता
स्टार्मर राजनीति में उतरने से पहले मानवाधिकार मामलों के वकील थे। उन्होंने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में रहने के पक्ष में वोट दिया था। बीते कुछ समय से स्टार्मर पर दबाव बढ़ गया है। हाल ही में ब्रिटेन की आप्रवासी विरोधी रिफॉर्म पार्टी को स्थानीय चुनावों में बड़ी सफलता मिली।
यूरोपीय संघ के प्रति आशंकित रहने वाले निगेल फराज की पार्टी ने 670 से ज्यादा स्थानीय परिषदों की सीटें जीत ली और पहली बार दो मेयर पद का चुनाव भी जीता। पार्टी राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में भी काफी आगे चल रही है जबकि लेबर पार्टी को संघर्ष करना पड़ रहा है। स्टार्मर का आप्रवासियों के खिलाफ कदम उठाना लेबर पार्टी के उदारवादी समर्थकों को उनसे दूर कर सकता है। उदारवादी वामपंथी धड़े में लिबरल डेमोक्रैटिक पार्टी और ग्रीन पार्टी के वोट बढ़ रहे हैं।
प्रधानमंत्री का कहना है कि आप्रवासी ब्रिटेन में, ‘विशाल योगदान’ करते हैं। हालांकि उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि देश ने अगर ज्यादा नियंत्रण नहीं लागू किए तो यह ‘अपरिचितों का द्वीप’ बन जाएगा। उनका कहना है कि वह 2029 में अगले आम चुनाव से पहले आप्रवासन को ‘प्रमुखता’ से घटाना चाहते हैं, लेकिन कितना यह नहीं बताया।
-संजय दुबे
10 मई 2025 को भारत और पाकिस्तान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत हुई और चार दिन के तनावपूर्ण संघर्ष के बाद दोनों देश युद्धविराम के लिए तैयार हो गए. दिलचस्प बात यह रही कि इसकी घोषणा इन दोनों में से किसी देश ने नहीं की. इसकी जानकारी भारत और पाकिस्तान के लोगों को भी सबसे पहले अमेरिका से मिली. पहले डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर इसकी घोषणा की और उसके बाद अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने इसकी पुष्टि की. इसके बाद भारत और पाकिस्तान ने भी सीज़फायर की घोषणा कर दी, हालांकि दोनों ने इसे अपने-अपने तरीके से दुनिया के सामने रखा. पाकिस्तान ने सार्वजनिक रूप से इसके लिए अमेरिका और ट्रंप को धन्यवाद कहा, वहीं भारत ने सीज़फायर की जानकारी देते हुए अमेरिका की भूमिका का कोई ज़िक्र नहीं किया.
इस पृष्ठभूमि में एक सवाल खड़ा होता है —पहले ख़ुद को भारत-पाकिस्तान संघर्ष से दूर दिखाने वाले ट्रंप प्रशासन ने अचानक इसका पूरा श्रेय कैसे ले लिया? इस सीज़फायर से दो दिन पहले ही अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वांस ने भारत-पाक संघर्ष पर साफ़ कहा था कि अमेरिका ‘इस तरह के टकराव में नहीं पड़ेगा, जो हमारी चिंता का विषय नहीं है.’ मगर सीज़फायर की घोषणा के कुछ देर बाद उनका कहना था — ‘राष्ट्रपति की टीम, ख़ास तौर पर विदेश मंत्री रूबियो ने इस मामले में शानदार काम किया है.’
ऊपर किये गए सवाल का जवाब अमेरिका की विदेश नीति से जुड़ी मजबूरियों और घरेलू राजनीतिक समीकरणों के मेल में छिपा है जिसे बिंदुवार समझने की कोशिश करते हैं:
1. यूक्रेन मामले में विफलता
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत इस दावे के साथ की थी कि वे यूक्रेन युद्ध को कुछ ही दिनों में खत्म करा देंगे. लेकिन तब से अब तक कई महीने बीत चुके हैं और तमाम खुली और गुप्त कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद उनका प्रशासन कीव और मॉस्को के बीच आंशिक युद्धविराम तक नहीं करवा सका है. इस कूटनीतिक विफलता ने ट्रंप की जटिल मामलों को समझने और उन्हें हल करने की क्षमता पर सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम ट्रंप प्रशासन के लिए एक बड़ी वैश्विक ‘सफलता’ का संदेश देने का अच्छा अवसर बन गया.
2. वैश्विक साख और परंपरागत सहयोगियों से अलगाव
ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति ने अमेरिका की वैश्विक साख को जबर्दस्त क्षति पहुंचाई है. उनके प्रशासन ने पेरिस जलवायु समझौता, विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जैसी अहम् अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और समझौतों से अमेरिका को अलग कर लिया. इसके चलते वैश्विक नेतृत्व करने वाली अमेरिकी छवि धूमिल हुई है और इससे बनी खाली जगह को भरने की कोशिश चीन जैसे उसके प्रतिद्वंद्वी देश करने लगे हैं.
उधर, डोनाल्ड ट्रंप की लेन-देन वाली विदेश नीति ने भी यूरोप और अन्य परंपरागत सहयोगियों के साथ अमेरिका के संबंधों में खटास पैदा की है. इसके चलते अमेरिका के सहयोगी रहे देश भी सामूहिक सुरक्षा को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने लगे हैं. इस पृष्ठभूमि में भारत-पाक युद्धविराम अमेरिका के लिए अपनी प्रासंगिकता और वैश्विक भूमिका का भरोसा फिर से जताने का एक दुर्लभ मौका बन गया.
