राजपथ - जनपथ
सांप-पाप के किस्से
नगरीय निकायों, और पंचायतों के नवनिर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति सक्रिय हो गए हैं। कई जगहों पर वे पत्नी की जगह बैठकों में हिस्सा लेना भी शुरू कर दिया है। ऐसे ही एक-दो जगहों पर तो बैठकों में पार्षद पतियों की फजीहत भी हुई है।
बताते हैं कि रायपुर नगर निगम के सभापति प्रत्याशी का नाम तय करने के लिए पिछले दिनों भाजपा पार्षद दल की बैठक हुई थी। बैठक में चार महिला पार्षद के पति भी थे। इस पर पर्यवेक्षक धरमलाल कौशिक ने नाराजगी जताई, और चारों पार्षद पतियों से बैठक स्थल से बाहर जाने के लिए कहा। पार्षद पतियों के जाने के बाद बैठक शुरू हुई।
कुछ इसी तरह का मामला महासमुंद जिले के बागबाहरा में भी आया है। बागबाहरा नगर पालिका के सभापति के चयन के लिए भाजपा पार्षद दल की बैठक में दो महिला पार्षदों की जगह उनके पति बैठक में पहुंच गए थे। इस पर पर्यवेक्षक ने नाराजगी जताई, और पार्षद पतियों को फटकार लगाई। इसके बाद दोनों महिला पार्षद बैठक में आई, और रायशुमारी की औपचारिकता पूरी की गई।-
भूपेश की महिमा
ईडी के खिलाफ सोमवार को कांग्रेस का प्रदर्शन भीड़ के लिहाज से काफी सफल रहा। प्रदर्शन में नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत, पूर्व सीएम भूपेश बघेल, और पार्टी के तमाम प्रमुख विधायकों ने उपस्थिति दर्ज कराई। इस मौके पर प्रमुख नेताओं ने ईडी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए, और तीखे वार किए।
पूर्व सीएम भूपेश बघेल ने तो अपने उद्बोधन के बीच मौका पाकर अपने नए दायित्व का भी बखान किया। भूपेश को पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया है, उन्हें पंजाब का प्रभारी बनाया गया है। भूपेश ने कहा कि वो छत्तीसगढ़ के तीसरे कांग्रेस नेता हैं जिसे पार्टी ने राष्ट्रीय महामंत्री बनाया है। उनसे पहले दिवंगत चंदूलाल चंद्राकर, और मोतीलाल वोरा ही इस पद पर रहे हैं। तीनों ही दुर्ग जिले से ताल्लुक रखते हैं।
भूपेश बघेल यह अहसास कराने में लगे रहे कि पार्टी ने भले ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर दायित्व दिया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में उनकी सक्रियता कम नहीं होगी। वो यहां अहम रोल अदा करते रहेंगे। मगर वो प्रदेश कांग्रेस का चेहरा रहेंगे या नहीं, यह तो आने वाले समय में पता चलेगा।
मां के साथ पुलिस का भी आशीर्वाद
राजधानी रायपुर में मलबा, रेत, मुरम, या दूसरी भवन निर्माण सामग्री लेकर चलने वाले ऐसे दानवाकार डम्पर पर माँ के आशीर्वाद के साथ-साथ पुलिस का आशीर्वाद भी दिखता है क्योंकि दिनदहाड़े शहर की सडक़ों पर बिना नंबर प्लेट दौड़ते हुए भी रोका-टोका नहीं जाता। यह तस्वीर एनआईटी के सामने जीई रोड पर ली हुई है, यहां पर यह डम्पर एक दिन खराब खड़ा हुआ था, और उस दौरान दर्जनों पुलिस गाडिय़ां सैकड़ों बार इसके बगल से निकली होंंगी। (rajpathjanpath@gmail.com)
श्रमिकों का नुकसान कर रहा श्रम विभाग
छत्तीसगढ़ में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बड़ी तादाद है, जिनके लिए सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं बनाई गई हैं। मगर इन योजनाओं का लाभ तभी मिलेगा, जब श्रमिकों का पंजीकरण हो। समस्या यह है कि पंजीकरण की प्रक्रिया अब भी इतनी जटिल है कि लाखों मजदूर इससे वंचित रह रहे हैं।
पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के मुताबिक, 22 फरवरी 2025 तक राज्य में केवल 63.68त्न असंगठित श्रमिक ही ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकरण करा पाए हैं। यह राष्ट्रीय औसत (63.25त्न) से थोड़ा बेहतर जरूर है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि स्थिति संतोषजनक है। 36-37त्न मजदूर अब भी पंजीकरण से बाहर हैं, यानी उन्हें कानूनी सुरक्षा और योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही ई श्रम पोर्टल बनाया गया है। शीर्ष अदालत ने इस विषय पर कई बार सुनवाई की और सरकार को निर्देश भी दिए। फिर भी अगर एक बड़ी आबादी इससे छूट रही है, तो इसका सीधा मतलब है कि उन तक पंजीकरण के फायदों की जानकारी नहीं पहुंच रही। वे खुद पंजीकृत कराने में असमर्थ हैं। मजदूरों के पास न तो डिजिटल संसाधन हैं, न ही तकनीकी दक्षता। दूसरी ओर, नियोक्ताओं की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं क्योंकि पंजीकरण होते ही उनकी जवाबदेही बढ़ जाएगी।
ऐसे में सवाल उठता है कि श्रम विभाग क्या कर रहा है? उसकी जिम्मेदारी थी कि वह अभियान चलाकर हर मजदूर तक पहुंचे, मगर ऐसा लगता है कि यह उसकी प्राथमिकता में ही नहीं है। नतीजा यह कि गरीब मजदूर सरकारी लाभ से वंचित हैं और विभाग हाथ पर हाथ धरे बैठा है।
एयरलाईंस की कल्पनाशीलता
देश की एक प्रमुख एयरलाईंस अपने छोटे-छोटे कागज पर भी बड़े शानदार नारे लिखती है। अब खाने के साथ मिले पेपर-नेपकिन पर लिखा था- दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।
साथ में जो पानी मिला उस ग्लास पर अलग-अलग तरफ अलग-अलग तथ्य छपे हुए थे, जिन्हें लोग इंटरनेट पर ढूंढकर अधिक जानकारी भी पा सकते हैं। एक ग्लास पर एक तरफ लिखा था- कि एक वक्त डेंटिस्ट मूंगफली को नकली दांत की तरह इस्तेमाल करते थे। उसी ग्लास पर दूसरी तरफ लिखा था-डायनामाईट बनाने में मूंगफली का इस्तेमाल होता है। ग्लास पर तीसरी तरफ लिखा था-विख्यात लेखक हेमिंग्वे का लिखते समय सबसे पसंदीदा खाना था, पीनट बटर सैंडविच।
अब बोरियत भरे और थका देने वाले हवाई सफर में ऐसी छोटी-छोटी बातें वक्त काटने में मददगार हो जाती हैं।
शिक्षित हैं, समझदार भी बनें
भोपाल की एक सडक़ पर लगे इस बोर्ड में एक कड़वा लेकिन सच्चा आईना दिखाया गया है। शिक्षा का असली उद्देश्य सिर्फ डिग्री हासिल करना नहीं, बल्कि संस्कारित होकर जिम्मेदारी निभाना भी है। अगर पढ़े-लिखे लोग भी सार्वजनिक स्थानों पर कचरा फेंकते हैं, तो उनकी पढ़ाई का क्या मतलब? जब कम पढ़ा लिखा व्यक्ति आपकी लापरवाही से फैली गंदगी साफ करने को मजबूर हो, तो यह हमारे समाज की विडंबना ही है।
सब कुछ ऊपरवाला तय करेगा
नगरीय निकायों में सभापति के चुनाव को लेकर हलचल शुरू हो गई है। सभी नगर निगमों, और ज्यादातर पालिकाओं में पार्षदों की संख्या के आधार पर भाजपा का सभापति बनना तय है। सभी नगर निगमों में 50 फीसदी से अधिक पार्षद भाजपा के ही जीतकर आए हैं। ऐसे में सभापति कौन होगा, यह प्रदेश भाजपा संगठन तय करेगा। ज्यादातर निकायों में तो भाजपा पार्षदों ने बकायदा प्रस्ताव पारित कर सभापति प्रत्याशी तय करने का जिम्मा प्रदेश संगठन पर छोड़ दिया है।
रायपुर नगर निगम के तो सभापति का नाम तय करने के लिए शनिवार को बैठक हुई। बैठक में पार्षदों ने पर्यवेक्षक धरमलाल कौशिक की मौजूदगी में एक लाइन का प्रस्ताव पारित कर सभापति प्रत्याशी तय करने का जिम्मा पार्टी पर छोड़ दिया। पहले पार्षदों को उम्मीद थी कि पर्यवेक्षक एक-एक कर पार्षदों से राय लेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। हालांकि कौशिक ने कहा कि यदि पार्षद अपनी तरफ से कोई सुझाव देना चाहे, तो वो अकेले में दे सकते हैं। लेकिन किसी भी पार्षद ने सुझाव नहीं दिया। वैसे भी प्रदेश संगठन से नाम आएंगे, तो सुझाव देने का मतलब नहीं था। न सिर्फ नगरीय निकायों बल्कि जिला पंचायतों के लिए भी नाम प्रदेश से संगठन से आएंगे। यही वजह है कि कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधियों की भीड़ लगी है।
मॉडल सरीखा ऑटो-ड्राइवर
राजधानी रायपुर की सडक़ पर अभी कुछ दिन पहले एक ऐसा ऑटोरिक्शा ड्राइवर दिखा जो कि किसी फैशन मॉडल की तरह था। एकदम साफ धुली हुई, प्रेस की हुई जींस, उस पर अच्छा काला टी-शर्ट, और ऑटोरिक्शा ड्राइवर की पोशाक का खाकी शर्ट भी एकदम चमचमाता। चश्मे की बड़ी अच्छी फ्रेम, किसी मॉडल की तरह के बाल और दाढ़ी-मूंछ, एक हाथ में सुनहरा कड़ा, और एक हाथ में फिटनेस बैंड। सिर से पैर तक बेदाग! देखकर लगा मानो किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो, लेकिन आसपास दूर-दूर तक कोई कैमरे नहीं थे। लोग किसी भी काम में रहें, चुस्त-दुरूस्त और शानदार तरीके से भी रह सकते हैं।
मन के हारे हार, मन के जीते जीत
पंचायत चुनावों में इस बार अधिकारियों ने लोकतंत्र को नयी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। जीतने-हारने का साधारण नियम है। जिसे ज्यादा वोट मिले वह जीता, जिसे कम मिला वह हारा। पर अधिकारियों ने जीत और हार की परिभाषा को ही बदल डाला और जीतने हारने वाले दोनों प्रत्याशियों को जीत का प्रमाण पत्र दे दिया।
एक तो कोंटा, बस्तर के कांग्रेस नेता हरीश कवासी का आरोप है। उनका कहना है कि एर्राबोर पंचायत में जीते हुए प्रत्याशी को छुट्टी का बहाना बनाकर प्रमाण पत्र देने से इनकार किया गया, और हारे हुए प्रत्याशी को चुपचाप रात के अंधेरे में विजयी घोषित कर दिया गया। मगर बात यहीं खत्म नहीं हुई।
सुकमा के ग्राम पंचायत गुमोड़ी में कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी हेमला कोसा और भाजपा समर्थित प्रत्याशी अनिल मोडियम सरपंच पद के उम्मीदवार थे। शाम को मतगणना पश्चात अनिल मोडियम 23 मतों से सरपंच का चुनाव जीत गए। लेकिन कोंटा के रिटर्निंग ऑफिसर ने अनिल की जगह हेमला कोसा को प्रमाण बना दिया। इतना ही नहीं कार्यालय से हेमला कोसा को प्रमाण पत्र लेने के लिए फोन के माध्यम से बुलाया गया। जब कोसा कांग्रेस पार्टी के नेताओं के साथ प्रमाण पत्र लेने पहुंचा तो मामला उजागर हुआ। जब भाजपा प्रत्याशी अनिल को इसका पता चला तो अधिकारी हड़बड़ा गए और हेमला के हाथ से जीत का सर्टिफिकेट लेकर फाड़ दिया। ऐसी ही शिकायत एमसीबी जिले के भरतपुर तहसील से आई है। यहां के ओहनिया पंचायत के सरपंच उम्मीदवार जगत बहादुर सिंह ने एसडीएम से शिकायत की है कि उन्हें ज्यादा वोट मिले लेकिन जीत का प्रमाण पत्र हारे हुए उम्मीदवार जयकरण सिंह को दे दिया गया है। कोरबा जिले के डोकरमना पंचायत में प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह कुछ और आवंटित किए गए लेकिन जब मतपत्र प्रकाशित होकर आए तो उनके चिन्ह बदल गए थे। बालोद के कोरगुड़ा में एक प्रत्याशी को पहले दो वोट से जीता हुआ बताया गया फिर उसे 8 वोट से हारा हुआ घोषित कर दिया गया। हर जिले से ऐसी खबरें आई हैं। कुछ स्थानों से यह भी शिकायत रही कि मुहर ठीक से दिखाई देने के कारण मतपत्र निरस्त कर दिए गए। पंचायत चुनाव के पहले चुनाव अमले को जो प्रशिक्षण दिया गया था, लगता है उसमें खामियां रह गई थीं।
देसी स्टाइल का ओपन चैलेंज
कोरबा जिले के उरगा थाना क्षेत्र के नवापारा गांव में हुए मर्डर ने अनोखा मोड़ ले लिया है। यहां रात में घर के बाहर सो रहे एक वृद्ध की हत्या से पूरा गांव सहमा हुआ था ही, लेकिन बात आगे बढ़ गई। हत्यारे ने गांव की दीवारों पर पांच और लोगों को मारने की धमकी लिखकर जबरदस्त खौफ पैदा कर दिया है।
आजकल हम देखते आए हैं कि अपराधी फोन कॉल, सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए धमकियां देते हैं। पुलिस आईपी एड्रेस ट्रेस, कॉल डिटेल एनालिसिस और डिजिटल फोरेंसिक से तुरंत अपराधी तक पहुंच जाती है। मगर, यहां पर अपराधी जरा अलग है। उसने तकनीक को पीछे छोडक़र पुराना हाथ से लिखने वाला तरीका अपनाया है। उसने पुलिस को 90 के दशक वाली जांच करने पर मजबूर कर दिया है।
पुलिस अब संदेहियों की हैंडराइटिंग के सैंपल इक_ा कर रही है और इसे जांच के लिए रायपुर भेजा जा रहा है। यानी, जहां देश के कोने-कोने में बैठे साइबर ठगों को पकडक़र लाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल हो रहा है, वहीं इस गांव में, या आसपास के गांव में बैठे अपराधी की उसकी लिखावट से ढूंढने की कोशिश हो रही है। छह दिन बीत गए सुराग मिला नहीं है।
गांव के लोग खौफ में जी रहे हैं। कोई नहीं जानता कि अगला निशाना कौन होगा। पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन गया है। देखना दिलचस्प होगा कि अपराधी की हाथ की लिखाई उसे जेल की सलाखों तक ले जाती है या फिर पुलिस को अभी और पसीना बहाना पड़ेगा। आपको यह घटना हॉरर कॉमेडी मूवी स्त्री और स्त्री-2 की याद दिला सकती है, जिसमें चुड़ैल से बचने के लिए लोगों ने अपने घर के बाहर दीवार पर लिखा था- ओ स्त्री कल आना।
हर आफिस से एक ही जवाब साहब विधानसभा गए हैं
नए वर्ष के संकल्प (रेजुलुशन) के तहत पंचायत से सचिवालय तक राइट टाइम वर्किंग को लेकर बीते दो माह तक भाग दौड़ मची हुई थी। सचिव, कलेक्टर-कमिश्नर, एसपी सभी अपने अपने महकमे के लेट कमर्स की धरपकड़ में लगे हुए थे। कुछेक पकड़े भी गए। इनमें दूर जिलों के एक-दो कलेक्टर भी शामिल रहे । उसके बाद 36 दिन चुनाव में निकल गए। आचार संहिता हटी तो एक बार फिर से पूरा अमला खासकर राजधानी के साहब-बाबू उसी पुराने ढर्रे पर आ गए हैं। वह भी फाइनेंशियल ईयर के अंतिम महीने फरवरी मार्च में। और इसी महीने हर आफिस में आम व्यक्ति को वर्षांत वाले काम निपटाने होते हैं और जब वह आफिस पहुंच रहा है तो बड़े बाबू गायब। 10बजे पहुंचों तो तीन बजे आएंगे और तीन बजे पहुंचों तो आज नहीं आए, का जवाब बाजू में बैठे लोग देते हैं। और बहुतायत के पास तो एक सबसे बड़ा और अहम अनएवायडेबल कारण होता है- विधानसभा गए हैं। चाहे मंत्रालय हो, संचालनालय हो या फिर तहसील और निगम का जोन आफिस। पहले दो तो समझ आता है बाद के दो आफिस के स्टाफ का विधानसभा से क्या काम? लेकिन सुबह आओ हाजिरी रजिस्टर में साइन करो और विधानसभा का बहाना लेकर निकल जाओ। यह सिलसिला अभी अगले पूरे 24 मार्च तक चलेगा। आफिसों में एक बार फिर कुर्सियां बैठने वालों का इंतजार करती रहेंगी। और लोग चक्कर पे चक्कर लगाते रहेंगे। ऐसे में इस वर्ष के काम 1अप्रैल के नए वर्ष में ही हो पाएंगे।
(rajpathjanpath@gmail.com)
गैदू का जवाब, और जांच का बढ़ेगा दायरा...
