संपादकीय

छत्तीसगढ़ के बस्तर में आज सुबह नक्सलियों के लगाए एक विस्फोटक के धमाके में एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक शहीद हो गए, और कुछ दूसरे अधिकारी जख्मी हुए हैं। यह शायद सीधा-सीधा नक्सल हमला नहीं था, लेकिन नक्सलियों ने बस्तर के अनगिनत इलाकों में विस्फोटक लगाकर रखे हैं, उनमें से ही किसी के विस्फोट से यह घटना हुई दिखती है। अभी दो ही दिन पहले मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और गृहमंत्री विजय शर्मा के साथ राज्य के पुलिस अधिकारी दिल्ली जाकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मिलकर आए थे, और बड़े-बड़े नक्सल नेताओं के मारे जाने पर अमित शाह ने उन्हें बधाई भी दी थी, उनका अभिनंदन किया था। आज के इस हादसे से सुरक्षा बलों की पिछले सवा साल की कामयाबी कम नहीं हो जाती है, लेकिन नक्सल समस्या अभी जिंदा है, जानलेवा है, और महज सुरक्षाबलों की कार्रवाई से यह पूरी तरह खत्म नहीं हो रही है, यह भी दिखता है। आज की यह शहादत राज्य के लिए बहुत तकलीफ की है, और नक्सल मोर्चे पर कामयाबी का जो जश्न सुरक्षा बल मना रहे थे, उसका उत्साह भी इससे कुछ कम हुआ है।
इससे जुड़ा हुआ जो दूसरा पहलू बहुत महत्वपूर्ण है, वह है नक्सलियों के साथ शांतिवार्ता का। राज्य सरकार साल भर से अधिक समय से लगातार नक्सलियों से यह कहते आ रही है कि वे शांतिवार्ता के लिए सामने आएं, हिंसा छोड़ें, और लोकतंत्र की मूलधारा में शामिल हों। शुरू में तो नक्सलियों का रूख शांतिवार्ता के लिए किसी उत्साह का नहीं था, लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए, तो उन्हें यह समझ आया कि वे अब बुरी तरह घिरते भी जा रहे हैं, और बुरी तरह घटते भी जा रहे हैं। जब वे बहुत अधिक कमजोर पडऩे लगे, तो पिछले कुछ महीनों से उन्होंने शांतिवार्ता की अपील जारी करना शुरू किया, और सार्वजनिक बयानों से उन्होंने राज्य सरकार, और प्रधानमंत्री-गृहमंत्री से भी अपील की कि उनके खिलाफ हथियारबंद अभियान रोककर शांतिवार्ता की जाए। उनकी सारी अपील राज्य सरकार के इस सार्वजनिक आव्हान के साथ-साथ चलती रही कि नक्सली बातचीत के लिए सामने आएं। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री विजय शर्मा ने तो यह तक कहा कि वे चाहें तो किसी वीडियो कॉल पर उनसे (गृहमंत्री से) बात कर लें। लेकिन ऐसी कोई बातचीत हुई हो, ऐसा सामने नहीं आया। यह भी हो सकता है कि परदे के पीछे दोनों पक्षों की तरफ से किसी स्तर की कोई बात हुई हो, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार किसी जिम्मेदार ओहदे वाले नक्सली से ही शांतिवार्ता करना चाहती हैं ताकि उसमें जो कुछ तय हो, उस पर अमल भी हो सके। अब तक ऐसा हो नहीं पाया है, और कुछ ऐसे बड़े नक्सल नेता मारे गए हैं जो अगर बातचीत के लिए खुद होकर सामने आते तो शायद राज्य सरकार उनसे बातचीत कर भी लेती। अभी सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत को लेकर मुद्दा दो कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है, और इसका एक नुकसान हमें यह दिखता है कि जब तक नक्सल आंदोलन चलते रहेगा, सुरक्षाबलों की कार्रवाई चलती रहेगी, इन दोनों पक्षों को जिंदगियों का नुकसान होगा, और साथ-साथ बस्तर के आदिवासी भी मारे जाते रहेंगे। इसलिए बातचीत होने से सभी तरह की मौतें थमतीं, और इसीलिए हम लगातार इसकी वकालत भी करते हैं।
आज भी राज्य में बड़ी उदासी है क्योंकि यहीं के एक अफसर की शहादत हुई है, और वे काफी अरसा नक्सल इलाकों में काम करते आ रहे थे। इस नुकसान से भी एक बार फिर यह लगता है कि सरकार के हथियारबंद अभियान के साथ-साथ बातचीत की एक समानांतर कोशिश होनी चाहिए, ताकि किसी भी तरह की मौत थमे। अभी हमने देखा है कि किसी तरह एक बड़े नक्सल नेता के परिवार की एक छोटी बच्ची ने एक सार्वजनिक अपील करके अपने दादा को घर लौटने के लिए कहा था। सारे के सारे नक्सली हैं तो हिंदुस्तानी, और किसी मुठभेड़ में मारे जाने के बजाय अगर आत्मसमर्पण से, या किसी बातचीत के रास्ते से वे शांति की राह पर आ सकते हैं, तो उनकी मौतों का नुकसान भी थमेगा, सुरक्षाबलों और ग्रामीणों की जिंदगियों का नुकसान तो बीच-बीच में होता ही है।
आज राज्य सरकार बहुत अधिक मजबूत हालत में है, और नक्सली बहुत ही कमजोर हो चुके हंै, घिर चुके हैं। ऐसे में सरकार के कुछ लोगों को लग सकता है कि किसी शांतिवार्ता की क्या जरूरत है। लेकिन हमारा मानना है कि लोकतंत्र में जब किसी दुश्मन देश के साथ भी बातचीत हो सकती है, तो अपने देश के लोकतंत्र से भटके हुए लोगों से बातचीत क्यों नहीं हो सकती? लोकतंत्र की सफलता इसी में है कि जहां तक बातचीत से हल निकल सके, गोलियों की जरूरत न पड़े। और सरकार के पास तो बस्तर में चालीस-पचास हजार बंदूकें हैं ही, और वे आज कामयाब भी हो रही है। फिर भी जैसा कि कल ही सरकार का रूख सामने आया था, बातचीत की कोशिश जारी रहनी चाहिए।