- सौतिक बिस्वास और विकास पांडे
नाटकीय घटनाक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शनिवार को सोशल मीडिया पर घोषणा की कि चार दिनों तक सीमा पर संघर्ष के बाद भारत और पाकिस्तान ‘पूर्ण और तत्काल संघर्ष विराम’ पर सहमत हो गए हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि पर्दे के पीछे क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अमेरिकी मध्यस्थों ने डिप्लोमैटिक बैकचैनल्स के माध्यम से युद्ध के कगार पर खड़े परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को पीछे खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि, संघर्ष विराम समझौते के कुछ ही घंटों बाद भारत और पाकिस्तान के बीच इसके उल्लंघन के आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए। इससे एक बार फिर स्थिति काफ़ी नाजुक हो गई।
भारत ने पाकिस्तान पर ‘बार-बार उल्लंघन’ का आरोप लगाया, जबकि पाकिस्तान ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वह संघर्ष विराम के प्रति प्रतिबद्ध है और उसकी सेनाएं ‘जि़म्मेदारी और संयम’ दिखा रही हैं।
ट्रंप की संघर्ष विराम घोषणा से पहले, भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध उस दिशा में बढ़ रहे थे, जिसके बारे में कई लोगों को आशंका थी कि यह एक पूर्ण संघर्ष बन सकता है।
पिछले महीने जम्मू-कश्मीर में एक घातक हमले में 26 पर्यटकों की मौत के बाद भारत ने पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में हवाई हमले शुरू कर दिए। इसके बाद कई दिनों तक हवाई झड़पें, तोपों से गोलाबारी हुई और शनिवार की सुबह तक दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे के हवाई ठिकानों पर मिसाइल हमलों के आरोप लगाए गए।
बयानबाज़ी बहुत तेज़ी से बढ़ गई और दोनों देशों ने एक दूसरे के हमलों को विफल करते हुए भारी क्षति पहुंचाने का दावा किया।
अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब की क्या भूमिका?
वॉशिंगटन डीसी स्थित ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन की वरिष्ठ फ़ैलो तन्वी मदान का कहना है कि अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो का 9 मई को पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर को किया गया फोन कॉल ‘संभवत: निर्णायक बिंदु रहा होगा।’
वह कहती हैं, ‘विभिन्न अंतरराष्ट्रीय नेताओं की भूमिका के बारे में हम अभी भी बहुत कुछ नहीं जानते हैं, लेकिन पिछले तीन दिनों में यह स्पष्ट हो गया है कि कम से कम तीन देश तनाव कम करने के लिए काम कर रहे थे- अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब।’
पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक़ डार ने पाकिस्तानी मीडिया को बताया कि इस कूटनीति में ‘तीन दर्जन देश’ शामिल हैं - इनमें तुर्की, सऊदी अरब और अमेरिका भी शामिल हैं।
मदान कहती हैं, ‘अगर ये (अमेरिकी विदेश मंत्री की) कॉल शुरुआत में ही की गई होती तो संघर्ष इतना नहीं बढ़ता।’
यह पहली बार नहीं है जब अमेरिकी मध्यस्थता ने भारत-पाकिस्तान संकट को कम करने में मदद की है।
पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने अपनी किताब में दावा किया था कि उन्हें 'भारतीय समकक्ष' ने एक बार बात करने के लिए जगाया था, जिन्हें डर था कि पाकिस्तान 2019 के गतिरोध के लिए परमाणु हथियार तैयार कर रहा है।
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने क्या बताया?
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने बाद में लिखा कि माइक पॉम्पियो ने परमाणु युद्ध के ख़तरे और संघर्ष को शांत कराने में अमेरिका की भूमिका दोनों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया।
हालांकि, राजनयिकों का कहना है कि इस संकट को टालने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसमें कोई संदेह नहीं है।
अजय बिसारिया ने बीबीसी को शनिवार को बताया, ‘अमेरिका यहां सबसे मुख्य बाहरी प्लेयर है। पिछली बार पोम्पिओ ने दावा किया था कि उन्होंने दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध टलवा दिया था। संभव है कि अमेरिकियों ने दिल्ली की पॉजि़शन को इस्लामाबाद तक पहुँचाने में कूटनयिक रोल अदा किया हो। ’
हालांकि शुरुआत में अमेरिका का रुख़ अलग-थलग सा दिखाई दिया था। जैसे ही तनाव बढ़ा अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस ने बृहस्पतिवार को कहा, ‘अमेरिका उस युद्ध में शामिल नहीं होने जा रहा है, ये हमारा काम नहीं है।’
उन्होंने टेलीविजऩ पर एक साक्षात्कार में कहा था, ‘हालाँकि हम इन देशों को नियंत्रित नहीं कर सकते। मूल रूप से, भारत को पाकिस्तान से शिकायतें हैं।।। अमेरिका भारत को हथियार डालने के लिए नहीं कह सकता। हम पाकिस्तानियों को हथियार डालने के लिए नहीं कह सकते। और इसलिए हम कूटनीतिक माध्यमों का सहारा लेंगे।’
इसी बीच, राष्ट्रपति ट्रंप ने इस सप्ताह की शुरुआत में कहा था, ‘मैं दोनों (भारत और पाकिस्तान के नेताओं) को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, और मैं उन्हें इसे सुलझाते हुए देखना चाहता हूं... मैं उन्हें रुकते हुए देखना चाहता हूं, और उम्मीद है कि वे अब रुक जाएंगे।’ लाहौर में रक्षा विश्लेषक एजाज़ हैदर ने बीबीसी को बताया कि हालिया मामला पिछली घटनाओं से अलग जान पड़ता है।
हैदर ने बीबीसी को बताया, ‘अमेरिका की भूमिका पिछले पैटर्न की तरह ही है, लेकिन इस बार एक महत्वपूर्ण अंतर है, उन्होंने शुरुआत में दूरी बनाए रखी। तुरंत हस्तक्षेप करने से पहले उन्होंने संकट को बढ़ते देखा, और जब उन्होंने ये देख लिया कि स्थिति किस ओर जा रही है तब उन्होंने इसे रोकने के लिए कदम उठाया।’
पाकिस्तान से क्या संकेत मिले?