चर्चा है कि ईडी कोंटा, और सुकमा के राजीव भवन के निर्माण में हुए खर्चों की जांच का दायरा बढ़ा सकती है। ईडी को शक है कि आबकारी घोटाले की राशि का एक हिस्सा राजीव भवनों के निर्माण में भी खर्च हुए हैं। घोटाले में फंसे पूर्व आबकारी मंत्री कवासी लखमा और अन्य लोगों से मिले इनपुट के बाद ही ईडी ने राजीव भवनों के निर्माण के खर्चों की जांच कर रही है।
ईडी ने तो फिलहाल प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री मलकीत सिंह गैदू से पूछताछ की है। हालांकि गैदू का राजीव भवनों के निर्माण कार्यों से सीधे कोई लेना-देना नहीं रहा है। कांग्रेस ने प्रदेश में सरकार बनने के बाद सभी जिलों में राजीव भवन के निर्माण का फैसला लिया था। पार्टी स्तर पर इसके लिए समिति बनाई गई थी। इसके कर्ताधर्ता प्रदेश कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल रहे हैं। इसके अलावा भवन निर्माण समिति में पूर्व सीएम भूपेश बघेल के करीबी गिरीश देवांगन, और विनोद वर्मा भी थे।
कोल घोटाले में नाम आने के बाद कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल फरार हैं, और उनके दुबई में शिफ्ट होने की खबर आई है। सुनते हैं कि राजीव भवनों के ड्राईंग डिजाइन से लेकर निर्माण कार्य के ठेकों में रामगोपाल अग्रवाल की सीधे तौर पर भूमिका रही है। हालांकि मलकीत सिंह गैदू ने ईडी को कोंटा, और सुकमा के भवन निर्माण में हुए 85 लाख के खर्चों का ब्यौरा दिया है। यह भी कहा है कि भुगतान चेक से किए गए हैं, और भवन निर्माण के खर्चों की राशि की व्यवस्था पार्टी फंड से की गई है।
पार्टी के कई लोग मलकीत सिंह की सराहना भी कर रहे हैं जो कि यह कहकर बच सकते थे कि रामगोपाल अग्रवाल ही इसकी पूरी जानकारी रखते हैं। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, और ईडी को फेस किया। कुछ लोगों का अंदाजा है कि ईडी न सिर्फ कोंटा-सुकमा बल्कि बाकी राजीव भवनों के निर्माण के खर्चों की जांच कर सकती है।
हालांकि पार्टी ने सीधे तौर पर ईडी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, और धरना-प्रदर्शन का ऐलान कर दिया है। बावजूद इसके मामला थमता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस के कुछ पदाधिकारी पार्टी फंड में गड़बड़ी का आरोप पहले लगा चुके हैं, और हाईकमान से लिखित में शिकायत भी कर चुके हैं। ऐसे में चर्चा है कि ईडी की जांच का दायरा बढ़ सकता है। संभव है कि कई और लोग इसके लपेटे में आ सकते हैं। देखना है आगे क्या होता है।
हर आफिस से एक ही जवाब साहब विधानसभा गए हैं
नए वर्ष के संकल्प (रेजुलुशन) के तहत पंचायत से सचिवालय तक राइट टाइम वर्किंग को लेकर बीते दो माह तक भाग दौड़ मची हुई थी। सचिव, कलेक्टर-कमिश्नर, एसपी सभी अपने अपने महकमे के लेट कमर्स की धरपकड़ में लगे हुए थे। कुछेक पकड़े भी गए। इनमें दूर जिलों के एक-दो कलेक्टर भी शामिल रहे । उसके बाद 36 दिन चुनाव में निकल गए। आचार संहिता हटी तो एक बार फिर से पूरा अमला खासकर राजधानी के साहब-बाबू उसी पुराने ढर्रे पर आ गए हैं। वह भी फाइनेंशियल ईयर के अंतिम महीने फरवरी मार्च में। और इसी महीने हर आफिस में आम व्यक्ति को वर्षांत वाले काम निपटाने होते हैं और जब वह आफिस पहुंच रहा है तो बड़े बाबू गायब। 10बजे पहुंचों तो तीन बजे आएंगे और तीन बजे पहुंचों तो आज नहीं आए, का जवाब बाजू में बैठे लोग देते हैं। और बहुतायत के पास तो एक सबसे बड़ा और अहम अनएवायडेबल कारण होता है- विधानसभा गए हैं। चाहे मंत्रालय हो, संचालनालय हो या फिर तहसील और निगम का जोन आफिस। पहले दो तो समझ आता है बाद के दो आफिस के स्टाफ का विधानसभा से क्या काम? लेकिन सुबह आओ हाजिरी रजिस्टर में साइन करो और विधानसभा का बहाना लेकर निकल जाओ। यह सिलसिला अभी अगले पूरे 24 मार्च तक चलेगा। आफिसों में एक बार फिर कुर्सियां बैठने वालों का इंतजार करती रहेंगी। और लोग चक्कर पे चक्कर लगाते रहेंगे। ऐसे में इस वर्ष के काम 1अप्रैल के नए वर्ष में ही हो पाएंगे।
दो संभाग के कमिश्नर, दो विवि के कुलपति भी
रायपुर बिलासपुर संभाग के संयुक्त संभागायुक्त महादेव कावरे अब दो-दो विश्वविद्यालयों के प्रभारी कुलपति होंगे। बिलासपुर स्थित सुंदरलाल शर्मा राज्य मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति रहे वंश गोपाल सिंह का 2 मार्च को अंतिम कार्य दिवस है। इसे देखते हुए कावरे को नई नियुक्ति तक प्रभारी बनाया गया है। इसी तरह से उन्हें कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के भी कुलपति बनाए गए हैं। वर्तमान कुलपति बल्देव भाई शर्मा का कार्यकाल 4 मार्च को पूर्ण होने के बाद कावरे पदभार ग्रहण करेंगे। कावरे को अधिकतम छह माह की अवधि तक के लिए नियुक्त किया गया है । कावरे के नाम पर प्रभारी कुलपति के रूप में रिकॉर्ड भी जुड़ गया है। इससे पहले वे दुर्ग संभाग के कमिश्नर के रूप में भी कामधेनु विवि अंजोरा और हार्टीकल्चर विवि सांकरा के भी प्रभारी कुलपति रह चुके हैं।
देसी स्टाइल का ओपन चैलेंज
कोरबा जिले के उरगा थाना क्षेत्र के नवापारा गांव में हुए मर्डर ने अनोखा मोड़ ले लिया है। यहां रात में घर के बाहर सो रहे एक वृद्ध की हत्या से पूरा गांव सहमा हुआ था ही, लेकिन बात आगे बढ़ गई। हत्यारे ने गांव की दीवारों पर पांच और लोगों को मारने की धमकी लिखकर जबरदस्त खौफ पैदा कर दिया है।
आजकल हम देखते आए हैं कि अपराधी फोन कॉल, सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए धमकियां देते हैं। पुलिस आईपी एड्रेस ट्रेस, कॉल डिटेल एनालिसिस और डिजिटल फोरेंसिक से तुरंत अपराधी तक पहुंच जाती है। मगर, यहां पर अपराधी जरा अलग है। उसने तकनीक को पीछे छोडक़र पुराना हाथ से लिखने वाला तरीका अपनाया है। उसने पुलिस को 90 के दशक वाली जांच करने पर मजबूर कर दिया है।
पुलिस अब संदेहियों की हैंडराइटिंग के सैंपल इक_ा कर रही है और इसे जांच के लिए रायपुर भेजा जा रहा है। यानी, जहां देश के कोने-कोने में बैठे साइबर ठगों को पकडक़र लाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल हो रहा है, वहीं इस गांव में, या आसपास के गांव में बैठे अपराधी की उसकी लिखावट से ढूंढने की कोशिश हो रही है। छह दिन बीत गए सुराग मिला नहीं है।
गांव के लोग खौफ में जी रहे हैं। कोई नहीं जानता कि अगला निशाना कौन होगा। पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन गया है। देखना दिलचस्प होगा कि अपराधी की हाथ की लिखाई उसे जेल की सलाखों तक ले जाती है या फिर पुलिस को अभी और पसीना बहाना पड़ेगा। आपको यह घटना हॉरर कॉमेडी मूवी स्त्री और स्त्री-2 की याद दिला सकती है, जिसमें चुड़ैल से बचने के लिए लोगों ने अपने घर के बाहर दीवार पर लिखा था- ओ स्त्री कल आना।
यातायात सुरक्षा सलाह
यह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है। लोगो से लगता है कि इंडियन एयरफोर्स के इलाके की कोई सडक़ है। बोर्ड तो एक नेक सलाह दे रहा है, मगर इसकी आलोचना करने वाले कम नहीं हैं। जैसे एक ने लिखा है- घर में बीवी हो तो आदमी वैसे भी गाड़ी धीरे चलाता है। शादी-शुदा आदमी को यह बताने की जरूरत नहीं है। नसीहत तो उन लडक़ों को दो जो रफ ड्राइविंग और स्टंटबाजी से बाज नहीं आते।
(rajpathjanpath@gmail.com)
जिला पंचायतों में कब्जे के लिए जोड़-तोड़
भाजपा ने प्रदेश के सभी 33 जिला पंचायतों में अपना अध्यक्ष बनाने के लिए कोशिशें तेज कर दी हैं। सभी जिलों में 5 मार्च को जिला पंचायत अध्यक्ष, और उपाध्यक्ष के चुनाव होंगे। इसके एक दिन पहले यानी 4 तारीख को जनपद अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के होंगे। भाजपा को भले ही सभी जिला पंचायतों में बहुमत नहीं मिला है, लेकिन निर्दलीयों के सहारे अपना अध्यक्ष, और उपाध्यक्ष बिठाने की जुगत में हैं।
हालांकि कुछ जिले ऐसे हैं, जहां स्थानीय बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा के चलते पार्टी के रणनीतिकार पशोपेश में है। मसलन, सूरजपुर जिले में भाजपा को अपना अध्यक्ष बनवाने के लिए पूर्व केन्द्रीय मंत्री रेणुका सिंह की मदद लेनी पड़ सकती है। रेणुका सिंह की पुत्री मोनिका सिंह बागी होकर चुनाव लड़ी थीं, और जिला पंचायत सदस्य बनने में कामयाब रही। चर्चा है कि रेणुका सिंह अपनी पुत्री को अध्यक्ष बनवाना चाहती हैं। मगर स्थानीय नेता इसके लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में रेणुका सिंह के पास विकल्प है कि वो कांग्रेस का समर्थन लेकर अपनी पुत्री को अध्यक्ष बनवा सकती हैं। कांग्रेस नेता इसके लिए तैयार भी हैं। हालांकि रेणुका सिंह भाजपा संगठन के प्रमुख नेताओं से लगातार चर्चा कर रही हैं, और वो बेटी को अधिकृत प्रत्याशी घोषित कराने के लिए प्रयासरत हैं। इसी तरह बलरामपुर-रामानुजगंज जिले में भाजपा को बहुमत मिला हुआ है। यहां के नेता पूर्व संसदीय सचिव सिद्धनाथ पैकरा को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, लेकिन कृषि मंत्री रामविचार नेताम, पैकरा के खिलाफ बताए जाते हैं।
स्वास्थ्य मंत्री श्यामबिहारी जायसवाल के गृह जिले मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी में भी भाजपा को मुश्किलें आ रही है। रायपुर में कांग्रेस और भाजपा के जिला पंचायत सदस्यों की संख्या बराबर है। मगर दो निर्दलियों के भाजपा के समर्थन में आने से यहां राह थोड़ी आसान हो गई है। भाजपा के रणनीतिकारों ने कुछ जिलों के नवनिर्वाचित सदस्यों को प्रदेश के बाहर भी भेज दिया गया है। भाजपा के पंचायत चुनाव के प्रमुख सौरभ सिंह सभी 33 जिला पंचायतों में अपना अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बनाने का दावा कर रहे हैं, तो यह बेवजह नहीं है।
एक हाईवे यह भी है...
जम्मू-कश्मीर-लद्दाख हाईकोर्ट ने नेशनल हाईवे 44 की हालत खराब होने के चलते एनएचआईए को आदेश दिया है कि व टोल टैक्स में 80 प्रतिशत की कमी करे। कोर्ट ने कहा कि जब सडक़ ही दुरुस्त नहीं हो तो टोल टैक्स क्यों पूरा लिया जाए। अपने राज्य छत्तीसगढ़ में भी कुछ नेशनल हाईवे ऐसी स्थिति में हैं कि उन पर टैक्स लेना वाजिब नहीं लगता। यह अंबिकापुर से गढ़वा तक जाने वाली नेशनल हाईवे 343 के शंकर घाट की तस्वीर है, जिसमें कई-कई फीट गड्ढे हैं। राजपुर तक तो सडक़ इतनी खराब कि लोग रास्ता बदलकर जाते हैं, भले ही दूरी और समय अधिक लगे।
राजनीति के धुएं में अफवाहों की आंच
हाल ही में कांग्रेस नेता शशि थरूर के बयान और उनकी भाजपा नेताओं के साथ तस्वीरों ने ऐसा ही माहौल बना दिया, जैसा कभी छत्तीसगढ़ के पूर्व उपमुख्यमंत्री टी.एस. सिंहदेव के साथ हुआ था।
विधानसभा चुनाव से पहले सिंहदेव ने रायगढ़ के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ कर दी- कहा कि हमने जो मांगा-आपसे मिला। ऐसा लगा कि वे कांग्रेस से बगावत करने जा रहे हैं। अटकलों का बाजार और गरम हुआ, जब उन्होंने स्वीकार कर लिया कि दिल्ली में भाजपा के नेताओं से उनकी मुलाकात हुई और ऑफर मिला। फिर तो ऐसा माहौल बन गया मानो बाबा जल्द ही भगवा धारण कर लेंगे। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने साफ कर दिया, मेरी विचारधारा उनसे कभी नहीं मिलने वाली।
अब वही स्क्रिप्ट थरूर के लिए रिपीट हुई। उन्होंने मोदी सरकार की कुछ नीतियों की सराहना की। वंदे भारत को लेकर खुशी जताई। इतना ही नहीं केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के साथ फोटो भी शेयर कर दी। फिर तो वे ट्विटर ट्रोल पर आ गए, टीवी डिबेट्स होने लगे। कांग्रेस के अंदर भी कानाफूसी होने लगी। केरल में जल्दी ही विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा नेताओं के चेहरे पर मुस्कान दिखने लगी, मजे लेने लगे। मगर , थरूर ने भी सिंहदेव स्टाइल में साफ कर दिया कि वे भाजपा में नहीं जाने वाले।
राजनीतिक दलों में पढ़े-लिखे, बौद्धिक विचार वाले नेताओं का अकाल पड़ता जा रहा है। यह हाल कांग्रेस का भी है। सिंहदेव और थरूर जैसे नेताओं की उनकी पार्टी को भी जरूरत है। पर, जब इन्हें लगता है कि उनकी प्रतिभा और क्षमता का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है- खेमेबाजी, पैंतरेबाजी के शिकार हो रहे हैं तो इसी अंदाज में अपनी ओर ध्यान खींचते हैं।
(rajpathjanpath@gmail.com)
उपेक्षा की पराकाष्ठा, अनसुनी पुकार
रायगढ़ स्थित किरोड़ीमल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी (केआईटी) कभी क्षेत्र के तकनीकी शिक्षा के विकास का प्रतीक माना जाता था। आज वह इसलिये चर्चा में है क्योंकि वेतन नहीं मिलने से परेशान कर्मचारियों ने राष्ट्रपति के नाम प्रशासन को ज्ञापन सौंपा है और इच्छामृत्यु की मांग की है।
शासन ने इस संस्थान को समुचित अधोसंरचना, अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं और पर्याप्त भूमि उपलब्ध कराई है, लेकिन शासकीय मान्यता नहीं दी। वेतन और संचालन की व्यवस्था स्वयं उठाने के लिए कहा। अब 25 साल बाद यह संस्थान आज अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। विडंबना यह है कि छात्र, शिक्षक और कर्मचारी लगातार आंदोलन ही करते आ रहे हैं।
जनवरी 2002 में छात्रों ने पहली बार कॉलेज को सरकारी मान्यता दिलाने के लिए आंदोलन किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें पुलिस की लाठियां झेलनी पड़ीं और उनके विरुद्ध मामले दर्ज किए गए। 2003 में फिर आंदोलन हुआ, 2006 में धमकियों के बीच विरोध प्रदर्शन किया गया, 2009 में छात्रों ने भीख मांगकर अपनी आवाज बुलंद की, 2010 में प्राचार्य की गाड़ी में तोडफ़ोड़ तक हुई, लेकिन हर बार उन्हें अपने भविष्य की चिंता में दोबारा पढ़ाई की ओर लौटना पड़ा।
आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि 33 महीनों से केआईटी के प्रोफेसरों, कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है। यहां कार्यरत 12 कर्मचारियों और प्राध्यापकों ने सरकार की उपेक्षा से तंग आकर इच्छा मृत्यु की मांग कर डाली है। यह बेहद शर्मनाक स्थिति है।
यह स्थिति तब बनी हुई है जब पिछली सरकार में पांच वर्ष तक तकनीकी शिक्षा मंत्री रायगढ़ से थे और वर्तमान में भी वित्त मंत्री इसी जिले से हैं। बावजूद इसके, कॉलेज को सरकारी मदद से चलाने की पहल नहीं हुई। जबकि पश्चिम बंगाल, दिल्ली और केरल में इसी तर्ज पर खुले संस्थानों को शासकीय अनुदान देकर संरक्षित किया जा चुका है। केरल में सरकार ने कई स्वशासी कॉलेजों को शासकीय दर्जा देकर छात्रों और कर्मचारियों का भविष्य सुरक्षित कर दिया, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने केआईटी के साथ ऐसा कोई प्रयास नहीं किया।
दूसरी ओर औद्योगिकीकरण के केंद्र के रूप में विकसित रायगढ़ में बड़े उद्योगपतियों, कोल ब्लॉकों और एनटीपीसी जैसी संस्थाओं की भरमार है। गीदम में डीएवी पॉलिटेक्निक को एनएमडीसी सीएसआर फंड से संचालित कर सकता है, तो केआईटी को भी इस तरह का सहयोग क्यों नहीं मिल सकता? पर इसके लिए भी दबाव सरकार को ही बनाना पड़ेगा। आज यह संस्थान पूरी तरह से आर्थिक संकट में डूब चुका है।
केआईटी का पतन सरकार की बहुप्रचारित नई शिक्षा नीति का आईना है। यह प्रशासनिक अनदेखी का भी कड़वा सच उजागर करता है। शासन ने ठोस कदम नहीं उठाया तो यह संस्थान एक ऐतिहासिक भूल बनकर रह जाएगा।
मंत्रियों का हिंदी ज्ञान
बिहार के एक मंत्री ( शायद इस्तीफा दे चुके) डॉ. दिलीप कुमार जायसवाल का यह पत्र सोशल मीडिया पर खूब फैला हुआ है। चार लाइन के इस्तीफे में हिंदी व्याकरण की इतनी अशुद्धियां हैं, कि मजाक बन गया है। इसी हफ्ते उत्तरप्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह का एक वीडियो वायरल हो रहा था। हिंदी राज्य के शिक्षा मंत्री हैं, मगर विधानसभा में हिंदी का पर्चा पढऩे में बार-बार गलतियां कर रहे थे। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि दक्षिण भारत में यदि हिंदी का विरोध हो रहा है तो उसकी वजह यह भी है कि यहां के नेता-मंत्री ठीक से अपनी भाषा लिख-पढ़ नहीं सकते और हमें सिखा रहे हैं।
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म्युनिसिपल से पंचायत का फर्क
नगरीय निकाय चुनाव में तो भाजपा सरकार के सभी मंत्रियों ने अपने इलाके में फतह दिलाई थी। मगर पंचायत चुनाव में सीएम विष्णुदेव साय को छोडक़र विशेषकर सरगुजा संभाग के मंत्रियों के इलाके में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा है।
निकाय चुनाव में सीएम के विधानसभा क्षेत्र कुनकुरी के नगर पंचायत में भाजपा प्रत्याशी की हार ने सुर्खियां बटोरी थी, लेकिन जिला पंचायत और जनपद में विशेषकर कुनकुरी इलाके में कांग्रेस का सफाया हो गया। यहां भाजपा समर्थित प्रत्याशियों ने जीत हासिल की है। इससे परे सरगुजा इलाके के कृषि मंत्री रामविचार नेताम के विधानसभा क्षेत्र रामानुजगंज में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।
नेताम के करीबी बलवंत सिंह जिला पंचायत सदस्य का चुनाव बुरी तरह हार गए। यही हाल भाजपा समर्थित प्रत्याशियों का स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल के इलाके में भी रहा है। जायसवाल के विधानसभा क्षेत्र मनेन्द्रगढ़ के भाजपा समर्थित जिला पंचायत सदस्य प्रत्याशियों को हार का मुख देखना पड़ा।
महिला बाल विकास मंत्री लक्ष्मी राजवाड़े केे विधानसभा क्षेत्र में भी भाजपा का प्रदर्शन फीका रहा है। लक्ष्मी राजवाड़े के विधानसभा क्षेत्र भटगांव में पूर्व गृहमंत्री रामसेवक पैकरा की पत्नी शशिकला जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। सरगुजा संभाग के तीनों मंत्रियों को छोडक़र दोनों डिप्टी सीएम अरूण साव, विजय शर्मा के साथ अन्य मंत्री केदार कश्यप, दयालदास बघेल के विधानसभा क्षेत्र में पंचायत चुनाव में भी भाजपा का प्रदर्शन बढिय़ा रहा है।
वोट के बाद की अगली जीत
भाजपा ने सभी नगरीय निकायों में सभापति पद पर कब्जा जमाने की रणनीति बनाई है। नगर निगम और नगर पालिकाओं में सभापति प्रत्याशी चयन के लिए पार्टी ने पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए हैं। नगर निगमों में भाजपा को कोई दिक्कत नहीं है। यहां सभी 10 नगर निगमों में भाजपा के सभापति प्रत्याशी निर्विरोध चुने जाने के आसार है। निगमों में 50 फीसदी से अधिक पार्षद भाजपा के ही हैं।
नगर पालिकाओं की भी स्थिति थोड़ी अलग है। 49 में से 36 नगर पालिकाओं पर तो भाजपा का दबदबा है। यहां भाजपा के सभापति बनने की प्रबल संभावना है। मगर आठ नगर पालिकाओं में कांग्रेस और पांच में निर्दलीय अध्यक्ष चुने गए हैं। इन पालिकाओं में भाजपा अपने पार्षद को सभापति बनवाने के लिए जोड़ तोड़ कर रही है। इससे परे कांग्रेस में सभापति के मसले पर कोई विशेष तैयारी नहीं दिख रही है। स्थानीय नेताओं पर ही सबकुछ छोड़ दिया गया है। ऐसे में भाजपा सभी नगर पालिकाओं में सभापति बनवाने में कामयाब हो जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कांग्रेस कुछ बेहतर कर लेती...
