दिल्ली की खबर है कि केन्द्रीय विद्यालय की एक शिक्षिका, अन्विता शर्मा ने खुदकुशी कर ली। इसके पहले उसने परिवार को भेजे गए आखिरी वॉट्सऐप मैसेज में लिखा कि उसका पति किस तरह उसे बरसों से परेशान कर रहा है। उसने लिखा कि पति ने उससे नहीं, उसकी नौकरी से शादी की थी, और वे बाहर कामकाज करने वाली एक घरेलू नौकरानी भी चाहते थे। उसने लिखा कि किस तरह एक बंधुआ मजदूर की तरह रह गई थी, और पति उसके हर काम में खामियां निकालते रहता था। उसने एक आखिरी संदेश अपने पति को भी लिखा कि उसके लिए खाना पका दिया है, खा लेना। और उसने अपने मां-बाप को लिखा है कि उसके चार बरस के बेटे को वे ही पालकर बड़ा करे, क्योंकि वह नहीं चाहती कि वह अपने बाप की तरह बने।
खुदकुशी चाहे कहीं भी हो, किसी की भी हो, वह बहुत तकलीफदेह रहती हैं, क्योंकि उससे अधिक निराशा का दौर और कुछ नहीं रहता। लोगों के पास जब जिंदा रहने की कोई वजह नहीं रह जाती, और मौत जिंदगी के मुकाबले आसान लगती है, तो वे खुदकुशी की तरफ बढ़ते हैं। हम इस महिला की आत्महत्या को देखकर सोचते हैं कि केन्द्रीय विद्यालय की ठीकठाक तनख्वाह वाली नौकरी के बाद भी उसे घर पर नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था, और बदसलूकी भी झेलनी पड़ती थी। क्या यह हालत कमोबेश हिन्दुस्तान की अधिकतर महिलाओं की नहीं है जो कि घर के बाहर भी काम करती हैं, और घर पर तो काम करना ही है। जो महिलाएं बाहर कोई काम नहीं करतीं, उन पर भी परिवार का इतना बोझ रहता है कि अगर भुगतान करके उतनी मजदूरी करवानी होती, तो परिवार का दीवाला ही निकल जाता। दिन भर घरेलू मजदूरी, और रात को पति की हसरतों को पूरा करने के लिए बदन को पेश कर देने की मजबूरी। हिन्दुस्तानी महिला की जिंदगी तब तक आसान नहीं है, जब तक वह अच्छा-खासा नहीं कमाती है, और वह घर छोडक़र बाहर निकलने का हौसला नहीं रखती है। ये दो बातें अगर रहें, तो ही पति और ससुराल के बाकी लोग उसके अस्तित्व को मानते हैं, इससे कम में उसे इंसान की तरह कोई-कोई परिवार मान भी सकते हैं, और अधिकतर परिवार उसे एक बंधुआ मजदूर की तरह देखना चाहते हैं।
भारत में जिस तरह से लड़कियां शादी के झांसे में आकर किसी के भी हाथ अपना बदन दे देती हैं, वह भी एक बड़ा खतरनाक सिलसिला है, और उनके बीच भी इस बात की जागरूकता जरूरी है कि शादी ही सब कुछ नहीं होती। दुनिया में बहुत सारे ऐसे देश हैं जहां पर महिलाएं बिना शादी किए भी पूरी जिंदगी गुजार लेती हैं, और अपनी जिंदगी की वे खुद मालकिन रहती हैं। यह बात भारत के उन बहुत से लोगों को खतरनाक लग सकती है जो कि शादी नाम की संस्था को अनिवार्य मानते हुए यह कोशिश करते हैं कि परिवार में एक बंधुआ मजदूर बढ़ जाना सहूलियत की बात होगी। यह सिलसिला टूटना जरूरी है। भारत में लड़कियों के मन में यह आत्मविश्वास लाना जरूरी है कि शादी कुछ भी नहीं है, पढ़ाई-लिखाई, और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना, आत्मविश्वास की ताकत हासिल करना, सब कुछ है। लड़कियों को यह बात अच्छी तरह समझ आना चाहिए कि बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के ससुराल में उनके साथ जुल्म का बहुत बड़ा खतरा हमेशा ही बने रहेगा। और जब कोई लडक़ी कमाने वाली रहती है, तो उसके साथ पति और ससुरालियों का बर्ताव भी बदल जाता है।
यह सिलसिला मां-बाप के सिरे से शुरू होना चाहिए कि वे लडक़ी के दहेज के लिए रकम इकट्ठा करने के बजाय उसे पढ़ा-लिखाकर, हुनरमंद बनाकर किसी भी किस्म के रोजगार या स्वरोजगार से लगाएं, और उसे पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाएं। यह आत्मनिर्भरता मां-बाप को भी बेटी के भविष्य के बोझ से मुक्त करेगी, और लडक़ी अपने मायके की मोहताज भी नहीं रह जाएगी। यह नौबत इसलिए जरूरी है कि मां-बाप के गुजर जाने के बाद भी किसी लडक़ी के मायके लौटने की नौबत आने पर भाई-भाभी का रूख भी उसके लिए बदल चुका रहता है। आर्थिक आत्मनिर्भरता खुद महिला के लिए, दोनों तरफ के परिवारों के लिए, समाज और देश की अर्थव्यवस्था के लिए, हर बात के लिए जरूरी है।
अब हमने आज की यह बात जिस घटना से शुरू की है, उसे अगर देखें तो हमारी आगे की बातचीत कुछ फिजूल लगेगी। केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका एक अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी रही होगी, और वहां रहते हुए भी अगर उस महिला को पति और ससुराल से कोई सम्मान और महत्व नहीं मिला, तो ऐसी नौकरी तो देश की अधिकतर महिलाओं को मिल भी नहीं सकती। लेकिन हम ऐसे परिवार को बहुत अपवाद सरीखा दुष्ट मानते हैं, और यह मानते हैं कि देश के आम और औसत परिवार इतने दुष्ट शायद नहीं होंगे। परिवार और उसके सदस्य कारखाने में ढले हुए एक सरीखे नहीं रहते, इसलिए दिल्ली की इस मिसाल को देखकर किसी को निराश नहीं होना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि आम मामलों में कामकाजी और कमाऊ महिला अपने ससुराल में बेहतर स्थिति में रहती है, और अगर तमाम लोग जुल्मी हों, तो वह अलग होकर भी अच्छी तरह अपनी जिंदगी गुजार सकती है। दिल्ली की इस शिक्षिका ने जिस तरह से हौसला छोड़ा है, वैसी नौबत न आती तो बेहतर होता। वह इतनी आत्मनिर्भर थी कि अपने बेटे के साथ वह अलग भी रह सकती थी। हमने संघर्ष करने वाली ऐसी बहुत सी महिलाओं को देखा है जो जुल्मी और बर्बाद हो चुके पतियों को छोडक़र अपने पैरों पर खड़ी होती हैं, और कामयाबी भी हासिल करती हैं, लेकिन इसके लिए उनका आत्मनिर्भर होना एक बड़ी जरूरत रहती है।
कुल मिलाकर परिवार और समाज को, सरकार को, देश के उत्पादक कामकाज में महिलाओं की भूमिका लगातार बढ़ाना चाहिए, उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, और कामकाज के उनके अवसर बढऩे चाहिए, उनके रहने के सार्वजनिक इंतजाम लगातार बढऩे चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। कोई भी देश अपनी आधी आबादी की चौथाई उत्पादकता से आगे नहीं बढ़ सकता, उसे अपनी सौ फीसदी आबादी की सौ फीसदी की उत्पादकता की जरूरत पड़ती है, तभी जाकर आबादी बोझ नहीं, बल्कि संपत्ति लगने लगती है। हिन्दुस्तान के पड़ोस का चीन एक ऐसी मिसाल है जहां सरकार आज एक-एक नागरिक बढ़ाने के लिए तरस रही है, और ऐसा तभी हो पाया है जब वहां की हर महिला आत्मनिर्भर बनती ही है।
महाराष्ट्र की उप-राजधानी नागपुर हिंसा की लपटों में झुलस रही है। कल वहां औरंगजेब की कब्र के खिलाफ, महाराष्ट्र के एक दूसरे हिस्से में उसे तोडऩे के लिए जुलूस निकाला जा रहा था, और हिंदू संगठनों के उस जुलूस पर कुछ पथराव होने की खबरें हैं। इसके तुरंत बाद नागपुर में यह अफवाह फैली कि एक धार्मिक किताब को जलाया गया है। दंगा करवाने के लिए हिंदुस्तान में और लगता क्या है? चारों तरफ पथराव होने लगा, गाडिय़ों में आग लगाई गई, और आंसू गैस, लाठीचार्ज के बाद वहां कर्फ्यू लगाया गया है। दरअसल पिछले कुछ हफ्तों से महाराष्ट्र में औरंगजेब के नाम पर एक विवाद चल रहा है, और वहां के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कल ही यह बयान दिया था कि औरंगजेब को महिमामंडित करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। उनकी यह बात इस तनाव के बीच भडक़ाने वाली लग रही थी कि औरंगजेब की कब्र को हटाया जाए। यह मांग चल ही रही थी, और मुख्यमंत्री ने ऐसा बयान दिया, तो उससे भी लोगों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था। सीएम ने यह बयान दिया कि उन्हें अप्रिय जिम्मेदारी को निभाने का बड़ा अफसोस है कि सरकार को ऐसे औरंगजेब की कब्र की भी हिफाजत करनी पड़ रही है। जाहिर है कि हिंदू संगठनों को सरकार का रुख साफ दिखाई दे गया, और उन्होंने जगह-जगह औरंगजेब की कब्र हटाने के लिए प्रदर्शन शुरू कर दिए। फडणवीस के अपने गृहनगर नागपुर में महाराष्ट्र की सबसे बड़ी ताजा हिंसा हुई, और ये जख्म लंबे समय तक रिसते रहेंगे।
यह देश एक अजीब से दौर से गुजर रहा है, यह चांद और मंगल पर जाने की बातें करता है, पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की हसरत रखता है, लेकिन दूसरी तरफ यह इतिहास में पीछे, और इतना पीछे जाकर हिसाब चुकता करना चाहता है कि कल के दिन इस देश में किसी शहर में दो चकमक पत्थरों को लेकर दो समुदायों के बीच जानलेवा दंगे हो जाएं कि वे पत्थर किसके पुरखों के थे, तो हैरान नहीं होना चाहिए। लोग अभी कुछ सौ बरस पहले के इतिहास को लेकर झगड़ा कर रहे थे, अब वे हजार बरस पहले तक जा रहे हैं। बाबरी मस्जिद से और पीछे जाकर मामला सोमनाथ मंदिर तक पहुंच गया है, यह देश और कितना पीछे जाएगा? और कितना पुराना हिसाब चुकता करेगा? हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि जिनको आगे बढऩा होता है वे लगातार गाड़ी के बैक व्यू मिरर में पीछे का नजारा देखते हुए रफ्तार से आगे नहीं बढ़ सकते। और गाडिय़ों में बैक व्यू मिरर कुछ सौ मीटर तक पीछे का ही दिखा पाता है, आज हिंदुस्तानी तो हजार बरस पहले झांकते हुए चौथाई सदी बाद कहां पहुंचेंगे इसका दंभ भर रहे हैं। आज आजादी की पौन सदी का अमृत महोत्सव निपटा है, और 2047 में आजादी की स्वर्ण जयंती का लक्ष्य तय किया जा रहा है। यह करते हुए भी लोगों को इतिहास की अपनी दीवानगी पर वक्त खर्च करना जरुरी लग रहा है, अपना भी और पूरे देश का भी।
आज दुनिया के विकसित देश जिस तरह किसी भी इतिहास से उबरकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, उन्हें देखकर भी हिंदुस्तान कुछ नहीं सीख पा रहा है। हिटलर की जर्मनी ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के दाएं हाथ एलन मस्क की नाजी सलामी को देखकर उसकी टेस्ला कारों का बहिष्कार कर दिया है। आज सुबह ही हमने एलन मस्क के पेश किए हुए ग्रोक नाम के एआई औजार से पूछा कि जर्मन लोग टेस्ला कार के बारे में क्या सोच रहे हैं, तो उसने एक सर्वे के हवाले से कहा कि एक लाख जर्मन लोगों से पूछा गया तो उनमें से 94त्न ने कहा कि वे कभी टेस्ला कार नहीं खरीदेंगे। जर्मन खुद हिटलर के वक्त के अपने इतिहास से उबर जाना चाहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गांधी हत्या के बाद उसके शक में घिरे हुए लोगों से इस देश को उबरना पड़ा, बाबरी मस्जिद गिराने वालों से, चौरासी के सिक्ख दंगों को करने वाले लोगों से, 2002 के गुजरात दंगों वाले लोगों से देश को उबरना पड़ा। लोकतंत्र में यह लचीलापन रहता है कि वह कई चीजों को माफ चाहे न करें उनसे उबरकर आगे बढऩा जानता है। अब ऐसे में इतिहास को खोदकर औरंगजेब को निकालना, और आज उसके नाम पर अपने शहरों को जलाना, क्या यह मंगल पर पहुंचने का रास्ता है, या यह पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनॉमी बनने की राह है?
इतिहास की जो बहुत पुरानी किताबें रहती हैं, जिनके पन्ने पीले पड़-पडक़र टूटने लगते हैं, उन पन्नों से दुबारा लुग्दी भी नहीं बन पाती, उनसे दुबारा कागज भी नहीं बनाया जा सकता, उनसे न तो आज का वर्तमान लिखा जा सकता, और न ही उनसे भविष्य की कोई कहानी लिखी जा सकती। दुनिया में जिन पीले पड़े हुए पन्नों को इतिहास के दस्तावेज की तरह अकादमिक महत्व का माना जाता है, न कि इक्कीसवीं सदी को सुलगाने वाला चकमक पत्थर, उन पीले पन्नों को धार लगाकर आज हिंदुस्तान में हथियार बनाए जा रहे हैं, और उनसे हिंसा की जा रही है। यह सिलसिला बताता है कि आजादी की पौन सदी बाद भी यह देश किस तरह असभ्य बना हुआ है, और इसे न तो अपने आज की फिक्र है, और न ही अपनी अगली पीढ़ी के कल की कोई फिक्र है, इसे महज इतिहास को लेकर एक बखेड़ा करने की फिक्र है। इससे चुनावी रिकॉर्ड तो बनाया जा सकता है, किसी देश को महान नहीं बनाया जा सकता, किसी लोकतंत्र को कामयाब नहीं बनाया जा सकता, और ऐसे स्पीड ब्रेकरों को बना-बनाकर यह देश आजादी की स्वर्ण जयंती तक के अपने सफर को खुद ही बुरी तरह धीमा कर रहा है। हो सकता है कि औरंगजेब की कब्र खोदने से उसकी लाश के साथ दफ्न कोई ऐसा खजाना मिल जाए कि देश पांच ट्रिलियन डॉलर तक पलभर में पहुंच जाए! लाशों को खाकर जिंदा रहने वाला एक जानवर, कबरबिज्जू किसी सवारी करने के लायक नहीं रहता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस ने अभी चार दिन पहले एक कार रोकी, और उसमें बनाए हुए एक खुफिया बक्से में से एक करोड़ छैसठ लाख रूपए नगद बरामद किए। इसके बाद कार सवार ड्राइवर और उसके साथी से पूछताछ चल रही थी कि उनके मोबाइल पर 4.52 केजी लिखा हुआ मैसेज आया। इसे देखकर पुलिस को शक हुआ, और कार की और बारीकी से जांच की गई, तो उसमें से एक दूसरी जगह छुपाए गए 2.65 करोड़ रूपए के नोट और बरामद हुए। इसके पहले भी तकरीबन हर महीने किसी न किसी कार से ऐसी नगदी बरामद होती है। और यह तो जाहिर है ही कि हजारों कारों में से किसी एक कार की ही पुलिस जांच कर सकती है, और अलग-अलग किस्म से बनाए गए खुफिया बक्सों को पकड़ पाना भी हर बार मुमकिन नहीं रहता। देश में मोदी सरकार ने 2016 में नोटबंदी की थी, और देश में चलन में हजार-पांच सौ के जो नोट थे, उन सभी को रद्द कर दिया गया था। बाद में पांच सौ और दो हजार के नए नोट निकाले गए थे, और लोगों की हैरानी तब तक जारी रही जब तक अभी 2023 में दो हजार रूपए के नोट बंद नहीं किए गए। कालेधन को रोकने के लिए हजार रूपए का नोट बंद करके दो हजार रूपए का नोट जारी करना बड़ी ही अटपटी बात थी, क्योंकि इससे तो कालेधन की आवाजाही और भी आसान हो गई थी। इन 6-7 बरसों में दो हजार रूपए के नोट कालेधन का कारोबार करने वालों के पसंदीदा थे। नोटबंदी के समय एक तर्क यह भी दिया गया था कि इससे बाजार में हजार-पांच सौ के जितने नकली नोट चलन में होंगे, वे सब भी चलन के बाहर हो जाएंगे। लेकिन न सिर्फ वे नकली नोट बैंकों में जमा हो गए, बल्कि नए छापे गए नोटों की नकल भी चालू हो गई। अब जिस बड़े पैमाने पर देश में रोजाना हवाला कारोबार से एक समानांतर अर्थव्यवस्था चलने की खबर मिलती है, उससे लगता है कि न ही नोटबंदी किसी काम की निकली, और न ही भारत के बैंक और टैक्स के कड़े किए गए जाल में कोई फंस रहे हैं। सामानों पर जीएसटी की वसूली जरूर बढ़ गई है, लेकिन नगदी कारोबार में कोई कमी आई हो ऐसा बाजार से भी सुनाई नहीं पड़ता है।
कालेधन पर रोक लगाने के लिए सरकार और क्या कर सकती है? एक तो 2014 में मोदी सरकार आने के पहले से कई किस्म के बाबा यह कीर्तन कर रहे थे कि मोदी सरकार आते ही विदेशों में जमा देश का कालाधन वापिस आ जाएगा, और हर जनता के खाते में लाखों रूपए डल जाएंगे। खैर, वह तो जुमलों की बात थी, और 40 रूपए लीटर पेट्रोल, और 40 रूपए में डॉलर की बात भी उसकी ठीक उल्टी साबित हुई, और इन दोनों चीजों के दाम आसमान पर पहुंच गए। अब ऐसे में अगर देश में दोनंबरी नगदी कारोबार भी धड़ल्ले से चल रहा है, तो उसे क्या कहा जाए? क्या टैक्स चोरी और दोनंबर के धंधे पर जुर्माना बढ़ाया जाए, सजा बढ़ाई जाए, या ऐसे लोगों के कारोबार करने पर ही रोक लगाई जाए? दरअसल रोक लगाने की भावना तो ठीक है, लेकिन लोगों का कारोबार करने का हक एक बुनियादी हक है, और किसी को काम-धंधे से रोकना उतना आसान नहीं रहता है। रोकने की नौबत भी नहीं आनी चाहिए, और न सिर्फ केन्द्र सरकार को, बल्कि राज्य सरकारों को भी सभी तरह की तस्करी को रोकने के लिए निगरानी भी बढ़ानी चाहिए, और खुफिया जानकारी भी जुटाने का काम बढ़ाना चाहिए।
अभी-अभी दक्षिण भारत में एक बड़े आईपीएस की अभिनेत्री बेटी दुबई से एक-एक बार में 14-15 करोड़ का सोना अपने कपड़ों में छुपाकर लाते हुए पकड़ाई, और वह पिछले कुछ महीनों में दर्जन भर से ज्यादा बार दुबई के फेरे लगा चुकी थी, और इसी वजह से वह निगरानी में भी आई थी। लेकिन अगर एक-एक व्यक्ति अपने कपड़ों में छुपाकर इतना सोना ला सकते हैं, तो सरकार की कस्टम ड्यूटी की वसूली तो बहुत ही बुरी तरह मार खाते दिख रही है। यह तो बार-बार के फेरे, और दुबई जैसी जगह बार-बार जाने-आने से शक हुआ, और यह मामला पकड़ में आया। लेकिन नशीले पदार्थों से लेकर बदन के भीतर सोने का पेस्ट तक भरकर लाने वाले लोग बीच-बीच में पकड़ाते ही हैं। छत्तीसगढ़ में हम देखते हैं कि ओडिशा और पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ होते हुए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में भरकर गांजा रोज जाता है, और दूसरे किस्म के नशे भी चारों तरफ आते-जाते हैं, बिकते हैं। इन सबसे अर्थव्यवस्था, और लोगों की सेहत दोनों की बड़ी बर्बादी हो रही है।
केन्द्र सरकार के स्तर पर तो तस्करी और दूसरे किस्म के अपराधों पर खुफिया निगरानी के लिए एजेंसी बनी हुई है। लेकिन भारत की बैंकिंग व्यवस्था में आज भी आर्थिक अपराधियों और दोनंबरी कारोबारियों को इतने छेद मिल जाते हैं कि वे नगदी का कारोबार करते रहते हैं, और वह सरकार के जाल में नहीं फंसता। अब चूंकि देश में 12 लाख रूपए तक की आय पर टैक्स नहीं रहेगा, इसलिए हो सकता है कि गरीबों के नाम पर 12 लाख रूपए तक की आय दिखाकर, और फिर उनके खातों से चेक लेकर दोनंबर की रकम को एकनंबर करने का एक बड़ा संगठित कारोबार चलने लगेगा। अभी भी सट्टेबाजी, क्रिप्टोकरेंसी, और शेयर घोटाला जैसे धंधों में गरीबों के बैंक खातों का धड़ल्ले से इस्तेमाल मुजरिम कर रहे हैं। अब जब 12 लाख रूपए तक की आय पर कोई आयकर नहीं लगेगा, तो लोगों के लिए इन खातों से कारोबारी जुबान में एंट्री लेना आसान हो जाएगा, और बाजार में कई एजेंट यही काम करने लगेंगे।
केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर दोनंबरी से लेकर दसनंबरी कारोबार तक को रोकने के लिए उसकी खुफिया निगरानी मजबूत करनी चाहिए। देश मेें हवाला का काम जैसा पहले चलता था, अभी भी वैसा ही चल रहा है। आज भी किसी कारोबारी शहर से किसी भी दूसरे कारोबारी शहर तक हर दिन सैकड़ों-हजारों करोड़ का कालाधन हवाला से चले जाता है। नोटबंदी से लेकर आज तक सरकार हवाला कारोबार पर वार नहीं कर पाई है। भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों की टैक्स-कमाई को बढ़ाने का एक बड़ा जरिया भी इससे निकल सकता है, अगर तस्करी, टैक्सचोरी, और कालेधन की आवाजाही को रोका जा सके। इंकम टैक्स में छूट की सीमा को एकदम बढ़ा देना इसी बरस से चालू होने जा रहा है, इसका बड़े पैमाने पर बेजा इस्तेमाल न हो, इसकी तैयारी केन्द्र सरकार को करनी चाहिए, वरना यह समानांतर अर्थव्यवस्था बन जाएगी, और लोगों का कालाधन छोटे-छोटे गरीब लोगों के खातों से होकर देश की मुख्य अर्थव्यवस्था में पहुंच जाएगा, बिना कोई टैक्स दिए हुए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
होली की दो दिन की छुट्टी के बाद आज निकलने जा रहे अखबार के लिए संपादकीय के मुद्दों की भरमार है, लेकिन हम एक कम दिलचस्प लगने वाले मुद्दे पर लिखना चाहते हैं जिससे कि किसी भी प्रदेश में लोगों की जिंदगियां बच सकती हैं। पिछले दो-तीन दिनों में छत्तीसगढ़ में जितने किस्म के सडक़ हादसे देखने मिले हैं, उनसे दिल दहल जाता है। सडक़ पर मरने वाले हर कोई कुसूरवार रहे हों यह जरूरी नहीं है, दो गाडिय़ों के एक्सीडेंट में किसी एक गाड़ी की गलती भी हो सकती है, और दूसरी गाड़ी चलाने, या उस पर चलने वाले लोग बेकसूर हो सकते हैं। खासकर जब सडक़ों की हालत लगातार सुधरती चली गई है, गाडिय़ां अंधाधुंध तेज रफ्तार हो गई हैं, लोग सत्ता या ताकत के अहंकार में गाड़ी के इंजन के हॉर्सपॉवर की ताकत अपनी बददिमागी में जोडक़र गाडिय़ां चलाने लगे हैं, तो सडक़ें सुरक्षित नहीं रह गई हैं। जिसके पास राजनीति, सरकार, न्यायपालिका, या मीडिया का बाहुबल है, या पैसों की ताकत है जिससे कि ऊपर की चारों चीजों पर असर डाला जा सकता है, तो फिर हॉर्सपॉवर पर सवार ऐसे लोगों पर उनका अपना ही कोई काबू नहीं रह जाता।
जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ में लोग सडक़ों पर लापरवाह हैं, या बदमिजाजी से सडक़ों को रौंदते हुए गाडिय़ां दौड़ाते हैं, उनमें कोई भी सुरक्षित नहीं हैं। लोग सत्ता और ताकत से परे भी नशे में डूबे हुए गाडिय़ां चला रहे हैं, और उनकी अंधाधुंध रफ्तार पर लगाम लगाने को मानो कोई नहीं है। राजधानी रायपुर में ही रोज दसियों हजार लोग नशा करके गाड़ी चलाते होंगे, और उनमें से कुछ दर्जन के चालान होते हैं। जिनके पास चालान पटाने को अंधाधुंध पैसा है, या चालान फाडक़र फेंक देने की राजनीतिक ताकत है, उन्हें कौन सुधार सकते हैं? नतीजा यह होता है कि सडक़ों पर जो मामूली लोग नियम-कायदे से चलते हैं, उनकी भी जिंदगी पूरी की पूरी खतरे में रहती है। इस खतरे के अनुपात में सरकार का उसे रोकने का कोई इंतजाम नहीं है। गाडिय़ों पर नजर रखने के लिए जो सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए, उतना सस्ता इंतजाम भी सरकार समय रहते नहीं कर रही है। और गाडिय़ों की रफ्तार नापने के जो आसान उपकरण पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो रहे हैं, उनको भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि लोगों की आदत ही ट्रैफिक नियम तोडऩे की होती चल रही है, और वक्त के साथ वह मजबूत भी होती जाती है।
जिस प्रदेश में मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, और डीजीपी बैठकें लेकर बार-बार सडक़ सुरक्षा की बात कहते हैं, उसके बाद भी उस पर अमल न होने की भला क्या वजह हो सकती है? अब तो जिस विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनी है, उस सरकार के आने के बाद लोकसभा और पंचायत-म्युनिसिपल चुनाव भी हो चुके हैं, और अब तो अगले करीब साढ़े तीन बरस वोटरों से दहशत खाने की कोई वजह भी सरकार के पास नहीं रह गई है। सरकार खुद केन्द्र सरकार के बनाए हुए सडक़ सुरक्षा नियमों पर अमल नहीं कर रही, सुप्रीम कोर्ट के कड़े फैसले और हाईकोर्ट की बार-बार की चेतावनी को भी अनदेखा कर रही है, और बिना किसी वजह से लोगों में अराजकता बढऩे दे रही है। यह हाल छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से हर सरकार का रहा, किसी सरकार ने अपने अफसरों को ट्रैफिक सुधारने का मौका ही नहीं दिया। नतीजा यह है कि गाडिय़ां चलाने वालों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी आ गई है जिसने अपने बड़े लोगों को सडक़ों पर अराजकता से चलते देखा हुआ है, और वही सीखा हुआ है।
सडक़ों पर अराजकता बढऩे देने का कोई हक किसी सरकार को नहीं हो सकता क्योंकि इससे नियम-कायदा मानकर चलने वाले आम नागरिकों के हक मारे जाते हैं, और उनकी जिंदगी भी खतरे में पड़ती है। किसी सरकार को भला यह हक कैसे हो सकता है कि वह नियम मानने वाले लोगों की जिंदगी पर नियम तोडऩे वालों को खतरा बनने दे? सडक़ों पर ट्रैफिक को सुरक्षित कैसे बनाया जाए, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत लंबे-चौड़े निर्देश दिए हुए हैं, जिन्हें मानना हर राज्य के लिए जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह जिम्मेदारी भी दी है कि वे अदालती फैसले पर अमल करवाएं। लेकिन बार-बार की नोटिस के बाद भी सरकार जिस बेफिक्री के साथ सडक़-नियम तोडऩे वालों के साथ दिखती है, वह हक्का-बक्का करता है। सिर्फ दिखावे के लिए, प्रतीकात्मक, और हांडी के चावल के एक दाने को निकालकर बाकी चावल पके होने का सुबूत पेश करने की तरह दस-बीस हजार लोगों में से किसी एक का चालान कार्रवाई के सुबूत की तरह पेश किया जाता है। यह आज की अराजक नौबत में जरूरी हो चुके इंजेक्शन लगाने की जगह उसकी दवाई को पूरे शहर की पानी सप्लाई में डाल देने जैसा है जिसका कि असर किसी पर कुछ भी नहीं पड़ेगा। यह किसी के मुंह में ड्रॉपर से एक ड्रॉप चाय डाल देने सरीखा है जिसका कि कोई स्वाद भी नहीं आएगा।
आज जब बहुत अच्छी रिकॉर्डिंग करने वाले कैमरों का इस्तेमाल हो रहा है, गाडिय़ों की रफ्तार पकडऩे और उनके चालान बनाने के उपकरण मौजूद हैं, तब सरकार की ढीली-ढाली नीयत जनता की जिंदगी खत्म कर रही है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब अराजकता आसमान तक पहुंच जाती है, तो उसे धरती पर लाना बहुत आसान भी नहीं रहता। नशे में धुत्त जो लोग एक्सीडेंट करते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई, उनकी गाडिय़ां जब्त करने, ड्राइविंग लाइसेंस खत्म करने के बजाय मामूली चालान और जुर्माने से काम कैसे चल जाता है, यह भी लोगों को समझ आता है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को चाहिए कि राज्य में सडक़ों पर रोज हो रही मौतों को रोकने के लिए नियम तोडऩे वाले सौ फीसदी लोगों पर सबसे कड़ी कार्रवाई करने का हुक्म दें। प्रदेश की आम जनता का इतना तो हक है ही।
इन्फोसिस के एक संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल ही में कुछ दूसरी अलोकप्रिय बातें भी कहीं जब उन्होंने हफ्ते में 50-60 घंटे काम करने की नसीहत दी। जैसा कि हिंदुस्तानियों के आम मिजाज में होता है, उनकी बात का सही मतलब निकालकर उससे प्रेरणा लेने के बजाय, हर किस्म के लोग यह कहते हुए उन पर टूट पड़े कि वे कामगारों का शोषण करना चाहते हैं। जबकि उन्होंने कुल यही कहा था कि जिन्हें आगे बढ़ना है उन्हें अतिरिक्त मेहनत करनी चाहिए। उनके उस मासूम बयान के खिलाफ देश के बेरोजगारों ने सोशल मीडिया पर ओवरटाइम करते हुए उनकी खूब लानत-मलानत की थी। लेकिन ऐसा करने वालों ने यह नहीं सोचा कि अभी तो वे हफ्ते में दस घंटे भी काम नहीं कर रहे हैं तो चालीस की जगह पचास या पचास की जगह साठ घंटे काम करने को लेकर उन्हें क्यों शिकायत होनी चाहिए? मानो अब नारायण मूर्ति की आलोचना कुछ ठंडी पड़ रही हो, उन्होंने अब देश में राजनीतिक दलों के चुनावी वायदों को लेकर यह बात कही है कि फ्रीबीज से दुनिया का कोई भी देश गरीबी नहीं मिटा सका है। एक बड़े सफल कारोबारी होने के नाते नारायण मूर्ति को विश्व की अर्थव्यवस्था की भी कुछ समझ तो है ही, यह एक अलग बात है कि उन्हें एक पूंजीपति मानते हुए लोग यह कह सकते हैं कि गरीबों को फायदा देने के लिए बनायी जाने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं को लेकर उनकी समझ सिर्फ अपमानजक फ्रीबीज शब्द तक सीमित हो सकती है। नारायण मूर्ति ने अभी यह कहा है कि अगर गरीबी मिटानी हो तो लाखों नौकरियां पैदा करनी होंगी, जाहिर है कि वे सरकारी नौकरियों की बात नहीं कर रहे हैं। और इस देश के बेरोजगार हैं जो कि अपने आपको निजी नौकरियों के लायक, या किसी स्वरोजगार के लायक तैयार करने के बजाय सरकारी नौकरियों के इंतजार में उम्मीदवारी की उम्र खो बैठते हैं।
नारायण मूर्ति ने फ्रीबीज की आलोचना का खुलासा करते हुए कहा कि सरकार और समाज को यह आकलन करना चाहिए कि क्या फ्रीबीज देने का लोगों की जिंदगी पर कोई असर हो रहा है? उन्होंने कहा कि मुफ्त बिजली दी जाती है तो क्या उसका इस्तेमाल बच्चों की पढ़ाई के लिए किया गया है? उनकी इस बात से लोगों को याद रखने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तथाकथित फ्रीबीज के खिलाफ एक सुनवाई चल ही रही है। भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ वकील ने दूसरी बहुत सी जनहित याचिकाओं के साथ-साथ यह जनहित याचिका भी दायर की है कि फ्रीबीज बंद की जाएं। राजनीतिक दल चुनावी घोषणा की शक्ल में बहुत सी चीजें और सहूलियत मुफ्त देने का वायदा करते हैं और उसके बाद उन पर यह नैतिक दबाव भी रहता है कि सत्ता में आने पर वे उन्हें पूरा करें। लेकिन एक-एक कर बहुत से राज्यों की अर्थव्यवस्था यह बतला रही है कि राज्य चुनावी वायदों को पूरा करते हुए ही चुक जाते हैं, और ढांचागत विकास या दूसरे विकास कार्यक्रमों के लिए उनके पास रकम ही नहीं बचती है। कई राज्यों में तो हालत पहले से यह थी कि उनके पास तनख्वाह देने को भी पैसा नहीं था, लेकिन चौराहे पर चल रही नीलामी में बोली बोलने के अंदाज में जब राजनीतिक दल दूसरी पार्टी के घोषणा पत्र की सफेदी की चमकार से अधिक सफेद पेश करने की हड़बड़ी में रहते हैं, तो फिर वे इस बात की परवाह नहीं करते कि ऐसे वायदों के लिए पांच बरस तक रकम कहां से आएगी। उन्हें लगता है कि किसी भी तिकड़म से एक बार सत्ता पर आ जाए, तो उसके बाद या तो इंतजाम हो जाएगा या कुछ वायदों को छोड़ दिया जाएगा। देश में ऐसे माहौल में इस गलाकाट मुकाबले पर रोक कैसे लगाई जाए इसमें सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग दोनों दखल देना नहीं चाहते, क्योंकि यह सरकारों की अपनी नीतियों पर निर्भर करता है कि वे किस चीज पर कितना खर्च करें। लेकिन हमारा मानना है कि सरकार बनने के पहले तक राजनीतिक दलों के लिए लागू की गई आचार संहिता का विस्तार किया जा सकता है, और जिस तरह पिछले कुछ चुनावों में उनमें अपराधियों पर रोक लगायी गई है, सरकारी कर्ज खा जाने वालों पर रोक लगायी गई है, उसी तरह बेहिसाब वायदे करने वाले राजनीतिक दलों पर भी रोक लगाई जा सकती है। अब इस हिसाब का आंकड़ा कहां पर आकर रुके यह तय करना बड़ा मुश्किल काम है, और सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग को जो नोटिस दिए हैं उनका कम से कम एक मकसद तो यह है कि चुनावी वायदों पर एक नकेल कसी जा सके।
वोटरों को सीधा फायदा पहुंचाने वाले बहुत से कार्यक्रमों को लेकर हमारा अपना तजुर्बा यह है कि वे अपात्र लोगों से भरे हुए हैं, जहां महिलाओं को सीधे रकम भेजना भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना हुआ है वहां यह भी धड़ल्ले से देखने मिल रहा है कि गैरगरीब महिलाएं ऐसा फायदा पाने में बड़ी संख्या में बड़े उत्साह से आगे हैं। जनकल्याण की जो भी योजनाएं बहुत बड़े तबके के लिए लागू होती हैं उन पर यह खतरा रहता ही है कि अपात्र लोग उनका खून तक चूस डालते हैं। हमने छत्तीसगढ़ के सबसे सफल पीडीएस कार्यक्रम को भी देखा था, उसमें भी जब अपात्र लोगों के नाम काटे गए थे तो वे शायद दस-पंद्रह फीसदी तक पहुंच गए थे। इसलिए जब कभी कोई पार्टी चुनावी घोषणा पत्र तैयार करती है, तो उसे गैर जिम्मेदारी से बढ़ावा देने के बजाय यह भी साफ करना चाहिए कि कौन लोग उसके अपात्र रहेंगे। चुनावी प्रचार के बीच इस तरह का अनुशासन किसी को नहीं सुहाता, और जैसा कि बाजार में झांसा देने वाले शेयर फॉर्म पर नियम और शर्तों को अपठनीय छोटे अक्षरों में छापा जाता है, वैसी ही राजनीतिक दल चुनावी घोषणाएं करते हुए करते हैं।
हम नारायण मूर्ति की इस बात से सहमत हैं कि जनता को सरकारी खजाने से जो पैसा मिलता है उसकी उपयोगिता और उत्पादकता आंकी जानी चाहिए, ऐसा न करने पर हम, बिना काम किए बड़ी सहूलियत से सब कुछ पाने वाले अलाल लोगों की एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करते हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का दिवाला निकालकर भी कुछ और सहूलियतों की हसरत बाकी रखेगी। करोड़पतियों को स्वास्थ्य बीमा का फायदा क्यों दिया जाए? उन्हें दौ सौ यूनिट तक की बिजली मुफ्त क्यों दी जाए? उन्हें ऑटो एक्सपो नाम का मेला लगाकर एक-एक करोड़ रुपए की कार में 50 फीसदी की टैक्स छूट क्यों दी जाए? जब किसी भी तरह की रियायत जनता के खून-पसीने से बने खजाने से दी जाती है तो उसका फैसला बहुत जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए, वह किसी तबके की जरूरत और समाज के तमाम तबकों के बीच उसकी प्राथमिकता के आधार पर तय होना चाहिए। हम सबसे जरूरतमंद तबके को बाकी समाज के साथ-साथ चलने लायक मदद करने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन मेहनत करने के बजाय अगर जनता अपने को सरकार की बारात में आए बाराती की तरह जनवासे में ठहरा हुआ मान ले, तो यह उस जनता के लिए खुद भी आत्मघाती है और देश के भी खिलाफ है। रियायती चावल देना, और धान के भरपूर दाम देना, इसका मतलब अगर जनता का जमकर दारु पीने का रिकॉर्ड बनाना है, तो ऐसी रियायतों पर सरकारों को सोचना चाहिए।
जब कभी हमें लिखने के लिए किसी मुद्दे की कमी पड़ती है, तो सुप्रीम कोर्ट का मुंह ताकना हमेशा ही फायदे का रहता है। वहां कोई न कोई ऐसी बात रहती है जो कि हमारे मन की रहती है, या कभी-कभी मन के ठीक खिलाफ भी रहती है, और उस मुद्दे पर लिखने की गुंजाइश अच्छी-खासी रहती है जिसके बिना कम से कम हम अपने इस अखबार में इस कॉलम को नहीं देखते। अभी महाराष्ट्र के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों के साथ बड़े अफसरों के बर्ताव को लेकर नौकरशाही को फटकार लगाई है। एक महिला ग्राम प्रधान को अफसरों ने बर्खास्त कर दिया था, और उसके खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट ने बहाली का फैसला दिया था। महाराष्ट्र सरकार को एक महिला ग्राम प्रधान के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई जरूरी लगी कि वह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। अब यह सोचने की बात है कि सरपंच स्तर की एक निर्वाचित महिला हाईकोर्ट में राज्य सरकार से जीत जाने के बाद अब किस ताकत से देश की सबसे बड़ी अदालत तक जाकर खड़ी हो सकती है? राज्य सरकार ने तो अपनी अथाह ताकत से हासिल महंगे वकीलों से सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दे दी, लेकिन वहां अपना पक्ष रखने और लडऩे के लिए तो इस महिला ग्राम प्रधान को भी जाना ही था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बड़ा सही फैसला दिया है और यह कहा है कि महाराष्ट्र में हाल ही में उसने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां नौकरशाहों ने पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ बदसलूकी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसने दो-तीन दूसरे मामलों में फैसला सुनाया है जहां पर सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से बुरा बर्ताव करते पाए गए थे। अदालत ने साफ-साफ कहा कि सरकारी अमला निर्वाचित प्रतिनिधियों का मातहत होना चाहिए, और अफसरों को जमीनी स्तर का निर्वाचित लोकतंत्र बर्बाद करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। दो जजों की बेंच ने यह भी कहा कि अदालत के सामने ये जानकारियां आईं है कि अफसर निर्वाचित प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के लिए पुराने मामले खोलने की कोशिश करते हैं। अदालत ने मिसाल दी कि एक महिला सरपंच को अयोग्य ठहराने के लिए ऐसा मामला खोलकर निकाला जा रहा है कि उसके दादा ने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया था इसलिए वह सरपंच बनने लायक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में कलेक्टरों के इस किस्म के आदेश अवैध पाए और उनको रद्द किया। अदालत ने यह शानदार बात भी कही कि खासकर जब ग्रामीण इलाकों के महिलाओं का मामला हो, तो उन्हें अफसरों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता।
हम अदालत में इस मामले तक अपनी आज की इस बात को सीमित नहीं रखना चाहते, बल्कि उससे आगे ले जाना चाहते हैं। आज भी हम अपने आसपास छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी देखते हैं कि किस तरह सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को हिकारत की नजर से देखते हैं। अभी पिछले ही पखवाड़े छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में निर्वाचित आधा दर्जन महिला पंचों की जगह सरकारी कर्मचारी पंचायत-सचिव ने उनके पतियों को शपथ दिला दी। इसके वीडियो और समाचार सामने आने के बाद सरकार को मानो मजबूरी में उस पंचायत-सचिव को निलंबित करना पड़ा, लेकिन मानो वह काफी नहीं था, दो दिन के भीतर ही एक दूसरे जिले जांजगीर में एक और महिला पंच के पति को सरकारी पंचायत-सचिव ने पद की शपथ दिलाई। एक तो महिलाओं के लिए भारत के समाज में हिकारत की जो नजर हमेशा से बनी हुई है, उसे पंचायती राज कानून और महिला आरक्षण कानून मिलकर भी दुरुस्त नहीं कर पा रहे हैं। फिर महिलाओं के बाद समाज में दूसरा बड़ा कमजोर तबका दलितों और आदिवासियों का होता है, और उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक होता है। यह बात तो समाज के कमजोर तबकों की हुई, लेकिन इससे परे भी छोटे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को लेकर सरकारी कामकाज में घाघ बन चुके कर्मचारी और अफसर बहुत ही घटिया सोच रखते हैं। वे यह मानते हैं कि लोकतंत्र की वजह से ऐसे अनपढ़, और नासमझ लोग भी पंच-सरपंच बन गए हैं। जबकि इन्हीं दोनों विशेषणों से युक्त विधायकों और सांसदों के मंत्री बनने पर कोई रोक नहीं है, और बड़ी से बड़ी नौकरशाही उन्हें एक मिनट में इतनी बार सर कहती हैं कि हवा में सरसराहट होने लगती है।
पंचायत व्यवस्था को बहुत से अफसर बुरी तरह भ्रष्ट मानकर चलते हैं। अब हमको तो यह समझ नहीं पड़ता है कि किसी राज्य की सरकार, या देश की सरकार में भ्रष्टाचार के मामले में पंचायतों के मुकाबले भला किस किस्म की कमी रहती है? वहां भी यही बड़े-बड़े नौकरशाह मंत्रियों के साथ मिलकर सरकारी फैसले लेते हैं, बैठकों में नीतियां तय करते हैं, जिनमें हजारों और लाखों करोड़ का घोटाला होता है। पंचायतों में शायद बहुत छोटा भ्रष्टाचार होता है, और राज्य सरकारों में उससे बड़ा, और केंद्र सरकार में उससे भी बड़ा। तो जिन लोगों को भ्रष्टाचार की वजह से पंचायती राज ही नहीं सुहाता है, उन्हें तो फिर राज्य सरकार की जगह राज्य के मुख्य सचिव को ही शासन का मुखिया देखना चाहिए, और देश चलाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के बजाए कैबिनेट सचिव को दे देनी चाहिए। यह सोच शहरी, शिक्षित, सवर्ण, और संपन्न तबके की ऐसी सोच है जो सैनिक तानाशाही में दिखाई पड़ती है जहां लोग यह समझ लेते हैं कि वोट देने वालों का फैसला कमजोर रहता है, और अधिक समझदार लोगों को सरकार चलाने का सीधा हक होना चाहिए।
दरअसल पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे कर मजबूत हुई पंचायती राज व्यवस्था में सरकार में बैठे अफसरों और बाबुओं के लंबे समय से चले आ रहे एकाधिकार को तोड़ा है, सरकारी कामकाज और फैसले में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नियमित सरकारी अमले को बहुत बुरी तरह खटकती है और वे मानकर चलते हैं कि वे ही स्थायी राजा हैं, और निर्वाचित लोग तो पांच-पांच बरस के लिए आने-जाने वाले लोग हैं। ऐसी सोच कुछ जनप्रतिनिधियों को बर्खास्त करके बाकी को दबाव में रखने के रास्ते निकालने लगती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक नीति वाक्य की तरह देश के बाकी राज्यों में भी पंचायती व्यवस्था को अलग-अलग स्तर पर देखने वाले बाबुओं और अफसरों के बीच फ्रेम कराकर टांगना चाहिए ताकि उन्हें पूरे वक्त यह पता रहे कि देश की सबसे बड़ी अदालत उनके बारे में क्या सोचती है, और उन्हें क्या-क्या नहीं करना है।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में एक मुसाफिर ट्रेन पर कब्जा करके फौजियों सहित आम मुसाफिरों को बंधक बनाने वाले विद्रोही संगठन बलोच लिबरेशन आर्मी ने कई लोगों को मार भी डाला है। ट्रेन के एक सुरंग से निकलते ही फिल्मी अंदाज में बीएलए के हथियारबंद लोगों ने ट्रेन पर कब्जा कर लिया, और जेलों से अपने लोगों की रिहाई की मांग करते हुए सरकार को अल्टीमेटम दिया है कि 48 घंटों में रिहाई न हुई तो फौजी बंधकों को मार डाला जाएगा। दूसरी तरफ सरकार भी लोगों को बचाने की कार्रवाई में कामयाबी का दावा कर रही है, और कह रही है कि 16 उग्रवादी मारे गए हैं, और सौ मुसाफिरों को छुड़वा लिया गया है। पाकिस्तानी फौज ने यह माना है कि इस ट्रेन से सौ फौजी भी सफर कर रहे थे। इस पूरे इलाके में न इंटरनेट है, न मोबाइल-नेटवर्क है, इसलिए वहां की पुख्ता जानकारी बाहर कम निकल पा रही है। फिर भी यह बात तो जाहिर है कि जिस बलूचिस्तान में स्थानीय हथियारबंद लोग वहां पर चीन और पाक सरकार के प्रोजेक्ट के खिलाफ हैं, वहां पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सरकार का काबू बड़ा कमजोर रह गया है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान के अलावा खैबरपख्तूनख्वाह एक और ऐसा राज्य है जहां स्थानीय संगठनों का केन्द्र सरकार से टकराव चल रहा है। इसके अलावा भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की जड़ बना हुआ पाक अधिकृत कश्मीर तो है ही जहां बेचैनी बढ़ती चल रही है। भारत के कश्मीर में केन्द्र सरकार के संवैधानिक फैसले के बाद जो शांति कायम हुई है, उससे भी पाकिस्तान की तरफ वाले कश्मीर के हिस्से के लोगों को उस देश की सरकार से निराशा बढ़ रही है। ऐसे माहौल में बलूचिस्तान में हथियारबंद उग्रवादियों का यह बड़ा हमला बताता है कि देश वहां की सरकार के हाथों से किस तरह फिसलते चल रहा है। इस ट्रेन और इसके मुसाफिरों को छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने वहां के सेना प्रमुख को जिम्मेदारी दी है, जाहिर है कि फौज से नीचे अब कोई एजेंसी किसी काम की नहीं दिख रही है।