पाकिस्तान में विशेषज्ञों का कहना है कि जब तनाव बढ़ा तो पाकिस्तान ने 'दोहरे संकेत' दिए - एक तरफ़ सैन्य जवाबी कार्रवाई और दूसरी तरफ़ नेशनल कमांड अथॉरिटी (एनसीए) की बैठक बुलाना जो कि परमाणु क्षमता की याद दिलाने का संकेत देना था।
पाकिस्तान कमांड ऑथोरिटी, देश के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण रखती है और उसके इस्तेमाल संबंधी फ़ैसले लेती है।
यह वही समय था जब अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने हस्तक्षेप किया।
कार्नेगी एनडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के एक वरिष्ठ फ़ैलो एशले जे टेलिस ने बीबीसी को बताया, ’अमेरिका का इससे बाहर रहना मुमकिन ही नहीं था। विदेश मंत्री रुबियो के प्रयासों के बिना ये चीज़ नहीं हो पाती।’ इस बात में जिस एक चीज़ ने और मदद की वो है अमेरिका का भारत के साथ गहरा होता संबंध।
पीएम नरेंद्र मोदी के ट्रंप के साथ व्यक्तिगत संबंध, इसके साथ ही अमेरिका के व्यापक रणनीतिक और आर्थिक हितों ने अमेरिकी प्रशासन को दोनों परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को तनाव कम करने की दिशा में कूटनीतिक बढ़त दी।
भारतीय राजनयिक इस बार तीन प्रमुख शांति प्रयासों को देखते हैं, जैसा कि 2019 में पुलवामा-बालाकोट के बाद हुआ था।
शनिवार शाम को भारत और पाकिस्तान के बीच हमले रोकने को लेकर सहमति बनने के बाद रविवार को भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी का एक्स सोशल मीडिया हैंडल प्रोटेक्टेड मोड में दिखने लगा है। इसका मतलब है कि अब उनके ट्वीट पर कोई कमेंट नहीं कर सकता।
भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष के दौरान विक्रम मिसरी लगातार मीडिया के सामने सरकार का पक्ष रख रहे थे। शनिवार को हमले रोकने पर सहमति की घोषणा विक्रम मिसरी ने ही की थी। इसके बाद से सोशल मीडिया पर कई लोग विक्रम मिसरी को निशाना बना रहे थे।
सोशल मीडिया पर विदेश सचिव विक्रम मिसरी पर हो रहे कमेंट के बाद कई लोग विक्रम मिसरी के पक्ष में पोस्ट करते दिख रहे हैं।
संयुक्त अरब अमीरात में भारत के पूर्व राजदूत नवदीप सुरी ने लिखा, ‘ट्रोल्स विदेश सचिव विक्रम मिसरी और उनके परिवार को निशाना बना रहे हैं और यह देखना सच में बहुत घिनौना है। वो पेशेवर, शांत, कम्पोज़्ड, नपे-तुले और स्पष्ट बोलने वाले हैं। ’
विक्रम मिसरी के समर्थन में उतरे लोग
नवदीप सुरी ने लिखा है, ‘लेकिन उनके यह गुण हमारे समाज के कुछ लोगों के लिए काफ़ी नहीं है, यह शर्मनाक है।’
वहीं विदेश नीति विश्लेषक इंद्राणी बागची ने लिखा है, ‘विक्रम मिसरी एक प्रतिष्ठित राजनयिक हैं जो विदेश मंत्रालय का नेतृत्व करते हैं। क्योंकि आप अपनी कल्पना में एक अलग भारत-पाकिस्तान वीडियो गेम खेल रहे थे, इसलिए उनके परिवार को ट्रोल करना न केवल घटियापन है, बल्कि यह उस गंदी मानसिकता को दिखाता है जिसके बिना यह देश चल सकता है।’
वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी ने लिखा है, ‘जो लोग इस संघर्ष के समय में उम्दा काम करने वाले बेहतरीन विदेश सचिव विक्रम मिसरी को ट्रोल कर रहे हैं, वो इंसान के रूप में कचरा हैं।’
एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी विक्रम मिसरी के बारे में सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट किया है और लिखा है, ‘विक्रम मिसरी शालीन और ईमानदार हैं। वो कठिन परिश्रम करने वाले राजनयिक हैं जो बिना थके देश के लिए काम कर रहे हैं।’
ओवैसी ने लिखा है, ‘यह याद रखा जाना चाहिए कि हमारे सिविल सर्वेंट कार्यपालिका के अधीन काम करते हैं और देश चलाने वाली कार्यपालिका या राजनीतिक नेतृत्व के फैसलों के लिए उन्हें निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए।’
कांग्रेस पार्टी की केरल इकाई ने भी इस मुद्दे पर सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट किया है। इसमें आरोप लगाया गया है कि पिछले हफ्ते ‘नफरत न फैलाने और हिंसा न करने की अपील’ करने की वजह से एक सैनिक की पत्नी, हिमांशी नरवाल को सोशल मीडिया पर निशाना बनाया गया था।
केरल कांग्रेस ने लिखा है, ‘अब ये लोग विदेश सचिव विक्रम मिसरी पर निशाना साध रहे हैं, जैसे कि उन्होंने ही एकतरफा सीजफायर का फैसला लिया हो, न कि मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह या जयशंकर ने।’
-उमंग पोद्दार
सांसदों और विधायकों की तरह सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक करने की मांग लंबे समय से की जा रही थी। अब इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने अहम कदम उठाया है।
दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर में आग लगने और वहां कथित तौर पर भारी मात्रा में नक़दी मिलने की घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला लिया। 14 मार्च को यह घटना हुई थी। इसके बाद पारदर्शिता को लेकर जूडिशियरी पर देशभर में बहस शुरू हो गई थी।
