संपादकीय
कोई जिंदगी कहां शुरू होती है, और कहां तक पहुंचती है, यह कई फिल्मों की कहानी बन सकती है, या मानवीय दिलचस्पी की कोई रिपोर्ट भी। अभी छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में दंतेवाड़ा जिले में एक नाबालिग छात्रा ने बच्चे को जन्म दिया, और इस बात को छुपाने के लिए उसने नवजात को, या उसके शव को शौचालय के कमोड में डाल दिया। स्कूल और छात्रावास को उसके गर्भवती होने की भनक नहीं लगी थी। ऐसी कोई न कोई घटना हर साल-छह महीने में छत्तीसगढ़ में होती है, और आमतौर पर नाबालिग छात्राएं नवजात शिशु को फेंक ही देती हैं, क्योंकि उनको जिंदा रखना, और पालना बहुत बड़ी सामाजिक असुविधा की बात होना तय रहता है। अब बेकसूर नवजात बच्चे हर हफ्ते-पखवाड़े कहीं न कहीं नाले और घूरे पर पड़े मिलते हैं, और लगता है कि अगर ये जिंदा रहते तो कहां तक पहुंचे रहते? क्या कोई बहुत बड़ी संभावना ऐसी मौत के साथ खत्म हो जाती है? ऐसे सवालों के बीच एक घटना याद पड़ती है।
ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान रहीं लिजा कार्पि्रनी स्थालेकर आज ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट में कमेंटटर हैं, और उनकी कहानी यह सोचने पर मजबूर करती है कि कोई भी अवांछित मानी जाने वाली संतान अगर मार न दी जाए, तो वह कितनी संभावनाएं रखती है। अब इसी लिजा की बात करें तो भारत के पुणे में उसके मां-बाप उसे पालने की हालत में नहीं थे, तो उन्होंने वहां के एक अस्पताल से जुड़े अनाथाश्रम, श्रीवत्स के पालने में उसे छोड़ दिया। वहां उसे लैला नाम के साथ पाला गया। उधर अमरीका में एक भारतवंशी हरेन स्थालेकर रहते थे, और उनकी पत्नी स्यू एक अंग्रेज मां-बाप की बेटी थी। उनकी एक बेटी थी, और वे एक बेटा गोद लेना चाहते थे, ताकि परिवार पूरा हो जाए। जब वे भारत आए, तो गोद लेने को एक लडक़े की तलाश में जब वे कामयाब नहीं हुए, और श्रीवत्स नाम के अनाथाश्रम को छोडक़र निकल ही रहे थे, तो वहां के लोगों ने उन्हें सुझाया कि एक बार वहां की एक लडक़ी लैला को भी देख लें। लैला को देखने पर स्यू उसकी बड़ी-बड़ी भूरी आंखों को देखते ही उससे प्यार करने लगी, और उन्होंने जल्द ही उसे गोद लेने की औपचारिकता पूरी करके उसे लिजा नाम देकर गोद ले लिया, और जन्म के तीन हफ्ते के भीतर ही इन नए मां-बाप के साथ वह अमरीका पहुंच गई। बाद में यह परिवार ऑस्ट्रेलिया में बस गया, और लिजा वहीं पर क्रिकेट खेलने लगी जो कि भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों का सबसे लोकप्रिय खेल है। शुरूआत में पिता के साथ घर पर क्रिकेट खेलते हुए उसे पता भी नहीं था कि महिलाओं का क्रिकेट भी होता है। लेकिन लडक़ों के साथ-साथ खेलते-खेलते जब वह महिला टीम में पहुंची, तो वह टेस्ट मैच, और वनडे खेलते-खेलते क्रिकेट के आसमान पर पहुंची, वनडे में हजार रन बनाने और सौ विकेट लेने वाली वह पहली महिला क्रिकेटर बनी। क्रिकेट में उसके और रिकॉर्ड बनते चले गए, और इस बीच 2012 में वह पुणे में अपने पहले घर, श्रीवत्स नाम के अनाथाश्रम में भी आकर गई।