पाकिस्तान की कुल जमा हालत अगर देखें तो कर्ज में डूबा हुआ वह एक ऐसा देश है जो कि पड़ोस के अफगानिस्तान के साथ एक हथियारबंद संघर्ष में लगा हुआ है, जो दशकों से भारत के साथ तरह-तरह के टकराव लेते आया है, और हर जंग में पाकिस्तान ने बड़ा नुकसान झेलकर शिकस्त पाई है। आज वह हर बात के लिए चीन पर मोहताज है, और चीन की दिलचस्पी उसमें जाहिर तौर पर दो वजहों से है, एक तो पड़ोसी देश भारत से चल रही तनातनी के बीच वह भारत को एक और फौजी मोर्चे पर उलझाकर रखने की ताकत चाहता है, जो कि उसे पाकिस्तान की शक्ल में हासिल है, और बाकी किनारों के लिए वह श्रीलंका से लेकर बांग्लादेश तक, और म्यांमार से लेकर भूटान-नेपाल तक अपने प्रभाव को फैलाने की हर कोशिश करता है। ऐसे में पाकिस्तान को बनाए रखने की चीनी मजबूरी को अगर हटा दिया जाए, तो पाकिस्तान आज एक पूरी तरह, और बुरी तरह असफल-लोकतंत्र हो चुका है, असफल अर्थव्यवस्था भी। जिस देश में लोकतंत्र को बार-बार निलंबित कर फौजी तानाशाही की परंपरा रही, जहां पर पार्टियां सत्ता पर आते ही बहुत भ्रष्ट हो गईं, और अधिकतर पार्टियां फौज के हाथों कठपुतली बनी रहीं, तो वहां लोकतंत्र की जड़ें लगातार कमजोर होती चली गई। दूसरी तरफ धार्मिक कट्टरपंथियों ने जिस अंदाज में देश में साम्प्रदायिकता फैलाई, और बहुसंख्यक धर्म का एकाधिकार लाद दिया, उससे भी पाकिस्तानी आवाम में वैज्ञानिक सोच खत्म हुई, और लोग लोकतंत्र को गैरजरूरी समझने लगे।
किसी संघीय ढांचे वाले देश को केन्द्र और राज्यों के बीच जिस तरह शक्ति संतुलन बनाकर रखना चाहिए, किसी प्रांत के बागी या नाकामयाब हो जाने पर वहां पर केन्द्र की ताकत से लोकतंत्र और सत्ता की निरंतरता बनाए रखने की ताकत रखनी चाहिए, वह सब पाकिस्तान में नहीं हो पाया। हमने अपने अखबार के यूट्यूब चैनल ‘इंडिया-आजकल’ के लिए कुछ महीने पहले पाक अधिकृत कश्मीर के एक राजनीतिक कार्यकर्ता का इंटरव्यू किया था कि पीओके सहित तमाम पाकिस्तान की जनता किस तरह निराश है, बदहाल है। पाकिस्तान अपनी घरेलू दिक्कतों में इस बुरी तरह उलझा हुआ है कि उसने हिन्दुस्तान से छेडख़ानी अगर पूरी तरह बंद भी नहीं की है, तो भी उसे रोक रखा है। इसके साथ-साथ यह भी समझना जरूरी है कि पाकिस्तान में निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार के रहते हुए भी फौज का दबदबा इतना अधिक रहता है कि कभी-कभी भारत के खिलाफ किसी छोटे-मोटे हमले, या किसी आतंकी कार्रवाई का फैसला वहां की सरकार के नेताओं से परे फौजी अफसर खुद भी ले लेते हैं। फौज के मुंह फौजी हुकूमत का खून लगा हुआ है, और पाकिस्तानी फौज देश में बहुत सारे गैरफौजी सामानों के उद्योग भी चलाती है, जिसके चलते बड़े अफसरों के बीच भ्रष्टाचार राजनेताओं की टक्कर का रहता है। इन सब बातों को देखते हुए कई बार फौज की दिलचस्पी भी इसमें रहती है कि वहां की सरकार ऐसी मुसीबतों में उलझी रहे जहां उसे फौजी अफसर ही मुक्तिदाता लगें।
पाकिस्तान एक अजीब सा देश हो गया है जो कि रोज की जिंदगी को चलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय साहूकार संस्थाओं का मोहताज है, और ऐसी संस्थाएं जिन बड़े देशों की मर्जी से चलती हैं, पाकिस्तान को उन देशों का ख्याल भी रखना पड़ता है। इसके साथ-साथ वह चीन के हाथों पूरी तरह गिरवी रख दिए गए देश जैसा हो गया है, और चीन से परे उसका कुछ सोचना नामुमकिन सा है। अपने सबसे बड़े और सबसे लोकतांत्रिक पड़ोसी देश भारत के साथ पाकिस्तान ने निहायत गैरजरूरी टकराव का एक लंबा इतिहास कायम किया है, और अपना न सिर्फ फौजी खर्च बढ़ाया है, बल्कि कारोबारी फायदे की संभावनाएं भी खो दी हैं। यह सब कुछ उसने अपने देश की आर्थिक परेशानियां खड़ी करने की कीमत पर किया है। एक तरफ पूरा देश खोखला होते चले गया, लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर होती चली गईं, और कुछ राज्य केन्द्र सरकार के काबू से बाहर सरीखे हो गए। बलूचिस्तान का यह ताजा हमला बताता है कि पूरे देश की हिफाजत कर पाना पाकिस्तानी सरकार के बस में नहीं रह गया है। इतना बदहाल और नाकामयाब हो चुका लोकतंत्र भारत के लिए भी एक समस्या की बात है, उसके लिए किसी संभावना की बात नहीं है। भारत के लिए यह बात हमेशा एक सिरदर्द बनी रहेगी कि फौजी तानाशाही, और धार्मिक आतंकियों के असर वाला यह देश परमाणु हथियार से लैस भी है, और इन दोनों तबकों में से कौन सा तबका कब कौन सा आत्मघाती फैसला ले ले, उसका कोई ठिकाना तो है नहीं। पड़ोस के घर में लगी हुई आग से दूसरे भी महफूज नहीं रह जाते।
अपने अस्तित्व में आने के बाद से छत्तीसगढ़ लगातार चावल और धान की अर्थव्यवस्था से लदा हुआ रहा है। कहने के लिए इसे प्रदेश के बाहर धान का कटोरा कहा जाता है, और खुद छत्तीसगढ़ इस बात में बड़ा फख्र हासिल करता है कि वो देश का धान का कटोरा है जहां से बाकी देश की भूख मिटती है, लेकिन जब छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को देखें तो ऐसे दावे पर दोबारा सोचना पड़ता है कि क्या यह सचमुच सच है? एक वक्त था जब देश के दूसरे कुछ हिस्से की तरह पड़ोस के ओडिशा के कालाहांडी की तरह छत्तीसगढ़ भी भूख का शिकार रहता था, और यहां पर भूख से मौतें कभी-कभी सुनाई पड़ती थीं। लेकिन राज्य बनने के बाद इस राज्य के आय के स्त्रोत यहीं के लोगों के काम आने लगे, और भूखमरी खत्म होने लगी। भूख से मौतें तो बंद हुई ही, कुपोषण भी कम होने लगा। राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री, भाजपा के डॉ. रमन सिंह ने कुछ जानकार सलाहकारों की बनाई हुई योजना पर अमल करते हुए प्रदेश में पीडीएस का जो ढांचा खड़ा किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक चारों तरफ वाहवाही मिली, और राज्य में रमन सिंह को अगले दो चुनावों में चाउर वाले बाबा के नाम से ऐतिहासिक जीत भी मिली। छत्तीसगढ़ का पीडीएस बाकी राज्यों के सामने एक मिसाल भी बना, और चुनौती भी। लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों से धान खरीदी के लिए जो अभूतपूर्व ऊंचा रेट तय किया, उसने उन्हें चुनावी घोषणा पत्र के स्तर पर वाहवाही दिला दी थी, और हाल के विधानसभा चुनाव में भूपेश का धान का रेट विपक्षी भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती था, और भाजपा को मानो मजबूरी में ही 3100 रुपए प्रति क्विंटल के रेट पर धान खरीदी का वायदा करना पड़ा, और प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदने का भी। नतीजा यह निकला कि छत्तीसगढ़ी किसान का एक-एक दाना शानदार रेट पर बिक रहा है, और अड़ोस-पड़ोस के राज्यों के लोग भी तस्करी करके अपना धान छत्तीसगढ़ लाकर बेच रहे हैं। लेकिन चुनाव में जीत दिलाने वाला धान क्या सचमुच ही राज्य में धन बन पाया है, या कि यह सिर्फ कर्ज बनकर लोगों के सिर पर बोझ बन रहा है?
आज इन आंकड़ों पर बात करना जरुरी इसलिए है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच चावल लेने को लेकर तनातनी ठीक उसी तरह जारी है जिस तरह पिछली भूपेश सरकार के वक्त दिल्ली की मोदी सरकार के कडक़ रुख से चल रही थी। उस वक्त जब भूपेश ने धान के राष्ट्रीय समर्थन मूल्य से अधिक दाम देने की घोषणा की थी तो केंद्र सरकार ने कहा था कि एमएसपी से अधिक पर लिए गए धान का चावल केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ से नहीं लेगी। नतीजा यह निकला था कि भूपेश सरकार को अलग-अलग कुछ नामों से, शायद राजीव न्याय योजना के नाम से किसानों को चार किश्तों में बोनस देना पड़ा था। इस बार छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को केंद्र सरकार से ऐसा अड़ंगा तो नहीं झेलना पड़ा लेकिन करीब डेढ़ लाख टन धान खरीदी हो जाने के बाद अब राज्य को यह सदमा लग रहा है कि केंद्र सरकार 70 लाख टन से अधिक चावल राज्य से नहीं लेगी। अब छत्तीसगढ़ सरकार के सामने 35 लाख टन धान को ठिकाने लगाने की एक बड़ी चुनौती है जो कि महंगी खरीदी के धान को सस्ते में बेचने का एक बड़े घाटे का सौदा भी हो सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार अभी जनकल्याण और व्यक्तिगत फायदा पहुंचाने वाली दूसरी योजनाओं के बोझ से कमर सीधी कर भी नहीं पाई है कि खुले आसमान तले धान के पहाड़ का यह बोझ उसके सीने पर और खड़ा हो गया है। आज जब हम यह संपादकीय लिख रहे हैं उस वक्त छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रश्नकाल में विपक्ष सरकार को इस बात के लिए घेर रहा है कि पिछले बरस राइस मिलर्स ने सरकारी धान की मिलिंग में जो घपला किया है, और सैकड़ों मिलर्स ने सरकारी धान लेकर न तो सरकार को चावल जमा किया, और न ही उनके मिलों की जांच में धान या चावल बरामद हुआ, ऐसा करीब पांच लाख टन चावल सरकार को मिलर्स से लेना है, और चूंकि केंद्र सरकार राज्य से चावल वैसे भी इस बरस की धान खरीदी के मुकाबले बहुत कम ले रहा है, इसलिए पिछले बरस का यह बकाया भी सरकार की छाती बर बोझ बनकर बैठे रहेगा। जानकार लोगों का कहना है कि जिन सैकड़ों राइस मिलर्स ने सरकार की अमानत पे खयानत की है जो कि सीधे-सीधे जुर्म है, और जिससे नुकसान न पाने के लिए सरकार बैंक गारंटी ले चुकी है, उस बैंक गारंटी को भुनाने के बजाए, मिलर्स के खिलाफ एफआईआर करने के बजाए सरकार जाने किस वजह से उनसे पुराना चावल ले रही है जो कि केंद्र सरकार को दिया भी नहीं जा सकेगा। पाठकों को याद होगा कि धान खरीदी, और उसकी मिलिंग का काम छत्तीसगढ़ में इतने भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहा है कि अभी भी कुछ एक अखिल भारतीय सेवा के अफसर उसकी वजह से जेल में पड़े हैं, और अगर सरकार और जांच एजेंसियां ईमानदारी से कार्रवाई करें तो कई और नेता और अफसर जेल में रहेंगे।
अब हम मुद्दे की इस बात पर आना चाहते हैं कि जब केंद्र सरकार राज्य से सीमित मात्रा में ही चावल ले रही है, तब सरकार किसानों से असीमित मात्रा में असाधारण और असंभव किस्म के रेट पर धान खरीद रही है, तो इससे कुल नुकसान जितना बड़ा होगा, उसका हिसाब किसी एक विभाग के खाता-बही में नहीं मिल सकता। इसके लिए सरकार को कई विभागों और एजेंसियों के आंकड़ों को जोडक़र राज्य के लोगों के सामने एक श्वेत पत्र पेश करना चाहिए कि धान की यह खरीदी आखिर प्रदेश को किस रेट पर पड़ रही है। यह अर्थशास्त्र राशन के चावल की लागत से अलग है जो कि राज्य सरकार अपने लोगों को मिट्टी के मोल देती है। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में राइस मिलर्स राशन दुकानों के रास्ते से ही चावल की ऐसी ट्रकें खरीदकर उन्हें वापिस सरकार में जमा कर देते हैं, कई जगहों पर तो सिर्फ दो जगहों से ट्रकों के कागज ले लिए जाते हैं, गरीबों का राशन घूम-घूमकर सरकार में मिलर्स के मार्फत जमा हो जाता है, और ऐसे हर फेरे की अंधाधुंध बड़ी लागत सरकार चुकाती है। छत्तीसगढ़ में पिछली सरकार के समय का नान घोटाला अबतक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सैंकड़ों घंटे खराब कर चुका है और राज्य के हजारों करोड़ रुपए भी। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पैसे वालों के सामान में भ्रष्टाचार की सजा तो नहीं मिली, लेकिन जो सबसे गरीब लोगों का भोजन है, उस चावल का घपला भूपेश सरकार को ले डूबा। अब आज की सरकार को बारीकी से यह गौर करना चाहिए कि उस सरकार के समय से सरकार और कारोबार के अब तक कायम जिन लोगों के मुंह खून लगा हुआ था, क्या आज भी वे अपने होठों पर जीभ फिराते हुए उसी अंदाज में कमाई करने के फेर में हैं? सबसे गरीब के हक में लूट-डकैती करने वाले लोग किस तरह अपने अरबपति परिवार को छोडक़र, परिवार की तीन-तीन पीढिय़ों को छोडक़र देश के बाहर कहीं फरारी काट रहे हैं, इसकी दर्दनाक दास्तान अगर सुनना हो तो छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाकर कोषाध्यक्ष रहे एक चावल व्यापारी के बारे में पूछताछ करनी चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक समझे, वरना चुनाव में बीमार को पार समझे।
ऑस्ट्रेलिया में लंबे समय से बसे हुए एक भारतवंशी बालेश धनखड़ को साजिश के साथ पांच महिलाओं को नौकरी के नाम पर फंसाकर, नशीली दवा देकर बलात्कार करने के जुर्म में 40 बरस की कैद सुनाई गई है। अदालत ने इस जुर्म को इतना गंभीर माना है कि इन 40 बरसों में से पहले 30 बरस तो कोई पैरोल भी नहीं मिलेगी। अदालत ने लिखा है- बालेश धनखड़ ने पहले से योजना बनाकर, बेहद हिंसा और चालाकी भरे इरादे के साथ हर पीडि़त महिला के प्रति बेरहमी के साथ अपनी यौन इच्छा पूरी करने के लिए यह हमले सरीखा बर्ताव किया गया। अदालत ने कहा कि ये पांच युवा और कमजोर महिलाओं के खिलाफ लंबे वक्त में बारीकी से योजना बनाकर किया गया हमला है। अदालत में पेश सुबूतों में इस आदमी के कम्प्यूटर रिकॉर्ड भी शामिल हैं जिनमें वह नौकरी के फर्जी विज्ञापन देकर आवेदन करने वाली हर महिला को उसकी खूबसूरती, और स्मार्टनेस के लिए पैमानों पर रखता था, अपनी योजना में उस महिला का इस्तेमाल लिखता था, महिला की कमजोरियां लिखता था। ऑस्ट्रेलियाई पुलिस को इस मामले में बलात्कार की खुद की गई वीडियो रिकॉर्डिंग भी मिली है, और नशे से बेहोश करने की दवाएं भी मिली हैं। भारत की समाचार एजेंसी पीटीआई ने लिखा है कि 2018 में जब धनखड़ को गिरफ्तार किया गया, वे भाजपा से गहराई से जुड़े हुए थे, और ऑस्ट्रेलिया के भारतवंशी समुदाय में उन्हें अच्छी पहचान मिली हुई थी। इसके साथ वे हिन्दू कौंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया के अधिकृत प्रवक्ता भी थे। कांग्रेस ने बीजेपी का दुपट्टा पहने हुए धनखड़ की तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के कई नेताओं के साथ एकदम करीबी व्यक्ति दिख रहे हैं।
किसी दूसरे देश में बसे हुए, और भारत के अलग-अलग तबकों के प्रवक्ता या प्रतिनिधि बने हुए आदमी का यह जुर्म देश के ऊपर भी आंच लाता है, और इन संगठनों पर तो आंच लाता ही है। यह बात जरूर है कि बलात्कार जैसे जुर्म में पहली बार फंसने के पहले तक किसी के बारे में यह अंदाज लगाना मुश्किल रहता है कि वे बलात्कारी हो सकते हंै। लेकिन जब कोई व्यक्ति सिलसिलेवार तरीके से साजिश के तहत ऐसा भयानक जुर्म करे, तो उससे जुड़े हुए लोगों को भी बदनामी तो झेलनी ही पड़ती है। इसके पहले भी पश्चिम के देशों में भारत के कुछ योग गुरूओं के इसी तरह के बलात्कार-प्रकरण सामने आए थे जिसमें उन्होंने कई-कई शिष्याओं से बलात्कार किया था। अब भारत के भीतर ही अपने आपको संत और बापू कहने वाले पाखंडी धार्मिक पुरूषों की कैद जारी ही है, और बलात्कार उनके लिए लंबे सिलसिले की एक कड़ी जैसा ही रहा है। ऑस्ट्रेलिया में इस कामयाब भारतवंशी के जुर्म देखकर यह समझ आता है कि कोई बेरोजगार हो, नशेड़ी हो, या पैसे या ओहदे की ताकत का बाहुबली हो, सबके भीतर बलात्कारी होने का खतरा एक बराबर रहता है। कुछ लोग नशे में बलात्कार करते हैं, और बालेश धनखड़ जैसे लोग सारी कामयाबी और शोहरत मिलने के बाद भी दुनिया के उस हिस्से में लंबी साजिश करके बेकसूर महिलाओं को फंसाकर बलात्कार करते हैं, जिस हिस्से में वे अपने पैसों से आसानी से सेक्स खरीद सकते थे।
किसी भी राजनीतिक दल या संगठन के लिए, किसी देश के नागरिकों के एक तबके के लिए यह बड़ी दुविधा की नौबत रहती है कि वे किसी को अपना प्रतिनिधि, प्रवक्ता, या नेता बनाने के पहले उसे कितना ठोकें-बजाएं? और जब ऐसे जुर्म का सुबूतों सहित भांडाफोड़ होता है, तो जुड़े हुए तमाम लोगों को इसका नुकसान झेलना ही पड़ता है। ऐसे मामलों में पार्टियों और संगठनों से यह उम्मीद तो की जाती है कि ऐसी पहली शिकायत सामने आते ही इन सबको ऐसे आरोपी से दूरी बना लेनी चाहिए, लेकिन संगठन दुनिया में कहीं भी हों, वे आमतौर पर अपने सबसे बुरे सदस्यों को बचाने में लग जाते हैं। भारत में हमने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर इस देश की महिला पहलवान खिलाडिय़ों के लगाए गए यौन शोषण के आरोपों पर सरकार और भाजपा का यही रूख देखा था। और भी बहुत सी पार्टियां, बहुत सी सरकारें अपने सबसे बुरे लोगों को बचाने में लग जाती है। और तो और हिन्दुस्तान के इतिहास का एक सबसे कलंकित अध्याय है सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का उन्हीं पर लगे यौन शोषण के आरोपों की सुनवाई में खुद ही अदालती बेंच का मुखिया बनकर बैठना। पाठकों को याद होगा कि हमने जस्टिस रंजन गोगोई की इस हरकत के खिलाफ खुलकर लिखा था, और दो बरस बाद जाकर राज्यसभा सदस्य की हैसियत से रंजन गोगोई ने जब अपनी किताब लिखी, तो अपने इस फैसले को गलत माना था। वरना वे खुद पर लगी यौन शोषण की तोहमतों को सुप्रीम कोर्ट को अस्थिर करने की साजिश ठीक उसी तरह करार देते रहे जिस तरह इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाते हुए उस दौर को देश को अस्थिर सा करने की साजिश करार दिया था।
यह तो ऑस्ट्रेलिया की न्याय व्यवस्था राजनीतिक दबावों और खरीद-बिक्री से परे है, इसलिए इस आदमी धनखड़ को इतनी लंबी सजा हो पाई। वरना इसके पहले भी कई देशों में प्रमुख भारतवंशी यौन शोषण के मामलों में फंसते आए हैं। अमरीका में विक्रम योग नाम से अपनी एक योग पद्धति फैलाने वाले विक्रम चौधरी पर यौन हमलों और यौन शोषण के कितने ही मामले दर्ज हुए, जिनमें शिष्याओं को ढूंढने और फांसने में इस योग गुरू के करीबी लोग उसकी मदद करते थे, और इसे अदालत से कई मिलियन डॉलर जुर्माना सुनाया गया था। किसी भी भारतवंशी की ऐसी हरकतें देश को बदनाम करती हैं, और देश के भीतर के, और बाहर बसे हुए भारतवंशियों को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना चाहिए, और इन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए। धर्म, आध्यात्म, या योग के गुरूओं के साथ दिक्कत यह भी रहती है कि उनके भक्त और अनुयायी उन पर अंधविश्वास करते हैं, और उन्हें यह सब करने का एक मौका देते हैं। लेकिन बालेश धनखड़ जैसे लोग तो भक्त पाने के किसी सहूलियत से लैस भी नहीं थे, और उनसे बचने-बचाने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी, इसलिए उनसे बदनामी मिलनी ही मिलनी थी।
महाराष्ट्र की शरद पवार वाली एनसीपी के नेता एकनाथ खड़से की बेटी, और पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रोहिणी खड़से ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखकर मांग की है कि महिलाओं को एक हत्या करने की छूट दी जाए। उन्होंने भारत पर एक सर्वे रिपोर्ट का यह निष्कर्ष लिखा है कि महिलाओं के लिए यह देश सबसे असुरक्षित है, उनके खिलाफ रेप, अपहरण, और घरेलू हिंसा जैसे जुर्म लगातार होते हैं। रोहिणी की इस चिट्ठी पर महाराष्ट्र के एक मंत्री, गुलाब राव पाटिल ने पूछा है कि रोहिणी खड़से को यह बताना चाहिए कि वे किसकी हत्या करेंगी? अब एक महत्वपूर्ण पार्टी के नेता की बेटी, और अपने आपमें पार्टी की महिला शाखा की प्रदेश अध्यक्ष अगर यह मांग करती है, तो इससे महाराष्ट्र प्रदेश, और बाकी देश में महिलाओं की स्थिति को लेकर महिलाओं के बीच की सोच झलकती हो या न झलकती हो, कम से कम यह तो झलकता ही है कि राजनीति की एक सक्रिय और महत्वपूर्ण महिला पदाधिकारी हत्या करने का हक मांग रही है, फिर चाहे यह हक बलात्कारी के खिलाफ ही क्यों न हो?
