संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डरे नेताओं की मेहरबानी, 36गढ़ में जाति बहिष्कार ले रहा है कई जिंदगियां...
14-Jun-2025 7:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  डरे नेताओं की मेहरबानी, 36गढ़ में जाति बहिष्कार ले रहा है कई जिंदगियां...

छत्तीसगढ़ में सामाजिक बहिष्कार के खासे चलन वाले साहू समाज के एक बुजुर्ग ने चिट्ठी लिखकर खुदकुशी कर ली, और उसने लोगों के नाम भी लिखे हैं। समाज का दबाव इस हद तक था कि लोगों ने जमीन-जायदाद के अदालती मामले पर सामाजिक बैठक में फैसला देते हुए इस बुजुर्ग पर उसे मानने का दबाव डाला था। न मानने पर उसका बहिष्कार कर दिया गया था, फसल काटने मजदूर नहीं मिले, उसकी पोती की शादी के वक्त समाज ने गांव छोडऩे पर मजबूर कर दिया, और दूसरी जगह से शादी करनी पड़ी। अब पुलिस इस मामले की जांच कर रही है। यह अकेला ऐसा मामला नहीं है, साहू समाज के ही एक प्रमुख व्यक्ति, प्रो.घनाराम साहू ने सरकार से अपने समाज के लोगों के बनाए हुए नियमों के खिलाफ शिकायत की थी कि अंतरजातीय विवाह पर जात बाहर करने के लिखित नियम कानून के खिलाफ हैं, और किसी रजिस्टर्ड संगठन को इसकी इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि हमने कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ में ऐसे ही जात बाहर करने के मामलों को लेकर एक प्रमुख अंधविश्वास-विरोधी सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.दिनेश मिश्रा को हमारे यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर इंटरव्यू भी किया था। इस तरह का सिलसिला छत्तीसगढ़ की कुछ और जातियों में भी चले आ रहा है, और हालत यह है कि सामाजिक संगठन इस कदर आक्रामक हो जाते हैं कि परिवार में कोई एक अंतरजातीय विवाह हो जाए, तो उस जोड़े को अपने घर नहीं बुलाया जा सकता, जात के किसी कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित करने पर बाकी समाज उस कार्यक्रम का बहिष्कार कर देता है।

प्रो.घनाराम साहू ने राज्य शासन से छत्तीसगढ़ प्रदेश साहू संघ के जिस विवादास्पद नियम की शिकायत की थी, उसमें संघ ने अपनी नियमावली में लिखा है कि अंतरधर्म, और अंतरजातीय विवाह जो माता-पिता या पालक द्वारा आयोजित कर करवाया जाता है, वह समाज की मुख्य धारा से पृथक माना जाएगा, उसे किसी प्रकार से सामाजिक न्याय पाने का हक नहीं होगा। आगे लिखा गया है- किसी भी सामाजिक व्यक्ति की लडक़ी का अन्य जाति के व्यक्ति से संबंध हो जाता है, तो ऐसे माता-पिता को उससे हमेशा के लिए संबंध तोडऩा होगा, नहीं तोडऩे की स्थिति में सामाजिक आचार संहिता का उल्लंघन माना जाएगा, और उस पर सामाजिक कार्रवाई की जा सकती है। प्रदेश साहू संघ में 2016 से यह नियमावली चली आ रही है, और इसी के खिलाफ प्रोफेसर साहू ने सरकार को शिकायत की थी। उन्होंने लिखा था कि साहू संघ की नियमावली में दूसरे धर्म और दूसरी जाति में शादी करने पर जो प्रावधान किए गए हैं, वे नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं, कानून के खिलाफ हैं, और दंडनीय अपराध हैं। उन्होंने संस्था की अवैधानिक कार्रवाई के खिलाफ शासन से नियमानुसार कार्रवाई की मांग भी की थी। लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

