संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और आहत भावनाएं, थानेदार बन गए हैं जज!
सुनील कुमार ने लिखा है
20-Jun-2025 5:25 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और आहत भावनाएं, थानेदार बन गए हैं जज!

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस कभी खत्म ही नहीं होती है। देश, काल, और परिस्थितियों के चलते धार्मिक या नैतिक भावनाओं के पैमाने बदलते रहते हैं, और इन्हीं के साथ-साथ लोगों के अभिव्यक्ति के तौर-तरीके भी बदलते हैं। टेक्नॉलॉजी तरह-तरह के माध्यम खड़े करती है, और एक वक्त अखबारों में कुछ छपने के लिए अनुभवी पत्रकारों की नजरों से गुजरना जरूरी रहता था, लेकिन अभी पिछली चौथाई सदी से इंटरनेट और सोशल मीडिया के चलते आम लोग भी अपनी बातों को खुलकर लिखने लगे हैं, और उन्हें न तो कानून की समझ रहती, न ही वे नैतिकता या धार्मिक भावनाओं की अधिक परवाह करते। ऐसे में जब किसी देश में एक राष्ट्रवाद का सैलाब और बिखरा हुआ हो, लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होने के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हों, तो माहौल बड़ा तनावपूर्ण हो जाता है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में ऐसी ही भावनाओं को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, वे बड़े जायज हैं, और उन पर हर किसी को सोचना-विचारना चाहिए।

हुआ यह है कि तमिल और कन्नड़ भाषाओं को लेकर तमिल अभिनेता कमल हासन ने कुछ दिन पहले ऐसा बयान दे दिया कि कन्नड़ तमिल से निकली हुई भाषा है। अब दक्षिण के राज्यों में भाषा को लेकर जो संवेदनशीलता है, वह सिर्फ हिन्दीविरोध तक सीमित नहीं है, वह आपस में भी उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती हैं। आज हालत यह हो गई कि जिस कमल हासन की नई फिल्म के लिए पूरा दक्षिण भारत इंतजार करता है, उसका विरोध करते हुए कर्नाटक में उनकी नई फिल्म के बहिष्कार का फतवा दिया गया है, और कर्नाटक के सिनेमाघरों में वह रिलीज नहीं हो पा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फिल्म की रिलीज और उसे सुरक्षा देने के लिए पहुंचे हुए निर्माता के मामले में दखल देने के लिए कन्नड़ साहित्य परिषद भी पहुंच गया है, और उसने कहा कि कमल हासन का बयान फिल्म के प्रचार का हथकंडा है, और ऐसे बयान से कन्नड़ लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इस सुनवाई के दौरान सवाल किया कि क्या किसी एक टिप्पणी के कारण, फिल्म, कोई कॉमेडी शो, या कविता पाठ रोक देना चाहिए? जस्टिस उज्जल भुईयां और जस्टिस मनमोहन ने इस पूरे विवाद पर कहा कि भारत में भावनाओं को ठेस पहुंचने का कोई अंत नहीं है। अगर कोई स्टैंडअप कॉमेडियन कुछ कहता है तो भावनाएं आहत हो जाती हैं, तोडफ़ोड़ होने लगती है, अदालत ने सवाल किया कि हम जा कहां रहे हैं? फिल्म निर्माता ने अदालत को बताया कि कर्नाटक में इसके रिलीज न होने से अब तक 30 करोड़ रूपए का नुकसान हो चुका है। बाकी पूरे देश में यह फिल्म दिखाई जा रही है, लेकिन कर्नाटक में आशंका है कि कमल हासन के बयान से उबले हुए लोग इसके प्रदर्शन पर कुछ हिंसा भी कर सकते हैं। ऐसे में अदालत ने कर्नाटक सरकार को भी याद दिलाया है कि फिल्म और कमल हासन को धमकी देने वालों पर कार्रवाई करना राज्य शासन की जिम्मेदारी है। अदालत ने कहा कि कमल हासन को कोई माफी मांगने की जरूरत नहीं है, जैसा कि कन्नड़ आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं। जजों ने कहा कि हम देश में ऐसा नहीं होने दे सकते कि एक विचार की वजह से चीजों को रोक दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस रूख के पहले जब यह मामला कर्नाटक हाईकोर्ट में ले जाया गया था, तो वहां जज ने राज्य सरकार को फिल्म को सुरक्षा देने का निर्देश देने से भी मना कर दिया था। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। और अब इस अदालत का रूख देखकर यह समझ पड़ता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट का रूख स्थानीय कन्नड़ आंदोलनकारियों के लिए हमदर्दी का था। सुप्रीम कोर्ट में कमल हासन ने यह साफ किया कि वे बंदूक की नोंक पर कोई माफी नहीं मांगने वाले।

यह मामला बड़ा दिलचस्प इसलिए है कि देश में आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हिंसा और धमकी देने के लिए तो भरपूर इस्तेमाल हो रही है, लेकिन  बहुसंख्यक लोगों की धार्मिक भावनाओं को छूने वाली कोई बात कहना भी आज जानलेवा हो गया है, फिर वह बात पूरी तरह से ऐतिहासिक सुबूतों वाली हो, तर्कसंगत और न्यायसंगत हो। ऐसे माहौल में देश की सबसे बड़ी अदालत का खुलकर कुछ कहना एक अच्छा संकेत है, और इससे नीचे की अदालतों को भी एक बेहतर राह दिखाई पड़ेगी। आज गली-गली में प्रदेश में सत्तारूढ़ सोच से असहमत कोई भी बात कहने पर एफआईआर हो जाने का एक खतरा दिखता है। थानों के स्तर पर ही लोगों की गिरफ्तारियां हो रही हैं, और उन्हें जमानत मिलने में महीनों लग जा रहे हैं। जब न्याय की प्रक्रिया ही दंड बन जाए, और सुनवाई या फैसले से पहले की विचाराधीन कैद ही लोगों को प्रताडि़त करने का औजार बन जाए, तो इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं, या राष्ट्रीय भावनाओं के आहत होने को लेकर एक बेहतर संवैधानिक व्याख्या की जरूरत है। जब लोकतंत्र में किसी को जेल भेजने के लिए एक थाने की समझ काफी हो जाती है, तो वहां किसी वैचारिक स्वतंत्रता की गुंजाइश नहीं रह जाती। हम यह बात किसी एक विचारधारा, या किसी एक धर्म को लेकर नहीं कह रहे हैं। तमाम लोगों को पहली बात तो यह कि अपनी सहनशक्ति को कुछ बढ़ाना चाहिए, दूसरी बात यह कि दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखना भी सीखना चाहिए, और तीसरी बात यह कि पुलिस को अभिव्यक्ति और भावनाओं की व्याख्या जैसे महीन काम में नहीं उलझाना चाहिए। जहां पर सुनार के बारीक औजारों की जरूरत हो, वहां पर लुहार के छेनी-घन से बारीक काम नहीं हो सकता। जब सत्ता के प्रभाव में एक थानेदार अभिव्यक्ति और भावनाओं की व्याख्या करके भी लोगों को महीनों तक जेल में रख सकता है, तो वहां पर राजनीतिक प्रतिशोध, और लोकतांत्रिक असहमति मिलकर एक खतरनाक नौबत पैदा कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एकदम सही तरीके से, भले ही कम शब्दों में आज की जरूरत को उठाया है, हमें यह बेहतर लगता अगर वे अधिक खुलासे से इस पर टिप्पणी करते।

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