इन दो अलग-अलग कहानियों को देखें, तो दिल दहल जाता है। एक तरफ अवांछित मानकर छोड़ दी गई एक लडक़ी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के आसमान पर पहुंची, और दूसरी तरफ वैसी ही बच्चियां, या बच्चे, नाबालिग मां की कोख से जन्म लेकर कहीं कमोड में मौत पाते हैं, तो कहीं हॉस्टल की खिडक़ी से फिंककर जमीन पर गिरकर मरते हैं। यह कैसी जिंदगी है जिसमें किसी को संभावनाओं का आसमान मिलता है, तो किसी और को नाली, गटर, या घूरे पर मौत! जो लोग भी अवांछित बच्चों की जिंदगी बचाने का काम करते हैं, वे इसलिए महान होते हैं कि वे हो सकता है कि किसी दूसरी सुनीता विलियम्स को बचा रहे हों, या जैसा कि इस मामले में हुआ है ऑस्ट्रेलिया महिला क्रिकेट टीम की कप्तान को। हर जिंदगी किस तरह की संभावनाओं को लिए रहती है, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती। दुनिया में ऐसी और भी बहुत सारी कहानियां हैं जिनमें गटर में मौत से बचे बच्चे कामयाबी के आसमान पर पहुंचे। इसलिए सरकार और समाज को, परिवार को यह याद रखना चाहिए कि वे अगर किसी अवांछित बच्चे को खत्म करने की कोशिश करते हैं, तो वैसे बच्चे को चाहने वाले लोगों की भी कतार लगी हो सकती है। जिन लोगों को यह लगता है कि बच्चों को गोद लेकर कुछ लोग उनका धर्म बदलकर, या उन्हें अपने धर्म में शामिल करके धर्मांतरण की कोशिश कर रहे हैं, तो उन लोगों को खुद ही ऐसे अनाथाश्रम चलाने चाहिए, ताकि लोग आसानी से अवांछित बच्चों को वहां छोड़ सकें। और सभी तरह के लोगों को एक ऐसे समाज के बारे में भी सोचना चाहिए कि जहां कोई भी बच्चे अवांछित न समझे जाएं। बच्चे खुद होकर तो अपनी मर्जी से इस दुनिया में आते नहीं हैं, वे तो बालिग या नाबालिग, विवाहित या अविवाहित, किसी भी किस्म के मां-बाप से पैदा होते हैं, और उनका हक दुनिया में जिंदा रहने, और आगे बढऩे का ठीक उतना ही रहता है, जितना कि किसी भी परिवार में जन्मे किसी और बच्चे का रहता है। दुनिया में बहुत सारे ऐसे अधिक सभ्य समाज हैं जहां पर कोई बच्चे अवांछित, नाजायज, हरामजादे, या बास्टर्ड नहीं होते। वहां उनकी मां शादीशुदा हो, या अकेली हो, वे बच्चे जायज ही रहते हैं। हर समाज को अपने अवांछित माने जाने वाले बच्चों की नजर से, उनके हक के हिसाब से यह देखना और सोचना चाहिए कि सामाजिक नियम किसी मासूम और बेकसूर बच्चे के खिलाफ ऐसे कैसे हो सकते हैं कि वे उसे हरामजादा कह सकें? इंसानों के समाज को कुछ इंसानियत भी सीखनी चाहिए, कम से कम इंसानियत का वह हिस्सा जो कि लोगों के स्वभाव में सकारात्मक रहता है। जिस वक्त समाज ऐसे रीति-रिवाज बनाता है, ऐसी संस्कृति को लागू करता है कि अकेली लडक़ी या महिला अपनी संतान को मार डालने को बेबस हो जाती है, तो वहां पर उस समाज को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसे बच्चों को बचाने वाले कोई भी धर्म, कोई भी संगठन, क्या इंसानियत का काम नहीं कर रहे हैं? क्या उन्हें बचाने वाले लोग उनके धर्म की जानकारी के बिना उन्हें अपने धर्म में शामिल करके क्या उन्हें मौत देने से भी अधिक बुरा कर रहे हैं? क्या किसी भी देश-प्रदेश, धर्म और जाति के संगठन अपने आसपास के ऐसे बच्चों को बचाने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? कुल मिलाकर ऑस्ट्रेलिया, और बाकी दुनिया के आसमान तक पहुंची हुई इस क्रिकेटर को देखें, और अपने आसपास के घूरे-गटर पर मरने वाले दूसरे बच्चों को देखें, कि बच्चों के साथ क्या सुलूक किया जाना चाहिए।


