विचार / लेख
साल 2009 में समलैंगिक रिश्तों को अपराध बनाने वाले क़ानून को असंवैधानिक ठहराने का फ़ैसला हो या साल 2020 में दिल्ली दंगों के दौरान पुलिस से कड़ी पूछताछ का मामला, डॉ. जस्टिस एस. मुरलीधर अपने कई फ़ैसलों से सुर्ख़ियों में रहे हैं.
वे अगस्त 2023 में ओडिशा हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के पद से रिटायर हुए. पिछले महीने उनकी संपादित एक किताब आई है- '(इन) कम्पलीट जस्टिस? सुप्रीम कोर्ट एट 75.' इसमें अलग-अलग पहलुओं पर क़ानून के कई जानकारों के लेख शामिल हैं.
जस्टिस मुरलीधर ने बीबीसी हिंदी से ख़ास बातचीत में इस किताब और न्यायपालिका से जुड़े कई मुद्दों के बारे में बात की.
बातचीत में न्यायपालिका की आज़ादी, जजों की भारत के गाँव की ज़िंदगी के बारे में समझ और जजों की नियुक्ति में सरकार की दख़लंदाज़ी जैसे मुद्दे प्रमुखता से आए.
'अधूरा न्याय'
हमने जस्टिस एस. मुरलीधर से जानना चाहा कि इस किताब के शीर्षक से ऐसा लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट से अधूरा न्याय मिला है. क्या ऐसा है?
उनका कहना था कि यह एक सवाल है जिसे इस किताब के 24 लेखों में विशेषज्ञ क़रीब से देखते हैं. उनका मानना था कि कोर्ट में हर प्रकार के मामले हैं. ऐसे मामले जिनमें पूरी तरह से न्याय मिला और ऐसे भी मामला जहाँ पूरा न्याय नहीं मिला.
उन्होंने बताया कि इस किताब में ऐसे बहुत सारे केस का विश्लेषण है जिसमें पूरी तरह इंसाफ़ नहीं मिला. वे जोड़ते हैं, "लेकिन जिन मामलों में पूरी तरह इंसाफ़ नहीं मिला, वे बहुत महत्वपूर्ण केस थे."
उन्होंने इसमें साल 1984 की भोपाल गैस त्रासदी, साल 1984 में सिखों के ख़िलाफ़ दंगों का उदाहरण दिया. उनके मुताबिक, "इन मामलों में निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि न्याय नहीं हुआ."
यही नहीं, जस्टिस मुरलीधर के मुताबिक कुछ मामले ऐसे भी थे जिनमें कोर्ट ने बहुत देरी से फ़ैसले दिए. वे इस सिलसिले में नोटबंदी (डिमॉनेटाइजेशन) और चुनावी बांड से जुड़े केस का उदाहरण देते हैं.
हालाँकि, उनके मुताबिक कई मामले ऐसे भी थे जिनमें सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों से लोगों के हक़ का दायरा बढ़ा. वे बताते हैं, "जैसे, साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए गाइडलाइन बनाई थी. उस वक़्त संसद ने कोई क़ानून नहीं बनाया था."
उन्होंने कहा कि शिक्षा के अधिकार के लिए भी सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से ही पहला क़दम उठाया गया था. उनके मुताबिक इसमें लोगों को मुफ़्त अनाज देने और पर्यावरण से जुड़े मामले भी शामिल हैं.
बाबरी मस्जिद- रामजन्मभूमि केस
किताब के परिचय में जस्टिस मुरलीधर ने अयोध्या के बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि केस के साल 2019 में आए फ़ैसले का भी ज़िक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन हिंदू पक्ष को देने का फ़ैसला बिना किसी क़ानूनी आधार के था.
जब हमने पूछा कि उनकी यह राय क्यों है तो उन्होंने कहा, "यह तो फ़ैसले में ही साफ़ लिखा है कि उन्होंने आस्था को भी मान्यता दी."
अगर वे जज होते तो इस मामले को कैसे तय करते? इस सवाल पर उनकी राय थी कि इस केस में मध्यस्थता पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए था.
गाँव के लोगों की ज़िंदगी और सुप्रीम कोर्ट के जज
किताब में एक लेख वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ का भी है.
उन्होंने इसमें एक सवाल उठाया है, "क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों में भारत के गाँवों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी की समझ है?" अपने लेख में उन्होंने कुछ केस का हवाला भी दिया है. इससे उन्हें लगता है कि जजों में गाँव में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी की समझ की कमी थी.
जस्टिस मुरलीधर का कहना है कि वे पी. साईनाथ की टिप्पणी से सहमत हैं. उन्होंने कहा, "बहुत सारे जज ऐसे हैं जो कभी भी गाँव में नहीं रहे हैं. इसमें मैं भी शामिल हूँ."
उन्होंने कहा कि ज़्यादातर जज मिडिल क्लास या उसके ऊपर की श्रेणी से आते हैं. कई हाई कोर्ट में तो बतौर जज नियुक्त होने के लिए सालाना आमदनी भी देखी जाती है.