इसके कुछ दिन बाद, 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट मीटिंग में यह तय किया गया कि सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी भारत के चीफ़ जस्टिस को देनी होगी और यह जानकारी कोर्ट की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से पब्लिश भी की जाएगी।
अब तक जज अपनी संपत्ति की जानकारी सिफऱ् चीफ़ जस्टिस को सौंपते थे, लेकिन उसे वेबसाइट पर डालना ज़रूरी नहीं था। हाई कोर्ट में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है यानी जज अपनी संपत्ति की जानकारी हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस को देते हैं, लेकिन वेबसाइट पर इसे तभी पब्लिश किया जाता है जब जज ख़़ुद इसकी अनुमति दें।
5 मई की रात को सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर कोर्ट के 33 में से 21 जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक कर दी गई।
कोर्ट की ओर से बताया गया कि बाकी जजों की जानकारी प्रक्रिया में है और वह भी वेबसाइट पर अपलोड की जाएगी।
घोषित संपत्ति ब्योरे में ज़मीन, निवेश, चल संपत्ति, कज़ऱ् और जज के जीवनसाथी और बच्चों की संपत्ति की जानकारी शामिल है।
कई सालों से लगातार होती आई है ये मांग
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति को सार्वजनिक करने की मांग कोई नई नहीं है। 1997 में सुप्रीम कोर्ट की एक फुल कोर्ट मीटिंग में तय किया गया था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को हर साल अपनी संपत्ति की जानकारी चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया को देनी होगी। हालांकि, ये भी तय किया गया था कि इस जानकारी को गोपनीय रखा जाएगा।
बाद में, 2009 की एक और फुल कोर्ट मीटिंग में फैसला हुआ कि जज अगर चाहें तो अपनी संपत्ति की घोषणा सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर कर सकते हैं। लेकिन यह पूरी तरह उनकी सहमति पर निर्भर होगा। हाल ही में आई संसद की स्थायी समिति (133वीं रिपोर्ट) ने बताया कि अब तक केवल 55 सुप्रीम कोर्ट जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा ख़ुद सार्वजनिक की है। आखऱिी बार यह घोषणा मार्च 2018 में हुई थी।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था, ‘अगर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करें तो इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता बढ़ेगी।’
इस साल 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की हुई फुल कोर्ट मीटिंग में जो निर्णय लिया गया, उसका आधिकारिक रेज़ोल्यूशन अब तक कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया गया है। इसलिए ये साफ़ नहीं है कि हाई कोर्ट के जजों पर भी यह नियम अनिवार्य होगा या नहीं।
हालांकि, परंपरा यही रही है कि हाई कोर्ट आमतौर पर वही दिशा अपनाते हैं जो सुप्रीम कोर्ट लेता है। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अब हाई कोर्ट के जज भी सार्वजनिक घोषणा की तरफ़ बढ़ेंगे। 2023 में द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से पता चला था कि उस वक़्त देशभर में कुल 749 हाई कोर्ट जजों में से सिफऱ् 98 ने ही अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक की थी।
धूम्रपान करने वालों के लिए वेपिंग और ई-सिगरेट को लंबे समय से सुरक्षित विकल्प माना जाता रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इनके इस्तेमाल से फेफड़े खराब नहीं होते हैं?
डॉयचे वैले पर एमी स्टॉकडेल का लिखा-
संयुक्त राज्य अमेरिका में एक 17 वर्षीय लडक़ी पिछले तीन साल से चोरी-छिपे वेपिंग कर रही थी। हाल ही में पता चला है कि उसे ‘पॉपकॉर्न लंग' नामक बीमारी हो गई है। ब्रोंकियोलाइटिस ओब्लिटरन्स के रूप में जानी जाने वाली यह लाइलाज स्थिति फेफड़ों में छोटी वायु थैलियों (ब्रोंकिओल्स) पर निशान छोड़ देती है, जिससे व्यक्ति की सांस लेने की क्षमता कम हो जाती है।
हालांकि यह मामला दुर्लभ है, लेकिन यह बड़ी समस्या की ओर इशारा कर सकता है। 2019 में, ई-सिगरेट या वेपिंग उत्पादों के इस्तेमाल की वजह से फेफड़ों में नुकसान (इसे ईवीएएलआई भी कहा जाता है) के लगभग 3,000 मामले यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल को रिपोर्ट किए गए थे। इस वजह से 68 लोगों की मौत हो गई, जिनमें ज्यादातर किशोर और युवा थे।
आयरलैंड के आरसीएसआई यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन एंड हेल्थ साइंसेज में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर डोनल ओ'शे ने कहा, ‘कभी-कभी कुछ सबसे गंभीर मामले सुर्खियों में आ जाते हैं, लेकिन इन सबके पीछे छिपी हुई बात यह है कि वेपिंग करने वालों के फेफड़ों को धीरे-धीरे और लंबे समय तक नुकसान हो रहा है।’
हालांकि, वेपिंग को कभी-कभी सामान्य सिगरेट की तुलना में एक सुरक्षित विकल्प बताया जाता है, लेकिन वैज्ञानिक इस बात से परेशान हैं कि फेफड़ों की सेहत पर इसका लंबे समय में क्या असर होगा, इसके बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।
वेप करने पर क्या होता है?