विधानसभा और नगरीय निकाय चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस के लिए जिला पंचायत चुनाव में भी कोई बड़ी उम्मीद नहीं रह गई थी लेकिन जैसे-जैसे परिणाम आते जा रहे हैं, यह दिखाई दे रहा है कि यदि कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवारों के चुनाव में सावधानी बरती गई होती तो सम्मानजनक संख्या में जिला पंचायत सदस्य चुने जा सकते थे। कोरबा और राजनांदगांव में कांग्रेस से कोई भी अधिकृत उम्मीदवार जिला पंचायत सदस्य नहीं बन पाया। राजनांदगांव में ऐसे तीन प्रत्याशियों ने मैदान मार लिया, जिन्होंने दावेदारी नामंजूर किए जाने के बाद निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा। अधिकृत उम्मीदवारों में कोई कांग्रेस विधायक की पसंद था तो कोई संगठन का। बिलासपुर में जितने निर्दलीय उम्मीदवार जीतकर आए हैं उनमें से एक को छोडक़र बाकी 4 कांग्रेस से जुड़े रहे हैं। कांग्रेस के अधिकृत केवल 3 प्रत्याशी चुनाव जीत सके। इनमें से कुछ लोगों को अधिकृत प्रत्याशी घोषित नहीं करने को लेकर संगठन के पदाधिकारी अड़ गए थे। जब अधिकृत उम्मीदवारों की हार हो गई, तो उन्हें समर्थन और बल देने वालों पर कार्रवाई का डंडा घुमा दिया गया। कुछ जगह परिणाम ऐसे रहे जिसमें अधिकृत और बागी उम्मीदवारों के वोट बंट गए और भाजपा समर्थित या निर्दलीय प्रत्याशी की जीत हो गई। कांग्रेस कुछ उम्मीद अंबिकापुर से कर सकती है। यहां जिला पंचायत में कुल 14 सदस्य हैं। इनमें से केवल 4 भाजपा के अधिकृत उम्मीदवारों के खाते में आई है। कांग्रेस के पास भी इतने ही सदस्य हैं। बाकी निर्दलीय हैं। इनमें से दो ऐसी सीटें हैं जिनमें जीते हुए निर्दलीय कांग्रेस के हैं। इन दो सीटों पर किसी को भी अधिकृत उम्मीदवार नहीं बनाया गया था। इस तरह से कांग्रेस के पास 6 सदस्यों का बहुमत हो जाता है। पर जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए 8 लोगों का समर्थन जरूरी है। भाजपा यहां पर कांग्रेस को रोकने के लिए किसी निर्दलीय को भी इस पद पर आगे कर सकती है।
समागम का लंच टाइम
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट हुआ। ग्लोबल समिट का मतलब यह नहीं है कि इसमें सिर्फ विदेशी निवेशक आएंगे, देश के लोग नहीं। अपने देश के लोग खाना पर्याप्त होने पर भी लंच या डिनर के बुफे में भगदड़ मचा ही देते हैं। सोशल मीडिया पर कुछ वीडियोज़ वायरल हो रहे हैं, जिसमें बताया गया है कि लंच के समय ऐसी भगदड़ मची कि लोग एक दूसरे को धकियाते हुए खाने की टेबल की ओर दौड़ पड़े। सबके लिए पर्याप्त भोजन होने के बाद भी हड़बड़ी मची हुई थी। लोगों ने पूछा कि क्या ये वही उद्योगपति हैं, जिनसे अरबों रुपये का निवेश करने का आश्वासन सरकार को मिला है? पता चला कि ये निवेशक नहीं हैं, कुछ भीड़ भी जुटाई गई थी, समारोह को भव्य बनाने के लिए। हो सकता है कि इनमें से कुछ लोग उद्यमियों के यहां के कर्मचारी हों...। (rajpathjanpath@gmail.com)
चुनाव में महिलाओं ने दिखाया दम
पंचायत चुनाव में महिलाओं ने अपनी ताकत दिखाई है। प्रदेश में जिला पंचायत चुनाव में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकॉर्ड बेमेतरा की कल्पना योगेश तिवारी के नाम रहा, जो कि 21 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीतकर आई हैं। इससे परे महासमुंद जिले की पिथौरा इलाके की आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाली श्रीमती हेमकरण दीवान के नाम काफी चर्चा हो रही है। वो 7वीं बार जनपद सदस्य निर्वाचित हुई हैं। खास बात यह है कि प्रदेश में अब तक कोई भी महिला या पुरूष 7 बार जनपद सदस्य नहीं बने हैं।
दीवान परिवार अपने समाज में काफी लोकप्रिय है, और बिना खर्च किए चुनाव जीत जाते हैं। इससे परे विशेष पिछड़ी जनजाति की रत्नी मांझी की जीत लोगों की जुबान पर है। वो सरगुजा जिले के सीतापुर इलाके से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव जीतने में कामयाब रही। पेशे से वकील रत्नी मांझी, कांग्रेस और भाजपा समर्थित प्रत्याशियों को चुनाव हराया।
इन सबके बीच महासमुंद के पिथौरा इलाके की सिन्हा परिवार की तीन सदस्य अलग-अलग पदों पर चुनाव जीतने में सफल रहे हैं। भाजपा समर्थित रामदुलारी सिन्हा जिला पंचायत की सदस्य बनी हैं। रामदुलारी जनपद अध्यक्ष रह चुकी हैं। रामदुलारी की देवरानी सुमन सिन्हा जनपद सदस्य बनी हैं, और बहु सरपंच निर्वाचित हुई है। कुल मिलाकर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में अलग-अलग तबके की महिला प्रत्याशियों ने अपना दम खम दिखाया है।
असर क्या होगा चौबीसों घंटे के कारोबार का?
देश में केवल कुछ गिने-चुने महानगर, जैसे बेंगलुरु, मुंबई और दिल्ली ही ऐसे हैं, जहां दुकानों को सातों दिन, चौबीसों घंटे खुला रखने का प्रयोग सफल रहा है। कई शहरों में कानून-व्यवस्था की स्थिति अभी भी चौबीसों घंटे बाजार संचालन के अनुकूल नहीं है। अब छत्तीसगढ़ में भी इस दिशा में पहल हो रही है। शुरुआत राजधानी रायपुर से हो सकती है। इसके अलावा कोरबा, भिलाई और बिलासपुर जैसे शहरों में भी देर रात तक चहल-पहल वाले कई इलाके मौजूद हैं।
सरकार का मानना है कि यदि दुकानें लंबे समय तक खुली रहेंगी, तो इससे व्यापार बढ़ेगा, कारोबारियों को लाभ होगा और ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा। वहीं लोग अपने कार्यस्थल से छुट्टी पाने के बाद आराम से खरीदारी कर सकेंगे। बड़े शहरों में कपड़ों के शोरूम, इलेक्ट्रॉनिक्स स्टोर्स, किराना दुकानें, रेस्तरां, कैफे, सिनेमा हॉल और गेमिंग जोन पहले से ही देर रात तक खुले रहते हैं। सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि शराब की दुकानों को इस नियम से छूट नहीं दी जाएगी, हालांकि बार के संदर्भ में कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। इस निर्णय को लागू करने के लिए 2017 के अधिनियम और 2021 में जोड़े गए नियमों को आधार बनाया गया है। सरकार को उम्मीद है कि व्यावसायिक गतिविधियों में तेजी आने से राज्य की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
इस फैसले में दुकानों के कर्मचारियों की चिंता जाहिर की गई है। प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक कर्मचारी को अनिवार्य साप्ताहिक अवकाश मिलेगा और उनसे प्रतिदिन 8 घंटे से अधिक कार्य नहीं लिया जा सकेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि अभी भी कई दुकानें रविवार या साप्ताहिक अवकाश के दिन खुली रहती हैं, जहां बिना अवकाश कर्मचारियों से काम लिया जाता है। दुकानें 10 से 12 घंटे तक खुली रहती हैं। श्रमिकों के लिए निर्धारित 8 घंटे की कार्य अवधि प्रभावी रूप से लागू नहीं है। सच्चाई यह भी है कि यहां कार्यरत कर्मचारियों को मिलने वाला मासिक वेतन, मनरेगा की न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है।
अब जब दुकानें चौबीसों घंटे खुली रखने की योजना बनाई जा रही है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या इसके अनुपात में कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी, या फिर मौजूदा कर्मचारियों से ही ओवरटाइम लेकर काम चलाया जाएगा? क्या व्यापार में वृद्धि का लाभ कर्मचारियों को सम्मानजनक वेतन वृद्धि के रूप में मिलेगा? क्या श्रम विभाग इस बड़े फैसले को सही तरीके से लागू करने और इसका कड़ाई से पालन कराने में सक्षम है?
कीचड़ भरा जलकुंड
बारनवापारा अभयारण्य में गर्मी के दौरान जलकुंडों में पानी भरना जरूरी था, ताकि भालू और बाइसन जैसे वन्यजीव निर्बाध रूप से पानी पी सकें। लेकिन अब जलकुंडों में पानी के बजाय कीचड़ सूख रहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवासी बाघ के जाने के बाद सरकार का ध्यान इस अभयारण्य से हट गया है या फिर फंड की कमी के कारण जरूरी सुविधाएं उपेक्षित हो रही हैं। बरसों की मेहनत से विकसित हुआ छत्तीसगढ़ का यह अद्भुत अभयारण्य सैलानियों को आकर्षित करता रहा है। यह अब सरकारी उदासीनता का शिकार बनता जा रहा है। यदि समय रहते आवश्यक कदम नहीं उठाए गए, तो इसकी पुरानी पहचान मिटती चली जाएगी।
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रेलवे को केवल मुनाफा चाहिए?
छत्तीसगढ़ भारतीय रेलवे के राजस्व में बड़ी भूमिका निभाता है, विशेष रूप से जोन के कोरबा इलाके से। केंद्र सरकार द्वारा बजट में रेलवे ने छत्तीसगढ़ के लिए 6925 करोड़ रुपये की घोषणा की। इसे रेलवे ने जोर-शोर से प्रचारित किया। मगर इससे अधिक आमदनी करीब 7 हजार करोड़ उसे अकेले कोरबा से कोयला परिवहन के जरिये हो जाती है। कुछ दिन पहले रेलवे की ओर से ही अधिकारिक जानकारी दी गई कि जोन ने केवल 316 दिनों में 25,000 करोड़ रुपये से अधिक की मालभाड़ा से आमदनी अर्जित की। रेलवे की कुल मालभाड़ा आय में 17.20 प्रतिशत का योगदान है, जो बताता है कि यह क्षेत्र रेलवे के लिए कितना महत्वपूर्ण है। मगर, रेलवे द्वारा दिए जाने वाले संसाधनों और सुविधाओं में भारी असमानता है।
कोरबा तो भारतीय रेलवे के लिए ‘कमाऊ पूत’ है। कोयले के विशाल भंडार और कोयला परिवहन की भारी मात्रा के कारण, 2024 में रेलवे को केवल कोरबा से ही 7,000 करोड़ रुपये की आय हुई। पहले प्रतिदिन 35 रैक कोयले की ढुलाई होती थी, जिसे बढ़ाकर 45 रैक कर दिया गया है।
लेकिन इस भारी राजस्व योगदान के बावजूद, कोरबा की जनता को सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं मिला। रेलवे क्रॉसिंग की समस्याओं से लोग त्रस्त हैं, अस्पताल पहुंचने से लेकर ट्रेन पकडऩे तक हर जगह यात्रियों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कोल डस्ट के कारण लोग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं, और यहां तक कि रेलवे कर्मचारी भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। इनकी कॉलोनी में पानी के छिडक़ाव तक की मांग पूरी नहीं की जा रही है।
छत्तीसगढ़ में यात्री सुविधाओं को बढ़ाने की मांग लंबे समय से की जा रही है, लेकिन इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। कोरबा से नई ट्रेनों की जरूरत है, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के लिए सीधी रेल सेवा की मांग की जा रही है। हसदेव एक्सप्रेस को दुर्ग तक विस्तारित करने, नर्मदा एक्सप्रेस को कोरबा से चलाने, और निर्माणाधीन रेल लाइनों को शीघ्र पूरा करने जैसी आवश्यकताओं को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। रेलवे को छत्तीसगढ़ से राजस्व की जितनी चिंता है, यहां की जनता की सुविधा की नहीं।
भाजपा निर्दलीयों के भरोसे
पंचायत चुनाव के भी नतीजे घोषित हो गए हैं। भाजपा ने सभी जिला पंचायतों में अपने अध्यक्ष बनाने का ऐलान कर दिया है। जिला पंचायत के अध्यक्ष, और उपाध्यक्ष चुनाव की तारीख अभी घोषित नहीं हुई है, लेकिन माना जा रहा है कि पखवाड़े भर के भीतर सारे जिलों में चुनाव हो जाएंगे।
चुनाव नतीजों का सवाल है, तो अधिकांश जिलों में भाजपा समर्थित जिला पंचायत सदस्य ज्यादा संख्या में जीतकर आए हैं। रायपुर समेत कुछ जिलों में निर्दलीयों के समर्थन की जरूरत पड़ सकती है। सुनते हैं कि जिलेवार प्रमुख नेताओं को निर्दलीयों से बात करने की जिम्मेदारी दी गई है। कुछ जिलों में नवनिर्वाचित जिला पंचायत सदस्यों को टूर पर भेजने की तैयारी चल रही है। कांग्रेस में तो ऐसी कोई तैयारी नहीं दिख रही है। ऐसे में जिला पंचायतों में भी भाजपा का परचम लहरा जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अस्तित्व की जद्दोजहद
एक ओर तो छत्तीसगढ़ में वन्यजीवों की संख्या लगातार घट रही है, दूसरी ओर जो बचे हैं, वे भी लापरवाही की भेंट चढ़ रहे हैं। गरियाबंद इलाके में सडक़ किनारे घायल पड़े इस तेंदुए की तस्वीर केवल एक घटना नहीं, बल्कि हमारी व्यवस्था की असंवेदनशीलता का आईना है।
अफसरों को वन्यजीवों की सुरक्षा की खबर दी जाए तो वे देखते हैं. या करते हैं कहकर टाल देते हैं, मगर मौके पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। ऐसे ही ढीले रवैये के चलते हाल ही में अचानकमार टाइगर रिजर्व के दो बाघों की असामयिक मौत हो चुकी है। गरियाबंद में पहले भी तेंदुआ सडक़ दुर्घटनाओं में जान गवां चुके हैं। जब तक यह रवैया नहीं बदलेगा, वन्यजीवों की स्थिति और भयावह होती जाएगी। उनकी संख्या यूं ही घटती रहेगी। जंगलों में कोई दहाड़ नहीं सुनाई देगी, सन्नाटा होगा। (rajpathjanpath@gmail.com)
राजभवन और शहनाई
राज्यपाल डेका के पिछले दिनों बार-बार दिल्ली की आवाजाही को लेकर यह चर्चा होने लगी थी कि इस वर्ष होने वाले असम विधानसभा चुनाव के जरिए सक्रिय राजनीति में लौटना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ राजभवन में जल्द ही शहनाई गूंजने वाली है। राज्य गठन के बाद पहली बार किसी महामहिम के परिवार में शादी होने जा रही है। महामहिम इन दिनों उसी में व्यस्त हैं।
रमन डेका के पुत्र की शादी मार्च के पहले हफ़्ते में होने वाली है। वे राष्ट्रपति पीएम, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री समेत सभी को न्यौता दे आए हैं। अब तक तय कार्यक्रम के अनुसार शादी गुवाहाटी में होगी। और ऐसी चर्चा है कि रायपुर में भी रिसेप्शन हो सकता है।
फिर लग रही जंगल में आग
गर्मी अभी ठीक से आई भी नहीं और जंगलों में आग लगने की घटनाएं सामने आने लगी हैं। गरियाबंद जिले के उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व सहित कई जंगलों में आग धधक रही है, और वन विभाग इसे रोकने में नाकाम दिख रहा है।
इस समय मैनपुर के तौरेगा, जरहाडीह, अडग़ड़ी, शोभा, करेली जैसे कई इलाकों में आग लगने की खबर सामने आई हैं। वन विभाग ने कदम तब उठाया है, जब यह एक बड़े क्षेत्र में फैल चुकी है। सवाल उठता है कि आखिर हर बार यह स्थिति क्यों बनती है? जंगल में आग लगने की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए वन विभाग के पास क्या पर्याप्त संसाधन नहीं हैं या फिर यह महज़ लापरवाही का नतीजा है?
मैनपुर के मामले में वन विभाग अब तक यह पता नहीं लगा पाया है कि आग लगने के पीछे का असली कारण क्या है। हालांकि, कुछ का मानना है कि जंगलों में तेंदूपत्ता बीनने वाले लोग जानबूझकर आग लगाते हैं, ताकि उत्पादन बढ़े। कुछ वनोपज व लकड़ी तस्कर भी आग लगाकर वन संपदा को नुकसान पहुंचाते हैं।
छत्तीसगढ़ में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाता है। विभाग का दावा है कि आग बुझाने के लिए उनके पास फायर फाइटिंग सिस्टम और 34 सौ से अधिक अग्नि रक्षक तैनात हैं। फिर भी आग को नियंत्रित करने में इतनी देरी ? स्पष्ट है कि या तो विभाग इन संसाधनों का सही ढंग से उपयोग नहीं कर रहा है। छत्तीसगढ़ में 2022 में 18,447 और 2021 में 22,191 आग की घटनाएं दर्ज की गईं, जो दर्शाती हैं कि यह समस्या लगातार विकराल रूप धारण कर रही है।
ऐसी आग न सिर्फ पर्यावरण के लिए घातक है, बल्कि इससे वन्यजीवों और स्थानीय समुदायों को भी भारी नुकसानदायक है। जंगलों में रहने वाले जीव-जंतु या तो आग में झुलसकर मर जाते हैं या फिर अपना प्राकृतिक आवास छोडऩे को मजबूर हो जाते हैं। यह स्थिति जैव विविधता के लिए चिंताजनक है। इसके अलावा कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ता है, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या खड़ी होती है। पहले बात हुई थी कि आग पर निगरानी रखने के लिए आधुनिक तकनीक जैसे ड्रोन और सेटेलाइट इमेजिंग का उपयोग किया जाएगा। स्थानीय समुदायों को जागरूक कर उन्हें आग से बचाव के उपायों में शामिल किया जाएगा। मगर, ऐसा लगता है कि सारी योजनाएं कागजों में है।
पार्टी से बड़े विधायक
भाजपा के आधा दर्जन से अधिक विधायक ऐसे हैं जिन्होंने संगठन के फैसले को नहीं माना, और जिला पंचायत में अपने प्रत्याशी खड़े किए। इनमें से विधायकों के कई प्रत्याशी जीत भी गए हैं। ऐसे में अब विधायकों को साथ लेना संगठन की मजबूरी बन गई है, क्योंकि जिला पंचायत में अध्यक्ष-उपाध्यक्ष पार्टी की प्राथमिकता है।
पंचायत चुनाव के चलते भाजपा के कई विधायकों के खिलाफ क्षेत्र में पार्टी के लोगों ने ही मोर्चा खोल रखा है। अभनपुर के विधायक इंद्र कुमार साहू के खिलाफ स्थानीय कार्यकर्ता खफा हैं, तो लुंड्रा के विधायक प्रबोध मिंज और पूर्व विधायक विजयनाथ सिंह आमने-सामने हो गए हैं। सीतापुर विधायक रामकुमार टोप्पो तो पहले ही पार्टी संगठन की आंखों की किरकिरी बन चुके हैं।
पूर्व मंत्री रेणुका सिंह ने अपनी बेटी मोनिका को जिला पंचायत चुनाव जीताकर अपनी ताकत दिखा दी है। रेणुका सिंह से पार्टी के स्थानीय नेता नाराज रहे हैं। अब उन्हें साथ लेने की मजबूरी बन गई है। भाजपा सभी जिला पंचायतों पर कब्जा जमाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। देखना है आगे क्या होता है।
बुद्ध बनाम गांडादेव
बस्तर जिले के भोंगापाल गांव में वर्ष 1975 में भगवान बुद्ध की 5वीं सदी की प्रतिमा मिली थी। संरक्षण के अभाव में पुरातात्विक महत्व की यह प्रतिमा खुले आसमान के नीचे है। अब स्थानीय ग्रामीणों ने इसका नाम रख दिया है- गांडादेव। वे इसे अपना देव मानकर पूजते हैं।
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इतना डर, इतनी असुरक्षा?
टिकिंग टाइम बम-एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है, घड़ी की सुई के साथ धीरे-धीरे फटने के करीब पहुंचता हुआ खतरा। कोई समस्या अभी दिख तो नहीं रही, लेकिन समय के साथ वह एक बड़े संकट में बदल सकती है।
झारखंड लोक सेवा आयोग की टॉपर महिला, उनके भाई, जो कि जीएसटी में एडिशनल कमिश्नर थे और उनकी मां की आत्महत्या की खबर झकझोर देने वाली है। सीबीआई जांच के दबाव में इस त्रासदी ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर भ्रष्टाचार की बुनियाद पर खड़ा करियर कब तक टिक सकता है? क्या किसी पद की कीमत इतनी बड़ी हो सकती है कि जिंदगी ही दांव पर लग जाए?