हम इसे सिर्फ भावनाओं का विस्फोट नहीं कहते, क्योंकि कुछ राज्यों ने तो कुछ किस्म के बलात्कारियों को मौत की सजा देने का प्रावधान किया ही है, लेकिन यह सजा अदालत से मिलती है, और इस पर अमल जेल में सरकारी जल्लाद करते हैं, या हक आम लोगों को हिसाब चुकता करने के लिए नहीं मिलता। ऐसे में हत्या का हक मांगना एक बड़ी अटपटी और अलोकतांत्रिक बात है। इससे कुछ कम दर्जे की बात मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव ने दो-चार दिन के भीतर ही की है, और उन्होंने कहा है कि धर्मांतरण करने वालों के लिए मध्यप्रदेश में मौत की सजा का कानून बनाया जाएगा। अब धर्मांतरण के खिलाफ तो कई प्रदेशों में अलग-अलग कानून है, और पूरे देश में भी एक कानून है, लेकिन इसे मौत की सजा के लायक करार देने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में पुलिस और न्याय व्यवस्था में कितने किस्म की खामियां हैं, और किस तरह से लोग दस-बीस बरस बाद भी मिले नए सुबूतों से, या कि डीएनए जांच की वजह से छूट पाते हैं। और अगर ऐसे में धर्मांतरण के कथित मामलों में अगर पुलिस अपने आज के आम रूख के मुताबिक एक फर्जी केस बना लेगी, तो किसी बेगुनाह को भी फांसी की सजा दिलवा देना मुमकिन हो सकता है। पहली नजर में तो हमारा यह ख्याल है कि एमपी के सीएम की यह सोच देश की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी नहीं हो पाएगी, और धर्मांतरण के मामले को मौत की सजा के लायक नहीं ठहराया जा सकेगा, फिर चाहे ऐसा कोई कानून मध्यप्रदेश की विधानसभा में क्यों न बना दिया जाए। ऐसा कानून एक दहशत पैदा करने के लिए, या राजनीतिक प्रचार के लिए तो शायद काम आ सकता है, लेकिन यह किसी को ऐसी सजा शायद ही दिलवा सके।
महाराष्ट्र में अभी एक बारह बरस की बच्ची से बलात्कार हुआ, और शायद उसी की वजह से वहां की एक महिला नेता ने बलात्कारी को मारने का हक मांगा है, लेकिन पूरा देश जिस तरह से मासूम बच्चियों पर, और कमजोर समाज की महिलाओं पर बलात्कार देख रहा है, वह अपने आपमें भयानक है, लेकिन फिर भी लोकतंत्र में इसे कत्ल करने लायक नहीं कहा जा सकता। दरअसल लोकतंत्र में किसी को भी कत्ल का हक नहीं मिल सकता, फिर चाहे वे बलात्कार की शिकार लडक़ी के परिवार के लोग ही क्यों न हों, या कि कत्ल के शिकार हुए किसी व्यक्ति के घर के लोग क्यों न हों। लोकतंत्र कभी भी आनन-फानन इंसाफ देने वाली व्यवस्था नहीं रही है, और लोगों को इससे फौजी या तानाशाही हुकूमत की तरह की तुरत-इंसाफ की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत महंगी, धीमी, और लचीली व्यवस्था रहती है जिसमें लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतों के लिए भी बने रहने की गुंजाइश रहती है। अलोकतांत्रिक ताकतों को भी लोकतंत्र में रहने की छूट उसी तरह रहती है जिस तरह कुछ धर्मों के भीतर नास्तिकों को भी रहने की छूट रहती है। इसलिए जुर्म के शिकार लोगों को कत्ल का अधिकार देने की सोच तालिबानी है। दुनिया के कुछ देशों में ऐेसे परिवारों को मुजरिम से मोटी रकम, ब्लड मनी लेकर उन्हें माफ कर देने की छूट रहती है, लेकिन लोकतंत्रों में ऐसा नहीं होता है।
लोकतंत्र के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि वह सौ गुनहगारों के छूट जाने की कीमत पर भी एक बेगुनाह को सजा देने के खतरे से बचता है। न्याय व्यवस्था पूरी तरह से शक से परे साबित होने की शर्त पर चलती है। इसलिए हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को यहां की न्याय व्यवस्था बेइंसाफ लगती है, कुछ को लगता है कि राजनीतिक ताकतों के सामने अदालतें बेअसर रहती हैं, कुछ को लगता है कि अपार पैसा रहे तो देश के सबसे महंगे वकील पुलिस के सुबूत खरीद पाते हैं, गवाह तोड़ पाते हैं, सरकारी वकील को भी मैनेज कर पाते हैं, और उनका बस चले तो जज को भी खरीद लेते हैं। जब आम लोगों के बीच सोच इतनी निराशाजनक रहती है, तो उनको यह बात अच्छी लग सकती है कि बलात्कारी को चौराहे पर फांसी दी जाए, गुंडों की आंखें फोड़ दी जाएं, और अदालत का दस-बीस बरस तक इंतजार न किया जाए।
भारत जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था की साख और उसका रूतबा दुबारा कायम करने की जरूरत है। आज तो अदालतों में जिस तरह आखिरी फैसले के इंतजार में एक पूरी पीढ़ी निकल जाती है, बेकसूर फैसले की राह तकते जेल में ही मर जाते हैं, या मुजरिम निचली अदालत से मिली सजा के बाद ऊपरी अदालतों में अपील के चलते जमानत पर ही छूटे हुए मर जाते हैं, उससे न्याय व्यवस्था के बेअसर होने की बात पुख्ता होती जाती है। और ऐसे में नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार, लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसक जुर्म के मामले इतने अधिक आ रहे हैं कि लोगों को सिर्फ जुर्म होते दिखते हैं, इंसाफ होते नहीं दिखता। यह नौबत बदली जानी चाहिए। जब लोगों का अदालतों पर भरोसा नहीं रहेगा, तो सरकारों पर भी भरोसा नहीं रहेगा, और संसद या विधानसभा पर से भी भरोसा उठ जाएगा। लोकतंत्र सौ फीसदी नियम-कानून से बांधकर चलाई जाने वाली व्यवस्था नहीं है। इसका बहुत सा हिस्सा अच्छी परंपराओं, और लोकतांत्रिक मूल्यों से भी चलता है, लोगों के खुद होकर कानून मानने से भी चलता है, लेकिन जब तक लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं होगी, तब तक वे अपने देश-प्रदेश के कानून को मानेंगे भी नहीं। भारतीय लोकतंत्र टुकड़े-टुकड़े में बहुत बुरी तरह खोखला हो गया है, और इस नौबत को सुधारने की बहुत जरूरत है।
जापान की एक रिपोर्ट है कि वहां 1916 में पैदा हुई एक महिला आज दुनिया की सबसे उम्रदराज कामकाजी नाई है। गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉड्र्स ने ठोक-बजाकर, सारे सुबूत देखकर उन्हें यह सर्टिफिकेट दिया है। शितसुई हाकोइशी नाम की यह महिला यह सर्टिफिकेट पाने के समारोह में अपनी 85 साल की बेटी, और 81 साल के बेटे के साथ पहुंची थी, और खुद चलती-फिरती, काम करने की हालत में थी। शितसुई का कहना है कि वे अभी दो बरस और काम करेंगी, उन्होंने कहा कि 110 बरस की उम्र तक कड़ी मेहनत से काम करना है। उनकी कहानी बड़ी दिलचस्प इसलिए है कि 14 बरस की उम्र में उन्होंने बाल काटना सीखना शुरू किया, 20 बरस की उम्र में पेशेवर नाई का सर्टिफिकेट मिल गया, और शादी हो गई। 1937 में जापान-चीन युद्ध में उनके पति की मौत हो गई, दूसरे विश्व युद्ध में टोक्यो पर अमरीकी बमबारी से उनका घर राख में तब्दील हो गया, लेकिन अपने बच्चों को लेकर जिंदा रहने के संघर्ष में वो काम करती चली गईं, और अभी 108 बरस की उम्र में बहुत अच्छी तरह अपना सलून चलाती हैं।
आज विश्व महिला दिवस है, और इस मौके पर एक महिला के संघर्ष की, उसकी कामयाबी की यह कहानी देखने लायक है। आज अधिकतर लोग सरकारी रिटायरमेंट की उम्र 58-60 साल आते-आते काम में दिलचस्पी खो बैठते हैं, उन्हें लगता है कि अब ईश्वर की साधना में, या नाती-पोतों के साथ बाकी की जिंदगी गुजार देना है। इस उम्र के बाद जो अधिक सक्रिय रहते हैं, वे भी अपने हमउम्र लोगों के साथ सुबह की सैर पर अगल-बगल के मैदान-बगीचे तक जाकर एक जगह डेरा डाल देते हैं, और आपस में इस चर्चा में जुट जाते हैं कि सुबह पेट कैसा साफ हुआ। इनमें से बहुतों के पास अपनी जिंदगी के कुछ संस्मरण सुनाने की हसरत रहती है, और आगे की जिंदगी मानो यादों के सफर में ही कटने के लिए बची रहती है। कुछ अधिक जिद्दी लोग योग, कसरत, या सुबह-शाम की सैर में लगते हैं, लेकिन कामकाजी जिंदगी को मानो गैरसरकारी काम किए हुए लोग भी रिटायरमेंट की उम्र तक छोड़ देने के चक्कर में रहते हैं, बल्कि बहुत से लोग तो इस उम्र के पहले भी वालंटरी रिटायरमेंट ले लेते हैं। ऐसे में 108 बरस की उम्र में दो बरस और काम करने का इरादा लोगों को दूसरी दुनिया का लग सकता है।
लेकिन एक बात पूरी दुनिया में एक सरीखी है कि महिलाएं पुरूषों के मुकाबले अधिक लंबी जिंदगी जीती हैं, और वे अधिक मेहनत भी करती हैं। शायद अधिक मेहनत करना, और कम खाना, और गम खाना भी वे वजहें रहती हैं जिनकी वजह से महिला अधिक उम्र तक न सिर्फ जीती है, बल्कि अधिक सेहतमंद भी रहती है। भारत जैसे देश में धार्मिक या आध्यात्मिक रुझान वाले अधिकतर लोग ऐसे दिखते हैं जो कि सरकारी रिटायरमेंट उम्र के बाद बाकी जिंदगी अपने-अपने धर्मों के, और पसंद के प्रवचनों में गुजार देना चाहते हैं। यही वजह है कि ऐसे एक-एक कार्यक्रम में लाखों लोग जुट जाते हैं। नतीजा यह होता है कि आमतौर पर जिंदगी से पलायन सिखाने वाले प्रवचनों को सुन-सुनकर लोग अपने आपको बुरा, पापी, अज्ञानी मानते रहते हैं, क्योंकि अगर वे अपने को ऐसा नहीं मानेंगे, तो फिर उन्हें प्रार्थना की जरूरत क्यों रह जाएगी? इसलिए बहुत से धर्मों में जिंदगी की जरूरी बातों को काम-वासना, पाप, लालच जैसे तमगे दे दिए जाते हैं, और लोगों को इनसे जूझते हुए, अपराधबोध और पाप की धारणा से मुक्ति पाने की कोशिश करते हुए बाकी जिंदगी भक्ति में गुजारना जरूरी लगता है। यह जिंदगी के असल संघर्ष से दूर धकेलने वाली एक धार्मिक-आध्यात्मिक साजिश रहती है जो कि लोगों के दिमाग में यह बात बैठा देती है कि वक्त से पहले, और किस्मत से अधिक कुछ नहीं मिलता। यह बात भी बैठा दी जाती है कि ऊपरवाला सब देख रहा है, और उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। नतीजा यह होता है कि ऐसी धार्मिक-आध्यात्मिक नसीहतों के बीच लोगों की काम करने की हसरत और मेहनत खत्म ही होने लगती है।
जापान की इस महिला की मिसाल देखने लायक है, और दुनिया भर में अलग-अलग बिखरी हुई ऐसी दूसरी मिसालें भी हैं। दुनिया के कुछ सबसे बड़े पूंजीनिवेशकों की मिसालें हैं कि उन्होंने अपनी अधिकतर दौलत 60 बरस की उम्र के बाद कमाई है। एक किसी दूसरी जगह आज ही किसी ने लिखा है कि 60 बरस की उम्र के बाद सबसे बड़ी कमाई अपनी सेहत को ठीक रखना है, और अच्छी सेहत से बड़ी बचत और कुछ नहीं हो सकती। जापान सबसे अधिक उम्रदराज लोगों का देश है, और आबादी के अनुपात में शतक पूरा करने वाले लोग शायद जापान में ही सबसे अधिक हैं। दुनिया भर में जिन लोगों को लगता है कि उनकी काम की उम्र निकल गई है, उन्हें अपने आपको किसी न किसी उत्पादक, रचनात्मक, और सकारात्मक काम में इसलिए व्यस्त रखना चाहिए कि इन दिनों बुढ़ापे में बढ़ चली कई तरह की कमजोर याददाश्त वाली बीमारियां दिमागी सक्रियता कम होने से भी उपजती हैं। इसलिए अपने आपको व्यस्त रखना लोगों को अपने परिवार और समाज में, आसपास के लोगों में अलग सम्मान तो दिलाता ही है, आत्मनिर्भर भी बनाए रखता है, और समाज में उनका योगदान भी याद रखा जाता है। इसलिए 60-65 की उम्र में जिन लोगों को परिवार की कई तरह की जिम्मेदारियां छोडक़र धर्म-आध्यात्म में जुट जाने का दिल करता है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या वे रिटायर होने की उम्र पर कोई ऐसा नया काम भी शुरू कर सकते हैं जो उन्हें अगले कुछ दशकों तक, बाकी जिंदगी तक व्यस्त रखे? इस तरह के व्यस्त बुजुर्ग ही किसी परिवार को गैरजरूरी तनाव, परेशानी, और बोझ से बचा सकते हैं। एक बार जिन्होंने अपने आपको रिटायर मान लिया, वे आसपास के दायरे पर बोझ भी बनने लगते हैं, वरना 108 बरस की उम्र में अपना सलून चला रही जापानी नाई को देखें, जो दो बरस और काम करना चाहती है।
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मायावती के बारे में पिछले कुछ बरसों में जो सबसे महत्वपूर्ण खबरें आई हैं, उनमें से एक तो यह है कि वे पिछले कई चुनाव बीजेपी के दबाव में उसकी बी टीम की तरह लड़ रही है, न प्रचार करने जाती हैं, न किसी से गठबंधन करती हैं, और भाजपा के हाथ मजबूत करती हैं। उनके खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों के इतने मामले चल रहे हैं कि उनकी ऐसी किसी बेबसी को समझा जा सकता है। उनके बारे में दूसरी खबरें यही आती है कि किस तरह उन्होंने अपनी पार्टी, बसपा, को विरासत में अपने भतीजे आकाश आनंद को दे दिया था, फिर उसे विरासत से अलग कर दिया, और फिर वारिस बना दिया, और फिर हटा दिया। अभी इसी हफ्ते उन्होंने सोशल मीडिया पोस्ट करके यह जानकारी दी कि उन्होंने भतीजे को बसपा से निष्कासित कर दिया है। इसके एक दिन पहले उन्होंने उसे पार्टी के सभी महत्वपूर्ण ओहदों से हटाया था। इसके साथ-साथ उन्होंने कहा है कि आकाश आनंद के ससुर को भी पार्टी के हित में निष्कासित कर दिया गया है। 2019 से 2025 तक भतीजे का कई बार ऐसा भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, आना-जाना हुआ है। उत्तर भारत सहित देश के बहुत से राजनीतिक दलों में कुनबापरस्ती बड़ी आम बात है, और मायावती उन्हीं में से एक मिसाल हैं।
भारतीय राजनीति में कुनबापरस्ती की सबसे बड़ी तोहमत कांग्रेस पार्टी पर लगती है, और इसकी शुरूआत नेहरू से की जाती है जिन्होंने अपने दामाद फिरोज गांधी को कांग्रेस के अखबार नेशनल हेरल्ड का मुखिया बनाया। हालांकि इसके पहले से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे, और जेल काट चुके थे, लेकिन इंदिरा से शादी के बाद वे कांग्रेस के सांसद बने, और अपनी मृत्यु तक बने रहे। इसके अलावा भारत के पब्लिक सेक्टर के नेहरू काल के कई मामलों में उनका बड़ा दखल रहा। उनके बाद इंदिरा गांधी, उनके बेटों, बहुओं, और पोते-पोती का राजनीतिक-चुनावी इतिहास सबके सामने है। देश में कुनबापरस्ती की जब भी बात होती है कांग्रेस की मिसाल सबके काम आती है, और कांग्रेस से बाहर निकलकर भी इंदिरा की छोटी बहू मेनका, और उनके बेटे दोनों संसद में पहुंचे, और मेनका केन्द्रीय मंत्री भी रहीं। जिस उत्तर भारत में मायावती की मुख्य राजनीति चलती थी, वहां पर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम पर अपने परिवार की पार्टी चलाई, और लंबे समय तक सत्ता में भागीदार रहे। बगल के बिहार में लालू यादव ने जिस तरह अपने जेल जाने पर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, और बेटा-बेटी सभी को सांसद-विधायक बनाया, वह मिसाल भी गैरभाजपाई दलों पर हमला करते वक्त काम आती है। आज मायावती की खबरों के बीच ही यह पढऩा भी बड़ा अजीब लगता है कि किस तरह भतीजे का ससुर पार्टी पर हावी था, और मायावती सार्वजनिक रूप से यह तोहमत लगा रही हैं कि ससुर के असर में भतीजे ने सब कुछ बर्बाद किया। मतलब तो साफ है कि भतीजा तो भतीजा, भतीजे का ससुर भी पार्टी के नेताओं का बाप बना बैठा था। ऐसी कुनबापरस्ती को लोकतंत्र के हित में विसर्जित ही कर दिया जाना चाहिए था, और अब भी बहुत देर नहीं हुई है।
दूसरी तरफ मैक्सिको से खबर आ रही है कि वहां की सरकार एक कानून लेकर आ रही है जिससे राजनीति में परिवारवाद खत्म किया जाएगा। यह कानून केन्द्र, राज्य, और स्थानीय स्तर पर एक ही परिवार के लोगों को राजनीति में आने से रोकने के लिए लाया जा रहा है, और यह 2030 तक लागू कर दिया जाएगा। इस कानून के तहत नेताओं के तुरंत दुबारा चुनाव लडऩे पर भी पाबंदी लगेगी। फिर भी वहां के लोगों का मानना है कि इसे 2030 तक लागू न करने के पीछे नेताओं की नीयत यह है कि वे तब तक अपने कुनबे के लोगों को अलग-अलग जगहों पर फिट कर चुके होंगे। लोगों को याद होगा कि हम पहले कई बार अमरीका की इस व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं कि वहां चार-चार बरस के दो कार्यकाल पूरे करने के बाद कोई राष्ट्रपति और कोई भी सरकारी काम नहीं संभाल सकते।
राजनीतिक दलों से लेकर सरकारों तक अगर नई पीढ़ी को आगे बढऩे देना है, तो वंशवाद को खत्म करना होगा, और लोगों के कार्यकाल भी सीमित करने होंगे। भारत सरीखे 140 करोड़ से अधिक आबादी के इस देश में संसद या विधानसभा के, और मंत्री पद के दो कार्यकाल पूरे करने में दस बरस निकल जाते हैं। इसके बाद उनकी जगह नए लोगों को मौका दिया जा सकता है। इसी तरह राजनीतिक दलों के संगठन के ढांचे में एक ही कुनबे के लोगों को काबिज बने रहने देने से पार्टी के भीतर लोकतंत्र खत्म होता है, और नए खून की कल्पनाशीलता का कोई फायदा मिल भी नहीं पाता। आज जब हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस के एक नेता रहे हुए, और एक वक्त राजीव गांधी के करीबी रहे मणिशंकर अय्यर की कही एक बात गूंज रही है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं थे क्योंकि वे कॉलेज में दो-दो बार फेल हो चुके थे। किसी के कॉलेज में फेल होने से उसके प्रधानमंत्री बनने की क्षमता कम नहीं होती है, लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी इंदिरा की हत्या की अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा के बीच जलते हुए देश को संभालने वाले प्रधानमंत्री बने थे, न कि अपनी क्षमता या चाहत के आधार पर। इसलिए मणिशंकर अय्यर की 40 बरस पहले की उस घटना का जिक्र करते हुए 50 बरस पहले के कॉलेज की याद ताजा करना एक घटिया बात है। फिर भी लोकतंत्र में घटिया बातों को भी करने की आजादी रहनी चाहिए। घटिया बातें खराब कही जा सकती हैं, लेकिन वे जुर्म तो नहीं रहतीं।
मायावती से परे आज ही की एक दूसरी खबर भी है कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस की एक बड़ी बैठक में आज ममता बैनर्जी के भतीजे, और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बैनर्जी बैठक में नहीं पहुंचे। इस पार्टी में भी बुआ-भतीजे के बीच तनातनी की खबरें आती रहती हैं, और भतीजे को ही ममता का वारिस माना जाता है। देश की तकरीबन तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इसी तरह कुनबापरस्ती पर चलती हैं, और तीन-तीन पीढ़ी से एक ही घर में लीडरशिप चली आ रही है। यह सिलसिला कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक अधिकतर प्रदेशों में देखने मिलता है, और पता नहीं भारतीय लोकतंत्र में मैक्सिको की तरह का कोई कानून मुमकिन है या नहीं जो कि वंशवाद को रोक सके।
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अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के सुबह-शाम के अस्थिर दिमाग से निकले हुए दिखने वाले फैसलों से दुनिया भर के शेयर बाजार डूबे चले जा रहे हैं। किसी देश को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि वे ट्रम्प से क्या बात करें, क्योंकि किसे डांट पड़ जाए, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। जिस तरह अभी व्हाईट हाऊस में यूक्रेन के राष्ट्रपति को ट्रम्प और उनके उपराष्ट्रपति ने फटकारा है, और बिना खाना खिलाए जाने के लिए कह दिया, उससे भी बाकी देश सहमे हुए हैं कि कौन ट्रम्प के मुंह लगे। हम भी इस जगह पर ट्रम्प की तानाशाही, गुंडागर्दी, और बददिमागी को लेकर कई बार लिख चुके हैं। लेकिन आज हम ट्रम्प के डेढ़ महीने के कार्यकाल को लेकर एक अलग नजरिए से देखना चाहते हैं, जो कि हमारे ही अभी तक लिखे हुए से अलग हटकर नजरिया रहेगा।
ट्रम्प के बारे में चारों तरफ यह कहा और लिखा जा रहा है कि वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों, देश की विदेश नीति, और कूटनीतिक तौर-तरीकों से बिल्कुल अलग, मनमानी का बर्ताव करने वाले नेता हैं। उन्होंने जिस अंदाज में अपने मन से यह तय कर लिया कि इजराइल गाजा को अमरीका को सौंप देगा, और अमरीका वहां के 20 लाख से अधिक लोगों को फिलीस्तीनी के पड़ोस के देशों में बसा देगा, और गाजा की जगह वह मध्य-पूर्व की सबसे बड़ी सैरगाह बनाएगा, वह अंदाज सबके लिए भयानक था, उसका लोकतंत्र से कुछ भी लेना-देना नहीं था, मध्य-पूर्व के देशों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक सभी ट्रम्प के इस बयान के खिलाफ थे। लेकिन इस बयान के बाद ही मध्य-पूर्व के देशों के सबसे बड़े संगठन अरब लीग की बैठक हुई, और आनन-फानन ऐसे प्रस्तावों पर चर्चा हुई कि अरब देश फिलीस्तीन के गाजा में क्या कर सकते हैं, उसे दुबारा बसाने के लिए कितनी मदद की जरूरत पड़ेगी। और ये प्रस्ताव अमरीका के सामने औपचारिक या अनौपचारिक रूप से रखे भी जाने वाले हैं, क्योंकि ट्रम्प के अपनी मनमानी के बयान के बाद अमरीकी सरकार की तरफ से यह भी कहा था कि मध्य-पूर्व से अगर गाजा के बारे में कोई प्रस्ताव नहीं आएगा, तो ट्रम्प के इस प्रस्ताव की बारी आएगी। और ट्रम्प की चेतावनी के बाद मध्य-पूर्व के कुछ अमरीकापरस्त, और कुछ अमरीकी दबदबे के बाहर से देशों ने मिलकर गाजा पर यह विचार-विमर्श किया है। ट्रम्प की चेतावनी के पहले इन रईस मुस्लिम, और इस्लामिक देशों के हाथ-पांव नहीं हिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि दुनिया का लोकतांत्रिक तौर-तरीका इन देशों से कोई हमदर्दी नहीं उपजा पा रहा था। तो क्या ट्रम्प के गुंडागर्दी के तेवर गाजा के किसी जल्द-समाधान का रास्ता तैयार कर रहे हैं? हम बिल्कुल भी ट्रम्प की किसी राय से इत्तेफाक नहीं रखते, लेकिन उनकी धमकी के असर की चर्चा कर रहे हैं।
