संपादकीय
अहमदाबाद विमान दुर्घटना हुई, और सैकड़ों लोग पल भर में मारे गए, तो उसके बाद सोशल मीडिया पर एक पोस्ट का सैलाब सा आ गया। गीता की एक कॉपी की फोटो चल निकली कि जब सब कुछ जल गया, तब भी गीता का बाल बांका नहीं हुआ। बाद में कुछ दूसरे लोगों ने यह भी लिखा कि यह गीता विमान पर सवार नहीं थी, यह नीचे मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में रखी हुई थी, जिसके ऊपर यह विमान गिरा था, और हॉस्टल के कमरों में तो आग लगी नहीं थी। इन दिनों हवा कुछ ऐसी है कि लोग अपनी पसंदीदा झूठ को, शायद यह जानते-समझते भी कि वह शायद झूठ भी हो सकता है, आगे बढ़ाते चलते हैं। फिर आबादी का एक हिस्सा ऐसा है जो धर्म से जुड़ी किसी भी अफवाह को, या झूठ को आगे बढ़ाना अपनी धार्मिक जिम्मेदारी मानता है। नतीजा यह हुआ कि गीता को करोड़ों लोग फायरप्रूफ साबित करने लगे, और एक किस्म से ऐसा माहौल बनने लगा कि आग या किसी दूसरे हादसे से बचना हो, तो गीता साथ रखना चाहिए।
पौने तीन सौ लोगों की मौत वाली इस हवाई दुर्घटना में जितनी हमदर्दी बेमौत मरने वालों के लिए जाहिर की गई, तकरीबन उसी टक्कर की उपलब्धि एक गीता के न जलने की बेबुनियाद खबर को माना गया। इससे यह भी लगा कि लोगों की जिंदगी में असल इंसानों की जिंदगी, और एक किताब की जिंदगी में अधिक अहमियत किस बात की हो गई है! ऐसे में शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कैमरों के सामने एक शानदार हौसले की बात कही कि लोग कह रहे हैं कि गीता बच गई। उन्होंने सवाल किया कि इतनी बड़ी संख्या में, सैकड़ों लोग मर गए, और गीता बच गई, तो कौन सी बड़ी बात हो गई? उन्होंने कहा चमत्कार तो तब होता जब गीता जल जाती, और लोग बच जाते। उन्होंने कहा कि ऐसी कहानियां उन्हें खुश नहीं करती हैं, दुखी ज्यादा कर देती हैं। उन्होंने कहा कि जहां मानव जीवन की हानि हुई है, वहां ऐसी रिपोर्टिंग भी दुखी करती है जहां मीडिया किताब को हाथ में लेकर यह बताता है कि यह नहीं जली।
गीता चूंकि एक धर्म से जुड़ी हुई किताब है, इसलिए इसी धर्म के एक प्रमुख जब साफ-साफ इस बात को कहते हैं, तो भारत के अभिभूत धर्मालुओं पर थोड़ा-बहुत असर होने की एक गुंजाइश बनती है। हालांकि अधिक सनसनीखेज बात गीता का बचना है, और इसलिए इंसानों के जलने पर उतनी हैरानी नहीं हुई, इंसान तो जलते ही रहते हैं। यह सब देखकर लगता है कि धर्म का सबसे बड़ा असर दिमाग, तर्कशक्ति, और न्यायप्रियता को खत्म करने का होता है। धर्म लोगों को इस कदर हिंसक बना देता है कि वे धर्म के नाम पर नाबालिग बच्चों को सेक्स-गुलाम बनाने को भी धर्मानुकूल मान लेते हैं। अफगानिस्तान और उसके आसपास के तालिबानों ने क्या नहीं किया? और सब कुछ धर्म के नाम पर किया, आज भी धर्म के नाम पर कर रहे हैं। वेटिकन से जुड़े पादरियों ने लाखों बच्चों का यौन-शोषण किया, और वेटिकन ने उन्हें बचाने में पूरी ताकत लगा दी, और यह सब भी धर्म के ही नाम पर हुआ। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले के आतंकी अपने फौजी दर्जे के हथियारों के साथ डेरा डालकर रहते थे, वहां से बाहर निकलते थे, छांट-छांटकर गैरसिक्खों को मारते थे, और वापिस आकर फिर मंदिर में डेरा डालते थे। न धर्म ने उन्हें रोका, न उन्होंने इसे धर्म का हिस्सा नहीं माना। भारत के बगल के म्यांमार में जिस तरह रोहिंग्या मुस्लिमों को दसियों लाख की संख्या में मार-मारकर देश से भगाया गया, उसे बौद्ध मठों की पूरी मंजूरी रही, और आज ये शरणार्थी होकर कई देशों में किसी तरह जिंदा हैं। म्यांमार में 2012 से ही कई बौद्ध मठों ने