संपादकीय
अमरीका के इतिहास में ऐसा कम ही होता है कि किसी विश्वविद्यालय में पुलिस घुसे। न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में फिलीस्तीन के समर्थन में कई दिनों से छात्रों के प्रदर्शन चल रहे हैं जो कि अब बढ़ते-बढ़ते दो दर्जन अमरीकी विश्वविद्यालयों सहित पश्चिम के कोई आधा दर्जन देशों में फैल चुके हैं। और ऐसे में विश्वविद्यालय प्रशासन की अर्जी पर पुलिस यूनिवर्सिटी में घुसी, और छात्रों को गिरफ्तार किया। ये छात्र अपने आंदोलन को पूरी तरह शांतिपूर्ण और छात्रों तक सीमित रख रहे हैं, और एक छात्र नेता ने इजराइल के खिलाफ नस्लभेदी टिप्पणी की थी, तो उसे आंदोलन से तुरंत ही अलग कर दिया गया। गैरछात्रों के भी इस आंदोलन में आने पर रोक लगाई गई है, और जगह-जगह चल रहे ये आंदोलन विश्वविद्यालय के इजराइल से जुड़े किसी भी अनुदान, रिसर्च ग्रांट, शैक्षणिक संबंध खत्म करने की बात कह रहे हैं। अमरीकी विश्वविद्यालयों का इजराइल के साथ गहरा रिश्ता है, और गाजा पर इजराइल की बमबारी को देखते हुए अमरीकी नौजवानों का एक मुखर तबका झंडे उठाए खड़ा है कि ऐसे हमलावर देश से उनके विश्वविद्यालय का कोई भी संबंध नहीं रहना चाहिए। यह आंदोलन कोलंबिया विश्वविद्यालय से शुरू होकर बहुत सी दूसरी जगहों पर फैला है, और अब यह ऑस्ट्रेलिया, इटली, ब्रिटेन जैसे दूसरे पश्चिमी देशों तक पहुंच गया है। अमरीका में ही अब तक हजार से अधिक छात्र गिरफ्तार किए जा चुके हैं, और ये छात्र अमरीकी विश्वविद्यालयों के ऐसे किसी भी कंपनी से लेन-देन और रिश्ते खत्म करने की मांग कर रहे हैं जो कि गाजा पर हो रहे हमलों से किसी भी तरह की कमाई कर रही हैं। इसमें अमरीकी कंपनियां भी हैं। यह बात याद रखने की है कि फिलीस्तीन के गाजा पर चल रहे इजराइली हमलों से अब तक 34 हजार से अधिक फिलीस्तीनी मारे गए हैं।
अमरीका में छात्र आंदोलनों की यह ताजा लहर, ताजा हवा का एक झोंका है। यह नौजवान पीढ़ी में अपने देश से परे के मुद्दों से भी जुडऩे, और उनके प्रति जागरूक रहने का एक बड़ा सुबूत है। फिलीस्तीनी अपनी ही जमीन पर शरणार्थी की तरह बेघर जी रहे लोग हैं, जिनसे अमरीकी विश्वविद्यालयों या छात्रों का कोई भला नहीं हो सकता। उनका भला तो अतिसंपन्न इजराइली सरकार, वहां की कंपनियां, और वहां से जुड़े हुए कारोबारियों से हो सकता है क्योंकि अमरीकी विश्वविद्यालय निजी क्षेत्रों के साथ मिलकर हजारों किस्म के शोध करते हैं, ग्रांट पाते हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय छात्र-छात्राओं के समूह अगर फिलीस्तीन के साथ खड़े हैं, और विश्वविद्यालय के इजराइल से किसी भी तरह के संबंध तोडऩे पर अड़े हैं, तो यह अपने हितों के खिलाफ जाकर एक सार्वजनिक हित की बात करने की मिसाल है, और इसके लिए अमरीकी छात्र आंदोलन की तारीफ की जानी चाहिए। जो नौजवान पीढ़ी अपने देश में वोट डालने के लायक हो जाती है, उस पीढ़ी को अपने देश-प्रदेश से लेकर दुनिया के बाकी हिस्सों के मुद्दों पर सोचना-विचारना भी चाहिए, और जिस देश की युवा पीढ़ी ऐसी नहीं रहती, और मुर्दा सरीखी रहती है, जैसी कि आज हिन्दुस्तान में है।
हिन्दुस्तान का एक हिस्सा मणिपुर देश के इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, लेकिन सैकड़ों लाशें गिर जाने पर भी बाकी हिन्दुस्तान के लोगों के माथों पर शिकन नहीं आई, और वे मणिपुर को हिन्दुस्तान के बजाय पड़ोसी म्यांमार का हिस्सा अधिक मानते रहे। ऐसी मुर्दा हिन्दुस्तानी नौजवान पीढ़ी को अमरीका का आज का छात्र आंदोलन दिखाना चाहिए कि दुनिया के किसी दूसरे कोने में हो रही बेइंसाफी पर नौजवान पीढ़ी का क्या रूख रहना चाहिए। यह एक अलग बात है कि अमरीका के छात्र आंदोलन हो सकता है कि नवंबर में वहां होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव पर कोई निर्णायक असर न डाल सकें, लेकिन अगर चुनाव में मुकाबला बहुत कड़ा रहेगा, तो टक्कर की ऐसी नौबत में छात्रों का रूख तय कर सकता है कि फिलीस्तीन के मुद्दे पर अमरीका के किस राष्ट्रपति को चुनना बेहतर होगा। हम अमरीकी चुनाव को लेकर कोई भविष्यवाणी करने की हालत में नहीं हैं, लेकिन वहां ऐसा माना जाता है कि डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के गोरे वोटरों के बीच फिलीस्तीन को लेकर हमदर्दी नहीं रहती है, लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी में ऐसे हमदर्द अधिक हैं। ऐसे में इन छात्र आंदोलनों का नुकसान किसे झेलना पड़ेगा यह बता पाना अभी आसान नहीं है, लेकिन अमरीका का इतिहास बताता है कि वियतनाम पर अमरीका के हमले के खिलाफ भी वहां के छात्र उठ खड़े हुए थे। और यह कैसा गजब का संयोग है कि 2 मई 1964 को इसी न्यूयॉर्क के इसी कोलंबिया विश्वविद्यालय में चार सौ छात्रों ने वियतनाम पर अमरीकी हमले के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था, और न्यूयॉर्क शहर में जुलूस निकाला था। इसके बाद अमरीकी सरकार के खिलाफ यह आंदोलन जगह-जगह कई विश्वविद्यालयों में फैला था। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ भी अमरीकी विश्वविद्यालयों ने आंदोलन किया था, और ऐसी कंपनियों से विश्वविद्यालय के रिश्ते तोडऩे की मांग की थी जो रंगभेदी दक्षिण अफ्रीकी सरकार के साथ कारोबार करती हैं। खुद अमरीका के भीतर रंगभेद के खिलाफ अमरीकी छात्रों के सभी नस्लों के नौजवान आंदोलन करते रहे हैं।
हिन्दुस्तान में छात्र आंदोलन या नौजवान आंदोलन मुर्दा पड़े हुए हैं। यह नौबत इस देश के लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक है। लोग 18 बरस की उम्र से वोट डालने का हक पा लेते हैं, लेकिन उन्हें अपने देश-प्रदेश के असल जलते-सुलगते मुद्दों की जानकारी पाने की भी फुर्सत नहीं है। उन्हें काम धेले का नहीं है, और जागरूकता पाने के लिए वक्त घड़ी का नहीं है। आज लोकतंत्र के बहुत से पहलुओं को देखकर अगर कलेजा ठंडा करने की जरूरत लगती है, तो हिन्दुस्तान के बाहर देखना पड़ता है। हिन्दुस्तान के नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा आज धर्म के चक्कर में इस हद तक डूब गया है कि उसे धर्म ही सबसे बड़ा कर्म लगने लगा है। यह धर्म हिन्दुस्तानी जनचेतना पर अफीम की तरह असर कर रहा है, और लोगों की लोकतंत्र के प्रति जागरूकता को संवेदनाशून्य बना चुका है। इस देश की नौजवान पीढ़ी को आज इस वक्त अमरीकी विश्वविद्यालयों में चल रहे छात्र आंदोलन को देखना चाहिए, और फिर यह सोचना चाहिए कि क्या हिन्दुस्तान में छात्र फिलीस्तीन के लिए न सही, अपने खुद के लिए आवाज उठाने का हौसला रखते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पहले गुजरात के सूरत में कांग्रेस उम्मीदवार पार्टी को दगा देकर बैठ गया, और फिर मध्यप्रदेश के इंदौर में तो भाजपा के वहां के सबसे बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय ने खुद गाड़ी में ले जाकर कांग्रेस उम्मीदवार का नाम वापिस करवा दिया। इसके बाद इन दो सीटों पर तो कोई चुनाव बचा ही नहीं। इनके अलावा मध्यप्रदेश की खजुराहो सीट पर इंडिया गठबंधन की समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी मीरा यादव का पर्चा खारिज हो गया था क्योंकि उस पर दस्तखत नहीं था। उसे भी सोचा-समझा काम माना जा रहा है। अभी हो सकता है कि देश में कुछ और जगहों पर भी ऐसा हो जाए। लोकतंत्र में कानून के तहत जिस तरह की साजिशों की गुंजाइश रहती है, यह उनमें से कुछ नमूने हैं। न तो ऐसा पहली बार हो रहा है, और न ही भाजपा पहली पार्टी है जो कि ऐसा करवा रही है। लेकिन हैरान यह बात करती है कि जो पार्टी चार सौ से अधिक सीटों का दावा कर रही है, उसे ऐसा करवाने की जरूरत क्या पड़ रही है? क्या भाजपा का आत्मविश्वास (या अतिआत्मविश्वास?) कुछ कमजोर पड़ रहा है कि वह मोदी सरकार और अपनी राज्य सरकारों की सफलता के दावे छोडक़र मंगलसूत्र को मुद्दा बना रही है?
लेकिन इससे परे यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब जिस पार्टी की हवा चलती है, वह इसी तरह के काम करने में लग जाती है। छत्तीसगढ़ में 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर पहली बार कांग्रेस की सरकार बनी, तो एक गैरविधायक अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने। उनके पास कांग्रेस विधायकों का पर्याप्त बहुमत था, लेकिन उन्होंने विधानसभा में आने के लिए एक भाजपा विधायक से इस्तीफा दिलवाकर वहां से उपचुनाव लड़ा जो कि भाजपा का राजनीतिक मखौल उड़ाने जैसा काम था। इसके बाद उन्होंने भाजपा के दर्जन भर विधायक खरीदे, क्योंकि विधानसभा के भीतर तो कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत था, लेकिन कांग्रेस विधायक दल के भीतर बहुत कम लोग जोगी के नामलेवा थे। इसलिए भाजपा से इतने विधायकों को तोडक़र जोगी ने कांग्रेस विधायक दल में अपनी निष्ठावान सदस्य बढ़ाए थे, और अपनी ताकत का अनुपात बेहतर किया था। इसके तुरंत बाद 2003 का चुनाव हुआ, तो कांग्रेस की बुरी शिकस्त हुई, जोगी सरकार को जनता ने खारिज किया, लेकिन जोगी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ, और उन्होंने बस्तर के उस वक्त के भाजपा सांसद बलीराम कश्यप के साथ मिलकर भाजपा से परे एक सरकार बनाने की कोशिश की, इसके लिए नगद रकम भी खर्च की गई, और कांग्रेस विधायक दल की तरफ से जोगी ने राज्यपाल के नाम एक समर्थन पत्र भी दिया जिसमें सोनिया गांधी की सहमति-अनुमति होने का झूठा दावा किया गया था। वह पूरा मामला भांडाफोड़ होने से वह छत्तीसगढ़ की इतिहास का सबसे बड़ा, और देश के इतिहास का एक सबसे बड़ा विधायक खरीद-बिक्री कांड हुआ था।
लोगों को याद होगा इसके बाद प्रदेश में तीन बार राज करने वाली भाजपा की रमन सिंह सरकार के चलते हुए बस्तर के अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार को बेचते हुए अजीत जोगी और उनका बेटा अमित जोगी टेलीफोन रिकॉर्डिंग में पकड़ाए, और खरीदते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह, और उनका दामाद कॉल रिकॉर्डिंग में फंसे। जोगी प्रदेश कांग्रेस में कोई और नेता बर्दाश्त नहीं कर पाते थे, और पार्टी को नीचा दिखाने के लिए, उन्होंने अपने प्रभाव वाले उम्मीदवार को सत्तारूढ़ भाजपा के हाथ बेच दिया था, और इस खरीद-बिक्री की टेलीफोन रिकॉर्डिंग्स बताती थी कि अजीत जोगी ने उस वक्त के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल को नीचा दिखाने के लिए क्या-क्या नहीं किया था। इस अंतागढ़ टेपकांड के सारे सुबूत सामने आने के बाद अमित जोगी को पार्टी से निलंबित किया गया था, और इसके साथ ही जोगी का कांग्रेस से नाता भी खत्म हुआ था। आज जिस तरह गुजरात के सूरत में कांग्रेस उम्मीदवार ने आखिरी पल में जाकर अपना नामांकन वापिस लिया है, और उसके साथ-साथ सत्तारूढ़ भाजपा की तमाम मशीनरी ने सूरत के बाकी सारे उम्मीदवारों को शाम-दाम-दंड-भेद से बिठा दिया था, और भाजपा उम्मीदवार की देश में सबसे पहली जीत घोषित हो पाई, ठीक वैसा ही काम छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ सीट पर भी किया गया था। अंतागढ़ विधानसभा उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा प्रत्याशी को छोडक़र बाकी हर उम्मीदवार को बिठा दिया गया था, और सिर्फ एक उम्मीदवार सत्ता की पकड़ में नहीं आया था, इसलिए चुनाव की नौबत आई थी, वरना सूरत की तरह वहां भी बिना चुनाव सत्तारूढ़ पार्टी के उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर दिया गया होता।
देश में वामपंथी दलों को छोडक़र अधिकतर पार्टियां ऐसी रही हैं जिन्हें किसी भी तरह की खरीद-बिक्री से परहेज नहीं रहा। नेता निजी स्तर पर बिकते हैं, और पार्टियां संगठन के स्तर पर खरीददारी करती हैं, भारतीय संसदीय व्यवस्था दुनिया की एक सबसे अश्लील और बेशर्म मंडी बनी हुई है। दिक्कत यह है कि चुनाव कानूनों के तहत इनमें से कोई भी बात जुर्म नहीं है, और लोग अपनी काया या आत्मा जो भी बेचें, उसमें कुछ गैरकानूनी नहीं रहता। इतना जरूर है कि इस देश में देह बेचने वाली महिलाओं को तो जेल भेजने का पूरा इंतजाम है, लेकिन आत्मा बेचने वाले उम्मीदवारों, निर्वाचित नेताओं, और बाकी राजनेताओं के सम्मान के लिए मालाएं हैं, कानून की अदालत में रियायत है, जांच एजेंसियों से छूट है। अभी इंदौर में जिस कांग्रेस उम्मीदवार ने आखिरी पल में अपना नाम वापिस लिया और भाजपा में शामिल हुआ, उसके बारे में बताया जा रहा है कि राज्य पुलिस ने उसके खिलाफ कोई पुराना मामला ढूंढकर उसमें कोई नई गंभीर दफा जोड़ी थी, और रातों-रात कांग्रेस से गद्दारी करने के पीछे शायद वह भी एक वजह थी।
आज देश भर में मोदी सरकार की जांच एजेंसियों के घेर में आए हुए लोगों के भाजपा में जाने के बहुत से मामले गिनाए जाते हैं। लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि इमरजेंसी के वक्त जगजीवन राम को कांग्रेस छोडक़र विपक्ष में जाने से रोकने के लिए किस तरह की कोशिशें की गई थीं, और फिर मानो उन्हें सजा देने के लिए उनके बेटे सुरेश राम की 21 बरस की छात्रा-मित्र के साथ नग्न तस्वीरों से मेनका गांधी की पत्रिका, सूर्या, का पूरा एक अंक ही भर दिया गया था। इस पूरे स्कैंडल से जगजीवन राम के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की हसरतें धरी रह गई थीं। इसलिए किसी को पार्टी छोडऩे से रोकने के लिए, या पार्टी छोडऩे की सजा देने के लिए तरह-तरह के अनैतिक कामों का इस देश में लंबा इतिहास रहा है। आज भाजपा लोगों को घेरकर जांच और मुकदमे की नोंक पर अपनी पार्टी में ला रही है, लेकिन यह नया सिलसिला नहीं है, इन दिनों बहुत अधिक बढ़ा हुआ जरूर है। ऐसा लगता है कि न तो भारत का चुनाव कानून, और न ही किसी दूसरे तरह के कानून ऐसी साजिशों को रोक पा रहे हैं, हमारा यह मानना है कि दलबदल करने वाले लोगों के खिलाफ कानून कड़ा करने की जरूरत है। लोग अगर थोक में भी दलबदल करें, तो भी इसे नए दल के रूप में मान्यता देने के बजाय सभी का बचा हुआ कार्यकाल खत्म करने के बारे में भी सोचना चाहिए कि क्या वह प्रावधान अधिक न्यायसंगत होगा? इसके अलावा नई पार्टी में किसी के जाने पर कुछ बरस तक उसके चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए, ऐसा इसलिए भी होना चाहिए कि रातों-रात इम्पोर्ट करके अगली सुबह उम्मीदवार बनाने की बेइंसाफी खत्म हो सके। आज भाजपा ने दूसरी पार्टियों से इतने अधिक लोगों को लाकर उम्मीदवार बनाया है कि एक मजाक चल रहा है कि जो लोग बचपन से शाखा जाते थे, और जनसंघ के वक्त से पार्टी में लगातार बने हुए हैं, उन्हें भाजपा टिकटों में आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन मजाक से परे हकीकत यह है कि अपनी पार्टी को धोखा देकर दूसरी पार्टी से चुनाव लडऩे के सिलसिले को कुछ खत्म किया जाना चाहिए, इसे कैसे किया जा सकता है, उस पर चर्चा होनी चाहिए।
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान सरहद के दोनों ओर गिने-चुने ताकतवर लोगों की सरकारी और फौजी नफरत या रणनीति के बीच पाकिस्तान की 19 बरस की आयशा के सीने में हिन्दुस्तानी दिल धडक़ता है। उसके दिल के ट्रांसप्लांट के बिना उसका अधिक वक्त जिंदा रहना मुमकिन नहीं था, और हिन्दुस्तान के चेन्नई के अस्पताल और डॉक्टरों ने यह ट्रांसप्लांट किया, और इस ऑपरेशन के लिए पाकिस्तान में रकम भी इकट्ठा नहीं हो पाई थी, हिन्दुस्तानी डॉक्टरों और अस्पताल में एक ट्रस्ट की मदद से आयशा को नई जिंदगी देने की यह पहल और कोशिश की है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐश्वर्यम ट्रस्ट अब तक 175 हार्ट ट्रांसप्लांट में मदद कर चुका है, और दूसरे बहुत से इलाज और ऑपरेशन में भी।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच जो सरहदी तनातनी चल रही है, उसके पहले तक लोगों की सीधी आवाजाही थी, ट्रेन और बस से लोग आते-जाते थे, और अनगिनत पाकिस्तानियों को हिन्दुस्तान की बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से नई जिंदगी मिलती थी। जब तक सरकारों के बीच तनातनी नहीं हुई, तब तक हिन्दुस्तान में जनता को यह कभी नहीं लगा कि पाकिस्तानियों को हिन्दुस्तान में इलाज क्यों मिले। लेकिन जब सरकारों, फौजों, और राजनीतिक दलों को खाई खोदना सुहाने लगा, तो फिर जनता के बीच भी नफरत के फतवे तैरने लगे। इलाज की बात तो अलग रही, जो रोजाना के हर किस्म के कारोबार की बात थी, और दोनों देशों के बीच आपसी मुनाफे का जो हाल था, उसे भी राजधानियों में बैठे लोगों की राजनीति और रणनीति ने खराब कर दिया। दोनों मुल्कों के बीच करोड़ों लोगों की सरहद पार रिश्तेदारी है, उनका भी आना-जाना बंद सरीखा हो गया। अब किसी और मुल्क से होते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच आवाजाही हो पाती है, और वह भी बड़ी सिमट गई है। दोनों देश सरहद पर फौजी खर्च बर्बाद किए जा रहे हैं, बर्फ लदी सरहद पर हर बरस जाने कितने ही जवान शहीद या कुर्बान हो जाते हैं, लेकिन राजधानियों को रिश्ते सुधारना नहीं सुहा रहा है। तनाव को इस दर्जे पर ले जाया गया है कि फिल्म और टीवी के कारोबार में भी सरहद पार के लोगों का आकर काम करना रोक दिया गया है, और जो जनता दोनों तरफ के फिल्म, संगीत को पसंद करती है, उसे भी मन मारकर चुप रहना पड़ता है।
लोगों को याद होगा कि जब सुषमा स्वराज हिन्दुस्तान में विदेश मंत्री थीं, तब पाकिस्तान में भारत की एक गीता नाम की लडक़ी जाने किस तरह वहां गुम हो गई थी, और वहां के एक बहुत बड़े समाजसेवक, अब्दुल सत्तार ईधी परिवार की देखरेख में थी, और वहां पर वह हिन्दू धर्म का पालन भी करती थी, और उस परिवार ने उसे बेटी की तरह अपनाया हुआ था। सरहद के दोनों तरफ इंसानियत की खूबी कही जाने वाली ऐसी बहुत सी कहानियां बिखरी हुई हैं, और इनसे दोनों तरफ इंसानों का एक-दूसरे पर भरोसा बना हुआ है। दिक्कत सिर्फ राजधानियों में बसे हुए नेताओं और फौजी अफसरों को है जिनको अपने घरेलू दिक्कतों से उबरने के लिए भी सरहद पर तनातनी और पड़ोसी से रिश्ते बिगाडऩे में सहूलियत लगती है। नतीजा यह है कि दोनों देशों के गरीबों की रोटी के हक बेचकर फौजों पर खर्च किया जा रहा है, और हवा में दुश्मन पेश करके अपने-अपने लोगों को हवा में लाठी चलाने की खुशी मुहैया कराई जा रही है।
हम फिर आयशा की बात पर लौटें, तो इन दोनों मुल्कों की हकीकत यही है। किस तरफ के डॉक्टर, किस तरफ के मरीज, किस तरफ किसी मरीज से मिला हुआ दिल, किस तरफ जमा की गई रकम, इनमें से कुछ भी आड़े नहीं आता, और भले लोग बिना किसी भेदभाव के, किसी धर्म या मजहब का ख्याल किए बिना एक-दूसरे के काम आते हैं। हम यहां पर इस बात और बहस में भी जाना नहीं चाहते कि कौन किसके अधिक काम आते हैं, और कौन किसके कम। लेकिन सच तो यह है कि एक फिल्म, बजरंगी भाईजान, की कहानी की तरह दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे की मदद करने को अपनी जान देने पर भी उतारू रहते हैं, और असल जिंदगी की ढेरों कहानियां इस फिल्म की तरह हैं। सरहद के दोनों तरफ और दोनों धर्मों के लोगों में से गिनती में ऐसे लोग कम ही हैं जो कि नफरत के फतवों पर जिंदा रहते हैं, ऐसे लोग खबरों में सुर्खियां अधिक पाते हैं, और नफरती टीवी चैनल इन्हीं की हेट-स्पीच पर सवार होकर गलाकाट मुकाबला करते हैं, लेकिन इससे दोनों मुल्कों के कारोबार की बचत नहीं हो पा रही, और गरीबों की बड़ी रकम तनातनी में बर्बाद भी हो रही है। आज जब दुनिया के कुछ देशों के बीच की सरहद मिटाकर उन्हें एक किया जा रहा है, उस वक्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच की दीवार ऊंची की जा रही है। इस नौबत को अगर समझदारी से खत्म किया जाए, तो शायद दोनों तरफ हर गरीब बच्चे को रोजाना एक गिलास दूध मिल पाएगा।
तमिलनाडु के जिस ट्रस्ट, जिस अस्पताल, और जिन डॉक्टरों ने यह ऑपरेशन किया है, और जिस मरीज से यह दिल मिला होगा, इन सबका योगदान दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने में बहुत बड़ा है। ये लोग न तो सरहद पर हैं, न मुल्कों की राजधानियों में हैं, लेकिन इनकी रहमदिली और दरियादिली से एक नौजवान लडक़ी को नई जिंदगी मिली है, और दोनों तरफ के अमन-पसंद लोगों को अपनी बात आगे बढ़ाने की एक वजह भी मिली है। हम इस एक हार्ट ट्रांसप्लांट को महज एक जिंदगी देने वाला नहीं मानते, हम इसे सरहद के आरपार सद्भावना बढ़ाने का एक मौका भी मानते हैं, और जिन लोगों का इंसानियत के बेहतर पहलुओं पर भरोसा हो, उन्हें ऐसे मामले बढ़ाते भी रहना चाहिए। जिस तरह फिल्म बजरंगी भाईजान देखने वालों को यह समझ पड़ता है कि सीमा के कंटीले तार दोस्ती और मोहब्बत को नहीं रोक पाते हैं, भला काम करने की नीयत को नहीं रोक पाते हैं, ठीक वैसी ही भावना और मदद अभी के इस ट्रांसप्लांट में सामने आई है। हमारी दोनों ही मुल्कों से यह गुजारिश है कि फौजी तनातनी से परे आम जनता की आवाजाही, कारोबार, खेल, फिल्म, टीवी, और साहित्य सरीखे मामलों को सरकारी दखल से अलग रखें, और इंसानों के बीच बेहतर आपसी रिश्ते एक दिन सरकारों को भी साथ बैठकर सुलह करने को मजबूर कर सकते हैं। यह एक अलग बात है कि कोई सुलह न होना इन सरकारों को अधिक सुहा रहा होगा, लेकिन हम इसी बात पर आज की चर्चा खत्म करना चाहेंगे कि चेन्नई के अस्पताल में हिन्दुस्तानी दिल पाने वाली पाकिस्तानी युवती इन दोनों मुल्कों के बीच एक किस्म का पुल बनी है, और इस पर चलकर बेहतर रिश्तों की आवाजाही होनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल विश्वविद्यालय में फार्मेसी के चार छात्रों ने इम्तिहान की उत्तर पुस्तिका में बस जय श्रीराम लिख दिया था, और उन्हें 56 फीसदी अंक देकर पास किया गया। जब सूचना के अधिकार के तहत किसी और ने ये उत्तरपुस्तिकाएं मांगीं, तो इसका भांडाफोड़ हुआ। इसके बाद विश्वविद्यालय ने जांच कमेटी बनाई, और इन उत्तर पुस्तिकाओं का पुर्नमूल्यांकन करवाया, तो उन्हें शून्य नंबर मिले। विश्वविद्यालय की जांच में दो शिक्षकों को इस काम के लिए दोषी ठहराया है। एक पूर्व छात्र ने आरटीआई से कॉपियां निकलवाईं, और राजभवन शिकायत की तब जाकर पिछली दिसंबर में जांच का आदेश हुआ था। इस मामले में रिश्वत भी एक वजह हो सकती है, लेकिन जिस तरह से धर्म के नाम का इस्तेमाल किया गया है, उससे तो पक्के धर्मालुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचनी चाहिए थी, लेकिन जिस तरह छत्तीसगढ़ के महादेव सट्टेबाजी ऐप के नाम से किसी की धार्मिक भावना को आज तक ठेस नहीं पहुंची है, उसी तरह जय श्रीराम लिखकर फेल को पास करवाने के कारोबार से भी भक्तों पर असर पड़ा नहीं दिखता है।
हिन्दुस्तान में ऐसा लगता है कि धार्मिक भावनाएं अब सहूलियत का सामान हो गई हैं, जब किसी से हिसाब चुकता करना हो तब इन भावनाओं को भडक़ाया जाता है, पुलिस या अदालत तक रिपोर्ट लिखाई जाती है, गले काटने के फतवे दिए जाते हैं, और बाकी वक्त लोगों का भक्तिभाव अन्ना हजारे के अंदाज में सोए रहता है। जिस तरह महाराष्ट्र के तथाकथित खादीधारी-गांधीवादी अन्ना हजारे कुछ चुनिंदा और नापसंद नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ छांट-छांटकर आंदोलन करते हैं, और बाकी भ्रष्ट लोगों के हाथ मजबूत करते हैं, आज हिन्दुस्तान में धार्मिक भावनाओं का हाल कुछ वैसा ही हो गया है। देश की तीन चौथाई से अधिक आबादी मांसाहारी है, लेकिन कौन कब मांस खाए, और कब न खाए, यह एक बड़ा मुद्दा बना दिया गया है, तेजस्वी यादव के मछली खाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक मंच से चुनावी सभा में इस पर हमला किया। दूसरी तरफ गोवा और केरल से लेकर उत्तर-पूर्व तक के भाजपा नेता गोमांस की खुली वकालत करते हैं, लेकिन उनसे देश के हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होने दी जातीं, ऐसे राज्यों में वोटरों को साधने के लिए गोमांस की गारंटी दी जाती है, और देश में बाकी जगह सरकारें तय करती हैं कि कब किसे क्या खाना चाहिए।
हिन्दुस्तान में जिंदगी के असल मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है, और पन्नों के बीच में इतनी गैरजरूरी बातें लिख दी गई हैं कि असल मुद्दों के लिए कुछ शब्दों की जगह भी न बचें। और हैरानी यह है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सतही और गैरजरूरी मुद्दों में इस कदर मगन हो गया है कि उसे अपनी खुद की असली दिक्कतों से लेना-देना नहीं रह गया है। पौराणिक कहानियों में जिस तरह से त्यागियों को बताया जाता है, हिन्दुस्तान में आज वोटरों का एक बड़ा हिस्सा वैसा ही त्यागी हो गया है, और वह शेर पालने का खर्च उठाने के लिए पांच सौ लीटर भी पेट्रोल-डीजल लेने की अपनी हिम्मत बताता है। असल जिंदगी में शेर पाने से क्या हासिल होगा इसकी कोई चर्चा नहीं होती है। लोगों की आर्थिक स्थिति अपने बच्चों के दूध के लिए गाय-बकरी पालने की भी नहीं है, लेकिन उनका उन्माद उन्हें शेर पालने का हौसला देता है। यह एक अभूतपूर्व और असाधारण दर्जे की समझ है, जिसकी पूरी दुनिया में शायद ही कोई मिसाल मिले। अपनी राजनीतिक पसंद के लिए लोग अगर हर तकलीफ को अनदेखा करने के लिए, हर तकलीफ को उठाने के लिए तैयार हैं, तो फिर लोकतंत्र के लिए तकलीफ के अलावा इसमें और क्या है? और जब वोटर-आबादी का एक तिहाई हिस्सा ऐसा समर्पित हो जाए, तो इस समर्पण से चुनावी मुकाबला भला क्या हो सकता है?
