-दिलनवाज पाशा
कभी दिल्ली की राजनीति में एक मजबूत ताकत रही कांग्रेस पार्टी पिछले दो विधानसभा चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल पाई।
2013 में नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले कांग्रेस ने लगातार पंद्रह साल दिल्ली पर शासन किया।
जब कांग्रेस दिल्ली में अपने शीर्ष पर थी तब उसके पास 40 फीसदी तक का वोट शेयर था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ 4.26 प्रतिशत ही वोट हासिल कर सकी।
इससे पहले साल 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 9.7 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। कांग्रेस 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से वजूद में आई आम आदमी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक ताक़त ‘खत्म’ कर सत्ता तक पहुंची।
आम आदमी पार्टी की फ्री बिजली, फ्री पानी, शिक्षा में सुधार और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने की योजनाओं ने गऱीब और मध्यमवर्ग के मतदाताओं को आकर्षित किया।
इस वोटर वर्ग के छिटकने से कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में और भी अलग-थलग पड़ गई।
हालांकि, इस दौरान, बीजेपी का कोर वोट बैंक उसके साथ ही रहा। बीजेपी ने साल 1993 में 42.82 प्रतिशत वोट हासिल करके सरकार बनाई थी।
इसके बाद के चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में उतार चढ़ाव तो हुआ लेकिन पार्टी का समर्थक वर्ग उसके साथ ही रहा।
पार्टी ने 2015 में 32.2 प्रतिशत और 2020 में 38.51 प्रतिशत वोट हासिल किए।
ऊपर दिए आंकड़ों से ये स्पष्ट है कि दिल्ली में कांग्रेस के वोट बैंक में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई।
पुराने वोट बैंक को हासिल करने की चुनौती
अब एक बार फिर दिल्ली में चुनाव हैं। इंडिया गठबंधन के तहत एक साथ लोकसभा चुनाव लडऩे वाली आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी अब अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं और एक दूसरे पर आक्रामक हैं।
कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि वो अपने पुराने मतदाता वर्ग को वापस अपनी तरफ आकर्षित करे।
विश्लेषक मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो इसकी सीधी कीमत आम आदमी पार्टी को चुकानी पड़ सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास दिल्ली में खोने के लिए कुछ नहीं हैं। अब अगर कांग्रेस मज़बूती से लड़ती है और अपने वोट प्रतिशत में सुधार करती है तो इसका सीधा असर आम आदमी पार्टी पर पड़ सकता है।’
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के मध्यम वर्गीय और गऱीब परिवारों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया है। ये वर्ग कभी पारंपरिक रूप से कांग्रेस का वोटर हुआ करता था।
दिल्ली के शाहदरा इलाक़े में धूप सेंक रहे प्रकाश पासवान अपनी झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘कांग्रेस ने हमें यहां बसाया था। हम जैसे ना जाने कितने लोगों को कांग्रेस शासन के दौरान रहने की जगह मिली। लेकिन अब कोई कांग्रेस के काम को याद नहीं रखता है।’
प्रकाश पासवान कहते हैं, ‘आप इस झुग्गी में ही देख लीजिए, लोग फ्री बिजली, फ्री पानी की तरफ ज्यादा आकर्षित हैं। बहुत से लोगों को याद भी नहीं होगा कि कांग्रेस ने ये झुग्गी बसाई थी, सडक़ पर सो रहे लोगों को रहने की जगह दी थी।’
विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो अपने पारंपरिक वोट बैंक को फिर से अपनी तरफ आकर्षित करे।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘फ्री बिजली और पानी के दौर में मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ खींचना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा।’
हालांकि कांग्रेस के उम्मीदवारों को लगता है कि वो दिल्ली में पार्टी की विरासत और भविष्य के लिए योजनाओं के ज़रिए एक बार फिर मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सकते हैं।
विरासत के दम पर मिलेगा वोट?
चांदनी चौक से कांग्रेस के उम्मीदवार मुदित अग्रवाल अपने परिवार की राजनीतिक विरासत और अपने मिलनसार व्यवहार के दम पर मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस की राजनीतिक विरासत रही है। हमने जो दिल्ली में किया है उसे लोगों को याद दिलाने की जरूरत है।’
हालांकि वो इस बात पर भी जोर देते हैं कि आम आदमी पार्टी के कार्यकाल की कमियों को सामने लाकर भी कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति को मजबूत कर सकती है।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी की नाकामियों को उजागर करके ही हम अपने मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ जोड़ सकते हैं। हमें लोगों को नया विजऩ देना है। अपने चुनाव अभियान में हम यही कर रहे हैं।’
दिल्ली में मुसलमान मतदाता पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ रहे थे लेकिन पिछले चुनावों में ये वोटर वर्ग भी आम आदमी पार्टी की तरफ चला गया।
एक ऊर्दू चैनल के लिए दिल्ली में रिपोर्टिंग कर रहे एक पत्रकार अपना नाम ना ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, ‘मुसलमान मतदाता असमंजस में नजऱ आते हैं। ये यदि कांग्रेस की तरफ गए तो कई सीटों के नतीजे बदल सकते हैं।’
आतिशी ने उठाया दिल्ली में धार्मिक स्थलों को गिराने का मुद्दा, एलजी ने दिया ये जवाब
‘आप’ पर कांग्रेस का आक्रामक रुख
कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर निशाना साधने की रणनीति बनाई है।
पार्टी के सीमापुरी से उम्मीदवार और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस ने लगातार दिल्ली में पंद्रह साल शासन किया। इस शहर के विकास की नींव रखी। इसे मॉडर्न बनाया। चौबीस घंटे बिजली दी, लेकिन बावजूद इसके पार्टी 2013 में सत्ता से बाहर हो गई क्योंकि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को झांसा दिया।’
लिलोठिया कहते हैं, ‘दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जनता के साथ जो धोखा किया है उसे उजागर करना ही पार्टी की रणनीति है।’
दिल्ली में चुनाव अभियान के तेज होते ही कांग्रेस पार्टी अचानक आम आदमी पार्टी पर हमलावर हुई है। पार्टी के ज़मीनी नेताओं से लेकर बड़े नेता तक, सीधे आम आदमी पार्टी पर निशाना साध रहे हैं।
वहीं, दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस दिल्ली में बीजेपी के इशारे पर काम कर रही है।
हालांकि विश्लेषक इन आरोपों से इत्तेफाक़ नहीं रखते। वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी के आरोप अपनी जगह हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे राजनीतिक दल के इशारे पर अपनी रणनीति नहीं बनाता है।’
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘भले ही कांग्रेस दिल्ली में बहुत कुछ ना कर पाए, लेकिन कांग्रेस जहां खड़ी है यहां से जितना भी आगे बढ़ेगी उससे नुक़सान आप को ही होगा।’
कांग्रेस ने पिछले दो चुनावों में दिल्ली में कोई सीट नहीं जीती है। ऐसे में विश्लेषक ये मानते हैं कि पार्टी अगर दो-चार सीटें भी जीत पाई तो ये भी कांग्रेस के लिए सुधार ही होगा।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘यदि कांग्रेस तीन-चार सीटें भी जीतती है, तब भी पार्टी अपनी स्थिति को पहले से बेहतर ही करेगी। और अगर कांग्रेस किसी तरह दस सीटों तक पहुंच गई, तो दिल्ली में पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली बात होगी।’
दिल्ली में आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन से निकलकर सत्ता तक पहुंची थी। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार खत्म करने का वादा किया था। लेकिन केजरीवाल और उनके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया समेत कई बड़े नेता कथित भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा चुके हैं। पार्टी दस साल से सत्ता में है। इतने लंबे शासन के बाद आमतौर पर एक सरकार विरोधी भावना भी होती है।
विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में कांग्रेस के सामने सिर्फ एक ही विकल्प है- ख़ुद को जमीनी स्तर पर मजबूत करना और कांग्रेस ऐसा सिर्फ आम आदमी पार्टी के मतों में सेंध लगाकर ही कर सकती है।
वोट प्रतिशत में सुधार की उम्मीद
वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली और यूपी-बिहार जैसे कई राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी नहीं हैं। कांग्रेस को अब ये समझ आ रहा है कि वह स्वयं को जमीनी स्तर पर मजबूत करके ही आगे बढ़ सकती है।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस को यदि मज़बूत होना है तो उसे आम आदमी पार्टी से अपनी राजनीतिक जमीन छीननी होगी।’
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के दस साल के शासन और उसके बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद कांग्रेस के पास ये मौका है कि वो फिर से अपने मतदाता वर्ग से जुड़े।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस वोट प्रतिशत में जितना भी आगे बढ़ेगी, वह आम आदमी पार्टी की ही कटौती करेगी, ऐसे में बहुत से लोग ये कह सकते हैं कि इससे बीजेपी को फायदा होगा। भले ही कांग्रेस सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा ना पहुंचाना चाहती हो, लेकिन बीजेपी भी जरूर ये सोच रही होगी कि कांग्रेस के वोट कुछ बढ़ें।’
कांग्रेस अगर दिल्ली में दो-चार सीटें भी जीतती हैं और वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार भी करती है तो पहले से बेहतर स्थिति में ही होगी।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘मौजूदा माहौल को देखकर ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस इस बार अपने वोट प्रतिशत में कुछ सुधार करेगी।’
पार्टी नेता राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरी मज़बूती से चुनाव लडऩे का प्रयास कर रही है। ये आपको नतीजों में दिखेगा।’
राहुल ने शुरू किया चुनाव अभियान
सोमवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली के सीमापुरी इलाके में अपनी पहली जनसभा की।
लिलोठिया कहते हैं, ‘जल्द ही कांग्रेस के बड़े नेता मैदान में होंगे। दूसरे दल झांसों और दावों के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं, हम अपनी नीतियां लोगों तक लेकर जाएंगे।’
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी का समर्थन किया है। ये दोनों ही दल अब लगभग बिखर चुके इंडिया गठबंधन में है जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है।
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस यदि सिर्फ अपने हित को आगे रखकर रणनीति बनाती है तो उसे जरूर कुछ फायदा पहुंच सकता है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘सिर्फ कांग्रेस के प्रदेश स्तर के नेताओं को ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय नेताओं को दिल्ली में चुनाव अभियान में उतरना होगा। जो मतदाता सरकार से असंतुष्ट हैं, उन तक पहुंचने की रणनीति बनानी होगी।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं हैं। पार्टी पहले से ही जीरो पर है, ऐसे में अगर कांग्रेस के पास एक ही विकल्प है- पूरी मजबूती से चुनाव लडऩा। यदि कांग्रेस जमीन पर जोर लगाएगी तो उसे कुछ सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं।’
कांग्रेस दिल्ली में भले ही सत्ता तक ना पहुंच पाए। लेकिन पार्टी यदि कुछ सीटें भी जीत लेती है तो इससे उसमें नई जान जरूर पड़ेगी। (bbc.com/hindi)
इलॉन मस्क का धुर दक्षिणपंथी पार्टियों को समर्थन देना जर्मनी और यूरोप को रास नहीं आ रहा है. जर्मनी और यूरोपीय संघ की एजेंसियां यह पता लगाना चाहती हैं कि एएफडी को मस्क के समर्थनों से किन नियमों की अवहेलना हो रही है.
