विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
हिमाचल हाईकोर्ट ने जो कहा वो सुनिए ‘Shimla Town is losing its touch and culture of walking with "umbrella and jacket’
कोर्ट ने टिप्पणी की कि शिमला अपनी ‘छाता और जैकेट’ के साथ पैदल चलने की संस्क=ति खो रहा है और मसूरी जैसी स्थिति में आ रहा है।
कोर्ट ने कम कहा पर जो हालात हैं वो शिमला के लोग समझते हैं।
25 बरस पहले शिमला ने मुझे इतना सम्मोहित किया कि इसके कुछ बरसों बाद मैंने इसके प्रांगण के एक छोटे कोने में खुद को बसा लिया । पहाड़ों की रानी के इस सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया था ।।आज भी अपलक निहारता हूँ और कभी तृप्त न हो पाता हूँ ।
पहाड़ों, शिखरों की आकाशचुम्बी ख़ूबसूरती को निहारते देवदार और चीड़ के बीच शीतल वायु के सुरभित झोंकों से मन पुलकित हो उठता है पर आजकल मन घबराता है।
जहाँ हमारा फ्लैट है वहाँ बेधडक़ ,बेसुध होकर बरसों से घूमते रहे पर अब तस्वीर बदल चुकी ।कारों का बढ़ता रैला, शोर आपकी शान्ति ही नहीं भंग करता बल्कि आपको रौंद सकता है । खासकर ओल्ड शिमला में पहाड़ों पर चलने का आनंद ,सुकून छिन चुका है।
ये तस्वीर सिर्फ शिमला की ही नहीं बल्कि हिमाचल की है , देश के पहाड़ों की है। अभी एक आंकड़ा मिला 'हिमाचल की जनसंख्या 70 लाख और हर साल पर्यटक आ रहे हैं 1.5 करोड़
क्या इन्हीं पर्यटकों के आगमन के लिए पहाड़ों को काट-छांटकर फोरलेन नहीं बनाये जा रहे?
गाडिय़ों के काफि़ले दर काफि़ले हज़ारों -लाखों की संख्या में पहाड़ों पर धुआँ उड़ाते पर्यावरण को रौंद रहे , पर किसी को कोई फिक्र नहीं , क्यों?
और कितनी तबाही देखनी है ? क्या वक़्त ऐसा नहीं आ चुका जब पहाडिय़ों को अपने पहाड़ों के लिए खड़ा हो जाना चाहिए ?
टूरिज्म किस कीमत पर चाहिए ? पहाड़ समतल हो रहे ,तापमान बढ़ रहा , वर्षा प्रभावित हो रही , स्नो फॉल से लगातार महरूम हो रहे , चट्टानें गेंद की तरह लुढक़ रहीं। और कितनी गाडिय़ां ,कितने टूरिस्ट चाहियें ?
जऱा पलट कर देखिये कितने लोगों को खोया , कितनी सम्पत्ति मिट्टी में मिल गई, कितने आंसू बहते हुए पहाड़ों को रुला गए।
नींद टूटनी चाहिए ।
जिस दिन पहाड़ ‘हृह्र ’ कहेगा तस्वीर बदलेगी। जिस दिन होटल व्यवसायी ‘हृह्र’ कहेंगे ये सबसे बड़ा जवाब होगा क्योंकि होटल वालों की दुहाई देकर विनाशकारी पर्यटन की नीति चलती है।
पहाड़ों में इतिहास के सबसे बड़े हादसे उत्तरकाशी से लेकर केदारनाथ , हिमाचल में जगह -जगह देखिये क्या हुआ ?
पर कोई सबक नहीं सीखा जा रहा।
बात शिमला से शुरू हुई। आज शिमला की सडक़ें कारों से ढकी हुई हैं।
1864 में अंग्रेज़ों की ग्रीष्म राजधानी के रूप में जन्मे इस शहर को पचास हज़ार लोगों के लिए बसाया गया पर तीन लाख से ज़्यादा आबादी है और रिपोर्ट के मुताबिक 80 हज़ार टूरिस्ट - कामकाजी लोग आते जाते रहते हैं ।
सोचिये , लोग उन्हीं छोटे रास्तों पर कैसे पैदल चलें ,खासकर छोटी-छोटी घुमाऊदार सडक़ों और सैकड़ों कारों के बीच ?
पर एक बड़े बदलाव से ज़रूर तस्वीर बदली है कुछ हद तक। अब लम्बी-लम्बी दूरियों के लिए लोहे के सुरक्षित ‘वाकिंग पाथ’ लगातार बनते दिख रहे । शिमला का ‘पेडेस्ट्रियन फ्रेंडली’ परिवर्तित होना सुखद है और एक छोटा पर सकारात्मक परिवर्तन है। पर इससे तो पहाड़ ,पेड़ और पूरा पर्यावरण नहीं बचेगा ।
कैसे बचेगा? इस सवाल का जवाब सिर्फ पहाड़ों की जनता के पास है ,उन्हें कितने टूरिस्ट चाहियें ,किस कीमत पर कैसी टूरिज्म नीति चाहिए?
पहाड़ों की कल्पना के साथ पैदल चलना, रुकना, निहारना, मस्त बेखौफ होकर उड़ान भरना यही तस्वीर है। इसलिए हाई कोर्ट ने चिंता से कहा शिमला अपनी छाता संस्कृति से दूर होता जा रहा!


