विचार / लेख

चुनाव मतलब चुनावी रेवड़ी का मौसम
13-Oct-2025 10:31 PM
चुनाव मतलब चुनावी रेवड़ी का मौसम

-डॉ. संजय शुक्ला

बिहार में विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बज चुकी है और इसी के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनावी पोटलियों से मुफ्त चुनावी रेवडिय़ां भी बाहर निकल रही है। सियासी दलों ने इन बिहार के मतदाताओं को लुभाने के लिए नौकरी और नगदी का पांसा फेंक दिया है। भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और  भाजपा - जदयू गठबंधन के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ने कुल 1 करोड़ 21 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार भेजे हैं। दूसरी ओर राष्ट्रीय जनता दल के नेता पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने वादा किया है कि यदि उनके गठबंधन की सरकार बनती है तब जिन परिवारों में किसी के पास सरकारी नौकरी नहीं है उन परिवारों के एक सदस्य को 20 दिनों के भीतर सरकारी नौकरी दी जाएगी। तेजस्वी ने कहा है कि इस योजना को अमल में लाने के लिए 'विशेष नौकरी - रोजगार अधिनियम ' लागू करने की बात कही है। इधर कांग्रेस ने भूमिहीन परिवारों को 3 से 5 डिसमिल जमीन देने का वादा किया है जिसका मालिकाना हक महिलाओं के नाम पर होगा।

बहरहाल अभी तो यह शुरुआती वादे हैं आगे चलकर राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्र से स्पष्ट होगा कि उनके पोटलियों में और कौन - कौन से मुफ्त चुनावी रेवडिय़ां हैं। अलबत्ता शुरूआती चुनावी घोषणाओं पर गौर करें तो जहां महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए विभिन्न किश्तों में 10-10 हजार की राशि महिलाओं को कितना मजबूती देगी? यह समझ से परे है। बीते कुछ चुनावों के दौरान अमूमन सभी राजनीतिक दल युवाओं और महिलाओं को रिझाने के लिए नौकरी और नगदी के वायदे लगातार कर रहे हैं और उन्हें इसमें कामयाबी भी मिल रही है।हालिया बिहार चुनाव के मद्देनजर सवाल यह है कि तेजस्वी यादव के हर परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी और कांग्रेस के भूमिहीन परिवारों को 3 से 5 डिसमिल जमीन देने जैसे वादे कैसे पूरे होंगे? इसका जवाब किसी के पास नहीं है जबकि अमूमन सभी सरकारें कर्जों से लदी है और जमीनों का हिसाब - किताब यह कि सार्वजनिक उपयोग की चराई और श्मसान वाली जमीनें भी अतिक्रमण के चपेट में है।

 बात युवाओं की नौकरी की करें तो यदि तेजस्वी यादव के गठबंधन की सरकार बनती है तो इस सरकार को 2.63 करोड़ परिवारों को 20 महीने में सरकारी नौकरी देनी होगी। दरअसल बिहार में 18 से 29 वर्ष आयु के युवाओं की जनसंख्या 28 फीसदी है लिहाजा तेजस्वी ने इस वोट बैंक को हथियाने के लिए सरकारी नौकरी का पांसा फेंका है। यह नहीं भूलना चाहिए कि साल 2022 में तेजस्वी के उप मुख्यमंत्रित्व के कार्यकाल में शिक्षक भर्ती के लिए प्रदर्शन कर रहे युवाओं के पीठ पर पुलिसिया लाठियां बरसीं थी। दरअसल यह देश के युवाओं की नियति बनती जा रही है कि जब वे नौकरी मांगते हैं या भर्ती परीक्षाओं में पर्चे फूटने या घोटालों के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो बदले में उन्हें केवल लाठियां ही मिलती है।

बहरहाल राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के बीच मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। पार्टियों की ओर से चुनाव लोकसभा या विधानसभा का हों अथवा नगरीय निकायों का हर चुनाव में वोटरों को लुभाने के लिए खैरात बांटी जा रही है। ऐनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए  मुफ्तखोरी की राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों एक हैं।दरअसल चुनावों में मुफ्तखोरी के राजनीति की शुरुआत 1967 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव से हुई। इस चुनाव में वहाँ की क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक ने जनता को एक रुपये में डेढ़ किलो चांवल देने का वादा किया, यह वादा तब किया गया जब देश आकाल की विभीषिका के कारण खाद्यान्न संकट और भुखमरी से जूझ रहा था।द्रमुक के इस वादे को वोटर्स ने हाथों-हाथ लिया और कांग्रेस को सत्ता से रूखसत कर दिया। 