(DW.com/hi)
इलॉन मस्क ने गुरुवार को जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) की नेता एलिस वाइडेल के साथ एक्स पर ऑनलाइन चर्चा की थी। इसके पहले ही वो पार्टी को जर्मनी के भविष्य की ‘अकेली उम्मीद’बताते हुए अपना समर्थन दे चुके हैं। इतना ही नहीं उन्होंने जर्मनी के मौजूदा नेतृत्व को भी बुरा भला कहा है। एफएफडी को छोड़
जर्मनी की लगभग सभी पार्टियों ने मस्क के बयानों को जर्मन राजनीति में सीधा दखल बता कर उसकी आलोचना की है।
‘अवैध चंदे’ पर जर्मन एजेंसियों की नजर
इलॉन मस्क की एक्स पर वाइडेल के साथ हुई ऑनलाइन बातचीत एएफडी को ‘अवैध पार्टी चंदा’ भी माना जा सकता है। ये बात लॉबी कंट्रोल के विशेषज्ञ ऑरेल एशमान ने डीडब्ल्यू की राजनीतिक संवाददाता गिलिया साउडेली से बातचीत में कही। उनका कहना है, ‘यहां अहम बात यह है कि बातचीत अपने आप में चंदा नहीं है, बल्कि एक्स प्लेटफॉर्म पर रीच बढ़ाना पार्टी के लिए चंदा बनेगा।’
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेलइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल
प्लेटफॉर्म पर कंटेंट की रीच बढ़ाना एक सर्विस है जिसके लिए आम तौर पर लोगों से पैसे लिए जाते हैं। इससे पहले इलॉन मस्क के कंटेंट की रीच अकसर बढ़ाई जाती है और उनकी सामग्री की रीच, ‘उतने ही फॉलोअर वाले अकाउंट की तुलना में बहुत ज्यादा होती है जो एक्स के मालिक नहीं हैं।’
विशेषज्ञों की दलील है कि यह सेवा इस बातचीत के जरिए एएफडी पार्टी को मुफ्त में दी गई है। एशमान ने कहा, ‘यह पार्टी के लिए चंदा होगा और जर्मनी में यूरोपीय संघ के बाहर की कंपनी से चंदा लेना गैरकानूनी है।’
एक्स से हट सकती है जर्मन सरकार
शुक्रवार को जर्मन सरकार के प्रवक्ता ने बताया कि सरकार एक्स प्लेटफॉर्म पर अपना अकाउंट बंद करने पर चर्चा कर रही है। सरकार को एक्स के अल्गोरिदम से चिंता है। वाइडेल और इलॉन मस्क की एक्स पर बातचीत के एक दिन बाद ही सरकार के प्रवक्ता ने यह जानकारी दी है।
प्रवक्ता ने कहा कि एक्स और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में अल्गोरिदम है जो "एक शांत, निष्पक्ष और संतुलित संवाद को बढ़ावा नहीं देते हैं बल्कि उग्र और ध्रुवीकरण की तरफ जाते हैं।’
जर्मनी की 60 यूनिवर्सिटियां एक्स से दूर हुईं
शुक्रवार को जर्मनी की दर्जनों यूनिवर्सिटियों ने कहा कि अब वे सोशल नेटवर्क एक्स का इस्तेमाल नहीं करेंगी। यूनिवर्सिटियों ने इसके लिए नैतिक कारणों का हवाला दिया है।
60 से ज्यादा यूनिवर्सिटियों और शिक्षा संस्थानों ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि एक्स उनके सिद्धांतों के हिसाब से अब उपयुक्त नहीं है।
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्सइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्स
उनका कहना है, ‘प्लेटफॉर्म की मौजूदा दिशा संस्थान से जुड़े बुनियादी मूल्यों के हिसाब से उपयुक्त नहीं है, जिनमें दुनिया के लिए खुलापन, वैज्ञानिक एकीकरण, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक संवाद शामिल हैं।’ रिसर्चरों का कहना है कि यह साइट अब गलत जानकारी देने वालों का स्वर्ग बन गई है।
यूरोपीय संघ की छानबीन
जर्मनी में अगले महीने 23 तारीख को संघीय चुनाव होने हैं। अब यूरोपीय आयोग इस बात की जांच कर रहा है कि क्या चुनाव से पहले किसी तरह की कोई गलत जानकारी प्रसारित करने की कोशिश हुई है। इसके लिए आयोग एक्स प्लेटफॉर्म पर वाइडेल और मस्क की चर्चा की भी छानबीन कर रहा है। यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डीएसए) चुनावों को प्रभावित करने के लिए नफरती भाषण या जान बूझ कर खबरों से छेड़छाड़ करने जैसी अवैध सामग्री से निपटता है।
सोशल मीडिया साइट एक्स 2023 से ही डीएसए के तहत जांच के दायरे में है। इस पर अवैध सामग्रियों को फैलाने का संदेह तो है ही इसके साथ ही सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ को रोकने में यह कितना कारगर है यह भी देखा जा रहा है।
यूरोप की राजनीति में कितनी दखल दे रहे हैं मस्क
अमेरिका में पिछले साल डॉनल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बनने में खुले तौर पर समर्थन देने के बाद मस्क ने अब ब्रिटेन में दक्षिणपंथी रिफॉर्म पार्टी और जर्मनी की एएफडी को एक्स पर समर्थन देना शुरू कर दिया है।
पिछले महीने मस्क ने एक्स पर लिखा, "जर्मनी में पारंपरिक राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से नाकाम रही हैं। एएफडी जर्मनी के लिए अकेली उम्मीद है।’ आप्रवासी और इस्लाम विरोधी एएफडी को जर्मन सुरक्षा सेवाओं ने दक्षिणपंथी चरमपंथी घोषित किया है। इस पार्टी ने जर्मनी में एक डर पैदा किया है और देश की कोई पार्टी उसके साथ काम करने को तैयार नहीं है। जर्मनी के राजनीतिक दल एएफडी को खतरनाक और अलोकतांत्रिक मानते हैं।
पिछले दिनों माग्देबुर्ग की क्रिसमस मार्केट में जब एक सऊदी डॉक्टर ने पांच लोगों की हत्या कर दी तो मस्क ने जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स को एक्स पर, ‘अक्षम बेवकूफ’ कहा और उनसे इस्तीफा देने को कहा।
यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डिजिटल सर्विस एक्ट)
एक्स और मेटा जैसे बड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के लिए डीएसए नियम बनाता है। इनमें वो प्लेटफॉर्म शामिल हैं जिनके यूरोपीय संघ में प्रतिमाह 4।5 करोड़ से ज्यादा यूजर हैं। इनमें ऐप स्टोर कंपनियां जैसे एप्पल और अल्फाबेट भी शामिल हैं। इसका प्रमुख मकसद अवैध और नुकसानदेह ऑनलाइन गतिविधियों और गलत सूचनाओं को फैलने से रोकना है। इलॉन मस्क की एक्स पहली कंपनी थी जिसकी अवैध सामग्रियों के लिए डीएसए के तहत दिसंबर, 2023 में जांच शुरू की गई। इसके तहत डीएसए के उल्लंघन पर किसी कंपनी पर उसके वैश्विक सालाना टर्नओवर का 6 फीसदी तक जुर्माना लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं इसके लिए बताए उपायों को लागू करने में देरी करने पर प्रतिदिन के टर्नओवर का 5 फीसदी हिस्सा भी जुर्माने के तौर पर वसूला जा सकता है।
अगर उल्लंघन जारी रहता है और यूजरों को नुकसान पहुंचता है तो आयोग कंपनी को अपनी सेवाएं निलंबित करने के लिए भी कह सकता है। आयोग ने मेटा और चीन के अलीएक्सप्रेस, टेमू और टिकटॉक के खिलाफ भी मामले दर्ज किए हैं। इनमें से सभी मामले अभी खुले हुए हैं, सिवाए टिकटॉक के खिलाफ दर्ज हुआ एक मामला बंद हुआ है। इसमें कंपनी ने यूरोपीय संघ की चिंता दूर करने के लिए जरूरी उपाय कर दिए थे।
गुरुवार को आयोग ने क्या किया
यूरोपीय संघ के 15 कर्मचारी डीएसए को लागू करने की जिम्मेदारी उठाते हैं। ये सभी आयोग के ब्रसेल्स और स्पेन के दफ्तरों में काम करते हैं। यूरोपीय संघ के उद्योग आयुक्त थियरे ब्रेटन ने पहले ही वाइडेल को ध्यान दिला दिया था कि एक्स के बारे में डीएस के नियमों का मकसद चुनाव के इर्द गिर्द लोकतंत्र की रक्षा है। वरिष्ठ अधिकारियों ने भी मस्क से मिल रही चुनौती को स्वीकार किया है और इस बात पर जोर दिया है कि डीएसए अपना काम करेगा।
यूरोपीय आयोग के लोकतंत्र, न्याय और कानून का शासन और उपभोक्ता सुरक्षा आयुक्त मिषाएल मैक्ग्राथ का कहना है, ‘मिस्टर मस्क अपनी राय यूरोपीय संघ में ऑनलाइन और ऑफलाइन देने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कानूनी सीमा के अंदर।’ (dw.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन एस। एन। सुब्रह्मण्यन का कहना है कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए और लोगों को रविवार को भी काम करना चाहिए।
उनके इस बयान पर कई जाने माने लोगों ने प्रतिक्रिया दी है और इसपर एक बार फिर से बहस छिड़ी हुई है कि कर्मचारियों को सप्ताह में कितने घंटे काम करने चाहिए।
मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने इंस्टाग्राम पर स्टोरी में इस मुद्दे पर लिखा कि कंपनियों में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की ओर से इस तरह के बयान आना चौंकाने वाला है। उन्होंने इस स्टोरी में #mentalhealthmatters यानी मानसिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण बताने वाला हैशटैग भी इस्तेमाल किया।
इससे पहले इंफोसिस के फाउंडर नारायणमूर्ति भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की बात कह चुके हैं।
एस.एन. सुब्रह्मण्यन ने बीते दिनों कंपनियों के कर्मचारियों के साथ बीतचीत के दौरान ये बात कही। उनके वीडियो का एक हिस्सा रेडिट पर पोस्ट किया गया है।
वीडियो में सुब्रह्मण्यन ने कहा, ‘सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं आपसे रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं। अगर मैं ऐसा करवा सकता हूं तो मुझे ज़्यादा खुशी होगी क्योंकि मैं ख़ुद रविवार को काम करता हूं। घर पर बैठकर आप क्या करते हैं...’
एस। एन। सुब्रह्मण्यन ने यह भी कहा कि ‘आप घर पर बैठकर कितनी देर अपनी पत्नी का चेहरा देखेंगे।’
उनके इस बयान ने वक्र आवर (काम के घंटे), आराम की ज़रूरत और निजी जिंदगी को लेकर बड़ी बहस छेड़ दी है।
शादी डॉट कॉम के संस्थापक अनुपम मित्तल ने इस मुद्दे पर सोशल मीडिया एक्स पर चुटकी लेते हुए लिखा है, ‘लेकिन सर, अगर पति-पत्नी एक दूसरे को नहीं देखेंगे तो हम दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश कैसे बनेंगे।’
किसने क्या कहा?
इस बहस में महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने कहा, ‘मेरा मानना है कि हमने कितनी देर काम किया इसे छोडक़र हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। यह चालीस घंटे, सत्तर घंटे या नब्बे घंटे काम करने का मामला नहीं है। आप क्या कर रहे हैं यह इसपर निर्भर करता है। आप 10 घंटे काम करके भी दुनिया बदल सकते हैं।’
‘मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि मैं सोशल मीडिया एक्स पर इसलिए नहीं हूं, क्योंकि मैं अकेला हूं। मेरी पत्नी शानदार हैं और मुझे उनको निहारना पसंद है और उनके साथ वक़्त बिताना भी।’
सीरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला ने भी एस एन सुब्रह्मण्यन के बयान पर चुटकी ली।
उन्होंने लिखा, ‘हां आनंद महिंद्रा, मेरी पत्नी मानती हैं कि मैं बढिय़ा हूं, वो रविवार को मुझे निहारना पसंद करती हैं। काम की गुणवत्ता मायने रखती है, काम के घंटे नहीं।’
उद्योगपति हर्ष गोयनका ने भी आनंद महिंद्रा की बातों का समर्थन करते हुए उनके बयान को अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर किया है।
उन्होंने लिखा, ‘सप्ताह में 90 घंटे काम? संडे (रविवार) का नाम बदल कर सन-ड्यूटी कर दिया जाए या फिर छुट्टी के दिन का धारणा को ही मिथक करार दे दिया जाए? मुझे लगता है कि मेहनत से और स्मार्ट तरीके से काम करना चाहिए, लेकिन क्या जि़ंदगी को लगातार एक ऑफि़स शिफ्ट में बदल दिया जाना चाहिए? मुझे लगता है कि ये थकने का तरीका है सफलता का नहीं।’
दरअसल भारत में फैक्टरी, दुकानों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों जैसी जगहों पर काम करने वालों के लिए वर्किंग आवर निर्धारित है और इसके संबंध में श्रम और रोजग़ार मंत्रालय के स्टैंडिंग ऑर्डर भी हैं।
क्या कहते हैं लोग
बीबीसी ने इस मुद्दे पर लोगों से भी उनकी राय मांगी थी कि काम के लिए कितने घंटे होने चाहिए। इस पर लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने के मिली है।
किसी ने इस पर लिखा है कि है काम के लिए छह घंटे काफी हैं तो कोई बता रहा है कि काम के लिए आठ से नौ घंटे होने चाहिए। वहीं एक यूजर ने लिखा है, ‘बेरोजग़ार हाजऱ हों।’
फरहान खान नाम के एक यूजऱ ने इंस्टाग्राम पर अपने कमेंट में आरोप लगाया है कि एलएनटी के चेयरमैन श्रमिकों के शोषण की सलाह दे रहे हैं।
वहीं प्रदीप कुमार नाम के एक यूजऱ का कहना है, ‘काम पूरा होने तक काम करना चाहिए, यह काम के घंटों पर आधारित नहीं होना चाहिए।’
जबकि ब्रिजेश चौरसिया लिखते हैं, ‘यह सैलरी पर निर्भर करता है। हम चैरिटी के लिए काम नहीं करते हैं। हम अपने जीवन यापन के लिए काम करते हैं।’
‘जज़्बात का इज़हार’ नाम की एक आईडी की तरफ से कमेंट किया गया है, ‘मैं अगर मालिक हूं तो 24 घंटे।’
डॉक्टरों का क्या कहना है?
दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में कम्यूनिटी मेडिसिन डिपार्टमेंट के डॉक्टर संजय राय बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘सप्ताह में काम करने के लिए 48 घंटे रखे गए हैं तो इसके पीछे वजह भी है।’
‘आप क्या काम करते हैं, इस पर भी निर्भर करता है कि आप कितना काम कर सकते हैं।’
डॉक्टर संजय का कहना है, ‘अगर आप कंपनी के मालिक हैं तो आप किसी दबाव में काम नहीं करते हैं आप मालिकाना हक़ के साथ अपना काम करते हैं। और लोग दफ़्तर में दबाव के बीच काम कर रहे हैं या पैशन के साथ काम कर रहे हैं, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।’
वो बताते हैं कि ज़्यादा शारीरिक परिश्रम वाले काम या स्पोर्ट्स एक्टिविटी में आदमी जल्दी थकता है, और आमतौर पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को मेहनत वाले काम में थकावट जल्दी होती है।
पुणे के डी वाई पाटिल मेडिकल कॉलेज के एमेरिटस प्रोफेसर डॉक्टर अमिताव बनर्जी कहते हैं, ‘हमारे देश में आबादी बड़ी है तो आप इस तरह की बात कर सकते हैं, दूसरे देशों में तो आपको लोग ही नहीं मिलेंगे।’
‘असल बात है कि काम की परिभाषा क्या है? एक होता है फि़जिक़ल वर्क जिसमें आप आठ घंटे तक काम करते हैं। आप ज़्यादा काम करेंगे तो थकने के बाद वर्क एक्सिडेंट्स बढ़ जाएंगे। चाहे वो फ़ैक्टरी में हो, गाड़ी चलाने का काम हो या अकाउंट से जुड़ा काम हो। हर काम में हादसा हो सकता है।’
डॉक्टर अमिताव बनर्जी का कहना है, ‘क्रिएटिव लोग 24 घंटे काम कर सकते हैं। आप जब काम नहीं करते हैं तब भी आपका दिमाग़ क्रिएटिव काम कर रहा होता है और आपको आइडिया आता है। इस तरह के लोग सपने में भी काम कर सकते हैं, जैसे बेंज़ीन (एक रासायनिक कंपाउंड) की खोज सपने में हुई थी।’
‘आर्कमेडीज़ ने नहाते हुए साबुन को टब गिरते देखा और यूरेका। यूरेका चिल्लाए, फिर अपना सिद्धांत पेश किया। न्यूटन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पेड़ से फल को गिरते हुए देखा और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पेश किए।’
लोग आमतौर पर वर्क लाइफ बैलेंस की भी बात करते हैं और ज़्यादा काम की वजह से कई बार शारीरिक और मानसिक बीमारियों के शिकार भी हो जाते हैं।
हमने इसे समझने के लिए दिल्ली के बीएल कपूर मैक्स हॉस्पिटल के न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रतीक किशोर से बात की।
उनका कहना है, ‘ज़्यादा काम या मेहनत करने से आपकी नींद पर असर होता है। शरीर को आराम नहीं मिलेगा तो आपके हार्मोन्स लगातार सक्रिय रहेंगे, इससे हमारा स्ट्रेस हार्मोन बढ़ेगा। यह आर्टेरी को सख़्त बनाता है, आपका बीपी बढ़ सकता है, मोटापा, शुगर, कॉलेस्ट्रॉल बढऩे की संभावना होती है। हार्ट अटैक और ब्रेन अटैक की संभावना भी बढ़ जाती है।’
‘हमारे शरीर को एक निश्चित मात्रा में काम करना होता है और इसी तरह से आराम भी करना होता है। यह बीमारियों से लडऩे की हमारी क्षमता को भी प्रभावित करता है।’
वो कहते हैं, ‘आराम करने से शरीर के अहम अंगों की रिकवरी भी होती है। इस लिहाज से एक दिन में अधिकतम आठ घंटे काम किया जा सकता है, लेकिन हम घर आकर भी काम करते हैं। तो यह 10 घंटे तक पहुंच जाता है।’
‘जब कुछ काम नहीं आता,
कड़ी मेहनत काम आती है’
एम्स के पूर्व डॉक्टर और ‘सेंटर फ़ॉर साइट’ के संस्थापक डॉक्टर महिपाल सचदेवा इस बहस में थोड़ी अलग राय रखते हैं।
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, ‘हर देश में काम और विकास का एक टाइम फ्ऱेम होता है। जैसे जापान के लोगों ने परमाणु हमले के बाद कड़ी मेहनत की और बहुत काम किया। आपको अगर आगे बढऩा है और आपमें काम का जुनून है तो आप ज़्यादा काम करेंगे। हालांकि इसके लिए आपके पास काम भी होना चाहिए।’
‘लोग क्वालिटी और क्वांटिटी की बात करते हैं। अगर ‘वर्क इज़ वर्शिप’ (कर्म ही पूजा ) है तो मेरा मानना है कि ये दोनों एक साथ क्यों नहीं हो सकते हैं। लेकिन आप लगातार काम नहीं कर सकते। इस तरह से काम करने में आपको आराम की ज़रूरत होती है।’
डॉक्टर सचदेवा कहते हैं कि किसी डॉक्टर के पास 50 मरीज़ हों तो, या तो वो सभी देखे या फिर देखने से मना कर दे, वह यही कर सकता है।
वो कहते हैं, ‘काम करने से तनाव होता है यह सही है। मैं आँख़ों का डॉक्टर हूं तो यह कहूंगा कि इससे आँखों में खिंचाव, सिर दर्द, आँखें लाल होना जैसी समस्या भी आ सकती है। लेकिन कौन कितना काम कर सकता है, यह हर इंसान के लिए अलग-अलग होता है। ऐसे इसलिए क्योंकि ये देखना होता है कि किसी का शरीर उसे कितना काम करने की अनुमति देता है।’
डॉक्टर सचदेवा कहते हैं, ‘हालांकि, अंत में एक बात ज़रूर कहूंगा, जब कोई उपाय काम नहीं करता है तब कड़ी मेहनत ही काम में आती है।’ (bbc.com/hindi)
-नदीम अशरफ
हाल ही में ब्रिटेन के कुछ सांसदों ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड से अपील की है कि वो आगामी फरवरी में चैंपियंस ट्रॉफ़ी में अफगानिस्तान के खिलाफ मैच का बहिष्कार करें।
हालांकि इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) कहा है कि अफगानिस्तान के साथ द्विपक्षीय सिरीज न खेलने के अपने फैसले को जारी रखेंगे लेकिन आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) के उन टूर्नामेंटों में हिस्सा लेंगे जिसमें अफगानिस्तान भी शामिल रहेगा।
ईसीबी के चेयरमैन रिचर्ड गाउल्ड मानते हैं कि ‘सदस्यों द्वारा एकतरफा कार्रवाई के बजाय आईसीसी स्तर पर एक तालमेल के साथ अपनाया गया व्यापक रवैया कहीं अधिक असरदार होगा।’
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन नसीम दानिश चेतावनी दे चुके हैं कि अफगानिस्तान पर पाबंदी लगाए जाने का खतरा है।
कई सालों तक अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड की अगुवाई करने वाले नसीम दानिश ने बीबीसी से कहा कि अफग़़ानिस्तान क्रिकेट बोर्ड पर बहुत अधिक दबाव है और हो सकता है कि अन्य क्रिकेट बोर्ड अफगानिस्तान के साथ धीरे-धीरे खेलना बंद कर दें।
उन्होंने कहा, ‘हो सकता है कि आने वाले समय में अफगानिस्तान क्रिकेट के खिलाफ प्रतिबंध लगा दिया जाए और इस तरह देश के लिए आखिरी खुशी और उम्मीद भी चली जाएगी।’
नसीम दानिश कहते हैं, ‘अगर महिलाओं की शिक्षा, काम और अन्य अधिकारों पर मौजूदा पाबंदियों के हालात जारी रहते हैं, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि अफगानिस्तान क्रिकेट पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है।’
ब्रिटिश सांसदों की चि_ी पर प्रतिक्रिया देते हुए ईसीबी ने भी कहा है कि अफगानिस्तान के अंदर और विदेशों में अफगानों के लिए क्रिकेट ‘उम्मीद और सकारात्मकता का स्रोत’ है।
नसीम दानिश जोर देते हैं कि तालिबान को महिला अधिकारों के प्रति नरमी का रुख दिखाना चाहिए, वरना इसका नुकसान केवल अफगानिस्तान क्रिकेट को ही नहीं होगा बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी होगा।
वो कहते हैं, ‘अगर अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो आईसीसी का फंड आना बंद हो जाएगा, प्रायोजक चले जाएंगे, घरेलू क्रिकेट खत्म हो जाएगा और कोई भी नहीं खेलेगा क्योंकि उन्हें इसका कोई भविष्य नजर नहीं आएगा। अफगानिस्तान क्रिकेट का वजूद ही खत्म हो जाएगा।’
पाबंदियां लगाने की अपीलें
हाल ही में उत्तरी आयरलैंड के पूर्व फस्र्ट मिनिस्टर बैरोनेस फ़ोस्टर ने इंग्लैंड टीम से अफगानिस्तान के साथ क्रिकेट न खेलने की अपील की है।
पिछले एक सप्ताह से, ब्रिटेन के महिला अधिकार कार्यकर्ता और पीयर्स मॉर्गन जैसे प्रमुख पत्रकार और राजनेता इस बात को सुनिश्चित करने की अपील कर रहे हैं कि इंग्लैंड की क्रिकेट टीम अफगानिस्तान के खिलाफ न खेले।
उनके कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं- वे मानते हैं कि तालिबान सरकार के मातहत अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों को ‘रौंद’ दिया गया है, महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी लगा दी गई है और महिलाओं के खेलने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है।
ब्रिटेन के जाने माने प्रत्रकारों में से एक पीयर्स मॉर्गन ने अपने एक्स हैंडल पर लिखा, ‘26 फऱवरी को आईसीसी टैंपियंस ट्रॉफी के ग्रुप स्टेज में ईसीबी की पुरुष टीम को अफगानिस्तान के खिलाफ मैच खेलने को रद्द कर देना चाहिए।’
‘सभी खेलों से प्रतिबंधित किए जाने के साथ-साथ, अफगान महिलाओं के खिलाफ तालिबान का घृणित और लगातार बदतर होता दमन बर्दाश्त के बाहर है। समय आ गया है कि हम स्टैंड लें।’
आईसीसी के लक्ष्यों और हालात के बीच टकराव
ऐसा लगता है कि आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) ने अपने विचार विमर्श के बाद और एजेंडे से अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाने याउसे निलंबित करने के मुद्दे को जानबूझ कर किनारे कर दिया है।
किसी देश को एक पूर्ण सदस्य मानने या टेस्ट खेलने वाले देश के रूप में मान्यता देने के लिए आईसीसी की शर्तों में से एक है कि उस देश के पास एक महिला टीम होनी ज़रूरी है, लेकिन अफगानिस्तान के पास मौजूदा समय में कोई महिला क्रिकेट टीम नहीं है।
ऐसा लगता है कि आईसीसी इसे एक संवेदनशील मुद्दे के रूप में ले रही है और इसकी अहमियत को कम करने की कोशिश कर रही है।