ठीक इसी तरह रूस के हमले के बाद, और यूक्रेन के मोर्चे पर टिके रहने से जो जंग तीन बरस से चली आ रही है, और जिसमें अमरीका ने अपने फौजी इतिहास की एक सबसे बड़ी मदद यूक्रेन को की है, उसके खिलाफ डोनल्ड ट्रम्प ने सख्त तेवर दिखाए थे, और यूक्रेन की बांह मरोडक़र उसे रूस के साथ समझौता करने पर मजबूर किया था, उसका असर अब दिख रहा है। ट्रम्प के ये तेवर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हैं, लेकिन इनका असर दिख रहा है। अमरीकी संसद में ट्रम्प ने यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलिंस्की की भेजी गई एक चिट्ठी का जिक्र किया कि वह रूस से शांतिवार्ता को भी तैयार है, और अपनी दुर्लभ खनिजों की खदानें अमरीका को देने पर भी तैयार है। अमरीका ने यूक्रेन को जारी फौजी सप्लाई, और जंग की खुफिया जानकारी देना बंद किया, और अगले ही दिन यूक्रेनी राष्ट्रपति ने समर्पण कर दिया। हम अभी सही और गलत के झगड़े में नहीं पड़ रहे, लेकिन ऐसा लग रहा है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा मवाली अपने तौर-तरीकों से कुछ बातों को करवाने में कामयाब हो रहा है जिससे कि इजराइल-फिलीस्तीनी, और रूस-यूक्रेनी जंग थम जाए। अब आज की दुनिया में किसी जंग के जायज या नाजायज होने की बात मायने इसलिए नहीं रखती है कि संयुक्त राष्ट्र बेअसर संगठन हो चुका है, और पूरी दुनिया ‘जिधर बम, उधर हम’के सिद्धांत पर काम करती दिख रही है। जब अमरीका ने इराक पर फर्जी सुबूतों का हवाला देते हुए हमला किया था, तो संयुक्त राष्ट्र प्रसंगहीन साबित हुआ था, और बड़ी-बड़ी पश्चिमी ताकतें अमरीका के हमलावर गिरोह में शामिल थीं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाहुबल के प्रदर्शन में जायज और नाजायज की चर्चा अब फिजूल सी हो चुकी है।
ट्रम्प ने दुनिया भर के देशों में अमरीकी मदद से चलने वाले सहायता-कार्यक्रमों को पल भर में खत्म कर दिया, योरप के देशों के साथ अपने पुराने सैनिक साझेदारी के संगठन नाटो पर से अपनी ताकत को पल भर में हटा दिया, और अपने सबसे कट्टर दुश्मन देश, रूस के साथ नई यारी की नुमाइश की, और पूरी दुनिया का शक्ति संतुलन तबाह कर दिया। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ अमरीका के व्यापार संबंधों की परंपरा, और लंबे इतिहास को खारिज करते हुए, एक आम दुकानदार की तरह लेन-देन पर एक जैसे टैरिफ की घोषणा की, और अपने पड़ोसियों के तबाह हो जाने की कोई फिक्र नहीं की। ऐसी नौबत में यह लगता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कभी-कभी मोटी जम चुकी बर्फ की तह तोडऩे के लिए, और यथास्थिति को बदलने के लिए ट्रम्प सरीखे किसी तानाशाह की जरूरत पड़ती है? क्या ट्रम्प के तेवर और उनके फैसले, एक आत्मकेन्द्रित देश के रूप में अमरीका को ट्रम्प की जुबान में क्या सचमुच ही एक बार और महान बना सकते हैं, क्या वे दूसरे देशों की मदद की कीमत पर अमरीका को पहुंचने वाले आर्थिक नुकसान को रोक सकते हैं, क्या वे दुनिया में जंग के चल रहे कुछ मोर्चों को ठंडा कर सकते हैं? ऐसे कई सवाल ट्रम्प के फैसलों, और उसके असर से आज उठ रहे हैं। ट्रम्प की नीतियां जितने सवालों के जवाब दे सकती हैं, उससे अधिक सवाल खड़े कर रही हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि धरती के गोले पर अपने सबसे बड़े मवाली, ट्रम्प की बातों को बहुत से देशों को गंभीरता से लेना पड़ रहा है, और वह किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की तरह, माफिया सरगना की तरह अपने फैसले लोगों पर लाद रहा है, लोगों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि दुनिया में कुछ भी स्थाई मित्रता, और स्थाई शत्रुता नहीं होती। ट्रम्प एक अकेला इंसान है जो दुनिया की जमी-जमाई व्यवस्था को इस हद तक पलट रहा है, और हम इसके हिमायती न होते हुए भी, इसे इस नजरिए से देखना दिलचस्प पा रहे हैं कि ट्रम्प के इस कार्यकाल में दुनिया में दोस्ती और दुश्मनी के नए समीकरण किस तरह बनने जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ विधानसभा में सरकार तो भाजपा की है, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ही अनगिनत मामले उठा रहे हैं जिनमें सरकार के स्तर पर बड़ा भ्रष्टाचार हुआ है। इनमें से कुछ मामले पिछले सवा साल के भाजपा सरकार के कार्यकाल के हैं, लेकिन अधिकतर मामले पिछली कांग्रेस सरकार के समय के हैं, जिन्हें लेकर कांग्रेस विधायकों की बोलती बंद रहती है क्योंकि उन्हीं की सरकार के चलते यह सब भ्रष्टाचार हुआ था। लेकिन ऐसा एक सबसे बड़ा संगठित अपराध सरकार को सबसे बड़ा चूना लगाने वाला कल विधानसभा में खूब उठाया गया, और उसके बाद सरकार को अपने एक डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड करना पड़ा। रायपुर जिले के ही अभनपुर इलाके में केन्द्र सरकार के भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत रायपुर-विशाखापट्टनम के बीच बन रहे इकॉनॉमिक कॉरीडोर के लिए किसानों की जमीन ली गई थी। 2019 में कांग्रेस सरकार के दौरान किसानों की जमीनों के सरकारी रिकॉर्ड में कई-कई टुकड़े कर दिए गए, और इन्हें अलग-अलग नामों से चढ़ा दिया गया। छोटे टुकड़ों का मुआवजा अधिक रेट पर मिलता है, और जिन जमीनों का कुल 35 करोड़ रूपए मुआवजा बनना था, उसे बढ़ाकर सवा तीन सौ करोड़ से ऊपर पहुंचा दिया गया। सरकारी अफसर ने बाकी अमले के साथ मिलकर संगठित रूप से यह भ्रष्टाचार किया था, और चर्चा यह भी थी कि इसमें दूसरे बहुत से नेता और अफसर शामिल थे। 32 टुकड़ों को 247 छोटे टुकड़ों में बांटकर केन्द्र सरकार को ढाई सौ करोड़ से अधिक का चूना लगाया गया था, और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ.चरणदास महंत ने इस मामले को उठाया था। विधानसभा में यह जानकारी आई कि केन्द्र सरकार के राष्ट्रीय सडक़ प्राधिकरण ने रायपुर कलेक्टर से इसकी रिपोर्ट मांगी थी जिसमें यह साजिश उजागर हुई। इसके आधार पर राज्य सरकार ने उस वक्त के प्रभारी डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड किया है। इसी के साथ-साथ कुछ और दूसरे भ्रष्टाचार भी सामने आए हैं, और इनमें से एक बस्तर के घोर नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले का मामला है जहां पर बैंक सुविधा कम रहने से आदिवासियों को तेन्दूपत्ता का भुगतान नगद करने की खास छूट है, और वहां वन विभाग ने जिले के सबसे बड़े अफसर, डीएफओ की अगुवाई में करोड़ों की संगठित लूट की है। इस मामले में अखिल भारतीय वन सेवा के अफसर, डीएफओ को सस्पेंड किया गया है, जो कि इस स्तर के अधिकारी के साथ कभी-कभार ही होने वाली बात है। एक तीसरा मामला अभी विधानसभा में उठा ही है कि प्रदेश में जिस जशपुर जिले को नागलोक कहा जाता है, वहां से भी अधिक सांप काटने से मौत के मामले बिलासपुर में दर्ज किए गए हैं, और विधायकों का कहना है कि इनमें बड़ी संख्या में फर्जी मामले हैं।
भ्रष्टाचार छत्तीसगढ़ सरकार की रग-रग में समाया हुआ है। खासकर पिछले पांच बरस की कांग्रेस सरकार के दौरान जितना संगठित भ्रष्टाचार हुआ है, और जिनमें से बहुत से मामले जांच एजेंसियों के मार्फत अभी अदालतों में चल रहे हैं, उन्हें देखना भयानक है। बहुत पहले देश के एक सबसे चर्चित व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि एक बार कोई व्यक्ति अदालत पहुंच जाए, तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने आपको अपने वकील से बचाने की रहती है। इसी तरह आज के हालात देखें तो सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अपने आपको अपने ही भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों से बचाने की रहती है। जिनको सरकार से एक सुरक्षित नौकरी मिलती है, काम की सहूलियतें मिलती हैं, समाज में दबदबा मिलता है, वे ही लोग सरकार की हर योजना में पलीता लगाने में लगे रहते हैं। सरकारी अमले का भ्रष्टाचार इस हद तक संगठित रहता है कि सत्तारूढ़ पार्टी चाहे बदल जाए, सत्ता के दलाल वही के वही बने रहते हैं, और अफसर नए सत्तारूढ़ नेताओं को रातोंरात कमाई की संभावना बताकर उनके शुभचिंतक बन जाते हैं। यह सिलसिला खत्म होते नहीं दिखता है, किसी सरकार में यह कम रहता है, किसी में ज्यादा रहता है, लेकिन सरकारी अमले की खुली भागीदारी से चलने वाली संगठित साजिशें खत्म तो कभी नहीं होतीं। ऐसे में कल ही हमने छत्तीसगढ़ के बजट पर इसी जगह लिखा था कि सरकार को अपने ढांचे में निरंतर चलने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक निगरानी एजेंसी बनानी चाहिए जो कि संगठित भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची, बर्बादी और घटिया काम पर नजर रख सके, और बर्बादी होने के पहले ही सरकार को कार्रवाई सुझा सके।
अब केन्द्र सरकार की सडक़ योजना के लिए जमीन लेने की लागत को जिस अफसर और कर्मचारियों ने दस गुना पहुंचा दिया, उन्हें जरा सा भी डर नहीं लगा। करीब ढाई सौ करोड़ के घोटाले का यह मामला भूपेश सरकार के पहले ही साल का दिखाई पड़ रहा है। और ऐसा हो नहीं सकता कि सत्तारूढ़ नेताओं की भागीदारी के बिना इतना बड़ा भ्रष्टाचार कोई एक डिप्टी कलेक्टर अकेले कर ले। इसके पहले भी कई दूसरे जिलों में ऐसे मामले सामने आए हैं जब लोगों की निजी जमीन का अनिवार्य अधिग्रहण होना था, और उसके ठीक पहले उन जमीनों की कागजी खरीद-बिक्री दिखाकर, या पारिवारिक बंटवारा दिखाकर उनके छोटे-छोटे टुकड़े किए गए ताकि उनका कई गुना अधिक रेट से मुआवजा मिल सके। विधानसभा में तो अभी एक डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड किया है, लेकिन केन्द्र सरकार की जनसुविधा की इस महत्वाकांक्षी योजना को एक आपराधिक साजिश रचकर जिन लोगों ने भी फायदा उठाया है, वैसे दस-बीस और लोगों को भी जेल भेजना चाहिए, और उनकी जमीन-जायदाद की बिक्री करके एक ऐसी मिसाल कायम करना चाहिए कि आगे किसी और का ऐसा हौसला न हो। वैसे तो पिछले पांच बरस के भ्रष्टाचार के जितने मामले जांच एजेंसियों के रास्ते अदालतों में पहुंचे हुए हैं, उन्हें देखकर आज के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों, नेताओं और सत्ता के दलालों का हौसला पस्त होना चाहिए क्योंकि दो-दो बरस से बड़े-बड़े आला अफसर और सत्ता की गोद में बैठे नेता-कारोबारी बिना जमानत जेल में पड़े हुए हैं, और उनकी सैकड़ों करोड़ की जमीन-जायदाद ईडी और आईटी में अटैच भी हो चुकी है। लेकिन जिनको इससे सबक न मिले, उन पर नजर रखने के लिए सरकार को आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार की एक नई निगरानी एजेंसी बनाना चाहिए क्योंकि आज की एसीबी-ईओडब्ल्यू यह काम करने में कामयाब नहीं हो पाई है। जो शिकायतें इन दो एजेंसियों के पास पहुंचती हैं उन्हीं पर कार्रवाई होती है, इसके साथ-साथ एक निगरानी एजेंसी भी चाहिए क्योंकि सरकार का पैसा लुट जाने के पहले ही उसका पता लगा सके। यह बात तो तय है कि सरकार में भ्रष्टाचार पानी पर तैरती जलकुंभी की तरह सबको दिखता है, सबको पता रहता है, और अगर इसे कोई अनदेखा करते हैं, तो वह सत्ता पर ऊपर बैठे लोग ही करते हैं। यह सिलसिला तोडऩा चाहिए, और जांच एजेंसी का काम शुरू होने के पहले ही निगरानी एजेंसी बनाकर उसे मजबूत करना चाहिए। आज लोगों का अंदाज यह है कि सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार और घटिया सामान-निर्माण में बर्बाद होता है, एक मजबूत निगरानी एजेंसी बड़ा सस्ता सौदा होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार का दूसरा बजट कल विधानसभा में पेश हुआ। एक सबसे नौजवान मंत्री, वित्त मंत्री ओपी चौधरी, शासन और प्रशासन दोनों की अच्छी जानकारी रखने वाले हैं, और मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने उन्हें बजट बनाने के लिए खुला हाथ भी दिया था। बजट में प्रदेश के तमाम वंचित, और जरूरतमंद तबकों के लिए बारीकी से कुछ न कुछ किया गया है, तो वह बजट पर एक आदिवासी मुख्यमंत्री की छाप भी दिखती है, जो ख़ुद वंचित बचपन से उठकर इस कुर्सी तक पहुँचा है। वित्त मंत्री ओपी चौधरी का पहला, और पिछला बजट तो कुल दो महीने की तैयारी का बजट था, लेकिन इस बार उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तर्ज पर शब्दों के प्रथमाक्षरों को लेकर एक ‘गति’ वाला बजट सामने रखा है, उनकी गति का मतलब सुशासन, तेज ढांचा विकास, टेक्नोलॉजी, और औद्योगिक विकास के अंग्रेजी शब्द हैं। इस बजट को एक नजर देखने से ऐसा लगता है कि राज्य के हर शहर-कस्बे, हर इलाके, हर तबके के लिए इसमें कुछ न कुछ दिया गया है।
हम अभी बजट की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते क्योंकि वह लंबी लिस्ट कल से छपती चली जा रही है, लेकिन उसके एक खास पहलू पर खुलासे से चर्चा करना चाहते हैं। वित्त मंत्री ने रायपुर, नया रायपुर, दुर्ग-भिलाई, और राजनांदगांव के 800 से अधिक गांवों, और बीस शहर-कस्बों को मिलाकर स्टेट कैपिटल रीजन बनाने की बात कही है। हालांकि इस बार के बजट में इसके महज सर्वे और योजना के लिए कुल 5 करोड़ रुपए रखे हैं। यह देश की राजधानी के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की तर्ज पर छत्तीसगढ़ की राजधानी और उसके इर्द-गिर्द के एकमुश्त विकास की योजना है, जो बहुत महत्वाकांक्षी हो सकती है, और नया रायपुर योजना की तरह अनुपातहीन खर्चीली भी हो सकती है। प्रदेश की करीब एक तिहाई आबादी इस क्षेत्र में बसी हुई है, और इसके बाहर के भी दसियों लाख लोग हर दिन इस क्षेत्र में आते-जाते हैं। ऐसे में विधानसभा क्षेत्रों, संसदीय सीटों और म्युनिसिपल-पंचायतों के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के तंग नजरिए से ऊपर उठकर अगर विशुद्ध योजनाशास्त्री के नजरिए से इस योजना को नहीं बनाया जाएगा, तो यह सत्तारूढ़ नेताओं की तुष्टिकरण का एक निरर्थक और भारी फिजूलखर्ची का सामान बन जाएगा। ऐसे किसी भी विशाल इलाके के जटिल विकास की दीर्घकालीन योजनाएं आसान नहीं होती हैं, और इन्हें किसी चुनिंदा योजनाशास्त्री को उपकृत करने के लिए उसे देने के बजाय देश के सबसे अच्छे योजनाशास्त्रियों को देना चाहिए। इसके लिए देश में शहरी विकास के जानकारों का एक सम्मेलन भी किया जाना चाहिए। हमने नया रायपुर का बेहद खर्चीला विकास देखा हुआ है जो कि हजारों करोड़ की लागत के बाद भी आज भी पांच-दस फीसदी भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है।
सरकार को किसी भी ऐसे खर्च के पहले यह याद रखना चाहिए कि इस प्रदेश की जनता सरकारी धान खरीदी की वजह से आज खुशहाल दिख रही है, वरना यहां प्रति व्यक्ति आय बहुत कम दिखती। गऱीबों के हक़ के पैसों से विकराल आकार की योजना बनाने के पहले उसकी उपयोगिता और उत्पादकता तौल लेनी चाहिए। राज्य राजधानी क्षेत्र का मतलब राजनांदगांव से लेकर नया रायपुर तक एक मेट्रो की योजना भी होगी, और हो सकता है कि इसके लिए राज्य सरकार को रायपुर शहर के बीच स्काईवॉक नाम की अपनी अधूरी पड़ी हुई योजना को पूरा करने की जिद छोडऩा भी पड़े, क्योंकि शहर के बीचों-बीच बहुत ही सीमित उपयोग वाले ऐसे स्कॉईवॉक के बाद शहर के बीच से किसी तरह की मेट्रो शायद निकल नहीं पाएगी।
दूसरी बात हम पहले भी कई बार बजट के तुरंत बाद लिख चुके हैं कि बजट का एक छोटा सा हिस्सा राज्य सरकार को सरकारी अमले के भ्रष्टाचार, और प्रदेश में आर्थिक अपराधों की रोकथाम के लिए रखना चाहिए। इस बजट में इसका जिक्र तो दिख रहा है, लेकिन एक ऐसी एजेंसी की जरूरत है जो भ्रष्टाचार हो जाने के पहले ही खुफिया तंत्र और निगरानी से सरकार और जनता दोनों को सचेत कर सके। इसके बिना 1 लाख 65 हजार करोड़ रुपए के इस बजट का कितना हिस्सा भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची, और घटिया निर्माण में बर्बाद होगा, यह अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। हम अभी बजट के एक-एक काम की तुलना पिछली सरकारों के अलग-अलग बजट से नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की सरकार, और वित्त मंत्री ओपी चौधरी को ऐसी तरकीबें जरुर सोचना चाहिए कि जिस मद के लिए जितनी रकम रखी गई है, उस रकम का उस मद में अधिकतम इस्तेमाल हो सके, हम पिछले बरसों के सरकारी भ्रष्टाचार की कहानियां अखबारों में पढ़-पढक़र थक गए हैं। फिर यह बात भी सोचने लायक है कि जिस सरकारी अमले ने पिछले बरसों में परले दर्जे का यह भ्रष्टाचार किया था, वही अमला तो आज भी सरकार चला रहा है। भ्रष्टाचार की पुख्ता बिछी हुई पटरी पर ट्रेन दौड़ाना बहुत से लोगों के फायदे का काम हो सकता है, ऐसे लालच को रोककर इसी सरकारी अमले को, और राज्य की राजनीतिक संस्कृति को ईमानदार बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है, और इस लंबे-चौड़े बजट की कामयाबी इस चुनौती से पार पाए बिना नहीं हो सकेगी।
देश के एक सबसे बड़े हिन्दू तीर्थ, तिरुपति ट्रस्ट की तरफ से केन्द्र सरकार से अनुरोध किया गया है कि इस मंदिर की पहाड़ी, तिरुमाला के ऊपर से किसी भी तरह के विमानों का उडऩा बंद करवाया जाए, और इसे ‘नो फ्लाई जोन’ घोषित किया जाए। इस पर केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री राममोहन नायडू ने मीडिया से कहा है कि वे अधिकारियों से बात कर रहे हैं, ताकि विमानों के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता तय किया जाए। उन्होंने कहा कि बहुत से तीर्थस्थानों की तरफ से ऐसे अनुरोध मिले हैं, और हम यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि इनमें क्या-क्या किया जा सकता है। मंदिर ट्रस्ट ने केन्द्र सरकार को लिखकर कहा है कि मंदिर की पवित्रता, सुरक्षा-चिंताएं, और भक्तों की भावनाएं देखते हुए इसके ऊपर से किसी भी तरह के विमान उडऩे पर रोक लगाई जाए। ट्रस्ट का कहना है कि इस मंदिर की पवित्रता, उसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को देखते हुए तुरंत ही ऐसी कार्रवाई करनी चाहिए। मंदिर ट्रस्ट ने अपने अनुरोध के समर्थन में अगम शास्त्र का हवाला दिया है कि अगम नियमों के मुताबिक मंदिर की पवित्रता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, और उसके आसपास किसी भी तरह का विघ्न पैदा होने से उसके आध्यात्मिक वातावरण पर फर्क पड़ता है। रिकॉर्ड बताता है कि 2016 में आन्ध्रप्रदेश सरकार ने भी केन्द्र सरकार से ऐसी ही अपील की थी जिसे केन्द्र ने यह कहते हुए खारिज किया था कि इससे तिरुपति एयरपोर्ट तक विमानों की आवाजाही सीमित हो जाएगी। उस वक्त विमानन मंत्री जयंत सिन्हा ने लिखा था कि तिरुपति एयरपोर्ट के आसपास की भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए वैसे ही वहां पर केवल एक ही रनवे काम करता है, और किसी भी तरह के और प्रतिबंध लगाने से इस महत्वपूर्ण एयरपोर्ट तक आवाजाही प्रभावित होगी। अब केन्द्रीय विमानन मंत्री आन्ध्र की तेलुगु देशम पार्टी के हैं, उनकी पार्टी आन्ध्र पर सत्तारूढ़ है, और केन्द्र की मोदी सरकार इसी पार्टी के सहयोग से चल रही है।