लोगों के मन में राजनीतिक प्रतिबद्धता रहे यह तो अच्छी बात है, लेकिन यह प्रतिबद्धता उनसे सही और गलत में फर्क करने की ताकत अगर छीन ले, तो यह प्रतिबद्धता आत्मघाती होती है। भारतीय लोकतंत्र आज ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। आज तकनीकी रूप से चुनाव कराना कामयाब होने को लोकतंत्र मान लिया गया है, और थोक में दल-बदल को संवैधानिक। इन दोनों मकसदों को पाने के लिए कितना जायज, और कितना नाजायज किया जा रहा है, यह बात अगर लोगों के लिए मायने नहीं रखती है, तो फिर ऐसा चुनाव लोकतंत्र के लिए भला क्या मायने रख सकता है? यह नौबत भयानक है। हिन्दुस्तान सहित बहुत से देश ऐसे रहे हैं जहां पर कुछ बड़े नेताओं का व्यक्तिवाद बड़ा लोकप्रिय रहा है। उन्हें तर्कों से परे समर्थन मिलते रहा है, लेकिन जब इसके साथ-साथ धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का एक घोल बन जाता है, तो फिर उसके नशे का न तो कोई जवाब हो सकता, न ही कोई तोड़ हो सकता। भारत आज ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। इसके साथ-साथ जब न सिर्फ चुनावी राजनीति, बल्कि तमाम पांच बरसों की राजनीति, और जनधारणा प्रबंधन जैसे काम एक बहुत ही अनोखे पेशेवर अंदाज में किए जाने लगे हैं, तो हिन्दुस्तान के अधिकतर राजनीतिक दलों को इस बदले हुए माहौल में टिके रहने की तरकीब समझ नहीं आ रही है। और लोकतंत्र को कानून के दायरे में कई किस्म की राजनीतिक और चुनावी तरकीबों की इजाजत देता है, और देश में आज वही हो रहा है।
यह बात शुरू हुई थी फार्मेसी के इम्तिहान में विज्ञान की बातें लिखने के बजाय जय श्रीराम लिखकर आने वालों को पास करने से। जब खालिस विज्ञान की जगह खालिस धर्म ले ले, तो आज के वक्त को कुछ हजार साल पहले चले जाना चाहिए, और इन बरसों के विज्ञान को अछूत मानकर उसकी सहूलियतों से परहेज करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भाजपा के एक विधायक रिकेश सेन ने एक हिन्दू धार्मिक कार्यक्रम में कल भाषण देते हुए कहा कि देश के अंदर धर्म परिवर्तन कराने की कोई कोशिश करे तो उसकी गर्दन काटकर रख देना। एक तरफ जब सुप्रीम कोर्ट देश में नफरती-जहरीली बातों पर रोक लगा रहा है, कड़ाई बरत रहा है, तब गला या सिर काट देने की बातें पचाने की ताकत इस देश का चुनाव आयोग ही रखता है। और चुनाव आयोग की असाधारण पाचन क्षमता की डॉक्टरी जांच सुप्रीम कोर्ट को भी करवाना चाहिए क्योंकि आयोग की यह पाचन शक्ति लोकतंत्र को ही पचाकर खत्म कर रही है, और चुनाव को उसने महज एक मशीनी काम बनाकर रख दिया है। आज यहां पर हमने कुछ कतरा-कतरा बातों को जोडऩे की कोशिश की है, इसे पढऩे वाले लोग भी इससे जुड़ी हुई कुछ और बातों को जोडक़र देख सकते हैं।
अभी यह मामला अदालत में है, और न इस पर कोई फैसला हुआ है, और न ही वॉट्सऐप चलाने वाली कंपनी मेटा ने इसे हिन्दुस्तान में बंद किया है, लेकिन भारत सरकार के सूचना तकनीक कानून के मुताबिक अगर इस मैसेंजर सर्विस को सरकार के मांगे संदेश की जानकारी देनी होगी, तो उसके बजाय मेटा इस सर्विस को बंद कर देने के लिए तैयार है। कल इस कंपनी ने साफ-साफ कहा है कि वॉट्सऐप-संदेशों की गोपनीयता भंग करने के बजाय वह हिन्दुस्तान से इस सर्विस को हटा ही लेगी। वैसे तो यह शुरूआती टकराव सुप्रीम कोर्ट तक जा सकता है, लेकिन फिर भी सरकार के कानून और कंपनी के तेवरों में यह एक सवाल खड़ा तो कर ही दिया है कि लोकतंत्र में निजता का कितना महत्व होना चाहिए, और सरकार जिसे कानून के खिलाफ माने, उसे उजागर करने की जिम्मेदारी कितनी होनी चाहिए। भारत में टेक्नॉलॉजी तो मोटेतौर पर दुनिया के किसी भी सबसे विकसित देश जितनी है, लेकिन निजता के अधिकारों का महत्व यहां पर विकसित लोकतंत्रों के आसपास भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि बिना लोकतंत्र के टेक्नॉलॉजी कितनी खतरनाक हो सकती है, जनता के हक के लिए भी, और सरकार की जिम्मेदारी के लिए भी, यह समझने की जरूरत है।
आज भारत में देश की सरकार, और प्रदेशों की सरकारों से लोगों के मन में इतनी दहशत है कि वे लोगों के कॉल डिटेल्स और संदेशों में ताक-झांक करती हैं। जब इजराइल का बना हुआ, फौजी लाइसेंस पर मिलने वाला, पेगासस नाम का घुसपैठिया सॉफ्टवेयर भारत में इस्तेमाल करने की बात आई, तो केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया, और यह कहा कि वह यह भी टिप्पणी नहीं करेगी कि उसने यह सॉफ्टवेयर खरीदा है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट की बनाई एक तकनीकी विशेषज्ञ कमेटी भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई, और यह मुद्दा वक्त की मौत खत्म हो गया कि क्या देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं, और प्रमुख पत्रकारों के मोबाइल फोन पर केन्द्र सरकार की एजेंसियों ने पेगासस से घुसपैठ की थी, या नहीं। लेकिन लोगों के मन में इस बात को लेकर न सिर्फ सरकारी एजेंसियों पर शक है, बल्कि लोग जिनसे फोन पर बात करते हैं उन पर भी शक रहता है कि वे लोग बातचीत को रिकॉर्ड कर रहे हैं, या वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों की वीडियो कॉल को भी किसी दूसरे फोन को सामने रखकर उस पर तो रिकॉर्ड नहीं कर रहे हैं? दरअसल वक्त ऐसा ही आ गया है कि न सिर्फ सरकार चलाने के लिए, बल्कि राजनीति चलाने के लिए भी, और कारोबारी मुकाबलों के लिए भी लोग प्रतिद्वंद्वियों की जासूसी करते हैं, और ऐसे वक्त में लोगों को यह मानकर चलना गलत नहीं है कि वे अगर जरा भी महत्वपूर्ण हैं, तो निशाने पर हैं।
फिर सरकारी अफसर, खासकर खुफिया एजेंसियों के लोग, आने वाली हर सरकार के राजनेताओं को ऐसी कई तरकीबें बताते हैं कि कानूनी-गैरकानूनी तरीकों से कैसे मुकाबले में आगे रहा जा सकता है, और दूसरे लोगों को पीछे छोड़ा जा सकता है। ऐसे आसान औजारों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की सहूलियत हर ताकतवर के मन में लालच पैदा कर देती है, और फिर यह इंसानी मिजाज तो रहता ही है कि दूसरों की बंद जिंदगी में कैसे ताक-झांक की जाए। लोग तुरंत ही कानूनी और गैरकानूनी जासूसी के नफे देखने लगते हैं, और हिन्दुस्तान में शायद ही किसी को यह याद रहता है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका के राष्ट्रपति रहे रिचर्ड निक्सन को किस तरह विपक्ष की जासूसी करने के आरोप में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था। जिस किसी नेता को दूसरों की जासूसी करवाने में मजा आता हो, उन्हें यह देखना चाहिए कि अमरीकी राष्ट्रपति का इस हरकत के बाद क्या हाल हुआ था, और महाभियोग से बचने के लिए इस्तीफा देने वाले निक्सन पहले राष्ट्रपति हुए थे जिन पर विपक्षियों की जासूसी की तोहमत पूरी तरह साबित भी हुई थी।
भारत में आज सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली सिरे से सिरे तक सुरक्षित मैसेंजर सर्विस वॉट्सऐप सबसे अधिक लोकप्रिय है, और छोटे-छोटे कारीगर, और कामगार भी इसका इस्तेमाल करते हैं, और निजी संदेशों से परे कारोबारी संदेशों को देखें तो भी हिन्दुस्तान में हर दिन दसियों करोड़ ऐसे संदेश आते-ृजाते हैं जिन पर इस देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा टिका हुआ है। हम केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी और फिक्र की बात नहीं करते, वह तो प्राथमिकता रहनी ही चाहिए, लेकिन उससे संबंधित संदेशों का महत्व इस मैसेंजर सर्विस से देश की अर्थव्यवस्था के साथ तौलकर भी देखना चाहिए कि अगर यह सेवा खत्म हो गई, तो कोई दूसरी सेवा क्या इस जरूरत को पूरा कर सकेगी? क्या भारत सरकार खुद ऐसी कोई मैसेंजर सर्विस शुरू कर सकेगी जिस पर लोगों को भरोसा भी होगा। आज तो पूरी दुनिया में सोशल मीडिया से लेकर ईमेल, और मैसेंजर सर्विसों तक हर चीज निजी हाथों में हैं क्योंकि सरकारी औजारों पर किसी को गोपनीयता का भरोसा नहीं हो सकता। आज से करीब 25 बरस पहले बनी एक अमरीकी फिल्म, एनेमी ऑफ द स्टेट, लोगों को जरूर देखनी चाहिए कि निगरानी रखने की टेक्नॉलॉजी और सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल से कोई लोकतांत्रिक सरकार भी अपने विरोधियों को किस तरह खत्म कर सकती है। यह फिल्म 25 बरस पहले की अमरीकी सरकार की ताकत का एक नजारा पेश करती है, और तब से अब तक तो टेक्नॉलॉजी ने कई पीढिय़ां तय कर ली हैं, अब निगरानी और नुकसान की सरकारी ताकत कई गुना बढ़ गई है। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरत के लिए भी आज दुनिया की किसी सरकार के हाथ में नागरिकों की हर गोपनीयता देने का मतलब लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर देना होगा। जहां तक जनता की निजता की बात है, कोई सरकारों पर जरा भी भरोसा नहीं किया जा सकता, यह बात हमने हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में लंबे समय से देखी हुई है, और जब निगरानी और जांच एजेंसियां सत्तारूढ़ नेताओं के साथ मिलकर मुजरिम गिरोह की तरह काम करने लगती है, तो जनता की निजता की चौकीदारी का, और उसमें ताक-झांक का हक इन लोगों को नहीं दिया जा सकता। आज हिन्दुस्तान में लोगों की निजी जिंदगी से लेकर हजार किस्म के काम-धंधों के बारे में सोचना चाहिए कि वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों के बिना इस देश के लोगों का काम कैसे चलेगा? और यह बात तो जाहिर है ही कि जब लोगों की निजी जिंदगी में ताक-झांक के लिए कोई कंपनी सरकार को दरवाजे में एक सुराग बनाकर देगी, तो सरकार उस छेद को अपना सिर भीतर डालने जितना तो बना ही लेगी। अच्छा है कि यह मामला अदालत में पहुंचा हुआ है, और इस पर सरकारी रूख से परे कानूनी नजरिया भी सामने आ जाएगा।
छत्तीसगढ़ के जिन निजी अस्पतालों में सरकारी योजनाओं के तहत गरीबों का बिना भुगतान इलाज होता है, और जिसका भुगतान बाद में सरकार करती है, उनका काम ठप्प हो गया है। अस्पतालों का कहना है कि राज्य में आयुष्मान योजना का भुगतान ही हजार करोड़ से अधिक बकाया हो गया है, और ऐसे में उनके लिए यह मुमकिन नहीं है कि इस योजना के तहत इलाज और ऑपरेशन करें, और अस्पताल भी चलाएं। इस योजना में 40 फीसदी योगदान राज्य सरकार का रहता है, और 60 फीसदी रकम केन्द्र सरकार से आती है। छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश सरकार के समय से सैकड़ों करोड़ का यह बकाया चले आ रहा था, जो अब बढ़ते-बढ़ते शायद 13 सौ करोड़ तक पहुंच गया है। यह हालत भी तब है जब 6 महीने के फासले में दो-दो चुनाव हो रहे हैं, और 6 महीने बाद पंचायत-म्युनिसिपल चुनाव भी हैं, और वैसे में अगर गरीब जनता का इलाज बंद हो रहा है, तो उसके चुनावी-राजनीतिक नतीजे तो होंगे ही। पिछले विधानसभा चुनाव के समय केन्द्र सरकार से ग्रामीण रोजगार की योजना मनरेगा के भी 6-7 सौ करोड़ रूपए आने बाकी थे, और मजदूरी का भुगतान कई महीनों से नहीं हुआ था। एक और विभाग की बात करें तो जिन निजी स्कूलों में शिक्षा के अधिकार योजना के तहत गरीब बच्चों का दाखिला होता है, वहां पर सरकार से उनकी फीस न पहुंचने की वजह से उन स्कूलों को भी परेशानी हो रही है। कुल मिलाकर कोई भी सरकार हो, उसकी जनकल्याण की योजनाओं का हाल इसलिए बदहाल है कि चुनावी नजरिए से इनकी घोषणाएं तो हो जाती हैं, लेकिन राज्य के बजट में इनका ठीक से इंतजाम नहीं रहता, और साथ-साथ बजट में दिखाई गई कमाई कभी पूरी नहीं आती। इन सबसे परे केन्द्र और राज्य सरकारों पर कोरोना-लॉकडाउन के दौर में जो भारी-भरकम बोझ पड़ा, उसमें भी हर राज्य कर्ज में दब गए, अर्थव्यवस्था चौपट हो गई।
अभी चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुजुर्गों के इलाज की एक नई योजना भी घोषित की है, और चुनाव प्रचार के रूप में उसके फॉर्म भी भरवाए जा रहे हैं। अब आज अगर पुरानी योजनाओं का यह हाल है कि न तो पिछली कांग्रेस सरकार, और न ही वर्तमान भाजपा सरकार सरकार की मौजूदा योजनाओं के तहत इलाज का खर्च उठा पा रही हैं, निजी अस्पताल अपने बिल लिए हुए बंद होने की कगार पर हैं, तो ऐसे में किसी भी तरह की नई योजना की घोषणा के पहले यह तौलना जरूरी है कि इनका भुगतान कहां से होगा। चुनावी घोषणाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी मामला चल रहा है कि जनता को मुफ्त में देने के वायदों की सीमा कैसे तय की जाए, सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी करके उनकी राय पूछी भी है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर एक बार सरकार बना लेने के लिए राजनीतिक दल कोई भी वायदा करने के लिए तैयार हैं, और फिर चाहे उसे पूरा न कर सकें। छत्तीसगढ़ में यह बहुत भयानक नौबत है कि निजी अस्पताल सरकार की योजनाओं के तहत इलाज करने से मना कर रहे हैं, क्योंकि उधारी की उनकी क्षमता खत्म हो चुकी है।
चुनाव जीतने के गलाकाट मुकाबले से परे यह समझने की जरूरत है कि राज्यों को अंधाधुंध कर्ज लेकर रेवड़ी बांटने के अंदाज में सहूलियतें नहीं बांटनी चाहिए। छत्तीसगढ़ की पिछली कांग्रेस सरकार ने अपनी राजनीतिक घोषणा के तहत हर आय वर्ग के लोगों का मुफ्त सरकारी इलाज करवाने का वायदा किया था, और उसे लागू भी कर दिया था। नतीजा यह था कि महंगी कारों में अस्पताल पहुंचने वाले लोग भी मुफ्त में इलाज पा रहे थेे, और सरकार वादाखिलाफी की तोहमतों से बचने के लिए गरीब-अमीर सभी को मुफ्त इलाज दे रही थी, निजी अस्पतालों में भी। इस सिलसिले ने न सिर्फ सरकार के इस विभाग की कमर तोड़ दी, बल्कि राज्य का पूरा विकास भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ। जनकल्याण की कोई भी योजना जरूरतमंद तबके के लिए ही होनी चाहिए। बहुत बड़े संपन्न किसानों की कर्जमाफी से लेकर, पैसेवालों के मुफ्त इलाज तक, राजनीतिक दल लापरवाही से कही हुई अपनी बातों पर अड़े रहने के लिए जनता के बजट का कितना भी हिस्सा खर्च करने को तैयार हो जाते हैं। बिजली की रियायत देने के लिए गरीब-अमीर हर किसी को एक सीमा तक छूट देना भी इसी किस्म का बेदिमागी का फैसला है, क्योंकि जिनके घर एसी चलते हैं, हजारों रूपए का बिल आता है, उन्हें दो सौ यूनिट की छूट क्यों देनी चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले के दौरान ही यह बात साफ होनी चाहिए कि राजनीतिक दल जब कभी ऐसी कोई घोषणा करें, तो उसके साथ यह शर्त जुड़ी रहे कि लाभ पाने वाले लोगों के बारे में नियम और शर्त भी घोषित की जाए, और अनुमानित खर्च भी बताया जाए। इसके बिना किसी तरह के जनकल्याण की कोई योजना, या कोई रेवड़ीनुमा योजना घोषित नहीं होनी चाहिए। इसे राजनीतिक दलों की मान्यता के चुनाव आयोग के नियमों से भी जोड़ा जा सकता है, या सुप्रीम कोर्ट जैसा कि कुछ दूसरे मामलों में करता है, संसद को भी सुझा सकता है कि वह इस बारे में कोई व्यापक कानून बनाए। आज देश के कई प्रदेशों की हालत मुफ्त की योजनाओं की वजह से खराब है। पंजाब मुफ्त की बिजली देकर दीवालिया होने की कगार पर है, गुजरात और हरियाणा में आयुष्मान योजना बंद ही कर दी है, बंगाल की हालत सरकारी कर्मचारियों को तनख्वाह देने की नहीं है। यह सिलसिला चुनावी जीतने के लिए किए जाने वाले वायदों की वजह से इस नौबत तक पहुंचा है। यह बंद होना चाहिए। देश में वित्तीय अनुशासन बने रहने के लिए यह भी होना चाहिए कि जनता के समझ आने वाली जुबान में केन्द्र और राज्य हर सरकार को अपनी योजनाओं की लागत समझाना चाहिए, और राजनीतिक दलों को अपने घोषणा पत्र की लागत साथ लिखनी चाहिए। आज कहने के लिए हर गरीब को अनाज, मकान, बेरोजगारी भत्ता, मुफ्त इलाज, मुफ्त पढ़ाई जैसी हजार बातें कही जाती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि मनरेगा के मजदूरों को भी महीनों तक मजदूरी नहीं मिलती। देश में यह राजनीतिक पाखंड खत्म होना चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इस मामले की सुनवाई के दौरान ही ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि राजनीतिक दल, और केन्द्र या राज्य सरकारें जनता के सामने पारदर्शी हिसाब रखने को मजबूर हों। फिलहाल देश के राज्यों को इस बात से जूझना है कि जो इलाज जनता को चाहिए, उसका भुगतान कैसे होगा, और अभी इस चुनाव में जिन और लोगों को मुफ्त इलाज से जोडऩे की घोषणा हुई है, उनका खर्च कहां से आएगा?