उनका मानना था, "ऐसे में वकीलों की भी ज़िम्मेदारी होती है कि वे गाँव में रहने वाले लोगों का अनुभव भी अदालत के सामने लाएँ." इसके साथ ही जजों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे समझें कि भारत में लोग किन हालात में रहते हैं.
जस्टिस मुरलीधर ने कहा, "मेरी आशा हमेशा यह रहती है कि चीज़ें बेहतर होंगी."
जज किन पृष्ठभूमि से आ रहे हैं
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बहुत कम महिला और पिछड़े वर्ग के जज नियुक्त होते हैं. हमने जस्टिस मुरलीधर से पूछा, ऐसा क्यों? क्या अलग-अलग पृष्ठभूमि से जज नियुक्त होंगे तो फ़ैसले बेहतर नहीं आएँगे?
उनका कहना था, "हाँ, यह तो सही है कि रिप्रेजेंटेशन नहीं है. महिलाओं, पिछड़े वर्ग के लोगों, दलितों का न्यायपालिका में रिप्रजेंटेशन कम है. लेकिन ऐसे में 'टोकेनिज़्म' भी नहीं होना चाहिए." 'टोकेनिज़्म' यानी सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर इन वर्गों से जज नियुक्त किए जाएँ.
वह कहते हैं, "हमने कई ऐसे मामले देखे हैं जिसमें महिला जज भी महिलाओं के मुद्दों के प्रति संवेदनशील नहीं रहती हैं. रिप्रजेंटेशन ज़रूरी है लेकिन भारत के हर जज को संविधान में दिए गए सिद्धांतों को आत्मसात करना चाहिए."
'कॉलेजियम सिस्टम' पर उठने वाले सवाल
कॉलेजियम सिस्टम' जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया है. इसे सुप्रीम कोर्ट ने बनाया था. इस सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों को नियुक्त करने के लिए सरकार के पास नाम भेजते हैं.
हाल ही में, भारत के चीफ़ जस्टिस बीआर गवई के भतीजे और उनके चैम्बर के जूनियर वकील का नाम भी हाई कोर्ट में नियुक्ति के लिए भेजा गया है. इसकी आलोचना भी की गई.
हमने उनसे यह भी जानना चाहा कि 'कॉलेजियम' पर सरकार का कितना दबाव रहता है?
इन सब मुद्दों पर जस्टिस मुरलीधर की राय है, "यह धारणाओं की भी बात होती है. अगर मैं चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हूँ तो मैं अपने कार्यकाल में इन नामों का भेजना टाल सकता हूँ."
'कॉलेजियम सिस्टम' की एक और आलोचना है कि ये प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है. जस्टिस मुरलीधर का मानना है कि 'कॉलेजियम सिस्टम' में ज़्यादा पारदर्शिता लाने की ज़रूरत है.
साथ ही वे कहते हैं, "...और ऐसा नहीं है कि जज ही जज को नियुक्त करते हैं. इसमें केंद्र सरकार और (हाई कोर्ट के नामों के लिए) राज्य सरकार की भी भूमिका होती है."
उनकी राय है, "कॉलेजियम सिस्टम भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है."
उन्होंने कहा कि कुछ नामों की जल्दी नियुक्ति हो जाती है और कुछ नामों की नियुक्ति में समय लगता है. इसके क्या कारण हैं, किसी को पता नहीं चलता.
इसी किताब में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर का भी एक लेख है. उनका मानना है कि जस्टिस मुरलीधर के कुछ फ़ैसलों की वजह से सरकार उनका तबादला करने के लिए कॉलेजियम पर ज़ोर दे रही थी.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सवाल
हमने जस्टिस मुरलीधर से पूछा कि आज न्यायपालिका कितनी स्वतंत्र है?
उनका कहना था, "मैं ये ज़रूर कहूँगा कि न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं है." उन्होंने कहा कि इस सवाल के लिए अलग-अलग स्तर पर काम करने वाली अदालतों को देखना होगा.
जस्टिस मुरलीधर का मानना है, "अगर कोई मजिस्ट्रेट स्वतंत्र होना चाहे तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को उसका समर्थन करना चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं है."
उन्होंने कहा कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को संविधान में सुरक्षा दी हुई है लेकिन ज़िला अदालत के जजों को हटाना आसान होता है.
इसलिए वे कहते हैं, "एक डर का माहौल है कि अगर मैं एक डिस्ट्रिक्ट जज हूँ और मैं ज़मानत देता हूँ तो मेरे ख़िलाफ़ लोग सवाल उठाएंगे. इस भय में जिन मामलों में ज़मानत मिलनी चाहिए थी, उसमें भी ज़मानत नहीं मिलती."
आपराधिक क़ानून पर कोर्ट का नज़रिया
उन्होंने बताया कि इस किताब में इसका भी ज़िक्र है कि कैसे बेल देने में, लोगों को दोषी पाने में, सुप्रीम कोर्ट भी एक समान फ़ैसले नहीं देता.
लेकिन उनका कहना था, "ऐसे सिस्टम में भी कुछ ऐसे जज हैं जो बहुत अच्छे हैं. जिन्होंने एक फ़ैसले दिए हैं. तो हमें ये देखना चाहिए कि इसे कैसे आगे बढ़ाएँ."