लेकिन ऑस्ट्रेलिया के कड़े रुख़ और अब इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड और ब्रिटिश सांसदों की हालिया टिप्पणी से इस मुद्दे पर आईसीसी के अंदर भी फिर से बहस छिड़ सकती है।
आईसीसी का प्राथमिक मिशन क्रिकेट के खेल को पूरी दुनिया में बढ़ाना और फैलाना है और बीते दो दशकों में अफग़़ानिस्तान क्रिकेट को इसकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में देखा गया है।
हाल ही में आईसीसी चेयरमैन के पद पर भारतीय जय शाह की नियुक्त हुई है और कई लोगों का मानना है कि वह संस्था के अंदर अफगानिस्तान की स्थिति को और मजबूत करेंगे।
हालांकि हालिया चर्चाओं में अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन उसने लगातार ज़ोर देकर कहा है कि राजनीति और खेलों को अलग रखना चाहिए और देशों से अपील की है कि वो दबाव डालने की बजाय इस तरह के मुद्दों पर बातचीत और समझ पैदा करने में शामिल हों।
नस्लीय भेदभाव को लेकर साल 1970 में दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम पर कऱीब 22 सालों तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगाया गया था और इसकी वजह से यह देश इंटरनेशनल क्रिकेट से दूर रहा।
अफगानिस्तान खिलाडिय़ों पर दबाव का असर
अफगानिस्तान की क्रिकेट टीम एकमात्र ऐसी संस्था है जिसमें तालिबान बदलाव करने या उसमें अपना प्रभाव डालने में कामयाब नहीं हो पाया है। टीम का लोगो, अफगानिस्तान का तिरंगा झंडा और पिछली सरकार का राष्ट्रगान-अंतरराष्ट्रीय मैदान पर यह टीम अभी भी इन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है।
टीम ने तालिबान के झंडे तले खेलने से अभी तक इंकार किया है।
राशिद खान और मोहम्मद नबी समेत कई खिलाडिय़ों ने अफगानिस्तान में महिलाओं की शिक्षा और काम के अधिकार को लेकर बार-बार बात की है और तालिबान सरकार से अपील की है कि वे इन क्षेत्रों में अपने फैसलों पर पुनर्विचार करें।
जब ऑस्ट्रेलिया ने अफगानिस्तान के खिलाफ अपने मैच रद्द किए तो कई खिलाडिय़ों ने ऑस्ट्रेलिया के व्यावसायिक लीगों जैसे ‘बिग बैश’से खुद को अलग कर लिया।
नसीम दानिश का बयान
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन नसीम दानिश मानते हैं कि अफगानिस्तान क्रिकेट को लेकर मौजूदा चर्चाएं भी खिलाडिय़ों पर बहुत अधिक दबाव डालेंगी।
हालांकि खिलाड़ी संभावित दबावों का टीम पर पडऩे वाले असर के बारे में आम तौर पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, लेकिन घरेलू क्रिकेट खेलने वाले हजारों खिलाडिय़ों पर इसका असर साफ है, जिनकी आकांक्षा है कि वो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय टीम की ओर से खेलें और उच्चस्तरीय क्रिकेट में मुकाम हासिल करें।
कॉमर्शियल लीग में खेलने वाले कई अफगान क्रिकेटर अच्छी कमाई कर रहे हैं, लेकिन जो केवल नेशनल टीम में खेलते हैं या घरेलू क्रिकेट पर अधिक ध्यान देते हैं, अगर दबाव बढ़ा या प्रतिबंध लगाया गया तो उनपर सबसे अधिक असर पड़ सकता है।
दानिश मानते हैं कि अगर अफगानिस्तान की टीम को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से प्रतिबंधित किया जाता है, तो कई घरेलू खिलाड़ी क्रिकेट ही छोड़ देंगे और युवा खिलाड़ी इस खेल में जाने से हतोत्साहित होंगे। परिवार अपने बच्चों को क्रिकेट अकादमी में फिर कभी नहीं भेजेंगे।
महिला अधिकार कार्यकर्ताओं में मतभेद
अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाने को लेकर महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की भी अलग-अलग राय है।
अफगानिस्तान क्रिकेट पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की वकालत करने वाले एक ग्रुप का दावा है कि अफगान खिलाड़ी तालिबान के प्रतिबंधों को खिलाफ पर्याप्त आवाज बुलंद नहीं कर रहे हैं।
हालांकि एक दूसरे ग्रुप का तर्क है कि प्रतिबंध लगाना बेहतरी करने की बजाय अधिक नुकसान पहुंचाएगा।
इनमें से अधिकांश कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर अफगानिस्तान क्रिकेट के लिए अपना समर्थन जाहिर करते हैं और तर्क देते हैं कि महिला अधिकारों को लेकर खिलाडिय़ों ने लगातार आवाज उठाई है।
यहां तक कि कुछ का दावा है कि अगर अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो ‘तालिबान को इससे सबसे अधिक फायदा होगा।’
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के संचालन में तालिबान ने कोई सीधे दखल नहीं दिया है, लेकिन यह साफ है कि क्रिकेट में उनकी दिलचस्पी कम है, खासकर कंधार में मौजूद उनके नेता की।
हालांकि तालिबान के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी के भाई अनस हक्कानी को अक्सर क्रिकेट के मामलों में दिलचस्पी लेते हुए देखा गया है।
अनस हक्कानी ने बार-बार अफगान क्रिकेटरों की तारीफ की है और कुछ मौकों पर उनके साथ भी दिखे हैं। हालांकि तालिबान ने महिला क्रिकेट पर खासतौर पर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन महिला अधिकारों को लेकर उनका आम रवैया बदला नहीं है, जिसमें महिलाओं के खेलों पर पूर्ण प्रतिबंध और कई अन्य पाबंदियां शामिल हैं। (bbc.com/hindi)
पासपोर्ट एक यात्रा दस्तावेज है, जिसमें हमारी राष्ट्रीयता दर्ज होती है. इससे तय होता है कि हम कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा कर सकते हैं. लेकिन पासपोर्ट प्रणाली शुरू होने से पहले विदेश यात्राएं कैसे हुआ करती थीं.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन का लिखा-
ब्रिटेन के नागरिकों ने साल 2016 में यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने के पक्ष में मतदान किया था। इसके बाद ब्रिटेन का पासपोर्ट रखने वाले लोगों के पास यह अधिकार नहीं रहा कि वे यूरोप में आजादी से घूम सकें। यूरोपीय संघ को छोडऩे से ब्रिटिश नागरिकों की एक तरह से पहचान बदल गई। अब वे यूरोपीय नहीं रहे थे।
जर्मनी में रह रहे कई ब्रिटिश नागरिकों ने तब जर्मन नागरिकता के लिए आवेदन करने का फैसला किया। ऐसा इसलिए क्योंकि जर्मन पासपोर्ट मिलने पर वे यूरोपीय संघ में बिना वीजा के रह सकते थे। लेकिन इसके चलते, कई ब्रिटिश नागरिकों में अपना देश छोडऩे का दुख और बढ़ गया।
लेकिन यह बहुत पुरानी बात नहीं है जब अन्य देशों में जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत ही नहीं होती थी। लोग आजादी के साथ एक देश से दूसरे देश में जा सकते थे।
करीब 100 साल पहले शुरू हुआ पासपोर्ट का चलन
पासपोर्ट को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसकी शुरुआत करीब 100 साल पहले हुई थी। यह कहना है हरमीन डीबोल्ट का, जो स्विट्जरलैंड के जेनेवा स्थित यूनाइटेड नेशंस लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स में काम करती हैं।
जेनेवा में लीग ऑफ नेशंस का मुख्यालय हुआ करता था। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1920 में लीग ऑफ नेशंस की स्थापना की गई थी। इसका मकसद विश्व में शांति बनाए रखना था। बाद में संयुक्त राष्ट्र ने इसकी जगह ले ली।
यह वह समय था, जब पुराने औपनिवेशक साम्राज्य ढह रहे थे और नए देशों और राज्यों का जन्म हो रहा था। लोग अब अपने राजाओं की प्रजा नहीं थे, बल्कि वे उन नए देशों के नागरिक थे। युद्ध की वजह से विस्थापित होने के चलते कई लोग दूसरे देशों में भी जा रहे थे। उस दौरान, लोग अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए अपने स्थानीय दस्तावेज साथ लेकर चलते थे।
युद्ध के दौरान ही, जर्मनी, फ्रांस, यूके और इटली ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि दुश्मन देशों के नागरिकों को उनके क्षेत्र में आने के लिए आधिकारिक पहचान दस्तावेजों की जरूरत होगी।
डाइबोल्ट कहती हैं, ‘सीमा पर तैनात अधिकारियों का सामना अलग-अलग तरह के यात्रा दस्तावेजों से होने लगा, जो अलग-अलग आकृति और आकार के थे। तब यह जानना मुश्किल होता था कि पासपोर्ट असली है या नहीं। इसलिए, उन्हें इस समस्या का समाधान ढूंढने की जरूरत थी।’
75 साल के नाटो को भविष्य
आखिरकार, 1920 में लीग ऑफ नेशंस ने पेरिस में दुनियाभर के नेताओं को इक_ा किया। जहां इन नेताओं ने पासपोर्ट और सीमा शुल्क जैसे मुद्दों पर हुई एक कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया। इसके बाद, आधिकारिक रूप से यह तय हो गया कि सभी जगहों पर पासपोर्ट एक जैसे दिखने चाहिए और उनमें एक तरह की जानकारी होनी चाहिए।
यह तय हुआ कि पासपोर्ट में 32 पेज होने चाहिए। उसका आकार छह गुणा चार इंच का होना चाहिए। साथ ही पासपोर्ट के कवर पर देश का नाम और आधिकारिक चिन्ह होना चाहिए। अभी भी पासपोर्ट इसी तरह बनाए जाते हैं।
पासपोर्ट से परेशान हुए लोग
डीबोल्ट बताती हैं कि जल्द ही पासपोर्ट का विरोध शुरू हो गया। विश्व के कई नेताओं का मानना था कि पहले वाली प्रणाली ही बेहतर थी, जब लोग किसी दस्तावेज की चिंता किए बिना आजादी से घूम सकते थे।
आम जनता और प्रेस तब पासपोर्ट को पसंद नहीं करते थे। लोगों को लगता था कि पासपोर्ट से उनकी आजादी और निजता कम हुई है। इसे जारी करने की प्रक्रिया में काफी नौकरशाही और लालफीताशाही भी शामिल थी।