राजस्थान के पिछले कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के एक सबसे भरोसेमंद ओएसडी रहे लोकेश शर्मा ने लोकसभा चुनाव मतदान के बीच गहलोत पर उनके कार्यकाल के दौरान गंभीर गलत काम करने के आरोप लगाए हैं। उन्होंने यह तक कहा है कि गहलोत ने पार्टी के भीतर अपने प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट के फोन टेप कराए थे। उन्होंने यह भी कहा कि किस तरह से मुख्यमंत्री सचिवालय, और पुलिस-प्रमुख जैसे लोग फोन टैप करने में शामिल थे। लोकेश शर्मा ने यह भी कहा कि पेपर लीक कराने के मामले में भी गहलोत सरकार शामिल थी। यह तो राजस्थान का ताजा मामला हुआ, छत्तीसगढ़ में कल तक कांग्रेस पार्टी में रहे एक मंझले नेता ने आज पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर उद्योगपतियों से हजारों करोड़ रूपए रिश्वत लेकर उन्हें टैक्समाफी देने का आरोप लगाया है। इसी तरह दूसरे प्रदेशों में भी देखें तो जहां-जहां कोई सत्तारूढ़ पार्टी जब गर्दिश में पड़ती है, तो उसमें सत्ता के कई भरोसेमंद लोग तरह-तरह के भांडाफोड़ करते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस छोडक़र निकलने वाले बहुत से नेताओं ने भाजपा में जाने के बाद सरकार के भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ किया है।
अब सवाल यह उठता है कि सत्ता जब कोई भी गलत काम बिना कई लोगों के शामिल हुए नहीं कर सकती है, तो फिर वह, या उसके बड़े लोग किस तरह के हौसले के साथ अंधाधुंध, उगाही करने लगते हैं, जुर्म के दर्जे की साजिशें करने लगते हैं, और खतरा भी उठाते हैं? छत्तीसगढ़ के पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इस मायने में अब तक खुशकिस्मत बने हुए हैं कि उनके चारों तरफ के लोग ईडी के शिकंजे में आ चुके हैं, उनकी सरकार हांकने वाले अविश्वसनीय ताकतवर अफसर आज जेल में हैं, लेकिन किसी ने भूपेश बघेल के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया है, कम से कम अब तक तो ऐसा सामने नहीं आया है। अब सवाल यह उठता है कि मुख्यमंत्री के दाएं हाथ से लेकर बाएं हाथ तक, उनके कानों से लेकर उनकी आंखों तक, तमाम लोग जब जेल में पहुंचे हुए हैं, या अदालत के कटघरे में हैं, तो नौबत इतनी खराब होने क्यों दी गई थी? देश के दूसरे प्रदेशों के मुकाबले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी आज भी कुछ जाहिर और कुछ रहस्यमय वजहों से एक बनी हुई है, लेकिन राजस्थान के पिछले सीएम गहलोत के ओएसडी सरीखे एक-दो लोग भी अगर इस प्रदेश में निकल आएंगे, तो क्या होगा? लेकिन सत्ता से मिलने वाली बददिमागी बड़ी भयानक होती है। एक किसी शायर ने लिखा था- तुमसे पहले ओ जो इक शख्स यहां तख्त-नशीं था, उसको भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था।
न सिर्फ सरकारी भ्रष्टाचार के मामले में बल्कि सरकारी बददिमागी और राजनीतिक रंजिशों के मामले में भी लोगों को अक्ल नहीं आती है कि किसी दिन उनकी सत्ता नहीं भी रहने वाली है। ऐसा इमरजेंसी के दौरान भी हुआ था जब इंदिरा और उनके तानाशाह बेटे ने यह मान लिया था कि आपातकाल की ताकत जिंदगी भर रहने वाली है। जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस देखे हैं, उन्हें भी सत्ता के कुछ ऐसे ही यकीं देखने मिले थे। और आज देश के कई नेताओं के बयान सुनें तो भी यही लगता है कि उन्हें कभी सत्ता खत्म होने की कोई आशंका है ही नहीं। जबकि दुनिया में बहुत बड़े-बड़े राजा-महाराजा आए-गए हो गए हैं, जिनके आज कोई नामलेवा भी नहीं बचे हैं। कुछ इसी अंदाज में लोग भ्रष्टाचार में भी लगे रहते हैं। कई पार्टियां तो ऐसी रहती हैं कि सत्ता में आते ही पिछली सरकार के भ्रष्ट तंत्र का इस्तेमाल तुरंत शुरू कर देती हैं, और वहां से आगे फिर अपनी कल्पनाशीलता दिखाती हैं, नए-नए रास्ते और निकालती हैं। सरकार बनती नहीं हैं कि उसके भ्रष्ट होने की पुख्ता कहानियां हवा में तैरने लगती हैं। उन लोगों को देखकर लगता है कि या तो ये तमाम बदनामी के साथ सारे राजनीतिक पूंजीनिवेश का मुनाफा पांच बरस में निकाल लेना चाहते हैं। और ऐसा करने के लिए जाहिर है कि उन्हें आसपास के बहुत से लोगों को राजदार बनाना पड़ता है, और ऐसे ही राजदार आगे जाकर किसी दूसरी पार्टी में दाखिल होकर, या अदालत में वायदा माफ गवाह बनकर जुर्मों का जिक्र करने लगते हैं, सुबूत देने लगते हैं। हमको इसमें नुकसान का कुछ नहीं दिखता। जो नेता और अफसर जुर्म करते हैं उनके खिलाफ बेवफाई करने वालों को हम गद्दार कहना नहीं चाहेंगे क्योंकि उससे देश का और कानून का तो भला ही हो रहा है। और किसी एक व्यक्ति के जुर्म के साथ वफादार रहने के बजाय देश के कानून के साथ वफादारी बेहतर है। ऐसा जितना अधिक से अधिक हो, जनता के हित में उतना ही अच्छा है। और जब सौ-पचास लोग अपने पुराने साथियों के भांडाफोड़ की वजह से जेल जाएंगे, तभी लोगों का हौसला गिरोहबंदी करके जुर्म करने पर से कम होगा। इंसानी रिश्तों में नेक काम के लिए अगर वफादारी निभती है, तो वह काम की है, जब नेता, पार्टियां, और सरकारें संगठित मुजरिम गिरोहों की तरह काम करने लगते हैं, तब तो उनके बीच के बेवफा लोग ही लोकतंत्र के प्रति वफादार कहे जा सकते हैं। इसलिए हम ऐसी किसी निजी वफादारी की कमी गहलोत के ओएसडी के भांडाफोड़ में नहीं देखते। चारों तरफ इसी तरह का भांडाफोड़ होते रहना चाहिए, और उसी से सत्ता के जुर्म घट सकते हैं।
यूपीए के प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह की न कही हुई बातों को लेकर भी जिस तरह आज चुनावी बयानबाजी में उन पर तोहमतें लगाई जा रही हैं, उनको देखना भी भयानक है। किसी की बातों को तोडऩा-मरोडऩा तक तो ठीक है, लेकिन किसी की बातों के गोले का चूरा बनाकर, उसे मिट्टी की तरह सानकर उससे क्यूब की तरह चौकोन ढांचा बना देना तो कुछ ज्यादती ही है। गनीमत यह है कि मनमोहन सिंह की कही बातें वीडियो पर दर्ज हैं, ये एक अलग बात है कि आज के चुनावी माहौल के बिना भी जिन लोगों को झूठ फैलाना है, उन्हें कोई वीडियो सूबूत रोक नहीं पाता। मनमोहन सिंह ने देश के साधनों पर दलित, आदिवासियों, पिछड़े लोगों, और मुस्लिमों के पहले हक होने की जो बात कही थी, उसमें से पहले के तीनों तबकों को हटाकर सिर्फ मुस्लिम का नाम लेकर यह दहशत पैदा करना कि कांग्रेस आएगी तो हिंदू महिलाओं का मंगलसूत्र छीनकर उसे घुसपैठियों में बांट देगी, बयानबाजी के अब तक के स्तर को भी एकदम से पीछे छोडऩे वाली बात रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी हाल ही में तो देश की आर्थिक स्थिति अच्छी रहने के लिए मनमोहन सिंह की तारीफ कर रहे थे, लेकिन फिर वे पहले दौर के मतदान के बाद एकदम से जाने क्यों हिंदू-मुस्लिम, और घुसपैठिया-आबादी पर उतर आए हैं।
खैर, इस हड़बड़ी की जो भी वजह हो हम उसे चुनावी रूझान से जोडक़र देखना नहीं चाहते, लेकिन कल से कांग्रेस के एक दूसरे नेता के एक बयान को लेकर भाजपा के नेता टूट पड़े हैं। विदेश में बसे इंडिया ओवरसीज कांग्रेस के चेयरमैन सैम पित्रोदा ने अभी अमरीका के उत्तराधिकार टैक्स की तारीफ की है, और कहा है कि यह एक दिलचस्प कानून है जिसमें किसी दौलतमंद के मरने पर उसके बच्चों को सिर्फ 45 फीसदी संपत्ति मिलती है, और 55 फीसदी संपत्ति सरकार ले लेती है। उन्होंने कहा कि यह बड़ा दिलचस्प कानून है कि आप जीते-जी संपत्ति जुटाओं लेकिन जब आप जा रहे हैं तो संपत्ति का एक हिस्सा जनता के लिए छोडऩा होगा, पूरी संपत्ति नहीं, आधा हिस्सा। उन्होंने कहा कि भारत में ऐसा नहीं है, किसी अरबपति के जाने पर सब कुछ उसके बच्चों को ही मिलता है, देश या समाज को कुछ नहीं मिलता। सैम पित्रोदा की बात पर हमने अमरीका के इस कानून को पढ़ा तो यह वहां के कुछ राज्यों में ही लागू दिख रहा है, और मृतक के जीवनसाथी कोई टैक्स नहीं देना पड़ता, करीबी रिश्तेदारों को बहुत कम टैक्स देना पड़ता है। यह टैक्स अधिक पैसेवालों पर ही लागू है।
अमरीका के इस उत्तराधिकार कानून पर अधिक चर्चा आज का मकसद नहीं है, लेकिन चूंकि सैम पित्रोदा इस बात पर भाजपा ने कांग्रेस की जमकर निंदा की है, और खुद कांग्रेस ने इसे सैम की निजी राय बताया है, और कहा है कि वे स्वतंत्र विचारक भी हैं, और हर बार वे कांग्रेस का रूख नहीं बोलते हैं। कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश ने कहा है कि उनके बयान को बिना किसी संदर्भ के भारत के बारे में यह कहकर पेश करना कि कांग्रेस की सरकार बनने पर लोगों की आधी संपत्ति चली जाएगी, एक बहुत ही झूठा चुनाव प्रचार है। खुद सैम पित्रोदा ने भाजपा के खड़े किए हुए विवाद पर कहा कि उन्होंने निजी तौर पर अमरीका के उत्तराधिकारी टैक्स के बारे में जो कहा उसे तोड़-मरोडक़र गोदी मीडिया इस तरह पेश कर रही है। उन्होंने कहा कि यह बात तो किसी ने नहीं कही है कि भारत में लोगों की 55 फीसदी संपत्ति छीन ली जाएगी। उन्होंने कहा कि क्या बातचीत में अमरीका की मिसाल देना गलत है?
इस विवाद को हम यही पर छोड़ते हैं, और इसके साथ-साथ अमरीका के इस टैक्स के बारे में बात करते हैं क्या सचमुच ही यह टैक्स बहुत खराब है? आज भी भारत में मां-बाप की छोड़ी हुई जमीन को बेचने पर लोगों को एक कैपिटेशन टैक्स देना पड़ता है जो कि उस जमीन की खरीदी कीमत, और उसके बाद कीमत में बढ़ोतरी का हिसाब लगाकर बिक्री के वक्त होने वाले मुनाफे पर लगने वाला टैक्स है। इसी तरह अगर भरत में संपन्नता के एक स्तर के ऊपर अगर उत्तराधिकार टैक्स किसी शक्ल में लगता भी है, तो उसमें क्या बुराई है? देश के आर्थिक आंकड़े बताते हैं कि सबसे अमीर लोग और अधिक अमीर होते चल रहे हैं, और गरीबों की हालत और अधिक खराब होते चल रही है। यह फासला बढ़ते जा रहा है। ऐसे में अगर एक सीमा से अधिक अमीर लोगों के गुजरने पर इस देश में उनकी की गई कमाई पर अगर उत्तराधिकार टैक्स लगता है, तो उसका इस्तेमाल देश के उस ढांचे पर किया जा सकता है जिस ढांचे की वजह से देश में उद्योग-कारोबार चल रहे हैं, और कमा रहे हैं। हमारा ख्याल है कि किसी की संपत्ति छीने बिना संपन्नता के एक दर्जे के ऊपर अगर ऐसा टैक्स लगाकर देश को मजबूत किया जा सकता है, तो उस पर बात तो होनी चाहिए। यह वह देश है जहां पर 25 करोड़ लोगों को बिना भुगतान के अनाज मिलने पर ही वे भुखमरी से बचते हैं। ऐसे में देश के सबसे संपन्न दो-चार फीसदी लोगों की संपत्ति को अगली पीढ़ी तक जाते हुए कुछ कम कर दिया जाए, तो उससे क्या अमीरों का हौसला एकदम ही पस्त हो जाएगा? इस बात को सैम पित्रोदा के नाम से जोडक़र न देखें, इसे डोनल्ड ट्रम्प के नाम से जोडक़र देख लें, जो कि अभी पिछली बार तक अमरीका के राष्ट्रपति थे, अभी फिर राष्ट्रपति बनने की दौड़ में हैं, और नरेन्द्र मोदी के दोस्त भी हैं।
छत्तीसगढ़ के धमतरी में कल एक शादी समारोह में म्यूजिक डीजे पर नाचने के दौरान झगड़ा हुआ, और दो नौजवानों की चाकू के वार से मौत हो गई, और एक गंभीर जख्मी है। डीजे के शोरगुल को लेकर और उसके साथ जुड़ी हुई बाकी तमाम किस्म की अराजकता पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट पिछले एक-दो बरस से बड़े कड़े तेवर दिखा रहा है, और राज्य के मुख्य सचिव से एक से अधिक बार इस पर निजी हलफनामा ले चुका है कि लोगों का जीना हराम करने वाला यह शोरगुल कैसे थमेगा? अदालत ने कई किस्म की सख्ती दिखाई है और यह भी कहा है कि इस राज्य के अफसर संगीत के नाम पर इस शोरगुल को रोकना भी नहीं चाहते। अदालत का सरकारी अफसरों के साथ संघर्ष देखें, तो लगता है कि अदालत का कोई बस चल नहीं रहा है, जिस तरह घर में किसी बुजुर्ग की कही हुई बात को बाकी लोग अनसुना करते हों, उसी तरह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट बोले चले जा रहा है, और अफसरों पर उसका धेले का असर नहीं हो रहा है। शादियों के इस मौसम में पूरे प्रदेश में जगह-जगह न सिर्फ लाउडस्पीकरों को लेकर हाईकोर्ट के हुक्म पैरोंतले रौंदे जा रहे हैं, बल्कि शहर की जिंदगी भी ट्रैफिक जाम में बर्बाद की जा रही है, और शायद ही किसी जगह पुलिस और प्रशासन ने शादी के नाम पर ऐसी अराजकता रोकने की कोशिश भी की हो।
अब सवाल यह उठता है कि अगर बुनियादी कानूनों को लागू करने के लिए पुलिस और प्रशासन के पीछे हाईकोर्ट के जज लाठी लेकर लगे रहें, तो यह अधिक बड़ा अपमान किसका माना जाए? जजों का, या कि अफसरों का? क्या आईएएस-आईपीएस जैसी बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय सेवाओं से आने वाले अफसरों को इतने में तसल्ली हो जाती है कि वे मुख्यमंत्री, राज्यपाल, और हाईकोर्ट जजों के बंगलों को लाउडस्पीकरों की पहुंच से परे रख लेते हैं, अपने घरों में चैन से सो जाते हैं, और बाकी पूरे प्रदेश को अराजक गुंडों के रहमोकरम पर छोड़ देते हैं? हमने इसी प्रदेश में, राज्य बनने के दशकों पहले यह देखा हुआ है कि एक डिप्टी कलेक्टर, और एक डीएसपी रैंक के अफसर पूरे शहर के अवैध कब्जे हटवा देते थे, ट्रैफिक सुधार देते थे, डिप्टी कलेक्टर म्युनिसिपल कमिश्नर अवैध कब्जे तोड़वा देता था। आज छोटी-छोटी कुर्सियों पर आईएएस-आईपीएस बैठे हुए हैं, एक-एक जिले के पांच जिले बन गए हैं, और जहां दो बड़े अफसर रहते थे, वहां अब दर्जन भर से अधिक अफसर अखिल भारतीय सेवाओं के हैं, लेकिन उनका असर खत्म हो गया है। या तो राजनीति इतनी हावी हो गई है कि उसने अफसरों के हाथ बांध दिए हैं, या फिर अफसर ही अपनी महत्व मानी जाने वाली कुर्सियों पर खुद को महफूज बनाकर चलते हैं, और किसी को भी नाराज करना नहीं चाहते। नतीजा यह है कि जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी अराजक होते चल रही है, और उसके मन में नियम-कानून के लिए परले दर्जे की हिकारत मजबूत पैर जमाते जा रही है। अफसरों के दर्जन भर बार चेतावनी जारी करने के बाद भी सडक़ किनारे धंधा करने वाले छोटे-छोटे लाउडस्पीकरों वाले लोग भी जब उनकी बात नहीं सुनते, हाईकोर्ट की चेतावनियों की परवाह नहीं करते, तो यह जाहिर है कि जनता के मन में नियम-कानून का सम्मान पूरी तरह खत्म हो गया है।
यह नौबत देश में ऐसे नियम-कानून होने के मुकाबले अधिक खतरनाक है। अगर नियम-कानून ही न रहे, तो कम से कम जनता उनको तोडऩे की कुसूरवार नहीं रहती है, लेकिन जब छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े नियम अदालती फैसलों से लागू होते हैं, और कानून देश को एक अधिक सभ्य जगह बनाने की कोशिश करता है, उस वक्त भी अगर बड़े-बड़े अफसर अपनी छोटी-छोटी रह गई रियासतों में कड़े रूख वाले अदालती फैसलों को भी लागू नहीं करवा पाते, तो यह कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो जाने का एक बड़ा सुबूत है। जब जनता कुछ नियम तोडऩे के लिए आजाद रहती है, तो फिर वह चाकू-छुरी लेकर चलने, गाडिय़ों के साइलेंसर फाडक़र चलने को भी अपना हक मान लेती है, और छत्तीसगढ़ के जनजीवन में यह नौबत सिर चढक़र बोल रही है। नमूने के लिए हर जिले की पुलिस ऐसे कुछ लोगों को पकड़ लेती है, लेकिन हकीकत यह है कि उसका अनुपात असल बदअमनी के मुकाबले कुछ भी नहीं है। और दिक्कत यह है कि कानून मानने वाले, शरीफ लोग अधिक तकलीफ पाते हैं क्योंकि उनके मन में यह रंज भी रहता है कि वे हर कानून का पालन करते हैं, लेकिन कानून तोडऩे वालों से तकलीफ झेलते हैं, और सरकार उनकी मदद के लिए मौजूद नहीं हैं, क्योंकि वह तो हाईकोर्ट के सख्त फैसलों को लागू करने के लिए भी मौजूद नहीं है।
हम अगर फिर से तरह-तरह के लाउडस्पीकरों के हल्ले की बात पर लौटें, तो शादियों के इस मौसम में चारों तरफ लोगों ने मनमानी की है, और कई किलोमीटर तक जाने वाले शोरगुल को भी पुलिस-प्रशासन ने नहीं रोका है। अब तो दूर-दूर तक तरह-तरह की रौशनी फेंकने वाले लैम्प बाजारों में खुले बिक रहे हैं, और न इनके इस्तेमाल पर कोई रोक लगाई जा रही, न ही इनकी बिक्री पर। बहुत जाहिर तौर पर ऐसी लाईटें एक गंभीर प्रदूषण पैदा करती हैं, और ट्रैफिक के लिए खतरा खड़ा करती हैं, लेकिन जब तक ये सत्ता पर काबिज कुछ बड़े लोगों के लिए परेशानी का सबब नहीं बनेंगी, तब तक इनको रोकने की जहमत कोई नहीं उठाएंगे। आज तो हालत यह है कि बाजारों में दुकानदार इतने किस्म के लैम्प बाहर लगाकर रखते हैं कि वे चौराहों की ट्रैफिक लाईट का धोखा भी देते हैं, फिर भी इनको रोकने की कोई कोशिश नहीं होती है।
ये तमाम बातें नियमों को इस तरह तोडऩा नहीं है कि कहीं कोई एक ट्रक प्रतिबंधित समय में कहीं घुस गई हो। यह तो नियम-कानून तोडऩे का पूरा का पूरा हाईवे चल रहा है, और कोई रोकथाम नहीं है। अब तो हाईकोर्ट पर भी दया आती है कि उसे कितनी बार कितने लोग जाकर बताएं कि उसकी अवमानना हो रही है। अदालत भी शायद यह समझ चुकी है कि उसके बस में बस अपनी अवमानना कराना ही रह गया है, और वह दूसरे लोगों का आ-आकर यह याद दिलाना नहीं चाहती है। वैसे भी हम अखबार का जिम्मा सार्वजनिक मुद्दों पर खुलकर लिखने जितना मानते हैं, और किसी जर्नलिस्ट के एक्टिविस्ट की तरह अदालत जाने के खिलाफ हैं, इसलिए हम खुद होकर तो अदालत के सामने इस बात को नहीं रखते, लेकिन जिन लोगों ने इन मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाई थीं, उन्हें जरूर लाउडस्पीकरों और उससे जुड़ी कल की हत्याओं के बारे में अदालत को बताना चाहिए, और यह भी बताना चाहिए कि हाईकोर्ट के जांच कमिश्नर नियुक्त हुए बिना प्रदेश में जनता को जहन्नुम की जिंदगी से कोई नहीं बचा सकते। छोटे-छोटे बच्चों, बीमार लोगों, बूढ़ों, दूसरे प्राणियों, और रात-दिन की शिफ्ट में काम करते हुए आराम की जरूरत वालों की जिंदगी नर्क बनी हुई है, और कानून तोडऩे वालों के लिए यह प्रदेश स्वर्ग बना हुआ है। हाईकोर्ट जजों के रिहायशी इलाके, और अदालत का इलाका लाउडस्पीकरों से मुक्त रखा गया होगा, लेकिन अदालत को प्रदेश भर से इसकी रिपोर्ट जरूर बुलवाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ पुलिस का एक नया कारनामा हाईकोर्ट की मेहरबानी से उजागर हुआ है। अपने पड़ोसी द्वारा सडक़ पर अपना अहाता बनाने की शिकायत करने के लिए एक रिटायर्ड शिक्षिका और उनकी इंजीनियर बेटी पुलिस थाने पहुंचे थे, पुलिस ने उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया, शाम को अदालत में पेश किया, और कानूनी मदद नहीं लेने दी, और बॉंड भरकर जमानत पर रिहा होने का मौका भी नहीं दिया। पुलिस ने इस रिटायर्ड शिक्षिका को थाने में थप्पड़ भी मारे। अब छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने इसे स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन माना है, और इन्हें तीन लाख रूपए मुआवजा देने का आदेश राज्य सरकार को दिया है। जमानत पर रिहाई के पहले मां-बेटी तीस घंटे जेल में रखे गए थे, और उसका यह मुआवजा अब सरकार की जेब से जाने वाला है। यह तो शहर का मामला है, और शिकायकर्ता हाईकोर्ट तक जाने की ताकत रखते थे, लेकिन छत्तीसगढ़ के गांव-देहात और जंगलों में बसे हुए लोग इतने कमजोर रहते हैं कि उनके लिए थाने तक जाना भी मुश्किल रहता है, और अगर किसी कानूनी मदद से वे अदालत तक पहुंच भी पाते हैं, तो कई बार तो उनके मामले खारिज ही हो जाते हैं। हम हाईकोर्ट का यह ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि इसके बाद छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ सबक मिलने के आसार बन सकते हैं। हमारा यह भी ख्याल है कि जो पुलिसवाले इस मामले में जिम्मेदार पाए जाते हैं, उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी होनी चाहिए, और पुलिस को यह अक्ल भी मिलनी चाहिए कि शिकायतकर्ता महिलाओं की ऐसी गिरफ्तारी जैसी अराजकता इस प्रदेश में अभी नहीं है। अभी ऐसी कोई इमरजेंसी लगी हुई नहीं है कि पुलिस इतनी मनमानी कर सके, और न ही ये शिकायतकर्ता मां-बेटी पेशेवर मुजरिम हैं जिन्हें कि जेल भेजने की नीयत से इस तरह का इंतजाम किया गया। एक अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले की हिमायती बनकर अगर पुलिस ने शिकायतकर्ता को चुप करवाने की सुपारी उठाई थी, तो इसकी सजा भी उन सबको मिलनी चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार थे। हम हाईकोर्ट के इस कड़े फैसले को किसी संदेह के लायक नहीं मान रहे हैं, और यह फैसला न सिर्फ पुलिस बल्कि दूसरे सरकारी विभागों के लिए भी एक मिसाल बननी चाहिए। हमें सरकारी नियमों की बारीकियां नहीं मालूम हैं लेकिन अगर इन पुलिसवालों की बददिमागी से सरकार को जुर्माना देना है, तो उसकी वसूली भी इन लोगों से होनी चाहिए।