साल 1967 में  मुफ्तखोरी के सहारे कुर्सी हासिल करने के सफल प्रयोग के बाद अब सियासी दलों के लिए यह चुनावी हथियार बनते जा रहा है। वर्तमान चुनावी रणनीति में पक्ष और विपक्ष में खैरात बांटने की प्रतिस्पर्धा  लगातार बढ़ती जा रही है। राजनीतिक दल चुनाव अभियानों में सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त बिजली और पानी, किसानों के ऋण माफी, फसल बोनस, नगद पैसा,मुफ्त या रियायती अनाज, गैस सिलेंडर,महिलाओं और बेरोजगारों को पेंशन, घर, टीवी, पंखा, सायकिल, स्कूटी, मोबाइल फोन, लैपटॉप, टैबलेट, फ्री इंटरनेट डेटा,मुफ्त शिक्षा व उपचार सहित कोरोना वैक्सीन भी खैरात में बांटने का वादा कर रहे हैं। गौरतलब है कि सियासी दल मुफ्त के वादे तो बकायदा अपने चुनाव घोषणा पत्र में कर रहे हैं। घोषणा पत्र के अलावा पार्टियों से जुड़े उम्मीदवार मतदान के पहले गुपचुप तरीके से वोटरों को शराब, पैसा, कंबल, कुकर सहित अन्य चीजें बांटकर उनका वोट हथियाने की जुगत में लगे रहते हैं।

चुनावों में वोटरों के वोट हथियाने के लिए किए जा रहे मुफ्तखोरी के वादे और हथकंडे देश के सामने अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। यह सवाल हमारे राजनेताओं और सियासी दलों से भी है और मुफ्तखोरी के लोभ में फंसकर अपने वोट देने वाले वोटर्स से भी है।सवाल राजनेताओं और सियासी दलों से कि क्या सत्ता हासिल करने के लिये वोटरों से किया जा रहा मुफ्त वादा लोकतंत्र और स्वतंत्र चुनाव के लिहाज से आदर्श आचरण है? क्या पार्टियों के पास  खैराती योजनाओं के घोषणा के पहले योजनाओं के क्रियान्वयन पर सरकारी कोष पर पडऩे वाले वित्तीय भार और फंड की व्यवस्था का खाखा उपलब्ध रहता है? क्या सरकारी कोष में इन खैराती योजनाओं के लिए पर्याप्त फंड रहता है? वह भी तब जब सरकारों के बजट घाटे के कारण टैक्स बढ़ाया जा रहा है।शायद ही किसी दल के पास ऐसी ठोस योजना होती है कि अगर वे सत्ता में आए तो विकास कार्यों के इतर इस तरह के वायदों को कैसे पूरा किया जाएगा और इन पर कितना पैसा खर्च होगा? परंतु सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त सुविधाओं के वादे बदस्तूर जारी है। असल में सत्तारूढ़ दल बाद में इन खैराती योजनाओं को लागू करने के लिए या तो विकास योजनाओं पर ताला लगा देतीं हैं या फिर टैक्स बढ़ाती हैं। सरकारों द्वारा टैक्स बढ़ाने और इसमें कोई रियायत नहीं देने के कारण महंगाई बढ़ती जिसका भार आम उपभोक्ताओं पर पड़ता है। मुफ्त योजनाओं पर खर्च के कारण सरकार की प्राथमिकता से विकास और रोजगार जैसी योजनाएं हाशिये पर धकेल दी जाती हैं। मुफ्तखोरी की योजनाओं पर धन लुटाने का परिणाम यह होता है कि सरकार को अपने स्थापना खर्च, वेतन - भत्तों के लिए रिजर्व बैंक से लोन लेना पड़ता है जिसका असर भी राजकोष पर पड़ता है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में अपने एक फैसले में चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने घोषणा पत्र में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त रेवडिय़ां बांटने की प्रवृत्ति को उचित नहीं माना था। शीर्ष अदालत ने फैसले में कहा था मुफ्त बांटने की घोषणाओं से चुनाव की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होती है, कोर्ट ने चुनाव आयोग से इस संबंध में आवश्यक आचार संहिता बनाने का सुझाव दिया था।इस फैसले के बाद चुनाव आयोग ने 2014 में आदर्श आचार संहिता में नया प्रावधान जोड़ते हुए मुफ्त योजनाओं को मतदाताओं को प्रलोभन देने वाला बताते हुए कुछ दलों को नोटिस दिया था। बहरहाल सात साल बाद भी मुफ्त योजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के दखल का नतीजा सिफर है,दरअसल इस पर सख्त कानून की दरकार है।