1926 में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में इस विरोध का जिक्र किया गया था। अखबार ने लिखा था, ‘क्या पासपोर्ट को यात्रा की एक स्थायी जरूरत के तौर पर बनाए रखना चाहिए। युद्ध के बाद प्रचलन में आई यह प्रणाली बोझिल और परेशान करने वाली है। यह देशों के बीच मुक्त आवाजाही में भी रुकावट पैदा करती है।’
लेकिन अब वापसी पुरानी स्थिति में वापसी करना मुश्किल था। लीग ऑफ नेशंस के सदस्य उस पुराने समय में जाने पर सहमत नहीं हुए जब सीमा नियंत्रण और पासपोर्ट नहीं हुआ करते थे। इसलिए पासपोर्ट चलन में बने रहे।
लाखों लोग नहीं हासिल कर सकते हैं पासपोर्ट
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जिनकी कोई राष्ट्रीयता या नागरिकता नहीं है और इस वजह से उनके पास पासपोर्ट भी नहीं है। यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ डिप्लोमेसी एंड ह्यूमन राइट्स के मुताबिक, दुनियाभर में लगभग एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें कोई भी देश अपने नागरिकों के तौर पर मान्यता नहीं देता। ऐसा अक्सर कुछ नस्लीय समूहों के खिलाफ भेदभाव होने के चलते होता है। जैसे- रोमा और सिंती समुदाय के लोग, जिनकी जर्मनी में लगभग 70 फीसदी आबादी अभी भी देशविहीन है।
लेकिन देशविहीन होना कोई नई बात नहीं है। ऐसा होने की शुरुआत लगभग उसी समय हुई, जब पासपोर्ट का चलन शुरू हुआ क्योंकि तब पहले विश्व युद्ध के बाद साम्राज्य खत्म हुए और नए देशों ने आकार लिया। उस समय यूरोप में लगभग 90 लाख लोग विस्थापित हुए थे। इस बीच, जब यूरोप के नक्शे को फिर से खींचा गया तो लाखों लोगों ने खुद को ऐसे देशों में मौजूद पाया जो या तो उनकी कानूनी पहचान को मान्यता नहीं देते थे या फिर उन्हें अपनी राष्ट्रीयता देने के लिए तैयार नहीं थे।
किस देश का पासपोर्ट है सबसे ज्यादा ताकतवर
दुनिया भर में लोगों के लिए, पासपोर्ट बहुत महत्व रखता है। एक व्यक्ति की राष्ट्रीयता तय करती है कि वे कहां यात्रा कर सकते हैं और कहां रह सकते हैं। इसलिए हर साल पासपोर्ट की रैंकिंग भी जारी की जाती हैं, जो बताती हैं कि किस देश का पासपोर्ट कितना ताकतवर है। यह रैंकिंग इस आधार पर तय होती हैं कि उस देश के पासपोर्ट के जरिए कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा की जा सकती है।
ग्लोबल पासपोर्ट पावर रैंक 2025 में भारत 69वें स्थान पर है। पहला स्थान संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का है जो तेल उत्पादन करने वाला अमीर देश है। पहले स्थान का मतलब है कि यहां के लोगों को अलग-अलग देशों में जाने की सबसे ज्यादा आजादी है। लेकिन यहां भी कुछ कमियां मौजूद हैं।
यूएई में युवा पासपोर्ट तभी हासिल कर सकते हैं, जब उनके पिता अमीराती हों। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद भी हैं। इसके अलावा, अल्पसंख्यक समूहों या शासन कर रहे शाही परिवार के विरोधियों को अक्सर पासपोर्ट से वंचित कर दिया जाता है। यह सिर्फ एक उदाहरण है कि कैसे पासपोर्ट स्वतंत्रता और शोषण दोनों का ही शक्तिशाली साधन हैं।
पासपोर्ट रैंकिंग में सबसे नीचे अफगानिस्तान और सीरिया हैं। युद्ध से तबाह हो चुके इन देशों के नागरिकों को अन्य देशों में जाने की सबसे कम आजादी है। हालांकि, सीरिया में हाल ही में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद भविष्य में इसकी रैंकिंग में बदलाव हो सकता है। (dw.com/hi)
-राजीव
देश में कामकाज के घंटों पर छिड़ी बहस के पीछे क्या आपने सोचा है क्यों कॉर्पोरेट के मुखिया (सरगना लिखना चाहता था) इतनी बड़ी बात कर पा रहे हैं ? वह इसलिए की उन्हें इस बात का आभास है की सरकार कॉर्पोरेट संस्थाओं और पैसे की तरफ झुकी हुई है। बहुत सी ऐसी संस्थाएं जो अपने कामगारों को जड़ खरीद गुलाम समझती हैं वह बोलना तो यही चाहती हैं लेकिन लोक लॉज के कारण वह ये बात बोल नहीं पा रहीं हैं लेकिन मन तो हफ्ते में सत्तर या नब्बे घंटे काम कराने का उनका भी करता होगा।
इस पर एक दिलचस्प टिप्पणी सोशल मीडिया पर अंकित है कि पैसों की नजर से दुनिया को देखने वाले लोग प्रेम और परिवार को नहीं समझ पाएंगे।
मजदूर संगठन और मजदूरों की क्षीण हुई एकता ने ऐसे तमाम लोगों को इस तरह बेलगाम बोलने का अवसर दे दिया है। एक दिलचस्प किस्सा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले का है जो वर्षों पुराना है लेकिन निरंकुश सरकारों नकेल कसने का एक बहुत सटीक उदाहरण है।
बिलासपुर से नगर निगम के सफाई कर्मचारियों का मजदूर नेता सरदारी लाल गुप्ता (मेरे पिताजी) को बुलावा आया। सफाई कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करना चाहते थे। पिताजी और सत्येंद्र साधु जो कि मजदूर आंदोलन का एक और जाना पहचाना नाम था बिलासपुर पहुंचे। आंदोलन एक दिन पहले शुरू हो चुका था। वहां पहुंचने पर सभी सफाई कर्मचारियों (स्वीपर) लोगों ने आग्रह किया की आप दोनों नेता हमारी बस्ती के बीच जो मंदिर हैं उसी में रुक जाइए। बाहर कहीं भी रहने पर गिरफ्तारी का खतरा था। उस समय अधिकतर घरों में सूखा पैखाना हुआ करता था जिसको प्रतिदिन स्वीपर साफ करते थे इसलिए सभी को पता था की आंदोलन बहुत ज्यादा दिन खींच जाने की स्थिति में बहुत गंभीर परिणाम होंगे। प्रशासन तो आंदोलन को एक दिन से ज्यादा भी बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि ऐसे पैखानों की सफाई प्रतिदिन आवश्यक थी।
पिताजी और सत्येंद्र साधु उनके आग्रह पर सफाई कर्मियों की बस्ती के मंदिर में ही रुक गए। अब खाने का क्या किया जाए? दोनों नेताओ ने खुद से कहा की जो तुम लोग खिला दोगे वही हम खाएंगे। इस एक बात ने आंदोलन और सफाई कर्मचारियों में जान भर दी कोई आज के समय में भी जिनको लोग छूने से बचते हैं दोनों नेताओं ने उनके हाथ का बना खाना खाना शुरु कर दिया। सभी आंदोलनरत लोगों को भरोसा हो गया कि यह लोग हमारे लिए लड़ाई लड़ेंगे। मजदूर और उसका आंदोलन करते उसके नेताओं के बीच का यह भरोसा अब लगभग खत्म हो गया है।
दूसरी एक बात जिसने आंदोलन में जान भरी वह इनके बीच वह भाषण था जिसमें मजदूर नेताओं ने एलान किया की नगर निगम के अध्यक्ष को हम 42 रूपये प्रतिदिन देंगे अगर वह सफाई करने को तैयार हो जायेंगे। नगर निगम के अध्यक्ष उस समय एक पूर्व मंत्री थे और स्वर्ण समाज से थे। उस समय सफाई कर्मचारियों की तनख्वाह 21 रूपये प्रतिदिन हुआ करती थी। आंदोलन को मुश्किल से 3 दिन ही हुए थे डीआईजी ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए बुलाया। सफाई कर्मचारियों के बीच के ही पांच लोग डीआईजी से चर्चा करने पहुंचे। प्रशासन को आंदोलन की गहराई का अंदाजा नहीं था। बात-बात में डीआईजी साहब ने कुछ अपशब्द कह दिए, बातचीत करने गए लोगों में से एक महिला ने चप्पल निकालकर डीआईजी साहब को मार दी। बात बहुत बिगड़ गई और कुल 157 लोगों की गिरफ्तारी हुई और कर्फ्यू लगा दिया गया।
नगर निगम बिलासपुर ने सफाई करने के लिए उड़ीसा से सफाई कर्मचारी बुलवा लिए लेकिन बाहर बचे लोगों ने बहुत दमदारी से इसका विरोध किया और उड़ीसा से आए हुए लोगों को काम नहीं करने दिया। पांच दिन बाद पूरा प्रशासन इन आंदोलनरत सफाई कर्मचारियों के सामने हाथ जोड़े खड़ा था। लगभग सभी मांगे पांच दिन के आंदोलन में मान ली गई।
सत्ता इसलिए भी निरंकुश हो गई हैं कि पूरे देश से मजदूरों का कोई बड़ा संगठन नहीं है और मजदूरों की गतिशीलता लगभग इस देश में खत्म हो गई है। पहले यह आम धारणा थी कि अदालत में दर्ज मुकदमों में अदालतों का झुकाव विद्यार्थियों और मजदूर के पक्ष में होता है। एक स्वाभाविक सहानुभूति इन अदालतों की इन दोनों वर्ग की तरफ रहती है लेकिन हालिया अदालती फैसलों ने यह धारणा भी तोड़ दी है। मजदूरों से जुड़े कानून को सरकारों ने नियोक्ता की तरफ झुका दिया है। मजदूर संगठन और मजदूरों को गतिशील रहना होगा ताकि सरकारें मजदूरों से जुड़े कानूनों को और तोड़मरोड़ ना सकें। पिछले कुछ सालों में मजदूरों से जुड़े कानून को बहुत ज्यादा शिथिल कर दिया है लेकिन कोई मजबूत आवाज इनके पक्ष में खड़ी नहीं दिखी। कामगारों के हक की बात इस राष्ट्र के विमर्श से गायब है।
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कनाडा को अमेरिका में शामिल करने की बात कर बहस छेड़ दी है।
कनाडा के लोग भी इस पर खुलकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं और दुनिया भर के विशेषज्ञ अमेरिका की जमकर आलोचना कर रहे हैं।
ट्रंप लालच दे रहे हैं कि कनाडा अमेरिका में शामिल हो जाएगा तो टैरिफ से मुक्ति मिल जाएगी और टैक्स भी कम हो जाएगा। लेकिन कनाडा के लोगों को ट्रंप का यह आइडिया लुभा नहीं पा रहा है। दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार ट्रंप की नीतियों को लेकर अमेरिका को आड़े हाथों ले रहे हैं।
द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘ओबामा ने क्राइमिया पर क़ब्ज़ा के कारण रूस को जी-8 से निकाल दिया था। जॉन केरी ने इसे मध्यकालीन बर्बरता कहा था। इसके बाद अमेरिका ने रूस पर कड़े से कड़े प्रतिबंध लगाए। बाइडन रूस के खिलाफ यूक्रेन को फंड के साथ हथियार देते रहे और कहा कि पुतिन विस्तारवादी नीति पर चल रहे हैं। राष्ट्रपति बाइडन ने रूस के ख़िलाफ़ वैश्विक गठबंधन भी तैयार किया। अब अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति कनाडा, ग्रीनलैंड और पनामा नहर पर अपना नियंत्रण चाहते हैं।’
कनाडा में क्या कहा जा रहा है?