आज हिन्दुस्तान के बहुत से राज्यों में गलत काम करने वालों का ही राज चलता है। जैसा कि इस मामले में हुआ है, अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले को पुलिस से इस दर्जे की गैरकानूनी मदद भी मिली है। अवैध कामों में ही कमाई मोटी रहती है, और ऐसे माफिया का भागीदार बनने के लिए पुलिस और दूसरे सरकारी विभाग सभी उतावले बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही एक सबसे महंगी रिहायशी कॉलोनी ऐसी है जिसके मालिक ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ कोटवार की जमीन अपने घेरे में लेकर कॉलोनी का नक्शा भी पास करा लिया है, और शहर की सबसे महंगे प्लाट भी वहां बेच दिए हैं। जिस-जिस विभाग में इसकी शिकायत हुई, वहां के अफसरों ने भी इस कॉलोनी में जमीनें ले ली, मंत्रियों और नेताओं ने पहले से बहती गंगा में हाथ धो लिए थे। नतीजा यह है कि हर तरह के अवैध काम करने के बाद भी, हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ ऐसी कॉलोनी पनप रही है, और उपकृत आला अफसरों की मेहरबानी से वह अपनी दूसरी कॉलोनियों में भी तरह-तरह के अवैध काम कर रही है। यह किसी एक कारोबारी का हाल नहीं है, और न ही किसी एक कारोबार का, जिनका सरकारी नियमों से कोई भी वास्ता पड़ता है, उन सबके कामों के अवैध दर्जे का यही हाल है। इसलिए ऐसे ताकतवर लोगों के खिलाफ जब कोई शिकायत आती है, तो शिकायतकर्ता को निपटाने के लिए इनकी कॉलोनियों के प्लाट और मकान मालिक बने नेता और अफसर टूट पड़ते हैं। सरकार और कारोबार का यह माफियाई-रिश्ता इतना मजबूत है कि फेविकोल को इसी को अपने इश्तहार में इस्तेमाल करना चाहिए।
फिर पुलिस की बात पर लौटें, तो पुलिस की कोई भी कार्रवाई यह तौल लेने के साथ शुरू होती है कि जिसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, उससे कमाई की कोई उम्मीद है, या नहीं, उसकी कोई राजनीतिक पहुंच है या नहीं, और अगर राजनीति पहुंच है तो वह सत्तारूढ़ पार्टी में है, या विपक्ष में। जिस तरह हंसों के बारे में कहा जाता है कि वे मोती चुन लेते हैं, उसी तरह हिन्दुस्तानी पुलिस बिना राजनीतिक खतरे वाले मामलों को चुन लेती है, और फिर जिससे कमाई नहीं होने वाली है, उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। जिस जांच एजेंसी को बिना पूर्वाग्रह के सच को परखना चाहिए, उसके काम की शुरूआत ही फायदे के एक फैसले पर पहुंच जाने से होती है, और फिर उस फैसले के मुताबिक सुबूत जुटाने का सिलसिला चलता है। यह बात बस्तर जैसे इलाके में, नक्सल प्रभावित जंगल और गांव में आदिवासियों के खिलाफ अक्सर ही इस्तेमाल होती है, और उनके तो मामले भी हाईकोर्ट में जाकर दर्जनों के हिसाब से थोक में खारिज हो जाते हैं। वह एक अलग और लंबा सिलसिला है, इसलिए उसकी चर्चा यहां मुमकिन नहीं है। लेकिन बिलासपुर में एक मां-बेटी को जिस तरह उनकी शिकायत शांत करवाने के लिए, और एक अवैध कब्जा-निर्माण करने वाले का साथ देने के लिए पुलिस ने जिस तरह मां-बेटी को जेल भेजा, वह शहरी छत्तीसगढ़ के लिए भी थोड़ी सी अटपटी बात है, और प्रदेश की भाजपा सरकार के राजनीतिक, और दूसरे संगठनों के लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि उनकी सरकार की पुलिस अगर इस तरह मुजरिम-दर्जे का काम कर रही है, तो उसे सुधारा जाना चाहिए। ऐसा न होने पर पुलिस सत्ता को कितने गहरे गड्ढे में गिरा सकती है, यह राज्य में पिछले पांच बरस में अच्छी तरह साबित हो चुका है। प्रदेश की भाजपा सरकार को ऐसे अफसरों से सावधान रहना चाहिए जो कि सत्तारूढ़ नेताओं को तुरंत तो खुश करके रखें, लेकिन पांचवें बरस तक इतने गहरे गड्ढे में डाल दें कि संघ के तमाम लोग मिलकर भी भाजपा को नुकसान से न निकाल सकें। हम इस चर्चा को किसी के राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ बेकसूर जनता के लोकतांत्रिक हक के लिए यह बात कर रहे हैं, लेकिन इस मिसाल को देना जरूरी इसलिए है कि सत्तारूढ़ नेता इस एक खतरे को कुछ जल्दी समझ पाते हैं।
ब्रिटेन की खबर है कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने दूसरे देशों से आकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को उनके अपने देश की कमाई पर मिलने वाली टैक्स छूट को 15 साल से घटाकर 4 साल कर दिया है। उल्लेखनीय है कि ऋषि सुनक की भारतवंशी पत्नी की भारत से होने वाली कमाई पर ब्रिटेन में टैक्स न देने को लेकर पिछले बरस यह परिवार बड़े अप्रिय विवादों में घिरा था, और उसके तुरंत बाद टैक्स कानूनों को चुनौती दिए बिना अक्षता मूर्ति ने नियमों से अधिक टैक्स देने की घोषणा की थी। वे भारत में अपने पिता, नारायण मूर्ति से मिली जायदाद, और अपने खुद के काम की कमाई पर ब्रिटेन में बहुत कम टैक्स दे रही थीं, या टैक्स नहीं दे रही थीं। अब तक वहां के कानून में ऐसा ही प्रावधान था, लेकिन अब इस नए कानून के आने से ब्रिटिश पीएम परिवार पर लगी यह तोहमत भी हट सकेगी। वर्तमान प्रधानमंत्री ऋषि सुनक पहले वित्तमंत्री थे, और वित्तमंत्री रहते हुए उनकी पत्नी टैक्स छूट का जिस तरह फायदा उठा रही थी, उसे ब्रिटिश खजाने के साथ नाइंसाफी बताया गया था। उस शर्मिंदगी से उबरने के लिए ऐसा लगता है कि ऋषि सुनक ने इस नए कानून को बनाने में अधिक दिलचस्पी ली है। अभी तक भारत से जाकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को वहां अपनी भारतीय आय पर 15 साल तक टैक्स नहीं देना पड़ता था, और सिर्फ ब्रिटिश कमाई पर टैक्स लगता था। एक खबर बताती है कि पिछले पांच बरस में 83 हजार से अधिक भारतीयों ने ब्रिटिश नागरिकता ली थी, यह एक ऐसी योजना के तहत हुआ था जिसमें अतिसंपन्न लोगों को ब्रिटेन में मोटे पूंजीनिवेश के एवज में तुरंत ही वहां नागरिकता मिल जाती थी। अब इन नए टैक्स नियमों की वजह से ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानियों में ‘अंग्रेज’ बनने का आकर्षण कुछ कम होगा।
ऋषि सुनक की इस पहल को इस संदर्भ में भी देखना चाहिए कि भारत से किसी तरह का रिश्ता रखने वाले दूसरे देशों के बड़े कारोबारियों या सत्तारूढ़ नेताओं को लेकर भारत में जो एक बावलापन अक्सर ही सतह पर दिखता है, वह किसी काम का नहीं रहता, उसकी कोई जमीन नहीं रहती। भारतीय मूल की मां वाली अमरीकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को लेकर भारत में यह सनसनी फैली थी कि मानो अब अमरीकी रूख भारत के लिए बदल जाएगा। सच तो यह है कि दुनिया के किसी भी देश से दूसरे देश में पहुंचने वाले लोग जहां रहते हैं, काम करते हैं, राजनीति में आकर सत्ता तक पहुंचते हैं, वे उसी देश के होकर रह जाते हैं। सोनिया गांधी इटली से भारत आकर यहां राजनीति की ऊंचाईयों पर पहुंचीं, लेकिन क्या यूपीए सरकार के दस बरसों में वे इटली के साथ किसी तरह की रियायत कर पाईं? ऐसी ही नौबत कमला हैरिस या ऋषि सुनक की रहती है, या कनाडा में मंत्री बनने वाले बहुत से भारतवंशियों की भी रहती है। उनकी जड़ें, उनके डीएनए जरूर भारत से जुड़े रहते हैं, लेकिन वे अपने वर्तमान देश के ही रहते हैं, वहीं के लिए वफादार रहते हैं। सच तो यह है कि जब अपने जन्म या पुरखों के देश के साथ किसी रियायत का मौका आता है तो ऐसे नेता इसलिए हिचक जाते हैं कि उनके जरा भी नर्म बर्ताव उन पर यह तोहमत लगवा सकता है कि वे अपने पुरखों की जमीन के प्रति पूर्वाग्रह दिखा रहे हैं। इसलिए ईमानदार दिखने के लिए उन्हें कड़ाई कुछ अधिक बरतनी पड़ती है, जैसी कि आज ऋषि सुनक के फैसले से दिखाई पड़ रही है।
आज के वक्त जब दुनिया भर के लोग दूसरे देशों में जाकर वहां बहुत कुछ हासिल करते हैं, उस वक्त उनकी कामयाबी के बाद यह सोच लेना कि उनकी पहली वफादारी अपने जन्म के देश से होगी, बहुत बड़ी खुशफहमी है, और बेईमानी की उम्मीद है। हर किसी को अपने मौजूदा काम, मौजूदा देश, और मौजूदा विचारधारा के प्रति वफादार रहना चाहिए। अपने डीएनए से वफादारी किसी वैज्ञानिक शोध के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती। आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हर किसी को अपने वर्तमान के साथ ईमानदार रहना चाहिए, और तमाम लोग ऐसे रहते भी हैं, तभी वे कामयाब हो पाते हैं। हिन्दुस्तान के लोगों की एक दिक्कत यह भी है कि वे दुनिया भर में बसे हुए भारतवंशियों की कामयाबी को भारत की कामयाबी मान बैठते हैं। ये सारे लोग जो भारत से जाकर अपनी पीढ़ी में या अगली पीढ़ी में कामयाब हुए हैं, वे उन देशों के माहौल की वजह से, और अपनी मेहनत की वजह से कामयाब हुए हैं। हिन्दुस्तान में अगर सफलता की इतनी ही संभावनाएं रहतीं, तो सुंदर पिचई अमरीका जाकर गूगल के मुखिया बनने के बजाय भारत में किसी कंपनी के मुखिया बने होते, या उन्होंने यहां वैसी कोई कंपनी खड़ी कर दी होती। लेकिन चुनावी बॉंड का यह ताजा मामला बताता है कि भारत में कंपनियों को किस तरह के माहौल में काम करना पड़ता है, और उनके आगे बढऩे की संभावनाएं किस तरह कदम-कदम पर घटती जाती हैं। भारत को तो दूसरे देशों में सफल भारतवंशियों को देखकर यह आत्ममंथन करना चाहिए कि उसकी अपनी जमीन पर कारोबार या राजनीति में इतनी खरपतवार क्यों है कि यहां प्रतिभा की फसल ठीक से फल-फूल नहीं पाती। अमरीका या ब्रिटेन जैसे देश में कारोबारी अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर भी खुलकर सक्रिय रहते हैं, और उन्हें उसका कोई नुकसान भी शायद नहीं उठाना पड़ता। भारत को हर दिन कुछ घंटे आईने के सामने बैठकर यह देखना चाहिए कि इतनी प्रतिभाशाली लोग देश के बाहर जाकर ही प्रतिभा को इस तरह साबित क्यों कर पाते हैं? साथ-साथ दूसरे देशों में भारतवंशियों की कामयाबी का जश्न हिन्दुस्तान की कामयाबी की तरह मनाना बंद भी करना चाहिए, ऐसे झूठे गौरव, और ऐसी असली खुशी के बीच कोई तालमेल नहीं रहता।
अमरीका के एक प्रमुख विश्वविद्यालय, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक ताजा रिसर्च बताती है कि किस तरह किसी की तारीफ करने पर उन पर एक सकारात्मक असर पड़ता है, और ऐसा ही असर उन लोगों पर भी पड़ता है जो दूसरों की अच्छे कामों की तारीफ करते हैं। इस विश्वविद्यालय ने मनोविज्ञान विभाग की एक रिसर्च से पता लगता है कि तारीफ दोनों तरफ के लोगों का भला करती है। यह शोध करने वाली एक प्रोफेसर का कहना है कि तारीफ लोगों का दिन बना देती है, और करने वाले को कोई लागत भी नहीं आती है। कुछ दूसरे विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं का भी कुछ ऐसा ही सोचना है जिन्होंने तारीफ के मनोविज्ञान पर गंभीर काम किया है। उनका कहना है कि जिनके काम को दूसरे लोग भी अच्छा समझते हैं, उन्हें और अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। इससे लोगों के मन की यह जिज्ञासा भी शांत होती है जिससे कि वे यह जानना चाहते हैं कि और लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। हिन्दी जुबान में एक बात कई बार कही जाती है- सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग?
यह सचमुच ही लोगों के लिए परेशानी का एक सबब होता है कि उनके किसी काम या उनकी किसी बात पर लोग क्या कहेंगे? जब लोग किसी बात की तारीफ करते हैं, तो यह एक कामयाबी रहती है, और बेहतर करने की प्रेरणा भी इससे मिलती है। घर पर अगर खाना बनाने के लिए तनख्वाह पर किसी को रखा गया है, तो उनकी तारीफ करना जरूरी नहीं रहता, लेकिन कभी उनके पकाए और खिलाए हुए की तारीफ करके देखें तो समझ आएगा कि अगली बार वे ऐसी तारीफ पाने के लिए और क्या-क्या मेहनत करेंगे। यह भी जरूरी नहीं रहता कि लोग दूर के लोगों की, और महज औपचारिकता के लिए तारीफ करें। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि लोगों को किसी भी व्यक्ति से उनकी दिन की पहली बातचीत नकारात्मक नहीं करना चाहिए। किसी बात के लिए आलोचना भी करनी हो, तो भी पहले तारीफ के लायक कोई बात ढूंढकर चाहे मामूली ही क्यों नहीं, तारीफ करनी चाहिए, और फिर बाद में आलोचना के लायक बात छेडऩी चाहिए। अगर पहले तारीफ की बात कर ली जाए, तो लोग आलोचना को भी बेहतर तरीके से बर्दाश्त कर पाते हैं।
तारीफ कितनी मायने रखती है, यह उन लोगों से बेहतर कोई नहीं जानते जिनकी जिंदगी में कोई अक्सर ही तारीफ करने वाले थे, और किसी वजह से अब नहीं रह गए। उनकी जिंदगी एकाएक वीरान हो जाती है, और जिंदगी से तारीफ एकाएक गायब हो जाने से, उनके काम पर बड़ा बुरा असर पड़ता है। इसलिए समझदारी इसमें है कि जिन लोगों के मन में आपके काम के लिए, आपके लिए सचमुच ही तारीफ है, उन लोगों की कद्र की जाए, उन्हें पास रखा जाए, उनके पास रहा जाए। ऐसा भी नहीं कि इस बात को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक या शोधकर्ता ही लगेंगे। आम लोग भी मामूली समझबूझ से इस बात को समझ सकते हैं कि इर्द-गिर्द के लोगों के अच्छे कामकाज के लिए उनकी तारीफ करके किस तरह उनसे बेहतर काम करवाया जा सकता है। दरअसल अधिकतर काम ऐसा रहता है जिसमें आम प्रदर्शन और खास प्रदर्शन दोनों ही एक ही किस्म के लोगों से हासिल किया जा सकता है। अगर एक ही व्यक्ति बेदिली से, अनमने ढंग से कोई काम करे, तो वह बहुत आम दर्जे का हो जाता है, और अगर उसी काम को करते हुए उसके दिमाग में यह रहे कि इसकी वजह से उसे तारीफ भी मिल सकती है, तो उसकी जरा सी अतिरिक्त दिलचस्पी उस आम काम को खास काम में तब्दील भी कर सकती है। जब आप आसपास के किसी के बेहतर काम की तारीफ करते हैं, तो भविष्य में भी उनसे वैसे ही बेहतर प्रदर्शन की एक किस्म से गारंटी भी कर लेते हैं।
हमने पहले भी अलग-अलग कई जगहों पर इस बात को लिखा है कि लोगों को ऐसे लोगों की संगत से बचना चाहिए जिनके दिल-दिमाग में दूसरों के लिए सिर्फ नापसंदगी और आलोचना भरी हुई है, जिन्हें आसपास कुछ भी अच्छा नहीं लगता है, हर कोई बुरे लगते हैं। ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द बने रहने से आपको भी पूरी दुनिया बुरी लगने लगती है, और किसी के अच्छे काम भी कभी तारीफ के लायक नहीं लगते हैं। जिंदगी और दुनिया तो वही रहते हैं, सिर्फ आप अपने रूख और नजरिए की वजह से इर्द-गिर्द की हकीकत की इतनी बुरी तस्वीर मन में बना लेते हैं कि पूरे वक्त आपका का बर्ताव एक निंदक का होकर रह जाता है। कबीर ने भी जब यह कहा था कि निंदक नियरे राखिए, तो यह उन लोगों के लिए कहा था जो अपने आसपास आलोचकों को बर्दाश्त करते हैं, और वे लोग अपनी गलतियां तुरंत जान जाते हैं। लेकिन कबीर ने यह बात निंदकों के भले के लिए नहीं कही थी जिन्हें पूरे वक्त किसी न किसी की निंदा सूझती है। कई लोगों का तो हाल यह रहता है कि जब तक दूसरों की निंदा न कर लें, तब तक खाना हजम नहीं होता, यह लगते रहता है कि आज का दिन बेकार गुजर रहा है कि काम की कोई बात ही नहीं हो पाई।
कुल मिलाकर बात यह है कि जिंदगी में अगर जायज जरूरत रहने पर लोगों की आलोचना करनी है, तो वह एक सकारात्मक सुझाव की तरह अधिक रहनी चाहिए, न कि निंदा और भर्त्सना की तरह। और आसपास जाने-पहचाने, या अनजाने, जैसे भी लोग हों, उनकी कोई बात अगर अच्छी लगे, उनका कोई काम अच्छा लगे, तो उनकी तारीफ का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहिए। हमने आज की इस चर्चा की शुरूआत तो स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध के नतीजे से की है कि किस तरह तारीफ उसके दोनों सिरे के लोगों का भला करती है, लेकिन आगे के निष्कर्ष हमारे खुद के हैं कि लोगों को कम से कम कुछ ऐसे लोग इर्द-गिर्द जरूर रखना चाहिए जिनके मन में उनके लिए, उनके काम के लिए तारीफ है, क्योंकि ऐसे लोग जिंदगी से एकदम से चले जाने पर जिंदगी से एक प्रेरणा ही चली जाती है, और फिर उसकी जगह वैसी कोई दूसरी सकारात्मक चीज नहीं आ पाती है। ऐसे लोगों से बचकर रहें जिनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा ढूंढ-ढूंढकर लोगों की आलोचना करने में गुजर जाता है, तमाम वक्त ऐसी नकारात्मक बातों को सुनने के बाद आपकी अपनी जिंदगी से भी उत्साह जाने लगता है।
हिन्दी फिल्मों की एक लोकप्रिय अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति, राज कुन्द्रा की करीब सौ करोड़ रूपए की संपत्ति ईडी ने जब्त कर ली है। उन पर एक कंपनी के नाम पर लोगों को एक क्रिप्टोकरेंसी, बिटक्वॉइन, का धोखा देने, और हजारों करोड़ की धोखाधड़ी में शामिल होने का आरोप है। इसके पहले भी इस आदमी का नाम पोर्नोग्राफी के मामले में आ चुका है, और उसे जेल जाना पड़ा था। इस बिटक्वॉइन जुर्म में पूंजीनिवेशकों को अंधाधुंध कमाई का झांसा दिया गया था। अब हम हिन्दुस्तान में कई किस्म के ऑनलाईन जुए, सट्टे जैसे धंधों को देखें, तो देश के कुछ सबसे मशहूर फिल्मी सितारे, और क्रिकेट खिलाड़ी उनका इश्तहार करते दिखते हैं। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया को देखें तो उस पर देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बड़े-बड़े पत्रकारों के झूठे इंटरव्यू बड़े-बड़े अखबारों के झूठे वेबसाइट बनाकर डाले जाते हैं, और फेसबुक ऐसे धोखाधड़ी के इश्तहारों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता। यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने ही फेसबुक पर ऐसे दर्जनों झूठे इश्तहारों के खिलाफ टिप्पणी की, लेकिन जिनसे कमाई हो रही है उन जालसाजों को भी बढ़ावा देने में फेसबुक की पूरी दिलचस्पी दिखती है। आधी सदी पहले इस देश में बहुत घटिया किस्म की कई पत्रिकाओं में तांत्रिक अंगूठी जैसे इश्तहार आते थे, जो कि जो मांगोगे वही मिलेगा का दावा करते थे, लेकिन सब जानते-समझते भी इन पत्रिकाओं ने कभी ऐसे इश्तहार नहीं रोके। अभी भारत सरकार ने ऑनलाईन सट्टेबाजी के इश्तहारों पर कानूनी रोक लगाई, उसके बाद भी देश के सबसे बड़े अखबार उस इश्तहार को छापते रहे, उनका कुछ बिगड़ा भी नहीं। आज लोगों के वॉट्सऐप नंबर अचानक क्रिप्टोकरेंसी बाजार में पूंजीनिवेश के नाम पर बनाए गए जालसाज समूहों में जोड़ दिए जाते हैं, और वहां पर दस-बीस नंबरों से यह वाहवाही पोस्ट होते रहती है कि इस समूह में उन्होंने किस रफ्तार से कमाई की है, और वे इस समूह के सलाहकार के कितने अहसानमंद हैं।
लोग सागौन का पेड़ लगाते हैं, और उसे बांस से अधिक रफ्तार से बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि साल पूरे होते न होते वे इस सागौन का फर्नीचर भी बना लें। लोगों को अपने पंूजीनिवेश पर अंतरिक्ष छूती कमाई की हसरत रहती है, और वे सामान्य समझबूझ को ताक पर धरकर एक सपने को पूरा होते देखने के लिए जुट जाते हैं। और वह सपना एक दु:स्वप्न साबित होता है, और लोगों का पूंजीनिवेश मिट्टी में मिल जाता है, नाली में बह जाता है। छत्तीसगढ़ इन दिनों दसियों हजार करोड़ रूपए के महादेव सट्टेबाजी ऐप की चर्चा से लदा हुआ है, और हिन्दुस्तान का डिजिटल विकास हर किस्म की साइबर-जालसाजी के लिए सबसे अधिक सहूलियत का साबित हो रहा है। हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार के पास किसी साइबर-जुर्म को रोकने के लिए जितने किस्म के औजार हैं, वे इस्तेमाल होते नहीं दिखते, और झारखंड के एक गांव जामताड़ा में तो हर नौजवान ऑनलाईन मुजरिम बन चुके हैं। जगह की इतनी शिनाख्त होने के बावजूद सरकार वहां से रोजाना होने वाली दसियों हजार टेलीफोन कॉल पर कुछ नहीं कर पा रही जो कि सारी की सारी जालसाजी और धोखाधड़ी के लिए होती हैं।
हम अपने आसपास भी लोगों को जालसाजी का शिकार होते देखकर हैरान होते हैं। अभी एक बैंक अफसर को किसी तांत्रिक ने यह झांसा दिया कि वह रात में श्मशान में नोटों की बारिश करवा देगा। और इसके झांसे में बैंक अफसर ने बहुत सा पैसा भी डुबा दिया। अब अगर बैंक अफसर को आसमान से नोटों की बारिश पर भरोसा हो रहा है, तो फिर कम पढ़े-लिखे लोगों को मोबाइल फोन और इंटरनेट के दूसरे औजारों और हथियारों से धोखा देना तो और अधिक आसान ही रहता होगा। यही हो भी रहा है। हैरानी की एक बात यह भी है कि सुब्रत राय सहारा सरीखे धोखेबाज देश भर के करोड़ों लोगों से हजारों करोड़ रूपए इकट्ठे कर लेते हैं, और फिर जेल पहुंच जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट से सीधे सौदेबाजी करते हैं कि उन्हें जेल में कारोबारी दर्जे की सहूलियत दी जाए ताकि वे अपनी कंपनी की संपत्ति बेचकर देनदारी चुका सके। देश का सबसे बड़ा धोखेबाज किस तरह देश की सबसे बड़ी अदालत के साथ सौदेबाजी कर सकता है, यह कानून के विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के लिए एक शानदार मामला है। अगर आप बहुत ही बड़े धोखेबाज हैं, तो सुप्रीम कोर्ट आपको रियायतें देने के लिए सौदेबाजी में किसी भी हद तक नर्म पड़ सकता है।