छत्तीसगढ़ में भी पीएससी घोटाले की सीबीआई जांच जारी है। यहां भी कभी पीएससी के चेयरमैन रहे टामन सिंह सोनवानी जेल में हैं। वे प्रतियोगी, जिनको टॉपर बनाया गया, और उनमें से एक के कारोबारी पिता भी सलाखों के पीछे हैं।
जब किसी सिस्टम में भ्रष्टाचार पनपता है, तो उसकी मार केवल कानून से बचने की कोशिश कर रहे लोगों पर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज पर
पड़ती है।
कोई भी परीक्षा, कोई भी चयन प्रक्रिया केवल एक ओहदा पाने का माध्यम नहीं है, यह योग्यता और मेहनत की कसौटी होती है। लेकिन जब सिस्टम में भ्रष्टाचार का जहर घुल जाता है, तो यह केवल योग्य उम्मीदवारों का भविष्य ही नहीं छीनता, बल्कि जिन लोगों को गलत तरीके से ऊंचे पद मिलते हैं, वे खुद भी डर और असुरक्षा के बीच जीते हैं। आज नहीं तो कल, कानून का शिकंजा कसता ही है, और तब आप चौतरफा घिर जाते हैं, बचने का कोई रास्ता नहीं दिखता।
आत्महत्या किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती। इन तीनों की खुदकुशी उनकी बेगुनाही का प्रमाण नहीं है।
जब कोई व्यक्ति गलत रास्तों से कामयाब होता है, तो उसके मन में कहीं न कहीं अपराधबोध बना रहता है। जब जांच एजेंसियों की सख्ती बढ़ती है, तो वही अपराधबोध असहनीय हो जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता है। सच का सामना कर नए सिरे से जिंदगी जीने की कोशिश की जा सकती है।
ऐसी घटनाएं हमें यह सीख देती हैं कि किसी भी पद को हासिल करने के लिए शॉर्टकट अपनाना, गलत प्रक्रियाओं का हिस्सा बनना या भ्रष्टाचार के सहारे सफलता पाने की कोशिश करना अंतत: विनाश की ओर ले जाता है। ज्यादा जरूरी है कि किसी पद को नैतिकता और ईमानदारी से हासिल किया जाए। एक भ्रष्ट पदस्थ व्यक्ति न केवल खुद को बल्कि अपने परिवार को भी संकट में डाल देता है। इन तीन आत्महत्याओं का संदेश यही है।
हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए कि सफलता किसी भी कीमत पर चाहिए। व्यवस्था में खामियां तो हैं, लेकिन उसका जवाब खुद भ्रष्ट बनकर देना नहीं है। असली उपलब्धि यह नहीं कि हम कितने ऊंचे पद पर पहुंचे, बल्कि यह है कि हम वहां तक किस तरह से पहुंचे। कोई भी सफलता, अगर उसकी बुनियाद फर्जीवाड़े पर टिकी हो, तो वह सफलता नहीं, बल्कि एक टिकिंग टाइम बम है, जो किसी भी दिन फट सकता है।
कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के लिए लॉबिंग !!
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज के हटने की चर्चा जोरों पर है। इन चर्चाओं के बीच पूर्व मंत्री अमरजीत भगत, डॉ. शिव डहरिया, और जयसिंह अग्रवाल भी दिल्ली पहुंचे थे। ये अलग बात है कि तीनों के दौरे का मकसद अलग-अलग रहा है।
चर्चा है कि भगत, बैज को बदलने के पक्ष में तो हैं, लेकिन वो चाहते हैं कि किसी आदिवासी को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जाए। कुछ इसी तरह की लाइन पूर्व सीएम भूपेश बघेल की भी है। एक तरह से पूर्व सीएम की लाइन को ही भगत आगे बढ़ा रहे हैं। इससे परे डॉ. शिव डहरिया की प्रभारी महामंत्री केसी वेणुगोपाल, और अन्य नेताओं से मुलाकात हुई है। कहा जा रहा है कि डॉ. डहरिया अध्यक्ष की नियुक्ति के मसले पर खामोश हैं, लेकिन वो खुद कार्यकारी अध्यक्ष बनना चाहते हैं।
डॉ. डहरिया पहले भी प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रह चुके हैं। पूर्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल भी दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं से मिले हैं। वो प्रदेश कांग्रेस में बदलाव के पक्षधर हैं, और ऐसा अध्यक्ष चाहते हैं जो सबको साथ लेकर चल सके। जयसिंह, ये सारी योग्यता पूर्व डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव में देखते हैं। पार्टी हाईकमान प्रदेश कांग्रेस में बदलाव पर क्या कुछ फैसला करता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा।
दो नए कलेक्टरों के साथ-साथ
विधानसभा का बजट सत्र 25 तारीख से शुरू हो रहा है। इससे पहले नगरीय निकाय, पंचायत चुनाव की आचार संहिता 24 को खत्म हो जाएगी। आचार संहिता खत्म होने के साथ ही प्रशासनिक फेरबदल हो सकता है। इसकी प्रमुख वजह दो कलेक्टर ऋचा प्रकाश चौधरी, और नम्रता गांधी की केन्द्र सरकार में पोस्टिंग होना है। दोनों को आचार संहिता खत्म होते ही रिलीव किया जा सकता है। चर्चा है कि दुर्ग, और धमतरी में नए कलेक्टर की पोस्टिंग के साथ ही एक-दो और कलेक्टर बदले जा सकते हैं। सचिव स्तर के दो अफसर आर प्रसन्ना, और सौरभ कुमार भी केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। दोनों ने ही प्रतिनियुक्ति के लिए आवेदन दे दिया है। चूंकि विधानसभा का सत्र शुरू हो रहा है, इसलिए फेरबदल की सूची ज्यादा बड़ी नहीं होगी, लेकिन अंदाजा लगाया जा रहा है कि आधा दर्जन अफसर फेरबदल के दायरे में आ सकते हैं। देखना है आगे क्या होता है।
किसान को क्या मिलता होगा?
छत्तीसगढ़ के बाजारों में इन दिनों एक विचित्र विरोधाभास देखने को मिल रहा है। टमाटर और कुछ अन्य सब्जियां इतनी सस्ती कि तीन किलो मात्र 20 रुपये में बिक रही हैं, जबकि बोहार भाजी जैसी भाजी इतनी महंगी कि 250 ग्राम के लिए 60 रुपये तक देने पड़ रहे हैं।
टमाटर सस्ता क्यों है या बोहार भाजी महंगी क्यों, सवाल यह नहीं है। चिंता यह होनी चाहिए कि खेती में किसानों को मुनाफे की गारंटी क्यों नहीं मिलती?
टमाटर उगाने, तोडऩे, परिवहन करने और बाजार तक लाने की लागत ही किसान के लिए भारी पड़ रही होगी। बाजार में सप्लाई बढ़ती है, तो कीमतें इतनी गिर जाती हैं कि लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन दूसरी ओर, बोहार भाजी जैसी स्थानीय व कम आपूर्ति वाली भाजी की कीमत ऊंची बनी रहती हैं। हम किसानों को सही फसल चक्र और उन्नत खेती के लिए प्रेरित नहीं कर पा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में पारंपरिक रूप से धान की खेती पर सबसे ज्यादा जोर रहता है। लेकिन अगर किसानों को बेहतर मुनाफे वाली फसलों के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो वे ऐसी नकदी फसलें भी उगा सकते हैं जो बाजार में टिक सकें। जलवायु और मांग के हिसाब से सही फसल चयन हो, बिचौलियों की भूमिका कम हो, और किसानों को सीधी बाजार पहुंच मिले। छत्तीसगढ़ के किसान अगर केवल पारंपरिक फसलों से बंधे रहेंगे और मंडी के भरोसे रहेंगे, तो यही हालात बने रहेंगे।
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छत्तीसगढ़ विधानसभा और चुनाव आयुक्त
ज्ञानेश कुमार देश के 26 वें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए गए हैं। राज्य गठन के बाद मुख्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों में छत्तीसगढ़ के साथ एक संयोग जुड़ा हुआ है । वो यह कि छत्तीसगढ़ में अब तक छह विधानसभाओं का गठन हुआ है और हर विधानसभा के चुनाव नए आयुक्त ने ही कराए हैं। ऐसा संयोग मप्र, राजस्थान, मणिपुर के साथ भी है। इनके चुनाव भी हमारे ही साथ होते हैं । और यह सिलसिला आने वाले वर्षों में भी बना रह सकता है।
वर्ष 2003 के नवंबर में छत्तीसगढ़ की पृथक विधानसभा के पहले चुनाव हुए तब जेएम लिंगदोह चुनाव आयुक्त रहे। उसके बाद 2008 के चुनाव एन गोपालस्वामी ने कराए। वर्ष 2013 में गठित विधानसभा के चुनाव के वक्त बीएस.संपत्त, 2018 में ओपी. रावत ने तीसरी निर्वाचित विधानसभा का गठन किया था। 2023 की पांचवी विधानसभा के चुनाव के वक्त राजीव कुमार मुख्य आयुक्त रहे। और अब ज्ञानेश कुमार। उनका कार्यकाल फरवरी 29 तक रहेगा। यानी कुमार 2028 में सप्तम विधानसभा के चुनाव कराकर ही रिटायर होंगे। इनमें सबसे कडक़रदार आयुक्त रहे गोपाल स्वामी उन्होने ठीक चुनाव के वक्त छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को हटा दिया था। तब प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी।
गोपाल स्वामी, पूर्व डिप्टी पीएम आडवाणी के साथ देश के गृह सचिव भी रहे लेकिन निष्पक्षता बरती। और चुनावी इतिहास का बड़ा दृष्टांत गढ़ गए। ऐसा अवसर राजीव कुमार के वक्त भी आया। रायपुर से दिल्ली तक भाजपा की प्रदेश, राष्ट्रीय इकाई ने अशोक जुनेजा को हटाने शिकायत, ज्ञापन सौंपा, लेकिन नहीं हटाया।
रेखा गुप्ता को लेकर गलतफहमी
राजनीति में हमेशा से जाति का जोर रहा है। और राजनीतिक क्षेत्र में किसी की नियुक्ति होती है, तो उसकी जाति पर बात जरूर होती है। ऐसा ही दिल्ली की नई सीएम रेखा गुप्ता को लेकर भी चर्चा हुई।
छत्तीसगढ़ के साहू समाज के कुछ पदाधिकारियों ने रेखा गुप्ता को यह कहकर बधाई दी, वो तेली समाज से ताल्लुक रखती हैं। और अखिल भारतीय तैलिक महासंघ की पदाधिकारी भी हैं।
बाद में तेली समाज के वस्तुस्थिति की पड़ताल की, तो पता चला कि रेखा गुप्ता तेली नहीं, बल्कि वैश्य (बनिया) समाज से आती हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश और बिहार में तेली समाज के लोग गुप्ता सरनेम भी रखते हैं। छत्तीसगढ़ में विशेषकर सरगुजा इलाके में कलार समाज के लोग गुप्ता सरनेम लगाते हैं। बाद में तेली समाज के कुछ पदाधिकारियों ने सोशल मीडिया पर यह लिखकर बधाई दी कि रेखा गुप्ता एक महिला हैं और इससे महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा।
देख लिया मतपत्र से चुनाव?
मनेंद्रगढ़-चिरमिरी-बैकुंठपुर (एमसीबी) जिले के खडग़वां ब्लॉक के कटकोना में पंचायत चुनाव की मतगणना के दौरान जो हुआ, उसने पुराने दौर के चुनावी दृश्य की याद दिला दी, जब सभी चुनावों में ईवीएम की जगह बैलेट पेपर का उपयोग होता था।
कटकोना के एक बूथ पर मतगणना के दौरान बिजली गुल होने से नाराज ग्रामीण लाठी-डंडों के साथ दरवाजा तोडक़र भीतर घुस गए और बैलेट बॉक्स लूटने की कोशिश की। जब मतदान दल और सुरक्षाकर्मियों ने रोकने की कोशिश की, तो उनके साथ मारपीट शुरू हो गई। हालात इतने बिगड़ गए कि बचाव के लिए पहुंची पुलिस पेट्रोलिंग टीम पर भी हमला कर दिया गया। पुलिस और चुनाव कर्मियों को जान बचाकर भागना पड़ा। 107 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है और कुछ को गिरफ्तार भी किया गया।
चूंकि यह घटना पंचायत चुनाव से जुड़ी है, इसलिए इसे राष्ट्रीय स्तर पर खास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन इस घटनाक्रम को ईवीएम समर्थकों द्वारा बैलेट पेपर सिस्टम की कमियों को उजागर करने के उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। वे कह सकते हैं कि बैलेट पेपर आधारित चुनावों में बाहुबल और अराजकता का ज्यादा प्रभाव रहता है।
पर क्या इस एक घटना से कोई निष्कर्ष निकालना उचित होगा? हाल ही में दुनिया के सबसे अमीर उद्योगपति एलन मस्क ने ईवीएम को हैक किए जाने की आशंका जताकर वैश्विक बहस छेड़ दी है। भारत में ईवीएम समर्थकों ने इसे गलत करार दिया, लेकिन इसके बावजूद संदेह बरकरार हैं। इसी संदर्भ में महाराष्ट्र में कांग्रेस और शिवसेना (उद्धव गुट) ने चुनाव आयोग से उन 70 लाख नए मतदाताओं की सूची मांगी है, जिनके नाम कथित रूप से विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जोड़े गए। वे फॉर्म 17सी और फॉर्म 20 के मिलान की मांग कर रहे हैं। पहले फॉर्म में बूथ पर ही कुल मतदान की संख्या दर्ज होती है और दूसरे में मतगणना के दौरान गिने गए वोटों का रिकॉर्ड रहता है।
छोटी इकाइयों वाले पंचायत के चुनावों में अलग-अलग ईवीएम की कमीशनिंग करना अत्यंत कठिन और महंगा होगा, इसलिए मतपत्रों का उपयोग किया जाता है। लेकिन यह पारदर्शिता की एक अलग चुनौती भी पेश करता है। बैलेट पेपर आधारित चुनावों में स्थानीय स्तर पर धांधली पकड़ में आ सकती है, जबकि ईवीएम में छेड़छाड़ की आशंका को सिद्ध कर पाना कठिन होता है। अगर मतदाता सूची में गड़बड़ी की जाए या मतगणना में हेरफेर हो, तो इसका असर कुछ सौ वोटों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह हजारों मतों को प्रभावित कर सकता है, बिना कोई ठोस सबूत छोड़े। फिर इसे साबित करना मुश्किल होगा।
इसका यह मतलब नहीं कि ईवीएम से चुनाव में गड़बड़ी ही हो रही है या बैलेट पेपर ही सबसे अच्छा विकल्प है। लेकिन कटकोना से लेकर महाराष्ट्र तक की घटनाएं यह जरूर दिखाती है कि चुनावी प्रक्रिया को लेकर संदेह और बहस अभी खत्म नहीं होने वाली है।
मंत्रालय में एक साथ दो-दो पदों पर ...!
मंत्रालय कैडर में पहले अनुभाग अधिकारी से अवर सचिव की पदोन्नति और उसके बाद दो दिन पहले हुई पोस्टिंग ने पूरे सेटअप को छिन्न भिन्न कर दिया है? । अगले एक दो महीने में रिटायर होने वाले दो अनुभाग अधिकारियों को पदोन्नति का लाभ देने पूरे कैडर के साथ खिलवाड़ किया गया है। 20 सांख्येत्तर पद लेकर की गई पदोन्नति का खामियाजा आने वाले वर्षों में कई बैच भुगतेंगे। हालांकि ये पद, पदोन्नतों को रिटायर होने के साथ ही खत्म हो जाते हैं। लेकिन कुछेक लोगों की आड़ में 1999 और 2007 में भर्ती हुए कर्मियों को भी समय से पहले पदोन्नति दे दी गई । खासकर अवर सचिव पदों पर।
सामान्य तौर पर नियमित पदों के अवर सचिव रिटायर होने पर नीचे के अनुभाग अधिकारियों को पदोन्नति मिलती है। लेकिन सांख्येत्तर पद पर पदोन्नति का निचले क्रम के कर्मियों को फायदा नहीं मिलता। एक तरह से निचले क्रम के एसओ ने अपने पद गिरवी रख दिए हैं। इन पदोन्नत 21 अवर सचिवों में 1999 बैच के अधिकारी कर्मचारी हैं। इनमें से कुछ ही रिटायरमेंट के करीब हैं शेष सभी कम आयु वर्ग के कोटे वाले हैं जो वर्ष 2030 के बाद रिटायरमेंट तक उच्च पद के वेतन-भत्ते का फायदा उठाएंगे। और तब तक इनके नीचे वाले पदोन्नति से वंचित होते रहेंगे। इसे लेकर मंत्रालय कर्मियों का कहना है कि इस वर्ष जो इक्का-दुक्का वरिष्ठ रिटायर होने वाले हैं उनके लिए ही सांख्येत्तर पद लिए जाने थे। लेकिन सामान्य प्रशासन विभाग में पदस्थ कुछ कोटा पार्टी के एसओ भी महाकुंभ में डुबकी लगाने से नहीं चूके। ऐसे ही लोगों की वजह से निचले क्रम के वंचित होंगे।
वहीं जीएडी के लिए भी कैडर मेनेजमेंट मुश्किल में पड़ जाएगा। जीएडी या तो सेटअप रिव्यू कर अवर सचिव के नए पद मंजूर कराए या हर वर्ष ऐसे ही सांख्येत्तर पद लेते रहे।
सांख्येत्तर पद लेकर पदोन्नत अवर सचिव तो बना दिए गए लेकिन मंत्रालय में उनके लिए पद यानी पोस्टिंग के लिए विभाग नहीं है। और इनके पदोन्नत होने से नीचे विभागों में अनुभाग अधिकारी नहीं रह जाएंगे। इस समस्या का हल जीएडी ने कुछ इस तरह से निकाला है। पदोन्नत अवर सचिव, नए पद के साथ उसी विभाग के अनुभाग कक्ष यानी अनुभाग अधिकारी का भी काम देखेंगे। यानी, वे एक हाथ से प्रस्ताव बनाएंगे और दूसरे हाथ से मंजूर भी करेंगे।
70 किमी दूर पोलिंग बूथ
माओवादी हिंसा प्रभावित बीजापुर जिले में भी पंचायत चुनाव हो रहे हैं। इनमें से कई गांव इतने संवेदनशील हैं कि वहां पोलिंग बूथ बनाए ही नहीं जा सके। ऐसे गांवों के मतदाताओं को वोट देने के लिए भोपालपट्टनम पहुंचने के लिए कहा गया। यह सेंड्रा ग्राम का एक परिवार है, जो बाइक पर 70 किलोमीटर की दूरी तय करके मतदान करने के लिए ब्लॉक मुख्यालय पहुंचा।
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बेकाबू कारोबार, और बेबस म्युनिसिपल
राजधानी रहने के बावजूद रायपुर शहर में बड़े कारोबारियों की मनमानी पर कोई सरकारी रोक नहीं दिखती है। राजकुमार कॉलेज की जमीन पर बने एक कमर्शियल कॉम्पलेक्स में कारों की साज-सज्जा की दुकानें हैं, और वहां हर दिन एक गाड़ी कचरा निकलता है जो कि जीई रोड पर चारों तरफ बिखरते भी रहता है। पूरे कॉम्पलेक्स के सामने की सडक़ पर यह कचरा उड़ते रहता है जो कि कार-एक्सेसरीज की पैकिंग का है। कुछ ऐसा ही हाल शहर के बीच शहीद स्मारक के पीछे इसी तरह के बाजार का है, और सडक़ों पर चलते ऐसे वर्कशॉप पर कोई रोक भी नहीं है। म्युनिसिपल शहर की अपनी सबसे बड़ी प्रॉपर्टी के ही नाजायज इस्तेमाल को नहीं रोक पा रहा है।
छोटा पद, बड़ी पूछ-परख
प्रदेश में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कई ऐसे नेता, जो कि विधायक बनने से रह गए, वो पंचायत चुनाव मैदान में उतरे हैं। कुछ को तो सफलता भी मिली है। सामरी के दो बार के विधायक, और पूर्व संसदीय सचिव रह चुके सिद्धनाथ पैकरा के अलावा खैरागढ़ के विक्रांत सिंह भी जिला पंचायत चुनाव मैदान में उतरे थे, और उन्हें सफलता भी मिल गई।
विक्रांत सिंह खैरागढ़ सीट से भाजपा की टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। विक्रांत ने जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ा, और रिकॉर्ड वोटों से जीत हासिल की है। इसी तरह पूर्व संसदीय सचिव पैकरा की पत्नी उद्देश्वरी पैकरा सामरी सीट से भाजपा की विधायक हैं। सिद्धनाथ पहले विधानसभा का चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। पत्नी तो विधायक बन गई। और वो खुद पंचायत चुनाव मैदान में उतर गए। और जिला पंचायत सदस्य बनने में कामयाब रहे। जिला पंचायत सदस्य का पद भले ही छोटा है, लेकिन निर्वाचित होने पर पूछ परख रहती है।
दिल्ली जा कर बजट दिलाइए
वरिष्ठ सचिव स्तर के एक और अफसर केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा रहे हैं। 2004 बैच के आईएएस प्रसन्ना आर ने भी अपना अभ्यावेदन दिया है। जिस पर राज्य सरकार ने अपनी अनापत्ति दे दी है। वे बजट सत्र के बाद जा सकते हैं। प्रसन्ना पहली बार प्रति नियुक्ति पर जा रहे। रिजल्ट ओरियेंटेड अफसरों में गिने जाने वाले प्रसन्ना पूर्व में स्वास्थ्य, पीएचई, परिवहन ये बाद एक वर्ष से उच्च शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। राज्य सरकार ने भी खुशी-खुशी सहमति दी है।
विभाग की बजट बैठक में जब अफसरों ने उनसे कहा कि सर अब आप हमसे क्या बजट मांग रहे हैं, दिल्ली जाने के बाद हमें बजट दिलवाइएगा तो सीएम भी हंस पड़े। उनसे पहले दो कलेक्टर नम्रता गांधी, और ऋचा प्रकाश चौधरी की केन्द्र सरकार में पोस्टिंग भी हो चुकी है। ये दोनों भी आज कल में रिलीव हो जाएंगी। इन सबके बीच सचिव स्तर के दूसरे अफसर सौरभ कुमार ने भी केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति के लिए आवेदन किया है। वे 2009 बैच के अफसर हैं।
हाल ही में जमीन से जुड़े एक प्रकरण में सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने उन्हें फटकार भी लगाई थी। हालांकि इसका, उनके दिल्ली जाने के आवेदन से लेना देना नहीं है। वैसे छत्तीसगढ़ के नजरिए से एक असहज बात यह है कि डीओपीटी ने 2009 बैच के अफसरों केन्द्र में संयुक्त सचिव के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। मगर छत्तीसगढ़ के इस बैच का कोई भी अफसर सूचीबद्ध नहीं हो पाया है। ऐसे में भविष्य के लिए केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति का रास्ता खुला रहे, इसके लिए सौरभ कुमार प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए आवेदन दिया है। केन्द्र सरकार प्रतिनियुक्ति आवेदन को मंजूर करती है या नहीं, यह देखना है।
धर्मगुरु का दो टूक वैज्ञानिक दृष्टिकोण
प्रयागराज महाकुंभ में भारी भीड़ जुटाने के लिए भ्रामक प्रचार किया गया, जिसके चलते अव्यवस्था फैल गई और कई लोगों की जान चली गई। जब संसाधनों की कमी थी, तो बड़ी संख्या में लोगों को आमंत्रित करने का औचित्य क्या था? आयोजकों को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए था कि सीमित संख्या में ही लोगों की व्यवस्था संभव है, बाकी न आएं। यह दावा कि महाकुंभ 144 वर्षों बाद आया है, भी मात्र एक राजनीतिक भाषा है।
इस धार्मिक आयोजन के दौरान अव्यवस्था का आलम यह रहा कि 300 किलोमीटर लंबा जाम लग गया, जिससे लोगों को 25-25 किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर होना पड़ा। जिस गंगा जल में श्रद्धालु आस्था के साथ स्नान कर रहे हैं, उसमें नालों का पानी और मल-जल मिश्रित हो रहा है। वैज्ञानिक परीक्षणों के अनुसार, यह जल स्नान के योग्य नहीं है, इसके बावजूद लाखों-करोड़ों लोगों को उसी में स्नान करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
यह बयान किसी नास्तिक या सनातन धर्म विरोधी का नहीं, बल्कि शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का है, जो उन्होंने बेमेतरा के सारधा में आयोजित प्रवचन के दौरान दिया। वे न तो हिंदू धर्म का विरोध कर रहे हैं और न ही सनातन पर आघात कर रहे हैं, बल्कि महाकुंभ की अव्यवस्था और गंगा जल की शुद्धता को लेकर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर अपनी चिंता जता रहे हैं। धार्मिक प्रवचनों में इस प्रकार की आलोचनात्मक बातें कम ही सुनने को मिलती हैं।
शंकराचार्य जैसे प्रतिष्ठित धर्मगुरु के मुख से आई इन कठोर सच्चाइयों को सुनकर भी कोई उन्हें धर्मविरोधी कहने या उनके खिलाफ खुलकर मोर्चा खोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। हालांकि, सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ नकारात्मक प्रचार किया जा रहा है। उनके पद और प्रतिष्ठा की महिमा इतनी प्रबल है कि खुलेआम निंदा करना भी आसान नहीं।
सरगुजा को कब मिलेगी राहत?