रोहिंग्या को निकालने की मांग की, बौद्धभिक्षुओं ने उन्मादी रैलियां निकालीं, मठों से भडक़ाऊ भाषण और पर्चे जारी हुए, और उन्होंने धार्मिक अस्मिता और राष्ट्रवाद का सहारा लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड की जमीन तैयार की। अब जो बुद्ध दुनिया में शांति का प्रतीक हैं, उनके नाम पर पलने वाले भिक्षुओं ने भारत के आसपास का यह सबसे बड़ा मानव संहार किया, और एशिया के इस हिस्से में 21वीं सदी की सबसे बड़ी बेदखली भी। इसलिए जो लोग धर्म का गुणगान करते हैं, उसे कल्याणकारी बताते हैं, उन्हें धर्म का इतिहास जरूर पढऩा चाहिए जो कि उनके धार्मिक पूर्वाग्रहों की चर्बी पर कुछ जोर जरूर डालेगा।
लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि हजारों बरस पहले के जिन धर्मग्रंथों के अपमान के नाम पर, सच्चे-झूठे आरोपों को लेकर भारत के बगल के पाकिस्तान में ही जाने कितने लोगों को ईशनिंदा के आरोप में घेरा जाता है, और कई मामलों में तो पुलिस से गिरफ्तार लोगों को छीनकर उनकी सार्वजनिक भीड़त्या कर दी जाती है। धर्म के नाम पर एक प्रतिमा, एक झंडा, एक प्रतीक चिन्ह, एक किताब, या एक किसी पशु का इस्तेमाल कई किस्म के दंगे करवाने के लिए किया जा सकता है। धर्म की यह मारक क्षमता सभी को अच्छी तरह मालूम है, इसीलिए एक हिन्दू राज वाले उत्तरप्रदेश में जाने कितनी ही साजिशें वहीं की पुलिस ने उजागर की हैं जिनमें साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए हिन्दुओं ने ही कहीं गाय कटवाई, तो कहीं मंदिरों को नुकसान पहुंचाया, और उनमें मुस्लिमों का हाथ साबित करने की कोशिश भी की, लेकिन सुबूत इतने पुख्ता थे कि पकड़ लिए गए। दुनिया में जगह-जगह लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं को किसी भी दर्जे की हिंसा करने के लिए काफी मान लेते हैं। ऐसे लोग लोकतंत्र का हर किस्म का मजा लेते हैं, अपने बचाव के लिए सरकार और अदालत का इस्तेमाल करते हैं, और फिर लोकतंत्र को धता बताते हुए धार्मिक आस्था को संविधान से ऊपर ठहराते हैं, और हिंसा करते हैं। अपने बचाव के लिए वे संविधान की शरण में पहुंच जाते हैं, और अपने हमलों और अपनी हिंसा को जायज साबित करने के लिए वे धर्म के झंडे-डंडे थाम लेते हैं।
जिस बात से हमने आज की यह चर्चा शुरू की है, उसमें गीता को लेकर एक झूठी या अवैज्ञानिक धारणा फैलाने की कोशिश हुई है, कोई हिंसा नहीं हुई है। लेकिन जब इस तरह की कोशिशों से लोगों की वैज्ञानिक समझ और तर्कशक्ति को भोथरा किया जाता है, तो फिर वहां पर किसी भी अंधविश्वास, और हिंसा के लिए एक उपजाऊ जमीन तैयार हो जाती है। दुनिया के इतिहास में सदियों पहले से लेकर, अभी हाल के बरसों में बेंगलुरू और पुणे तक अंधविश्वास विरोधियों को मारा जाता रहा है, और यह तो अच्छा हुआ कि शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने एक समझदारी की बात कही है, और धार्मिक अंधविश्वास पर बड़ी चोट की है। जब बड़े धार्मिक पद पर बैठे हुए लोग अंधविश्वास पर वार करेंगे, तो वह हमारी सरीखी कोशिशों के मुकाबले हजारों गुना अधिक असरदार होगा। जिस वक्त इस देश के लोगों को इस हादसे के असल पहलुओं पर चर्चा करनी चाहिए, उस वक्त चर्चा को गीता के एक कथित चमत्कार की तरफ मोड़ देना जिंदगी के कठिन मुद्दों से लोगों को दूर ले जाने का काम है, और इस काम को अनायास नहीं मान लेना चाहिए, ये तमाम चीजें बहुत सोच-समझकर एक योजना के साथ की जाती हैं, ताकि किसी बड़ी असफलता की चर्चा के बीच नरेटिव बदला जा सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


