संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हाथियों के पैरोंतले कुचलने से बचने पर ले लें सबक...
सुनील कुमार ने लिखा है
27-Jun-2025 4:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : हाथियों के पैरोंतले कुचलने से बचने पर ले लें सबक...

गुजरात के अहमदाबाद में रथयात्रा बड़ी विख्यात रहती है। आज इस वक्त दोपहर 12 बजे वहां रथयात्रा निकल रही है, और सडक़ों पर एक भगदड़ भी मची हुई है। यात्रा की झांकियों में शामिल कई हाथी बेकाबू हो गए हैं, और सडक़ों पर मनमानी भाग रहे हैं। साधुओं सरीखे कपड़ों में उनके महावत दौड़-दौडक़र उनको काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। ये वीडियो देखना भी डरावना लग रहा है क्योंकि सडक़ें लोगों से पटी हुई हैं, और उससे भी अधिक यह कि चारों तरफ बहुत तेज आवाज में लाउडस्पीकर बज रहे हैं जो कि भारत में हर धार्मिक त्यौहार का आम हाल है। अब अगर इन हाथियों के विचलित हो जाने के पीछे यह शोरगुल जिम्मेदार होगा, तो हमें जरा भी हैरानी नहीं होगी। जो आवाज अंधभक्तों को छोडक़र बाकी किसी को भी बर्दाश्त नहीं हो सकती, उस दर्जे के शोरगुल से हाथी जैसे बड़े कानों वाले प्राणी विचलित होना, आपा खोना, और उस जगह से भाग निकलने की कोशिश करना बड़ा स्वाभाविक लगता है। अब हाथियों को लेकर सरकार के जो भी नियम हों, उनमें अगर नहीं भी है, तो भी इस बात को जोड़ा जाना चाहिए कि हाथी, ऊंट, घोड़े जैसे जानवरों को किसी भी शोभायात्रा में, या लाउडस्पीकरों वाली जगह पर न ले जाया जाए। अगर वे आपा खोकर हिंसक नहीं भी होते हैं, तो भी वे किस बुरी हद तक प्रताडि़त होते हैं, इसे वे ही समझ सकते हैं। इंसान तो फिर भी कानों में रूई लगा सकते हैं, कान बंद कर सकते हैं, या अपनी अंधभक्ति की वजह से उस शोरगुल का मजा भी ले सकते हैं, लेकिन जानवरों की तो ऐसी कोई अंधभक्ति होती भी नहीं है। इस मुद्दे पर लिखना इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि यह तो सालाना एक बार की रथयात्रा है, लेकिन हम अपने ही शहर में तरह-तरह के राजनीतिक, धार्मिक, और सामाजिक जुलूस ऐसे देखते हैं जिनमें डीजे के भयानक शोरगुल के बीच इन जानवरों को सजाकर, इनके ऊपर संपन्न तबके के लोगों को, उनके बच्चों को बिठाकर शोभायात्रा निकाली जाती है, और इसे शान-शौकत की बात माना जाता है कि किस जुलूस में हाथी-घोड़ा-पालकी, कितने थे।

छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट राज्य के प्रमुख चौकीदार की तरह लाठी लेकर राज्य सरकार के पीछे लगा हुआ है कि डीजे का शोरगुल बंद कैसे होगा। अब तक सरकार को जारी नोटिसों की शायद सेंचुरी ही पूरी हो चुकी होगी। इस राज्य में डीजे के शोरगुल की वजह से मौतें भी हो चुकी हैं, और कत्ल भी हो चुके हैं। लेकिन जुर्म, और अस्पताल के आंकड़ों से परे शोरगुल से लोग जितना प्रताडि़त होते हैं, उसके कोई आंकड़े नहीं होते। शोरगुल को लेकर देश के तकरीबन हर हाईकोर्ट ने कई बार आदेश दिए हैं, सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं, लेकिन सरकारें इसलिए अमल नहीं करती हैं कि शोरगुल करने वाले किसी धर्म, जाति, राजनीतिक दल, या किसी संगठन के संगठित लोग रहते हैं, और जहां कुछ हजार लोगों की संगठित भीड़ हो, वहां पर सत्ता को ठंड में भी पसीना आने लगता है। सरकार किसी भी भीड़ को नाराज करना नहीं चाहती, नतीजा यह होता है कि भीड़ चाहे रेल के डिब्बे में बारात की हो, स्टेशन पर किसी सुरक्षा एजेंसी की हो, सडक़ों पर धर्म, या जाति की हो, वह एक अराजक और हिंसक हमलावर टोली की तरह कानून तोड़ती है, और पुलिस उन्हें ही हिफाजत देते हुए साथ-साथ चलती है। छत्तीसगढ़ में यह देखना बड़ा हैरान करता है कि हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अपनी ही दर्जनों नोटिसों के बाद थककर और निराश होकर यह कहते हैं कि अफसर उसके हुक्म, और कानून मानना ही नहीं चाहते, और हाईकोर्ट की इस बात में जरा भी ज्यादती नहीं है, बस जजों की बेबसी है। कभी-कभी तो हमें लगता है कि अगर जज सरकार को कटघरे में खड़ा करके कहें कि उनसे गलती हो गई थी जो कि सरकार को नोटिस जारी किया था, और अब उन्हें अपनी सीमित, और सरकार की असीमित ताकत का अंदाज हो गया है, और सरकार से वे माफी चाहते हैं, उन्हें राज्य जैसा चलाना हो, चलाए।