कनाडा की प्रमुख विपक्षी कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता पिएरे पोलिएवे ने ट्रंप के बयान को ख़ारिज करते हुए कहा कि कनाडा कभी भी अमेरिका का 51वां राज्य नहीं बन पाएगा।
पिएरे ने एक्स पर लिखा, ‘हम एक महान और स्वतंत्र मुल्क हैं। हम अमेरिका के सबसे अच्छे दोस्त हैं। हमने 9/11 हमले के बाद अल-क़ायदा के खिलाफ कार्रवाई में अमेरिकियों की मदद के लिए अरबों डॉलर और सैकड़ों जानें दी हैं। हम अमेरिका को बाज़ार मूल्य से कम क़ीमतों पर अरबों डॉलर की उच्च गुणवत्ता वाली और पूरी तरह से विश्वसनीय ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं। हम अरबों डॉलर का अमेरिकी सामान खरीदते हैं।’
उन्होंने लिखा, ‘हमारी कमज़ोर एनडीपी-लिबरल सरकार इन साफ़ बिंदुओं को बताने में विफल रही। मैं कनाडा के लिए लड़ूंगा। जब मैं प्रधानमंत्री बनूंगा तो हम अपनी सेना को दोबारा से खड़ा करेंगे और सीमा को वापस कब्जे में लेंगे ताकि कनाडा-अमेरिका सुरक्षित रहें। हम हमारे आर्कटिक का वापस नियंत्रण लेंगे ताकि रूस और चीन को बाहर रख सकें।’
‘हम करों में कटौती करेंगे, लालफ़ीताशाही को कम करेंगे और अपने देश में तनख़्वाहें और उत्पादन लाने के लिए बड़े पैमाने पर संसाधन परियोजनाओं को तेज़ी से हरी झंडी देंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो हम कनाडा को पहले स्थान पर रखेंगे।’
ट्रूडो की सरकार से समर्थन वापस लेनी वाली एनडीपी के नेता जगमीत सिंह ने डोनाल्ड ट्रंप की निंदा की है।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बस करो डोनाल्ड। कोई कनाडावासी आपको जॉइन नहीं करना चाहता। हम प्राऊड कनैडियन्स हैं। जिस तरह से हम एक दूसरे का ख़्याल रखते हैं और अपने देश की हिफ़ाज़त करते हैं, हमें उस पर नाज़ है।’
‘आपके हमले सरहद की दोनों ओर नौकरियों पर असर डालेंगे। अगर आप कनाडा के लोगों की नौकरियां खाएंगे तो अमेरिका को इसकी क़ीमत चुकानी होगी।’
कनाडा की विदेश मंत्री मेलेनी जोली ने लिखा, ‘नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का बयान ये दिखाता है कि उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि कनाडा एक मजबूत देश कैसे है। हमारी अर्थव्यवस्थ मज़बूत है। हमारे लोग मजबूत हैं। हम धमकियों के आगे कभी नहीं झुकेंगे।’
पीपल्स पार्टी ऑफ कनाडा के प्रमुख मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘एक बात जो मुझे अमेरिका के बारे में हमेशा से नापसंद रही है, वह है वहाँ की नव-रूढि़वादी सरकारों का सैन्यवादी और साम्राज्यवादी रवैया। यह रवैया डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों में मौजूद है। दशकों से ये दूसरे देशों पर हमला करते रहे हैं, सरकारें बदलते रहे हैं, बमबारी करते रहे हैं और हजारों निर्दोषों की जान लेते रहे हैं। अमेरिका ये सब दुनिया को सुरक्षित बनाने के नाम पर करता है। अमेरिका के अब भी 80 देशों में 750 सैन्य ठिकाने हैं ताकि ये अपने साम्राज्य की रक्षा कर सकें।’
मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘मैंने ट्रंप का समर्थन इसलिए किया था कि उन्होंने महंगे और अर्थहीन युद्धों का विरोध किया था। यहां तक कि उन्होंने यूक्रेन में रूस के साथ अमेरिका के छद्म युद्ध को भी खत्म करने की बात कही थी। ओबामा और बाइडन खुलकर युद्धों को बढ़ावा दे रहे थे। ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी शांति की समर्थक लग रही थी। अमेरिका वियतनाम से लेकर अफग़़ानिस्तान तक में अपमानित हुआ है। यूक्रेन में भी चीज़ें उसके हक़ में नहीं जा रही हैं। रूस के खिलाफ प्रतिबंध बैकफायर कर रहा है।’
मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘ट्रंप का कहना है कि वह आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल करेंगे। मतलब ट्रंप कनाडा से इकनॉमिक वॉर शुरू करना चाहते हैं।
ट्रंप हमारी अर्थव्यवस्था को तबाह करना चाहते हैं। ज़ाहिर है, इसका असर अमेरिका पर भी पड़ेगा, लेकिन कनाडा की तुलना में कम पड़ेगा। कनाडा अमेरिका से कोई भी युद्ध जीतने में सक्षम नहीं है। हम अमेरिका से आर्थिक जंग में भी देर तक नहीं टिक पाएंगे। कनाडा आर्थिक रूप से अमेरिका पर निर्भर है। अगर ट्रंप वाकई कनाडा को अमेरिका में शामिल करना चाहते हैं तो हम बिल्कुल एक अलग गेम में जा रहे हैं, जो बहुत ही ख़तरनाक होगा। ज़ाहिर है इसका कोई आसान समाधान नहीं होगा।’
संयुक्त राष्ट्र में कनाडा के राजदूत बॉब रे ने लिखा है, ‘संप्रभुता और स्वतंत्रता अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का एक मूलभूत सिद्धांत है। मुझे यूक्रेन की स्वतंत्रता की रक्षा करने पर गर्व है। मुझे कनाडा की रक्षा करने पर भी गर्व है। कनाडा की संप्रभुता की रक्षा करना हर देशभक्त का कर्तव्य है। चाहे वह किसी भी पार्टी या क्षेत्र से संबंध रखता हो।’
हकीकत से परे कल्पना
डग फोर्ड कनाडा के ओंटेरियो प्रांत के प्रीमियर हैं। डग फोर्ड हाल के दिनों में ट्रंप की टैरिफ से जुड़ी धमकियों के खिलाफ खुलकर बोलते रहे हैं। फोर्ड ने कहा है कि दोनों देशों को उत्तरी अमेरिका की समृद्धि के लिए चीन की चुनौती से मिलकर लडऩा चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘हमें मिलकर इस विलय के हास्यास्पद विचारों पर समय की बर्बादी की बजाय मेड इन कनाडा और मेड इन यूएसए के गौरव को बहाल करने की कोशिशों पर ध्यान देना चाहिए।’
फोर्ड के अलावा कई जानकार भी ये मानते हैं कि ट्रंप की सोच हकीकत से परे है।
कनाडाई अख़बार द ग्लोबल एंड मेल से कार्लटन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों और अमेरिकी विदेश नीति से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर एरॉन एटिंगर ने कहा कि ट्रंप का रवैया हमेशा से अमेरिका की बड़ी अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल छोटे साझेदारों पर दबाव बनाकर रियायतें पाने वाला रहा है।
उन्होंने कहा, ‘अगर ट्रेड वॉर छिड़ता है तो ये कनाडा को आर्थिक गुलाम बना सकता है लेकिन गुलामी हमारी संप्रभुता खोने से अलग है।’
प्रोफेसर एटिंगर ने कड़े शब्दों में कहा, ‘आखिर में ये सब बकवास बातें हैं।’
वहीं रॉयल मिलिटरी कॉलेज ऑफ़ कनाडा में डिफ़ेंस स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर ऐडम चैपनिक का कहना है कि ट्रंप को अपनी ही पार्टी के भीतर जंग लडऩी पड़ेगी। साथ ही कनाडा को अपना संविधान बदलना पड़ेगा जो वास्तव में अपने ‘अस्तित्व को खत्म’ करने के लिए होगा। इसके लिए कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स और सीनेट में वोट जीतने होंगे और साथ ही हर प्रांत, क्षेत्र को एकसाथ लाना होगा।
उन्होंने कहा, ‘और जब बात किसी देश की आती है तो कई मुकदमें होंगे, जिनके निपटारे में दशकों न भी लगें लेकिन सालों जरूर गुजर जाएंगे।’
कनाडा में रह रहे अमेरिकियों
की राय क्या है?
पढ़ाई या काम के सिलसिले में कनाडा में रहने वाले अमेरिकियों की तादाद लाखों में है।
ट्रंप के बयान पर जब इन लोगों से कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (सीबीसी) ने सवाल पूछे तो जवाब मिले-जुले आए।
मॉन्ट्रियल की मैकगिल यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई कर रहीं जैकब वेसोकी ने कहा कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का अपने सबसे करीबी सहयोगी पर ऐसा बयान निराशाजनक है।
उन्होंने कहा, ‘कनाडा में रहने वाले एक अमेरिकी के तौर पर ये देखना वाकई दुखद है।’ वेसोकी ने राष्ट्रपति चुनाव में कमला हैरिस को वोट दिया था।
लेकिन कनाडाई-अमेरिकी जॉर्जेन बुर्क ट्रंप की कट्टर समर्थक हैं। उनकी नजऱ में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शायद थोड़े-बहुत ट्रोल जैसे सुनाई पड़ रहे हैं। हालांकि, वो ट्रंप के एक्शन को कनाडा के लिए हानिकारक नहीं मानती हैं। वह कहती हैं, ‘वो कुछ भी गैर-जरूरी तो नहीं कह रहे।’
बुर्क ने कहा, ‘ट्रंप कनाडा विरोधी नहीं हैं लेकिन उनके पास सीमा पर आतंकवाद के खतरे पर चिंता की वाजिब वजहें हैं। साथ ही कनाडा नेटो के सैन्य खर्चे को भी पूरा नहीं दे पा रहा है।’
‘वो किसी ट्रोल जैसे सुनाई पड़ सकते हैं, चाहे लोग पसंद करें या न करें। लोग चाहे ये कहें कि अरे किसी राष्ट्रपति के लिए ये कहना सही नहीं या कुछ भी।।।लेकिन वो ऐसे ही हैं।’
वहीं, जैकब की नजऱ में ट्रंप दोनों देशों के बीच व्यापारिक सौदे में रियायत पाने के लिए टैरिफ वाली धमकियां दे रहे हैं। जैकब का अमेरिका-कनाडा के रिश्तों के लिए नज़रिया अभी भी आशावादी है।(bbc.com/hindi)
अमेरिका से राष्ट्रपति जो बाइडन की विदाई होने जा रही है और 20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति की कमान संभालने जा रहे हैं।
इस चलाचली के समय बाइडन प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन भारत के दौरे पर आए थे और उन्होंने एक अहम घोषणा की। इस घोषणा को भारत के लिए काफ़ी ख़ास माना जा रहा है।
सोमवार को जेक सुलिवन ने नई दिल्ली में कहा कि अमेरिका जल्द ही इंडियन साइंटिफिक एंड न्यूक्लियर एंटिटीज को प्रतिबंधित लिस्ट से बाहर कर देगा।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने जिस नागरिक परमाणु समझौते पर मुहर लगाई थी, उसी के तहत जेक सुलिवन ने यह घोषणा की है।
जेक सुलिवन ने दिल्ली स्थित आईआईटी में कहा कि अमेरिका और भारत के बीच न्यूक्लियर सेक्टर में सहयोग बहुत ही मज़बूत स्तर पर पहुँच गया है।
अमेरिकी एनएसए ने क्या-क्या कहा?
जेक सुलिवन ने कहा, ‘मैं आज घोषणा कर सकता हूँ कि अमेरिका अब उन ज़रूरी क़दमों को उठाने जा रहा है, जिनसे नागरिक परमाणु सहयोग में दोनों देशों की कंपनियों के बीच जो बाधाएं थीं, उन्हें ख़त्म किया जा सके। इस पर अंतिम फ़ैसला जल्द ही होगा।’
अब भारत की कंपनियों पर परमाणु सहयोग के लिए अमेरिका का कोई प्रतिबंध नहीं होगा। कहा जा रहा है कि भारतीय कंपनियों के लिए यह बड़ी घोषणा है।
जेक सुलिवन ने कहा कि अमेरिका के निजी क्षेत्र, वैज्ञानिक और टेक्नोलॉजिस्ट भारतीय कंपनियों के साथ अब मिलकर काम कर सकते हैं। सुलिवन ने कहा कि दोनों देशों के बीच नागरिक परमाणु सहयोग अब बढ़ेगा।
जेक सुलिवन ने कहा, ‘हालांकि जॉर्ज बुश और मनमोहन सिंह ने 20 साल पहले नागरिक परमाणु सहयोग की मज़बूत बुनियाद रख दी थी।’
जेक सुलिवन जब ये बातें कह रहे थे तो उनके साथ भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी थे। जयशंकर ने कहा, ‘भारत और अमेरिका के बीच वैश्विक रणनीतिक साझेदारी नई ऊंचाई पर पहुँच गई है। इनमें तकनीक, रक्षा, अंतरिक्ष, बायोटेक्नॉलजी और एआई भी शामिल हैं।’
सुलिवन के दौरे की अहमियत
जेक सुलिवन ने एनएसए के तौर पर अपने आखिरी दौरे में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से भी मुलाकात की।
जेक सुलिवन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी और इसे असामान्य माना जा रहा है।
दरअसल जेक सुलिवन अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय के एक अधिकारी की हैसियत रखते हैं और उनकी मुलाक़ात पीएम मोदी से हुई।
अमेरिका के डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर मुक्तदर खान ने पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ कमर चीमा से बातचीत में कहा, ‘मैं सोचता हूं कि मोदी ने जेक सुलिवन से मुलाकात क्यों की? अमेरिका में एनएसए का ओहदा एक अधिकारी से ज़्यादा नहीं होता है। आप सोचिए कि अजित डोभाल अमेरिका जाते हैं तो क्या बाइडन से मुलाकात होगी? असंभव है।’
मुक्तदर खान कहते हैं, ‘एक बड़ी प्रगति ज़रूर हुई है। भारत के जो निजी क्षेत्र के परमाणु प्रतिष्ठान थे, उन्हें अमेरिका ने परमाणु अप्रसार की सूची से निकाल दिया है। भारत के लिए यह बड़ी उपलब्धि है। इसका असर यह होगा कि भारत का प्राइवेट सेक्टर अब परमाणु और मिसाइल के मामलों में अमेरिकी कंपनियों से सीधे डील कर पाएगा। अब भारत की कंपनियां वहाँ जाकर रिसर्च भी कर सकती हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान को देखिए तो अमेरिका ने उनके मिसाइल प्रोग्राम पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहीं भारत को प्रतिबंध की लिस्ट से बाहर निकाल दिया है।’
मुक्तदर खान ने कहा, ‘व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर जाइए तो जेक सुलिवन के दौरे को इस रूप में बताया जा रहा है कि पिछले चार सालों में दोनों देशों के बीच सहयोग को अंतिम रूप दिया जा रहा है। बाइडन प्रशासन ने एक रोडमैप तैयार कर दिया है। दोनों देश सेमीकंडक्टर और एआई पर फोकस कर रहे हैं। इसे इस रूप में भी देख सकते हैं कि भारत का माइंड और अमेरिका का कैपिटल साथ मिलकर काम करेगा। बाइडन प्रशासन में दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग बढ़ा है।’
मुकतदर खान कहते हैं, ‘मेरे लिए यह पहेली की तरह है कि भारत के मामले को ब्लिंकन के बदले जेक सुलिवन क्यों डील कर रहे हैं? ब्लिंकन दक्षिण कोरिया गए लेकिन भारत नहीं आए। मेरा मानना है कि दुनिया में अभी तीन सबसे अहम देश हैं। अमेरिका, चीन और भारत। ट्रंप का रुख भी भारत के लिए सकारात्मक ही रहेगा। बाइडन ने तो जाते-जाते जापान को झटका दे दिया है। नीपॉन स्टील को जिस तरह टारगेट किया है, वह चौंकाने वाला है। जेक सुलिवन कोई डिप्लोमैट नहीं हैं लेकिन भारत को वही हैंडल कर रहे हैं।’