विचारणीय है कि मुफ्तखोरी की राजनीति का परिणाम यह हो रहा है कि लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से समझौता करना पड़ रहा है। यह कहना गैर वाजिब नहीं होगा कि सरकार के मुफ्त योजनाओं का सीधा भार मध्यमवर्गीय परिवारों के कंधों पर पड़ता है। उच्च आयवर्गीय परिवार तो अपने आर्थिक हैसियत के बल पर रोजमर्रा की जरूरतों और पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति में सक्षम रहता है वहीं कमजोर आयवर्गीय परिवार अपने सीमित जरूरतों और सरकारी मुफ्त और रियायती योजनाओं के सहारे दैनंदिनी और बुनियादी जरूरतें पूरी कर लेते हैं। सरकारी टैक्स में बढ़ोतरी के बाद बढ़ती महंगाई के बीच मध्यम आयवर्गीय परिवारों को अपनी थाली में कटौती कर अपने जेब से खर्च कर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना पड़ता है।

अहम सवाल मतदाताओं से भी यह क्या उन्हें अपने मताधिकार के कर्तव्यों के प्रति चिंतन किया है? आम जनता महंगाई, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं की समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन मतदाता मुफ्तखोरी जैसे तात्कालिक लाभ के लिए इन समस्याओं के प्रति आंखें मूंद कर वोट दे रहा है।  चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होता है जिसमें हम लोकतंत्र के मंदिर के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। क्या यह उचित है कि हम नेताओं और सियासी दलों के चिकनी-चुपड़ी बातों और चंद खैरात के लोभ में आकर अपना वोट रुपी ईमान बेच दें? हमने देखा है कि कई बार सरकारें राजस्व या पैसों की कमी के कारण अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करती यानि जनता छली जाती है। यदि सरकार इन फ्री योजनाओं को आपको देती भी है तो इसके ऐवज में वह टैक्स बढ़ा देती है यानि अप्रत्यक्ष तौर पर जनता के ही जेब से ही वसूल कर सरकार जनता पर एहसान दिखाती है।

यह बात निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि मुफ्त और कर्ज माफी की राजनीति से जहाँ बेरोजगारी बढ़ती है वहीं ऐसी योजनाएं लोगों को निकम्मा भी बनाती हैं। मुफ्त योजनाओं का नकारात्मक प्रभाव  समाज में बढ़ती शराबखोरी और नशाखोरी के रूप में सामने है जिसका दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर घरेलू हिंसा के रूप में हो रहा है।

राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए कि सरकार किसी की भी हो उसे सामाजिक-आर्थिक उन्नति, आम जनता के जीवन की गुणवत्ता सुधारने, सामाजिक समरसता और सतत विकास के बारे में सोचना चाहिए ताकि लोग अपनी बुनियादी जरूरतों का खर्च खुद वहन कर सकें।मतदाताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह चुनावों के दौरान फ्री बांटने के हथकंडों का त्याग करें और सियासी दलों व प्रत्याशियों से शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महंगाई , पर्यावरण और आंतरिक शांति पर सवाल खड़ा करे। ऐसे सवालों से ही मुफ्तखोरी की राजनीति चमकाने वाले सियासी दलों और राजनेताओं पर अंकुश लगेगा और चुनाव की स्वतंत्रता , पवित्रता और निष्पक्षता बरकरार रहेगी।


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