अब जिस तरह की धार्मिक भावनाओं का जिक्र करते हुए यह मांग की जा रही है, उसके बारे में यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इसका कोई अंत होगा? आगे चलकर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को लेकर, बोधगया के बोधिवृक्ष को लेकर, कोलकाता के काली मंदिर को लेकर, अजमेर की दरगाह को लेकर, गुजरात के सोमनाथ मंदिर, ओडिशा के पुरी मंदिर को लेकर इसी तरह की मांग उठ सकती है। हर जगह धार्मिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं, और अगर ऐसे हर तीर्थस्थान के ऊपर से विमानों की आवाजाही का रास्ता बदला जाएगा, तो वह हवाई यातायात के लिए एक अलग किस्म का खतरा बन जाएगा। आज तमाम विमान सबसे छोटे रास्ते पर सफर करते हैं, और जिन देशों के रिश्ते अच्छे नहीं रहते हैं, उन्हें छोडक़र दूसरे रास्ते से आने-जाने पर बहुत सारा अतिरिक्त खर्च होता है, अतिरिक्त समय लगता है। भारत तो कदम-कदम पर तीर्थों से भरा हुआ देश है, और यहां पर इस तरह की कोई भी रोक आगे चलकर हो सकता है कि कई तरह की हवाई दुर्घटनाओं की एक वजह बन जाए। आज शायद दिल्ली में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति निवास या कुछेक फौजी ठिकानों, परमाणु केन्द्रों को ही ऐसी उड़ानों से मुक्त रखा गया है। इसके बारे में बहुत जानकारी अभी हमारे पास नहीं है, लेकिन दुनिया भर में धार्मिक स्थलों के ऊपर से उड़ानों पर रोक का कोई ध्यान नहीं पड़ता है। फिर भारत के नक्शे को अगर देखें तो हर कुछ सौ किलोमीटर पर किसी न किसी धर्म के प्रमुख उपासना स्थल हैं, और फिर खजुराहो सरीखे पुरातत्व के महत्व के बहुत से केन्द्र भी देश भर में बिखरे हुए हैं।
जिस तरह तिरुपति ट्रस्ट ने किसी शास्त्र का हवाला देकर यह सब कहा है, वह अपने आपमें एक भयानक नौबत है। आज कोई भी ट्रस्ट आधुनिक सुविधाओं, और टेक्नॉलॉजी को मना नहीं करता है। बिजली, इंटरनेट, कम्प्यूटर, सीसीटीवी कैमरे, गैस-चूल्हे, से किसी को परहेज नहीं है। किसी ट्रस्ट को ऑनलाईन बुकिंग या दान से परहेज नहीं है, और हर प्रमुख तीर्थस्थान पर हर दिन लाख-लाख लोगों के लिए प्रसाद या भोजन तैयार करने में भी हर तरह की टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल होता है। धर्म हर तरह की टेक्नॉलॉजी का भरपूर इस्तेमाल भी करता है, और आस्था को जब चाहे तब विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के मुकाबले खड़ा भी कर देता है। अभी-अभी निपटे महाकुंभ में सरकार ने ही बताया कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल भीड़ के इंतजाम में किया गया था। जाहिर है कि यह मानवीय क्षमताओं से परे टेक्नॉलॉजी पर आधारित बात थी, और धर्म का उससे कोई टकराव भी नहीं था। पहाडिय़ों के बीच बसे हुए एयरपोर्ट पर एक हिस्से से प्लेन और हेलीकॉप्टर का उडऩा रोक देने से खतरे भी बढ़ेंगे, और शायद एयरपोर्ट की क्षमता भी घट जाएगी। आज जब पौन सदी से यह व्यवस्था चली आ रही है, तो अब आज उसमें यह नया बखेड़ा खड़ा करना धार्मिक आस्था की बात नहीं है, सत्तारूढ़ पार्टी और गठबंधन-भागीदार के बाहुबल का प्रदर्शन अधिक है कि वे ऐसा कुछ भी करवा सकते हैं। एक तरफ तो आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू दुनिया भर की आधुनिक टेक्नॉलॉजी का केन्द्र आन्ध्र को बनाने में 25 बरस पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए भी लगे हुए थे। लेकिन आज लोकलुभावनी लोकप्रियता पाने के लिए इस तरह की मांग दुनिया के विकास और प्रगति के खिलाफ सोच है। हो सकता है कि मोदी सरकार को अपने दो मददगारों में से एक की ऐसी बेतुकी मांग को पूरा करने के लिए कुछ सोचना पड़े, लेकिन यह एक बहुत खराब परंपरा होगी, और धीरे-धीरे जब जिस राज्य के विधानसभा चुनाव होंगे, तब उस राज्य के सबसे बड़े तीर्थस्थान को नो फ्लाई जोन बनाने को चुनावी मुद्दा बना लिया जाएगा।
यह सब आधुनिक विकास को नकारने और खारिज करने की हरकत है, और इसे शुरूआत में ही खत्म करना चाहिए। धर्म ने हिन्दुस्तान की आम जिंदगी को एक बड़े बादल की तरह ढांक लिया है, और जिंदगी की बहुत सी बुनियादी जरूरतों, और जरूरी मुद्दों को पीछे धकेल दिया है। तिरुपति की यह मांग असल जिंदगी को धक्का देकर हाशिए पर फेंक देने जैसी होगी, इससे न तो ईश्वर का कोई भला हो सकता, न भक्तों का। बल्कि भक्तों के लिए खतरा खड़ा होगा, उनकी दिक्कतें बढ़ेंगी, और उस इलाके के हवाई सफर की संभावनाएं सीमित होंगी।
छत्तीसगढ़ विधानसभा के चल रहे इस सत्र में सत्तारूढ़ भाजपा विधायकों के उठाए गए सवालों से पल भर को तो ऐसा लगता है कि मानो वे अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ हैं, लेकिन फिर बारीकी से मुद्दे को समझें तो समझ आता है कि इसमें अधिकांश हमले पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुए, या अधूरे रह गए कामों को लेकर है। फिर भी इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र में एक पार्टी या गठबंधन की सरकार का जाना, और दूसरी पार्टी या गठबंधन की सरकार का आना एक लगातार सिलसिला रहता है, और सरकार के कामकाज को इस फेरबदल के साथ सीखना जरूरी रहता है। अगर पिछली सरकार के कार्यकाल की चर्चा ही न की जाए, तो हर सरकार यह सोचकर लापरवाह हो जाएगी कि उसकी गलतियां, और उसके गलत काम उसके कार्यकाल के साथ ही दफन हो जाएंगे। हम तो अपने इस कॉलम में लगातार यह भी सुझाते रहे हैं कि हर सरकार के कार्यकाल के बाद एक जांच आयोग बैठना चाहिए जिसमें आम जनता जाकर उस कार्यकाल के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें कर सके। जिस तरह सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट लगातार बनती है, उसी तरह एक जांच आयोग भी रहना चाहिए जिसके रिटायर्ड जज को निष्पक्ष रूप से नियुक्त करने की एक प्रक्रिया रहनी चाहिए, और उसे अगले एक या दो बरस में पिछले कार्यकाल के सारे भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जैसा जारी करने का अधिकार रहना चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट सरकार के हर विभाग के कामकाज पर नहीं आती, और कुछ चुनिंदा विभागों की चुनिंदा अनियमितताओं पर ही आती है। इसलिए आज छत्तीसगढ़ विधानसभा में सत्तापक्ष पिछली विपक्षी सरकार के कामकाज को जिस तरह कुरेद रहा है, उसे महज संसदीय चर्चा तक सीमित रखने के बजाय हम उसकी न्यायिक जांच की एक नियमित प्रक्रिया सुझा रहे हैं।
फिलहाल जो मुद्दे वहां उठे हैं उनमें एक विभाग के सैकड़ों मामले हैं जिनमें गांव-गांव तक शहर के वार्ड-वार्ड तक पानी सप्लाई के अधूरे पड़े प्रोजेक्ट हैं। कम शब्दों में अगर कहा जाए तो जहां न पानी का कोई स्रोत था, न पाईप लाईन डली थी, वहां टंकियां बना दी गईं। इस तरह के अधूरे काम सरकारों के अनगिनत विभागों में होते हैं। हमने पिछले हफ्तों में इसी जगह पर लिखा था कि स्वास्थ्य विभाग सरकारों का एक सबसे भ्रष्ट विभाग रहता है, और छत्तीसगढ़ के अस्तित्व की इस चौथाई सदी में हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि जिन जगहों पर विशेषज्ञ डॉक्टर और टेक्नीशियन नहीं हैं, वहां के लिए मशीनें खरीद ली गईं, जहां ऐसे लोग हैं, वहां मशीनें नहीं ली गईं, जहां मशीनें नहीं हैं, उनके लिए केमिकल खरीद लिए गए, इस तरह जहां भूत नहीं है, वहां पीपल खरीद लिया गया, और जहां पीपल है, वहां भूत नहीं खरीदे गए। यह सिलसिला दूसरे भी कई विभागों में चलते रहता है। कहीं पर फ्लाईओवर बनना है, तो उसमें आने वाली कुछ जमीन खरीदे बिना काम शुरू हो जाता है, कहीं पुल की सडक़ बनती है, तो पुल नहीं बनता, कहीं पुल बनता है, तो सडक़ नहीं बनती। इस तरह का बेमेल काम बहुत से विभागों में होता है। अभी एक-दो दिन पहले ही हमने इसी जगह लिखा है कि शहरों में पानी की सप्लाई बढऩे के आंकड़े सरकार के पास रहते हैं, लोगों के निजी ट्यूबवेल का अंदाज भी सरकार के पास रहता है, लेकिन नालियों के निकासी के पानी को साफ करने की क्षमता इस अनुपात विकसित नहीं की जाती। एक तरफ आने वाले कई बरसों के लिए पानी सप्लाई की योजना के आंकड़े रहते हैं, लेकिन घरों और दूसरी जगहों से निकलने वाले गंदे पानी के आंकड़ों में इस बढ़ी हुई सप्लाई के आंकड़े नहीं जोड़े जाते, मानो यह भाप बनकर उड़ जाने वाला पानी हो।
सिर्फ एक सरकार से दूसरी सरकार तक गलतियों और गलत कामों के आंकड़े ठीक नहीं है, इन्हें एक तर्कसंगत अंत तक ले जाना जरूरी है, और सच तो यह है कि सरकार एक स्थाई मशीनरी रहती है, जिसे राजनीतिक फेरबदल से परे भी लगातार अपना काम करना चाहिए, ऐसे में राजनीतिक-भ्रष्टाचार के अलावा और कौन सी वजह हो सकती है जिसकी वजह से सरकारी अफसर और बाकी अमला गलत तरीके से काम करें। हमारा ख्याल है कि जिम्मेदार अफसरों पर जब तक कड़ी कार्रवाई, और उनसे वसूली का स्थाई और नियमित इंतजाम नहीं होगा, जनता के खून-पसीने से आए हुए, उसकी हक के पैसों की ऐसी बर्बादी जारी रहेगी। चूंकि निर्वाचित विधायक बनकर मंत्री बनने वाले नेताओं के दस्तखत बहुत कम फाईलों पर रहते हैं, इसलिए अधिकतर वित्तीय जिम्मेदारी अफसरों की ही रहती है। सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि अफसरों के भ्रष्टाचार पूरी तरह साबित होने लायक रहने पर भी सरकार जांच की इजाजत नहीं देती, इजाजत देती है तो जांच को उसी तरह भ्रष्ट कर दिया जाता है जिस तरह भूपेश सरकार में नान मामले में शुक्ला-टूटेजा को बचाने के लिए धरती से आसमान तक को एक कर दिया गया था, और जांच रिपोर्ट अगर पूरी तरह भ्रष्ट-अफसर के खिलाफ रहती है, तो भी सरकार मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं देती। मुकदमा शुरू होता है, तो उसके बाद निचली अदालत से सजा पाकर भी ऊपर की अदालत में अपील का जो लंबा सिलसिला चलता है, उसके ऊपर भ्रष्ट और दुष्ट अफसरों को इतना भरोसा रहता है कि उनके जीते-जी उन्हें जेल नहीं जाना पड़ेगा। इस भरोसे को तोडऩे की जरूरत है। हर सरकार के अपने कुछ पसंदीदा भ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन दूसरी पार्टी के पसंदीदा भ्रष्ट लोगों को सजा दिलवाने और जेल भिजवाने का काम तो किया ही जा सकता है। इससे भी सरकार के भीतर गंदगी कुछ छंटेगी, और भ्रष्ट लोगों का हौसला कुछ पस्त होगा।
फिलहाल सरकार के हर विभाग में, हर प्रोजेक्ट में सीएजी के ऑडिट की तरह यह जांच होनी चाहिए कि बिना तैयारी के टुकड़े-टुकड़े में सरकार की रकम कैसे बर्बाद की जाती है। आज नई चमचमाती सडक़ बनती है, और दो दिन के भीतर पाईप या केबल डालने के लिए उसे खोद दिया जाता है। आज जहां डामर की सडक़ बनी है, उसके ऊपर साल-दो-साल में सीमेंट की सडक़ बनाई जाती है, और जहां सीमेंट की सडक़ रहती है उस पर डामर चढ़ाया जाता है। सडक़ किनारे की फुटपाथी जमीन पर कभी पेवर ब्लॉक लगाए जाते हैं, तो कभी उनके ऊपर सीमेंट या डामर चढ़ा दिया जाता है। जनता के पैसों की ऐसी बर्बादी को लेकर जनता की तरफ से भी एक ऑडिट होना चाहिए, सरकार के भीतर भी किसी भी खर्च की मंजूरी के पहले उसके पहले और बाद की कड़ी को जांचने की जिम्मेदारी तय होना चाहिए कि यह खर्च काम आ पाएगा या नहीं, या आगे-पीछे की कडिय़ों के बिना अधूरा पड़े रह जाएगा। दिक्कत यह है कि जो नेता और अफसर इस सरकार या पिछली सरकार में ऐसे तमाम घोटालों के लिए जिम्मेदार रहते हैं, वे शान से अपना हँसता हुआ नूरानी चेहरा कैमरों के सामने दिखाते हुए घूमते रहते हैं, और जनता के पैसे सरकार उसी अंदाज में डुबाती है जिस अंदाज में चिटफंड कंपनियां डुबाती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी से कुछ घंटे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के बीच हुई मुलाकात एक बहस में बदलते हुए जिस तरह मीडिया के कैमरों के सामने आई है, और जिस तरह से उसका वीडियो चारों तरफ फैला है, वह हक्का-बक्का करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों बैठकर जिस तरह से यूक्रेन के राष्ट्रपति पर दबाव डाल रहे थे, यूक्रेन के राष्ट्रपति को अमेरिका की मनमानी शर्तों को मानने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे थे, वह भयानक था। अमेरिकी विदेश मंत्री भी लगातार यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित करने पर लगे हुए थे। इसके पहले ऐसा कोई नजारा दो देशों के प्रमुख लोगों के बीच खड़ा हुआ हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। और खासकर जब किसी दूसरे देश का राष्ट्रपति आया हो तो उस मेजबान दफ्तर के मुखिया को मेहमान के साथ ऐसा बर्ताव कभी भी नहीं करना चाहिए। यह कूटनीति अगर तो छोड़ दें, तो भी यह तो सामान्य शिष्टाचार के भी खिलाफ है। जिस तरह से यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित करके वहां से तकरीबन निकाल ही दिया गया, उससे यह पता चलता है कि अमेरिका आज पूरी दुनिया के लिए किस-किस्म का हमलावर तेवर रखता है और किस तरह वह पूरी दुनिया को एकध्रुवीय बनाकर चलना चाहता है, ताकि सब कुछ उसकी मर्जी से हो।
यूक्रेन को नाटो के सदस्य यूरोपीय देशों ने फौजी मदद की थी जिसकी वजह से वह रूस के हमले के सामने खत्म हो जाने के बजाय उसे एक आत्मरक्षा की जंग में तब्दील कर पाया था। और पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पूरी तरह से यूक्रेन के साथ खड़े रहने का वायदा किया था, और ऐसा ही वायदा नाटो के दूसरे यूरोपीय सदस्यों ने भी किया था। यही वजह है कि तीन दिनों में जंग को खत्म कर देने का रूसी राष्ट्रपति पुतिन का दावा तीन बरस बाद भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया। लेकिन ट्रम्प ने इस बात को चुनाव के पहले ही एक बहुत बड़ा मुद्दा बनाया था कि वे यूक्रेन की जंग को 24 घंटे में खत्म करवा देंगे, अमेरिका का जो पैसा यूक्रेन को जा रहा है उसको खत्म कर देंगे, और उन्होंने ठीक वही किया है। उन्होंने चुनाव के पहले अमेरिकी जनता के सामने जो वायदा किया था वह उसी को पूरा कर रहे हैं। लेकिन इससे दुनिया का नक्शा जिस तरह से बदल रहा है, वह अभी किसी को समझ नहीं पड़ रहा है। आज हालात यह है कि दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन चले आ रहे रूस और अमेरिका, यूक्रेन जैसे सबसे बड़े मुद्दे पर एक साथ दिख रहे हैं। ट्रम्प सौ कदम आगे जाकर आज रुस का वकील बन बैठा है, और उसे उसके यूक्रेन पर अवैध कब्जे पर मालिकाना हक दिलाने का फैसला लिखने वाले जज भी बन गया है, और जल्लाद भी। और तो और, जो चीन और अमेरिका एक दूसरे के मुकाबले खड़े रहते हैं, वह चीन भी अमेरिका और रूस के साथ इस मामले पर खड़ा हो गया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति की दखल से, गुंडागर्दी से यह शांति समझौता किया जाए। दरअसल यह कोई शांति समझौता है नहीं, यह यूक्रेन को रूस के हाथ बेच देने की एक रणनीति है और यूक्रेन की खदानों पर कब्जा करने के लिए जिस बेशर्म अंदाज से अमेरिकी राष्ट्रपति ने धमकी दी है, उसने तो अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार को पूरी तरह से खत्म कर दिया है।
कल की बैठक में भी ट्रम्प ने जेलेंस्की को जिस तरह से यह बार-बार कहा कि वहां की खदानों का आधा हिस्सा अमेरिका के हवाले किया जाए ऐसा तो दुनिया में किसी देश ने किसी देश से नहीं कहा था। फिर जो अमेरिका अपने देश के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों की बड़ी बात करता है जिसने बड़ी सी स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी लगाकर रखी है, वह यूक्रेन की लिबर्टी को, फिलिस्तीन की लिबर्टी को, और दुनिया में जो देश ट्रंप को नापसंद होगा उन तमाम देशों की लिबर्टी को जिस अंदाज में खत्म कर रहा है, बंदूक की नोंक पर, परमाणु बमों की नोंक पर, आर्थिक प्रतिबंधों की नोंक पर जिस तरह से खत्म कर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि अमेरिका को अब किसी स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की जरूरत नहीं है। आज तो खुद अमेरिकी जनता की कोई लिबर्टी देश के भीतर नहीं बची है। राष्ट्रपति ट्रंप का एक गैर सरकारी सलाहकार जो कि निर्वाचित संसद तक नहीं है, वह एलन मस्क अपनी सनक से यह तय कर रहा है कि किस तरह लाखों अमेरिकियों की नौकरी खत्म हो जानी चाहिए, और किस तरह दशकों से अमेरिका की मदद से दुनिया के दूसरे देशों में जिस तरह एड्स के मरीजों को दवाइयां मिल रही हैं, एड्स की जांच हो रही है, उन सबको यूएसएड नाम की संस्था की ग्रांट पूरी तरह खत्म कर दी गई है। एड्स के ऐसे तमाम मरीज के लिए जो मदद जाती थी उसको खत्म कर दिया गया है, आज उन दूसरे मरीजों के लिए रातों-रात कोई दूसरा इंतजाम भी नहीं हो सकता। यह समझ आता है कि अमेरिका ने लंबे समय से चली आ अपनी परंपरागत अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही को पल भर में पहने हुए कपड़े की तरह उतारकर फेंक दिया है।
अभी इस मामले के एक दूसरे सकारात्मक और दिलचस्प पहलू की तरफ देखना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति की ऐसी बदसलूकी के बाद राष्ट्रपति भवन छोडक़र बिना खाना खा निकल गए यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की का यूरोप के कई देशों ने, और वहाँ के बड़े-बड़े देशों ने जिस तरह से साथ दिया है, वह काबिले तारीफ है। दोस्तों को किसी कमजोर वक्त पर पटक नहीं दिया जाता है, यह बात यूरोप की यह देश साबित कर रहे हैं। दूसरी तरफ जो लोग अमेरिका से दोस्ती की वकालत करते हैं उनको यह समझना चाहिए कि ट्रंप के बाद भी अगर कोई इसी तरह का सनकी बददिमाग तानाशाह अगर आएगा, तो वह किसी भी पुरानी दोस्ती, किसी भी पुराने गठबंधन की अपनी भागीदारी को पल भर में खत्म करेगा। फिलहाल हमने बात शुरू की थी यूरोप की, तो यूरोप में जर्मनी और फ्रांस जैसे बड़े देशों ने यह कहा है कि वे यूक्रेन के साथ खड़े हुए हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति ने तथ्य की बात कही है, उन्होंने कहा कि हमला करने वाला रुस है, यूक्रेन नहीं। जर्मनी के चांसलर ने कहा है कि यूक्रेन जर्मनी और यूरोप पर भरोसा कर सकता है। जर्मनी के अगले संभावित चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने एक्स पर एक पोस्ट में जेलेंस्की का साथ देते हुए कहा है कि हमें इस युद्ध में कभी भी हमलावर और पीडि़त को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। पोलैंड ने यूक्रेन का साथ दिया है वहां के प्रधानमंत्री डोनाल्ड टास्क करने खुलकर कहा है कि यूक्रेन अकेला नहीं है, उन्होंने सोशल मीडिया पर यह लिखा- प्रिय जेलेंस्की, प्रिय यूक्रेनी दोस्तों, आप अकेले नहीं हैं। ऐसा ही समर्थन चेक गणराज्य ने भी किया है। फ्रांस के राष्ट्रपति ने कहा है कि रूस आक्रामक है, और यूक्रेन के लोग आक्रामकता के शिकार हैं। उन्होंने कहा कि हमें उन लोगों का सम्मान करना चाहिए जो शुरू से संघर्ष करते रहे। नीदरलैंड्स ने कहा है कि यूक्रेन के लिए उनके देश का समर्थन कम नहीं हुआ है और वह रूस द्वारा शुरू की गई आक्रामकता का अंत चाहते हैं। स्पेन के प्रधानमंत्री ने कहा है-यूक्रेन, स्पेन आपके साथ खड़ा हुआ है।
