संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रेम और विवाह संबंधों की हिंसा है तो डरावनी, पर घटाने के तरीके भी हैं
सुनील कुमार ने लिखा है
25-Jun-2025 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : प्रेम और विवाह संबंधों की हिंसा है तो डरावनी, पर घटाने के तरीके भी हैं

कुछ लोग अखबारों की खबरों से घबराने लगे हैं कि रात-दिन पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, इन सबकी हिंसक खबरों को पढक़र, या टीवी पर देखकर लोगों का प्रेम और परिवार के रिश्तों पर से भरोसा उठते जा रहा है। अब तो हिंसा की खबरों से परे उन पर आधारित हँसी-मजाक के ऐसे वीडियो बनने लगे हैं जो कि प्रेम, शादी, और हनीमून में मरने-मारने के तौर-तरीकों का मजाकिया जिक्र करते हैं, और कहीं कोई नीला ड्रम गिनाते हैं, तो कहीं हनीमून पर उत्तर-पूर्व जाने की बात करते हैं। हम इस मामले पर पहले भी लिख चुके हैं, लेकिन इस पर और लिखने की जरूरत इसलिए है कि ऐसी पारिवारिक, सामाजिक, और प्रेमसंबंधों की हिंसा पर फिक्र जरूरी है। अगर ऐसी हिंसा को कम करना है, तो फिर इसकी जड़़ों तक पहुंचना होगा। वैसे तो प्रेम और विवाह, इन दोनों ही किस्म के संबंधों में पुरूष की हिंसा हमेशा से सिर चढक़र बोलती रही है, और लहू तो महिला का ही बिखरते रहा है, हमने इसी जगह पर दो-चार दिन पहले ही पिछले पांच बरस के आंकड़े गिनाए थे कि किस तरह आज भी पत्नी की करवाई गई पति-हत्या साल भर में अधिकतम 271 हुई है, और पत्नी की हत्या कम से कम 6000 तो हुई ही है, और अधिकतम तो 6700 है। इस मुद्दे पर आज फिर से लिखने की जरूरत इसलिए लग रही है कि इस एक बड़ी सामाजिक समस्या, और खतरे के बहुत से पहलू हैं जिन पर एक बार में लिखना नहीं हो पाता, और आज हम उसी के कुछ दूसरे पहलुओं पर लिखना चाहते हैं।

आज जब लड़कियां कॉलेज तक पढ़ रही हैं, कई किस्म के काम में लग रही हैं, शहरीकरण की वजह से शहरों में जाकर, वहां की आधुनिक जिंदगी में जीकर कामकाजी हो जाती हैं, तो फिर वे भी अपने आपको परंपरागत लडक़ी या महिला से अलग, एक इंसान समझने लगती हैं। उनके भीतर की भावनात्मक और मानवीय बातें उन्हें महत्वाकांक्षी बनाती हैं। एक-दूसरे से मेलजोल की वजह से लोगों में प्रेमसंबंध भी होते हैं, और आखिर में जाकर जब मां-बाप को पता लगता है कि बेटी अपनी मर्जी से शादी करना चाहती है, तो उनके भीतर का शहंशाह अकबर तलवार लेकर उठ खड़ा होता है, और बेटी की पसंद को दीवार में चुनवाने की कोशिश करने लगता है। दूसरा धर्म, दूसरी जाति न भी हो, तो भी कई मां-बाप अपनी लडक़ी की पसंद को सिर्फ इसलिए खारिज कर देते हैं कि अपनी जाति के भीतर भी लडक़े की जाति  कुछ नीची समझी जाती है। लोगों को याद होगा कि किस तरह हिन्दुस्तान का एक नेत्रहीन धर्मगुरू वीडियो-कैमरों के सामने ही यह गिनाता है कि ब्राम्हणों के भीतर कौन-कौन से ब्राम्हण नीचे माने जाते हैं, और उनसे रिश्ता नहीं किया जाता है। इस तरह मां-बाप, खासकर लडक़ी का परिवार बेटी की पसंद पर इसलिए भी विचलित हो जाता है कि भारतीय समाज में कन्या तो दान की वस्तु रहती है, और किसी वस्तु की भला क्या पसंद हो सकती है?

