विचार / लेख

गैस हमारी राष्ट्रीय समस्या है
18-Sep-2025 7:46 PM
गैस हमारी राष्ट्रीय समस्या है

-अशोक पांडेय

भरवां परांठों का अविष्कार जरूरत से ज्यादा प्यार करने वाली किसी माँ ने इसलिए किया होगा कि उसका बेटा उसके जीते जी उसे छोडक़र परदेस न चला जाए।

चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय की किताब ‘मानसोल्लास’ में बेसन और गुड़ का मिश्रण भर कर बनाए जाने वाले पूरण नाम के परांठों का जि़क्र है। भोजन के इतिहासकारों से पूछिए तो कोई परांठे का मूलस्थान पेशावर को बतलाता है कोई कश्मीर को। बाज़ लोग इसे गुजरात और महाराष्ट्र से निकला बताते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में परांठे को राष्ट्रीय नाश्ते के रूप में मान्यता निश्चय ही आज से तीन-साढ़े तीन सौ साल पहले मिली होगी जब ईस्ट इंडिया कंपनी के किसी जहाज में कोई अंग्रेज़ या पुर्तगाली व्यापारी अपने साथ आलू की बोरियां लेकर कालीकट के तट पर उतरा था। उसके पहले आलू केवल सुदूर लातिन अमेरिकी मुल्क पेरू में खाया जाता था।

हमारे देश में पहली बार परांठे में आलू का भरा जाना मानव जाति के इतिहास का उतना ही बड़ा मरहला है जितना हमारे पूर्वजों द्वारा पहली बार धातु का इस्तेमाल।

पेरू का आलू भारत से पहले यूरोप पहुंचाया जा चुका था जहाँ शुरू में उसे पशुओं के भोजन के रूप में अपनाया गया। सभ्य-सुसंस्कृत घरों की खाने की मेजों पर वह पहुंचा भी तो उबाल कर उसका कचूमर भर बनाया गया और नाम दिया गया मैश्ड पोटैटोज़।

कई दफ़ा कल्पना करता हूँ कि अंग्रेज़ों को अगर पता चल जाए कि आलू के साथ हमारी रसोइयों में क्या-क्या बर्ताव किये जाते हैं तो वहां के सामाजिक ताने-बाने का पता नहीं क्या हश्र होगा। मिसाल के लिए शादी शायद उन्हीं लड़कियों की हो सकेगी जिन्हें आलू भरकर ब्रैड पकौड़ा बनाना आता हो या जो हर तरह की नॉन-वेज डिश में आलू खपाने का हुनर जानती हों।

हमारी रसोइयों की रचनात्मकता का लोहा संसार यूं ही नहीं मानता। गुड़-बेसन से लेकर आलू भरे जाने के बाद से परांठों का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने की दरकार रखता है।

भूसे को छोडक़र दुनिया का कोई ऐसा खाद्य पदार्थ नहीं बचा जिसे आटे की लोई में भरकर परांठे की सूरत न मिली हो। चाऊमीन परांठा और पित्ज़ा परांठा जैसे शाहकार भी रचे जा चुके हैं।

हाल के वर्षों में चिकित्सा के क्षेत्र में किये जाने वाले शोध परांठों के सबसे बड़े दुश्मन बन कर उभरे हैं जो चेताते हैं कि ज्यादा परांठे खाने से आदमी की ‘दिल जिगर दोनों घायल हुए’ वाली हालत हो जाती है। डॉक्टर तो यह भी कहने लगे हैं कि परांठे खाओ पर बगैर घी-मक्खन के।

मेरे कई सारे दोस्त इन डॉक्टरों के छलावों में आ चुके हैं। उनके घरों में परांठे पकाए ही नहीं जाते और ओट्स-स्प्राउट्स जैसी शर्मनाक चीजों का नाश्ता होता है। हां कभी होटल-रेस्तरां में नाश्ता करने का इत्तफाक होता है तो परांठे सर्व किये जाते ही वे बैरे से नैपकिन मंगवाते हैं ताकि उनकी मदद से परांठों का घी सोखा जा सके। बताइये! आदमी का ईमान भी कोई चीज़ होती है।

इस सिलसिले में मौलाना अब्दुल हलीम शरर की कल्ट किताब ‘गुजि़श्ता लखनऊ’ से एक वाकया याद आ रहा है। अवध के पहले बादशाह गाज़ीउद्दीन हैदर को परांठे पसंद थे। हर रोज़ छ: परांठे खाते थे। इन छह परांठों को बनाने के लिए एक ख़ास रकाबदार नियुक्त किया गया था जो प्रति परांठा पांच सेर के हिसाब से हर दिन कुल तीस सेर घी खपा देता था।

दिन भर के परांठों में यूं कनस्तर भर घी उड़ा जाने वाले ऐसे ही लोग बादशाह बनते थे, बादशाहों की तरह रहते थे।

गुड्डू भाई बैरे से और नैपकिन लाने को कहते हैं। बटुवे से एंटासिड निकालते हैं।

गैस हमारी राष्ट्रीय समस्या है।


अन्य पोस्ट