हिन्दुस्तान बड़ा ही अजीब देश है। यहां किसी को एक अनजाने कॉल पर यह कहकर धोखा दिया जा सकता है कि वे अगर वीडियो कॉल पर अपने कपड़े उतार दें तो सामने कोई लडक़ी भी अपने कपड़े उतार देगी। हर दिन देश भर में ऐसी कम से कम हजार रिपोर्ट दर्ज हो रही हैं, हर दिन कहीं न कहीं ऐसी खबर छप रही है, लेकिन अच्छे-खासे पढ़े-लिखे, शहरी लोग भी खुशी-खुशी इस झांसे में पड़ते दिखते हैं, और उसके बाद उनके पास के एक-एक पैसे को चूस लेने के लिए ब्लैकमेलर जुट जाते हैं। यह सिलसिला लोगों में तकनीकी और कानूनी जानकारी की कमी का हो न हो, यह लोगों में देह की भूख को आंखों से पूरा करने की अपूरित इच्छाओं का जरूर है। किसी की बदन को देख लेने की हसरत इतनी बड़ी है कि लोग उसके लिए खुद नंगे हो जाने पर आमादा रहते हैं। ऐसे लोगों को भला कौन बचा सकते हैं? और ब्लैकमेलरों के हाथों लुट जाने वाले भी ऐसे लोग आमतौर पर पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
भारत सरकार और प्रदेशों की सरकारों की नजरों के सामने धोखाधड़ी का यह सिलसिला लगातार जोर-शोर से जारी है, और देश की डिजिटल जागरूकता, जालसाजों के दिनदहाड़े, बीच सडक़ पर खोदे हुए गड्ढे में कूदने पर उतारू रहती है। बहुत से लोग ऐसी धोखाधड़ी में दो नंबर का पैसा भी लगाते होंगे, और इसलिए वे शिकायत करने नहीं जाते। देश की सभी सरकारों और एजेंसियों को कई किस्म की साइबर-जुर्म, और क्रिप्टोकरेंसी जैसे धोखे के खिलाफ बचाव और लोगों की जागरूकता की योजना बनानी चाहिए, वरना सौ मुजरिमों में से एक-दो पकड़ा जाएंगे, और इतना फीसदी ही पैसा भी वापिस मिल सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने स्विटजरलैंड की एक कंपनी, नेस्ले, के भारत में बेचे जा रहे बच्चों के दो उत्पादों में शक्कर की मात्रा अधिक पाई है। खुद स्विटजरलैंड में इस कंपनी के सेरेलॅक और दूध पावडर बिना शक्कर के बेचे जा रहे हैं। इन दो संस्थानों ने एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमरीका में इस कंपनी के प्रोडक्ट बाजार से लिए और बेल्जियम की एक प्रयोगशाला में उनका परीक्षण करवाया। नेस्ले कम कमाई वाले, गरीबी वाले देशों के बच्चों में उन चीजों से मीठे के स्वाद की लत पैदा करता है। इससे मोटापे की बीमारी का खतरा रहता है। छोटे बच्चों के लिए सामानों में शक्कर नहीं रहनी चाहिए, और 2022 से संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी छोटे बच्चों के इस्तेमाल के सामानों में शक्कर पर प्रतिबंध की मांग कर रहा है। यह तो दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने यह जांच-पड़ताल की तो यह गड़बड़ी समझ आई। वरना यह कंपनी छोटे बच्चों के खाद्य पदार्थों के बाजार में खासा हिस्सा रखती है, और भारत जैसे कमजोर सरकारी इंतजाम वाले देश में देसी-विदेशी कंपनियां मनमानी करती हैं, और उन पर कोई रोक-टोक नहीं रहती।
पूरा का पूरा बाजार बच्चों के स्वाद को बिगाडऩे, उन्हें चीजों की लत लगाने का तो है ही, और बच्चों को आकर्षित करने के लिए इश्तहारों ने भी बच्चों का ऐसा इस्तेमाल किया जाता है जो कि किसी विकसित देश में नहीं किया जा सकता। कहने के लिए हिन्दुस्तान अपने आपको विकसित देश कहता है, लेकिन हकीकत यह है कि अपने नागरिकों के लिए जितने ग्राहक-हक का ख्याल उसे रखना चाहिए, उसका कोई ठिकाना ही नहीं है, बल्कि सरकार पूरी तरह से कारोबारियों के नाजायज हक की फिक्र में लगी दिखती है। भारत में उपभोक्ता सुरक्षा कानून जरूर बना हुआ है, लेकिन उस पर अमल का हाल यह है कि देसी त्यौहारों पर मिठाइयां और दूसरे सामानों के नमूने बाजार से लिए जाते हैं, और फिर उनकी प्रयोगशाला की रिपोर्ट आने पर एक-एक साल लग जाता है। नतीजा यह होता है कि बाजार में आए हुए सभी सामान जब खत्म हो जाते हैं तब उनमें से कुछ सामानों को लेकर सरकार की कार्रवाई होती है, जो कि घटिया, या मिलावटी सामान खा-पी लेने के महीनों बाद शुरू होती है।
कोई भी देश अपने आपको सिर्फ विकसित कह दे, उससे वह विकसित नहीं हो जाता। वहां पर जनता के हक का सरकार कितना ख्याल रखती है, सबसे कमजोर तबके के बुनियादी हकों की कितनी फिक्र होती है, और खासकर बच्चों के सामान, और खानपान को लेकर सरकार कितनी कड़ाई बरतती है, इससे साबित होता है कि देश कितना विकसित है। भारत में अभी पता चलता है कि पीढिय़ों से यहां इस्तेमाल हो रहे कपड़े और दीवार रंगने के रंग बच्चों के खानपान के रूई जैसे दिखने वाले, और बुड्ढी के बाल कहे जाने वाले सामानों में इस्तेमाल हो रहे हैं जिनसे कैंसर का खतरा अभी घोषित किया गया है।
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में बार-बार यह बताया है कि किस तरह भारतीय बाजार में खानपान के जो सामान है, उनमें नमक, शक्कर, और फैट किस तरह स्वीकृत सीमा से बहुत अधिक रहते हैं, और किस तरह बाजार के पैकेट और डिब्बाबंद सामानों के पोषण तत्वों की जानकारी देते हुए चीजों को छुपाकर लिखा जाता है, या नहीं लिखा जाता है। ऐसी बहुत सी रिपोर्ट बतलाती हैं कि खाने-पीने के सामानों पर जो चेतावनी यही कंपनियां विकसित देशों में अपने पैकेट पर लिखती हैं, उन्हें हिन्दुस्तान में नहीं लिखतीं। मतलब साफ है कि अगर सरकार किसी नियम को लागू करने में कमजोर है, या नियम बने ही नहीं हैं, तो बड़ी कंपनियां जनता की सेहत के लिए किसी भी तरह से जवाबदेह नहीं रहती, और बाजार में ग्राहक से खतरों को छुपाकर, गलत तरीके से इश्तहार करके, उन्हें सामान बेचने और खिलाने-पिलाने तक उसकी दिलचस्पी रहती है। बाजार की हालत देखें तो यह समझ पड़ता है कि खानपान का बाजार, सेहत और इलाज के बाजार को ग्राहक सप्लाई करता है। हम इस बात को सोशल मीडिया पर और इस जगह बार-बार लिखते हैं कि लोगों को बाजार के बने हुए डिब्बाबंद या पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। लोग अपने घर आने वाले मेहमानों के लिए ऐसे सामान लाकर रख देते हैं क्योंकि इन्हें परोसना आसान रहता है, लेकिन मेहमानों के साथ-साथ घर के बच्चों की लत भी पड़ जाती है, और घर में मौजूद ऐसे पैकेट छुपाना मुमकिन नहीं हो पाता। नतीजा यह होता है कि भारत में पैसेवालों के बच्चों से परे भी, मजदूरों के बच्चों के बीच भी पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का चलन बढ़ रहा है क्योंकि कामकाजी मां-बाप इन बच्चों के लिए समय पर कुछ पकाने के बजाय पास की दुकान से ऐसे एक-दो पैकेट लेकर उन्हें थमा देना अधिक सहूलियत का काम पाते हैं। नतीजा यह है कि हर आय वर्ग के लोगों में बड़ों के साथ-साथ बच्चों में भी ऐसे खानपान का चलन बहुत बढ़ चुका है।
लोगों को याद होगा कि जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन मंत्री थे, उस वक्त उनके मंत्रालय की एक रिपोर्ट हमने इस अखबार में छापी थी कि उनकी बेटी भारत के बिस्किट निर्माताओं के संघ के साथ जाकर देश के स्कूल शिक्षा सचिव से मिली थीं, और इस बात के लिए भरपूर लॉबिंग की थी कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की जगह बिस्किट के पैकेट दे दिए जाएं। यह तो उस वक्त सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच काम कर रहे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समय रहते दखल दिया, और दलाली के ऐसे धंधे को रोक दिया था। बाद में जाकर अर्जुन सिंह को फाइल पर यह लिखना पड़ा था कि बिस्किट निर्माताओं के साथ आकर शिक्षा सचिव से मिलने वाली महिला उनकी बेटी थीं, और मंत्रालय के अफसर उनके परिवार के किसी व्यक्ति की बात न सुनें। अब यह सोचने की बात है कि अगर देश के 12 करोड़ से अधिक बच्चे स्कूलों में दोपहर को गर्म ताजा पका हुआ खाना पाते हैं, और वे कारखानों के बिस्किट को रोज दोपहर खाने से बचे हैं, तो यह सरकारों के बचाए नहीं हुआ, उस वक्त सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल से हुआ।
भारत में जनता के अधिकारों का हाल बहुत खराब है। उपभोक्ताओं के हक के लिए काम करने वाले संगठनों को अदालतों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे वकीलों का सामना करना पड़ता है, और वे किसी मुकदमे को बड़ी मुश्किल से ही जीत पाते हैं। सरकार से लेकर अदालत तक ग्राहक के हकों की कोई जगह नहीं है। लेकिन ग्राहक की जागरूकता और नागरिक के चौकन्नेपन से ही बाजार की साजिशों का भांडाफोड़ हो सकता है, इसलिए इसकी कोशिश कभी खत्म नहीं होनी चाहिए। यह हाल सिर्फ बच्चों के खाद्य पदार्थों का नहीं है, बाजार में बड़ों के बीच लोकप्रिय किए गए कोल्ड ड्रिंक का भी यही हाल है जिनमें भारत में तो शक्कर भर दी जाती है, लेकिन दुनिया के जागरूक देशों में इसे बहुत घटाना पड़ा है।
देश में सरकारी नौकरियों के लिए होने वाले सबसे बड़े इम्तिहान यूपीएससी के नतीजे कल आए, और उनसे निकलकर, आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, आईआरएस जैसी कई नौकरियों में लोग पहुंचेंगे। इसे देश में सबसे महत्वपूर्ण इम्तिहान मानना इसलिए जायज है कि इससे चुने गए लोग हिन्दुस्तान की सरकारी नौकरियों में सबसे अधिक ताकत, जिम्मेदारी, और अधिकार की कुर्सियों पर पहुंचते हैं। ऐसा माना जाता है कि देश और प्रदेशों के नेता अपने इलाकों को जितना ढाल सकते हैं, उतने का उतना ये आला अफसर भी कर सकते हैं, या करते हैं। जहां कहीं निर्वाचित जनप्रतिनिधि कमजोर रहते हैं, या कमसमझ रहते हैं, वहां पर ये अफसर हावी भी हो जाते हैं। कायदे से तो लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को नीतियां बनाना चाहिए, और अफसरों को उन पर अमल करना चाहिए। लेकिन असल जिंदगी में देखने में यह आता है कि मंत्री बने हुए निर्वाचित जनप्रतिनिधि सरकारी कामकाज के अमल वाले कमाऊ हिस्से में जुट जाते हैं, और नीतियां बनाने के कागजी और सैद्धांतिक कामों को वे अफसरों पर छोड़ देते हैं, और इस तरह लोकतंत्र की दशा और दिशा तय करने में अफसरों का बहुत बड़ा हाथ हो जाता है। यह आदर्श स्थिति तो नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की आज की हकीकत यही है।
अब इन बड़ी नौकरियों की बात करें जहां तक पहुंचना हर आम हिन्दुस्तानी बच्चे के मन की हसरत रहती है, और वे बचपन से ही कुछ पूछने पर कलेक्टर बनने की बात कहते हैं, इन नौकरियों का हाल खासा बदहाल है, और आजादी के पहले से शुरू हुई भारत में नौकरशाही की इस व्यवस्था पर दुबारा गौर करने की जरूरत भी है। इन बड़ी नौकरियों को पाने वाले लोगों की बात करें, तो करीब आधी सदी से तो हमारा देखा हुआ है ही कि ये अपने आपमें एक कानून बन जाती हैं, और इन पर काबिज अफसर सत्तारूढ़ नेताओं के साथ मिलकर भ्रष्टाचार और लूटपाट की भागीदारी फर्म चलाने लगते हैं। लेकिन चूंकि इन अफसरों के हाथ में सरकारी फाईलें रहती हैं, रिकॉर्ड रहते हैं, और सूचना के अधिकार लागू हो जाने के बावजूद किसी के लिए सूचना जुटा पाना आसान नहीं रहता है, इसलिए इन अफसरों के भयानक बड़े पैमाने के संगठित और व्यापक भ्रष्टाचार को पकड़ पाना भी आसान नहीं रहता। राज्यों में आर्थिक अपराधों की जांच के लिए जो एजेंसी रहती है, या सरकारी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जो एजेंसी बनती है, उसे देखें तो कुछ अपवादों को छोडक़र उसके घेरे में इन अखिल भारतीय सेवाओं के कोई भी लोग नहीं आते। इतने बड़े अफसर तभी फंसते हैं जब सत्तारूढ़ पार्टी बदलती है, या केन्द्र और राज्य में एक बड़ा टकराव होता है, जैसा कि छत्तीसगढ़ के मामले में अभी दोनों चीजें एक साथ हुई हैं, और पिछली कांग्रेस सरकार के पसंदीदा कुछ अफसरों पर इस भाजपा सरकार के तहत कुछ जुर्म दर्ज हुए हैं, लेकिन इस राज्य की मिसाल को भी देखें, तो राज्य बनने से अभी तक किसी भी अखिल भारतीय सेवा के अफसर को इस राज्य में शायद ही कोई सजा हो पाई हो। चौथाई सदी में हजार-पांच सौ अफसर आए-गए होंगे, लेकिन भ्रष्ट लोगों की बहुतायत के बावजूद एक भी व्यक्ति को सजा न मिल पाने से यह पता लगता है कि मौजूदा व्यवस्था में इन बड़े अफसरों को कोई सजा हो पाना आसान नहीं है। देश की सबसे ताकतवर और असाधारण जांच एजेंसी, ईडी, के घेरे में आए इक्का-दुक्का अफसर जेल में हैं, लेकिन अदालतों से सजा मिलने के जो आंकड़े हैं, उन्हें देखें तो इन अफसरों को कैद होने की संभावना शून्य है, और जमानत न मिलने पर जितने वक्त इन्हें जेल में रहना पड़ रहा है, बस वही एक किस्म से इनकी सजा कही जा सकती है। नौकरशाही और बाकी अफसरशाही का जो मॉडल पिछले पांच बरस में छत्तीसगढ़ में सामने आया है, और देश के दूसरे कई प्रदेशों में भी इन आला अफसरों ने अपने सत्तारूढ़ नेताओं को बचाने के लिए कानून से जिस तरह के बड़े-बड़े टकराव लिए हैं, उनसे यह साबित होता है कि ये अखिल भारतीय सेवाएं अब अपनी मौजूदा शक्ल में लोकतंत्र का भला करने लायक नहीं रह गई है। हो सकता है कि यह आज भी देश में मौजूद एक बेहतर सरकारी सेवा-व्यवस्था हो, लेकिन यह अपने आपमें इतनी खराब, भ्रष्ट, बेअसर, और जनकल्याण से कोसों दूर हो चुकी है कि इससे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। अब चूंकि नई कोई व्यवस्था आने तक गुलाम भारत के समय से चली आ रही यही व्यवस्था जारी रहेगी, और हर बरस इसमें सैकड़ों नए लोग बढ़ते चलेंगे, इसलिए अब यह सोचना चाहिए कि नए आने वाले लोगों की ट्रेनिंग किस तरह की जाए ताकि वे जुर्म की दुनिया बन चुकी इन नौकरियों में पहुंचकर मुजरिम न बनें, और जनकल्याण से जुड़ सकें। दिक्कत यह है कि अधिकतर प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां और उनके नेता सरकारी खजाने को दुह लेना चाहते हैं, और इसमें उन्हें अफसरों के भी भ्रष्ट होने की जरूरत पड़ती है, और अफसर अपने आपको एयर इंडिया के पिछले प्रतीक चिन्ह, सेवा-खातिरी में मौजूद झुके हुए महाराज की तरह पेश रखते हैं। इन नौकरियों में आने वाले नए लोगों को यह भी समझना होगा कि न तो इस देश की निर्वाचित सरकारें कोई अच्छा आदर्श पेश कर पा रही है, न ही उनकी नौकरियों के उनसे पुराने अफसर कोई अच्छी चीज सिखाने की हालत में हैं। नेता और अफसर ये दोनों ही आमतौर पर जेल जाने के लायक रहते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और जुर्म को छुपाने में पूरी ताकत लगाकर वे किसी सजा को दूर धकेलते रहते हैं।
आज जब यूपीएससी के चुने गए नौजवानों के नाम, उनकी तस्वीरें, और उनके इंटरव्यू चारों तरफ छप रहे हैं, तभी यह अप्रिय चर्चा करना भी जरूरी है ताकि इन नए लोगों को यह ध्यान रहे कि उन्हें अपने सीनियर अफसरों से यह सीखना है कि उन्हें क्या-क्या काम नहीं करने हैं, और क्या-क्या नहीं बनना है। दरअसल इन ताकतवर ओहदों के हाथ इतनी बड़ी कमाई का जरिया रहता है कि मामूली भ्रष्टाचार करके भी एक आईएएस या आईपीएस अपनी नौकरी पूरी करने के पहले सैकड़ों करोड़ रूपए कमा चुके रहते हैं। अब इतने बड़े लालच को किसी से कैसे छुड़ाया जा सकता है, इसका कोई समाधान हमारे पास नहीं है। लेकिन समाधान न हो, तो समस्या पर भी चर्चा न की जाए, ऐसा तो है नहीं, इसलिए हम इस मुद्दे को उठा रहे हैं, और इन बड़ी नौकरियों को पूरा करके जो लोग ईमानदार रहकर निकल चुके हैं, वे लोग शायद इस पर कुछ रौशनी डाल सके कि बेहतरी का रास्ता किधर से होकर निकल सकता है।
पाकिस्तान की एक जेल में बंद एक भारतीय सरबजीत सिंह का जेल के भीतर 2013 में कत्ल कर दिया गया था। सरबजीत पर पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी करने, और बम विस्फोट करने के जुर्म थे, और वह सजा काट रहा था। वहां जिन दो कैदियों पर उसके कत्ल का आरोप था, उसमें से एक, आमिर सरफराज पर अभी पाकिस्तान में घर घुसकर गोलियां चलाई गईं। जेल में सरबजीत के कत्ल से दोनों देशों में तनातनी बढ़ी थी, और अभी जब यह ताजा हमला हुआ तो पाकिस्तान के गृहमंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि इसमें मिले सुबूत इसके पीछे भारत का हाथ होने का इशारा करते हैं। उन्होंने कहा कि पहले भी भारत पाकिस्तान में हत्याओं के कुछ मामलों में सीधे तौर पर शामिल रहा है। इसके पहले कनाडा और अमरीका में भारत के खिलाफ गतिविधियां चलाने वाले खालिस्तानी आंदोलनकारियों पर हमलों के पीछे भारत की साजिश की बात इन दोनों ने उठाई थी, और दोनों देशों के साथ भारत के रिश्तों में कुछ कड़वाहट भी आई थी। पहली बार ऐसा लगा था कि भारत दूसरे देशों की जमीन पर भी उन लोगों पर हमले करवा सकता है जिन्हें वह भारत का दुश्मन मानता है। इस पर हमने कुछ अरसा पहले भी लिखा था, लेकिन अब भारत चुनाव के बीच है, और ऐसे में भारत के जासूस समझे जाने वाले सरबजीत के कथित हत्यारों पर जब पाकिस्तान में इस तरह का हमला हुआ है, तो इससे भारत में मौजूदा सरकार पर फिदा एक तबके को एक कामयाबी दिख सकती है।
लेकिन हम राजनीतिक और चुनावी नफे-नुकसान से परे देखें, तो भी कई बार दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारें अपने देश के दुश्मन माने जा रहे व्यक्ति को दूसरे देश की जमीन पर भी निपटाते आए हैं। अमरीका और इजराइल सरीखे देशों पर तो यह बहुत बार लागू होता है, जहां की खुफिया एजेंसियां खुद, या भाड़े के हत्यारों से ऐसा करवाती रहती हैं, लेकिन भारत के बारे में आमतौर पर ऐसा नहीं माना जाता था। अब बदले हुए माहौल में भारत अगर दूसरे देश के नागरिकों पर, या हिन्दुस्तानी मुल्क के उन लोगों पर जो कि भारत के खिलाफ खुलकर अभियान चलाते हैं, अगर भारत सरकार हमले करवाती है, तो इसे अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नजरिए से देखा जाएगा। जिस देश की सरहद में ऐसा हमला होता है, वहां की सरकार तो जाहिर तौर पर भारत के खिलाफ रहेगी क्योंकि उसकी जमीन पर कानून तोड़ा गया है। लेकिन बहुत सी सरकारों पर इसका यह असर भी होगा कि भारत अपने दुश्मनों को छोड़ता नहीं है। बाकी देशों के बीच इसकी प्रतिक्रिया मिलीजुली रहेगी, और जो देश इस तरह की हिंसा या ऐसे जुर्म करवाते रहते हैं, उनकी नजरों में भारत उनकी कतार में शामिल हो गया एक देश गिना जाएगा।
अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के कत्ल के पीछे क्या नैतिकता भी आड़े आ सकती है? इस बारे में यह समझना होगा कि दुनिया के अधिकतर देश दो अलग-अलग किस्म के कानूनों पर चलते हैं। कानूनों का एक सेट वे अपने देश के भीतर के लिए रखते हैं, और दूसरे देशों के लिए वे गैरकानूनी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे उनकी अपनी अधिकतर आबादी को या तो कोई लेना-देना नहीं रहता है, या उन्हें कोई आपत्ति नहीं रहती है। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि दुश्मन को निपटाते हुए किसी कानून को मानने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। चूंकि दूसरे देशों की जमीन पर भारत का कोई कानून लागू नहीं होता है, इसलिए अगर वहां पर उस देश के कानून को चकमा देकर कोई जुर्म करवाया जा सकता है, और अपने देश के दुश्मन को निपटाया जा सकता है, तो इसे लोकतंत्र की जुबान में कोई अनैतिक तो कह सकते हैं, लेकिन इसमें तब तक कुछ गैरकानूनी नहीं है जब तक कि ऐसे कत्ल वाले देश में ऐसे सुबूत न जुट जाएं जो कि कत्ल करवाने वाले देश का हाथ साबित कर सकें। इसलिए दूसरे देश में जाकर हिसाब चुकता करने के पीछे किसी देश को नैतिकता भी आड़े नहीं आती है। फिर दुनिया में जो देश सबसे अधिक लोकतांत्रिक कहे या माने जाते हैं, वैसे देश भी दुनिया भर में बम बरसाते दिखते हैं, वहां जाकर कत्ल करते हैं, सत्ता पलटते हैं, खुद राज करते हैं, और इसे कोई बुरा भी नहीं मानते। पाकिस्तान को बताए बिना अमरीका ने पाकिस्तानी जमीन पर ओसामा-बिन-लादेन के बसे होने का दावा किया, और यह दावा भी तब किया जब उसने फौजी हमला करके लादेन को मार डालने का दावा किया, और उसके बाद ही अपनी फौजी कार्रवाई के बारे में दुनिया को बताया। इस बारे में पाकिस्तान को भी उसने खबर नहीं की। इसलिए जब जिस देश की ताकत रहती है, वे दूसरे देशों में जाकर कई तरह के काम करते हैं, और लोकतंत्र के पहले की जो एक कहावत चली आ रही है, वह आज 21वीं सदी में आधुनिक और सभ्य लोकतंत्रों पर भी लागू होती है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसलिए पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों में अगर लगातार भारत के आरोपों से घिरे हुए संदिग्ध और कथित आतंकी एक ही अंदाज में मारे गए हैं, तो पाकिस्तान के आरोपों से परे भारत की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है, बल्कि भारत में राष्ट्रवादी आंदोलनकारी इसे देश की कामयाबी ही बता रहे हैं, और सरकार इसका कोई खंडन नहीं कर रही है। आज कल्पना करके देखें कि अगर भारत सरकार पाकिस्तान में दाऊद इब्राहिम को खत्म करवाने में कामयाब होती है, तो इसे भारत में एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि के रूप में माना जाएगा, फिर पाकिस्तान चाहे जैसी भी दखल की तोहमत लगाता रहे।