सरगुजा में स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय स्थिति को दर्शाने वाली यह तस्वीर कोई नई नहीं है, बल्कि बार-बार सामने आने वाली सच्चाई है। हाल ही में एक गर्भवती महिला को एंबुलेंस न मिलने के कारण कांवड़ के सहारे 7 किलोमीटर तक पैदल ले जाना पड़ा। यह विडंबना ही है कि प्रदेश में लगातार दूसरी बार स्वास्थ्य मंत्री सरगुजा संभाग से ही हैं, फिर भी यहां के आदिवासी बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से वंचित हैं। सरगुजा के सैकड़ों गांव अब भी सडक़ संपर्क से कटे हुए हैं। इसका कारण वन विभाग की भूमि में मंजूरी न मिलने की दलील दी जाती है। लेकिन यही वन क्षेत्र यदि खनिज संसाधनों, विशेषकर कोयले के भंडार से समृद्ध होता, तो यहां चौड़ी-चौड़ी सडक़ें बिना किसी बाधा के बन चुकी होतीं।
सोशल मीडिया पर यह तस्वीर सरगुजा के लखनपुर ब्लॉक की बताई जा रही है।
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गंगाजल लाकर पवित्र करेंगे
रायपुर नगर निगम के नवनिर्वाचित पार्षद कुंभ स्नान के लिए प्रयागराज गए हैं। दल की अगुवाई पूर्व मंत्री राजेश मूणत, महापौर मीनल चौबे, और शहर जिला अध्यक्ष रमेश सिंह ठाकुर कर रहे हैं। कुंभ स्नान के बाद ये लोग संगम से जल लेकर रायपुर आएंगे, और फिर निगम मुख्यालय भवन में छिडक़ाव करेंगे। नवनिर्वाचित पार्षदों से जुड़े सूत्रों का कहना है कि गंगाजल छिडक़ने से भवन पवित्र होगा, और फिर इसके बाद ही महापौर मीनल चौबे पदभार ग्रहण करेंगी। भाजपा से जुड़े लोगों का कहना है कि पिछले पांच साल में निगम का वातावरण दूषित रहा है। इसको पवित्र करने की जरूरत है। गंगाजल के छिडक़ने से पदाधिकारियों की कार्यप्रणाली में फर्क पड़ता है या नहीं, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा।
बगावत से नुकसान
नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही दलों से बड़ी संख्या में बागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे। इनमें से कुछ ने जीत हासिल की, जबकि कई ऐसे भी रहे जिन्होंने अधिकृत प्रत्याशियों के वोट काटकर न केवल अपनी हार सुनिश्चित की, बल्कि पार्टी प्रत्याशी को हराने में भी योगदान दिया। दोनों दलों को नुकसान उठाना पड़ा और बागी उम्मीदवारों को पार्टी से निष्कासित या निलंबित कर दिया गया।
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में टिकट हासिल करना आसान नहीं होता, लेकिन जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले कार्यकर्ता यह आकलन करना चाहते हैं कि जनता में उनकी लोकप्रियता कितनी है और उनके प्रयासों को कितना समर्थन मिल रहा है। राजनीति में कार्यकर्ताओं के लिए सम्मान प्राप्त करने की यह एक स्वाभाविक लालसा होती है। परंतु टिकट तो केवल एक ही उम्मीदवार को मिल सकती है। ऐसे में, कई कार्यकर्ता जिन्हें लगता है कि वे लोकप्रिय हैं लेकिन पार्टी ने उनकी उपेक्षा की, वे निर्दलीय रूप से चुनाव लडऩे का फैसला कर लेते हैं।
यह भी विचारणीय है कि जब पंचायत स्तर के चुनाव राजनीतिक दलों के सिंबल पर नहीं होते, तो फिर नगरीय निकाय चुनावों में ऐसा क्यों होता है, जबकि कई जनपद और जिला पंचायतों के मतदाता वार्डों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में होते हैं। संभव है कि भविष्य में राजनीतिक दल इस नुकसान पर गंभीरता से विचार करें, क्योंकि इस स्थिति से सभी को हानि उठानी पड़ रही है।
एक के बाद दूसरा मोर्चा
नगरीय निकाय के चुनाव भी हो गए अब कार्यकर्ताओं की नजर लाल बत्ती पर टिकी हुई है। निकाय चुनाव में अपने रिश्तेदारों टिकट नहीं मिल सकी, अब वे ताक लगाए बैठे हैं कि कहीं तो उनके काम और निष्ठा की कदर होगी। शायद कहीं मंडल आयोग में कुर्सी मिल जाए। इसमें कुछ लोग ऐसे हैं जिनका धैर्य टूट चुका है। वे लोग अब जोर लगाने लगे हैं। दुर्ग जिले के ऐसे ही एक पूर्व विधायक हैं जिन्होंने पहले विधानसभा की दावेदारी की, फिर अब नगरीय निकाय में दावेदारी की। पर कहीं भी दाल नहीं गली। अब चुनावी खर्च के लिए जो पैसा बचाकर रखे थे, उसे ऑफर में देकर लाल बत्ती की जुगाड़ में वे लग गए हैं। वैसे वे आफर से बत्ती लेने में माहिर हैं, पिछली दफे उन्होंने लालबत्ती, फिर अगले कार्यकाल में विधानसभा की टिकट खरीद ली थी। हालांकि इसका कितना प्रभाव पड़ता है, यह तो उन्हें लालबत्ती मिलने और नहीं मिलने पर ही स्पष्ट हो सकेगा।
वंशवाद से परे
भाजपा परिवारवाद के खिलाफ मुखर रही है। मगर म्युनिसिपल, और पंचायत के चुनाव साथ-साथ होने का फायदा पार्टी के कई नेताओं ने उठाया, और विशेषकर पंचायत चुनाव में अपने घर-परिवार के लोगों को चुनाव मैदान में उतार दिया। चूंकि पंचायत चुनाव दलीय आधार पर नहीं होते हैं। इसलिए पार्टी समर्थित प्रत्याशियों की सूची जारी करती रही है। विवाद होने की दशा में पार्टी के जिले की कोर कमेटी जिला व जनपद के पदों पर समर्थित एक से अधिक प्रत्याशी न हो, यह भी सुनिश्चित करती आई है। मगर इस बार विवाद निपटारे के लिए ज्यादा समय नहीं था। इसलिए पार्टी नेताओं के परिजन चुनाव मैदान में कूद गए। बस्तर से सरगुजा तक भाजपा के कई नेताओं के परिजन चुनाव जीतकर भी आए हैं।
सीएम विष्णुदेव साय के समधी पूर्व डीएसपी टीकाराम कंवर धमतरी जिले की सीट से जिला पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए हैं। इसी तरह युवा आयोग के अध्यक्ष विश्व विजय सिंह तोमर की पत्नी पायल सिंह चुनाव जीतने में सफल रही हैं। यही नहीं, अंबिकापुर के विधायक राजेश अग्रवाल के भाई विजय अग्रवाल भी चुनाव जीते हैं। हालांकि कुछ ऐसे नेता भी हैं, जिन्होंने परिवारवाद के आरोप से बचने के लिए अपने परिवार के लोगों को चुनाव नहीं लड़ाया। इन्हीं में से एक चित्रकोट के भाजपा विधायक विनायक गोयल भी हैं। पार्टी गोयल की पत्नी को जिला पंचायत का चुनाव लड़ाना चाहती थी।
गोयल की पत्नी पंचायत पदाधिकारी रह चुकी हैं। इस बार उनकी जीत आसान भी थी, लेकिन विनायक गोयल ने यह कहकर अपनी पत्नी को प्रत्याशी बनाने से मना कर दिया कि इस तरह की प्रवृत्ति से आम कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है।
विनायक गोयल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज को चुनाव में हराकर सुर्खियों में आए थे। बैज के परिवार के कई सदस्य चुनाव मैदान में उतरे थे। विनायक गोयल का निशाना बैज पर भी था। ऐसे समय में जब पार्टी के प्रमुख नेता अपने परिवार के लोगों को चुनाव लड़ाकर स्थापित करने में लगे हुए हैं, ऐसे में विनायक गोयल के रूख काफी चर्चा भी हो रही है।
उत्साह इतना !!
प्रदेश में म्युनिसिपल की तुलना में पंचायतों में बंपर पोलिंग हुई है। रायपुर और बिलासपुर में तो 50 फीसदी के आसपास ही पोलिंग हो पाई थी। इस बार म्युनिसिपलों में कुल मिलाकर 68 फीसदी पोलिंग हुई, लेकिन पंचायतों में करीब 82 फीसदी पोलिंग हुई है। बीजापुर से लेकर सरगुजा के गांवों तक वोटिंग के लिए लोगों में उत्साह देखने को मिला।
पोलिंग के लिए दोपहर 3 बजे तक समय निर्धारित था, लेकिन कई जगहों पर तो शाम 7 बजे तक पोलिंग चलती रही। दिलचस्प बात यह है कि दूसरे प्रदेशों में भी काम करने गए लोग भी पंचायत चुनाव में वोटिंग के लिए घर वापस आए थे। पोलिंग के बाद तुरंत मतगणना भी शुरू हुई। तब तक गांवों में लोग उत्साह से नतीजों का इंतजार कर रहे थे।
मनेन्द्रगढ़ के खडग़ंवा जनपद के गांव कटोकोना मतगणना चल रही थी, तभी बिजली अचानक गुल हो गई। थोड़ी देर गणना रूकी रही। फिर बिजली आने पर गणना शुरू हुई, तो हारे हुए सरपंच प्रत्याशी के समर्थकों ने जमकर हंगामा किया। उन्होंने गणना में हेरफेर का आरोप लगाते हुए वहां तैनात पुलिसकर्मियों को दौड़ाया। बाद में पुलिस के आला अफसर वहां पहुंचे, तब कहीं जाकर मामला शांत हुआ। कुल मिलाकर मतगणना के दौरान तक लोगों में काफी खींचतान चलती रही।
हेलमेट पर जुर्माना बढ़ा, मगर..
किसी को कार चलाते हुए हेलमेट पहने देखना भले ही अटपटा लगे, लेकिन बिहार के कैमूर जिले के राघवेंद्र कुमार के लिए यह सुरक्षा मुहिम का हिस्सा है। ‘हेलमेट मैन’ के नाम से मशहूर राघवेंद्र बिना हेलमेट दोपहिया वाहन चलाने वालों को रोककर न केवल उन्हें हेलमेट पहनने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि खुद अपने खर्च पर उन्हें हेलमेट भी बांटते हैं। 2014 में नोएडा में उनके करीबी दोस्त कृष्ण कुमार की सडक़ हादसे में मौत हो गई थी। कृष्ण बिना हेलमेट बाइक चला रहे थे, जब एक दुर्घटना में उनके सिर पर गंभीर चोट लगी और उन्होंने दम तोड़ दिया। इस घटना ने राघवेंद्र को झकझोर दिया। तभी उन्होंने तय किया कि वे सडक़ सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करेंगे, ताकि किसी और परिवार को अपनों को यूं न खोना पड़े। यहां तक कि उन्होंने अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए अपना घर तक बेच दिया।
राघवेंद्र का दावा है कि पिछले 10 वर्षों में वे 22 राज्यों में अब तक 60,000 से अधिक हेलमेट बांट चुके हैं और 35 लोगों की जान बचाने में सफल रहे हैं। छत्तीसगढ़ के कई जिलों में इन दिनों फिर से हेलमेट जागरूकता अभियान तेज हो गया है। जगदलपुर, सक्ती, जांजगीर-चांपा, जीपीएम और कुछ अन्य जिलों में सरकारी दफ्तरों में दोपहिया चालकों को हेलमेट पहनकर आने का निर्देश दिया गया है। कुछ स्थानों पर हेलमेट जोन बनाए गए हैं, जहां बिना हेलमेट बाइक चलाने पर जुर्माने का प्रावधान है।
जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुपालन में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बार फिर बिना हेलमेट बाइक चलाने पर जुर्माना 200 से बढ़ाकर 500 रुपये कर दिया। मगर, बिना हेलमेट दुर्घटनाएं जारी हैं। दरअसल, हेलमेट का मुद्दा अक्सर राजनीति का शिकार बन जाता है। जब भी सख्ती होती है, विपक्ष में कोई भी हो विरोध पर उतर आता है। दूसरी ओर, लोग भी कानून से बचने के लिए पुलिस को देखकर हेलमेट पहन तो लेते हैं, लेकिन बाद में उसे हैंडल पर टांग लेते हैं। राघवेंद्र कुमार जैसे लोग प्रेरणा तो बन सकते हैं, लेकिन असली बदलाव तभी आएगा जब हम हेलमेट को बोझ नहीं, सुरक्षा कवच समझें। यह तस्वीर पिछले सप्ताह राघवेंद्र ने सोशल मीडिया पर डाली है, जिसमें उन्होंने बताया कि बिना हेलमेट पहने जा रहे एक पुलिस जवान का उन्होंने पीछा किया और रोककर हेलमेट गिफ्ट किया।
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सत्ता, और पंचायत की हार-जीत
पंचायत चुनाव के नतीजे आने शुरू हो गए हैं। ज्यादातर जगहों पर तो भाजपा को अच्छी सफलता मिली है, लेकिन कुछ जगहों पर भाजपा समर्थित प्रत्याशियों को तगड़ा झटका लगा है। इन सबके बीच रायपुर जिले के एक भाजपा विधायक के खिलाफ हारे हुए प्रत्याशियों ने शिकायत भी की है।
बताते हैं कि भाजपा समर्थित प्रत्याशियों की सूची जारी हुई, तो विधायक महोदय ने अपने क्षेत्र के चार जिला पंचायत सदस्य प्रत्याशियों के नाम पर पहले तो सहमति दे दी थी, बाद में उनके खिलाफ काम करना शुरू कर दिया। चारों प्रत्याशी चुनाव हार गए। विधायक के इस रुख की पार्टी हल्कों में काफी चर्चा है।
नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को भारी सफलता मिली थी। बाकियों के साथ ही सरकार के दो मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल, और लक्ष्मी राजवाड़े को वाहवाही मिली थी। मगर पंचायत चुनाव में दोनों को बड़ा झटका लगा है। जायसवाल के विधानसभा क्षेत्र मनेन्द्रगढ़ में पहले चरण में जिला पंचायत के दो सदस्यों के चुनाव हुए थे उसमें भाजपा समर्थित प्रत्याशी हार गए। भटगांव में भी राजवाड़े के करीबियों को हार का मुख देखना पड़ा है।
बड़े नेताओं के छोटे चुनाव
कांग्रेस, और भाजपा के कुछ नेता ऐसे हैं, जो विधानसभा चुनाव हार गए थे या फिर टिकट से वंचित रह गए थे, वो सभी पंचायत चुनाव मैदान में कूद गए हैं। इन्हीं में से एक कुरूद से नीलम चंद्राकर भी हंै। नीलम तीन बार जिला पंचायत के सदस्य रह चुके हैं। वो जिला पंचायत सभापति भी रहे हैं। उनकी पत्नी तारणी चंद्राकर को कांग्रेस ने विधानसभा टिकट दी थी, लेकिन वो चुनाव नहीं जीत पाई।
तारणी जिस क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य रहते हुए विधानसभा चुनाव लड़ी थी, उसी क्षेत्र से नीलम चंद्राकर चुनाव मैदान में हैं। इसी तरह बेमेतरा से योगेश तिवारी खुद टिकट के वंचित रह गए थे। मगर पार्टी ने इस बार उनकी पत्नी को बेमेतरा के जिला पंचायत की एक सीट से समर्थित प्रत्याशी घोषित किया है। इससे परे युवा आयोग के अध्यक्ष, सरगुजा जिला भाजपा अध्यक्ष समेत कई प्रमुख नेताओं की पत्नियां पंचायत चुनाव जीतने में सफल रही हैं।
आदमी और बेजुबान की मौत का फर्क
एक आम आदमी के गलत इलाज और फिर उसके पोस्ट मार्टम रिपोर्ट पर भले डॉक्टर का कुछ न हो लेकिन एक बेजुबान जानवर ने डॉक्टर साहब को नाकों चने चबवा दिए हैं। डॉक्टर साहब इन दिनों निलंबित होकर विभागीय जांच का सामना कर रहे हैं। पथरिया के एक बकरी पालक ने अपनी बकरी की मौत को गलत इलाज की वजह से होना बताकर चुनौती दी थी।
पशुपालन विभाग में इसरी शिकायत पर जांच बैठी। बात मृत बकरी के पोस्ट मार्टम तक पहुंची। वहां भी गड़बड़ी की गई। पोस्टमार्टम करना था डॉक्टर साहब को । मगर ऐसा नहीं हुआ। पोस्टमार्टम भी किया एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ने। बकरी पालक ने इसे भी चुनौती दी। पहले इलाज और फिर गलत पीएम के लिए विभाग ने डॉक्टर साहब को निलंबित कर दिया और विभागीय जांच बिठा दी गई।
डॉक्टर साहब अपने परिचितों से कहते फिर रहे हैं कि इससे अच्छा तो जुबान रखने वाले आदमी का पोस्टमार्टम कर देता। उसके बाद उठने वाले सवालों का जवाब देकर निलंबित तो नहीं होता । डॉक्टर साहब सही सोच रहे एक आदमी के गलत इलाज मौत और फिर पीएम रिपोर्ट बदलने पर भी इतना बवाल नहीं होता मगर एक बेजुबान की जान भारी पड़ गई।
गजब का मुकुट है यह!