छत्तीसगढ़ में जिस जाति में जाति पंचायत, या किसी दूसरे नाम से सामाजिक संगठन जितने अधिक दकियानूसी और आक्रामक हैं, उनके लोग उतने ही अधिक धर्मांतरण कर रहे हैं। लोगों को लगता है कि जब अपनी जाति में लाखों रूपए जुर्माना दिए बिना वापिस जाना मुमकिन नहीं है, अपने बच्चों की भी जाति में शादी नहीं हो पाएगी, तो जाति-संगठन के बंधन उन पर भारी पडऩे लगते हैं, और ऐसी जाति में बने रहने के नुकसान ही नुकसान दिखते हैं। नतीजा यह हो रहा है कि ऐसी जातियों के लोग धर्मांतरण में सबसे आगे हैं। उन्हें शायद लगता होगा कि वहां जाकर कम से कम मौजूदा जाति के मुकाबले कुछ बेहतर सामाजिक सम्मान तो मिलेगा। छत्तीसगढ़ में सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ पहले से कड़ा कानून बना हुआ है, लेकिन जातियों के ठेकेदार राजनेताओं के सामने अपने आपको अपनी जाति के वोटरों का गडेरिया साबित करते हैं कि वे जहां चाहेंगे, उनकी रेवड़ की भेड़ें वहीं जाएंगी। इसलिए कांग्रेस और भाजपा, दोनों बड़ी पार्टियों के नेता जाति संगठनों से डरे-सहमे रहते हैं, और उनकी मनमानी के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोलते। कुछ बड़े नेता तो ऐसे हैं कि वे अपने परिवार के किसी अंतरजातीय विवाह पर समाज को या तो लाखों रूपए का जुर्माना भरते हैं, या परिवार के ऐसे लोगों से मिलना-जुलना बंद कर देते हैं। बहुत से नेता अपनी जाति के आधार पर चुनावी टिकट, राजनीतिक पद, और सत्ता में कुर्सी पाते हैं, और वे जाति से किसी टकराव की तस्वीर भी बनने देना नहीं चाहते।

सरकार को जाति बहिष्कार के खिलाफ बने हुए अपने नियमों को तो लागू करना चाहिए। यह याद रखने की बात है कि डॉ.रमन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए 2016 में राज्य के एक पुराने कानून को नई ताकत देने के लिए सामाजिक बहिष्कार प्रतिषेध अधिनियम का एक मसौदा बनाया गया था, और उस पर लोगों से दावा-आपत्तियां आमंत्रित की गई थीं। यह याद रखने की बात है कि इस पर प्रदेश कांग्रेस के एक सबसे बड़े नेता, और ओबीसी की कुर्मी जाति के भूपेश बघेल ने एक विरोध-धरना आयोजित किया था, जिसमें दूसरी जातियों के संगठन भी शामिल हुए थे। ओबीसी के साथ-साथ सर्वआदिवासी समाज के नेता भी धरने में थे। विरोध इतना हुआ, कि दबाव में मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह ने यह प्रस्तावित कानून विधानसभा में पेश ही नहीं किया। जब समाज सुधार की कोई बात होती है, तो बड़े-बड़े दिग्गज नेता इसी तरह कट्टर ताकतों के सामने न सिर्फ हथियार डाल देते हैं, बल्कि किसी भी सुधार के खिलाफ खुद हथियार लेकर भी खड़े हो जाते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के हक में एक फैसला दिया था, तो मुस्लिम मर्दों की नाराजगी की आशंका में राजीव गांधी की पूरी की पूरी सरकार डर से कांपने लगी थी, और शाहबानो को कुचलने के लिए अदालती फैसले के खिलाफ संसद में संविधान संशोधन किया था। इधर छत्तीसगढ़ में जगह-जगह अलग-अलग जातियों में शाहबानो बिखरी हुई हैं, और जाति संगठनों को मानो राजीव गांधी की सरकार चला रही है। प्रदेश का राजनीतिक ढांचा ऐसा है कि कांग्रेस और भाजपा के सहमे हुए नेताओं के अलावा विधानसभा में तो कोई तीसरी ताकत बचती भी नहीं है, ऐसे में समाज सुधार के किसी कानून की बात भला कौन करेंगे, इससे बेहतर तो यही है कि नेता नौबत आने पर अपने परिवार के लिए जाति संगठन को लाखों का जुर्माना ही दे दें, वैसे पैसे की कोई कमी तो रहती नहीं है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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