विश्व इतिहास में मवाली किस्म के किसी राष्ट्रपति, चाहे वह अमेरिका का ही राष्ट्रपति क्यों ना हो, उसका नाम सम्मान से दर्ज नहीं होता क्योंकि दुनिया का इतिहास सभ्यता का इतिहास है, और इस सभ्यता को एक हमलावर सभ्यता की तरफ ले जाने वाले लोगों का नाम कालिख से लिखा जाता है। ट्रम्प का नाम विश्व इतिहास में इस तरह लिखा जाएगा जिस तरह इजराइल के प्रधानमंत्री का नाम लिखा जाएगा, जिस तरह से हिटलर का नाम लिखा गया था, जिस तरह से अफ्रीका के कुछ देशों के तानाशाहों का नाम लिखा गया था, उनकी एक लंबी फेहरिस्त है। लेकिन अमेरिका जो कि अपने तथाकथित लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को लेकर लंबे समय से एक अहंकारी की तरह जीता था, आज उसका अहंकार चूर-चूर हो गया है। उसके निर्वाचित राष्ट्रपति ने मानवता के खिलाफ, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के खिलाफ, अमेरिका की अपनी लंबे समय से की गई प्रतिबद्धता के खिलाफ, जिस तरह की हरकत की है वह बहुत भयानक है। हम इस पूरे मामले की जटिलता पर अभी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं कि आगे क्या होगा, लेकिन हम यूरोप की तारीफ करना चाहते हैं कि जिस तरह से वह एक कमजोर पड़ते हुए देश, यूक्रेन के साथ खड़ा हुआ है, सच के साथ खड़ा हुआ है, हमलावर रूस के खिलाफ खड़ा हुआ है, और बिना ट्रम्प की परवाह किए हुए ट्रम्प की मनमर्जी के खिलाफ भी यूरोप खड़ा हुआ है, यह काबिले तारीफ बात है। अब दुनिया के सामने एक नए तालमेल का मौका आकर खड़ा हुआ है कि रूस और अमेरिका अगर एक हो रहे हैं अगर वह मिलजुल कर एक नया शक्ति संतुलन बनाना चाहते हैं, तो इस गिरोहबंदी के खिलाफ दुनिया के बाकी देशों को अपना भला सोचना चाहिए। वह भला चीन यूरोप और बाकी देश यह किस तरह से कर सकते हैं यह सोचना अभी आसान नहीं है क्योंकि विश्व इतिहास में ऐसी कोई नौबत पहले आई नहीं थी। लेकिन रूस के साथ अपने रिश्ते मजबूत रखते हुए भी चीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक बड़ी ताकत की तरह उभरते चल रहा था, और आगे उसका उभरना जारी रहेगा, ऐसा लगता है। यह तस्वीर बहुत ही धुंध भरी हुई है अभी हमको भी समझ नहीं आ रहा है कि आज से साल 2 साल बाद कौन सा देश किसके साथ रहेगा, लेकिन फिलहाल यह बात तो तय है कि एक मवाली के अंदाज में यूक्रेन के राष्ट्रपति की बाँह मरोडक़र वहां की खदानों पर कब्जा करने की ट्रंप की खुली कोशिश को यूक्रेनी राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया है और यह नौबत एक छोटे कमजोर और जंग झेल रहे देश की बहादुरी बताती है। देखते हैं आगे क्या होता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, सीएसई के एक कार्यकम में कल खुलासे से यह बताया गया कि राजधानी दिल्ली में यमुना के पानी में गंदगी मिलने के पीछे कौन सी वजहें हैं। इसका वैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण देखकर यह हैरानी होती है कि जिन मामलों को दिल्ली में बैठी हुई राज्य और केंद्र सरकारें दोनों देखती हैं, स्थानीय म्युनिसिपलें भी जिसके लिए जिम्मेदार हैं, जहाँ का हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल लगातार जिसे देखता है, उस यमुना का यह हाल कर रखा है। यह विश्लेषण बताता है कि किस तरह गंदे पानी को साफ़ करने के लिए लगाए गए एसटीपी कितने नाकाफ़ी हैं, और बिना साफ़ किया हुआ पाख़ानों और कारख़ानों का पानी सीधे यमुना में जाता है। कमोबेश इसी तरह का हाल देश के अधिकांश शहरों में है जहाँ पर निकलने वाले गंदे पानी के मुक़ाबले एसटीपी की क्षमता बहुत ही कम है। फिर यह सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किसी सरकारी प्लांट की घोषित क्षमता के मुक़ाबले उसका असली काम कितना कम होता होगा। दिल्ली जैसे शहर में यह भी हो रहा है कि इस तथाकथित साफ़ किए गए पानी को संयंत्र से निकालने के बाद फिर गंदे नालों से होते हुए यमुना में ले जाकर छोड़ दिया जाता है। साफ किया पानी फिर गंदे नालों में ! देश की सबसे बड़ी आँखें जिस शहर-राज्य और उसकी नदी पर टिकी हुई है जब उसका यह हाल है, तो छत्तीसगढ़ में अगर गंदे पानी को साफ़ करने की घोषित सरकारी क्षमता भी ज़रूरत से बहुत कम है तो इससे किसी को सदमा नहीं लगना चाहिए।
यह भी समझने की ज़रूरत है कि देश की आजादी के 75 साल का अमृत महोत्सव चल रहा है, और ऐसे में देश के शहरीकरण को शुरू हुए और आगे बढ़े भी पौन सदी हो चुकी है। ऐसे में अगर अब तक शहर की साफ़ पानी की ज़रूरत, और उसी अनुपात में गंदे पानी की निकासी का अंदाज़ लगाकर पानी को साफ़ करने की क्षमता विकसित नहीं की गई है तो यह महज कल्पनाशीलता और योजना की कमी नहीं कहीं जा सकती, यह परले दर्जे की नालायकी भी है। यह उन नदियों के प्रति हिंदुस्तानियों की घटिया दर्जे की लापरवाही भी है जो कहने के लिए नदियों को माँ मानते हैं, नदियों की पूजा करते हैं, और नदियों में डुबकी लगाकर अनगिनत त्योहार मनाते हैं। एक तरफ़ माँ कहना और दूसरी तरफ़ उसे गंदगी और जहर से पाट देना यह काम सबसे ग़ैर ज़िम्मेदार और अहसानफ़रामोश औलादें ही कर सकती हैं।
छत्तीसगढ़ में भी नदियों का प्रदूषण सिर चढ़कर बोलता है, कारखानों का प्रदूषण तो नदियों में मिल ही रहा है, शहर और गांव भी अपनी तमाम गंदगी तक़रीबन बिना साफ़ किए नदियों में छोड़ रहे हैं, जबकि सबसे आसान तरीका यह होता कि जिस दिन शहर-कस्बे की पानी की ज़रूरत का अंदाज़ लगाया जाता, उसके लिए योजना बनाई जाती, तो उसी योजना के एक दूसरे हिस्से की तरह गंदे पानी को साफ़ करने की क्षमता भी विकसित की जाती।
हिंदुस्तानियों ने निजी रूप से, और सार्वजनिक रूप से गंदगी में जीने की एक आदत डाल ली है। गंदगी के लिए जितना बर्दाश्त हमारे मिजाज में पनप चुका है, वह दुनिया के सभ्य देशों के लोगों को हैरान कर सकता है। जब गंदगी में रहने की नीयत हो, तब नियति भी वैसी हो जाना तय रहता है। हिंदुस्तान सड़कों पर, सरकारी इमारतों में, बाक़ी तमाम सार्वजनिक जगहों पर जितनी गंदगी करता है और उसमें जीता है, वह नदियों के साथ हमारे बर्ताव को भी तय करता है। इस देश में जिसको माँ माना जाता है उसको जिस तरह घूरों पर खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, उससे गंगा-यमुना माँ सरीखी नदियों के साथ हमारा बर्ताव भी तय होता है। हाल ही में हुए कुंभ में सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा, और उसके सबसे अधिक पवित्र समझे जाने वाले त्रिवेणी संगम में श्रद्धालुओं ने जिस दर्जे की गंदगी की है वह स्तब्ध कर देती है। लेकिन लोगों को अपनी श्रद्धा से अधिक महत्व किसी और चीज का नहीं लगता, श्रद्धा के केंद्र को साफ़ रखना भी महत्वपूर्ण नहीं लगता। बात सिर्फ़ जनता के सफ़ाई रखने की नहीं है क्योंकि शहरीकरण से जुड़ी गंदगी का इलाज निकालना सरकारों के ही बस का है, और जनता व्यक्तिगत हैसियत से इस बड़े काम को अपने स्तर पर पूरा नहीं कर सकती। शहरों में पानी की सरकारी सप्लाई से परे भी पानी की बहुत बड़ी तादात निजी ट्यूबवेल से निकले हुए पानी की रहती है जिसका अंदाज भी सरकार के पास नहीं रहता। इसलिए सरकार को गंदे पानी के निपटारे की अपनी क्षमता, पानी सप्लाई की अपनी क्षमता से बहुत अधिक आंकनी चाहिए, और एसटीपी का इंतज़ाम उस हिसाब से करना चाहिए।
जो देश, और पूर्वोत्तर भारत के जो प्रदेश नदियों को माँ नहीं मानते हैं महज़ नदी मानते हैं, वहाँ के पारदर्शी और साफ़ पानी को देखकर गंगा मैया की आँखों में आँसू आते होंगे, और उन्हीं आँसुओं से गंगा सहित दूसरी नदियों में बाढ़ आती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ बरसों में लगातार सायबर मुजरिमों ने जिस बड़े पैमाने पर संगठित जालसाजी और धोखाधड़ी की है, उसके शिकार आम लोग तो हैं ही दूसरी तरफ़ दर्जन भर से अधिक बैंक और हर मोबाइल कंपनी का भी ऐसे जुर्म का शिकार होना यह सवाल करता है कि यह संस्थाएं जुर्म की शिकार है या जुर्म में भागीदार है। चिटफंड कंपनियों से लेकर महादेव सट्टे तक और अब तरह-तरह की शेयर ट्रेडिंग के फ्रॉड और क्रिप्टोकरेंसी के नाम पर धोखाधड़ी के पैसों के लिए जिस तरह इस राज्य में राष्ट्रीयकृत और निजी बैंकों में दसियों हज़ार खाते खोले गए हैं और उनसे हजारों करोड़ रुपए बाहर भेजे गए हैं उससे हिंदुस्तान की बैंकिंग की साख बुरी तरह ख़त्म होती है। दूसरी तरफ़ मोबाइल कंपनियों से जिस तरह दसियों हज़ार सिम कार्ड जाली कागजातों या दूसरे बेक़सूर लोगों के कागजातों से हासिल किए गए उससे यह सवाल उठता है कि सिम कार्ड के लिए जिस तरह के पहचान पत्र जरूरी होने का दावा मोबाइल कंपनियों और सरकार की तरफ़ से किया जाता है क्या वह सिर्फ़ एक ढकोसला है?
देश में पिछले दस बरस में मोदी सरकार ने जिस बहुत बड़े पैमाने पर तमाम चीजों को डिजिटल और ऑनलाइन किया है उसके बाद इस तरह के सायबर फ्रॉड और जुर्म से लोगों को बचाने की जिम्मेदारी तो सरकार की ही होनी चाहिए थी। लेकिन झारखंड के एक छोटे से जामताड़ा में पूरी तरह से अनपढ़ नौजवान भी जिस बड़े पैमाने पर देश भर में ठगी और धोखाधड़ी करते हैं, जिसे लेकर नेटफ़्लिक्स को एक सीरिज बनाने का मौक़ा मिलता है, उससे यहाँ सवाल उठता है कि क्या कोई हिफ़ाज़त असरदार भी है?
देश में अलग-अलग किस्म के जुर्म का जो पैसा बैंकों के खच्चर-खातों में जमा किया जा रहा है, और जिसे क्रिप्टो करेंसी या हवाला नेटवर्क की शक्ल में देश के बाहर भेज दिया जा रहा है उसे बरसों तक जारी देखना सरकार की क्षमता पर सवाल उठाता है। आज जब पूरी की पूरी बैंकिंग सरकार एयर आरबीआई के पूरे नियंत्रण में है, जब दूरसंचार कंपनियों का दिया हुआ हर कनेक्शन पूरी तरह सरकार के नियमों के तहत होता है, तो फिर यह कैसे हो जाता है कि फर्जी नाम से सिम कार्ड लेकर गरीबों के बैंक खाते किराए पर लेकर उनके पहली नजर में ही संदिग्ध दिखने वाले करोड़ों रुपए की आवाजाही होने लगती है और न तो बैंकिंग की कोई सुरक्षा जांच इस पर अलर्ट खड़ा करतीं, और न ही कोई भी सरकारी एजेंसी समय रहते ऐसे खच्चर-खातों पर कोई कार्रवाई करती। यह आम जनता की ज़िंदगी में सबकुछ डिजिटल और सबकुछ ऑनलाइन कर देने के बाद उसे बिना हिफ़ाज़त खुले आसमान तले बेसहारा छोड़ देने सरीखा काम है। अब तो यह भी साफ़ होते चल रहा है कि सायबर जुर्म से परे भी दूसरे कई किस्म के बैंकिंग फ्रॉड में बैंकों के अफसर खुलकर शामिल मिले हैं, और इससे समझ पड़ता है कि बैंकों का अपना काम किस हद तक खोखला है? देश में अनपढ़ मजदूरों और ग़रीब लोगों के दसियों करोड़ बैंक खाते हैं और ऐसे खातों को भाड़े पर लेकर संगठित सायबर-मुजरिम जिस तरह जुर्म का पैसा इनमें इकट्ठा करते हैं वह बैंकों की मामूली सावधानी से भी पकड़ में आ जाना चाहिए था, लेकिन धीरे-धीरे अब यह समझ पड़ रहा है कि बैंक महज लापरवाह नहीं थे बल्कि जुर्म में भागीदार थे। भारत सरकार को अनाथ और बेसहारा से पड़े हुए दसियों करोड़ बैंक खातों की हिफ़ाज़त के बारे में सोचना चाहिए कि ये खच्चर-खातों की तरह भाड़े पर मुजरिमों का औजार बनने का ख़तरा उठा रहे हैं। इसके पहले कि एक-एक करके ऐसे दसियों लाख और बैंक खाते खच्चर-खातों में तब्दील हो जायें सरकार को जुर्म का यह सिलसिला रोकना चाहिए। कुछ दिन पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहा था कि देश में 19 लाख खच्चर-खातों की शिनाख्त की जा चुकी है। अब छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में जिस बड़े पैमाने पर ऐसे म्यूल-अकाउंट पकड़ा रहे हैं, उससे यही समझ पड़ता है कि देश में आर्थिक अपराधों की हालत देखते हुए आर्थिक अपराधों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग से एजेंसी बनाई जाए ताकि करोड़ों लोगों के हजारों रुपए लुट जाने के पहले ही इन्हें रोका जा सके। देश में डिजिटलीकरण और ऑनलाइन काम को जिस बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया है उसी के अनुपात में हिफाजत बढ़ाने की भी जरूरत है वरना ग़रीब इसी तरह लुटते रहेंगे, मुजरिम दूसरे देशों में करोड़ों-अरबों रुपए भेजते रहेंगे। छत्तीसगढ़ का ही सौरभ चंद्राकर नाम का एक मामूली नौजवान जिस तरह महादेव सट्टा कारोबार खड़ा करके दसियों हज़ार करोड़ रुपए कमा चुका है, वह केंद्र सरकार को एक बहुत बड़ी चुनौती है। अभी तक कुछ मामूली लोगों को ही इसमें पकड़ा गया है और लूट का एक जरा सा हिस्सा ही बरामद हो पाया है। केंद्र सरकार को एक क्रांतिकारी कार्रवाई करने की जरूरत है।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से कल हुई मुलाक़ात में जो मतभेद सामने आए वे वैचारिक नहीं थे, तथ्यों को लेकर थे। यूक्रेन के मुद्दे पर ट्रंप उसी तरह आदतन झूठ बोलते रहे जिस तरह वे अमरीका के भीतर के अनगिनत मुद्दों पर बोलते रहे हैं, और बाक़ी दुनिया के बारे में भी झूठ बोलने का उनका लंबा इतिहास है। ट्रंप ने जब यह कहा कि यूरोपीय देशों ने यूक्रेन को फ़ौजी मदद दी थी और इसके बदले में वे यूक्रेन से अब पैसे वसूल रहे हैं तो मैक्रों ने मीडिया की मौजूदगी में ही ट्रम्प को दुरुस्त किया और कहा कि यूरोप यूक्रेन से उसे दी गई फौजी मदद को वापिस नहीं ले रहा है बल्कि उसने जो हिस्सा यूक्रेन को कर्ज की शक्ल में दिया था उसे ही वापस लेगा। यह सुनकर ट्रम्प चुप रहे और हामी भरते रहे। मतलब यह कि उनके पास मैक्रों के कहे हुए का कोई जवाब नहीं था। ट्रंप योरप से यूक्रेन-रूस मुद्दे पर और टैरिफ जैसे दूसरे कई मुद्दे पर भी ठीक उसी तरह दूर होते चले जा रहे हैं जिस तरह आज धरती के ध्रुवों पर बड़े-बड़े हिमखंड अलग होकर बह जा रहे हैं। योरप के एक सबसे बड़े देश फ्रांस के राष्ट्रपति की ट्रंप से मुलाकात योरप के साथ उनका पहला बड़ा औपचारिक संपर्क था और इसमें जिस तरह मीडिया के कैमरों के सामने यूक्रेन की खदानों पर कब्जे की अमरीकी खूनी नीयत उजागर हुई है उससे भी ट्रम्प जैसे बेशर्म को कोई फर्क पड़ता हो ऐसा नहीं लगता। ट्रम्प दशकों बाद एक बहुत ही प्यासे साम्राज्यवादी देश की तरह खुलकर सामने आए हैं और पूरी दुनिया में लोकतंत्र को बढ़ावा देने का अमरीका का पुराना नारा उन्होंने पैरों तले रौंद दिया है।
ट्रंप की शक्ल में अमरीकी वोटरों ने अपने ख़ुद के लिए चार बरसों की एक बहुत ही घटिया दर्जे की मुसीबत चुनी है, और दुनिया के लिए एक ऐसा तानाशाह चुना है जो एक ऐतिहासिक देश फ़िलिस्तीन की दसियों लाख जनता को उठाकर उसके पड़ोसी देशों में फेंक देने पर आमादा है, और जो फ़िलिस्तीन को एक रियल एस्टेट प्रोजेक्ट बनाना चाहता है, किसी भी दूसरे ट्रम्प टावर को तरह। दुनिया ने ऐसा कोई देश देखा नहीं था जो कि इस बेशर्मी के साथ किसी देश को मलबे का ढेर बताते हुए उसे वहाँ के नागरिकों के बिना, सैलानियों के लिए एक शानदार सैरगाह बनाने की बात इस बेशर्मी से करता हो जिस बेशर्मी से किसी देश के सबसे बड़े बाहुबलि दूसरों की जमीन पर अवैध कब्जा करके इमारत बनाते हैं। ट्रंप ने पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन के कार्यकाल में अमरीका से रूस को भेजी गई सैनिक मदद का बिल बनाकर यूक्रेन को थमा दिया है, और हिंदुस्तान को कोई हैरानी होनी नहीं चाहिए कि 1960 के दशक में अमरीका से भारत को मिले हुए अनाज की मदद के एवज में ट्रंप भारत के ताजमहल पर कब्जे का एक नोटिस भेज दें। भारत में उस वक्त भुखमरी की नौबत थी और अमरीका ने उसके पास का जरूरत से अधिक गेहूं भारत को रियायती दाम पर दिया था, ट्रंप हो सकता है कि पिछली एक सदी में अमरीका से जिस देश को जो मदद मिली हो उसके खाता बही देखकर बिल बनाने में रातों की नींद ख़राब कर रहा हो।
ट्रंप इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी मिसाल है, कि कोई एक देश अपना नेता चुनते हुए किस तरह बाक़ी दुनिया पर एक तानाशाह थोप सकते हैं। अमरीकियों ने पूरी दुनिया के लिए बर्बादी लाने वाला यह जो चुनाव किया है इसके लिए अगले चार बरस वे ख़ुद भी अफ़सोस करेंगे ऐसा लगता है क्योंकि अमरीका के भीतर ट्रंप के फ़ैसले लोगों को जिस बड़े पैमाने पर बेरोज़गार कर रहे हैं वह भयानक है, इसके अलावा अमरीका का जो तबका लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करता है वह गहरे सदमे का शिकार है कि उनका देश आज देश के भीतर और देश के बाहर किस हद तक अलोकतांत्रिक, हमलावर, और दूसरे के खून का प्यासा फौजी तानाशाह बन चुका है।
ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया की तस्वीर को ऊन के बहुत उलझे हुए लच्छे के तरह करके रख दिया है जिसमें भविष्य का कोई सिरा किसी को न दिखायी पड़ रहा है, न समझ आ रहा है। ट्रंप की चुनावी जीत के बाद भी दुनिया में कौन यह सोच सकते थे कि महीने भर के भीतर ही ट्रंप अमरीका के परंपरागत और लंबे समय के साथियों, नाटो के सदस्यों को कचरे की टोकरी में फेंककर रूस के साथ हो जाएगा और चीन अमरीका के इस रुख की तारीफ़ करने लगेगा। यूक्रेन एक हैरतअंगेज मिसाल बन गया है कि दुनिया की तीनों महाशक्तियां किस तरह एक साथ आ गई है, और दुनिया में अब शक्ति संतुलन के पुराने तमाम गणित फेल हो गए हैं। यह कुछ वैसा ही हुआ है कि धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के चुंबक के दो सिरे मिलकर एक हो जाएं और दुनिया के अंतरराष्ट्रीय संबंध गाजा के मलबे में तब्दील हो जाएं। ट्रंप की मनमानी, बेदिमागी, और तानाशाही ने दुनिया को आज विश्व इतिहास के सबसे बड़े असमंजस के सामने खड़ा कर दिया है, दुनिया के कोई भी महत्वपूर्ण देश ऐसी नौबत की कल्पना भी नहीं कर पाए होंगे। ख़ुद इजराइल ने भी आज तक अपने सबसे सुखद सपने में भी यह नहीं सोचा था कि फ़िलिस्तीनियों को उनके गाजा से बाहर कर वहाँ पर कोई सैरगाह बनायी जा सकती है। ट्रंप अपने दोस्तों के सुखद सपनों से अधिक, और उनके दुःस्वप्नों से अधिक, दोनों किस्म की नौबत दुनिया पर उसी अंदाज़ में थोप रहा है जिस तरह उत्तर भारत में एक आम हिन्दुस्तानी सड़क पर तंबाकू की पीक उगल देता है। इस सनकी, बदजुबान वाले तानाशाह ने धरती को अपनी सनक का पीकदान बना छोड़ा है और वह धरती के ग्लोब को अपनी मेज पर घुमा-घुमाकर देख रहा है कि वह अगली पेशाब किस देश पर करे।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों सब्जी उगाने वाले किसानों की एक मुसीबत आई हुई है कि टमाटर की फसल खेतों से तोडऩे में जो पैसा लगता है और बाजार तक पहुंचाने में उतना खर्च भी नहीं निकल पा रहा है। टमाटर इतने सस्ते हो गए हैं कि उनके खरीदार नहीं रह गए, और किसान उन्हें तोडक़र बाजार लाकर बेच नहीं पा रहे। यह नौबत हर बरस कुछ महीनों के लिए सुनाई देती है जब छत्तीसगढ़ के कई इलाक़े परंपरागत रूप से टमाटर की फसल सडऩे के लिए खेतों में छोड़ देते हैं, कई जगह विरोध करने के लिए और अपना तेवर दिखाने के लिए उन्हें सडक़ों पर फेंक देते हैं। हमारी पूरी जिंदगी यह देखते हुए गुजर गई कि फल-सब्जियों के लिए, प्रदेश की दूसरी वनोपज के लिए, ऐसी फूड इंडस्ट्री लगाई जाए जो कि लोगों को रोजगार भी दे सके और छत्तीसगढ़ में होने वाली, खेतों या जंगलों की फसल का बेहतर इस्तेमाल भी कर सके अभी जैसे बस्तर इमली के लिए जाना जाता है। इस प्रदेश के बहुत से इलाकों में महुआ बहुत अधिक होता है लेकिन इन सबका इस्तेमाल यहां से बाहर जाकर होता है। ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के कुछ स्वसहायता समूह कुछ छोटे-मोटे सामान बनाते ज़रूर हैं, लेकिन उनकी मार्केटिंग का इंतज़ाम ठीक से नहीं होता और उनके ब्रांड की साख नहीं बन पाई है इसलिए भी उनके सामान को ग्राहक नहीं मिल पाते। अभी आईएस प्रदेश को अपनी सीमाएं मालूम हैं कि खेत क्या उगा सकते हैं और वनोपज से क्या-क्या मिल सकता है। लेकिन इन सीमाओं का अपार विस्तार हो सकता है, अगर प्रदेश में जगह-जगह अलग-अलग इलाक़ों में ऐसी फूड इंडस्ट्री लगे जो कि इमली के तरह-तरह के सामान बना सके मशरूम के सामान बना सके जो टमाटर के कैचअप बना सके या टमाटर प्यूरी बनाकर टमाटर केचप और सॉस बनाने वाले करखानों को बेच सके। महुआ में कई तरह का वैल्यू एडिशन किया जा सकता है। यह भी कुछ साल पहले पता लगा कि छत्तीसगढ़ का महुआ दूसरे कुछ देशों में जाकर वहाँ पर उससे शराब बनाई जा रही है जो कि महंगे दामों पर बिकती है। अभी सवाल यह भी उठता है कि महुआ के पेड़ के नीचे एक जाली लगा दी जाती है जिससे कि महुआ मिट्टी और कंकड़ से टकराकर खराब नहीं होता। तो इसमें कौन सी ऐसी हाईटेक की बात है या कौन सा बड़ा पूंजी निवेश इसमें लगता है कि यह काम नहीं किया जा सकता सरकार को यह बात सोचना चाहिए की प्रदेश की उपज जो है उसमें क्या-क्या वैल्यू एडिशन किया जा सकता है और ऐसा भी नहीं है कि इनसे जो सामान बनाया जा सकता है उनकी स्थानीय खपत नहीं है आज भी प्रदेश के बाहर से इमली की चटनी, टमाटर का सॉस कई तरह की चीजें मशरूम का पाउडर कई तरह की चीजें प्रदेश के बाहर से यहां आती ही है और इनकी यहां उपज भी बढऩे लगेगी अगर छत्तीसगढ़ में इन चीजों की प्रोसेसिंग इकाईयां लगने लगेंगी और हो सकता है कि यह प्रोसेसिंग इकाइयां अपने खुद के ब्रांड विकसित न कर सके, लेकिन देश के जो स्थापित ब्रांड हैं वे भी कच्चा माल अलग-अलग प्रदेशों से इसी तरह खरीदते हैं।