यह बात बिल्कुल साफ है कि राष्ट्रीय हितों के सामने आज कोई अंतरराष्ट्रीय हित शायद ही किसी सरकार की प्राथमिकता हों। अधिकतर सरकारें अपने घरेलू चुनावों, घरेलू अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी और महंगाई से जूझते हुए विदेशी मोर्चों पर कुछ किस्म की कामयाबी की कोशिश कर सकती हैं जिनसे देश के भीतर वाहवाही मिले। आज किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र में भी गिने-चुने लोग ही ऐसे होंगे जो कि अपनी सरकार के ऐसे गैरकानूनी काम का विरोध करेंगे। यह बात जाहिर है कि नैतिकता अपने देश में अपने लोगों के लिए अलग होती है, और दूसरी जमीन पर दूसरे लोगों के लिए उसका एक बड़ा हल्का संस्करण लागू किया जाता है। इसलिए भारत अपने खिलाफ काम करने वाले लोगों के साथ दुनिया के दूसरे देशों में जो सुलूक करता है, उसे कूटनीति की भाषा में कुछ और कहा जाएगा, नैतिकता की भाषा में कुछ और, और चुनावी भाषा में वह एक बिल्कुल अलग नारा रहेगा।
मध्य-पूर्व के देशों पर एक अलग खतरा मंडरा रहा है। ईरान और इजराइल के बीच बरसों से चली आ रही परोक्ष तनातनी अब आमने-सामने के हमलों में तब्दील हो गई है, और आस-पड़ोस के तमाम देश एक खेमेबंदी में फंसने की नौबत में खड़े हुए हैं। इजराइल पहले से फिलीस्तीनी के खिलाफ जंग छेडक़र बहुत बड़ा जनसंहार करके दुनिया की नजरों में एक युद्ध अपराधी तो बना हुआ ही था, और हालात इतने खराब हो चुके हैं कि इजराइल को दुनिया के इस हिस्से में हर किस्म की शह देने वाला अमरीका भी बेकसूर फिलीस्तीनियों की दसियों हजार की संख्या में मौतों से सहम गया है, और उसने भी इजराइल से बेकसूरों की मौत रोकने को कहा है। इस बीच मानो इजराइल पर परेशानियां कम हों, उसने सीरिया के दमिश्क में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर मिसाइल हमला किया, और कुछ दूसरे अफसरों के साथ-साथ ईरान के एक बड़े सीनियर फौजी कमांडर की भी मौत हुई थी। जैसा कि दुनिया भर में माना जाता है, किसी भी देश में किसी दूसरे देश के कूटनीतिक ठिकाने उस दूसरे देश की जमीन ही माने जाते हैं, इसलिए ईरान में इसे अपने पर इजराइली हमला करार दिया, और उसके जवाब में कल सैकड़ों ड्रोन और मिसाइल इजराइल की तरफ रवाना किए जिन्हें इजराइल, अमरीका, और ब्रिटेन की फौजों ने तकरीबन पूरे का पूरा रास्ते में ही खत्म कर दिया। इजराइल की जमीन पर इसका बहुत मामूली सा असर हुआ, लेकिन इस टकराव को लेकर इन दोनों देशों से, और मध्य-पूर्व के इस इलाके से किसी भी तरह का वास्ता रखने वाले देशों में चौकन्नापन दिख रहा है। अमरीका ने अपने पुराने साथी और पिट्ठू इजराइल से यह साफ कर दिया है कि अगर वह ईरान पर जवाबी हमला करेगा, तो उसमें अमरीकी फौज शामिल नहीं होगी। शायद ब्रिटेन का भी यही रूख रहेगा, और ये देश इजराइल पर कोई हमला होने पर तो उसका साथ देंगे, लेकिन उससे परे ईरान पर हमले के लिए नहीं जाएंगे।
अब हम भारत जैसे देश के नजरिए से दुनिया की आज की हालत को देखते हैं, तो एक तरफ भारत का सबसे पुराना देश रूस लंबे समय से यूक्रेन पर हमला करके वहां उलझा हुआ है, और इसने नाटो देशों को भी मजबूर कर दिया है कि वे यूक्रेन का साथ देकर रूस को खोखला करने की कोशिश करें। ऐसे में भारत ने जंग से परे, रूस से लेन-देन जारी रखा है, और उसने पश्चिम के उस आर्थिक बहिष्कार को अनदेखा कर दिया है जिससे नाटो देश रूस को दीवालिया करने का सपना देख रहे थे। भारत में अमरीका और बाकी नाटो देशों के साथ अपने संबंध बिगाड़े बिना रूस के सस्ते तेल का सौदा जारी रखा है, और इस मामले में वह चीन के अलावा दुनिया में रूस का सबसे बड़ा मददगार बना हुआ है। भारत ने रूस और यूक्रेन के बीच सही और गलत की बात उठाए बिना अपने देश के आर्थिक हित देखे हैं कि उसे सस्ता तेल कहां से मिल सकता है। कुछ इसी तरह की नौबत भारत के सामने इजराइल और अमरीका को लेकर आ खड़ी हुई है कि वह इजराइल के कुल निर्यात का सबसे बड़ा आयात करने वाला देश तो है ही, ईरान के साथ भी उसके बहुत अच्छे संबंध हैं। और इस ताजा फौजी तनाव के पहले के कई महीनों से फिलीस्तीन पर जो इजराइली जंगी हमला चल रहा है, उसमें भी भारत ने अब तक अपने को अलग रखा है जो कि भारत की पुरानी परंपरागत विदेश नीति से अलग बात है। ऐसा लग रहा है कि भारत अपनी आज की विदेश नीति में अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रख रहा है, और न तो वह किसी ऐतिहासिक परंपरा को जारी रखने के तनाव में है, और न ही वह अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ बनने के उकसावों और न्यौतों पर ध्यान दे रहा है। उसने अपने आपको किसी भी द्विपक्षीय तनाव में शामिल होने से रोक रखा है, और वह बारीकी से दुनिया के रूख को देख भर रहा है। फिलीस्तीन जैसा जरूरतमंद और मुसीबतजदा देश गांधी के भारत से इससे बेहतर उम्मीद कर रहा होगा, लेकिन भारत ने किसी नैतिक दबाव में अपने वर्तमान हितों को छोडऩे से परहेज किया है। विदेश नीति के बेहतर जानकार लोग यह बता सकेंगे कि भारत का यह रूख अंतरराष्ट्रीय मामलों में उसकी वैश्विक लीडरशिप की किसी भी संभावना को बेहतर या बदतर, क्या करेगा, लेकिन आज का रूख तो दिखता यही है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों से परे के तमाम मामलात से दूर, विश्व समुदाय की किसी भी तरह की अगुवाई से दूर बैठा हुआ है। हम इस रूख के अच्छे या बुरे होने, इससे नफा या नुकसान होने पर नहीं जा रहे हैं, लेकिन फिलीस्तीन के साथ जैसा जुल्म हो रहा है उसे देखते हुए अगर हिन्दुस्तान की चुप्पी नहीं टूट रही है, तो यह विश्व इतिहास में किसी महान देश की तरह तो दर्ज नहीं होगी। नेहरू और इंदिरा को छोड़ भी दें, तो भी गांधी ने अपने पूरे जीवन फिलीस्तीनियों के हक को लेकर जितना लिखा है, वही भारत का ऐतिहासिक रूख था, लेकिन वह आज कायम नहीं रह गया है।
दुनिया में रूसी हमले से शुरू हुई रूस-यूक्रेन की जंग का बड़ा असर देखने मिल रहा है, रूस के जितने खोखले हो जाने की उम्मीद पश्चिम कर रहा था, वैसा तो कुछ भी नहीं हुआ है, बल्कि तीन दिन पहले इकॉनामिस्ट पत्रिका के एक पॉडकास्ट में बताया गया कि रूस की हालत जंग के पहले के मुकाबले बेहतर हो रही है। अमरीका सहित बाकी नाटो देशों का बहुत बड़ा पंूजीनिवेश यूक्रेन की मदद की शक्ल में इस मोर्चे पर हो चुका है, और रूस को खोखला करने का मकसद पूरा भी नहीं हुआ है। दूसरी तरफ मध्य-पूर्व में फिलीस्तीन पर इजराइली फौजी युद्ध-अपराधों से अमरीका सहित कुछ और इजराइल-समर्थक देशों की फजीहत चल ही रही थी। ऐसे में बैठे-ठाले इजराइल ने सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर हमला करके एक नया बवाल खड़ा कर दिया। अब मध्य-पूर्व के इस इलाके की यह दोहरी तनातनी अमरीका जैसे देश को आगे कितना उलझाएगी, यह अभी साफ नहीं है, लेकिन एक दूसरी बात बड़ी साफ है। रूस-यूक्रेन के वक्त से चीन रूस के साथ मजबूती से बना हुआ है, और अभी शायद वह ईरान के साथ खड़ा रहेगा। जंग में साथ देना एक अलग बात है, लेकिन अगर रूस, फिलीस्तीन, और ईरान, इन सारे मोर्चों पर अगर चीन एक बड़ी, और अमरीका से परे की भूमिका निभाता है, तो यह दुनिया के शक्ति संतुलन में अमरीका के लिए एक परेशानी की बात हो सकती है। यहां पर अभी हम ताइवान जैसे मुद्दे पर चीन और अमरीका के सीधे टकराव की जटिलता को और नहीं जोड़ रहे हैं, लेकिन यह बात साफ है कि इजराइल का हमलावर रूख कुल मिलाकर अमरीका के लिए एक बड़ी दिक्कत खड़ी कर रहा है। आगे ये तमाम टकराव चाहे जहां पहुंचें, भारत अगर इन पर तटस्थ और निरपेक्ष बना रहेगा, वह बीच-बचाव की किसी कोशिश में भी शामिल नहीं रहेगा, तो वह दुनिया में महत्व का एक मौका खोने का खतरा उठाएगा। देखते हैं आगे क्या होता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान में चुनावी मौसम चल रहा है। पिछले छह महीने ऐसे ही गुजरे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को मिनी आम चुनाव कहा जा रहा था, और अब जब आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है, तो 4 जून के नतीजों के बाद यह समझ पड़ेगा कि क्या इन नतीजों का पांच राज्यों के विधानसभा-नतीजों से कोई मेल बैठ रहा है। फिलहाल भाजपा और उसके सहयोगी दल, कांग्रेस और उसके सहयोगी दल, और इन दोनों गठबंधनों से बाहर की क्षेत्रीय पार्टियां, इन सबके चुनावी घोषणापत्रों का दौर चल रहा है। अलग-अलग किस्म की संभव और असंभव दिखने वाली घोषणाएं की जा रही हैं, और मीडिया भी इनके कवरेज में मगन हो गया है। आखिर पार्टियां अगले पांच बरस के लिए सत्ता में आने पर जनता को जिस किस्म के सपने दिखाती हैं, उनका समाचार-महत्व तो होता ही है।
लेकिन कुछ गैरराजनीतिक संगठनों को चुनावी घोषणापत्रों का सोशल ऑडिट करना चाहिए, और सरकारों के कार्यक्रमों का भी। छत्तीसगढ़ में भाजपा की रमन सिंह सरकार के चलते हर आदिवासी परिवार को गाय बांटने की योजना कुछ महीनों के भीतर ही हवा हो गई थी। इसी तरह खाड़ी के बजाय बाड़ी से आने वाले तेल की रतनजोत की योजना भी काफूर हो गई थी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की पिछली सरकार में पिछले चुनावी वायदे की शराबबंदी होना तो दूर रहा, शराब का हजारों करोड़ का अवैध कारोबार जरूर हो गया। भूपेश सरकार ने नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी नाम की जो अतिमहत्वाकांक्षी ग्रामीण विकास योजना बनाई थी, उसका कोई इस्तेमाल विधानसभा चुनाव में नहीं किया गया। आज देश में भाजपा घोषणापत्र जारी कर रही है, लेकिन दस बरस के मोदीराज में जो बड़े फैसले लिए गए थे, उसका कोई भी जिक्र पिछले पांच बरस में भी कभी नहीं हो रहा। नोटबंदी को देश के कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राईक कहा गया था, और आतंक पर भी। इन दोनों की सेहत पर नोटबंदी से कोई फर्क नहीं पड़ा, और सिर्फ गरीबों की मौत हुई, छोटे कारोबारी बर्बाद हुए, लोगों की महीनों की कमाई मारी गई, बैंकों पर और रिजर्व बैंक पर दसियों हजार करोड़ का बोझ पड़ा, और हासिल आया शून्य। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि कारोबारियों के पास जितने नकली नोट पड़े हुए थे, वो भी आपाधापी के उस दौर में बैंकों में खपा दिए गए, और नोटबंदी से ऐसे लोगों ने फायदा उठा लिया, और ईमानदार लोग भारी नुकसान में रहे।
चुनाव के वक्त कई किस्म के वायदे किए जाते हैं, उनमें से कुछ पूरे होते हैं, कुछ पूरे नहीं भी होते हैं। लेकिन वायदों से परे पांच बरस सरकार जितने तरह के दूसरे काम करती हैं, उनको चुनाव में क्या कहकर, क्या दिखाकर लोगों के सामने पेश किया जाता है, यह भी देखना चाहिए। चुनावी घोषणापत्र तो पार्टियों के होते हैं, लेकिन पार्टियां अपने आपको सत्ता और विपक्ष में बंटी हुई होती हैं, और सरकार को भी अपने कार्यकाल को लेकर जवाबदेह रहना चाहिए, खासकर सत्तारूढ़ पार्टी को। अगर सरकार चलाते हुए बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक और नाटकीय फैसले लिए गए, लेकिन उनका नतीजा यह रहा कि उन्हें चुनाव के दौरान गिनाया भी न जा सका, तो यह बात साफ है कि उनसे कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि जनता को वे फैसले याद न आ जाएं, इसकी कोशिश सत्तारूढ़ पार्टी करती रहती है। इसलिए किसी पार्टी के दो घोषणापत्रों की तुलना तो ठीक है, सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों को अगर चुनावों में छोड़ दिया जा रहा है, तो उन्हें लेकर भी सवाल होने चाहिए।
भारत में जनसंगठनों की जगह एकदम खत्म हो गई है। एक-दो ही ऐसे संगठन हैं जो चुनावों के वक्त उम्मीदवारों की दौलत, पढ़ाई, और उनके जुर्म के इतिहास का विश्लेषण सामने रखते हैं। लेकिन पिछली सरकार के कार्यकाल का एक व्यापक विश्लेषण भी जनता के सामने आना चाहिए, और हिन्दुस्तान में मीडिया तो अब यह काम करता नहीं, कर सकता नहीं, इसलिए किसी जनसंगठनों को ही यह बीड़ा उठाना पड़ेगा। किसी सरकार के दस-दस, बीस-बीस हजार करोड़ के कार्यक्रमों का अगर इतना भी योगदान नहीं रहा कि मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी उन्हें जनता के सामने गिना सके, तो यह जाहिर है कि ऐसे कार्यक्रम बहुत बुरी तरह असफल हुए हो, और चाहे चुनाव आयोग की ऐसी शर्तें न रहे, तो भी जनसंगठनों को जनता के सामने सच्चाई को सही संदर्भों में रखना चाहिए, ताकि उसका फैसला एक जानकार का फैसला हो सके।
देश में आज सूचना का अधिकार कानून तो लागू है, लेकिन उसके चलते हुए भी सूचना न देने पर सरकारी विभाग आमादा रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की मेहरबानी से देश में आज पहले के मुकाबले बहुत अधिक जानकारी तक जनता की पहुंच बन गई है। हाल ही में चुुनावी बॉंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है उससे भी यह बात साबित होती है कि सूचना का अधिकार कितनी अहमियत रखता है, और उसी की वजह से यह साफ हो पाया है कि किस कारोबारी ने किस तारीख पर, कौन सा नोटिस मिलने के बाद, किन पार्टियों को कितना चंदा दिया है, और किस तरह उस कारोबारी के खिलाफ जांच बंद हो गई है। पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों के मुकाबले उनके सत्ता के कार्यकाल की कई दूसरी बातें अधिक अहमियत रखती हैं, और पांच बरस पहले के चुनावी घोषणापत्र से इस बार तुलना करना तक तो ठीक है, लेकिन बाकी बातों का हिसाब भी सार्वजनिक रूप से होना चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में किसी भी व्यक्ति के सभ्य होने के पैमानों में से एक यह भी है कि उसके कपड़े कैसे हैं? कपड़े साफ-सुथरा रहना तो जरूरी है, लेकिन इसके साथ-साथ अधिकतर जगहों पर कपड़े प्रेस किए हुए भी रहने की उम्मीद की जाती है। जहां लोगों को बिजली से चलने वाली आयरन नहीं मिलती है, और जहां कोयला जलाकर गर्म की जाने वाली इस्त्री भी नहीं रहती है, वहां भी लोग किसी सपाट तले वाले लोटे में सुलगते कोयले डालकर उससे लोटा गर्म करके कपड़े प्रेस कर लेते हैं। कपड़े प्रेस करना हिन्दुस्तान में सभ्य होने का एक सुबूत माना जाता है। अब आईआईटी मुम्बई के एक प्रोफेसर चेतन सिंह चौहान ने सोशल मीडिया पर यह लिखा है कि एक जोड़ी कपड़े प्रेस करने पर धरती पर करीब दो सौ ग्राम कार्बनडाइऑक्साइड जुड़ जाती है। ऐसे लोग अपने कपड़े तो प्रेस करते हैं, लेकिन इसके लिए बिजली या कोयला जो कुछ भी खर्च करते हैं, और धरती पर जो गर्मी पैदा करते हैं उन सबसे धरती पर प्रदूषण बढ़ता है जिसका भुगतान उनको भी करना पड़ता है जो कि अपनी पसंद से, या अपनी आर्थिक स्थिति की वजह से कपड़े प्रेस नहीं करते, या करवाते हैं। कुछ लोगों में तो कपड़े प्रेस करवाने का दीवानापन इतना रहता है कि वे पर्दे, चादर, तकियागिलाफ, और चड्डी-बनियान तक प्रेस करवाते हैं। जाहिर है कि वे धरती पर बहुत सा ऐसा कार्बन जोड़ते हैं जो गैरजरूरी है।
जो लोग जींस या टी-शर्ट पहनते हैं, वे आमतौर पर कपड़े प्रेस करवाने से बच जाते हैं क्योंकि उन कपड़ों पर आयरन करने की जरूरत ही नहीं रहती है। वैसे तो आयरन करने की जरूरत किसी कपड़े पर नहीं रहती है, लेकिन लोग हिन्दुस्तान जैसे देश में भी ऐसे अंग्रेज बने रहना चाहते हैं कि वे दूसरे शहर सफर पर जाते हुए भी घर पर जिन कपड़ों को प्रेस करवाते हैं, दूसरे शहर पहुंचकर फिर उन्हीं कपड़ों का होटल या किसी दूसरी जगह दुबारा प्रेस करवाते हैं। बिजली की बर्बादी, और हवा में तापमान का बढऩा, ये दोनों बिना जरूरत होते रहते हैं। जींस और टी-शर्ट के साथ एक आसानी यह भी रहती है कि जींस को कुछ दिनों तक बिना धोए पहना जा सकता है, न वह आसानी से गंदी होती, न उसमें किसी सिलवट की दिक्कत रहती। हमारे सरीखे जींस पहनने वाले लोगों को तो यह सहूलियत भी रहती है कि जेब में रूमाल भी न रखा जाए, और खाने-पीने के बाद धुले हुए हाथ जींस पर ही, या उसकी जेबों में हाथ डालकर पोंछ लिए जाएं। कपड़े प्रेस करने सरीखा फैशन अंग्रेजों या दूसरे रईस लोगों ने ही शुरू किया होगा, जिनको दूसरों के शोषण पर जीने की आदत रही होगी। मेहनतकश लोग न कपड़ों पर कलफ की सोच पाते, न कपड़े प्रेस करवाने की। लोगों में इस चलन का दीवानापन इतना है कि वे जींस और टी-शर्ट भी प्रेस करवाते हैं। जींस मोटे कपड़े से बनी वह पतलून है जिसे खदान मजदूरों के लिए बनाया गया था। अब मजदूरों की पोशाक आज दुनिया की सबसे कामयाब फैशन है, और लोग उस पर प्रेस करवाने लगे हैं।
दुनिया में लोगों को ऊर्जा और ईंधन की खपत की कमी के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए क्योंकि जब तक धरती पूरी तरह से सौर ऊर्जा या पनबिजली, पवनचक्कियों से चलने लगेगी, तब तक ही कोयले और डीजल-लकड़ी जैसे ईंधन से चलने वाले बिजलीघर, और कारखाने धरती पर प्रदूषण इतना बढ़ा चुके रहेंगे कि जलवायु परिवर्तन का खतरा बहुत कुछ तबाह कर देगा। अब पाकिस्तान जैसा देश जो कि प्रदूषण में बहुत इजाफा नहीं करता है, उसने भी साल भर पहले वहां जैसी विकराल बाढ़ देखी, और देश का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह तबाह हो गया, वह पाकिस्तान का अपना किया हुआ नहीं था, दुनिया में ऊर्जा और ईंधन का अंधाधुंध इस्तेमाल करने वाले विकसित और पश्चिमी देशों की हवस की वजह से गरीब दुनिया को भी क्लाइमेट चेंज के नुकसान झेलने पड़ रहे हैं। अफ्रीका के कई देश इतना भयानक सूखा झेल रहे हैं कि वहां इंसान और जानवर सबके लिए भुखमरी की नौबत आ गई है। सिर्फ पानी की कमी से लोगों को जानवरों सहित देश छोडक़र जाना पड़ रहा है। और यह नौबत बढ़ती ही चली जा रही है। इस बार की हिन्दुस्तानी गर्मी को लेकर मौसम विभाग की भविष्यवाणी है कि आने वाले महीनों में भयानक गर्मी वाले दिनों की संख्या खासी बढऩे जा रही है, और उन दिनों में भी सबसे अधिक तापमान खासा अधिक बढऩे जा रहा है। मौसम की सबसे बुरी मार दुनिया भर में और अधिक बुरी होती जा रही है, और वह बार-बार हो रही है। मौसम के ऐसे बदलाव के लिए जिम्मेदार इंसानी प्रदूषण में लोगों के कपड़े प्रेस करवाने के शौक की वजह से और इजाफा हो रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
आईआईटी मुम्बई के इस प्रोफेसर की पोस्ट पर किसी ने यह कुतर्क भी किया है कि कल के दिन वे कार्बन बढऩे से रोकने के लिए कपड़े पहनना बंद कर देने की भी वकालत करेंगे, तो उन्होंने यह सुझाव दिया है कि उन्हें ऊर्जा-शिक्षित होने की जरूरत है, और इसके लिए उन्हेंने एक मुफ्त का कोर्स भी डिजाइन किया है। इस वेबसाइट पर उन्होंने बिजली बचाने, कमरों में सूरज की रौशनी बढ़ाने, और मौसम के बदलाव घटाने जैसी बहुत सी बातों का खुलासा करते हुए लोगों को दुनिया को बचाने और बेहतर करने की जानकारी दी है। इस वेबसाइट को हम इस संपादकीय के आखिर में दे रहे हैं, और हम चाहेंगे कि हमारे जिम्मेदार पाठक इस पर जाकर अपनी जानकारी और समझ दोनों बढ़ा सकते हैं। हमारे नियमित पाठक जानते होंगे कि हम कार धोने, या मकान-दुकान के बाहर सडक़ धोने के खिलाफ लिखते और बोलते आए हैं। हमने लोगों के छत पर लगाए जाने वाले बगीचों के खिलाफ भी लिखा है, और बड़े-बड़े लॉन को सींचने के खिलाफ भी। हम कई बार यह वकालत भी कर चुके हैं कि लोगों को अपनी गैरजरूरी चीजें दूसरे जरूरतमंद लोगों को देना चाहिए ताकि धरती पर चीजों का उत्पादन घटे। अभी इंटरनेट पर सामानों की बिक्री वाली कुछ वेबसाइटों ने यह भी किया है कि लोग अगर अपने पुराने कपड़े इन वेबसाइटों पर बेचेंगे, तो ये वेबसाइट उन पर कम कमीशन लेगी।
