विचार / लेख
-अपूर्वा
हिंदी भाषा लगातार प्रगति करती चली गई, बदलती गई, नए परिधान पहन कर सुंदर होती गई, वैदिक संस्कृत, प्राकृत,अपभ्रंश, प्रादेशिक...उर्दू हिंदी।
महान हिंदी काव्य साहित्य रचे जाते रहे।
हिंदी 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा भारत की राजभाषा बनी।
देश के बड़े हिस्से की भाषा हिंदी। सोचिये हिंदी का क्षेत्र कितना व्यापक है? हिंदी मीडिया, हिंदी प्रकाशक, हिंदी फि़ल्में कितना कमाती हैं?
पर हिंदी को विकसित करने वाला हिंदी वैज्ञानिक, हिंदी का इलाज करने वाला हिंदी चिकित्सक, हिंदी को संवारने वाला हिंदी को सुंदर रूप देने वाला हिंदी ‘ब्यूटीशियन’ किस हाल में है ?
गोदान, मैला आँचल, संसद से सडक़ तक ,चाँद का मुँह टेढ़ा है ,अपनी खबर, चुका भी हूँ मैं नहीं, विकलांग श्रद्धा का दौर जैसी कालजयी हिंदी किताबों के लेखक किस हाल में रहे ? ये एक लम्बी सूची है और लेखकों की सूची भी लम्बी है ।
हिंदी लेखकों की पीड़ा की सूची और लम्बी है।
हिंदी मीठी भाषा है । आज मीठा दिवस है कायदे से।
कायदे से आज 14 सितम्बर के सरकारी मीठे-मीठे बोल बोलकर जयकारा लगा देना चाहिए और इतनी जोर से जयजयकार हो ,शोर हो कि हिंदी साहित्यकारों की दशा, उनकी चिंताएं, उनकी चिताएं!..भी यदि सजने को तैयार हो तो ये किसी को खबर न लगे ।
कभी मत सुनियेगा कि रही मासूम रजा साहब ने किस वेदना से कहा था
‘मैं इस दुनिया से क्या मांगूं
मेरी नज़्मों की कीमत इस जि़ंदगी ने कब दी थी
जो अब देगी’
उग्रजी की तबियत बिगडऩे पर जब बच्चनजी ने उन्हें कुछ देने की पेशकश की इज़ाज़त मांगी तो उग्रजी ने कहा था-
‘तुमसे पैसे लेकर तुम्हारे सामने कभी आने पर मुझे अहसान मंद होना पड़ता, वह मैं किसी के सामने नहीं हुआ हूँ। अहसानमंद तो मैं अपनी लाश उठाने वाले का भी न होना चाहूंगा। जब मैं मरुँ और तुमको ख़बर मिले तो मेरी लाश हरिजनों से उठवाकर बस्ती से दूर किसी नदी में फिकवा देना।’
ऐसा ही स्वाभिमान और संघर्ष सवालाख सॉनेट लिखने वाले त्रिलोचन जी का था। भयानक संघर्ष, गर्दिश ही गर्दिश पर अपने उसूलों स्वाभिमान से समझौता नहीं किया।
याद है एक सभा में कैसे निराला जी को कुर्सी से उठकर अपने शरीर के ऊपर एक पतला कम्बल, जो कई जगह से फटा था, उसे सबको दिखाकर कहना पड़ा था-
‘ये है आपकी हिंदी, इसे गौर से देखिये। सोच सकें तो सोचिये ।हम तो काम के आदमी हैं ,बातें कम करते हैं।’
परसाईजी ने लिखा है-‘कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है ओर न कभी गर्दिश का अंत होना है, ये ओर बात है शोभा के लिए कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन ली जाएँ ।उनका मेकअप कर दिया जाए, उन्हें अदाएं सीखा दी जाएँ-थोड़ी चुलबुली गर्दिशें हो तो ओर अच्छा, और पाठक से कहा जाय-‘ले भाई देख मेरी गर्दिश’
ये कुछ सतही, प्रकाशित उद्धरण मैंने बताये । इसकी जितनी गहराई में जायेंगे हिंदी जिनसे चमकती है वो कितने अँधेरे में जीते रहे और आज भी जी रहे, ये पाएंगे।
सोवियत रूस ने कभी गोर्की के नाम पर एक पूरे शहर निजऩी नोवगोरोड को गोर्की नगर कर दिया था।
हमारे हिन्दुस्तान में क्या हिंदी के लिए इतना स्थान भी नहीं कि एक शहर प्रेमचंद के नाम करें, कोई नगर राहुल सांकृत्यायन के नाम करें, किसी विश्वविद्यालय को मुक्तिबोध नाम दें, किसी स्टेशन को महादेवी वर्मा-दिनकर का नाम दें,
कोई गाँव रेणु गाँव हो आगरा में राजेंद्र यादव,मैनपुरी में कमलेश्वर, दिल्ली में नामवरजी के नाम कुछ समर्पित करें। बस्तर में शानी के नाम कुछ हो।
जब किसी हिंदी के साहित्यकार की बीमारी की खबर मिलती है तो ज़्यादातर ये तथ्य सामने आता है ‘इलाज का खर्च, उचित देखभाल का अभाव। शासन-प्रशासन की उपेक्षा। सदियों से यही चल रहा और आज इस वक्त एक खबर सामने है।
जब ऐसी खबर सामने आती है तो हिंदी परिवार शब्द खोखला लगता है। चन्द्रकला पाण्डेजी की तस्वीर देखकर लगा आत्मकेंद्रित है ये कथित हिंदी परिवार। क्या ऐसा होता है कोई परिवार?