लोग जरा-जरा सी महत्वहीन बातों को किस तरह सिर का ताज बना लेते हैं, यह देखना हो तो उत्तर भारत के इस निमंत्रण पत्र को देखना चाहिए जिसे भेजने वाले ने अपने पदनाम की तरह यह लिखा है कि उन्हें अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से धन्यवाद मिला हुआ है, और अमित शाह से भी। अब सामान्य सी बात यह है कि किसी को ईमेल या ट्विटर पर भी बधाई दे दी जाए, तो उसका धन्यवाद आ जाता है। उसे पद्मश्री या पद्मभूषण की तरह सिर पर ताज बनाकर सजा लेने का यह गजब का हौसला है! (rajpathjanpath@gmail.com)
लुभावनी रिश्वत की सुनामी
म्युनिसिपल के बाद पंचायत चुनाव चल रहा है। पंचायत चुनाव में मतदाताओं को प्रलोभन देने के लिए जो तौर तरीके आजमाए जा रहे हैं, वो चर्चा का विषय बना हुआ है। म्युनिसिपल के चुनाव दलीय आधार पर हुए थे, लेकिन पंचायत चुनाव दलीय आधार पर नहीं हो रहे हैं। ये अलग बात है कि जिला पंचायत सदस्य के लिए दोनों ही प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस ने समर्थित प्रत्याशियों की सूची जारी की है।
न सिर्फ रायपुर शहर से सटे बल्कि दूर दराज के पंचायतों में त्यौहार जैसा माहौल देखने को मिल रहा है। प्रत्याशी, और उनके समर्थक बड़े पैमाने पर शराब बंटवा रहे हैं। साथ ही हरेक मतदाताओं को नगद नोट दिए जा रहे हैं। कई प्रत्याशियों ने तो चुनाव लडऩे के लिए लोन तक लिए हैं। ज्यादातर गांवों में मुर्गा, बकरा, भात का दौर चल रहा है। भखारा इलाके में तो दो गाड़ी साड़ी और गमछे पुलिस ने पकड़ लिए। ये सब ग्रामीणों को बांटने के लिए मंगाए गए थे।
बताते हैं कि ग्रामीण आवास, और अन्य योजनाओं के चलते पंचायतों तक बड़ी राशि पहुंचेगी, इन सबके चलते प्रत्याशियों में मतदाताओं को लुभाने की होड़ मची हुई है। हरेक मतदाता कई प्रत्याशियों से गिफ्ट-नगद ले रहे हैं, हालांकि यह जोखिम भरा भी है। मंदिर हसौद इलाके में तो पिछले पंचायत चुनाव में एक सरपंच प्रत्याशी ने गांव के लोगों को घरेलू उपयोग के सामान गिफ्ट किए थे, बावजूद इसके वो चुनाव हार गए। सरपंच प्रत्याशी दबंग थे, सो उन्होंने हरेक घर जाकर सामान वापस ले लिए। मामला पुलिस तक भी गया था। कुछ इसी तरह का विवाद इस बार भी देखने को मिल सकता है। फिलहाल तो पार्टी चल रही है।
तालाब सफाई मशीन क्यों नहीं?
महाकुंभ कवरेज के लिए प्रयागराज गए प्रदेश के वरिष्ठ फोटोग्राफर गोकुल सोनी ने गंगा सफाई को देख छत्तीसगढ़ में भी नदी तालाब सफाई के लिए साय सरकार और निगम को सुझाव दिया है। अपने फेसबुक पोस्ट में सोनी ने लिखा है कि यह गंगा की सफाई करने वाली मशीन है। श्रद्धालु गंगा नदी में फूल, नारियल और कई तरह की पूजन सामग्री डाल देते हैं जिसके कारण यहां गंदगी फैल जाती है। गहरे पानी में जाकर इसे निकालना बहुत कठिन होता है। इस यंत्र के द्वारा बड़ी आसानी से इन सामग्रियों को निकाला जा सकता है। रायपुर में तालाबों की स्थित काफी खराब है। हमें तालाबों को बचाना बहुत जरूरी भी है। कहते हैं कभी रायपुर में दौ सौ से ज्यादा तालाब थे जिसमें से कई पट गए। तालाब से जलकुंभी और अन्य गंदगी को निकालने ऐसी मशीन हमें खरीद लेना चाहिये। पिछले कुछ वर्षों में रायपुर के चौक चौराहों को सजाने करोड़ों रूपया खर्च किया गया है लेकिन स्थिति कैसी है सब जानते हैं। फिजूलखर्ची से उपयोगी चीजें खरीदना ज्यादा अच्छा होगा ऐसा मेरा मानना है।
अब तोहमतों का दौर
म्युनिसिपलों में बड़ी हार के बाद कांग्रेस में सिर फुटव्वल चल रहा है। पूर्व मंत्री अमरजीत भगत ने तो हार के लिए प्रदेश के बड़े नेता पूर्व सीएम भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, डॉ. चरणदास महंत और प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज को जिम्मेदार ठहरा दिया है। भगत की तरह कई और नेता अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।
रायपुर की मेयर प्रत्याशी दीप्ति दुबे के पति पूर्व मेयर प्रमोद दुबे ने हार का ठिकरा पार्टी संगठन पर फोड़ा है। उन्होंने यह कह दिया कि संगठन की कमजोरी की वजह से हार का सामना करना पड़ा।
इस पर कांग्रेस प्रवक्ता विकास तिवारी ने किसी का जिक्र किए बिना सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने फेसबुक पर प्रमोद दुबे का जिक्र किए बिना लिखा कि 20 सालों तक निगम के सत्ता का सुख भोगने वाले, और अपने बूथ में हारने वाले कांग्रेस संगठन को कमजोर बता रहे हैं। यह बताना लाजमी है कि प्रमोद दुबे खुद लोकसभा का चुनाव लड़े थे, तो वे ब्राह्मण पारा के अपने बूथ से पिछड़ गए थे। विकास के पोस्ट की काफी चर्चा हो रही है।
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कबड्डी नहीं खेल रहे..
रायपुर नगर निगम में भाजपा की जीत से ज्यादा निवर्तमान मेयर एजाज ढेबर की हार के चर्चे हैं। ढेबर पिछले चुनाव में प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट से जीतकर आए थे। ये अलग बात है कि वो विवादों से भी घिरे रहे। ढेबर पूर्व सीएम भूपेश बघेल, और प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज के करीबी माने जाते हैं। मगर चुनाव में जो कुछ हुआ, वह राजनीति से जुड़े लोगों को हैरान करने वाला है।
एजाज कांग्रेस के अल्पसंख्यक चेहरा माने जाते हैं। मगर इस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के बीच उनकी ताकत भी सामने आई है। ढेबर को पहला झटका मतदान के दिन लगा, जब भगवती चरण शुक्ल वार्ड के मुस्लिम बाहुल्य बूथों में 55 फीसदी वोटिंग हुई। ढेबर ने मुस्लिम बूथों से बढ़त तो बनाई, लेकिन भाजपा प्रत्याशी अमर गिदवानी को भी अनपेक्षित अच्छे खासे वोट मिल गए। यही नहीं, ईसाई समाज के मतदाता भी ढेबर के खिलाफ भाजपा के पक्ष में नजर आए। ऐसा नहीं है कि ढेबर का चुनाव प्रबंधन में कोई कमी थी। भाजपा के कई प्रमुख नेताओं से ढेबर के करीबी संबंध हैं। भाजपा ने स्थानीय विधायक सुनील सोनी को मोर्चे पर तैनात किया था। वो रोज घूम फिर कर भगवतीचरण वार्ड में दस्तक दे जाते थे। सोनी के हस्तक्षेप के चलते यह हुआ कि चुनाव प्रचार में अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं किया गया। जहां शराब बंट रहे थे, वहां दूध के पैकेट भिजवाए गए, इसको लेकर मतदाताओं के बीच सकारात्मक संदेश भी गया। सिंधी वोटरों के लिए भाजपा के पाले में पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी के साथ-साथ सिंधी काउंसिल के नेताओं को जिम्मेदारी दी गई थी।
पार्टी के रणनीतिकारों को भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी का अंदेशा था। यही वजह है कि महामंत्री (संगठन) पवन साय ने चुनाव संचालन से जुड़े नेताओं को इशारों-इशारों में साफ तौर पर हिदायत दे रखी थी कि कबड्डी मैच नहीं होना चाहिए। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा प्रत्याशी के मुकाबले कांग्रेस से जुड़े लोगों ने इस वार्ड में कई गुना ज्यादा खर्च किए हैं। बावजूद इसके ढेबर को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
छोटी जीत के बड़े मायने
सरगुजा संभाग के कई म्युनिसिपलों में भाजपा की जीत की काफी चर्चा हो रही है। मसलन, रामानुजगंज में रमन अग्रवाल तीसरी बार नगर पालिका अध्यक्ष अध्यक्ष बने हैं। भाजपा के स्थानीय प्रमुख नेता रमन को टिकट देने के खिलाफ रहे हैं। लेकिन आखिरी क्षणों में पार्टी ने उनकी बेहतर साख को देखकर दांव लगाया। हाल यह रहा कि कई पदाधिकारी खुले तौर पर कांग्रेस, और निर्दलीय प्रत्याशी का समर्थन करते नजर आए, लेकिन रमन के विजय रथ को नहीं रोक पाए। अंबिकापुर में तो नवनिर्वाचित मेयर मंजूषा भगत के बाद किसी पार्षद के जीतने पर सबसे ज्यादा जश्न मनाया गया, तो वो थे राहुल त्रिपाठी ।
राहुल सरगुजा भाजपा के बड़े नेता दिवंगत रविशंकर त्रिपाठी के बेटे हैं। उनकी मां रजनी त्रिपाठी भी विधायक रही हैं। राहुल पहली बार चुनाव लड़े हैं, और जब चुनाव जीते, तो आसपास के वार्डों के रविशंकर त्रिपाठी के नजदीकी समर्थक जुट गए, और खुशियां मनाई। शहर में राहुल का विजय जुलूस निकला। वार्ड चुनाव के इस छोटी जीत के बड़े मायने हैं। उनका नाम अभी से सभापति के लिए लिया जा रहा है। ये अलग बात है कि कई सीनियर नेता पार्षद चुनकर आए हैं। देखना है आगे क्या होता है।
हर माह दो माह में नए नए ओएसडी
मंत्री और उनके सहायक ओएसडी की जुगलबंदी तभी टूटती है जब दोनों के हित टकराते हैं। या फिर ओएसडी, कभी सच्चाई का सामना करा दे। हाल में ऐसा ही कुछ एक मंत्री और ओएसडी के बीच हुआ। और मंत्री जी ने ओएसडी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। हालांकि मंत्री जी ने, इन तेरह महीनों में एक नहीं पांच-पांच ओएसडी बदले हैं। पांडे, गुप्ता, कन्नौजे मरकाम-1 के बाद मरकाम-2। कुछ काम न मिलने से निकलना बेहतर समझे तो कुछ बताए काम न करने से। पांचवें ने भी ऐसा ही किया था। और उस पर इन्होंने तो मंत्री जी को सच्चाई का सामना करा दिया था। मंत्री जी ने नियुक्ति के समय ही कहा था मेरे बताए काम, अपने बिहाफ में कराएं, मंत्री के नहीं। मगर ओएसडी ने स्वयं पर खतरा मोल लेना उचित नहीं समझा। और सारे काम मंत्री के बिहाफ पर करते, कराते रहे।
इसी दौरान बात नेतृत्व तक पहुंची तो मंत्री, ओएसडी दोनों तलब किए गए, जहां सच्चाई से सामना हुआ। वहां सफाई देने के बाद बाहर से निकलते ही ओएसडी आउट। यह ओएसडी और कोई नहीं उत्तर छत्तीसगढ़ के एक पूर्व सांसद के दामाद हैं। इस तरह से बात फैल रही है। तो अब कोई भी मंत्री जी के यहां ओएसडी नहीं बनना चाहता। वैसे, ऐसे ये अकेले मंत्री नहीं है दो तीन और हैं। उनके बंगले,दफ्तरों में माह दो माह में नए-नए ओएसडी दिखाई देते हैं।
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बाघ संरक्षण से पिंड छुड़ाने की नीति
अचानकमार की रेस्क्यू बाघिन मध्यप्रदेश के संजय डुबरी टाइगर रिजर्व में 10 दिन भी नहीं टिक पाई और संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मौत हो गई। पहले चिरमिरी से बाघिन को पकडक़र अचानकमार में छोड़ा गया, लेकिन वह वापस लौट गई। फिर उसे मध्यप्रदेश भेज दिया गया, जहां उसकी संदिग्ध मौत हो गई। इस बीच, लमनी क्षेत्र में एक अन्य बाघिन का शव भी मिला, लेकिन वन विभाग की चुप्पी जारी रही। जब बारनवापारा अभयारण्य के कॉलर लगे बाघ को अचानकमार में छोडऩे की बात आई, तब भी अधिकारियों ने उसे स्वीकारने से इनकार कर दिया। यही रवैया इस बाघिन के मामले में भी अपनाया गया। जब वन्य जीव प्रेमियों ने वन अफसरों को सुझाव दिया कि बाघिन को अचानकमार में ही टिकाये रखने के प्रबंध किए जाएं तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि उस पर भी हमला हो सकता है। जिस तरह एक बाघिन मारी गई, दूसरे की भी मौत हो सकती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वन विभाग बाघों के संरक्षण में गंभीर है, या सिर्फ उनसे पिंड छुड़ाने की नीति पर काम कर रहा है? बेलगाम अफसरों की कार्यशैली और अनुभवहीन नेतृत्व के चलते बाघ संरक्षण मजाक बनकर रह गया है। छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश बाघ कॉरिडोर भी असुरक्षित है, लेकिन वन विभाग इस पर कोई ठोस कदम उठाने के बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठा है। जब तक इस पर जवाबदेही तय नहीं होती, ऐसी घटनाएं दोहराई जाती रहेंगी।
‘फुटकल’ का मौसम आ गया
झारखंड में बेहद उगाया जाने वाला च्फुटकलज् छत्तीसगढ़ में भी कई स्थानों पर दिखाई देता है। इसकी कोंपल और पत्तियां बेहद बहुपयोगी हैं। चटनी, अचार, ग्रेवी, सब्जी और यहां तक कि माड़ बनाने में भी इसका उपयोग होता है। झारखंड में इसे सुखाकर पूरे साल इस्तेमाल करने का चलन है। छत्तीसगढ़, जहां पारंपरिक और आदिवासी व्यंजनों की समृद्ध विरासत है, वहां फुटकल के लिए संभावनाएं व्यापक हैं। जरूरत है इसकी उपज बढ़ाने की, सही माध्यम और बाजार उपलब्ध कराने की। वन संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ में फुटकल जैसी बहुपयोगी वन उपज न सिर्फ पोषण का स्रोत बन सकती है, बल्कि ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के लिए आय का जरिया भी साबित हो सकती है।
फुटकल 20 से 30 मीटर ऊंचा वृक्ष होता है, जो अल्प पतझड़ के बाद फरवरी से मार्च के मध्य तक फूलों से भर जाता है। हरी सब्जियों की कमी वाले मौसम में फुटकल बाजार में नजर आने लगती है, जिसकी कीमत 100 से 150 रुपये प्रति किलो तक होती है। यह तस्वीर झारखंड-छत्तीसगढ़ बॉर्डर के एक गांव की है, जहां सडक़ पर फुटकल बेची जा रही है।
दारू की नदियां
नगरीय निकाय, और पंचायत चुनाव के चलते प्रदेश में अवैध शराब की बाढ़ आ गई है। आबकारी अमले ने अलग-अलग जगहों पर करीब ढाई करोड़ से अधिक की अवैध शराब पकड़ी है, जो कि मतदाताओं को प्रलोभन देने के लिए मंगाई गई थी। इन सबके बीच रायगढ़ में देर रात शराब से भरी एक कंटेनर के पलटने की खबर चर्चा में रही। कंटेनर के पलटते ही चालक, और परिचालक भाग खड़े हुए।
बताते हैं कि ये शराब उत्तर प्रदेश से लाई जा रही थी, और पुलिस का दावा है कि शराब भूटान ले जाया जा रहा था। मगर शराब कंटेनर पलटते ही ग्रामीण टूट पड़े, और पुलिस के पहुंचने से पहले ही शराब ले गए। चर्चा तो यह भी है कि पंचायत चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के लिए शराब मंगाई गई थी। यह शराब किसने मंगाई थी, यह साफ नहीं है। मगर यह जरूर स्पष्ट हो रहा है कि उत्तर प्रदेश और झारखंड से बड़ी मात्रा में शराब पहुंच रही है, और सीमावर्ती चेकपोस्ट पर अपेक्षाकृत जांच पड़ताल में ढिलाई बरती जा रही है।
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अफसरों की दिल्ली रवानगी
जूनियर आईएएस अफसर केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा रहे हैं। दो कलेक्टर नम्रता गांधी, और ऋचा प्रकाश चौधरी की केन्द्र सरकार में पोस्टिंग भी हो चुकी है। ये दोनों पंचायत चुनाव निपटने के बाद रिलीव हो जायेंगी। इन सबके बीच सचिव स्तर के अफसर सौरभ कुमार ने भी केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति के लिए आवेदन किया है।
आईएएस के 2009 बैच के अफसर सौरभ कुमार रायपुर, बिलासपुर, और दंतेवाड़ा कलेक्टर रहे हैं। हाल ही में जमीन से जुड़े एक प्रकरण में सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने उन्हें फटकार भी लगाई थी।
खास बात यह है कि हाल ही में वर्ष-2009 बैच के अफसर केन्द्र सरकार में संयुक्त सचिव के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। मगर छत्तीसगढ़ के इस बैच का कोई भी अफसर सूचीबद्ध नहीं हो पाया है। ऐसे में भविष्य के लिए केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति का रास्ता खुला रहे, इसके लिए सौरभ कुमार प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए आवेदन दिया है। केन्द्र सरकार प्रतिनियुक्ति आवेदन को मंजूर करती है या नहीं, यह देखना है।
दारू की जगह...