इसलिए आज जब लड़कियां पढ़-लिखकर कामकाजी हो रही हैं, तो वे महत्वाकांक्षी भी हो रही हैं। और प्रेमसंबंधों में, विवाह संबंध में जब उनके साथ कोई धोखा होता है, उन्हें कोई निराशा होती है, तो वे भी ठीक उसी तरह बेवफाई की सोचने लगती हैं, जिस तरह मर्द हमेशा से ही सोचते आए हैं। अब तक होता यही था कि जानलेवा हिंसा हो, या पारिवारिक प्रताडऩा, पुरूष उसे करता था, और महिला उसे सहती थी। लेकिन अब पुरूष का यह एकाधिकार खत्म हो गया है। अब चाहे पांच फीसदी सही, उतनी प्रेमिकाएं या पत्नियां एक सीमा के बाद प्रताडि़त होने पर किसी प्रेमी की मदद से, या सुपारी-हत्यारा ढूंढकर अपने प्रेमी या पति को निपटाना भी जान रही हैं। यह बात गौरवशाली भारतीय परंपरा से कुछ अलग है, और नई और अटपटी है। पुरूषों को यह समझ ही नहीं पड़ता कि वे भी धोखा खा सकते हैं, क्योंकि अब तक तो वे धोखा देते ही आए थे।

आज एकाएक चारों तरफ प्रताडि़त, विचलित, या किसी नए संबंध में बेवफा हो रही लडक़ी या महिला, पत्नी या प्रेमिका, के हथियारबंद होकर उठ खड़े रहने का वक्त आ गया है। चूंकि घर या प्रेमसंबंध में कोई महिला अब फूलन देवी सरीखी बागी होने लगी हैं, इसलिए पुरूष प्रधान समाज हड़बड़ा गया है। लोगों को इस सिलसिले के साथ जीना सीखना पड़ेगा कि जब पढ़ाई-लिखाई और कामकाज से कोई लडक़ी या महिला आत्मनिर्भर हो चले हैं, तो उन्हें किसी गाय की तरह माता-पिता के खूंटे से रस्सी खोलकर पति के खूंटे से नहीं बांधा जा सकता। अब वह सींग मारना भी सीख चुकी है, इसलिए अब उसे सींग मारने की कोई वजह देना ठीक नहीं है। जैसे-जैसे समाज में लड़कियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे वे अपनी औकात पहचानने लगेंगी, और समाज को भी यह देखना होगा कि महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता उसकी आजादी के बिना नहीं आएगी। जिस दिन उसके बैंक खाते में रकम आने लगेगी, उस दिन उसे बंधुआ मजदूर की तरह नहीं रखा जा सकेगा। अब यह तो समाज के ऊपर है कि वह महिला को पढऩे-लिखने, और कामकाज के मौके कुछ और वक्त तक न देकर अपनी आखिरी कोशिश कर ले। लेकिन इससे भी कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पडऩा है। दुनिया ने आज के फौलादी इस्लामिक ढांचे वाले ईरान को देख लिया है कि किस तरह वहां पर हिजाब के खिलाफ महिलाओं की एक बगावत हुई, और वहां औरत, जिंदगी, आजादी मुहिम शुरू हुई, जिसने सत्तारूढ़ मुल्लाओं को भी हिलाकर रख दिया। आज हालत यह है कि जिन महिलाओं को हिजाब लगाना है, वे लगाती हैं, और जिनको नहीं लगाना है वे नहीं लगाती हैं। ईरान की इस्लामिक सरकार की नैतिक पुलिस अब अपने दड़बों में घुस गई है, और महिलाओं ने अपने हक का बुलंद ऐलान किया है। ईरान से बाकी दुनिया को भी सबक लेना चाहिए, और अपनी लड़कियों और महिलाओं को कुचलना बंद करना चाहिए।

प्रेम और विवाह संबंधों में होने वाली इतने किस्म की हिंसा को कम करने के लिए भी यह जरूरी है कि इन दोनों किस्म के संबंधों को तोडऩे को भी एक सामान्य सामाजिक व्यवस्था मानना होगा। जो विकसित और सभ्य देश हैं, वहां पर ऐसा ही चलन है, कि जब तक निभा, तब तक निभा, और जब नहीं निभा, तो लोग अपनी-अपनी राह निकल गए। भारत जैसे देश में भी भूतपूर्व प्रेमी-प्रेमिका, भूतपूर्व पति-पत्नी, को भूतकाल की तरह अनदेखा करके जीना सीखना पड़ेगा, वरना आज जगह-जगह अपनी पिछली प्रेमिका के वर्तमान प्रेमी को कत्ल करने की खबरें भी आ रही हैं, और इसके ठीक उल्टे, लड़कियां भी कहीं-कहीं ऐसा कर रही हैं। इन घटनाओं से इंसानों और समाज को एक बड़ा सबक लेने की जरूरत है।

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