जब आप वेप से हवा अंदर खींचते हैं, तो बैटरी एक धातु की तार को गरम करती है और इससे अंदर मौजूद लिक्विड गर्म होता है। इससे भाप जैसा बनता है जिसे फेफड़ों में लिया जाता है।
वेप के लिक्विड में निकोटीन साल्ट और खुशबू (फ्लेवर) के साथ कई तरह के केमिकल मिले होते हैं। जब ये सब एक साथ मिलते हैं तो हजारों अलग-अलग तरह के केमिकल बन सकते हैं।
कोई नहीं जानता कि जब ये गरम केमिकल सांस के साथ फेफड़ों में जाते हैं तो क्या होता है। डोनल ने कहा, ‘जिस चीज को कभी टेस्ट नहीं किया गया है वह यह है कि इन केमिकल को एक मशीन में डालकर गरम करके सांस के साथ अंदर लेने पर क्या होगा। आप कोई भी केमिकल या चीज अपने शरीर में कैसे डालते हैं, इससे यह तय होता है कि वह कितना जहरीला हो सकता है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह रसायन सबसे पहले किसके संपर्क में आएगा? यह संवेदनशील फेफड़े के नाजुक टिश्यू के संपर्क में आएगा जो खराब होने के बाद ठीक नहीं होते। इसी वजह से कई सालों में फेफड़ों के टिश्यू पर जो लम्बे समय तक निशान पड़ते रहेंगे या नुकसान होता रहेगा, आखिर में वो पॉपकॉर्न लंग बन जाएगा।’
क्या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है वेपिंग?
शोधकर्ता अभी भी यह पता लगा रहे हैं कि वेपिंग का इंसानी शरीर पर क्या असर होता है, लेकिन कुछ चिंताजनक नतीजे सामने आ रहे हैं। अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि वेपिंग से फेफड़ों में सूजन होती है। उपयोगकर्ताओं को खांसी, गले में जलन और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत होती है।
डोनल ने कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से, यह साबित करने में कई दशक लग गए कि तंबाकू वाले उत्पादों का धूम्रपान करने से बीमारियां होती हैं। इन उत्पादों को बेचने वाली कंपनियां इस बात से इनकार करती हैं कि इनसे कोई नुकसान होता है। दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि हम वेपिंग के मामले में इतिहास को खुद को दोहराने दे रहे हैं।
वैज्ञानिक और डॉक्टर इस बात को लेकर परेशान हैं कि वेपिंग से लंबे समय में सेहत पर क्या असर होगा, इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। सामान्य सिगरेट पर तो दशकों तक अध्ययन किया गया और यह पता चला कि इसके इस्तेमाल से कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है। वहीं, वेप तो पिछले दशक में ही लोकप्रिय हुआ है। इसका मतलब है कि इससे लंबे समय में क्या असर होता है उसके बारे में ज्यादा अध्ययन नहीं हुआ है।
किशोरों में वेपिंग के खतरे
किशोरों में वेपिंग से जुड़े जोखिम भी अलग हो सकते हैं। डोनल ने बताया, ‘किशोरों में फेफड़े, हृदय और मस्तिष्क के टिश्यू अभी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए, ये जल्दी क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। इस तरह वे इन विषाक्त पदार्थों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं जिन्हें वे सांस के जरिए अपने शरीर में ले रहे होते हैं।’
ज्यादातर वेप में निकोटीन मौजूद होता है और उसकी लत लगने की काफी ज्यादा संभावना होती है। कई किशोर बताते हैं कि पिछली बार वेप करने के कुछ घंटों बाद ही उन्हें घबराहट या गुस्सा आने लगता है।
स्वास्थ्यकर्मी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि वेप्स से आसानी से निकोटीन की लत लग सकती है। डोनल कहते हैं, ‘दरअसल, हमें यह देखने को मिल रहा है कि युवा लोग बहुत जल्दी इसके आदी हो रहे हैं।’
अमेरिका में ईवीएएलआई के 3,000 मामलों में, मौत का मुख्य कारण विटामिन ई एसीटेट माना जाता है, जो चीजों को गाढ़ा करने वाला तत्व है। 2019 में, शोधकर्ताओं ने पाया कि जब इसे गर्म किया जाता है, तो यह केटीन नामक एक बहुत जहरीली गैस बनाता है जिसे सांस के जरिए अंदर लिया जा सकता है।
डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफों के चलते कई देशों में आर्थिक उठापटक चल रही है. लेकिन भारत के लिए इस आर्थिक संकट में फायदा भी हो सकता है.