इन दिनों ना सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में मिलेट्स का चलन बहुत बढ़ा हुआ है और ऐसा माना जा रहा है की यह आम अनाज के मुक़ाबले अधिक सेहतमंद है। छत्तीसगढ़ में मिलेट्स की ढेरों संभावनाएं हैं, यहां पर कांकेर जैसी कुछ जगहों पर मिलेट्स की प्रोसेसिंग यूनिट लगी हैं। इसका स्थानीय बाजार है, ऑनलाइन बाजार भी बहुत विकसित हो चुका है। अब यह सरकार के ऊपर निर्भर करता है कि वह मिलेट्स की फसल को, उसकी प्रोसेसिंग को पैकिंग और मार्केटिंग को कामयाब कैसे करें। इससे असंगठित कृषक वर्ग जो है उसका रोजगार बढ़ेगा उसकी कमाई बढ़ेगी, वरना आज छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पूरी की पूरी कृषि, सिर्फ धान की फसल पर टिक गई है क्योंकि सरकार बहुत महंगा दाम देकर उस धान को खरीद लेती है। अभी इसके साथ-साथ एक एक दो और बातों पर चर्चा जरूरी है। छत्तीसगढ़ से कोसे के कपड़ों का पूरी दुनिया में बाजार बना हुआ है। छत्तीसगढ़ में तो यह विख्यात है ही, यहां इसका घरेलू बाजार भी बहुत है, लेकिन महानगरों में जाकर भी यहाँ का कोसा बिकता है और दुनिया के बाकी देशों में भी इसके दाम बहुत अच्छे मिलते हैं। यह पूरा का पूरा काम बिना किसी हाईटेक के, बिना अधिक बिजली या रसायन के इस्तेमाल के, कोसे के, रेशम के, ककून पेड़ों पर कीड़ों को पालकर तैयार किए जाते हैं। रेशम के कीड़ों से और घरों में महिला, बच्चे, बूढ़े सब लोग मिलकर इन ककून से कोसा बनाने का काम करते हैं। बुनकर गांव गांव में हैं। प्रदेश के कुछ इलाक़े इसके लिए विख्यात हैं और परंपरागत, पारिवारिक बुनकरों की बहुत बस्तियाँ भी हैं। छत्तीसगढ़ के बने हुए कोसा टसर का बाजार बहुत बड़ा है पहनाने के कपड़ों के अलावा जो बहुत रईस तबका जिस तरह से सोफे के कपड़े, परदे के कपड़े, सिल्क, टसर, कोसे के लेने लगे हैं, उसका भी बाजार बहुत बड़ा है छत्तीसगढ़ को एक टेक्सटाइल प्रोड्यूसिंग स्टेट की तरह हैंडलूम के कपड़ों को बनाने वाले राज्य की तरह विकसित करने की अपार संभावना है यहां लोगों के पास परंपरागत रूप से यह होना रहे यहां का बाजार बाहर बना हुआ है यहां का ब्रांड भी बाहर छत्तीसगढ़ का कोसा चला हुआ है अभी यह सरकार पर निर्भर करता है और इन सबसे चाहे जो बात से हमने शुरू की है, वनोपज हो या सब्जियों की प्रोसेसिंग हो, वाहन से लेकर सिल्क और कोसे के कपड़ों तक, इन सबसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक मदद मिलेगी और इन दिनों दुनिया भर में लगातार यह चलन बढ़ते चल रहा है कि किस तरह से रसायन फ्री कपड़ों का उत्पादन हो, किस तरह से लोग अभी ऑर्गेनिक सब्जिय़ाँ या ऑर्गेनिक फल खाने लगे हैं। छत्तीसगढ़ में धान से परे भी, सरकारी मदद से अनुदान से परे भी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की बहुत जरूरत है।
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छत्तीसगढ़ उन राज्यों में से एक है जहां सवा साल में चार चुनाव होते हैं। पहले विधानसभा का चुनाव, फिर लोकसभा का चुनाव, फिर नगरीय निकाय, यानी म्युनिसिपलों का चुनाव, और आखिर में पंचायतों का चुनाव। सरकार के बहुत से जरूरी फैसले नई सरकार आने, नए मंत्रियों में विभाग बंटने, फिर सरकार की पसंद के सचिव और दूसरे अफसर बदलने, नीतियों और कार्यक्रमों के बदलने से सरकारी कामकाज को लेट करते हैं। लेकिन जो काम सबसे अधिक प्रभावित होता है, वह है स्कूली शिक्षा का। मतदाता सूची नवीकरण से लेकर मतदान करवाने तक स्कूली शिक्षक भी झोंक दिए जाते हैं, और प्रदेश की हर सरकारी स्कूल मतदान केन्द्र तो बन ही जाती है। सरकारी शिक्षक किसी भी जिम्मेदारी से मना नहीं कर सकते, और नतीजा यह होता है कि हर पांच बरस में चुनावी साल एक ऐसा आता है जब सबसे कम पढ़ाई होती है, और बच्चों से उसी तरह इम्तिहान देने की उम्मीद की जाती है। इसमें तब दिक्कत और अधिक बढ़ जाती है जब किसी दूसरी पार्टी की सरकार आती है, और वह पाठ्यक्रम बदलने लगती है, या स्कूली इम्तिहान के तरीकों में फेरबदल करती है। यह आखिरी खतरा भी पांच साल में एक बार रहता है, और अगर सत्तारूढ़ पार्टी की निरंतरता बनी रहती है, तो ये तमाम दिक्कतें कुछ कम हो जाती हैं।
अब इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है? मतदातासूचियों से लेकर मतदान केन्द्र और मतदान तक, मतगणना तक, प्रदेश में शिक्षक ही सबसे अधिक संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं, और स्कूली शिक्षा को एक ऐसा काम मान लिया जाता है जिसे जब चाहे तब रोक दिया जाए। कुछेक अदालती आदेशों के बावजूद स्कूली बच्चों को किसी जागरूकता रैली के बैनर थमाकर जब चाहे तब सडक़ों पर निकाल दिया जाता है। स्कूलों में इंतजाम, और स्कूली शिक्षा, यह किसी को ऐसी प्राथमिकता नहीं लगती कि उसमें बाधा रोकी जाए। सरकार के किसी भी काम के लिए जब जरूरत रहती है शिक्षकों से लेकर शाला भवनों तक, पढ़ाई के सारे इंतजाम को झोंक दिया जाता है। अभी म्युनिसिपल और पंचायत चुनावों में कई जगह हालत यह हो गई कि शाला भवनों में जहां मतदान केन्द्र बने थे, वहां पर एक-एक कमरे के बाहर पिछले तीन-तीन चुनावों के मतदान केन्द्रों के नंबर डले थे, और बोर्ड परीक्षा या किसी और इम्तिहान के लिए डाले गए कमरे के नंबर भी लिखे हुए थे। इन नंबरों से यह समझ नहीं पड़ रहा था कि इस चुनाव का बूथ क्रमांक कौन सा है। लेकिन यह नजारा यह भी बताता था कि इस चुनावी वर्ष में प्रदेश की स्कूलों में गैरशिक्षा कामों की कितनी दखल रही। हमेशा से शिक्षकों की यह शिकायत रही कि राज्य या केन्द्र सरकार के जितने तरह के सर्वे जैसे काम रहते हैं, उनमें शिक्षकों को गैरशिक्षकीय कामों में झोंक दिया जाता है, जिससे पढ़ाई प्रभावित होती है, और शिक्षकों का मनोबल भी टूटता है।
स्कूलों में पढ़ाई ठीक से हुए बिना अब इम्तिहान शुरू हो रहे हैं, और हालत यह है कि स्कूलों में 9वीं से 12वीं तक जो व्यवसायिक पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं, उनके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए बाहरी लोगों को अनुबंध पर नियुक्त किया जाना ही अभी तक नहीं हो पाया है, और बच्चे बिना किसी शिक्षण-प्रशिक्षण के इस कोर्स का इम्तिहान देने जा रहे हैं। इसके अलावा इसी बरस नई सरकार ने 5वीं और 8वीं के इम्तिहान बोर्ड से लेना तय किया है। निजी स्कूलें इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट गई हुई हैं, और वहां पर अभी सुनवाई चल रही है। इसके पीछे एक तर्क यह दिया जा रहा है कि शिक्षण सत्र के बीच में यह फैसला लिया गया, और स्कूलों में पढ़ाई बोर्ड परीक्षा के हिसाब से हुई ही नहीं है। इस बार चूंकि सरकार भी नई पार्टी की है, इसलिए परीक्षा प्रणाली और स्कूलों से जुड़ी दूसरी चीजों में कई फेरबदल भी हुए हैं, और इसलिए चुनावी वर्ष का असर बड़ा अधिक देखने मिल रहा है।
दुनिया में जो विकसित देश हैं, वहां पर जिन दो चीजों को समाज में सबसे अधिक महत्व दिया जाता है, उनमें से एक स्कूली शिक्षा है, और दूसरी चिकित्सा व्यवस्था रहती है। राज्य सरकार को ऐसे दीर्घकालीन नीति बनानी चाहिए जिसमें स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर न तो कोई बाधा आए, न उनमें तरह-तरह के प्रयोग किए जाएं, और न ही पढ़ाई के दिनों में किसी तरह की कटौती की जाए। राज्य सरकार को यह भी तय करना चाहिए कि छुट्टियों की अंतहीन लंबी लिस्ट को किस तरह स्कूली शिक्षा के लिए कम किया जा सकता है। कॉलेजों में तो पढ़ाई का बुरा हाल रहता है, और वहां माना जाता है कि झंडे से झंडे तक पढ़ाई होती है, यानी 15 अगस्त से 26 जनवरी के बीच। इसके आगे-पीछे का वक्त इम्तिहान, छुट्टियों, रिजल्ट, और दाखिले में निकल जाता है।
न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि देश के हर प्रदेश में स्कूली शिक्षा को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है, और दक्षिण के राज्य या महाराष्ट्र अपनी स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाकर ही अपनी अगली पीढ़ी को अधिक काबिल बना पाए हैं। जिन राज्यों में नौजवान पीढ़ी की यह बुनियाद ही कमजोर रह जाती है, वहां पर आगे की पढ़ाई में भी उन राज्यों के लोग बेहतर राज्यों की नई पीढ़ी का मुकाबला नहीं कर पाते। स्कूली शिक्षा नीति को राजनीतिक फैसलों से परे, और बड़े जानकार शिक्षाविदों के हिसाब से लिया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक ईसाई स्कूल, सेंट विसेंट पलोटी स्कूल के बाथरूम में बुरी तरह धमाका हुआ। इसमें चौथी कक्षा की एक छात्रा गंभीर रूप से घायल हो गई। जैसे ही एक छोटी बच्ची वहां गई और उसने फ्लैश किया तो उसके साथ ही एक रासायनिक विस्फोट हुआ और धमाके के साथ बच्ची के घायल होने के साथ-साथ आसपास नुकसान भी हुआ। खबरें बताती हैं कि इस स्कूल में पहले भी छात्राएं ऐसी हरकत कर चुकी हैं और चार बार फटाकों से धमाके किए गए हैं। अब घटना बड़ी होने की वजह से मामला पुलिस तक पहुंचा, और जांच हुई, तो जिम्मेदार लड़कियों की शिनाख्त हुई है। इससे जुड़ी दो सनसनीखेज बातें सामने आई हंै, एक तो यह कि ऑनलाइन ऑर्डर करके रसायन बुलाए गए थे। और दूसरी बात यह कि शायद किसी टीचर को सबक सिखाने के लिए विस्फोट की यह साजिश की गई थी। अब बाकी बच्चों के मां-बाप स्कूल पहुंचे हुए हैं कि वहां यह कैसी हिफाजत है।
स्कूली बच्चों का एक हाल अभी छत्तीसगढ़ के ही सरगुजा में सामने आया था जहां सरकार की सबसे अच्छी समझी जाने वाली आत्मानंद स्कूल के छात्र-छात्राओं ने फेयरवेल पार्टी में शराब पी, और शराब की बोतलें लेकर कारों के काफिले में जुलूस निकाला, गाडिय़ों के बाहर टंगे रहकर हंगामा किया, और शहर के टै्रफिक जाम के साथ जब ऐसे वीडियो सामने आए तो कुछ छात्र-छात्राओं को निलंबित किया गया है।
इसके पहले भी छत्तीसगढ़ की सरकारी स्कूलों में जगह-जगह शिक्षकों के शराब पीकर पहुंचने, स्कूल पहुंचकर सबके सामने शराब पीने, शिक्षा विभाग की महिला अधिकारी से मारपीट करने, शिक्षकों के छात्राओं के यौन शोषण करने जैसे तरह-तरह के दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं। अभी चार दिन पहले स्कूल की एक फेयरवेल पार्टी में छात्राओं के साथ किसी अश्लील भोजपुरी गाने पर नाचते हुए प्राचार्य को निलंबित किया गया है। छत्तीसगढ़ का बहुत बड़ा हिस्सा आदिवासी इलाका है, और बहुत सा हिस्सा ग्रामीण स्कूलों का है। यहां पर सरकारी निगरानी बहुत ही कम रहती है, और ऐसे में इस तरह की सामने आने वाली घटनाओं को पूरा नहीं माना जा सकता, और इनकी असल गिनती इनके मुकाबले कई गुना होना तय है।
लेकिन हम बिलासपुर की इस घटना पर लौटें तो आज छात्र-छात्राओं के लिए ऑनलाइन ऑर्डर करके ऐसे रसायन बुलाना आसान है जिससे वे विस्फोट कर सकते हैं। घायल बच्ची के पैर जिस तरह से रसायन से जख्मी हुए हैं, वह भयानक नौबत है। यहां पर दो अलग-अलग सवाल उठ खड़े होते हैं, एक तो यह कि ऐसे रसायनों की बिक्री कैसे रोकी जा सकती है, और दूसरा यह कि स्कूलों में ऐसे सहज खतरों को कैसे रोका जाए? अभी तक तो हम शहरा-कस्बों में चाकू लेकर घुमते मवालियों के हमलों को ही अधिक फिक्र का मानते आए थे, अब यह एक बिल्कुल ही नए दर्जे का बहुत बड़ा खतरा दिख रहा है। ईसाई मिशनरी स्कूलों में अनुशासन बेहतर माना जाता है, लेकिन वहां पर छात्राओं ने किसी टीचर को सबक सिखाने के लिए स्कूल में बार-बार ऐसी हरकत की है, तो उससे स्कूली बच्चों में अराजकता का अंदाज लगाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि जब लडक़ों में ऐसी ही अराजकता बढ़ती है तो हम नाबालिगों के मिलकर किसी नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप भी देखते हैं। जुर्म अलग-अलग किस्म के हो सकते हैं, लेकिन जुर्म करने का हौसला एक ही किस्म का रहता है। स्कूलों के भीतर इतनी निगरानी और नियम-कायदे के बाद अलग लड़कियां ऐसी हिंसक वारदात कर रही हैं, या सरगुजा में सडक़ों पर दारू पीकर दारू की बोतलों के साथ कारों से बाहर लटके हुए जुलूस निकाल रही हैं, तो ऐसे ही लडक़े-लड़कियां साल-दो-साल बाद नशे की हालत में सडक़ पर लोगों का कुचलते भी हैं।
ये गिनी-चुनी चर्चित घटनाएं उतनी अधिक फिक्र की बात नहीं है, जितनी फिक्र की बात इस पीढ़ी में पनप रही अराजकता है। यह आपराधिक हौसला और रूख इन किशोर-किशोरियों से कहीं-कहीं पर परिवार के लोगों का कत्ल भी करवा रहा है क्योंकि घरवाले उनको मनमानी करने से रोकते हैं। ऐसे सारे मामले तुरंत ही कड़ी कार्रवाई के लायक हैं, और ऐसे लडक़े-लड़कियों के माँ-बाप की भी जवाबदेही तय होना चाहिए। अगर यह पीढ़ी गाडिय़ों पर सडक़ों पर गुंडागर्दी करती हैं, तो उन्हें गाडिय़ां देने वाले माँ-बाप पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, और ऐसी घटना एक से अधिक बार होने पर इन गाडिय़ों का रजिस्ट्रेशन साल-दो-साल के निलंबित करने का कानून भी बनाना चाहिए, या राज्य सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई और कानून ऐसे माँ-बाप को सजा देने के लिए, और अगर वे संपन्न हों तो उन पर मोटा जुर्माना लगाने के लिए बनाए। कम उम्र की अराजकता, गुंडागर्दी और जुर्म, इन सब पर अगर तुरंत लगाम नहीं लगाई गई, तो ये बेकाबू होकर और अधिक संगीन जुर्म में तब्दील होने लगेंगे। सरकार को बिना देर किए स्कूली बच्चों में पनप रही हिंसा, और मनमानी को रोकने के ठोस इंतजाम करने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नए अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की अंतरराष्ट्रीय नीतियों से जो भूचाल आया है, उससे हिन्दुस्तान की जमीन भी हिली हुई है। मोदी सरकार के सामने अपने पहले दस बरसों में विदेश नीति, आर्थिक नीति, और सैन्य नीति की इतनी बड़ी कोई चुनौती नहीं थी जितनी कि इस ग्यारहवें बरस में सामने आई है। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग इतने मोर्चों पर एक साथ जंग छेड़ दी है कि हिन्दुस्तान जैसे दूर बसे हुए देश को भी यह समझने में दिक्कत हो रही होगी कि ट्रम्प की किस सनक का भारत पर क्या असर पड़ेगा। अब तक दुनिया में चीन और रूस ये दो अमरीका के अलग-अलग मोर्चों पर दुश्मन माने जाते थे। पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमरीका की पूरी ताकत यूक्रेन के साथ लगाकर रूस को खोखला करने की एक जंग छेड़ रखी थी। जंग हालांकि शुरू रूस ने यूक्रेन पर हमले से की थी, और खुद यूक्रेन ने अपने आखिरी नागरिक तक को झोंककर भी इस जंग में टिके रहने का पुख्ता इरादा दिखाया था, इसलिए यूक्रेन को अमरीका, और योरप के देशों के साथ उसके फौजी संगठन, नैटो का प्रॉक्सी वॉर कहना ठीक नहीं होगा। फिर भी अमरीका और योरप की नीयत यही दिखती थी कि यूक्रेनी लहू की कीमत पर फौजी रसद दे-देकर रूस को खोखला किया जाए। ऐसे तीन बरस गुजर चुके थे कि अमरीकी जनता ने एक बार फिर ट्रम्प को चुन लिया, और अब दुनिया का सबसे बिफरा हुआ सांड परंपरागत बहुत नाजुक विदेश नीति के फैसलों को एक-एक फतवे में तय कर रहा है।
कौन ऐसी कल्पना कर सकते थे कि बाइडन के रहने तक जो अमरीका रूस के खिलाफ सैकड़ों बिलियन डॉलर झोंक चुका था, अब ट्रम्प आकर उसे शून्य तो कर ही देगा, साथ ही यूक्रेन के खनिजों का आधा हिस्सा मांगने लगेगा ताकि अमरीका से उसे मिली फौजी मदद का भुगतान हो सके! यह एक ऐसी अजीब नौबत आ गई है कि अमरीका के सबसे बड़े परमाणु-शत्रु देश रूस का आज अमरीका सबसे बड़ा हिमायती हो गया है, और चीन चूंकि रूस के साथ तालमेल करते हुए चल रहा था, उसे अमरीका के इस फैसले और हमलावर तेवर का साथ देने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है। ऐसी नौबत की किसने कल्पना की थी कि अमरीका आज पूरे योरप और यूक्रेन की तरफ देखे बिना भी खुद रूस के साथ मिलकर यूक्रेन का भविष्य तय कर रहा है। उसका यह रूख फिलीस्तीन में भी दिखता है जहां वह फिलीस्तीनियों से बात किए बिना सिर्फ इजराइल के साथ मिलकर यह तय कर रहा है कि गाजा को फिलीस्तीनियों से, उसके मूल निवासियों से खाली करा दिया जाए, और उसे एक कारोबारी निर्माण की तरह विकसित किया जाए। हमलावरों को उनके कब्जे में आई जमीन दे देने की यह नई अंतरराष्ट्रीय गुंडागर्दी संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक, सभी के फैसलों के खिलाफ है, लेकिन ट्रम्प आज जिस बिफरे अंदाज में चल रहा है, उससे यह जाहिर है कि वह धरती का ही नहीं, ब्रम्हांड का भी निर्णायक अपने आपको मान रहा है। कल तक योरप के जिन देशों के साथ मिलकर अमरीका की वैश्विक सैनिक रणनीति चल रही थी, आज उसने एक पल में पूरे योरप को खारिज कर दिया है, बल्कि यूरोपीय समुदाय के एक सबसे बड़े देश, जर्मनी के घरेलू चुनावों में पूरी तरह खुलकर दखल दे रहा है, ब्रिटेन के घरेलू मामलों में बयानबाजी कर रहा है, इन सबसे योरप के साथ उसके रिश्ते और सारा शक्ति संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा गया है। अमरीका इसके नतीजों से बेफिक्र दिख रहा है, और ऐसा लगता है कि ट्रम्प को अपने कार्यकाल के साथ ही धरती भी खत्म होते दिख रही है कि उसे चार बरस के बाद के अमरीका की कोई फिक्र नहीं है।
भारत को ट्रम्प ने कुछ फैसलों से इतने बेरहम तरीके से उसकी जगह दिखाई है कि भारत और उसके हिमायती देश हक्का-बक्का हैं। उसने जिस अंदाज में भारत के लोगों को वहां से निकालकर सौ-सौ के खेप में फौजी बंधकों की तरह लाकर हिन्दुस्तान में पटक दिया है, वह भयानक है। और अब तो खबर यह है कि वह अमरीका से दूसरे देशों में लोगों को भेजते हुए अमरीकी जमीन से उन्हें जल्द से जल्द हटा देने के लिए पड़ोसी देशों को वेटिंग हॉल की तरह इस्तेमाल कर रहा है, और पनामा की कैद में अपने-अपने देश लौटाए जा रहे वे लोग रहम और हिफाजत मांग रहे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्रम्प से मिलने वाले शुरूआती तीन-चार विदेशी नेताओं में से रहे, लेकिन उनकी इस बातचीत से न तो भारत लौटाए जा रहे लोगों की हथकड़ी-बेड़ी हटी, और न ही भारत को किसी भी किस्म की टैक्स-छूट मिली। ट्रम्प ने बार-बार साफ-साफ शब्दों में कहा कि भारत को जवाबी टैरिफ से कोई रियायत नहीं मिलेगी। और उसका रूख महज भारत के लिए शत्रुता का नहीं है, उसका रूख हर किसी के लिए ऐसा ही है, दिक्कत यह है कि भारत के लोग मोदी और ट्रम्प की चर्चित गलबहियों से बड़ी उम्मीद लगाए हुए थे, लेकिन मोदी अमरीका से बिना कुछ पाए सिर्फ ग्राहक की तरह खरीददारी करके लौटे हैं, वहां के सबसे महंगे फौजी विमान की खरीददारी जो कि कई लोगों के मुताबिक बड़ी महंगी है, और जिन विमानों को अभी कुछ अरसा पहले एलन मस्क ने कबाड़ कहा था।
अमरीका की प्राथमिकता में फिलहाल भारत कहीं नहीं दिख रहा है, और उसने मोदी के अमरीका पहुंचने के पहले ही सबसे महंगी अमरीकी मोटरसाइकिलों, और अमरीकी दारू पर से भारत में लगने वाला टैरिफ घटवा दिया था। भारत सरकार का यह फैसला ट्रम्प-मोदी बातचीत के पहले एक नजराने की तरह था, लेकिन दुनिया भर के देशों से जबराना वसूलने के मूड में बैठे ट्रम्प से मोदी को इस नजराने के एवज में कोई शुकराना नहीं मिला। अब जब रूस-अमरीका, और चीन कम से कम एक बड़े मुद्दे, यूक्रेन पर एक साथ दिख रहे हैं, तो फिर इस साथ का असर कई और जगहों पर भी हो सकता है, और तीन महाशक्तियों का यह नया अघोषित गठबंधन ताइवान और भारत जैसे देशों के लिए फिक्र की बात भी हो सकता है, जिनका कि चीन से टकराव है। इस तरह ट्रम्प ने दुनिया में सारे समीकरण चौपट कर दिए हैं, तमाम गठबंधन प्रसंगहीन बनाकर हाशिए पर धकेल दिए हैं, और अपने आधी-पौन सदी पुराने साथियों को चिलचिलाती धूप में खुला छोडक़र अमरीकी छाता हटा लिया है। भारत के इतिहास में विदेश नीति के सामने भूचाल सरीखी इतनी बड़ी कोई चुनौती कभी नहीं आई थी, और आज बाकी दुनिया की हलचल के साथ-साथ भारत की सोच, पहल, और उसके फैसलों का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। अंतरराष्ट्रीय संबंध और विदेश नीति पढ़ाने वाले कामचोरी करने वाले प्राध्यापकों की चर्बी छंटेगी, और उन्हें नए सिरे से सब कुछ समझना, समझाना पड़ेगा।