किसी की शुरू की हुई छोटी सी बात में छिपी बड़ी क्रांति की संभावना भी देखनी चाहिए। ये आईआईटी प्रोफेसर हफ्ते में एक दिन बिना प्रेस के कपड़े पहनने की वकालत कर रहे हैं, लोगों को हर दिन ऐसे ही कपड़े पहनना चाहिए, ताकि धरती बच सके। कपड़ों को प्रेस करना हर किस्म की बर्बादी है, और यह सिलसिला खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए।
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भोपाल के राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में करीब 20 करोड़ रूपए के घोटाले के आरोप में कुछ अरसा पहले वहां कुलपति रहे एक प्राध्यापक को पुलिस ने तलाश करते-करते छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में गिरफ्तार किया है। तीन मार्च को उनके खिलाफ जालसाजी का केस दर्ज हुआ, और तब से वे मोबाइल बंद करके फरार थे। एक रिश्तेदार के घर रायपुर में छुपे हुए उन्हें आधी रात पकड़ा गया। कुलपति के अलावा उस वक्त के रजिस्ट्रार और कुछ दूसरे अफसर भी फरार या गिरफ्तार हैं, और एक बैंक मैनेजर भी। ऐसी कुछ दूसरी खबरों को देखें तो कुछ अरसा पहले हैदराबाद में तेलंगाना विश्वविद्यालय के कुलपति को 50 हजार रूपए की नगद रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया था। पिछले बरस तमिलनाडु में सरकारी फंड की अफरा-तफरी में वहां के कुलपति को गिरफ्तार किया गया था जो कि जाने-माने कृषि विशेषज्ञ भी थे। इनके खिलाफ कर्मचारी संघ ने ही शिकायत दर्ज कराई थी, और कुछ दूसरी शिकायतें भी उनके खिलाफ थीं। अभी भोपाल तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति की गिरफ्तारी जिस मामले में हुई है, उसमें विश्वविद्यालय के करीब 20 करोड़ रूपए कुछ निजी खातों में डाल दिए गए थे, और गैरकानूनी तरीके से 25-25 करोड़ के चार एफडी बनाए गए थे।
अब अगर भारतीय विश्वविद्यालयों की व्यवस्था देखें, तो कुलपति आमतौर पर पढ़ाई से परे तमाम किस्म की बातों में दिलचस्पी लेते दिखते हैं, खासकर खरीदी और कंस्ट्रक्शन में। ठेकेदारों से कमीशन लेने में कुलपति खुद चेक लेकर घर चले जाते हैं, और वहां पर केलकुलेटर से कमीशन का हिसाब करके, नगद रकम लेकर फिर चेक देते हैं। कहने के लिए उनका दर्जा बड़े-बड़े अफसरों से भी ऊपर रहता है, लेकिन अपनी इसी तरह की हरकतों के चलते हुए वे मंत्रालयों के बाबुओं से भी डरे-सहमे रहते हैं, और कुछ कुलपति हमने ऐसे भी देखे हैं जो राज्यपालों के करीबी निजी सहायकों को हर महीने रिश्वत देते हैं ताकि राजभवन में उनके खिलाफ कुछ हो न सके। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था परले दर्जे की भ्रष्ट हो चुकी है, और अगर देश में अब भी कुछ विश्वविद्यालयों की इज्जत बाकी है, तो वह उनके भ्रष्टाचारमुक्त होने की वजह से नहीं है, बल्कि वहां पढ़ाई बहुत अच्छी होने की वजह से है जो कि कुलपति की वजह से नहीं है, बल्कि कुलपति के होने के बावजूद है। विश्वविद्यालयों के कई प्राध्यापक आज भी अपने पढ़ाने को लेकर गौरव पाते हैं, और ऐसे ही लोगों की वजह से हिन्दुस्तान के कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालय दुनिया के बेहतर विश्वविद्यालयों की फेहरिस्त में जगह पाते हैं।
भोपाल, हैदराबाद, और तमिलनाडु के कुछ कुलपति तो भ्रष्टाचार में पकड़ा गए हैं, लेकिन अधिकतर कुलपति बच निकलते हैं। पूरा विश्वविद्यालय जानता है कि वे कितने भ्रष्ट हैं, गोपनीय परीक्षा कार्य से लेकर हर किस्म की छपाई तक उनका कमीशन बंधा रहता है, और फिर भी उनके खिलाफ आमतौर पर कार्रवाई नहीं होती। हमने बहुत से विश्वविद्यालय कर्मचारी संघों की शिकायतें देखी हैं जो कि पहली नजर में वजनदार लगती हैं, लेकिन राज्य सरकार और राजभवन दोनों ही ऐसी शिकायतों को अनदेखा करते रहते हैं। इससे कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। पहली बात तो यह कि अगर कुलपतियों को ठेकेदारी और सप्लाई का धंधा तय करना है, तो इसके लिए किसी प्राध्यापक को कुलपति बनाने की क्या जरूरत है? किसी भी अच्छे बड़े अफसर को कुलपति बनाया जा सकता है, और कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है। अगर कुलपति को शिक्षा की उत्कृष्टता के बजाय खर्च के कामों में ही दिलचस्पी लेनी है, तो एक भूतपूर्व प्राध्यापक के बजाय एक वर्तमान या भूतपूर्व अफसर इस काम में अधिक काबिल हो सकते हैं। कुलपति को तो रूपए-पैसे के, टेंडर-ठेके और सप्लाई के कामों से अपने आपको परे रखकर अकादमिक उत्कृष्टता की कोशिश करनी चाहिए, जो कि अब दिखना बंद हो चुकी है।
यह बात कुछ अटपटी लगती है कि जिन संस्थानों का नाम विश्वविद्यालय है, उनका दायरा सिकुड़ते चल रहा है। जिन प्रदेशों में पहले एक-एक विश्वविद्यालय ही होते थे वहां पर अब दर्जनों विश्वविद्यालय होने लगे हैं, और छत्तीसगढ़ के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय को देखें तो इसने 20 बरस की अपनी जिंदगी में किसी साल एक हजार से अधिक छात्र नहीं पाए हैं। अब करोड़ों रूपए सालाना खर्च करके अगर असली और कागजी कुल जमा हजार-पांच सौ लोगों को ही पत्रकारिता पढ़ाना है, और इस दर्जे की पढ़ाना है कि वहां से कोई अच्छे पत्रकार न निकल सकें, तो फिर ऐसे विश्वविद्यालयों की जरूरत क्या है? और एक साधारण कॉलेज जितनी ही क्षमता से ऐसे कागजी विश्वविद्यालय चलें, तो इनमें विश्व स्तर की क्या बात है? क्या सरकार के लिए यह बेहतर नहीं होता कि इसे किसी दूसरे मौजूदा विश्वविद्यालय में विलीन कर दिया जाए, और वहां पत्रकारिता का एक विभाग चलाया जाए जो कि प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सिर्फ पेशेवर पढ़ाई पर ध्यान दे सके?
भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था की हालत भारत की प्राथमिक शिक्षा से जरा भी बेहतर नहीं है। कहने के लिए इस देश की बहुत बड़ी नौजवान कामकाजी फौज को ताकत की तरह गिनाया जाता है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं का हाल कहीं भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के कामकाज के लायक नहीं रहता। गिने-चुने उत्कृष्ट संस्थान हैं जिनमें सबसे आगे जो जेएनयू है, उसे गद्दार साबित करने में राष्ट्रवादी ताकतें हर दिन 25 घंटे काम करती हैं, और राजस्थान के एक भाजपा विधायक जेएनयू कैम्पस से हर दिन इस्तेमाल किए गए तीन हजार कंडोम ढूंढने का सार्वजनिक दावा करते थे। जो संस्थान दुनिया भर में देश की उत्कृष्टता स्थापित करते हैं, उन्हें देश का दुश्मन साबित करते हुए उसका मनोबल तोड़ा जाता है। एक तरफ किसी मामूली और भ्रष्ट सरकारी अफसर की तरह के कुलपति जो कि राजनीतिक असर से नियुक्त किए जाते हैं, और दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों में बढ़ती हुई सरकारी दखल। मानो यह भी काफी नहीं था तो अब कुलपतियों की जमात में अनगिनत लोग परले दर्जे के भ्रष्ट भी होने लगे हैं, और जिस तरह आरटीओ रिश्वत लेते हैं, उसी तरह कुलपति भी रिश्वत लेने लगे हैं। ऐसे में इस देश में उच्च शिक्षा किस किनारे पहुंच सकती है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी शहरों में आए दिन, हर धार्मिक त्यौहार, और हर सामाजिक-राजनीतिक आयोजन पर शहर की सडक़ें बंद हो जाना आम बात है। कुछ त्यौहारों पर तो कई-कई दिनों तक यह सिलसिला चलता है, और विसर्जन जैसे कार्यक्रम लगातार दो-तीन दिन तक बिखरे रहते हैं। नतीजा यह होता है कि शहरी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। चूंकि हिन्दुस्तान में धर्म लोगों का मुख्य कारोबार है, इसलिए लोगों को बेरोजगार किया भी नहीं जा सकता। अगर लोगों को सार्वजनिक-धार्मिक प्रदर्शन से अलग किया जाएगा, तो फिर बेरोजगारी कई गुना हो जाएगी। इसलिए जिस किस्म के भी सुधार की बात करनी है, वह धर्म को छुए बिना ही की जा सकती है, कम से कम आज की हमारी यहां की सलाह इसी किस्म की है।
योरप में आज से कम से कम 25 बरस पहले से रेडियो और टीवी पर ऐसे चैनल मौजूद हैं जो कि किसी शहर की ट्रैफिक, या किसी हाईवे की ट्रैफिक की रिपोर्टिंग करते रहते हैं। कम से कम एक चैनल तो सन् 2000 में हमारा देखा हुआ ऐसा है जिसमें किसी हाईवे के ट्रैफिक जाम को दिखाने के लिए रिपोर्टर और कैमरापर्सन हेलीकॉप्टर से जाकर दर्शकों और श्रोताओं को बताते हैं कि किस हाईवे पर जाम है, और दूसरे वैकल्पिक रास्ते कौन से हैं। हिन्दुस्तान के शहरों को लेकर यही लगता है कि सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ अंधाधुंध बढ़ चुकी है, गाडिय़ां अंधाधुंध बड़ी भी हो गई हैं, और ऐसे में जब लोग किसी जगह पहुंचकर देखते हैं कि आगे ट्रैफिक बंद है, तो लोगों के वापिस मुडऩे का रास्ता भी नहीं रहता है। कल ही अपने शहर में इस संपादक को दफ्तर से घर, दो किलोमीटर जाने के लिए अलग-अलग ऐसे कई रास्तों से वापिस लौटना पड़ा, और करीब 25 किलोमीटर का चक्कर लगाकर 85 मिनट में यह दो किलोमीटर तय हो पाया। ऐसे में साधारण समझबूझ से भी ट्रैफिक पुलिस इतना कर सकती है कि वॉट्सऐप और टेलीग्राम जैसे लोकप्रिय मैसेंजर पर ब्रॉडकास्ट ग्रुप बना ले, और लोगों से जानकारी पाने के लिए इनसे जुडऩे को कहे। अगर शहर में जगह-जगह ऐसे ट्रैफिक-बंद की जानकारी लोगों को समय रहते मिल जाए, तो लोग धक्के खाने के बजाय सीधे ही लंबे वैकल्पिक और खुले रास्तों से आना-जाना करें, या आना-जाना टाल दें। जो काम 25 बरस पहले योरप रेडियो और टीवी पर कर सकता है, वह काम आज अगर हिन्दुस्तान की पुलिस मुफ्त में मिली हुई मैसेंजर सर्विसों पर नहीं कर सकती, नहीं कर रही, तो इसके पीछे कल्पनाशीलता की कमी है, और काम में उत्साह की कमी है।
वैसे तो शहरी योजना के एक हिस्से के रूप में इस तरह के मैसेंजर समूह बनाना कब से शुरू हो जाना चाहिए था। अब तो ट्रैफिक पुलिस शहर की उन जगहों के नाम भी लिखकर पोस्ट कर सकती है, उनके गूगल मैप लोकेशन पोस्ट कर सकती है जहां पर ट्रैफिक रोका गया है, या जहां पर किसी वजह से ट्रैफिक जाम है। पुलिस कई घंटे पहले से ऐसे समूहों में जानकारी पोस्ट कर सकती है कि कितने बजे से किन जगहों पर ट्रैफिक बंद हो जाएगा, और वहां की तस्वीर या वहां की लोकेशन मिल जाने से लोग धक्के खाने से बच जाएंगे। कायदे की बात तो यह है कि टैक्स लेने वाली सरकार, और स्थानीय पुलिस को लोगों को परेशानी से बचाने के लिए ऐसा मामूली सा काम खुद ही शुरू करना चाहिए था, लेकिन हमारे जैसे साधारण समझबूझ के लोगों को ऐसा रास्ता सुझाना पड़ रहा है।
शासन-प्रशासन, और पुलिस अगर अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग वॉट्सऐप और टेलीग्राम चैनल बनाएं, तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी जरूरत के मुताबिक इन चैनलों से जुड़ सकता है, और सरकार कभी किसी के लिए खून जुटाने को, तो किसी सडक़ हादसे की हालत में एम्बुलेंस या दूसरी गाडिय़ां बुलवाने को, आग बुझाने में मदद के लिए, या हाथियों की मौजूदगी वाली जगह जाने से रोकने के लिए लोगों को सावधान कर सकती है। संचार के जो आधुनिक और आम साधन हैं, उनका इस्तेमाल पुलिस और प्रशासन, अफसर और नेता, अपने प्रचार के लिए तो सभी कर लेते हैं, लेकिन जनता के काम की जानकारी के लिए इनका बहुत बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है, और वह जरूरी भी है। सडक़ों पर घंटों तक लोग फंसे रहें, इससे जितना डीजल-पेट्रोल बर्बाद होता है, जितना प्रदूषण बढ़ता है, लोगों का वक्त खराब होता है, और लोगों का मानसिक तनाव बढ़ता है। हिन्दुस्तान में ट्रैफिक पुलिस पर काम का बोझ इतना अधिक रहता है कि वह लोगों के मानसिक तनाव की परवाह करने जैसा बारीक काम सोच भी नहीं पाती। हकीकत तो यह है कि निजी गाडिय़ां चलाने वाले बहुत से लोगों में तरह-तरह के तनाव और सेहत की तकलीफें झेलने वाले लोग रहते हैं, और उन्हें इस तरह घंटों तक चारों तरफ दौड़ाना, अनिश्चितता में घेरे रखना, उनके लिए बहुत अधिक तनावपूर्ण हो सकता है। किसी भी जिम्मेदार शासन-प्रशासन को अपने नागरिकों के बुनियादी हक अनदेखे नहीं करने चाहिए। भारत में आज अफसरों की लापरवाही के खिलाफ जनता को किसी तरह की कानूनी राहत नहीं मिल पाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जिम्मेदार ओहदों पर बैठे हुए अफसर अपने इलाकों में नई टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल से परेशानियां घटाने की कोशिश भी न करें।
शहरी-प्रबंधन में यह भी होना चाहिए कि जो रास्ते बंद रहने वाले हैं, उनके वैकल्पिक रास्तों पर से तमाम किस्म के स्थाई और अस्थाई कब्जे और सामान हटा दिए जाने चाहिए ताकि वहां बढऩे वाले ट्रैफिक के लिए रास्ता बन सके। हमने आज तक पुलिस या प्रशासन को ऐसा करते नहीं देखा है, और जो सडक़ें घंटों तक ट्रैफिक जाम में फंसी रहती हैं, वहां भी दुकानों के बाहर दूर तक सामान सजे रहते हैं, और अवैध कब्जा रास्ता रोके रहता है। अफसरों को अपने इलाकों पर अपना हक नजर आता है, उन इलाकों को लेकर अपनी जिम्मेदारी नहीं सूझती है। जिस दिन अफसर अपने इलाके के प्रबंधन को अपनी इज्जत से जोडक़र देखेंगे, वे बहुत सी कमियों और खामियों को दूर कर पाएंगे। हमारे सरीखे साधारण समझ के लोग भी यह देख पा रहे हैं कि अफसरों के क्या-क्या न करने का दाम शहर की जनता चुका रही है। यह बात अफसरों की साख के लिए बहुत खराब है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कल राजधानी रायपुर से कुछ किलोमीटर दूर एक शराब कारखाने के कर्मचारियों को ड्यूटी से वापिस लेकर आ रही बस रास्ते में एक गहरी खदान में गिर गई, और 40-50 फीट नीचे गिरी बस से 12 लाशें निकाली गई हैं, और दर्जनों मजदूर-कर्मचारी जख्मी हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने भी इस घटना पर अफसोस जाहिर किया है। पहली खबर यह बताती है कि बस की हेडलाईट बंद हो गई थी, और ड्राइवर अंधेरी सडक़ पर अंदाज से बस चला रहा था। कारखाने ने मुआवजे और मृतक-परिवारों को नौकरी का वायदा किया है। सरकार ने जांच की घोषणा की है। इतने मेहनतकश लोगों की एक साथ मौत से कायदे से तो प्रदेश की सरकार को हिल जाना चाहिए, और उन तमाम बातों की तुरंत ही कड़ाई से जांच शुरू करनी चाहिए जो कि इस घटना की जिम्मेदार हो सकती हैं। मुसाफिर बसों में अगर हेडलाईट खराब होता है, तो उसकी जगह किसी वैकल्पिक लाईट का अलग से इंतजाम होना चाहिए, लेकिन गाडिय़ों को लेकर यही अकेली बात नहीं है।
हम छत्तीसगढ़ में हर दिन सडक़ों पर कई मौतें देखते हैं। खासकर कारोबारी गाडिय़ां, बस, ट्रक, ऑटो, और दूसरी मालवाहक गाडिय़ां सडक़ के किसी भी नियम का सम्मान किए बिना इतनी मनमानी से चलती हैं कि यह समझ पड़ता है कि इन्हें सरकार के स्तर पर एक बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार का संरक्षण मिला हुआ है। अगर आरटीओ और ट्रैफिक का भ्रष्टाचार इतना संगठित नहीं होता, तो क्या वजह है कि गाडिय़ां ओवरलोड चलतीं, मनमानी रफ्तार से चलतीं, और बहुत से मामलों में ड्राइवर नशे में भी रहते। हकीकत तो यह है कि सरकार चाहे जो हो, हमने अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस को लोगों की जिंदगी बेचते हुए देखा है, और आम जनता बेबस रहती है क्योंकि वह गुंडागर्दी करती किसी कारोबारी गाड़ी को रोक नहीं सकती, उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, और उसकी शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं रहती। यह भी एक बड़ी वजह रहती है कि जब ट्रैफिक पुलिस आम जनता पर हेलमेट जैसे नियम लागू करना चाहती है, तो जनता के मन में पुलिस के लिए हिकारत रहती है, और वह पुलिस की बातों की इज्जत नहीं करती। संगठित भ्रष्टाचार सडक़ यातायात से जुड़े इन दोनों विभागों की साख को खत्म कर चुका है। अविभाजित मध्यप्रदेश में बहुत पहले एक परंपरा थी कि जो डिप्टी कलेक्टर एक बार आरटीओ बन जाते थे, उनका आईएएस में जाना, या कलेक्टर बनना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि सरकार में भी सभी लोग यह जान जाते थे कि ये अफसर कितने भ्रष्ट रहे होंगे।
कल की इस सडक़ दुर्घटना में कारखाने की स्टाफ बस के फिटनेस की जांच जब हुई भी होगी, तो महज रिश्वत देकर उसके कागज पूरे हो गए होंगे। मुसाफिर गाडिय़ों का यह हाल बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालता है। अभी कुछ दिन पहले इसी अखबार के संपादक ने रायपुर पुलिस को खबर की थी कि बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा रात में भी बिना लाईट जलाए चलते हैं क्योंकि लाईट न जलाने से ऑटोरिक्शा कुछ किलोमीटर ज्यादा चल सकता है। ऑटोरिक्शा ओवरलोड तो रहते ही हैं, वे अब रात में बिना लाईट भी चल रहे हैं, तो इससे जिंदगियों को कितना खतरा हो सकता है। शायद पिछले ही बरस बस्तर में एक स्कूली ऑटोरिक्शा की दुर्घटना में बच्चे बड़ी संख्या में मारे गए थे जितने कि किसी एक ऑटोरिक्शा में कानूनी रूप से बिठाई भी नहीं जा सकते थे। ऑटो में तीन लोगों को बिठाया जा सकता है, और इस दुर्घटना में सात बच्चे मारे गए थे, और दो बच्चे बुरी तरह जख्मी हुआ था। हम शहरों में एक-एक दर्जन बड़े मुसाफिरों को बिठाकर ऑटोरिक्शा आते-जाते देखते हैं जो कि चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस के सामने रूके भी रहते हैं। बिना संगठित भ्रष्टाचार के ऐसा जानलेवा जुर्म पुलिस से अनदेखा तो रह नहीं सकता।
आए दिन कहीं न कहीं मुसाफिर बस का एक्सीडेंट होते रहता है, और हर जगह से सुनाई पड़ता है कि बस अंधाधुंध रफ्तार से जा रही थी। निजी बसों में एक-दूसरे से आगे निकलने और मुसाफिर हासिल करने का गलाकाट मुकाबला चलता है, और इसी वजह से अंधाधुंध रफ्तार दिखती है। जब इनकी रफ्तार, इनके प्रेशर हॉर्न, सडक़ों पर इनका थम जाना नहीं रूकता है, तो जनता के मन में पुलिस के किसी भी निर्देश के लिए कोई सम्मान नहीं रह जाता। आरटीओ विभाग भारत के अधिकतर प्रदेशों में सबसे भ्रष्ट विभागों में से एक रहता है, और मध्यप्रदेश के समय से यह वहां से लेकर छत्तीसगढ़ तक संगठित भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है। सडक़ों की अधिकतर मौतों को हम इसी काली कमाई का नतीजा मानते हैं। इसके अलावा शहरों में ट्रैफिक विभाग में पोस्टिंग के लिए भी बड़े लेन-देन की परंपरा रही है, और हर महीने भुगतान की भी चर्चा रहती है। ऐसे में सडक़ों पर बेकसूर आम जनता की जिंदगी की नीलामी तो पहले ही लग चुकी रहती है।
हमारा ख्याल है कि इस हादसे को मुख्यमंत्री के स्तर पर इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि प्रदेश के भ्रष्टाचार से सडक़ें कैसी खून से सन रही हैं। ऊंचे ओहदों पर बैठे ताकतवर लोग, और समाज में ताकत रखने वाले लोग अपनी बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं, और उन्हें हादसों से नुकसान कम पहुंचता है। सडक़ों पर सबसे अधिक दुपहिया वाले मारे जाते हैं, और बाकी लोग मुसाफिर या कारोबारी गाडिय़ों में चलने वाले गरीब लोग। संपन्न और ताकतवर लोगों के मारे जाने की घटनाएं कम होती हैं। इन पर अफसोस जाहिर करके इन्हें इतिहास मान लेना ठीक नहीं है। इतिहास अगर किसी जगह अपने आपको सबसे अधिक दोहराता है, तो वह सडक़ हादसों की शक्ल में। जब तक अब तक के हादसों से सबक नहीं लिया जाएगा, सत्ता इस कमाई का लालच छोड़ नहीं पाएगी, तब तक बेकसूर अकाल मौतें होती ही रहेंगी। हम सडक़ सुरक्षा के बारे में लगातार लिखते हैं, सरकार का एक महकमा इसका अभियान चलाता है, लेकिन सरकार के ही दूसरे महकमे ऐसी कोशिशों पर पानी फेर देते हैं। जनता के बीच के कुछ लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि संगठित सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ किस तरह लोगों को जागरूक किया जा सकता है, किस तरह सडक़ों पर भ्रष्टाचार को घेरा जा सकता है, और कहां अदालत की मदद ली जा सकती है। बीती रात जिस घटना में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए हैं, उसकी दंडाधिकारीय जांच की घोषणा हुई है। यह जांच उसी दर्जे का अफसर करेगा जिस दर्जे के अफसर मोटी रकम देकर आरटीओ बनने के चक्कर में पड़े रहते हैं। अब ऐसी जांच से क्या उम्मीद की जा सकती है? सडक़ें आम लोगों के लिए रहती हैं, और अपनी लड़ाई उन्हीं को लडऩी पड़ेगी, जनता के समूह अगर ओवरलोड गाडिय़ों को घेरकर पुलिस को मौके पर बुलाने लगेंगे, तो हो सकता है कि कुछ सुधार हो सके। इसी तरह नियम तोडऩे वाली तमाम गाडिय़ों को घेरकर रोकने की जागरूकता अगर जनता में आएगी, तो ही उनके बच्चे महफूज रह सकते हैं।