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
ब्रिटेन और भारत ने 6 मई को लंबे समय से टलते आ रहे फ्री ट्रेड समझौते को आखिरकार अंजाम दे ही दिया। खास बात यह है कि यह तब हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा टैरिफ उथल-पुथल के बाद दोनों पक्षों को व्हिस्की, कारों और खाद्य पदार्थों में अपने व्यापार को बढ़ाने के प्रयासों में तेजी लाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
दुनिया की पांचवीं (भारत) और छठी (ब्रिटेन) सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच यह समझौता तीन साल की धचके भरी बातचीत के बाद संपन्न हुआ है। इसका लक्ष्य 2040 तक द्विपक्षीय व्यापार को 25।5 अरब पाउंड यानी 43 अरब डॉलर तक बढ़ाना है।
लेकिन इस फ्री ट्रेड समझौते को देखते हुए कई जानकारों का मानना है कि शायद चीन और बाकी देशों पर लगे ट्रंप के प्रतिबंध भारत के लिए एक चुनौती से ज्यादा, मौके के रूप में नजर आ रहे हैं।
भारत और ब्रिटेन के फ्री ट्रेड समझौते में क्या है खास?
2020 में ब्रिटेन के यूरोपीय संघ छोडऩे के बाद यह उसकी किसी देश के साथ अब तक की सबसे बड़ी डील मानी जा रही है। यह भारत द्वारा ऑटोमोबाइल समेत अपने लंबे समय से संरक्षित बाजारों को खोलने का प्रतीक भी है। यह दिखाता है कि एक दक्षिण एशियाई देश होकर भी भारत अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी प्रमुख पश्चिमी शक्तियों से निपटने का बूता रखता है।
भारत के व्यापार मंत्रालय ने कहा कि इस सौदे के तहत 99 फीसदी भारतीय निर्यात को शून्य शुल्क यानी जीरो ड्यूटी से लाभ होगा, जिसमें कपड़ा भी शामिल है, जबकि ब्रिटेन को 90 फीसदी टैरिफ लाइनों में छूट मिलेगी।
ट्रंप के प्रतिबंध ले आए साथ
ट्रंप के प्रतिबंधों ने दुनिया भर के देशों को नए व्यापार साझेदारों की तलाश करने पर मजबूर कर दिया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, यूके-भारत वार्ता से परिचित लोगों ने कहा कि इस आर्थिक उथल-पुथल ने इस सौदे पर फोकस और बढ़ा दिया। यह समझौता कुछ चीजों, जैसे व्हिस्की, पर टैक्स कम करेगा, जिससे वे सस्ती हो जाएंगी। इससे ब्रिटेन की कंपनियों को भारत में ठेके लेने का मौका मिलेगा, और भारतीय कामगारों को ब्रिटेन में काम करना आसान होगा। दोनों ही देशों को इस समझौते से फायदा है।
ब्रिटेन के उद्योग संगठन सीबीआई ने कहा कि यह समझौता ‘दुनिया में बढ़ते व्यापारिक प्रतिबंधों के बीच एक उम्मीद की किरण' जैसा है। व्हिस्की पर टैक्स (शुल्क) जो पहले 150 फीसदी था, वह अब आधा होकर 75 फीसदी हो जाएगा और 10 साल में धीरे-धीरे घटकर 40 फीसदी रह जाएगा।
कारों पर टैक्स जो अभी 100 फीसदी से ज्यादा है, वह भी कोटा सिस्टम के तहत घटाकर 10 फीसदी कर दिया जाएगा। स्कॉच व्हिस्की संघ ने कहा कि यह समझौता उनके उद्योग के लिए ‘बदलाव' लाएगा। ब्रिटेन की ऑटो इंडस्ट्री संस्था एसएमएमटी ने भी इस समझौते को लेकर खुशी जताई है।
दो अर्थव्यवस्थाओं की लड़ाई का फायदा
बचपन में हम सभी ने दो बिल्लियों की कहानी सुनी होगी, जिनकी लड़ाई में बंदर रोटी लेकर भाग जाता है। कुछ ऐसा ही हाल इस समय दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं – अमेरिका, चीन और भारत – का है। डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफों ने भले ही चीन समेत कई देशों की नाक में दम कर दिया हो लेकिन इसमें भारत के लिए फायदा भी छुपा है। ट्रंप ने भारत पर भी 27 फीसदी का टैरिफ लगाया था लेकिन चीन और वियतनाम जैसे बड़े प्रतिद्वंदियों की स्थिति की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है।
न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में बीजेपी नेता और सांसद प्रवीण खंडेलवाल ने कहा कि भारत के ट्रेड और व्यापार उद्योग के लिए इस समय बहुत बड़ा मौका हाथ लगा है।
भारत के लिए व्यापार में ‘खुद की सुरक्षा पहले’ आई काम
भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी और एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। लेकिन हमेशा से ही भारत वैश्विक व्यापार को लेकर सतर्क रहा है। भारत सभी देशों के उत्पादों के लिए अपने दरवाजे बहुत आराम से खोलने में हिचकिचाता आया है। इस कारण उसे कई बार वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे ही रहना पड़ा। इसे कहते हैं ‘प्रोटेक्शनिज्म’ की नीति, यानी खुद को बाहरी प्रभावों से बचाकर रखना। डॉनल्ड ट्रंप ने भी भारत को प्रतिबंधों के राजा का दर्जा दिया था, जिसके बाद भारत ने अमेरिका के लिए अपनी प्रतिबंधों की दीवार कमोबेश गिरा ही दी थी।
प्रोटेक्शनिज्म की नीती के तहत भारत के टैरिफ ऊंचे हैं और इस वजह से वैश्विक निर्यात में इसकी हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है। अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि भारत के विशाल घरेलू बाजार ने इसके विकास को बढ़ावा दिया है। इस वजह से भारत कई अन्य देशों से आगे निकला है। यह इसलिए भी है क्योंकि बाकी दुनिया में मंदी है। लेकिन ऐसे हालातों में, जहां वैश्विक व्यापार प्रतिबंधों की बड़ी चुनौती से गुजर रहा है, ऐसे में भारत की आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति एक अलग ढंग से उसका बचाव कर रही यही।
जहां कई देश अमेरिका के कभी भी लग जाने और हट जाने वाले प्रतिबंधों से निपट रहे हैं, वहीं भारत की आयत पर निर्भरता कम होने की वजह से उस पर बाकी देशों की तुलना में कम असर पड़ रहा है। बाकी देशों के विपरीत भारत ने अपने संरक्षण (खासकर कृषि और वाहन) के चलते बाहर से आई चीजें भारत में लाने से बचता रहा। इससे नुकसान यह हुआ था कि अब भारत के घरेलू निर्माताओं को बाहर की अच्छी क्वालिटी वाली चीजों से तुलना नहीं करनी पड़ती थी और इस कारण घरेलु उत्पादन की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता था। लेकिन फिलहाल ऐसे माहौल में यह फैसला, थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन, फायदेमंद साबित हो रहा है।