अहमदाबाद की इस घटना से और कोई सबक ले या न ले, अदालतों की बात कोई सुनते हों, या न सुनते हों, सुप्रीम कोर्ट को इस घटना का नोटिस लेना चाहिए, और गुजरात सहित देश की हर सरकार से जवाब मांगना चाहिए कि बेबस जानवरों की शोरगुल और भीड़ के बीच ऐसी प्रताडऩा की इजाजत वे कैसे देती हैं, और इसे रोकने के लिए उनकी क्या योजना है। हमारा यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को जनहित के ऐसे अलग-अलग कई मामलों में भरोसेमंद और साख वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, या कुछ रिटायर्ड अफसरों को अपना जांच कमिश्नर बनाना चाहिए जो कि अदालत की तरफ से देश भर में ऐसे मामलों पर नजर रख सकें, और अदालत को समय-समय पर इन मुद्दों पर देश के हालात बता सकें। अदालतें कई मामलों में ऐसा करती हैं, कहीं वे जांच कमिश्नर बनाती हैं, कहीं वे किसी जटिल अदालती मामले को समझने के लिए अपनी मदद के लिए किसी निष्पक्ष वकील को न्यायमित्र नियुक्त करती हैं। हमने छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इस बात को पहले भी लिखा था कि हाईकोर्ट को प्रदेश स्तर पर एक जांच कमिश्नर बनाकर, हर जिले में कुछ पर्यवेक्षक रखकर ऐसे सामाजिक लोगों से रिपोर्ट मंगानी चाहिए, और उस पर फिर राज्य सरकार और जिला प्रशासन से जवाब मांगना चाहिए।

अपनी शान-शौकत दिखाने के लिए समाज के तबके जब बेजुबान पशुओं का ऐसा हिंसक इस्तेमाल करते हैं, तो वह शान-शौकत असभ्य होती है, हिंसक तो होती ही है। किसी भी जनकल्याणकारी राज्य में सरकार और अदालत दोनों की ही यह जिम्मेदारी होती है कि ऐसी असभ्यता को रोके। सबसे पहले तो सरकार को ही यह जिम्मा निभाना था, लेकिन भारत का तजुर्बा यह है कि जनकल्याण के शायद ही कोई काम जनहित याचिका के बिना होते हों। जिन अदालतों का काम विवाद निपटाना रहना चाहिए, उन अदालतों को सरकार को उसका काम सिखाने में ही आधा वक्त गंवाना पड़ता है। यह सिलसिला लोकतंत्र की बुनियादी व्यवस्था को ही चौपट कर रहा है, जब अदालत को सुपर-शासन-प्रशासन की तरह काम करना पड़ता है। जिन मामलों में संसद और विधानसभाओं को काम करना चाहिए, उन पर भी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपना वक्त जाया करने को मजबूर होते हैं। लोकतंत्र में इन तीनों संस्थाओं के अलग-अलग काम तय हैं, लेकिन जब इन तीनों में से कोई एक अपनी जिम्मेदारी पूरी न करे, तो फिर बाकी दो को दखल देनी होती है। यह नौबत बहुत खराब है। फिलहाल तो गुजरात और दूसरे प्रदेशों की सरकारों को अहमदाबाद की आज की इस घटना से सबक लेना चाहिए जिसमें दर्जनों लोगों की जानें भी जा सकती थीं, और ये जिंदगियां सरकारी इंतजाम से नहीं बची हैं, सरकारी बदइंतजामी के बावजूद बची हैं। 

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