विचार / लेख
-राजेश अग्रवाल
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा कि अगर उप राष्ट्रपति पद के कांग्रेस प्रत्याशी जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी ने 2011 में सलवा जुडूम के खिलाफ फैसला नहीं दिया होता, तो माओवाद 2020 तक खत्म हो जाता। जस्टिस रेड्डी ने जवाब में इसे सुप्रीम कोर्ट का सामूहिक निर्णय बताया और शाह को पूरा जजमेंट पढऩे की सलाह दी।
लेकिन क्या था वह फैसला?
मामला दरअसल मानवाधिकार हनन, कानून के राज का उल्लंघन और राज्य की जिम्मेदारी से जुड़ा है। 5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यह फैसला दिया था, जिसमें जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और एस.एस. निज्जर शामिल थे। केस का नाम था- नंदिनी सुंदर एंड अदर्स बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़। दोनों जजों की पीठ ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया। याचिका में क्या मांगा गया, कोर्ट ने किन तथ्यों पर गौर किया और फैसला किस बुनियाद पर था, यह जानना रुचिकर हो सकता है।
सन् 2007 में सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, ईएएस शर्मा आदि ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दाखिल की। मुख्य मुद्दा था छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम नाम से मिलिशिया का गठन और स्पेशल पुलिस ऑफिसर्स (एसपीओ) की भर्ती, जिनका माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल हो रहा था। याचिका में आरोप लगाया गया कि सलवा जुडूम राज्य सरकार की शह पर चल रहा है। इसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई उदाहरण दिए गए, जैसे गांवों को जला देना, हत्याएं, बलात्कार और विस्थापन। जलाए गए गांवों की संख्या सैकड़ों, दर्जनों हत्याएं और बलात्कार और करीब एक लाख लोगों का आंध्रप्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में भाग जाना।
याचिका में कहा गया कि एसपीओ के रूप में आदिवासी युवाओं को हथियार देकर राज्य उन्हें मौत के मुंह में धकेल रहा था, जो कानून के खिलाफ है। याचिका में मांग की गई कि सलवा जुडूम को भंग किया जाए, एसपीओ की भर्ती रोकी जाए और हिंसा की जांच हो। याचिका में छत्तीसगढ़ पुलिस एक्ट का हवाला दिया गया, जिसके तहत एसपीओ को सिर्फ ट्रैफिक कंट्रोल या आपदा राहत जैसे कामों की अनुमति है।
कोर्ट ने कई तथ्यों पर गौर किया। पहला, राज्य सरकार ने शुरू में कहा कि सलवा जुडूम एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन है। बाद में यह प्रमाण सामने आ गए सरकार इसे फंड और समर्थन दे रही है।
कोर्ट ने ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट्स का जिक्र किया। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में एसपीओ और सलवा जुडूम पर 600 से ज्यादा गांव जलाने, हजारों विस्थापन और हत्याओं के आरोप थे। मार्च 2011 में मोरपल्ली, ताडमेटला और तिम्मापुर गांवों में हुई हिंसा को कोर्ट ने गंभीरता से लिया, जहां एसपीओ और कोया कमांडो पर हमले का आरोप था। राज्य की ओर से दिए गए एफिडेविट को कोर्ट ने ‘सेल्फ-जस्टिफिकेशन’ बताया, न कि जिम्मेदारी का। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि एसपीओ की ट्रेनिंग अपर्याप्त थी। महज तीन महीने की। और वे अक्सर निर्दोषों पर अत्याचार करते थे। नाबालिग तक एसपीओ बना दिए गए, जो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था। केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठे, क्योंकि उन्होंने एसपीओ को समर्थन दिया था।
दिलचस्प यह है कि तब छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी, सलवा जुड़ूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा कांग्रेस के थे। केंद्र में यूपीए की सरकार थी, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी इसके पक्ष में थे। हालांकि छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं में सलवा जुड़ूम को समर्थन देने के नाम पर मतभेद था।
फैसला देते हुए जस्टिस रेड्डी और निज्जर की बेंच ने कई आधार दिए। सबसे बड़ा आधार था कि सलवा जुडूम और एसपीओ का इस्तेमाल संविधान के खिलाफ था। कोर्ट ने कहा कि राज्य नागरिकों को हथियार देकर कानून हाथ में लेने की अनुमति नहीं दे सकता। यह भारतीय दंड संहिता और छत्तीसगढ़ पुलिस एक्ट का उल्लंघन है। संविधान के आर्टिकल 14 (समानता), 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का हवाला दिया गया, क्योंकि यह व्यवस्था आदिवासियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रही थी। कोर्ट ने ‘रूल ऑफ लॉ’ और ‘ड्यू प्रोसेसॅ’ के सिद्धांतों पर जोर दिया, कहा कि लोकतंत्र में राज्य हिंसा को प्राइवेटाइज नहीं कर सकता। ह्यूमन राइट्स वायलेशन को आधार बनाकर कोर्ट ने सलवा जुडूम को ‘असंवैधानिकॅ’ घोषित किया और एसपीओ को काउंटरइंसर्जेंसी से हटाने का आदेश दिया।
कोर्ट ने सीबीआई को हिंसा की जांच सौंपी, उसने राज्य की जांच कमीशन को अपर्याप्त माना। साथ ही, राज्य को निर्देश दिया कि सलवा जुडूम जैसे किसी भी ग्रुप को रोके, उनके हथियार वापस ले और अपराधों की एफआईआर दर्ज करे। पूर्व एसपीओ को अन्य कामों में लगाने की अनुमति दी गई, बशर्ते वे निर्दोष हों।
यह फैसला एक मजबूत आधार पर था कि राज्य की सुरक्षा नीतियां मानवाधिकार से ऊपर नहीं हो सकतीं। शाह का दावा कि फैसला न होता तो माओवाद खत्म हो जाता, शायद राजनीतिक है, लेकिन कई रिपोर्ट्स खंगाले तो पता चलता है कि सलवा जुडूम ने उल्टे हिंसा बढ़ाई और माओवादियों को मौका मिला, आदिवासी युवाओं को संगठन में शामिल करने का।


