विचार / लेख

...गन्ना को इतना नीचे से भी मत खाइए कि मुँह में मिट्टी लग जाए !
27-Sep-2025 9:02 PM
...गन्ना को इतना नीचे से भी मत खाइए कि मुँह में मिट्टी लग जाए !

-संजय श्रमण

अपहरण फिल्म का ये एक मशहूर डायलॉग याद है आपको? जब अपहरणकर्ता फिरौती की रकम पर बातचीत कर रहा होता है, और एक नेताजी उस रक़म में अपनी हिस्सेदारी की बात ठोंकते हुए कहते हैं, ‘इसमें मेरे हिस्से का भी ध्यान रखना।’ ये सुनकर अपहरणकर्ता ठेठ बिहारी अन्दाज़ में बमकता है और ये गन्ने वाला डायलॉग नेताजी के मुँह पर मारता है।

फिर एक और फि़ल्म का संवाद है जिसमें माधुरी दीक्षित अपने पति से कहती है ‘पति हैं तो पति ही रहिए, परमेश्वर बनने की कोशिश मत कीजिए’

ऐसे अनगिनत संवाद हैं, ये संवाद केवल प्रकाश झा की फिल्मों में ही संभव है।

उनकी कलम से निकली भाषा, लोकजीवन की बोली-बानी, और मुहावरों का सटीक इस्तेमाल करती है और दिमाग़ को ऐसे भेदती है जैसे तेज तलवार की धार। वो सच, जिसे हम सब जानते हैं लेकिन कहने की हिम्मत कम ही लोग कर पाते हैं। इस सच को न केवल कहना बल्कि सबको स्वीकृत भी करवा देना - ये प्रकाश झा की फि़ल्मकारी का कमाल है।

25 सितंबर को प्रकाश झा आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर के ‘मीटिंग ऑफ माइंड्स’कार्यक्रम के 45 वें आयोजन में छात्रों से मुख़ातिब थे। वे ‘सिनेमा एज़ ए केटेलिस्ट फॉर सोशल चेंज’विषय पर बोल रहे थे। इस कार्यक्रम श्रृंखला में छात्रों को जानी मानी हस्तियों से मुखातिब होने का अवसर मिलता है।

प्रकाश झा साहब कुछ समय से दल-बल सहित आईटीएम विश्वविद्यालय परिसर ग्वालियर में ही अपनी फि़ल्म जनादेश के अंतिम हिस्से की शूटिंग कर रहे हैं। कार्यक्रम में उन्होंने अपने लेखन, निर्देशन और फि़ल्म निर्माण की प्रक्रिया पर विस्तार से बात की।

अपनी फि़ल्मों की पटकथा लिखने में उन्हें वर्षों लगते हैं, तीन साल, पाँच साल, सात साल तक का समय! फिर आखऱि में फि़ल्म पूरी होने पर एक राउंड लेखन और होता है -एडिटिंग के दौरान। उन्होंने साफ़ कहा कि अगर फि़ल्म का डायरेक्टर लेखक भी हो तो फि़ल्म में चार चाँद लग जाते हैं। अच्छे डायरेक्टर हमेशा अच्छे लेखक भी होते हैं, क्योंकि निर्देशन का पहला कदम लेखन से होकर ही गुजरता है। हालाँकि सभी डायरेक्टर लेखक नहीं होते।

आजकल लेखन की अनदेखी हो रही है। नई पीढ़ी न पढ़ रही है, न लिख रही है। और जब पढ़ेगी-लिखेगी ही नहीं, तो समाज की भविष्य की सोच कहाँ से आएगी?

शिक्षा पर बोलते हुए उन्होंने अपनी फि़ल्म राजनीति का जि़क्र किया, जहाँ अमिताभ बच्चन के संवाद के माध्यम से उन्होंने कहा था कि भारत में ‘इंडियन टीचिंग सर्विसेज’ जैसी एक व्यवस्था होनी चाहिए, जहाँ बेहतरीन शिक्षकों को आईएएस से भी ज़्यादा सम्मान और सुविधाएँ मिलें। लेकिन असलियत ये है कि आज का शिक्षक सबसे ‘बेचारा’ हो गया है। नतीजा ये है कि बच्चे अब या तो इंजीनियर बन रहे हैं या मैनेजर, और मानविकी विषय- दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य - लगभग उपेक्षित हो गए हैं।

उन्होंने चेतावनी दी कि जिस समाज में मानविकी विषयों के पढऩे-लिखने की परंपरा मर जाती है, वह समाज खुद भी मर जाता है। ऐसे समाज में लोग तो बहुत कुछ करते रहते हैं, लेकिन क्यों कर रहे हैं और उसका जीवन व समाज पर क्या असर होगा? इसकी समझ खो बैठते हैं। मोबाइल और गूगल बाबा ने हमारी पढऩे लिखने की ताक़त कम कर दी है। अब आगे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस क्या गुल खिलाएगी -ये समय ही बताएगा।

प्रकाश झा ने कहा कि सिनेमा एक भाषा है- जैसे चित्रकला, संगीत, नृत्य या स्थापत्य। तकनीक ने आज इसे सबसे ताक़तवर भाषा बना दिया है। लेकिन इसका असर धीरे-धीरे होता है। सिनेमा समाज में एक कैटलिस्ट की तरह काम करता है।

कोई एक फि़ल्म या वेब सीरीज़ समाज को तुरंत नहीं बदल सकती। सिनेमा और समाज दोनों एक-दूसरे को गढ़ते हैं - धीरे, लेकिन गहराई से, खामोशी से।


अन्य पोस्ट