नगरीय निकाय चुनाव में इस बार मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए प्रत्याशी, और उनके समर्थकों ने जो कुछ किया, उसकी काफी चर्चा हो रही है। रायपुर नगर निगम के एक हाई प्रोफाइल वार्ड में भाजपा प्रत्याशी पर बस्तियों में शराब बंटवाने के लिए काफी दबाव था। मगर स्थानीय विधायक इससे सहमत नहीं थे। वजह यह है कि कांग्रेस प्रत्याशी पर शराब घोटाले में संलिप्तता का आरोप है, और ईडी-ईओडब्ल्यू इसकी पड़ताल कर रही है।
काफी सोच विचार कर स्थानीय विधायक ने फैसला लिया कि शराब की जगह में मतदाताओं को दूध दिया जाए, ताकि एक संदेश भी चला जाए। पहले तो वार्ड के पदाधिकारी सहमत नहीं थे। उनका तर्क था कि शराब की जगह दूध बंटवाने का कोई असर नहीं होगा, और मतदाता शराब की चाह में विरोधी प्रत्याशी के साथ जा सकते हंै। मगर स्थानीय विधायक ने एक नहीं सुनी, और फिर तीन दिन तक बस्ती के करीब 18 सौ वोटरों को रोज दो-दो पैकेट दूध दिए गए।
शराब की जगह दूध बांटने की चर्चा तो खूब हुई है, और भाजपा के लोग रणनीति के कामयाब होने का दावा कर रहे हैं। अब मतदाताओं ने शराब की जगह दूध पीना पसंद किया है या नहीं, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा।
मतगणना के बाद गिरेगी गाज
नगरीय चुनाव के नतीजे शनिवार की रात तक घोषित हो जाएंगे। पहले मेयर, और अध्यक्षों के मतों की गिनती होगी। इसके बाद वार्ड प्रत्याशियों के मतों की गिनती की जाएगी। भाजपा के रणनीतिकारों की नजर चुनाव नतीजे पर विशेष रूप से टिकी है। वजह यह है कि कई नेताओं पर अपेक्षाकृत पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में काम नहीं करने की शिकायत आई है। पार्टी ने ऐसे चुनाव क्षेत्र भी चिन्हित किए हैं, जहां पार्टी प्रत्याशी को स्थानीय नेताओं की वजह से नुकसान हो सकता है।
बताते हैं कि रायपुर नगर निगम के दो वार्ड में तो भाजपा ने स्थानीय प्रमुख नेताओं की सिफारिश को नजरअंदाज कर महिला प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे। इन दोनों महिला प्रत्याशियों को भितरघात से जूझना पड़ा है। प्रदेश संगठन ने इन दोनों वार्डों को लेकर जिलाध्यक्ष को विशेष रूप से हिदायत भी दी थी। बावजूद इसके असंतुष्ट नेता महिला प्रत्याशियों के खिलाफ गुपचुप तरीके से काम करते रहे। पार्टी के रणनीतिकारों ने संकेत दिए हैं कि दोनों वार्डों में चुनाव नतीजे अनुकूल नहीं आए, तो स्थानीय प्रमुख नेताओं पर गाज गिर सकती है। अब आगे क्या होता है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा।
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आखिर यह सन्नाटा क्यों?
नगरीय निकाय चुनाव नतीजे आने से पहले कांग्रेस में तूफान से पहले की शांति दिख रही है।
पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को कोई बेहतर नतीजे की उम्मीद नहीं है। वो नतीजे आने के बाद पार्टी के बड़े नेताओं पर टूट पडऩे की तैयारी में हैं।
एक पूर्व विधायक ने पहले ही संकेत दे दिए हैं कि वो आने वाले दिनों में धमाका करेंगे। धमाका किस तरह का होगा, यह स्पष्ट नहीं है। मगर यह तय है कि धमाके की गूंज दिल्ली तक सुनाई दे सकती है।
रायपुर में स्थानीय नेताओं के बीच विवाद खुलकर जाहिर हो सकती है। इसकी वजह यह है कि कई सीनियर पार्षदों की टिकिट काट दी गई थी। ये सभी निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। कुछ की स्थिति तो बेहतर बताई जा रही है। इन पूर्व पार्षदों का कहना है कि वो देर सबेर विधानसभा टिकट के दावेदार हो सकते थे इसलिए उन्हें जानबूझकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। बागी कांग्रेस चुनाव जीतकर आएंगे तो कुछ बोलेंगे ही, और बोलेंगे तो विवाद बढ़ेगा ही। यानी आने वाले दिनों में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज की राह मुश्किल हो सकती है।
भाजपा में भी कुछ ठीक नहीं
भाजपा में विशेषकर सरगुजा संभाग में नगरीय निकाय चुनाव के बीच में काफी विवाद हु्आ है। चर्चा है कि महिला बाल विकास मंत्री लक्ष्मी राजवाड़े ने तो चुनाव प्रचार की समीक्षा बैठक में प्रदेश प्रभारी नितिन नबीन से स्थानीय प्रमुख नेताओं की शिकायत की है। उन्होंने किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन स्थानीय दिग्गज नेता महिला बाल विकास मंत्री से खफा बताए जा रहे हैं। इन सबके बीच एक के बाद एक कई ऑडियो भी वायरल हुआ है। एक ऑडियो में महिला बाल विकास मंत्री के पति और भाजपा के बागी प्रत्याशी के बीच बातचीत है। बागी प्रत्याशी उन पर पार्टी के खिलाफ काम करने वालों को टिकट देने की तोहमत लगा रहे हैं। दोनों के बीच में काफी विवाद हो रहा है। ऐसे कई ऑडियो-वीडियो चर्चा का विषय बना हुआ है। चुनाव नतीजे आने के बाद कुछ और ऑडियो-वीडियो जारी हो सकता है जिससे प्रदेश की राजनीति गरमा सकती है। देखना है आगे क्या होता है।
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चिरमिरी में किरकिरी का खतरा
नगरीय निकायों में बुधवार को मतदान के बाद चुनाव नतीजों का आकलन किया जा रहा है। भाजपा के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि 10 में से 9 नगर निगम पार्टी जीत सकती है। सिर्फ चिरमिरी को लेकर संशय है। इससे परे कांग्रेस के नेता अनौपचारिक चर्चा में तीन नगर निगमों में जीत का भरोसा जता रहे हैं।
भाजपा को रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, और राजनांदगांव व जगदलपुर व धमतरी, रायगढ़ में स्पष्ट जीत की उम्मीद है। इन निगमों में अच्छी खासी मार्जिन से भाजपा के मेयर प्रत्याशियों के जीत का दावा किया जा रहा है। पार्टी नेताओं का आकलन है कि भाजपा को अंबिकापुर, और कोरबा में मामूली अंतर से जीत मिल सकती है। जबकि चिरमिरी में कुछ भी हो सकता है। इससे परे कांग्रेस कोरबा, अंबिकापुर, और चिरमिरी को लेकर उम्मीद से है।
कांग्रेस का नगर पालिका, और नगर पंचायतों में प्रदर्शन बेहतर रह सकता है। सरगुजा संभाग में मनेन्द्रगढ़ जैसी नगर पालिका में कांग्रेस प्रत्याशी भारी रही है। खुद सीएम विष्णुदेव साय के विधानसभा क्षेत्र कुनकुरी के नगर पालिका में कांग्रेस ने तगड़ी टक्कर दी है। यहां सामाजिक समीकरण के चलते मुकाबला नजदीकी रहा है। कुल मिलाकर मतदान के बाद भाजपा के रणनीतिकार खुश नजर आ रहे हैं। 15 तारीख को चुनाव नतीजे आने तक हार-जीत का आकलन चलता रहेगा।
अरबपति की वापिसी किस कीमत पर?
कांग्रेस में मतदान खत्म होते ही डेढ़ दर्जन बागी नेताओं की पार्टी में वापिसी हो गई। पार्टी ने निष्कासित-निलंबित नेताओं की कांग्रेस में वापिसी के लिए छानबीन समिति बनाई थी। चर्चा है कि समिति की अनुशंसा से पहले ही बागियों को पार्टी में वापस ले लिया गया। इस पूरे मामले पर पार्टी के कई प्रमुख नेताओं ने अलग-अलग स्तरों पर अपनी नाराजगी जताई है।
जिन नेताओं को पार्टी में वापस लिया गया है उनमें रायपुर उत्तर के निर्दलीय प्रत्याशी अजीत कुकरेजा भी हैं। कहा जा रहा है कि अजीत कुकरेजा को पार्टी में वापस लाने में पूर्व मेयर एजाज ढेबर की भूमिका अहम रही है। अजीत, ढेबर के चुनाव प्रचार में लगे हुए थे। और फिर मतदान खत्म होते ही ढेबर ने उन्हें पार्टी में लेने के लिए प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज को तैयार किया। चर्चा है कि छानबीन समिति के सदस्यों को इसकी भनक भी नहीं लगी है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, बागियों की वापिसी से नाखुश बताए जाते हैं। इस पूरे मामले पर आने वाले दिनों में कांग्रेस के भीतर विवाद खड़ा हो सकता है।
मतदान के लिए उदासीन क्यों?
छत्तीसगढ़ के नगरीय निकाय चुनाव अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रहे। आमतौर पर देखे जाने वाले विवाद, झड़प, झीना-झपटी, मारपीट और प्रलोभन जैसी घटनाओं के अलावा कोई बड़ी वारदात नहीं हुई। बावजूद इसके, कई निकायों में 2019 के मुकाबले मतदान प्रतिशत घट गया। राजधानी रायपुर में केवल 49.58 प्रतिशत वोटिंग हुई, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 53 प्रतिशत था।
चुनाव को सुगम बनाने के लिए सरकारी और निजी दफ्तरों में अवकाश घोषित किया गया था। प्रत्याशियों ने पूरी ताकत झोंक दी—गली-मोहल्लों में प्रचार, बैनर-पोस्टर, रोड-शो, रैलियां और यहां तक कि उपहार व नगदी वितरण तक हुआ। फिर भी आधे से अधिक मतदाता वोट डालने नहीं पहुंचे। यहां तक कि जिनको कोई प्रत्याशी पसंद नहीं था, वे भी नोटा दबाने नहीं निकले।
क्या मतदाताओं को यह लग रहा था कि ‘को नृप होई, हमें का हानि’? यानी कोई भी पार्षद या महापौर बने, उनके जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा? या फिर सत्तारूढ़ दल की नगरीय निकायों में बढ़त के पुराने ट्रेंड को देखकर कुछ ने मान लिया कि नतीजे पहले से तय हैं और उनके वोट से कोई बदलाव नहीं होगा?
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में महिलाओं की भागीदारी अधिक देखी गई थी, लेकिन इस बार नगरीय निकाय चुनावों में महिला मतदाता अपेक्षाकृत कम संख्या में निकलीं। क्या महतारी वंदना योजना की लाभार्थी महिलाएं भी मतदान से दूर रहीं? क्या महाकुंभ के कारण मतदान प्रभावित हुआ? क्या नामांकन और मतदान के बीच की अवधि इतनी कम थी कि प्रत्याशी मतदाताओं तक सही से पहुंच नहीं बना सके?
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भारत निर्वाचन आयोग स्वीप कार्यक्रम के तहत व्यापक जागरूकता अभियान चलाता है, लेकिन यह राज्य निर्वाचन आयोग से संचालित चुनाव है। नगरीय निकाय चुनावों में ऐसा कोई अभियान नहीं दिखा। कुछ जिलों में प्रशासन ने जरूर अपनी ओर से पहल की थी। विधानसभा-लोकसभा चुनावों में बुजुर्गों और दिव्यांगों को घर से मतदान की सुविधा दी गई थी, लेकिन इस बार सभी को बूथ तक पहुंचना जरूरी था।
मतदान के प्रति यह उदासीनता क्यों रही, इसका सही उत्तर तो वे ही दे सकते हैं, जिन्होंने वोट नहीं डाला। पर आयोग, सरकार और राजनीतिक दलों को इस पर मंथन जरूर करना चाहिए। आखिर, लोकतंत्र में जनता की भागीदारी ही उनका सबसे बड़ा हथियार है।
देस लौटने की तैयारी में...
नॉर्दर्न पिंटेल एक सुंदर और लंबी गर्दन वाला बतख प्रजाति का पक्षी है, जिसे इसके अनोखे आकार और आकर्षक पंखों के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। रूस, मंगोलिया, कनाडा, कजाकिस्तान, चीन आदि में पाया जाने वाला यह प्रवासी पक्षी होता है। इसे सर्दियों में भारत सहित कई देशों में देखा जाता है। यह तस्वीर अचानकमार अभयारण्य के रास्ते पर एक दलदली जमीन से ली गई है। सर्दियों में यह भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में प्रवास करता है। अब चूंकि गर्मी बढ़ रही है, ये पक्षी वापस लौटने की तैयारी में हैं। नॉर्दर्न पिंटेल की संख्या हाल के वर्षों में घट रही है, जिसका मुख्य कारण अवैध शिकार और हैबिटेट का नष्ट होना है। इसे आईयूसीएन ने रेड लिस्ट में डाल रखा है, जिसके संरक्षण की जरूरत बनी हुई है। (rajpathjanpath@gmail.com)
राजधानी में कांग्रेस दिक्कत में
चर्चा है कि नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अब तक का सबसे बेहतर हो सकता है। वजह यह है कि पार्टी का चुनाव प्रबंधन अच्छा रहा है। पार्टी के तमाम प्रमुख नेता प्रचार खत्म होने के बाद भी डोर-टू-डोर जाकर मतदाताओं से मिलते रहे हैं। रायपुर नगर निगम के एक हाईप्रोफाइल वार्ड में तो सोमवार की रात खुद महामंत्री (संगठन) पवन साय ने प्रमुख नेताओं के साथ बैठक की।
पार्टी ने सरकार के सभी मंत्रियों को एक-एक निगम का प्रभारी बनाया है। रायपुर के प्रभारी कृषि मंत्री रामविचार नेताम हैं। नेताम ने पूरे समय रायपुर में रहकर वार्डों में झगड़े निपटाते दिखे हैं।
भाजपा नेताओं की रणनीति का प्रतिफल यह रहा कि कांग्रेस के कई-कई बार के पार्षद, जो कि पिछले चुनावों में आसानी से जीत दर्ज करते रहे हैं। इस बार मुश्किल में घिरे दिख रहे हैं। आम आदमी पार्टी की भले ही दिल्ली में सत्ता चली गई, लेकिन रायपुर नगर निगम में खाता खुल सकता है। दो-तीन वार्डों में आप प्रत्याशी मजबूत दिख रहे हैं। कुल मिलाकर इस बार चुनाव में नतीजे चौकाने वाले आ सकते हैं।
बिना कोषाध्यक्ष टिकट बिक्री ?
कांग्रेस का प्रचार तंत्र इस बार बिखरा रहा है। प्रदेश के प्रभारी महामंत्री मलकीत सिंह गेंदू चुनाव लड़ रहे हैं, और कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल चुनावी परिदृश्य से गायब हैं। इसका सीधा असर चुनाव प्रचार पर पड़ा है। पहली बार रिकॉर्ड संख्या में बागी चुनाव मैदान में उतरे हैं। उन्हें मनाकर चुनाव मैदान से हटाने में किसी बड़े नेता ने रुचि नहीं दिखाई।
दिलचस्प बात यह है कि प्रदेश प्रभारी सचिन पायलट पूरी तरह चुनाव से गायब रहे। वो एक दिन भी यहां पार्टी प्रत्याशियों के प्रचार के लिए नहीं आए। यही नहीं, पार्टी के बड़े नेता एक साथ किसी भी मंच पर नहीं दिखे। यानी एकजुटता का दिखावा नहीं कर पाए। इसका सीधा असर चुनाव पर दिखा है। प्रदेश में तीन नगर निगम ही ऐसे हैं, जहां कांग्रेस कड़ी टक्कर देते दिख रही है। इनमें भी प्रत्याशियों का बड़ा रोल है। टिकट को लेकर लेनदेन की चर्चा रही है। चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस में गदर मचने के आसार दिख रहे हैं। देखना है आगे क्या होता है।
दो बड़े चुनावों के बाद सुस्त मतदान
नगरीय निकाय चुनाव में कई जगहों पर बेहतर मतदान हुआ है। मगर रायपुर जैसे बड़े नगर निगमों में मतदाता सूची में गड़बड़ी सामने आई है। वार्डों के परिसीमन के चलते मतदान केन्द्र बदल गए, और इसकी वजह से मतदाताओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा है।
बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए चुनाव आयोग ने अभियान चलाया था। मगर नाम जुड़वाने के बावजूद बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम गायब थे। राज्य निर्वाचन आयोग की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। पहले चुनावों में आयोग ने मतदान के आंकड़े जारी करने में तत्परता दिखाती रही है। इस बार वैसा कुछ नजर नहीं आया। सुबह 10 बजे पहली बार आंकड़े जारी किए गए। राजनीतिक दलों के लोग भी आयोग से संतुष्ट नजर नहीं आए।
सांसद के सार्वजनिक गुस्से का सवाल
बस्तर में कई जनप्रतिनिधि जेड प्लस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण। कांकेर सांसद भोजराज नाग भी उन्हीं में से एक हैं। जब नक्सल ऑपरेशन की प्रतिक्रिया स्वरूप जनप्रतिनिधियों पर हमले हो रहे हैं, तो यह जरूरी है कि उनकी सुरक्षा को लेकर पुलिस को अतिरिक्त सतर्क रहना चाहिए।
कांकेर-भानुप्रतापपुर मार्ग पर सांसद की गाड़ी करीब एक घंटे तक जाम में फंसी रही। सामने ट्रकों की लंबी कतार थी, जिन्हें पुलिस माइंस से आने वाले भारी वाहनों की चेकिंग में रोक रही थी। इस दौरान सांसद का गुस्सा थाना प्रभारी पर फूट पड़ा। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में वह खुलेआम टीआई पर वसूली के आरोप लगाते दिखे। उन्होंने कहा- ऐसी टीआईगिरी करोगे? वीआईपी को एक घंटे रोकोगे? तमाशा बना दिया है! बदतमीज कहीं के! माइंस की ट्रकों से वसूली करते हो, बहुत शिकायतें हैं तुम्हारी! पुलिस सफाई देती रही कि नो एंट्री में घुसी ट्रकों की संख्या अधिक थी, जिससे व्यवस्थित करने में समय लगा और जाम लग गया।
यह पहली बार नहीं है जब सांसद इस तरह सार्वजनिक रूप से भडक़े हों। कुछ समय पहले रावघाट इलाके के एक ठेकेदार से फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने आपा खो दिया था और अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया था। वह वीडियो भी वायरल हुआ था। करीब छह महीने पहले मंच से अधिकारियों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा था- कान खोलकर सुन लें, जनता के पैसे से मिलने वाला वेतन मौज करने के लिए नहीं है। मैं सांसद हूं, पुजारी भी हूं। अगर पुरानी मानसिकता नहीं छोड़ते तो भूत उतारूंगा।
सांसद की नाराजगी जायज हो सकती है, पुलिस पर वसूली का आरोप भी सही हो सकता है। जेड प्लस सुरक्षा प्राप्त निर्वाचित प्रतिनिधि को जाम में फंसना निश्चित रूप से एक सुरक्षा चूक मानी जा सकती है। लेकिन जब दिल्ली से लेकर छत्तीसगढ़ तक अपनी ही सरकार हो, तो इस तरह सार्वजनिक रूप से संयम खोने पर सवाल उठ जाता है। सांसद चाहें तो सीधे डीजीपी से बात कर टीआई को सस्पेंड करने के लिए कह सकते थे। सार्वजनिक मंच पर बार-बार आक्रोश जाहिर करना केवल राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन नहीं माना जाए? ब्यूरोक्रेट से परेशान जनता उनकी नाराजगी से थोड़ी देर के लिए खुश हो सकती है, पर वह समाधान की उम्मीद भी रखती है।
जंगल वॉर आसान नहीं
छत्तीसगढ़ के कांकेर स्थित काउंटर टेररिज्म एंड जंगल वॉरफेयर (सीटीजेडब्ल्यू) कॉलेज देश में आतंकवाद व नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा बलों को अत्याधुनिक प्रशिक्षण प्रदान करता है। अब तक हजारों केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान यहां से आतंकवाद विरोधी एवं जंगल युद्ध तकनीकों में प्रशिक्षित हो चुके हैं। यह कॉलेज जंगलों और दुर्गम इलाकों में अभियानों की रणनीति, गुरिल्ला युद्ध तकनीक, आधुनिक हथियारों के संचालन और परिस्थितिजन्य निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाने पर केंद्रित है। सुरक्षा बलों को यहां शारीरिक, मानसिक व सामरिक रूप से सशक्त बनाया जाता है, जिससे वे आतंकवाद और नक्सली हिंसा जैसी चुनौतियों से प्रभावी रूप से निपट सकें। हाल के मुठभेड़ों में सफलता को देखें तो इस तरह का प्रशिक्षण महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। यह तस्वीर वहां चल रहे एक प्रशिक्षण की है।
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हम अंग्रेजों के जमाने के टैक्स कलेक्टर हैं
भारत में करीब 200 वर्ष राज करने वाले अंग्रेज देशवासियों से दो तरह से टैक्स लेते थे। एक किसानों से लगान और नौकरीपेशा मुलाजिमों से इनकम टैक्स कह सकते हैं । इनकम टैक्स सबसे पहले अंग्रेजी हुकूमत ने ही लगाया था। वह भी देश छोडऩे से दो वर्ष पहले 1945 से इनकम टैक्स लगाया था। यानी उस वक्त यह टैक्स आठ पैसे से लेकर दो आने तक के अलग-अलग आय पर अलग-अलग स्लैब था। सस्ते के उस जमाने के लोग भी टैक्स से परेशान रहे होंगे। इनकम टैक्स लगे 80 वर्ष बीत चुके हैं। और इस दौरान देशवासियों कि इनकम लाखों गुना बढ़ी और उसी अनुपात में टैक्स भी। पर अंग्रेजी हुकूमत को नहीं पता था कि उनका लगाया टैक्स कभी एक तरह से शून्य भी कर दिया जाएगा। अभी 1 फरवरी को पेश बजट में सरकार ने 12 लाख तक की आय को कर मुक्त कर दिया है। हालांकि इसके गुणा- भाग को लेकर सदन से सडक़ तक बहस जारी है। उस वक्त के टैक्स स्लैब को अंग्रेजों के आदेश की यह दुर्लभ प्रति हमें इनकम टैक्स से ही एक अधिकारी रहे सुरेश मिश्रा ने शेयर की है।
शराब बनाने की छूट का लाभ किसे?