उनका यह भी मानना था कि अगर किसी को ग़लत आरोपों में जेल में रखा गया है तो उसकी भरपाई करने के लिए भी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए.
धारा 377 और अदालत का फ़ैसला
जस्टिस मुरलीधर और दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस एपी शाह की बेंच ने साल 2009 में फ़ैसला दिया था कि आईपीसी की धारा 377 असंवैधानिक है. इस धारा के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध बनाया गया था.
जब हमने उनसे इस मामले के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "कोर्ट को यह कहने से झिझकना नहीं चाहिए कि भले ही संसद ने एक क़ानून बनाया है लेकिन वह क़ानून संविधान के ख़िलाफ़ जाता है."
जस्टिस मुरलीधर कहते हैं, "जब हमने वह फ़ैसला दिया था, उसके बाद बहुत सारे लोग 'बाहर' आ गए थे. (बाहर आना यानी अपनी लैंगिक पहचान के बारे में दुनिया को बताने लगे थे). उनके परिवार और दोस्त भी उनका समर्थन करने के लिए तैयार थे. (हमारे फ़ैसले से) ऐसा माहौल बन गया था. ये उस फ़ैसले का एक सकारात्मक नतीजा था."
हालाँकि, साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला पलट दिया था. आख़िरकार साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक रिश्ता अपराध नहीं है.
जस्टिस मुरलीधर कहते हैं, "लेकिन आज भी ऐसा नहीं है कि समलैंगिक लोग पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करते हैं. क़ानून के ज़रिए समाज में बदलाव लाने में वक़्त लगता है."
इस सिलसिले में उन्होंने भीमराव आंबेडकर की बातों का भी ज़िक्र किया. वे कहते हैं, "बीआर आंबेडकर के मन में आशंका थी कि हमने संविधान तो बना दिया लेकिन क्या उससे लोगों की ज़िंदगी बदलेगी. उनकी ये आशंका वैध थी. यह एक प्रक्रिया है जो चलती रहेगी."
जस्टिस मुरलीधर बताते हैं कि इस फ़ैसले के बाद उन्हें और जस्टिस शाह को दिल्ली हाई कोर्ट के बाक़ी जज मज़ाक़ के तौर पर 'गे लॉर्ड' कहने लगे थे. उन्होंने कहा कि जजों को भी इस फ़ैसले को स्वीकार करने में वक़्त लगा.
महिलाओं के मुद्दे और अदालत
हमने जस्टिस मुरलीधर से यह भी समझना चाहा कि कोर्ट घरेलू हिंसा से जुड़े मुद्दों पर कई बार कहती है कि इससे जुड़े क़ानूनों का दुरुपयोग हो रहा. लेकिन आतंकवाद या पैसों के घोटालों से जुड़े क़ानून के ग़लत इस्तेमाल की उतनी चर्चा नहीं होती. कोर्ट ने भी कई मौक़ों पर कहा है कि इन क़ानूनों का भी दुरुपयोग हो रहा है.
इस पर उनका कहना था, "यह एक विचारधारा की भी बात है. न्यायपालिका एक तरह से समाज का आईना है. समाज में जो वकील हैं, उनसे ही जज निकल कर आते हैं." लेकिन उनका मानना था, "इस विचारधारा को बदलने के लिए कोर्ट में आपको (जजों को) कई मौक़े मिलते हैं."
अदालत में क्या बदलाव देखना चाहते हैं
हमने उनसे सवाल किया कि वे न्यायपालिका के कामकाज में क्या बदलाव देखना चाहते हैं?
उन्होंने कहा कि कोर्ट में अहम मुद्दों के मामलों की सुनवाई पहले की जानी चाहिए. साथ ही उनका मानना था कि संवैधानिक मामलों में फ़ैसला जल्द करना चाहिए.
संवैधानिक मामलों की सुनवाई पाँच से ज़्यादा जजों की पीठ करती है.
साथ ही उन्होंने कोर्ट में 'डिजिटाइजेशन' लाने की भी ज़रूरत पर भी जोर दिया. यानी कम्प्यूटर वग़ैरह का ज़्यादा इस्तेमाल होना चाहिए.
उन्होंने बताया, "बिहार में आज के दिन भी जज हाथ से फ़ैसले लिख रहे हैं. साथ ही जज गवाहों के बयानों को भी हाथ से लिख रहे हैं. हर जज की लिखावट अलग होती है. इसलिए एक जज का यह काम होता है कि वे हाथ से लिखे दस्तावेज़ को साफ़-साफ़ लिखे ताकि बाक़ी लोग इसे समझ सकें."
उन्होंने कहा कि आज लोग कम्प्यूटर का व्यापक इस्तेमाल करते हैं लेकिन कई जज हाथ से ही लिखते हैं. इसलिए इन बुनियादी चीज़ों में बदलाव करने की बहुत गुंजाइश है. इसके साथ ही उनका मानना है कि ऐसा करते हुए निजता, डेटा प्रोटेक्शन वग़ैरह का भी ध्यान रखना होगा