संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कानून से परे जाकर किसी रिश्ते को बेशर्म कहने का जज को भला क्या हक है?
19-Feb-2025 5:16 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : कानून से परे जाकर किसी रिश्ते को बेशर्म कहने का जज को भला क्या हक है?

उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू की गई है जिसमें राज्य के आदिवासियों को छोडक़र बाकी तमाम लोगों पर इसे धर्मों से परे एक सरीखा लागू किया गया है। इस कानून के मुताबिक शादी की उम्र 18 बरस की लडक़ी, और 21 बरस का लडक़ा है। हर शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है, और तलाक कानून सम्मत आधार पर ही हो सकेगा। इसी तरह तलाक की हालत में गुजारा-भत्ता, और बाकी हिसाब-किताब सभी धर्मों से परे एक सरीखा होगा। संपत्ति और उत्तराधिकार एक सरीखा लागू होगा। लिव-इन-रिलेशनशिप का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी होगा ताकि इसके जोड़ीदारों की कानूनी सुरक्षा हो सके, और ऐसे रिश्तों से पैदा हुए बच्चों के अधिकार सुनिश्चित हो सकें। इस तरह के रिश्तों से अलग हुए लोगों की आर्थिक सुरक्षा के प्रावधान भी किए गए हैं। इस समान नागरिक संहिता में बहू विवाह पर रोक लगाई गई है, और दोनों जोड़ीदारों को लैंगिक समानता के अधिकार दिए गए हैं। बाल विवाहों पर प्रतिबंध लगाया गया है, और यूनीफॉर्म सिविल कोड के तहत फैसलों के लिए अदालतें तय की गई हैं। प्रदेश के आदिवासियों को उनकी परंपरा के हिसाब से रहने दिया गया है, और यह नया कानून उन पर लागू नहीं हो रहा है।

लेकिन 2024 में लागू इस कानून पर आज चर्चा की जरूरत इसलिए आन पड़ी है कि नैनीताल हाईकोर्ट ने इसके तहत लिव-इन-संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को एक चुनौती दी गई है, और इस मौखिक टिप्पणी करते हुए मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस जी.नरेन्द्र ने कहा है कि जब आप बिना शादी के निर्लज्जता के साथ रह रहे हैं, तो इसके पंजीकरण से किस निजता का हनन हो रहा है? उन्होंने कहा कि राज्य सरकार बालिग लोगों के साथ रहने के रिश्तों पर रोक नहीं लगा रही है, बल्कि उसके रजिस्ट्रेशन को जरूरी बना रही है।  रजिस्ट्रेशन के इस प्रावधान को निजता का हनन बताते हुए देहरादून निवासी 23 बरस के जय त्रिपाठी ने चुनौती दी थी। उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के 2017 के एक फैसले का हवाला दिया, और कहा कि उनका मुवक्किल अपने साथी के नाम की घोषणा करना नहीं चाहता, और उसे इसके लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने इस पर सवाल किया कि ऐसे रिश्ते में रहस्य क्या है? आप दोनों एक साथ रह रहे हैं, आपके पड़ोसी जानते हैं, समाज जानता है, दुनिया जानती है, फिर आप किस गोपनीयता की बात कर रहे हैं? क्या आप गुफा में रह रहे हैं? उन्होंने कहा आप बिना शादी किए बेशर्मी के साथ रह रहे हैं, रजिस्ट्रेशन से किस निजता का हनन होगा? याचिकाकर्ता के वकील ने राज्य की एक घटना का जिक्र किया जिसमें अलग-अलग धर्मों के दो जोड़ीदारों में से युवक की हत्या कर दी गई। ऐसे में रजिस्ट्रेशन से नाम उजागर होगा, और लोग खतरे में पड़ेंगे।

ऐसा लगता है कि लोग हाईकोर्ट के जज रहते हुए भी अपनी निजी सोच से अपनी टिप्पणियों को प्रभावित होने से नहीं बचा पाते। हम लिव-इन-रिलेशनशिप पर सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए फैसले को देखते हैं तो अदालत ने साफ-साफ यह कहा कि यह न तो जुर्म है, और न ही कोई पाप है, फिर चाहे देश का समाज इसे नामंजूर क्यों न करता हो। अदालत ने यह भी लिखा कि ऐसे रिश्तों में महिला को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए, और ऐसे रिश्तों में पैदा होने वाले बच्चों को संपत्ति का हक देने के लिए यह फैसला दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर ऐसे जोड़े अपने आपको ऐसे रिश्ते में बताते हैं तो उनके बच्चों का संपत्ति पर कानूनी हक रहेगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह साफ है कि लिव-इन-रिलेशनशिप को न तो जुर्म माना गया है, न पाप माना गया है, और अदालत ने बड़े साफ-साफ शब्दों में यह बात कही है। ऐसे में हमें नैनीताल हाईकोर्ट की टिप्पणी खटकती है जिसमें मुख्य न्यायाधीश ने इसे निर्लज्जता और बेशर्मी करार दिया है। ये विशेषण ऐसे रिश्तों को जुर्म या पाप की तरह ही साबित करते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ फैसले के ठीक खिलाफ है। उत्तराखंड का यह कानून भी इसे न जुर्म कहता है, न पाप कहता है, ऐसे में जज का इसे नीची नजरों से देखना खटकता है, क्योंकि मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी को बहुत से लोग एक कानूनी नजरिया मानेंगे, और जिस समाज में इस तरह के रिश्तों में साथ रहने वाले लोगों के खिलाफ जगह-जगह हिंसा देखने में आती है, वहां इससे हिंसक लोगों को इससे एक बढ़ावा मिल सकता है। हमारा ख्याल है कि अदालतों में जजों को अपनी टिप्पणियों और अपने विशेषणों को, अपने विचार को फैसलों तक सीमित रखना चाहिए। बहुत से मामलों में यह देखा जाता है कि जज जुबानी जो बातें कहते हैं, वे बातें औपचारिक फैसले का हिस्सा भी नहीं बनतीं, लेकिन वे जुबानी बातचीत की खबरों से एक धारणा बनने लगती है कि अदालत, यानी जज का इस बारे में क्या कहना है, और जनता जरूरत पडऩे पर अपनी पसंद से उन टिप्पणियों का चुनिंदा इस्तेमाल करने लगती है। वैसे भी जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरी तरह से कानूनी मान्यता दी है तो फिर इसे बेशर्मी और निर्लज्जता कहना जायज नहीं है। इस कानून से निजता का हनन  होता है या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है, और हाईकोर्ट के पास उस पर फैसला देने का पूरा हक है। इसके बाद जो पक्ष असंतुष्ट रहे, उसके पास सुप्रीम कोर्ट तक जाने का भी पूरा हक रहेगा। लेकिन जो समाज में लोगों का जीना या मरना मुश्किल करने वाली परंपराएं हैं, उस बारे में जजों को अपनी निजी पूर्वाग्रह अलग रखने चाहिए। हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उत्तराखंड सरकार के बनाए कानून में लिव-इन-रिलेशनशिप को किसी भी कोने से शर्म का सामान नहीं देखते।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


अन्य पोस्ट