कई राज्यों, विशेष रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में आदिवासी समुदाय को महुआ से शराब बनाने की छूट दी गई है। सरकारें इसे उनकी परंपरा, रीति-रिवाज और सांस्कृतिक पहचान से जोडक़र इस पर रोक लगाने से बचती रही हैं। लेकिन इस छूट की आड़ में गैर आदिवासी महुआ शराब बनाकर धड़ल्ले से अवैध रूप से बेच रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में कई नेताओं और मंत्रियों ने महुआ शराब के उत्पादन को आदिवासी संस्कृति से जोड़ते हुए इसे जारी रखने का समर्थन किया है, जैसे पूर्व मंत्री कवासी लखमा। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने इसे आदिवासी अधिकारों से जोड़ा था, पर इसे नियंत्रित करने के पक्षधर थे। भाजपा नेता ननकीराम कंवर, नंदकुमार साय आदिवासी समाज में शराबबंदी की पैरवी करते हैं।
मध्य प्रदेश में 2020 में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने पारंपरिक शराब को कानूनी मान्यता देने की घोषणा की थी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार ने 2022 में महुआ लिकर को पारंपरिक मदिरा के रूप में मान्यता देने की योजना बनाई थी। झारखंड में भी इसे आदिवासी समुदाय के अधिकार के रूप में देखा गया है। लेकिन इन राज्यों में महुआ शराब को पारंपरिक उपयोग के नाम पर बनाए जाने की अनुमति इसके बड़े पैमाने पर अवैध कारोबार को शह देती है। कई गैर-आदिवासी इलाकों में पुलिस तथा आबकारी विभाग की मिलीभगत से इसे बेचा जाता है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के लोफंदी गांव में हाल ही में महुआ शराब के सेवन से आठ लोगों की मौत हुई, जिन लोगों की अवैध महुआ शराब के निर्माण की बात आ रही है।
शराब के दूसरे फॉर्मेट की तरह महुआ शराब भी कम नुकसानदायक नहीं है। बल्कि, इसे बनाने के तरीके पर किसी भी तरह की निगरानी ही नहीं होती। बेचने के लिए बनाई जाने वाली कच्ची महुआ शराब में नशा बढ़ाने के लिए यूरिया खाद, तंबाकू और कीटनाशक दवा का उपयोग किया जाता है। तंबाकू में निकोटिन होता है, जो दिमाग और स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है, और सड़ाया गया महुआ पाचन तंत्र को नष्ट कर देता है। तंबाकू एवं महुए के रस से बना नशीला पेय पेट में अल्सर पैदा कर सकता है। अधिक तेज महुआ शराब आमाशय, छोटी और बड़ी आंत में छाले पैदा करती है, जिनसे खून की उल्टी होती है। आंतरिक अंगों को इतनी बुरी तरह नुकसान पहुंचाती है कि मौत हो जाती है। इधर छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच एनीमिया एक बड़ी समस्या बनकर आई है। सरगुजा, बस्तर से आदिवासियों की मौत की खबर रक्त की कमी के कारण हो जाने की खबरें अक्सर आती रहती है। शराब रक्त अल्पता की एक बड़ी वजह है।
बिलासपुर जिले में हुई मौतों के पीछे विषाक्त हो चुकी शराब है या नहीं, इस पर प्रशासन ने अब तक कुछ भी साफ-साफ जवाब नहीं दिया है। पर इसके दुष्परिणाम तो जगजाहिर हैं। आबकारी और पुलिस की अवैध कमाई का जरिया बने इस धंधे को रोकना शायद तभी मुमकिन है, जब महुआ शराब पर दी गई छूट पर निगरानी बढ़ाई जाए, दुरुपयोग रोका जाए।
सडक़ पर बिखरे रंग-बिरंगे सपने
रायपुर की एक सडक़ पर यह गुब्बारा विक्रेता अपने दोपहिया वाहन पर ढेर सारे रंग-बिरंगे गुब्बारे लेकर जा रहा है। लाल, नीले और हरे गुब्बारों से भरा यह दृश्य जितना आकर्षक है, उतना ही यह व्यक्ति के संघर्ष और जीवटता का प्रतीक भी है। सडक़ पर संतुलन साधते हुए यह विक्रेता अपनी रोजी-रोटी की तलाश में निकला है, जो महानगर का रूप लेते शहर में आत्मनिर्भर छोटे व्यवसायियों की बढ़ती भूमिका को व्यक्त करता है। यह तस्वीर रोज़मर्रा की जद्दोजहद और सपनों को साकार करने की जिद बनकर उभरती है। भले ही उसका अपना जीवन अपनी आजीविका की चिंता से घिरा हो।
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जय जगन्नाथ
ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक को विधानसभा चुनाव में हराकर सुर्खियों में आए काटाभांजी के भाजपा विधायक लक्ष्मण बाग रायपुर नगर निगम चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों के प्रचार के लिए पहुंचे, तो विशेषकर उत्कल मोहल्लों में अच्छा स्वागत हुआ। लक्ष्मण बाग ने प्रचार की शुरूआत हाईप्रोफाइल वार्ड भगवतीचरण शुक्ल के उत्कल मोहल्लों से की। यहां से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में निवर्तमान मेयर एजाज ढेबर चुनाव मैदान में हैं।
बाग भाजपा प्रत्याशी अमर गिदवानी को साथ लेकर उत्कल मोहल्लों की तंग गलियों में घूमे, वो अपने साथ पूरी जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद लेकर आए थे, और हर घर में अपने हाथों से प्रसाद वितरित किया। लोग काफी भावुक हो गए और कई लोगों ने बाग का पैर धोकर आरती भी उतारी। बाग के साथ ओडिशा भाषी भाजपा नेता अमर बंसल, और विश्वदिनी पांडेय भी थे। बाग ने कुछ घंटों में ही वहां का माहौल एक तरह से बदल दिया। कांग्रेस के परंपरागत उत्कल मोहल्लों में जिस तरह भाजपा ने सेंध लगाई है, उससे ढेबर मुश्किल में पड़ गए हैं। देखना है आगे क्या होता है।
चाँदी का शिवलिंग!!
रायपुर नगर निगम में चुनाव प्रचार खत्म होने के कुछ घंटे पहले शहर के बीचोंबीच के एक वार्ड के निर्दलीय प्रत्याशी ने जो कुछ किया उससे कांग्रेस और भाजपा प्रत्याशी हैरान रह गए हैं। निर्दलीय प्रत्याशी ने घर-घर जाकर चांदी का शिवलिंग दिया है। लोगों ने उत्साहपूर्वक इसको स्वीकार भी किया है।
वैसे भी इस वार्ड में पंडित प्रदीप मिश्रा के अनुयायी निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में निर्दलीय प्रत्याशी के शिवलिंग वितरण को एक मास्टर स्टोक माना जा रहा है। इससे पहले वर्ष 94 के वार्ड चुनाव को छोडक़र यहां से कांग्रेस या भाजपा से ही पार्षद बनते रहे हैं। मगर इस बार निर्दलीय ने दलीय प्रत्याशियों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी है।
रायपुर नगर निगम में करीब दर्जनभर वार्डों में निर्दलीय प्रत्याशी, कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों पर भारी दिख रहे हैं। वर्ष 2009 में सबसे ज्यादा 10 निर्दलीय पार्षद चुनकर आए थे। देखना है कि इस बार क्या होता है।
मतदाता सूची विश्लेषक की मांग
छत्तीसगढ़ में इस समय स्थानीय निकाय और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का माहौल है। शहर, गांव-गली सब तरफ चुनाव प्रचार तेज है। मगर, प्रचार में लगे किसी प्रत्याशी के लिए सिर्फ अपने इलाके की मतदाता सूची हासिल लेना पर्याप्त नहीं होता, उसे अपने इलाके की भौगोलिक सीमा, जातिगत, सामाजिक और पारिवारिक संरचना का भी अध्ययन करना पड़ता है। यह काम जटिल होता है। मगर चुनावी मार्केट में एक नया पेशा शुरू हो गया है, मतदाता सूची विश्लेषक' का। ये युवाओं के समूह होते हैं जिनका काम मतदाता सूची का अध्ययन करना ही होता है। यह टीम मतदाता सूची की छानबीन करके बताती है कि किस मोहल्ले में किस समुदाय, जाति के कितने वोट हैं, कौन किसके प्रभाव में वोट डाल सकता है और किस परिवार का वोट बैंक बड़ा और मजबूत है, वार्ड की सीमा किस गली से शुरू होकर किस गली में खत्म होती है, आदि।
जातीय समीकरण, रिश्तेदारी का गणित और प्रभावशाली मुखियाओं की पकड़ ही चुनावी सफलता का असली मंत्र है। प्रत्याशियों को इसके हिसाब से रणनीति तैयार करनी पड़ती है। पर वे खुद इस रिसर्च में समय नहीं गंवा सकते, इसलिए इन विशेषज्ञों की सेवाएं ली जा रही हैं, जो बाकायदा कीमत लेकर उन्हें वोटरों का एक स्पष्ट खाका तैयार करके दे रहे हैं। प्रमुख दलों के अलावा निर्दलीय भी इनसे सेवाएं ले रहे हैं। इस बार वोटर लिस्ट विश्लेषकों की बाजार में मांग इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि नामांकन से मतदान के बीच का समय कम मिला है। प्रत्याशियों को इन विश्लेषकों से मदद मिल रही है कि उनके संभावित वोटर कौन हैं और उन्हें साधने के लिए किन प्रभावशाली लोगों को अपने पक्ष में करना होगा।
वैसे इस मौके पर यह सवाल उठता है कि क्या चुनावी राजनीति जाति, बिरादरी का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है? क्या प्रत्याशी और मतदाता विकास कार्यों से ज्यादा ऐसे समीकरणों में ही उलझे रहेंगे?
यात्रियों का इंजन पर कब्जा
प्रयागराज महाकुंभ की आस्था की लहर ने रेलवे की व्यवस्था को हिला कर रख दिया है। श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के कारण ट्रेनों में पैर रखने तक की जगह नहीं बची। हालात इतने बिगड़ गए कि लखनऊ जंक्शन पर जगह न मिलने से नाराज श्रद्धालु बरेली-प्रयागराज एक्सप्रेस के इंजन के सामने खड़े हो गए, जिससे लोको पायलट को मजबूर होकर ट्रेन रोकनी पड़ी। वाराणसी में तो स्थिति और गंभीर हो गई जब श्रद्धालुओं ने ट्रेन के इंजन पर ही कब्जा जमा लिया। जीआरपी को काफी मशक्कत करनी पड़ी, तब जाकर लोग नीचे उतरे। हरदोई में भी हालात बेकाबू हो गए। श्रद्धालुओं ने ट्रेन में प्रवेश न मिलने पर हंगामा खड़ा कर दिया और गुस्से में आकर कोचों में तोडफ़ोड़ कर दी। इधर शनिवार देर रात वाराणसी कैंट में करीब 1:30 बजे जब प्रयागराज जाने वाली ट्रेन पहुंची, तो उसमें पहले से ही इतनी भीड़ थी कि नए यात्रियों के लिए कोई जगह नहीं बची। ऐसे में 20 से अधिक श्रद्धालु इंजन में चढ़ गए और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। लोको पायलट के बार-बार कहने के बावजूद किसी ने दरवाजा नहीं खोला, जिसके बाद जीआरपी को बुलाना पड़ा। पुलिसकर्मियों ने जबरन यात्रियों को नीचे उतारा।
हरदोई में प्रयागराज जाने वाली ट्रेन जब प्लेटफॉर्म पर रुकी, तो अंदर बैठे श्रद्धालुओं ने दरवाजे नहीं खोले। कुछ नाराज यात्रियों ने तो गुस्से में ट्रेन पर पथराव तक कर दिया, जिससे कई शीशे टूट गए। इसके बाद भी दरवाजा नहीं खुला, करीब 2,000 श्रद्धालु स्टेशन पर ही छूट गए। बिलासपुर जोनल रेलवे की ओर से भी प्रयागराज के लिए लगातार नई ट्रेनों की घोषणा हो रही है, मगर जाहिर है कि यात्रियों की संख्या के लिहाज से ये काफी कम हैं।
(rajpathjanpath@gmail.com)
गीता की क़सम!
वैसे तो अदालतों में धार्मिक ग्रंथ गीता की शपथ लेते सुना, और देखा जा सकता है। मगर चुनाव में भी गीता की शपथ लेते देखा जा रहा है। रायपुर नगर निगम के एक वार्ड प्रत्याशी डॉ. विकास पाठक, लाल कपड़े में गीता लपेटकर घर-घर जा रहे हैं, और उनके सामने गीता की शपथ लेकर वार्ड की हर समस्याओं को हल करने का वादा कर रहे हैं। देश-प्रदेश में कई चुनाव हुए लेकिन पहली बार किसी प्रत्याशी को ऐसी शपथ लेते देखा गया।
पाठक कांग्रेस में थे पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दी। इस पर वो पार्टी से बगावत कर चुनाव मैदान में कूद गए हैं, और आज ही उन्हें निष्कासित किया गया। पाठक के चुनाव प्रचार के तौर तरीके की खूब चर्चा हो रही है। मगर मतदाता उन पर भरोसा करते हैं या नहीं, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा।
जेल के बाद अब चुनाव प्रचार
रायपुर की धर्मसंसद में महात्मा गांधी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने, और राजद्रोह के आरोप में 95 दिन जेल में गुजारने वाले विवादास्पद कालीचरण महाराज की निकाय चुनाव में एंट्री हुई है। कालीचरण महाराज ने दो दिन पहले रायपुर के एक भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया।
कालीचरण महाराज के खिलाफ रायपुर में राजद्रोह का प्रकरण दर्ज हुआ था, और वो रायपुर के सेंट्रल जेल में थे। यहां रायपुर में उनके बड़ी संख्या में अनुयायी हैं। इन्हीं में से एक भाजपा प्रत्याशी बद्री गुप्ता ने कालीचरण महाराज को चुुनाव प्रचार के लिए आमंत्रित किया था। बद्री गुप्ता शहीद राजीव पांडे वार्ड से चुनाव लड़ रहे हैं।
कालीचरण महाराज ने दिन भर बद्री गुप्ता के साथ गली-मोहल्लों में भाजपा का प्रचार किया। उनका काफी स्वागत भी हुआ। उन्होंने हिन्दुत्व के लिए भाजपा को जिताने की अपील की। दिन भर प्रचार करने के बाद शाम को महाराष्ट्र चले गए। विवादास्पद कालीचरण महाराज का मतदाताओं पर कितना असर होता है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा।
कांग्रेस नेताओं के पोस्टर लिए निर्दलीय!!
अंबिकापुर नगर निगम के एक वार्ड में कांग्रेस आखिरी तक प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाई। इस वार्ड को रफी अहमद किदवई वार्ड के नाम से जाना जाता है। यहां शत-प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, और कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। मगर आखिरी तक दावेदारों में सहमति नहीं बन पाई, और इस वजह से किसी को बी-फार्म जारी नहीं किया जा सका। खास बात यह है कि यहां आधा दर्जन प्रत्याशी चुनाव मैदान में है, जिनमें से दो निर्दलीय प्रत्याशी, टी.एस.सिंहदेव और मेयर प्रत्याशी डॉ.अजय तिर्की की तस्वीर लगाकर वोट मांग रहे हैं।
हु्आ यूं कि कांग्रेस ने अंबिकापुर नगर निगम को 8 जोन में बांट रखा है। इनमें से एक जोन के प्रभारी श्रम कल्याण बोर्ड के पूर्व चेयरमैन शफी अहमद हैं। शफी अहमद के जोन के अंतर्गत रफी अहमद किदवई वार्ड आता है।
रफी अहमद किदवई वार्ड पिछड़ा वर्ग आरक्षित है। यहां से कांग्रेस के दावेदारों में पहले पिछड़ा वर्ग की सर्टिफिकेट को लेकर विवाद चलता रहा। बताते हैं कि शफी अहमद ने हसन पठान को प्रत्याशी बनाने की सिफारिश की थी, इसके अलावा सरफराज और रशीद पेंटर नामक दो और दावेदार थे।
बाकी दो दावेदार ने हसन को टिकट देने की खिलाफत कर रहे थे। पूर्व डिप्टी सीएम टी.एस.सिंहदेव ने सभी दावेदारों से आपस में चर्चा कर नाम सुझाने के लिए कहा था लेकिन अंत तक सहमति नहीं बन पाई, आखिरकार यहां बी-फार्म किसी को जारी नहीं किया गया। अब दो निर्दलीय प्रत्याशी शाहिद और सरफराज, टी.एस. सिंहदेव की तस्वीर लगाकर वोट मांग रहे हैं। खास बात यह है कि इस वार्ड को भाजपा आज तक जीत नहीं पाई है। यहां इस बार भाजपा को कांग्रेस का अधिकृत प्रत्याशी नहीं होने से थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है। देखना है आगे क्या होता है।
सरकारी सिस्टम में छिपे कोचिये
राज्य में शराब को लेकर तीन अहम खबरें सामने हैं। सिमगा और बेमेतरा में पुलिस और आबकारी विभाग की कार्रवाई में करीब 1500 पेटी अवैध शराब जब्त की गई, जिसकी अनुमानित कीमत लगभग एक करोड़ रुपये बताई जा रही है। पकड़ी गई शराब कथित तौर पर मध्यप्रदेश से तस्करी कर लाई गई थी।
दूसरी ओर, बिलासपुर के लोफंदी गांव में शराब पीने से 7 लोगों की मौत हो गई, जबकि 4 की हालत गंभीर बनी हुई है। आशंका जताई जा रही है कि यह जहरीली अवैध शराब थी।
तीसरी खबर प्रदेश के आबकारी विभाग की बैठक की है। सचिव ने चिंता जताई है कि सरकारी शराब दुकानों की बिक्री लक्ष्य से कम हो रही है। उन्होंने आने वाले दिनों में बिक्री बढ़ाने का निर्देश जारी कर दिया गया है।
पंचायत और नगरीय चुनाव को देखते हुए पुलिस और आबकारी विभाग लगातार छापेमारी कर रहे हैं। इसके बावजूद अवैध शराब का कारोबार जारी है। दिलचस्प बात यह है कि जहां तस्करी और अवैध शराब की खपत बढ़ रही है, वहीं सरकारी दुकानों की बिक्री घटती जा रही है। इसका सीधा मतलब है कि लोग सरकारी शराब का विकल्प तलाश रहे हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी जान जोखिम में क्यों न डालनी पड़े।
सरकार जब शराब की कीमत बढ़ाती है, तो उसका मुनाफा भी बढऩा चाहिए। जब शराब की बिक्री ठेकेदारों के पास थी, तब कीमतों पर कुछ नियंत्रण था। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने शराब ठेका अपने हाथ में लेते हुए दावा किया था कि पृथ्वी पर कोचिए नजर नहीं आएंगे'। हकीकत यह है कि कोचिए अब भी सक्रिय हैं, तस्करी भी जारी है, बस इन्हें संरक्षण देने वाले चेहरे बदल गए हैं।
पहले शराब ठेकेदार आबकारी विभाग की मिलीभगत से अवैध कारोबार चलाते थे, लेकिन अब आबकारी अफसर और मैदानी कर्मचारी खुद इस पर नियंत्रण रख रहे हैं। हालिया छापों में यह सामने आया है कि अवैध शराब सिर्फ कोचियों के जरिए ही नहीं, बल्कि बार में भी महंगे ब्रांड के नाम पर तस्करी की शराब बेची जा रही है।
अगर सरकारी शराब दुकानों की बिक्री घट रही है और अवैध शराब व तस्करी बढ़ रही है, तो यह सरकार की नीति और क्रियान्वयन की विफलता है। ऐसे में महज बिक्री बढ़ाने का लक्ष्य तय करने से समस्या हल नहीं होगी। सरकार को यह समझना होगा कि लोग सरकारी दुकानों से शराब क्यों नहीं खरीद रहे? क्या कीमतें ज्यादा हैं? क्या गुणवत्ता को लेकर अविश्वास बढ़ रहा है? जब तक इन बिंदुओं पर मंथन नहीं होगा, तस्करी और अवैध शराब का कारोबार फलता-फूलता रहेगा।
(rajpathjanpath@gmail.com)