संपादकीय
हिन्दुस्तान में थलसेना में सैनिकों के खाली पड़े पदों पर भर्ती में हो रही देर को लेकर सरकार की आलोचना होती है कि वह सैनिक नियुक्त करने के बजाय चार बरस के लिए मामूली सी ट्रेनिंग वाले अग्निवीर नियुक्त कर रही है जो कि किसी भी तरह से सैनिकों का विकल्प नहीं हो सकते। अब थलसेना में खाली पदों को देखें, तो ये एक लाख से कुछ अधिक हैं, और लोगों को लग सकता है कि फौज में इतनी कमी से भारत की सैनिक तैयारियों में बड़ी कमजोरी हो सकती है। लेकिन जिस तरह ईमेल और वॉट्सऐप के इस जमाने में अब डाकघरों, और डाकियों की जरूरत कम हो गई है, अब टेलीफोन लाईनमेन सडक़ किनारे खंभों पर चढक़र मरम्मत करते नहीं दिखते क्योंकि हर हाथ में मोबाइल फोन है, और बहुत से ऐसे लोग होंगे जिन्होंने पिछले दस बरस में टेबिल पर या घर पर लगा हुआ तार वाला लैंडलाईन फोन इस्तेमाल भी नहीं किया होगा। अभी रूस और यूक्रेन में चल रही जंग को देखें, तो पहली नजर में तो लगता है कि भारत को इन एक लाख सैनिकों को तैनात करने की कोई जरूरत नहीं है, और यह भी हो सकता है कि जितने सैनिक रिटायर होते जाएं, उनमें से कुछ पदों को भरा ही न जाए।
फौज हो, पुलिस, या कोई और विभाग, इनमें लोगों की जरूरत नई टेक्नॉलॉजी के पहले जितनी थी, अब नई टेक्नॉलॉजी में जाहिर तौर पर उतनी नहीं रह गई है। हमने तो ऐसा टेलीफोन एक्सचेंज देखा हुआ है जिसमें बैठे हुए लोग कॉल कनेक्ट करते थे, दूसरे शहरों में ट्रंक कॉल लगाते थे, और इंसानी मध्यस्थता के बिना एक कॉल भी नहीं जुड़ती थी। अब लोग दिन भर में सौ-दो सौ टेलीफोन कॉल खुद लगाते हैं, और अगर पुराने टेलीफोन एक्सचेंज के दिन रहते, तो उनका चार गुना समय ऑपरेटर के इंतजार में, और ऑपरेटर से बात करते हुए निकलता। अब यूक्रेन और रूस के जंग ने यह दिखा दिया है कि जब सरहद के पार दूसरे के जमीन पर घुसकर लड़ाई लडऩी हो, तब तो सैनिकों की जरूरत है, लेकिन जब ड्रोन से मुकाबला होना है, तो रूस जिन ईरानी ड्रोन का इस्तेमाल कर रहा है, उनकी रेंज दो हजार किलोमीटर तक है। इससे परे चार-छह सौ किलोमीटर वाले कई किस्म के और ड्रोन रूस के पास अपने खुद के हैं। यूक्रेन अपने खुद के बनाए हुए आठ सौ किलोमीटर से लेकर हजार किलोमीटर तक के ड्रोन का इस्तेमाल कर रहा है, जो रूस में भीतर घुस-घुसकर हमला कर रहे हैं। अब इसी जंग से दुनिया ने यह महसूस किया है कि आने वाले तमाम युद्ध ड्रोन पर अधिक से अधिक निर्भर करेंगे। इसकी वजह यह है कि अब तक जो मामूली ड्रोन दूर से नियंत्रित करने होते थे, उनकी जगह अब उपग्रह से नियंत्रित होने वाले ड्रोन बनने लगे हैं, लेकिन इनसे परे भी एक और किस्म जंग के मैदान में इस्तेमाल हो रही है। ये ड्रोन घर-घर में जोडक़र बनाए जाने वाले बड़े मामूली से ड्रोन है, और वे एक मोटरसाइकिल से भी कम दाम के हैं। उनमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का कंट्रोल है, और दुश्मन के निशाने की तस्वीरें उसमें डालकर उसे रवाना किया जाता है, और वह ड्रोन उस जगह को ढूंढकर वहां पर हमला करता है। ड्रोन का अपना एआई उसे रास्ता बताने में, निशाने की शिनाख्त करने में मदद करता है। लेकिन इससे भी चार कदम आगे अब ऐसे ड्रोन बन गए हैं जो कि पूरी तरह से एआई से चलते हैं, और अपने आसपास के अपने साथी ड्रोन के साथ ये ड्रोन खुद ही हमले के बारे में योजना बना लेते हैं, और एआई से ऐसे सैकड़ों ड्रोन आपस में संपर्क रखते हुए, एक ही रणनीति बनाकर हमला कर सकते हैं। जिस तरह आसमान में कभी-कभी पंछियों के बड़े-बड़े झुंड दिखते हैं, उसी तरह ड्रोन भी एक झुंड बनाकर हमला कर सकते हैं। ये अपने कंट्रोल स्टेशन की सीमा के बाहर जाने पर खुद होकर कई चीजें तय कर सकते हैं, और हमला कर सकते हैं। यूक्रेन ने अभी कुछ हफ्ते पहले ही ऐसे मिट्टी के मोल सरीखे ड्रोन के झुंड के झुंड भेजकर रूस के अरबों के लड़ाकू विमानों को तबाह कर दिया था। अब इस जंग ने दुनिया भर की फौजों को यह सिखा दिया है कि आगे की लड़ाई महंगे लड़ाकू विमानों के मुकाबले जब तक काम चल जाए, तब तक ड्रोन की लड़ाई रहेगी, जो कि बहुत ही सस्ते हैं, और रहेंगे।
