विचार / लेख
-अशोक पांडे
सिगरेट पीना कॉलेज में शुरू किया। चेन स्मोकिंग कभी नहीं की। पर पी लगातार। तीस-बत्तीस साल। छोडऩे की सोचता तो पहला खय़ाल आता- ‘हो नहीं पाएगा।’ दस-बीस बार छोडऩे की कोशिश की लेकिन दिन-दो दिन बाद संयम जवाब दे गया।
सिगरेट और उसके साथ जुड़ी रूमानियत पर बहुत सारा लिख सकता हूँ पर लिखूँगा नहीं। होता यूँ था कि रात को सोते समय सुनिश्चित कर लिया जाता अगली सुबह शुरू करने के लिए कम से कम दो सिगरेट तो हों ही। वह जीवन की मूलभूत चिंताओं में शुमार थी।
कुछ साल से यह होने लगा कि सुबह खांसी होती- स्मोकर्स कफ। डॉक्टर साहब से दवा पूछता तो वे कहते, ‘यह तो रहेगी ही। छोड़ तुम पाओगे नहीं।’
मैं उनसे कहता, ‘सात साल पहले शराब छूट गई तो यह भी छूट जाएगी।’
उनका जवाब होता, ‘शराब के मुकाबले इसे छोडऩा दस गुना मुश्किल होता है। लिखने-पढऩे वाले आदमी हो। नहीं छोड़ सकोगे।’
22 मार्च 2020 वाले पहले लॉकडाउन से ऐन पिछली रात लंबी यात्रा कर देर से घर पहुँचा तो पाया सिगरेटें खतम हो गई हैं। ‘सुबह मोहल्ले की दुकान से ले आऊंगा।’ सोचकर सो गया।
सुबह वाकई सब कुछ बंद था। कहीं कुछ नहीं मिल रहा था। यह लंबी चिंता का सबब था। बाजार में रहने वाले सारे दोस्तों को सिगरेट का बंदोबस्त करने को कहा। दो बजे तक अलग-अलग दोस्तों ने पता नहीं कहाँ-कहाँ से इकठ्ठा कर मेरे पास कुल छियत्तर पैकेट भिजवा दिए। यानी कुल 1520 सिगरेटें। दिन की आठ या दस के हिसाब से पांच-छह महीने का कोटा। लगता रहे लॉकडाउन! छोटे शहर में रहने और खूब दोस्तियां करने के बड़े फायदे होते हैं!
बदली हुई स्थितियों में जीवन के ढर्रे को बदला जाना था। बदला भी। आदत यह पड़ गई कि रात को काम खत्म होने पर एक फिल्म देखने बैठता और दो-तीन बजे तक सोता। सिगरेट की इफरात उपलब्धता के चलते मैंने बादशाही शुरू कर दी थी और किसी-किसी दिन बारह से चौदह तक फूंकने लगा।
17 अप्रैल को काफी देर तक काम करता रहा। उसके बाद फिल्म लगाई। उस दिन प्रिय लेखक फ्रेडरिक फोरसाइट की किताब ‘द डे ऑफ द जैकॉल’ पर बनी फिल्म का नम्बर था। ढाई घंटे की फिल्म जब खत्म हुई। दिन चढ़ गया था। मंदिर से माँ के घंटी बजाने की आवाज आने लगी थी। बाहर पेड़ों पर चिडिय़ों के सम्मेलन शुरू थे। साढ़े छह-पौने सात पर सोने की तैयारी करने लगा तो सामने रखी डिब्बी पर निगाह पड़ी।
आधी से ज्यादा सिगरेटें मैंने बिना वजह या बिना मन के ऐसे ही पी हैं। उन्हें सिर्फ इसलिए पिया गया कि वे सामने थीं। तो सोने से पहले की आखिरी सिगरेट सुबह के पौने सात पर पी गई। रात भर पीने से वैसे ही मुंह कसैला हुआ पड़ा था। अब जीभ बिल्कुल कड़वी लगने लगी।
मैंने खुद को कोसते हुए चेताया कि खांसते-खांसते जब तुम्हारी मौत होगी तब इस पल को याद रखना। वगैरह वगैरह। फिर वह हुआ जिसे हम निर्णायक कहते हैं। झटके में उठ कर मैंने एक कागज पर बड़ा-बड़ा लिखा- ‘यू हैव हैड योर लास्ट सिगरेट!’
जागते ही रोज की तरह हाथ सिगरेट रखने वाली दराज की तरफ बढ़ा। भीतर वही कागज धरा हुआ था। अपनी ही बात का मान रखने की नीयत से फैसला किया कि दिन की पहली सिगरेट छोड़ दी जाय। फिर खाने के बाद तलब लगी तो दूसरी भी छोड़ दी। फिर तीसरी।
रात आई तो सबसे पहला काम यह किया कि दुश्मन की ताकत परखने की नीयत से बची हुई सारी सिगरेटें किताबों की शेल्फ में सजा दीं-भरे हुए कुल इकसठ पैकेट बचे थे। खुले हुए पैकेट में पुनर्विचार करने को उकसा रही सात सिगरेटें थीं।
बिना सिगरेट के पहली रात बिताने के बाद जब देखा कि मरा नहीं हूँ तो सब आसान हो गया।
तकरीबन साढ़े पाँच बरसों बाद देखता हूँ- न कोई विदड्राल सिम्पटम आए न कोई रोग लगा। खांसी बंद हो गई। इन सालों में हर दिन बीस हजार कदम पैदल चलने का औसत बनाए रखा है। बरसों से स्थगित कोई दस किताबें भी इस दौरान छपकर आ गईं। सिगरेट का खर्च अलग से बचा।