एक प्रमुख और प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने चार दिन पहले एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें उसका कहना था कि पाकिस्तान में भारत सरकार के हुक्म से आतंक के आरोपियों का कत्ल किया गया है। इस अखबार ने भारत और पाकिस्तान के खुफिया सूत्रों के हवाले से यह कहा था कि पाकिस्तान में चुनिंदा लोगों को खत्म करने के पीछे भारत की एक व्यापक रणनीति है जो कि विदेशी जमीन पर भारत के खिलाफ आतंक करने वाले लोगों को निपटा रही है। पिछले कुछ अरसे में कनाडा और अमरीका में भी कुछ ऐसे खालिस्तानी आंदोलनकारियों को अज्ञात हमलावरों ने संदिग्ध तरीके से मारा था, और इसके बाद पाकिस्तान में भी एक-एक करके कई ऐसे लोग मारे गए जो कि भारत में हुई आतंकी घटनाओं से जुड़े बताए जाते हैं। कनाडा की संसद में सरकार की तरफ से यह आरोप लगाया गया था कि उसकी जमीन पर भारत की खुफिया एजेंसियों से जुड़े ऐसा कत्ल हुआ है जिसके विश्वसनीय सूत्र कनाडा की सरकार को मिले हैं। इसे लेकर दोनों देशों के बीच भारी तनातनी भी हो गई थी, और दोनों ने दूसरे देश के दूतावास के लोगों में कमी करवाई, और भारत के छात्रों का कनाडा पढऩे जाना, और भारत के कामगारों का वहां काम करने जाना भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अमरीका के साथ भी भारत की ऐसे ही एक हमले को लेकर तनातनी सामने आ चुकी है। गार्डियन की इस ताजा रिपोर्ट को लेकर जब अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता से पूछा गया तो उसका कहना था कि वे इन रिपोर्ट को देख रहे हैं, और दोनों पक्षों से बस यही अनुरोध करते हैं कि वे तनाव से बचें, और बातचीत से समाधान ढूंढें। पाकिस्तान इसके पहले पिछले बरस वहां दो अलग-अलग हत्याओं की तोहमत भारत के खुफिया एजेंट्स पर लगा चुका है, और उनके नाम के भी आरोप उसने लगाए थे। पाकिस्तान में ऐसे कई दूसरे लोग छुप गए हैं जिनके बारे में भारत सरकार पाकिस्तान से यह शिकायत करती रही है कि वे भारत में हुई आतंकी घटनाओं के जिम्मेदार हैं।
भारत के ये तेवर हाल के बरसों के ही हैं, इसके पहले भारत का नाम दुनिया के दूसरे देशों में अपने दुश्मन करार दिए गए लोगों को खत्म करवाने जैसे काम के लिए जुड़ा नहीं रहता था। अब तक किसी देश से पुख्ता सुबूत नहीं आए हैं, लेकिन कनाडा और अमरीका ने बड़ी नाराजगी जरूर जाहिर की है। दुनिया में भारत की एक अलग किस्म की छवि इससे बन रही है कि अमरीका या इजराइल अकेले ऐसे देश नहीं है जो कि अपने देश के दुश्मन लोगों को दूसरे देशों में जाकर भी निपटाते हों। भारत सरकार भी ऐसा करने में सक्षम है, और कर रही है, ऐसा एक संदेश बिना शब्दों में कुछ कहे हुए चारों तरफ जा रहा है। सरकार ऐसी किसी बात का खंडन नहीं कर रही है, और देश के भीतर सरकार समर्थक जितने किस्म की ताकतें हैं, वे उन्हें भारत के नए बाहुबलि का शक्ति प्रदर्शन साबित करने में लगी हैं। दूसरे देशों में ऐसी हर हत्या के साथ ही भारत में सत्ता-समर्थक तबके की प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर देखने लायक रहती है, और सरकार इस पर कुछ नहीं कहती, जो कि एक किस्म से मौन सहमति का लक्षण है वाली बात दिखती है।
दुनिया के कई ऐसे देश हैं जो कि अपने दुश्मनों को निपटाने के लिए भाड़े के हत्यारे जुटाकर कत्ल करवाते हैं। कुछ मामलों में कुछ देशों के खुफिया जासूस या फौजी कमांडो भी ऐसा करते हैं, लेकिन आमतौर पर सरकारें दूसरी जमीन पर कत्ल का जिम्मा लेने से बचती हैं। दुनिया के इतिहास का ऐसा सबसे बड़ा कत्ल पाकिस्तान में ओसामा-बिन-लादेन का हुआ था जिसने कि अमरीका के न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों को अपने विमानों के हमले से खत्म करवा दिया था। इसके जवाब में बरसों तक तलाश के बाद अमरीका का कहना है कि उसे पाकिस्तान में एक जगह ओसामा-बिन-लादेन का ठिकाना पता लगा, और उसकी फौज ने पाकिस्तान को बताए बिना वहां घुसकर लादेन को मारा, और उसे समंदर में कहीं दफन कर दिया। कहने के लिए पाकिस्तान ने इसे अपने देश की सीमाओं में अमरीकी दखल माना, लेकिन ऐसा लगता है कि वह विरोध एक जुबानी जमाखर्च ही था, और पाकिस्तान की न तो अमरीका का विरोध करने की औकात थी, और न ही उसकी कोई नैतिक ताकत थी कि बरसों से ओसामा के पाकिस्तान में छुपे रहने के बाद वह कुछ भी बोल सके।
अभी यह मामला एक बार फिर गर्म होते इसलिए दिख रहा है कि भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने द गार्डियन की उसी खबर को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि अगर आतंकी भारत में हरकत करके पाकिस्तान भाग जाते हैं, तो भारत पड़ोसी देश में घुसकर उन्हें मारेगा। इसका विरोध करते हुए पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने जवाब दिया था कि भारत की सरकार चुनावी फायदे के लिए ऐसा नफरती बयान दे रही है। पाकिस्तान ने कहा कि यह राजनाथ सिंह का यह बयान पाकिस्तान के अंदर हिन्दुस्तान द्वारा मनमाने ढंग से ‘आतंकवादी’ करार दिए गए नागरिकों की हत्या के बारे में भारत के दोषी होने की मंजूरी है। पाकिस्तान ने कहा कि भारत को उसके गैरकानूनी कामों के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय जवाबदेह ठहराए।
इस बारे में दुनिया में सरकारों द्वारा करवाई जाने वाली हत्याओं की जानकार विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया की नजरों में इससे भारत की नैतिक ताकत कमजोर हुई है। दूसरी तरफ भारत के भीतर जनता के बीच सरकार-प्रशंसकों में इससे गर्व की एक भावना उठ खड़ी हुई है जो कि सत्तारूढ़ भाजपा के चुनावी फायदे की हो सकती है। कुछ विदेशी और कुछ भारतीय जानकारों का यह मानना है कि इससे भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक सख्त नेता की छवि बन रही है, और दूसरी तरफ दुनिया के दूसरे देशों को यह संदेश भी जा रहा है कि भारत के खिलाफ आतंकी सोच रखने वाले लोगों को किसी देश में अगर जगह दी जाती है तो भारत उसे बहुत आसानी से नहीं लेगा। अब सरकारों की किसी अधिकृत स्वीकारोक्ति के बिना उन पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती, लेकिन भारत के खिलाफ कम से कम दो बड़े, प्रमुख, और महत्वपूर्ण देश, कनाडा, और अमरीका इस मुद्दे को उठा चुके हैं, और इन दोनों ही देशों में संसद या अदालत तक ऐसे मामले जा चुके हैं। भारत को इस बात का भरोसा हो सकता है कि अमरीका जैसे देश जो पूरी दुनिया में ऐसे हमले करवाते रहते हैं, उनका क्या नैतिक हक है कि वे भारत पर लग रही तोहमत को लेकर उसके खिलाफ कुछ करें। दूसरी तरफ पाकिस्तान आज कई मायनों में इतना कमजोर हो गया है कि वह भारत की ऐसी कार्रवाई होने पर भी उसके खिलाफ कुछ करने की हालत में नहीं है। गार्डियन की इस ताजा रिपोर्ट से अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत एक अनैतिक बाहुबलि की तरह दिख रहा है, जिसके विदेशी और घरेलू असर बिल्कुल अलग-अलग हैं।
दुनिया में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को और अधिक विकसित करने के लिए लगातार इसमें दुनिया भर में मौजूद जानकारी डाली जा रही है। दुनिया के प्रमुख लेखकों का साहित्य इसमें डाला जा चुका है, और हर किस्म की मीडिया में मौजूद समाचार, विचार, और ऑडियो-वीडियो भी डाले जा रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तकनीक ऐसी है कि उसमें जितनी अधिक जानकारी डाली जाएगी, उतनी ही उसकी बुद्धि विकसित होती जाएगी, और उसके नतीजे और उसका काम बेहतर होता जाएगा। यह काम इतनी रफ्तार से चल रहा है कि लोगों के पास अभी इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि यह कितना खतरनाक हो चुका है। लोगों को आमतौर पर खबर तब लगती है जब विकसित तकनीक पर बने किसी औजार को लोगों के सामने रखा जाता है। उसके पहले तक तो कम्प्यूटर-लैब में मामला कहां तक पहुंचा है इसे कंपनियां खुद भी उजागर नहीं करती हैं।
अभी कुछ अरसा पहले कुछ पश्चिमी देशों के प्रमुख लेखकों ने इस बात पर आपत्ति की थी कि चैट-जीपीटी जैसे एआई औजार किसी के कहे कोई कहानी भी लिख सकते हैं, और उस कहानी की शैली किसी प्रमुख लेखक की शैली सरीखी भी हो सकती है। इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उन लेखकों के पहले के लिखे साहित्य का इस्तेमाल करता है, और उसी अंदाज में नई कहानी लिख डालता है। लेखकों का कहना है कि उनका अंदाज उनका अपना जिंदगी भर का हासिल है, उसके पीछे उनकी लंबी मेहनत है, और उनकी रचनात्मकता है। अब अगर सिर्फ उनके उपलब्ध साहित्य का इस्तेमाल करके आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यह सीखता है कि वे कैसे लिखते हैं, और फिर किसी के भी कहे उस तरह से लिखकर धर देता है, तो इससे उन लेखकों के अधिकार छिनते हैं। अभी एक दूसरी रिपोर्ट बताती है कि किस तरह दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों ने मीडिया के समाचार-विचार के बाद यूट्यूब पर मौजूद सभी कंटेंट को लिखित शब्दों में बदल डाला, और अपने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए उनका इस्तेमाल किया। अमरीका की कुछ ताजा खबरें बताती हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियां इस तरह की चोरी कर रही हैं। यह मामला कुछ उसी किस्म का हुआ कि कोई व्यक्ति अपने बच्चों को ड्राइविंग सिखाने के लिए चोरी की कार इस्तेमाल करे, या किताबों की दुकान से किताबें चुरा लाए। आज दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां इसी अंदाज में काम कर रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल फिल्म, संगीत, और दूसरे किस्म की कलात्मक सामग्री को लेकर हो रहा है। पिछले बरस हॉलीवुड में महीनों तक हड़ताल चली थी क्योंकि वहां फिल्म और टीवी स्टूडियो एआई का इस्तेमाल करके कहानियां लिख ले रहे थे, या टीवी सीरियलों के अगले एपिसोड। लंबी चली हड़ताल में बाद में लेखक-कलाकार भी शामिल हो गए थे।
आज भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करके लोग फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए अपनी तस्वीरें बना रहे हैं जो कि असल जिंदगी की असलियत से कोसों दूर, लोगों की कल्पनाओं से भी अधिक सुंदर बनी हुई तस्वीरें रहती हैं। ऐसे ही वीडियो भी बनाए जा रहे हैं, और इन सबमें असली दिखने-सुनाई देने वाले ऐसे डीप फेक वीडियो भी हैं जो कि किसी की भी आवाज में कोई भी बात दिखा-सुना देते हैं। अभी कल ही माइक्रोसॉफ्ट ने यह चेतावनी दी है कि चीन एआई का इस्तेमाल करके भारत जैसे देशों में चुनाव को प्रभावित कर सकता है। और बात सिर्फ भारत की नहीं है, 2024 के इस साल में दुनिया के 60 देशों में चुनाव हो रहे हैं, और यहां पर एआई के इस्तेमाल से जनमत को कई तरह से प्रभावित किया जा सकता है, और चुनावों को जीता जा सकता है। जैसा कि दुनिया के और किसी भी महंगे औजार या हथियार के साथ होता है, एआई भी सबसे अधिक संपन्न के हाथ सबसे अधिक विविधता और ताकत के साथ रहेगा, और उसी की जीत की संभावना भी अधिक रहेगी। दुनिया में जहां कहीं भी लोग सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल करते हैं, वहां पर फेसबुक और इंस्टाग्राम सरीखे प्लेटफॉर्म भाड़े पर उपलब्ध हैं, और एआई के साथ मिलकर ये एक खतरनाक गठजोड़ बन चुके हैं। खुद अमरीका जहां पर कि दुनिया की अधिकतर एआई कंपनियां बसी हुई हैं, वह एक चीनी दखल वाली कंपनी के लोकप्रिय एप्लीकेशन, टिकटॉक को लेकर परेशान हैं कि क्या इसकी सारी जानकारी इस कंपनी से चीन की खुफिया एजेंसियों तक नहीं पहुंच रही हैं, और क्या अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में टिकटॉक का इस्तेमाल मतदाताओं को प्रभावित करने में नहीं होगा? दोनों ही प्रमुख पार्टियों और प्रत्याशियों के बीच टिकटॉक को लेकर लगातार यह बहस चल ही रही है कि इसे अमरीका में प्रतिबंधित किया जाए या नहीं? पार्टियां इस बात से भी डरी हुई हैं कि नौजवान वोटरों के बहुत बड़े तबके के बीच यह एप्लीकेशन इतना लोकप्रिय है कि इसे बंद करने से उनकी नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। इस दहशत में अब तक कोई सरकार अब तक कोई फैसला नहीं पा रही है, और न ही अगले उम्मीदवार इस बारे में साफ-साफ कुछ बोल रहे हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की आज की हालत कुछ वैसी ही है जैसा कि हिन्दुस्तान में बहुत धूर्त लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे जमीन के ऊपर जितने हैं, उससे दुगुने वे जमीन के नीचे हैं। एआई आज जमीन के ऊपर जितनी खतरनाक दिख रही है, उससे कई गुना अधिक वह जमीन के नीचे है। और अभी तक हमने जितनी बातें की हैं, वे सबकी सब उसे औजार की तरह इस्तेमाल करने की है। जिस दिन एआई खुद एक बुद्धि बन जाएगा, और वह कृत्रिम के दायरे से बाहर आकर असल दिमाग की तरह विकसित होने लगेगा, उस दिन नौबत और खतरनाक हो जाएगी। अभी कल की ही खबर है कि कुछ कंपनियों के ग्राहकों से बातचीत करने वाले एआई-चैटबोट उन्हें सरकारी नियम तोडऩे के रास्ते सिखाने लगे थे। कहीं कोई चैटबोट भावनात्मक होने लगा है, तो कोई किसी को आत्महत्या की प्रेरणा भी दे रहा है। यह मामला बहुत जल्द इतना बेकाबू हो जाएगा कि एआई अगर किसी तरह की सोच अपनी खुद की विकसित कर लेगा, तो उसके मुताबिक वह दुनिया को तबाह करने के लिए इतने किस्म के रास्ते पल भर में ढूंढ लेगा कि उनसे बचाव का जरिया ही इंसानों के बस का नहीं रह जाएगा। कुल मिलाकर एआई पर चर्चा कभी भी पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि इन 15 मिनटों में जितनी देर में हमने यह लिखा है, इतनी देर में एआई हमारी कल्पना से भी अधिक छलांग लगा चुकी होगी।
एक खबर है कि एक निजी बैंक के अफसर से एक तथाकथित तांत्रिक ने श्मशान में नोटों की बारिश करवाने के नाम पर ढाई लाख रूपए ठग लिए। यह घटना एक बड़े शहर में हुई, और झांसे में आने वाला व्यक्ति बैंक का अफसर है। किसी आम व्यक्ति को नोटों की बारिश पर भरोसा हो गया होता तो भी समझ आता, बैंक अफसर का ऐसा झांसा खाना बताता है कि लोगों में वैज्ञानिक समझ किस कदर कमजोर हो चुकी है। अभी कल ही पास के एक दूसरे इलाके में झाडफ़ूंक करने वाला एक बैगा पकड़ाया जो कि एक शादीशुदा महिला को उसके घर से जबर्दस्ती ले जाकर उससे बलात्कार कर चुका था। इस तरह के लोगों के हाथों धन और तन लुटवाने वाले लोग कम नहीं रहते, बस यही रहता है कि वे पुलिस रिपोर्ट के लिए सामने नहीं आते हैं कि अब पूरी दुनिया के सामने बेवकूफ भी साबित होने का क्या फायदा?
दुनिया कहां पहुंच चुकी है, लोग अब अपने गुजर चुके माता-पिता की आवाज के कुछ शब्दों की रिकॉर्डिंग को कम्प्यूटर के एआई एप्लीकेशन में डालकर अपनी डाली दूसरी बातें उनकी आवाज में पल भर में पा सकते हैं। इंसान को चांद पर गए 50 बरस हो चुके हैं, और हिन्दुस्तान में लोग कहीं ग्रहों के चक्कर में पड़े हैं, तो कहीं तंत्र-मंत्र के। जिस मंगल ग्रह को लेकर दुनिया भर से अलग-अलग अंतरिक्ष अभियान चल रहे हैं उस मंगल ग्रह का हिन्दुस्तान के हिन्दू समाज में इतना ही योगदान रहता है कि वह किसी लडक़ी या लडक़े के नाम के साथ चिपककर, उनके मंगली होने की चेतावनी देता है, और शादी में अड़ंगा डालता है। इतनी दूर बसा एक ग्रह हिन्दुस्तानी शादियों में सबसे बड़ा अड़ंगा बना हुआ है। अंधविश्वास लोगों के सिर चढक़र बोल रहा है, और विज्ञान और टेक्नॉलॉजी का सारा मजा लेते हुए भी लोग वैज्ञानिक सोच से दूर जा रहे हैं।
सुनने में यह बात कुछ लोगों को बुरी लग सकती है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि हिन्दुस्तानी जिंदगी में धर्म का जो बोलबाला बढ़ा है, उसने वैज्ञानिक सोच को खोखला कर दिया है। जैसा कि किसी भी धर्म के मिजाज से जाहिर है, उसका किसी तथ्य और तर्क से कोई लेना-देना नहीं रहता है, बल्कि इन दोनों चीजों को छोड़ देने के बाद ही धर्म का काम शुरू हो पाता है। इसलिए जैसे-जैसे लोगों के दिमाग पर, उनकी जिंदगी में धर्म हावी होते जाता है, वैसे-वैसे वे तर्क, और फिर इंसाफ की बातों को भी छोडऩे लगते हैं, क्योंकि धर्म ने तो इंसाफ को छोडक़र अंधविश्वास पर चलने को ही बढ़ावा दिया जाता है। धर्म में हर किस्म के बुरे काम, और जुर्म से मुक्त हो लेने के लिए तरह-तरह के प्रायश्चित का इंतजाम किया गया है, और कमजोर तबकों को झांसा देने के लिए यह भी समझा दिया जाता है कि इस जन्म में मिल रही तकलीफें पिछले जन्म के बुरे कामों का नतीजा हैं, और इस जन्म में अच्छे काम करने से अगले जन्म में उसका फल मिलेगा। धर्म का यह सिलसिला पूरी दुनिया के तकरीबन हर धर्म में मजबूती से जमा हुआ है, और आस्था के लिए तर्कमुक्त अंधविश्वास की जो जमीन लगती है, उस जमीन पर तांत्रिक और दूसरे करिश्मे दिखाने वाले लोग भी अपनी फसल लेने लगते हैं।
अभी दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के बड़े-बड़े अखबारों में पहले पन्ने पर पूरे पेज का एक इश्तहार छपा है जिसमें एक किसी बाबा के करिश्मों का जिक्र है, और एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सभी के दुखों और रोगों का पल भर में अंत करने का दावा किया गया है। इस बाबा ने दुनिया भर के राष्ट्र प्रमुखों की तस्वीरों को इस इश्तहार में डाल दिया है जिनका कि इस बाबा के किसी दावे से कोई लेना-देना नहीं है। भारत के भी कुछ पिछले और वर्तमान राष्ट्रपतियों के साथ इस बाबा की फोटो है, और तरह-तरह की गंभीर बीमारियों के इलाज का दावा इसमें किया गया है जो कि जादू और चमत्कार के दावों के खिलाफ बने हुए कानून के तहत एक जुर्म है। जगह-जगह विश्व स्वास्थ्य संगठन का जिक्र कर दिया गया है, और कम पढ़े-लिखे लोग, या अधिक पढऩे में दिलचस्पी नहीं रखने वाले लोग यह मान लेंगे कि डब्ल्यूएचओ भी इस बाबा को मानता है। जाहिर तौर पर ही फर्जी दावों वाले ऐसे इश्तहार को न तो छापने में बड़े-बड़े अखबारों को कोई परहेज है, और न ही शासन-प्रशासन को इस भगवा-बाबा पर कार्रवाई में दिलचस्पी है।
धर्म कब अपनी कागजी और किताबी परिभाषा से बाहर निकलकर अंधविश्वास बन जाता है, लोगों को अंधभक्त बना देता है, और तरह-तरह से हिंसक होकर अन्याय का औजार भी बन जाता है, यह पता भी नहीं चलता। हिन्दुस्तान में धर्म, आध्यात्म, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, और अंधविश्वास के बीच कोई फासले नहीं रह गए हैं। धर्म और आध्यात्म के नाम पर लोगों को धोखा देने वाला रामदेव नाम का स्वघोषित बाबा अभी सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगते खड़ा है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी वह झूठे दावों वाले इश्तहार छपवा रहा था, और बयान दे रहा था। रामदेव और उस सरीखे कई बाबा आयुर्वेद और योग के नाम को भी भुनाने में लगे रहते हैं, और भारत के इतिहास की जो गौरवशाली बातें हो सकती थीं, वे सब बेजा इस्तेमाल का सामान बन चुकी हैं। आसाराम से लेकर राम-रहीम तक अनगिनत बाबा ऐसे हैं जो कि भक्तों से बलात्कार कर रहे हैं, और उनके नाबालिग बच्चों से भी। यह बात समझने की जरूरत है कि जो आसारामों को अपने बच्चे दे देते हैं, वे आसमान से नोटों की बारिश के दावे को सच मानकर अपने लाखों रूपए भी तांत्रिक नाम के जालसाज को दे रहे हैं। यह पूरा सिलसिला देश में लोगों की तर्कशक्ति और वैज्ञानिकता के खत्म होने का एक बड़ा सुबूत है। जिस देश में धर्म ने कर्म की जगह कब्जा कर ली है, और लोगों को परिवार के खाने का इंतजाम करने के बजाय सडक़ किनारे धार्मिक शामियानों में मुफ्त खाना मिल जाना बेहतर लग रहा है, वहां पर तांत्रिक कभी बेरोजगार और भूखे नहीं रह सकते। पता नहीं यह सिलसिला और कहां तक जाएगा।