अगर निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्थाएं टैरिफ दबाव के कारण धीमी पड़ जाती हैं, और भारत छह फीसदी की दर से वृद्धि जारी रखता है, तो तुलनात्मक रूप से वह ज्यादा मजबूत होगा – खासकर तब जब भारत अहम रूप से घरेलू बाजार पर अपना बोझ डाल सकता है।
-रजनीश कुमार
पाकिस्तान ने भारत से 1965 और 1971 की जंग तब लड़ी थी, जब शीत युद्ध का ज़माना था।
शीत युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा था। शीत युद्ध के दौरान ही 1979 में अफग़़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने हमला किया था।
सोवियत संघ अफग़़ानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार चाहता था और इस्लामी कट्टरपंथियों को सत्ता से दूर रखना चाहता था। दूसरी तरफ़ अमेरिका का अभियान था कि जिन देशों में कम्युनिस्ट सरकारें हैं, उन्हें कमज़ोर किया जाए।
अमेरिका अफग़़ानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए पाकिस्तान की मदद ले रहा था। इसके बदले में पाकिस्तान को अमेरिका से आर्थिक और सैन्य मदद मिलती रही।
अमेरिका की पाकिस्तान से कऱीबी उसकी रणनीतिक ज़रूरत के लिए थी और यह ज़रूरत अंतहीन नहीं थी।
अफग़़ानिस्तान में पाकिस्तान और अमेरिका ने जिन कट्टरपंथियों को आगे बढ़ाया, वही उनके लिए चुनौती बन गए और ये चुनौती आज तक कायम है।
1962 में चीन ने भारत पर हमला किया था। चीनी हमले के कऱीब तीन साल बाद पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया लेकिन उसका आकलन ग़लत साबित हुआ।
पाकिस्तान का आंकलन ग़लत साबित हुआ
तब पाकिस्तान को लगा था कि चीन से जंग के कारण भारत का मनोबल बहुत गिरा हुआ है, ऐसे में उसे हराया जा सकता है। लेकिन पाकिस्तान अपना मक़सद हासिल नहीं कर सका। 1965 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान को कोई सैन्य मदद नहीं दी थी लेकिन भारत के प्रति उसका कोई समर्थन नहीं था।
1971 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद की थी। यहाँ तक कि अमेरिकी यु्द्धपोत यूएसएस एंटरप्राइज़ वियतनाम से बंगाल की खाड़ी में पहुँच गया था। कहा जाता है कि अमेरिका ने ऐसा सोवियत यूनियन को संदेश देने के लिए किया था कि अमेरिका पाकिस्तान को ज़रूरत पडऩे पर मदद कर सकता है।
हालांकि अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप के लिए कोई आदेश नहीं दिया था लेकिन डिप्लोमैटिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर पाकिस्तान के साथ था।
1971 के अगस्त महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 'इंडिया-सोवियत ट्रीटी ऑफ़ पीस, फ्ऱेंडशिप एंड कोऑपरेशन' पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत सोवियत यूनियन ने भारत को आश्वस्त किया कि युद्ध की स्थिति में वो राजनयिक और हथियार दोनों से समर्थन देगा।
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच 13 दिनों का युद्ध हुआ था। यह युद्ध पूर्वी पाकिस्तान में उपजे मानवीय संकट के कारण हुआ था। इस युद्ध के बाद ही पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना था। यानी पाकिस्तान को भारत दो टुकड़ों में बाँटने में कामयाब रहा था।
पाकिस्तान पश्चिम का सहयोगी था, तब भी भारत के ख़िलाफ़ हर युद्ध में उसे हार मिली। पाकिस्तान को भारत के ख़िलाफ़ न केवल पश्चिम का समर्थन हासिल था बल्कि खाड़ी के इस्लामी देश भी उसके साथ थे। शीत युद्ध ख़त्म होने के कऱीब नौ साल बाद 1999 में पाकिस्तान ने एक बार फिर करगिल में हमला किया और इस बार भी उसे अपने क़दम पीछे खींचने पड़े थे।
भारत दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था
इन तीन युद्धों के बाद से दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। सोवियत संघ कई हिस्सों में बँट गया और अब रूस बचा है। लेकिन दुनिया दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय हुई और अब चीन दूसरे ध्रुव की मज़बूत दावेदारी कर रहा है।
दूसरी तरफ़ भारत भी दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। बदलती दुनिया में भारत का भी अपना एक स्थान है लेकिन पाकिस्तान अब भी आर्थिक मोर्चों पर सऊदी अरब, चीन और वैश्विक संस्थाओं पर निर्भर है।
अमेरिका को अब अफग़़ानिस्तान में किसकी सरकार है इससे ख़ास मतलब नहीं है। ऐसे में उसे पाकिस्तान की भी पहले जैसी ज़रूरत नहीं है।
दो देशों के संबंध कितने गहरे और पारस्परिक हैं, अब इस बात पर भी निर्भर करता है कि दोनों एक दूसरे की अर्थव्यवस्था में कितना योगदान कर रहे हैं। दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं - अमेरिका और चीन से भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर के पार है जबकि खाड़ी के अहम देश यूएई से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर पार हो चुका है। वहीं सऊदी अरब से भी भारत का सालाना द्विपक्षीय व्यापार कऱीब 50 अरब डॉलर पहुँच चुका है।
फऱवरी 2022 में यूक्रेन और रूस की जंग शुरू होने के बाद रूस से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार बढक़र 65 अरब डॉलर पार कर चुका है। भारत के तीन सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर और सऊदी अरब या तो पाकिस्तान के दोस्त हैं या दोस्त थे। लेकिन पाकिस्तान के साथ इन देशों का द्विपक्षीय कारोबार कोई ख़ास नहीं है।
किसके साथ है तुर्की?
