विचार / लेख
-अशोक पांडे
तालिबान की प्रेस कांफ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर निकाले जाने की हालिया चर्चा के बीच मुझे ओरियाना फल्लाची याद आईं। अयातुल्ला खुमैनी की अगुवाई में ईरानी में घटी इस्लामी क्रान्ति के बाद आधुनिकता की तरफ तेजी से बढ़ रहा ईरान मध्यकाल में खदेड़ दिया गया था। औरतों से उनकी आज़ादी छीन ली गई और उन्हें हर वक्त लबादेनुमा परदा पहने रहना होता था।
खुमैनी के गद्दीनशीन होने के कुछ ही महीनों बाद बाद इटली की बेखौफ, तेज-तर्रार पत्रकार ओरियाना फालाची उसका इंटरव्यू लेने तेहरान पहुँचीं। इंटरव्यू से पहले उन्हें निर्देश मिला कि उन्हें एक काले परदे से खुद को ढंकना होगा। इंटरव्यू ज़रूरी था सो थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे मान गईं। वे फर्श पर टांगें मोडक़र बैठीं और खुमैनी से सवाल शुरू किए-औरतों की आजादी पर, परदे पर और इस्लामी हुकूमत पर। हर सवाल तीखा!
खुमैनी ने कहा, ‘जो औरतें परदा नहीं करतीं, वे नंगी हैं, गुनहगार हैं।’
फल्लाची ने मुस्करा कर उलटा सवाल पूछा- ‘दुनिया की औरतें तरह-तरह के कपड़े पहनती हैं, क्या सारी दुनिया गुनहगार है?’
फिर वह घटा जिसे पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज हो जाना था। बातचीत के बीच अचानक ओरियाना उठीं और बोलीं- ‘अब बहुत हो गया-यह बेवकूफ़ाना, मध्ययुगीन चिथड़ा मैं नहीं ओढ़ सकती!’
और उन्होंने झटके से परदा उतार फेंका।
सन्नाटा हो गया। खुमैनी गुस्से में उठकर बाहर चला गया। कमरे में मौजूद लोगों को लगा इंटरव्यू खत्म हो गया लेकिन कुछ देर बाद वह शांत लौटा और उसने इंटरव्यू पूरा किया।
यह साक्षात्कार 1979 में छपी ओरियाना फल्लाची की किताब ‘इंटरव्यू विद हिस्ट्री’ का हिस्सा है। आज भी इसे दुनिया भर में निडर पत्रकारिता की एक जरूरी मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है। ओरियाना ने जैसे एक मील का पत्थर गाड़ दिया था – एक क्रूर धर्मांध तानाशाह के सामने, उसी के घर में, उसी की सत्ता की नाक के ठीक नीचे।
चवन्नी में बिक जाने वाले उन पत्रकारों से ऐसी उम्मीद करना निरर्थक है जिनसे न तालिबान के आदेश का विरोध हो सका न उनके भीतर इतना नैतिक साहस बचा था कि अपनी सहयोगी महिलाओं के पक्ष में खड़े होकर कांफ्रेंस का बायकाट कर सकें।