भारत और अमेरिका का पुराना कऱार
समाचार एजेंसी रॉयर्टस ने लिखा है कि 2000 के दशक से ही भारत अमेरिकी न्यूक्लियर रिएक्टर की आपूर्ति के लिए बातचीत कर रहा था।
भारत को भविष्य में ऊर्जा की जरूरतें और बढ़ेंगी। मनमोहन सिंह और जॉर्ज बुश ने 2007 में असैन्य परमाणु कऱार किया था और इसका लक्ष्य यही था कि अमेरिकी न्यूक्लियर रिएक्टर की सप्लाई हो।
दोनों देशों के बीच बाधा इस बात पर थी कि वैश्विक नियमों की कसौटी पर भारत के समझौते को कैसे कसा जाए। इस बात पर सहमति नहीं बन पा रही थी कि अगर कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो उसकी जवाबदेही ऑपरेटर की होगी या न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाने वाले की। अगर ऑपरेटर पर होगी तो इसकी जि़म्मेदारी भारत पर आएगी और न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने वाले की होगी तो अमेरिका की होगी।
हालांकि अब भी स्पष्ट नहीं हुआ है कि दुर्घटना की स्थिति में जवाबदेही किसकी होगी। जेक सुलिवन ने कहा है कि इस संदर्भ में औपचारिकताएं जल्द ही पूरी कर ली जाएंगी।
रॉयटर्स के अनुसार, 1998 में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया था तब अमेरिका ने भारत की 200 से अधिक कंपनियों पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन समय के साथ कई कंपनियों से पाबंदी हटा दी गई थी।
अमेरिकी वाणिज्य मंत्रालय की सूची में अब भी भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग से जुड़ी चार एंटीटीज़ और कुछ भारतीय परमाणु रिएक्टर के साथ ही परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर पाबंदी हैं।
रॉयटर्स की रिपोर्ट कहती है कि परमाणु हादसों के लिए मुआवज़ों को लेकर भारत में कड़े क़ानून हैं। इसने अतीत में कई विदेशी पावर प्लांट बिल्डर्स के साथ भारत के सौदों को नुक़सान पहुंचाया है। ये रिपोर्ट कहती है कि भारत ने साल 2020 तक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से अतिरिक्त 20 हज़ार मेगावॉट बिजली के उत्पादन का लक्ष्य रखा था, जिसे अब 2030 तक के लिए टाल दिया गया है।
साल 2019 में भारत और अमेरिका के बीच भारत में छह अमेरिकी परमाणु संयंत्र लगाने पर रज़ामंदी हुई थी। इसके बाद वर्ष 2022 में दोनों देशों ने सेमीकंडक्टर उत्पादन और आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस पर काम करने के लिए भी एक तकनीकी पहल शुरू की थी।
इस समझौते ने अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक और भारत के हिंदुस्तान एरोनोटिक्स के बीच भारत में जेट इंजन बनाने के लिए हुई साझेदारी में अहम भूमिका निभाई।
ऐसा माना जा रहा है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता से निपटने के लिए भारत और अमेरिका के बीच करीबी पिछले कुछ समय में बढ़ी है। बीते साल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राजकीय भोज का आयोजन किया था।
लेकिन एक साल पहले अमेरिका ने सिख नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजि़श में भारत के अधिकारियों के शामिल होने के आरोप लगाए और इस मामले में एक भारतीय नागरिक को गिरफ़्तार भी किया। इसकी वजह से दोनों देशों के संबंधों में थोड़ा तनाव भी दिखा। (bbc.com/hindi)
घेस के जमींदार माधो सिंह और उनके परिवार के बलिदान का वीर गठन न केवल सनसनीखेज था बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय था। घेस के पांचवें जमींदार अर्जुन सिंह के पुत्र माधो सिंह को घेस की छोटी सी जमींदारी विरासत में मिली थी जिसमें बीस गांव शामिल थे। घेस जमींदारी, बोड़ासांभर जमींदारी का एक हिस्सा है जिसे 16वीं शताब्दी में बिनोद सिंह ने बनाया था और इसके वे पहले जमींदार थे। घेस के जमींदार बिंझाल (बिंझवार) जनजाति के थे जो विंध्य कुल के कई आदिम स्थानीय आदिवासी समूहों में से एक है। अन्य आदिवासी समूहों की तरह बिंझाल भी किसी भी कीमत पर अपनी राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की रक्षा करने और उसे बचाने की प्रवृत्ति रखते हैं। वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए किसी भी बाहरी सूत्र के आगमन पर ऐतिहासिक काल में एकजुट रहे।
प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ और पश्चिमी ओडिशा के इस क्षेत्र में बिंझाल (बिंझवार), गोंड, कोंध, बैगा, सबरा (संवरा), ओरांव आदि अनेक मूल आदिवासी जनजातियाँ निवास करती रही हैं। इतिहास के आरंभिक काल में दुर्गम वन भूमि की इन जनजातियों ने अनेक रियासतें और राज्य व्यवस्थाएँ बनाई थीं। समय बीतने के साथ-साथ, जातिगत हिंदू प्रवासियों और उनके नेताओं के इस क्षेत्र में आने से इन जनजातियों की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था नष्ट होने लगी और परिणामस्वरूप वे प्रवासी शासक शक्तियों के अधीन हो गए। लेकिन विजयी प्रवासी शक्तियों ने अपनी श्रेष्ठ सैन्य कुशलता और शक्ति के साथ कभी भी आदिवासी समूहों के सामाजिक-सांस्कृतिक लोकाचार को बाधित करना या उनका अनादर करना बुद्धिमानी नहीं समझा। बल्कि उन्होंने आदिवासी आस्था और विश्वासों को अपने में समाहित करके आदिवासियों को खुश करने का प्रयास किया। इस प्रकार आदिवासी देवता अपने अनुष्ठानों के साथ राजकीय दरबार में समाहित रूप में प्रवेश कर गए और उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। आदिवासी सुरक्षित महसूस करते थे, गैर-आदिवासी जाति हिंदू शासकों के आधिपत्य में भी उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं अपरिवर्तित रहीं और यह सदियों तक जारी रहा।
लेकिन 19वीं सदी के शुरुआती सालों में चीजें बदलने लगीं जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18 गढज़ात रियासतों वाले संबलपुर राज्य को अपने अधीन कर लिया। व्यापारिक कंपनी जो भारत की राजनीतिक मालिक बन गई और उनकी मातृभूमि यानी ब्रिटेन को खिलाने के लिए हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों का दोहन करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम 1857 के महान विद्रोह के रूप में भारतीय आक्रोश का विस्फोट था, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध के रूप में भी जाना जाता है। इसी पृष्ठभूमि में हम संबलपुर में वीर सुरेंद्र साय और उनके साथी देशभक्तों जैसे घेस के माधो सिंह और उनके बहादुर बेटों के अलावा कई आदिवासी जमींदारों और उनके किसानों द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध और सशस्त्र संघर्ष की निडर भावना को देखते हैं।
जुलाई 1857 में हजारीबाग जेल से देश प्रेमी सिपाहियों द्वारा मुक्त किए जाने के बाद सुरेन्द्र साय संबलपुर पहुंचे और माधो सिंह की मदद से आदिवासी सरदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की रणनीति बनाई। नागपुर-रायपुर और कटक के बीच ब्रिटिश प्रशासन के लिए संचार की रेखा को काटने के लिए एक रणनीति तैयार की गई थी। जब सुरेन्द्र साय को बारापहाड़ पहाड़ी को गंधमर्दन पर्वत से जोडक़र अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध क्षेत्र बनाने की योजना में बोरसांबर जमींदार से समर्थन नहीं मिल सका तब माधोसिंह और उनके बेटे हट्टे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह और ऐरी सिंह आगे आए और इस नेक काम के लिए उनका पूरा समर्थन और सहायता की।
माधोसिंह ने अपनी प्रजा के दिल में आजादी की भावना जगाई और केईसीपाटी, पाटकुलंदा, भेड़ेन, पदमपुर, सोनाखान के गोंड और बिंझाल जमींदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा तैयार किया। उन्होंने और उनके बहादुर बेटों ने सिंघोड़ा घाटी , निसा घाटी, शिशुपालगढ़ बरिहाडेरा, बड़पति, गुडगुडा घाटी, मानिकगढ़ और जूनागढ़ घाटी जैसे रणनीतिक पहाड़ी घाटियों की रक्षा की और ब्रिटिश सेना पर कहर ढाया। सबसे प्रसिद्ध सिंघोड़ा घाटी घेस क्षेत्र की रक्षा के लिए एक प्राकृतिक ढाल था। माधो सिंह और उनके बेटों ने इसे पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया और नागपुर और संबलपुर के बीच सभी तरह के संपर्क काट दिए, जिसके लिए ब्रिटिश प्रशासन को अनगिनत दुर्दशा का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों को मध्य भारत से पूर्वी भारत में प्रवेश करने से पूरी तरह से रोक दिया गया था।
ब्रिटिश प्रशासन के लिए संबलपुर में बिना किसी बाधा के जरूरी रसद और सैन्य सहायता की आपूर्ति सुनिश्चित करना अनिवार्य हो गया, जिसके लिए सिंघोड़ा घाटी का अधिग्रहण करना अत्यंत आवश्यक था। इस संबंध में ब्रिटिश सत्ता के बार-बार के प्रयासों से कोई परिणाम नहीं निकला। 26 दिसंबर, 1857 को कैप्टन वुड के नेतृत्व में रायपुर और नागपुर से ब्रिटिश सेनाओं ने सिंघोड़ा घाटी पर हमला किया। भीषण युद्ध में माधो सिंह की सेना ने कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला और कैप्टन वुड गंभीर रूप से घायल होकर संबलपुर भाग गए। इस घटना से ब्रिटिश खेमे में सनसनी फैल गई। गुरिल्ला युद्ध की कला में निपुण घेस की सेना ने ब्रिटिश सेनाओं पर कहर बरपाया क्योंकि उन्हें (ब्रिटिश सेना) इस क्षेत्र की भूगोल जानकारी नहीं थी। घेस जमींदार के अभियान ने पहाड़ और घाटी के ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर लुढक़ाकर रास्ता रोक दिया और दुश्मनों को घेरकर उन पर हमला कर दिया। कई अंग्रेज सैनिकों की जान चली गई और कैप्टन शेक्सपियर भागकर अपनी जान बचा पाए। ब्रिटिश तोपखाने की भारी गोलाबारी में हट्टे सिंह घायल हो गए। फिर भी सिंघोरा घाटी अजेय रहा।
सिंघोड़ा की लड़ाई की लड़ाई से अंग्रेज घबरा गए। माधो सिंह के साहस, कौशल और शक्ति के प्रति अंग्रेज अधिकारी आश्वस्त थे। फरवरी 1858 में कर्नल वुडब्रिज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने पहाड़ श्रीगिड़ा पर घेस की सेना पर हमला करने का साहस किया, लेकिन कई ब्रिटिश सैनिकों के साथ वे स्वयं भी युद्ध में मारा गया । इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियों को माधो सिंह को सजा दिलाने के लिए अन्य तरीके और साधन तैयार करने के लिए मजबूर किया। संबलपुर के नए डिप्टी कमिश्नर मेजर फोर्स्टर ने जिले में आतंक का राज फैला दिया और वह माधो सिंह और उनके विद्रोही बेटों को पकडऩे के लिए दृढ़ संकल्प लिया था। बड़ी ब्रिटिश सेना और हथियारों की मदद से उसने घेस गांव पर हमला किया और उसे जला दिया। लेकिन इससे पहले ही जमींदार माधो सिंह ने अपने लोगों को गांव खाली कर जंगल में जाने का आदेश दिया था। घेस जमींदार और उसके लोगों की प्रतिरोध की भावना मेजर फोर्स्टर को परेशान कर रही थी।
उसने जासूसों को नियुक्त करके माधो सिंह के आंदोलन के बारे में जानकारी इक_ा करने का सहारा लिया। एक दिन जब माधो सिंह मटियामहुल नामक निकटवर्ती गांव की ओर जा रहे थे तभी गुप्तचरों से सूचना पाकर ब्रिटिश सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। माधो सिंह को कड़ी सुरक्षा में संबलपुर ले जाया गया और बिना किसी सुनवाई के 31 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रकार 72 वर्ष की आयु में राष्ट्र के एक महान शहीद का जीवन समाप्त हो गया। लेकिन उनके वीर पुत्रों हट्टे सिंह, कुंजल सिंह और बैरी सिंह ने संघर्ष को आगे बढ़ाया और इसमें अधिक वृद्धि की, जिससे ब्रिटिश ताकतों को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई घटनाओं के बाद हट्टे सिंह को गिरफ्तार कर निर्वासित कर (काला पानी) दिया गया, कुंजल सिंह को संबलपुर जेल में फांसी दी गई और बैरी सिंह को संबलपुर में ही आजीवन कारावास की सजा दी गई। इससे पहले अंग्रेजों ने माधो सिंह के सबसे छोटे पुत्र ऐरी सिंह को एक गुफा के अंदर धुआं भरकर मार डाला था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के पूरे इतिहास में माधो सिंह और उनके परिवार के सदस्यों का बलिदान एक दुर्लभ घटना है।
डॉ. भक्त पूरन साहू, सेवानिवृत्त प्रवाचक इतिहास,
घेस कॉलेज जिला बरगढ़।
शहीद माधो सिंह सोनाखान जमींदार शहीद वीर नारायण सिंह के ससुर थे और शहीद कुंजल सिंह शहीद वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह के ससुर थे । शहीद वीर नारायण सिंह की पत्नी का नाम तुलसी और गोविंद सिंह की पत्नी का नाम पूर्णिमा था ।
आलेख संपादन घना राम साहू सह प्राध्यापक ।
पाकिस्तान को लगा था कि अफगानिस्तान से अशरफ गनी की सरकार के जाने और तालिबान के आने के बाद उसकी पकड़ मजबूत होगी।
15 अगस्त 2021 को जब तालिबान ने अफगानिस्तान को अपने नियंत्रण में लिया तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा था कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं।
तब पाकिस्तान में जश्न का माहौल था। ज़ाहिर है कि तालिबान को पाकिस्तान दशकों से मदद करता रहा है। लेकिन पिछले चार सालों में चीजें तेजी से बदली हैं। अब पाकिस्तान और तालिबान आमने-सामने हैं। दोनों ओर से एक-दूसरे पर हमले हो रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट और पत्रकार अपनी सरकार पर तंज़ कर रहे हैं कि तालिबान के आने पर ख़ुशी मानने वाले अब कहाँ हैं?
