संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...कंडोम में आपत्तिजनक क्या है हिन्दुस्तानी पुलिस?
सुनील कुमार ने लिखा है
29-Jun-2025 12:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  ...कंडोम में आपत्तिजनक क्या है हिन्दुस्तानी पुलिस?

किसी चकलाघर, स्पा सेंटर, या किसी और जगह पर पुलिस का छापा पड़ता है, तो उसके प्रेसनोट में गिरफ्तारी वगैरह के बाकी जिक्र के साथ-साथ यह बात भी आती है कि वहां से कुछ आपत्तिजनक सामग्री बरामद हुई। यह आपत्तिजनक सामग्री आमतौर पर कंडोम रहती है जिसे जब्त करके पुलिस यह साबित करने की कोशिश करती है कि वहां पर कोई वयस्क गतिविधि चल रही थी। लेकिन ऐसे प्रेसनोट का जो बड़ा नुकसान होता है, वह यह है कि पहले से अतिसंवेदनशील चल रहे भारतीय समाज में कंडोम को आपत्तिजनक मान लिया जाता है। हो सकता है कि अदालत में यह पुलिस को एक सुबूत की तरह कोई बात साबित करने में काम आए, लेकिन एक मासूम से सामान को इस तरह बदनाम करके पुलिस लोगों के बीच बचाव के इस साधन को आपत्तिजनक करार देती है।

अब कल्पना करके देखें कि अगर ऐसे किसी छापे में कंडोम जब्त न हों, तो क्या उससे समाज का, अपना बदन या अपनी सेवा बेचने वाली महिला का, या उसे खरीदने वाले पुरूष का कुछ भला हो जाएगा? विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने अवांछित गर्भ को रोकने के लिए, और तरह-तरह की सेक्स बीमारियों को रोकने के लिए यह आसान सा सामान बनाया है। सैकड़ों बरस पहले भी जब रबर से बने कंडोम का जमाना नहीं आया था, तब भी कुछ जानवरों की अंतडिय़ों से बना हुआ कंडोम अभी-अभी एक नीलामी में सामने रखा गया है। एक वक्त ऐसा था जब सेक्स से फैलने वाली बीमारियों का इलाज भी नहीं था, और उनसे बचाव ही सबसे बड़ी हिफाजत थी। उस वक्त से लेकर अब तक गर्भ और बीमारी इन दोनों को रोकने के लिए इससे आसान कोई जरिया नहीं है। और ब्रिटेन जैसा विकसित देश अपनी स्कूल की बड़ी कक्षाओं के बच्चों के लिए स्कूलों में ही कंडोम उपलब्ध कराता है क्योंकि वह इन बच्चों के स्कूली जीवन में ही मां-बाप बनने को रोकना चाहता है। और अगर वहां पर बच्चों के बीच किशोरावस्था में सेक्स हो रहा है, जिसे रोक पाना संभव नहीं है, तो फिर उसे सुरक्षित बनाना ही समझदारी की बात है। कोई भी समझदार समाज ऐसी समझदारी की बात करता है, न कि हिन्दुस्तानी पुलिस की तरह कंडोम को आपत्तिजनक करार देता है।