कोई भी देश नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान के लिए भारत जैसे बड़े बाज़ार की उपेक्षा की जाए। जब सऊदी अरब ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने पर भारत का विरोध नहीं किया तो पाकिस्तान के विश्लेषकों का यही कहना था कि भारत के साथ उसके कारोबारी हित जुड़े हैं।
यहाँ तक कि हिन्दुत्व की छवि वाले पीएम मोदी को सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान बड़े भाई कहते हैं।
शीत युद्ध के बाद बदली दुनिया में भारत की प्रासंगिकता बढ़ी है जबकि पाकिस्तान अपनी पुरानी अहमियत बचाने में भी नाकाम रहा है।
ट्रंप इसी साल जनवरी में दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो लेन-देन के संबंधों को और बढ़ावा मिला। यानी आप अमेरिका से कितना खऱीदते हैं और कितना बेचते हैं, ये ज़्यादा मायने रखता है न कि शीत युद्ध में कौन साथ था और कौन खिलाफ।
ट्रंप यहां तक चाहते हैं कि रूस से भी संबंध अच्छे हों। लेकिन पाकिस्तान अभी जिस आर्थिक कमज़ोरी से जूझ रहा है, उसमें न खऱीदने की बहुत गुंजाइश है और न ही बेचने की।
भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और बढ़ते तनाव को देखते हुए वैश्विक स्तर पर दोनों देशों से शांति वार्ता की अपील की जा रही है। दुनिया भर के देशों की इन अपीलों से एक समझ बन रही है कि किसकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है और किसकी भारत के साथ जबकि कौन पूरी तरह से तटस्थ है।
गुरुवार रात तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ''भारत और पाकिस्तान में बढ़ते तनाव को लेकर हम चिंतित हैं। ये तनाव युद्ध में बदल सकता है। मिसाइल हमलों के कारण बड़ी संख्या में आम नागरिकों की जान जा रही है। पाकिस्तान और यहां के लोग हमारे भाई की तरह हैं और उनके लिए हम अल्लाह से दुआ करते हैं।''
भारत के दौरे पर सऊदी और ईरान के मंत्री
अर्दोआन ने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से फोन पर मेरी बात हुई है। मेरा मानना है कि जम्मू-कश्मीर में हुए भयावह आतंकवादी हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांच होनी चाहिए। कुछ लोग आग में घी डालने का काम कर रहे हैं लेकिन तुर्की तनाव कम करने और संवाद शुरू करने का पक्षधर है। हालात हाथ से निकल जाने से पहले हम चाहते हैं कि दोनों देशों में संवाद शुरू हो।’ अर्दोआन ने जो कहा है, वह पाकिस्तान की लाइन का समर्थन है।
पाकिस्तान भी मांग कर रहा है कि पहलगाम हमले की जांच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कराई जाए। इसके अलावा अर्दोआन ने केवल पाकिस्तान में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी है और वहां के लोगों को भाई समान बताया है।
अर्दोआन के पास जब से तुर्की की कमान आई है, तब से पाकिस्तान के साथ सैन्य स्तर पर संबंध बढ़े हैं और भारत के साथ दूरियां बढ़ी हैं।
तुर्की और पाकिस्तान दोनों सुन्नी मुस्लिम बहुल देश हैं और दोनों इस्लामी देशों में एकता की बात करते रहे हैं। इसके बावजूद भारत और तुर्की में सालाना द्विपक्षीय व्यापार 10 अरब डॉलर पार कर चुका है जबकि पाकिस्तान से किसी तरह एक अरब डॉलर ही पार हुआ है।
दूसरी तरफ़ सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर गुरुवार को अचानक भारत पहुँचे थे। अदेल अल-जुबैर का यह अघोषित दौरा था। गुरुवार को जुबैर ने भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात की। कहा जा रहा है कि इसके बाद अदेल पाकिस्तान जाएंगे।
ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराग़ची भी भारत आए थे। ईरानी विदेश मंत्री इससे पहले पाकिस्तान गए थे। अराग़ची का दौरा पहले से ही तय था।
अदेल अल-जुबैर का अचानक भारत आना और पीएम मोदी तक से मिलना असामान्य माना जा रहा है। पीएम मोदी जब सऊदी अरब के दौरे पर थे, तभी पहलगाम में 22 अप्रैल को हमला हुआ था और 26 पर्यटक मारे गए थे। इस हमले के बाद पीएम मोदी ने बीच में ही दौरा छोड़ दिया था।