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अपने तबके को चोट लगने पर ही बिलबिलाहट!
18-Sep-2025 8:23 PM
अपने तबके को चोट लगने पर ही बिलबिलाहट!

- शम्भूनाथ

कल एक दृश्य देखकर मेरी यह धारणा और मजबूत हुई कि खंड–खंडवादी जन उभार, आंदोलन और विमर्श से आम भारतीय जीवन की बड़ी समस्याएं और गंदगियां ढकी और बनी रह जाती हैं और वे विकराल रूप धारण करती जाती हैं।

स्त्रियां केवल तब उत्तेजित होती हैं जब यौन उत्पीड़न हो या कोई पितृसत्तात्मक हमला होता है। बाकी मुद्दों पर वे सामान्यतः सोई रहती हैं। दलित केवल तब उत्तेजित होते हैं जब कोई मनुवादी प्रसंग हो। आदिवासी जल–जंगल–जमीन के मुद्दे पर उत्तेजित होकर बाकी सवालों पर सामान्यतः सोए रहते हैं!

हिंदुत्ववादियों के संदर्भ में कुछ कहा जाए तो वे मंदिर–मस्जिद, गोरक्षा या पाकिस्तान–चीन के मुद्दे के अलावा अन्य मुद्दों पर जरा भी उत्तेजित नहीं होते। भ्रष्टाचार के मामले में भी ये सेलेक्टिव हैं। देखा जा सकता है कि कुछ समय से स्त्री, दलित और आदिवासियों पर हिंदुत्ववादी उभार का प्रभाव वृद्धि पर है और उनके विमर्शों को हिंदुत्ववादियों ने निगल लिया है।

मुझे भारतेंदु के नाटक 'भारत जननी’ की ये पंक्तियां याद आ रही है कि भारत माता एक को उठाती है तो दूसरा सो जाता है, दूसरे को उठाती है तो पहला सो जाता है। इस तरह से बारी–बारी से सभी सो जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की आज यही दशा है। और हिंदीतर क्षेत्र का मानसिक हथियार इस समय प्रांतीयतावाद है।

कल जिस दृश्य से मेरी उपर्युक्त धारणा पक्की हुई, वह कोलकाता के आर जी कर अस्पताल का है जहां एक डॉक्टर लड़की के यौन उत्पीड़न और हत्या के बाद ( अभया कांड) निर्भया कांड की तरह ही जबरदस्त नागरिक आंदोलन उभरा था और आंदोलन की लहरें उत्ताल पर थीं।

 

दृश्य यह था कि कल मैं अपनी एक कलीग प्रोफेसर के पार्थिव शरीर को देखने आर जी अस्पताल गया। वहां पहली बार जाने पर देखा कि तीसरे फ्लोर पर मरीजों के बेड के सामने बरामदे में दो–तीन कुत्ते सो या टहल रहे हैं। खाली बोतलें और कचरा भरा है।

अभया कांड को लेकर डॉक्टरों और नागरिकों के इतने बड़े आंदोलन में चिकित्सा की हालत मुद्दा नहीं बन सकी! यौन हिंसा और स्त्री मुद्दों पर आंदोलन हमेशा जरूरी है, पर इस पर भी सोचना चाहिए कि आम नगरों में लोगों के पास लुटाने के लिए पैसा न हो, तो न वे अच्छी चिकित्सा पा सकते हैं और न अच्छी शिक्षा! पर ऐसे मुद्दे ओझल रह जाते हैं।

शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे गायब या गौण रहते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्वेच्छाचारी अर्थ व्यवस्था, बाजार की तानाशाही या ए आई के मामले गौण या गायब रहते है। पर्यावरण के मुद्दे को कोई छूता नहीं। समाज में बढ़ती घृणा और अंधविश्वासों पर खून नहीं खौलता! यह चीज मुझे चिंतित करती है।


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