अभी चार दिन पहले छत्तीसगढ़ में एक धर्मस्थल के पास की पहाड़ी में एक बाबा का आश्रम पकड़ाया, और करोड़पति बाबा गांजा बेचते मिला। यह भी पता लगा कि उसके गोवा में गुजारे बरसों के दौरान उसके जो विदेशी संपर्क थे, वहां के लोग अभी भी बाबा के आश्रम में योग, या नशा, या शायद दोनों करने के लिए आते रहते थे, और आश्रम में कई तरह के सेक्स टॉयज भी मिले। अब पुलिस और समाचारों में इनको आपत्तिजनक सामान करार दिया जा रहा है। पुलिस तो आमतौर पर अदालती जरूरतों को समझते हुए इस तरह के पिटे हुए ढर्रे का काम करती रहती है, लेकिन पुलिस प्रेसनोट देखकर मीडिया भी उसे ज्यों का त्यों आपत्तिजनक लिखने लगती है। हमारे हिसाब से कंडोम का इस्तेमाल, उसे रखना आपत्तिजनक नहीं है, उसे आपत्तिजनक लिखना आपत्तिजनक है। क्या बिना कंडोम सेक्स-संबंध समाज के हित में हैं? क्या विज्ञान ऐसा सुझाता है, क्या दुनिया के कोई भी डॉक्टर ऐसा सुझा सकते हैं? तो फिर नैतिकता के पाखंड की वजह से कंडोम से परहेज कहां की समझदारी है? इसके साथ-साथ दूसरा सवाल यह भी उठता है कि लोगों के अपने देह सुख के लिए बनाए गए सेक्स-खिलौनों में कौन सी बात आपत्तिजनक है? भारत में सैकड़ों बरस पहले के बने हुए हाथीदांत के सेक्स-खिलौनों का इतिहास अच्छी तरह दर्ज है, और बाकी दुनिया में भी लोगों ने अपने-अपने तरीके से सुख पाने के रास्ते निकाले हुए हैं। दरअसल भारत में नैतिकता के नाम पर पाखंड इतना अधिक है कि किसी भी किस्म के सेक्स-सुख के खिलाफ बड़े-बड़े प्रवचनकर्ता इसे वासना करार देते हुए इसे एक जुर्म बताने लगते हैं, और इसे लेकर लोगों के बीच आत्मग्लानि भर देते हैं। जीवन में जो कुछ सुख दे सकते हैं, उन सबके खिलाफ धर्म, और समाज की तथाकथित नैतिकता कोई न कोई तर्क ढूंढ लेते हैं। लोगों को अपराधबोध से भर देते हैं। दूसरी तरफ धर्म के बताए हुए पाखंड को मानने वाले लोगों को मरने के बाद स्वर्ग या जन्नत में इन्हीं सब चीजों का वायदा भी करते हैं। अरे, जो धरती पर पाप है, वह स्वर्ग में जाकर उपहार बन जाएंगे?

धर्म की एक बहुत बड़ी भूमिका लोगों को अपनी जिंदगी में अपने आपको पापी महसूस कराने की रहती है। अगर लोग अपने आपको पापी नहीं मानेंगे, तो पापमुक्त होने के लिए वे क्यों किसी नदी में डुबकी लगाने जाएंगे, क्यों वे किसी पंडित या ब्राम्हण को दान देंगे, क्यों मंदिर या मस्जिद बनाएंगे? लोगों के मन को पाप और अपराधबोध से भरकर ही धर्म का कारोबार चलता है, और धार्मिक पैमाने धीरे-धीरे सामाजिकता के नैतिक पैमानों पर हावी होते हुए इतने आगे बढ़ जाते हैं कि जिस तरह धर्म लोगों को काम वासना से दूर रहने की नसीहत देता है, उसी तरह पुलिस लोगों को सेक्स के दौरान भी कंडोम से दूर रहने की एक अघोषित नसीहत देती है। यह सिलसिला जानलेवा और खतरनाक है। जिस तरह पुलिस की बात लोगों को एड्स जैसी खतरनाक बीमारी दे सकती है, अवांछित गर्भ दे सकती है, उसी तरह धर्म लोगों को कई किस्म के अवांछित अपराधबोध देता ही है। इतिहास को जरा सा खंगालेंगे, तो यह तुरंत ही दिख जाएगा कि किस तरह वेटिकन और उसके मातहत लाखों चर्च हमेशा से कंडोम के खिलाफ रहे। यह तो आखिर में जाकर उन्हें समझ आया कि अफ्रीकी देशों में अगर कंडोम का इस्तेमाल नहीं बढ़ा, तो चर्च में सिर्फ उल्लू और चमगादड़ बचेंगे, तब जाकर चर्च ने वहां पर कंडोम का विरोध बंद किया। दरअसल धर्म सेक्स को सिर्फ अगली पीढ़ी लाने का सामान मानता है। और जब अगली पीढ़ी की गिनती पर्याप्त हो गई, तो वह पति-पत्नी के बीच भी सेक्स को नीची नजरों से देखने लगता है, और पति-पत्नी आपस के इस सबसे स्वाभाविक काम को भी पाप मानकर शर्म और अपराधबोध में डूब जाते हैं। पुलिस के प्रेसनोट कंडोम के रास्ते सेक्स को एक पाप साबित करने के जाने-अनजाने अभियान में लगे रहते हैं, लेकिन शायद अखबार वालों को एक सनसनीखेज शब्द से ऊपर उठकर इस छोटे से सामान के सामाजिक योगदान को समझना चाहिए, और इसे आपत्तिजनक लिखना बंद करना चाहिए।  

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