अभी भारत और पाकिस्तान ने कुछ हफ्ते पहले के अपने टकराव में ड्रोन का इस्तेमाल न सिर्फ सरहद की फौजी निगरानी के लिए किया, बल्कि हमले में भी किया। इसकी जानकारी सरकार ने रणनीतिक गोपनीयता की वजह से सामने नहीं रखी है, लेकिन भारत के पास इजराइल के बने हुए एक हजार किलोमीटर से अधिक की रेंज वाले ड्रोन हैं, और इन्हें उपग्रह से नियंत्रित करने के लिए तैयार भी किया जा रहा है। देश में बनाए हुए तीन सौ किलोमीटर से अधिक की रेंज वाले रूस्तम-2 का निर्माण के बाद अब परीक्षण चल रहा है। भारत अमरीका में बने हुए हजार किलोमीटर रेंज के ड्रोन भी खरीदने की योजना बना रहा है। दूसरी तरफ पाकिस्तान के पास चार हजार किलोमीटर रेंज वाले चीनी ड्रोन हैं, जो शायद पाकिस्तानी फौज के पास आ भी गए हैं। पाकिस्तान के इस रेंज के ड्रोन भारत के किसी भी हिस्से तक पहुंच सकते हैं, बल्कि भारत को पार करके वे म्यांमार और थाईलैंड तक भी जा सकते हैं।
एक बार फिर रूस-यूक्रेन जंग पर लौटें, तो अब एक नई रणनीति सामने आई है कि बहुत सारे छोटे-छोटे, और मामूली ड्रोन बनाकर उनसे दुश्मन के आसमान को इस तरह भर दिया जाए कि उन्हें मारकर गिराते हुए उसकी मारक क्षमता खत्म हो जाए, और फिर बाद में जब असली बड़े हथियारबंद ड्रोन जाएं, या बम गिराने वाले विमान जाएं, तो उस दुश्मन देश की ड्रोन-प्लेन गिराने की क्षमता बाकी न रहे। अब अगर इस तरह की रणनीति से लड़ाई का एक बड़ा हिस्सा बिना इंसानी जिंदगी खतरे में डाले आसमान में लड़ा जाएगा, तो सैनिकों की जरूरत तो घट ही जाएगी। अब कंट्रोलरूम बंद कमरों से तय करेंगे कि कौन से ड्रोन किस जगह जाएं, वहां पर क्या करें। हम थलसैनिकों की सोचें, तो दुश्मन की सरहद में घुसने के बाद अगर उन्हें खुला मैदान भी मिल जाता है, तो भी वे दिन भर में कुछ सौ किलोमीटर ही जा सकते हैं। दूसरी तरफ हजार किलोमीटर का ड्रोन का सफर तीन सौ किलोमीटर घंटे से अधिक की रफ्तार से होता है, और वह चार सौ किलोमीटर से अधिक के हथियार या विस्फोटक लेकर जा सकता है। बिना किसी बाधा के भी सैनिकों की गाडिय़ां एक घंटे में 25-50 किलोमीटर से अधिक नहीं जा सकतीं, और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी फौज को दुश्मन की जमीन पर बाधा न मिले।
इसलिए भारत में भी आज यह रणनीति तो बन ही रही होगी कि किसी पड़ोसी देश से जंग छिडऩे पर ड्रोन का कैसा-कैसा इस्तेमाल होगा, कहां निगरानी रखने के लिए, और कहां बम गिराने के लिए। इसलिए भारत सहित दुनिया की तमाम फौजों को अब मानव-सैनिकों की जरूरत पहले सरीखी रहने वाली नहीं है। अभी हम रोबो-सैनिकों की बात भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनके बिना भी थलसैनिकों की संख्या सीमित रहना या घटना तय है। रोबो से परे यह भी समझना है कि एआई से लैस ड्रोन स्क्वॉड्रन जब आपस में संपर्क करके रणनीति बना सकेंगे, और खुद हमला कर सकेंगे, तो फिर सरहद के सैनिकों की जरूरत तो कम ही रह जाएगी। इसके अलावा आज भारत भी अपने ड्रोन को उपग्रह संचार प्रणाली सो जोडऩे में लगा हुआ है, इसके बाद ड्रेन की क्षमता कई गुना अधिक हो जाएगी। आज तो हालत यह है कि दुश्मन की थलसेना पर भी बम बरसाने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल हो रहा है, और सैनिकों के आमने-सामने आकर एक-दूसरे पर गोलीबारी करने की नौबत घटती चली जानी है। इसलिए सेना को नौकरी की जगह मानना अब बंद कर देना चाहिए।


