राजपथ - जनपथ
डिजिटल संकट में सेफ्टी का संकट
कुछ दुस्साहसी पुलिस जवान रिश्वत की नकद नहीं होने का बहाना किए जाने पर ऑनलाइन पेमेंट करने का दबाव बनाते हैं। इस डिजिटल रिश्वत में जोखिम ज्यादा है, क्योंकि ट्रांजैक्शन का सबूत सीधे मोबाइल में दर्ज हो जाता है। कुछ जवान ये रकम अपने किसी नजदीकी के खाते में ट्रांसफर करवाते हैं ताकि नाम सामने न आए।
ज्यादातर पीडि़त लोग शिकायत नहीं करते, और यह कारोबार चुपचाप चलता रहता है। लेकिन जब कोई पीडि़त हद से ज्यादा त्रस्त हो जाए या बदला लेने का मन बना ले, तभी मामला खुलता है। भिलाई के एक ट्रैफिक जवान को दुर्ग एसपी ने सेवा से बर्खास्त कर दिया। आरोप था कि वह खुलेआम वाहन चालकों से ऑनलाइन वसूली करता था। डिजिटल सबूत मिले और नौकरी गई।
इसी तरह बिलासपुर के सीपत थाने में एक एएसआई और सिपाही को निलंबित किया गया है। आरोप है कि एएसआई ने एनटीपीसी के एक कर्मचारी से 50 हजार रुपये वसूले। कर्मचारी ने दबाव और धमकी से त्रस्त होकर जहर खा लिया, तब मामला खुला। जांच में पता चला कि थाने में यह खेल औरों तक फैला हुआ है। एक अन्य व्यक्ति ने 22 हजार रुपये की ऑनलाइन पावती के साथ एसएसपी से शिकायत की। नतीजा, एएसआई और आरक्षक दोनों सस्पेंड हुए।
विडंबना यह है कि जहां भिलाई में एसपी ने भ्रष्ट ट्रैफिक जवान को बर्खास्त किया, वहीं बिलासपुर में केवल निलंबन की खानापूर्ति की गई। जब रिश्वत लेने के पक्के सबूत हैं, तो भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत कार्रवाई क्यों नहीं? निलंबित कर्मचारी अक्सर कुछ महीनों बाद बहाल हो जाते हैं, और उनका खेल फिर शुरू हो जाता है। सेवा से बर्खास्तगी के बाद लड़ाई कई बार लंबी हो जाती है, पर देर सबेर फिर आमद मिलने में सफलता मिल जाती है। असलियत यह है कि नीचे से ऊपर तक वसूली का हिस्सा बंटता है। ऊपर के स्तर तक ईमानदारी से हिस्सा पहुंचाने की परंपरा ने इस तंत्र को सुरक्षित कवच दे रखा है। जब कभी शोर उठता है या मीडिया में खबर फैलती है, तो छवि बचाने के लिए कुछ बलि के बकरे बना दिए जाते हैं। यकीन है, देर सबेरे पुलिस जवान इस डिजिटल पेमेंट का तोड़ निकाल ही लेंगे और इसका रास्ता भी उन्हें अनुभवी साहब लोग ही बताएंगे।
कांग्रेस में चुनावी जिंदादिली

वैसे तो कांग्रेस हाईकमान जिलाध्यक्ष के चयन के लिए पर्यवेक्षक भेजकर रायशुमारी करा रही है ताकि निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की बात शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचे, और सक्रिय जमीनी कार्यकर्ता को अध्यक्ष नियुक्त किया जा सके। यह भी दावा किया गया कि बड़े नेताओं की सिफारिशों को महत्व नहीं दिया जाएगा। मगर जैसे-जैसे चयन प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, पार्टी के ही कई नेताओं को हाईकमान के दावे पर शंका होने लगी है।
मसलन, रायपुर शहर और ग्रामीण जिलाध्यक्ष के चयन के लिए हाईकमान ने नागपुर के नेता प्रफुल्ल गुदाधे को पर्यवेक्षक नियुक्त किया है। गुदाधे पिछले दो दिनों से जिले के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं से रूबरू हो रहे हैं। शुक्रवार को एक बैठक में जिलाध्यक्ष के नाम पर रायशुमारी कर रहे थे, तभी एक कार्यकर्ता ने उन्हें टोक दिया, और पूछ लिया कि आप हमारे सुझाव को नोट नहीं कर रहे हैं, ऐसे में पैनल कैसे बना पाएंगे। इस पर गुदाधे ने उन्हें जवाब दिया कि वो हर किसी की बात सुन रहे हैं, और उनके दिमाग में हर बात नोट हो रही है। हालांकि बाद की बैठकों में गुदाधे डायरी लेकर हाजिर हुए, और सुझावों को नोट करते नजर आए।
इन सबके बीच पार्टी के एक सीनियर कार्यकर्ता ने जिलाध्यक्ष के चयन पर सवाल खड़े किए। उन्होंने केन्द्रीय पर्यवेक्षक से कहा कि आप लोग जिलाध्यक्ष का चयन कर रहे हैं उससे पहले ब्लॉक अध्यक्ष की नियुक्ति कर दी गई है। ऐसे में नए जिलाध्यक्ष को ताकत कैसे मिलेगी, ब्लॉक के पदाधिकारी जिलाध्यक्ष की क्यों सुनेंगे? गुदाधे ने उनकी बात पर सहमति जताई, और कहा कि वो इस बात को पार्टी हाईकमान के समक्ष रखेंगे।
दूसरी तरफ, प्रदेश के बड़े नेता अपनी पसंद का जिलाध्यक्ष बनवाने के लिए अपने करीबियों के माध्यम से लॉबिंग कर रहे हैं। ये लोग कार्यकर्ताओं से अपनी पसंद का नाम अध्यक्ष के लिए दे रहे हैं। ऐसे में दावा किया जा रहा है कि ज्यादातर जिलों में बड़े नेताओं की पसंद से ही अध्यक्ष की नियुक्ति की जाएगी। इन दावों में कितना दम है, यह तो जिलाध्यक्षों की सूची जारी होने के बाद ही पता चलेगा।


