विचार / लेख

एक वक्त मैं डर को खोजता था
14-Oct-2025 10:08 PM
एक वक्त मैं डर को खोजता था

-दिनेश श्रीनेत

जब मैं छोटा था तो मुझे भूतों और सांपों से बहुत डर लगता था। इसकी एक वजह यह थी कि बचपन से बाहर-बाहर रहने के बाद 10 साल की उम्र के बाद जब मैं वापस गोरखपुर अपने पिता के बनाए घर में गया तो आसपास का इलाका अभी विकसित हो रहा था। कच्ची सडक़ थी और बरसात में वहां पानी भर जाया करता था। खूब आंधी-तूफान आते थे, कई-कई दिन तक बारिश होती थी और पूरा इलाका मेढकों के शोर से गूंजने लगता था। रात को अक्सर बिजली कट जाती थी तो पूरी रात लालटेन की रोशनी में काटनी होती थी।

मेढक और बारिश हो तो सांप भी निकलते थे। मैंने पहली बार सांप को देखा तो उसकी चमकती आँखें और सर्पिल गति देखकर चकित रह गया। उसे देखकर मेरे भीतर एक ऐसा भय बैठ गया कि कई साल तक मुझे सपने में सांप दिखते थे। अनहोनी की आशंका मन में भी बैठ गई थी। अंधेरे से भी डर लगता था।

थोड़ा बड़ा यानी किशोरवय में आया तो एक और डर मुझे जकडऩे लगा, या इसके लिए झिझक शब्द ज्यादा बेहतर होगा, वह था किसी अजनबी से बात करने में संकोच। मैं ऑकवर्ड हो जाता और अक्सर जुबान में ताला लग जाता था। थोड़ा और बड़ा हुआ तो यही डर धुंधले पडऩे लगे। बचकाने लगने लगे।

समय के साथ समझ बढ़ी तो पाया कि डर हमेशा परदे के पीछे होता है। पर्दा हटाते ही वह धुएं में बदल जाता है। इस तरह से मैंने अनजाने ही डर का सामना करना सीख लिया। अनहोनी, अप्रत्याशित और अनदेखी बातों से डर लगना बंद हो गया।

जब हम किशोर होते हैं तो दुस्साहसी भी होते हैं। यह दुस्साहस हमें डराने वाली चीजों से खेलने के लिए प्रेरित करता है। एक बार जब हम अपने डर के साथ खेलने लग जाते हैं तो डर घटने लगता है।

ऐसा नहीं कि उसके बाद जीवन में डर आया ही नहीं, पर इस बार मनुष्यों का रूप धारण करके आए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वह रात में गूंजते उन्मादी नारों की शक्ल में आया। अफवाहों और दहशत की शक्ल में आया। मुझे यह बात भयभीत करती थी कि लोग किस तरह देखते-देखते बदल जाते हैं, अच्छा भला इंसान हिंसक हो जाता है। मैं कभी मनुष्य की मनुष्य के प्रति नफऱत की भावना को सहजता से नहीं ले पाया। उस सदमे से निकलने में बहुत समय लगा।

पर उसके बाद डर खत्म ही हो गया... लगा इससे बुरा क्या होगा। लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह का यह शीर्षक मेरे साथ बहुत बरसों तक रहा, 'भय भी शक्ति देता है'।

मुझे याद है कि एक बार मैं स्टेशन से करीब 10 किलोमीटर दूर गांव की तरफ रात के 9-10 बजे पैदल ही निकल गया था। बिल्कुल अंधेरी रात थी और सडक़ बाढ़ में कट जाने की वजह से उस तरफ का रास्ता खेतों से होकर गुजरता था। रास्ते में कुछ लोग मिल गए और उन्होंने अपने ट्रैक्टर पर बैठाकर मुझे गांव तक पहुँचाया। अभी सोचता हूँ तो थोड़ी सिहरन होती है।

एक वक्त ऐसा भी आया था कि मैं डर को खोजता था। डर की एक 'किक' होती है, उसे हासिल करने के लिए हॉरर फिल्में देखने का खूब शौक लगा। यह भी कुछ बरस ही चला और उसके बाद से उकताहट होने लगी। कुछ साल पहले तक और कुछ हद तक अभी भी, डरावनी फिल्में मुझे देखने में दिक्कत होने लगी। उनकी नकारात्मकता मुझे परेशान करती थी। इधर लंबे समय से मैं जीवन के उजले पक्ष को देखने का हामी हूँ। राजनीति की नकारात्मकता के बीच अपनी एक पक्षधरता होने के बावजूद अब कड़वी बहसों में उलझने का मन नहीं होता है।

कुल मिलाकर जीवन में भय आते जाते रहे। हाल के दिनों में मैंने महसूस किया कि कुछ बहुत बेवजह के भय हमारे जीवन पर हावी हो जाते हैं, बहुत अनजाने में.. मसलन कुछ खो जाने का भय, या कुछ ऐसे डर जो सिर्फ आपकी सोच से बने हैं।

अब कोई मुझसे पूछे कि अपने डर का सामना कैसे करें तो मेरे पास इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है। मगर दो चीजें सबसे ज्यादा आपका साथ देती हैं, पहली शब्दों का साथ। इस पर गौर करें, आपको सुंदर और सार्थक शब्द चाहिए। इन्हें आपके पास से कोई नहीं छीन सकता। आपके बगल में सोया हुआ जीवनसाथी भी नहीं।

यह आपकी बेहद निजी पूंजी हैं और ये आपकी ताकत भी हैं। इसलिए शब्दों की ताकत पर मुझे बहुत भरोसा है। त्रिलोचन की एक पंक्ति बहुत-बहुत साल पहले मैंने अपनी डायरी के पहले पेज पर लिख रखा था,

 

शब्द,

मालूम है,

व्यर्थ नहीं जाते हैं

पहले मैं सोचता था

उत्तर यदि नहीं मिले

तो फिर क्या लिखा जाए

किंतु मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा-

लिखा कर

तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे

एक साथ सत्य शिव सुंदर को दिखा जाए

तो दूसरी बात भी यहीं से निकलती है, आत्मविश्लेषण आपके डर को दूर करता है। उम्र के जिस हिस्से की तरफ मैं बढ़ रहा हूँ, उसमें आत्मविश्लेषण के साथ 'छोडऩा' भी भय-मुक्त करता है। बहुत सारा बोझ लेकर चलने वाले परेशान रहते हैं, वे उसे उतारना भूल जाते हैं। जीवन अपनी सरलता और सच्चाई में सुंदर है। उसकी यही सुंदरता आपको निडर भी बनाती है।

हां, एक बात का ध्यान रखना होगा, जैसे ही शब्दों के करीब मालिकाना ठसक के साथ जाएंगे, वह बेजान हो जाते हैं।

शब्दों का साथ चाहिए तो उनके पास उसी तरह जाना होगा जैसे ईश्वर के पास जाते हैं... वे आपको अभय देंगे !


अन्य पोस्ट