भारत-अफगानिस्तान की करीबी
अफगानिस्तान से अशरफ गनी का जाना भारत के लिए बड़ा झटका माना जा रहा था।
ऐसा लग रहा था कि भारत ने अफगानिस्तान में जो अरबों डॉलर के निवेश किए हैं, उन पर पानी फिर जाएगा। लेकिन कुछ महीनों में तालिबान से भारत के संपर्क बढ़े हैं और एक बार फिर अफगानिस्तान और भारत के संबंधों में गर्मजोशी आती दिख रही है।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने आठ जनवरी को दुबई में तालिबान के कार्यकारी विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताकी से मुलाकात की।
तालिबान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि अफगानिस्तान भारत को अहम क्षेत्रीय और आर्थिक साझेदार के रूप में देखता है। 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत के साथ यह अब तक की सबसे उच्चस्तरीय बैठक थी।
अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा कि ईरान के चाबहार पोर्ट के जरिए भारत के साथ व्यापार बढ़ाने पर बात हुई है। भारत ईरान में चाबहार पोर्ट बना रहा है ताकि पाकिस्तान के कराची और ग्वादर पोर्ट को बाइपास कर अफगानिस्तान के साथ ईरान और मध्य एशिया से कारोबार किया जा सके।
अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने विक्रम मिस्री से मुलाकात के बाद जारी बयान में कहा, ‘हमारी विदेश नीति संतुलित और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर केंद्रित है। हमारा लक्ष्य है कि भारत के साथ राजनीतिक और आर्थिक साझेदारी मजबूत हो।’
वहीं भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि अफगानिस्तान में विकास की परियोजनाओं को फिर से शुरू करने पर विचार किया जा रहा है और साथ ही व्यापार बढ़ाने पर भी बात हुई है। दुनिया के किसी भी देश ने अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं दी है और भारत भी उन्हीं देशों में से एक है।
पाकिस्तान में हलचल?
दुबई में तालिबान और भारत की मुलाकात पर पाकिस्तान से काफ़ी प्रतिक्रिया आ रही है। यह मुलाकात पाकिस्तान को परेशान भी कर सकती है।
पाकिस्तान ने हाल के दिनों में अफगानिस्तान में हवाई हमले किए हैं। पाकिस्तान का कहना है कि अफगानिस्तान की जमीन से आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया जा रहा है।
इसी हफ्ते भारत ने अफगानिस्तान में पाकिस्तान के हमले की निंदा की थी।
अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ की पाकिस्तान में संवाददाता रहीं निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है, ‘तालिबान के लिए काबुल नदी पर शहतूत डैम प्राथमिकता है। भारत और अफगानिस्तान के बीच 2020 में 25 करोड़ डॉलर के प्रोजेक्ट पर समझौता हुआ था। लेकिन तालिबान के आने के बाद चीज़ें थम गई थीं। तालिबान अब भारत से कहा रहा है कि वह परियोजनाएं पूरी करे।’
अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने एक्स पर लिखा है, ‘भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री की तालिबान के विदेश मंत्री से मुलाक़ात पाकिस्तानी रणनीतिकारों के लिए एक सबक है, जो ऐसा सोच रहे थे कि अफग़़ानिस्तान में तालिबान के आने से पाकिस्तान को मदद मिलेगी और भारत का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा।’
इससे पहले हक्कानी ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल समा टीवी से कहा था, ‘ये तो काबुल फतह कर सोच रहे थे कि तालिबान वहाँ आएगा और पाकिस्तान का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा लेकिन वो तो हमारे ही गले पड़ गए हैं। विदेश नीति को समझने वालों के नज़रिया ही देखना चाहिए। आप कभी किसी ब्रिगेड के कमांडर थे तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको सब कुछ समझ में आ रहा होगा।’
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बानी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर क्रिस्टोफर क्लैरी ने लिखा है, ‘दशकों से अमेरिकी नीति निर्माता पाकिस्तान से कहते रहे कि तालिबान का समर्थन करने से शायद ही रणनीतिक रूप से फायदेमंद होगा। अब चीजें सामने आ रही हैं।’
अमेरिकी थिंक टैंक द विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टिट्यूट के निदेशक माइकल कुगलमैन ने भारत और तालिबान के बीच बढ़ते संपर्क पर लिखा है, ‘कोई यह कह सकता है कि तालिबान से भारत की बढ़ती करीबी अफगानिस्तान में पाकिस्तान को मात देने की कोशिश है। लेकिन इसका व्यावहारिक पक्ष भी है कि भारत नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी हमले के लिए हो।’
‘इसके अलावा भारत ईरान के चाबहार के ज़रिए अफगानिस्तान से संपर्क भी बढ़ाना चाहता है। भारत यहीं से मध्य एशिया भी पहुँचेगा। भारत की इसी कोशिश के दम पर वहां की जनता में भरोसा भी बढ़ेगा। पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान अफगानिस्तान में उसके विरोधियों को काबू में करे लेकिन तालिबान ऐसा करने के मूड में नहीं है और इसी का फायदा भारत को मिल रहा है। लेकिन भारत और तालिबान के संबंधों को पाकिस्तान के आईने में नहीं देखना चाहिए।’
भारत के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्द’ के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘2021 में भारत और तालिबान एक दूसरे से संपर्क बनाए रखना चाहते थे। इसके कई कारण हैं। भारत ने अफगानिस्तान में निवेश किया है और आतंकवाद पर भी चिंताएं हैं। पाकिस्तान फैक्टर भी अहम है। तालिबान चाहता है कि पाकिस्तान के दखल से मुक्त रहे और भारत के लिए यह मौका है। इसका मतलब यह नहीं है कि भारत तालिबान से संबंध सामान्य बनाने को लेकर कोई जल्दबाजी में है। यह अंतरराष्ट्रीय समझौते के बाद ही होगा। लेकिन भारत और तालिबान संपर्क बनाए रखेंगे और धीरे-धीरे नए अवसरों की तलाश करते रहेंगे।’
भारत से नाराजग़ी भी...
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित का कहना है कि अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की नीति बुरी तरह विफल रही है। इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
वो कहते हैं कि एक ही समय पर दोनों देशों के बीच कारोबार और संबंध बढ़ाने की बात होती है और ठीक उसी समय पर हमले भी हो रहे होते हैं।
अब्दुल बासित अफगानिस्तान से संबंध बिगडऩे के केंद्र में पाकिस्तान तालिबान (टीटीपी) को देखते हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान में आतंकवादी हमले बढ़े हैं और पाकिस्तान सरकार टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के खिलाफ कार्रवाई कर रही है लेकिन टीटीपी के सुरक्षित पनाहगाह अफगानिस्तान में हैं। इस तरह से ये पूरा मामला बेहद संवेदनशील हो जाता है।
अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल एबीएन न्यूज़ से कहा, ‘ये बड़ा संवेदनशील मामला है। अफगान तालिबान और पाकिस्तान तालिबान पूर्व में सहयोग करते रहे हैं। पाकिस्तान ये भी चाहता है कि काबुल के साथ उसके संबंध अच्छे हों, लेकिन ये हमले भी मजबूरी बन जाते हैं क्योंकि तालिबान सरकार पाकिस्तान तालिबान के खिलाफ कदम नहीं उठा रही है।’
अफगानिस्तान में तालिबान के साथ तालमेल न बैठा पाने के लिए राजनीतिक जानकार पाकिस्तान के सियासतदानों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
एक यूट्यूब चैनल से बातचीत में पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषक मोहम्मद आमिर राना ने कहा कि तालिबान जब सत्ता में आया तो उसको समझने में ग़लती हुई और पाकिस्तान ने ज़्यादा उम्मीदें लगा लीं।
उन्होंने कहा, ‘ग़लती ये हुई कि हमने हक्कानी की नजऱ से पूरे तालिबान को देखा कि हक्कानी हमारे हिमायती हैं। हमारे एसेट हैं तो ये हमें शायद मदद करेंगे। लेकिन ये नहीं हुआ।’
तालिबान से भारत के बढ़ते संपर्क को लेकर अफगान रिपब्लिक के डिप्लोमैट बहुत खफा हैं।
श्रीलंका, भारत और अमेरिका में रिपब्लिक और अफगानिस्तान के राजदूत रहे एम अशरफ़ हैदरी ने विक्रम मिस्री और तालिबान की मुलाक़ात पर कठोर शब्दों में लिखा है, ‘यह अफगानिस्तान की जनता, लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, अफगानिस्तान की विविधता, अफगान हिन्दू, सिख, यहूदी और एक राष्ट्र के साथ धोखा है, जिन्होंने 2021 से पहले भारत के लिए अंतहीन ख़ून बहाया है। पाकिस्तान की तरह भारत भी जल्दी या देरी से अपने ही मूल्यों और हितों से धोखे के लिए अफ़सोस करेगा।
अशरफ हैदरी ने लिखा है, ‘आप यह मत भूलिए कि तालिबान कहता है कि हिन्दुओं ने उसके भाइयों और बहनों के कश्मीर पर कब्जा कर रखा है और कश्मीर की आजादी के लिए वह लड़ेगा। आप यह भी मत भूलिए कि बमियान में बुद्ध की मूर्तियां तालिबान ने ही तोड़ी थीं और ये मूर्तियां हमारी संस्कृति के लिए संपदा थीं।’
भारत में रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के राजदूत रहे फरीद मामुन्दजई ने कहा है, ‘तालिबान सरकार के साथ कोई भी बातचीत उन लोगों को दरकिनार करके नहीं हो सकती, जो वहां लगातार अत्याचार के शिकार हो रही हैं। किसी भी बातचीत में महिलाओं को बच्चों के हितों को प्राथमिकता देनी होगी। वहां जो मानवीय संकट है उसे सुलझाना होगा। भारत वहां तालिबान के जुल्म को वैधता न दे।’ (bbc.com/hindi)
-संदीप राय
साल 2013 में नई नवेली आम आदमी पार्टी ने अपने पहले चुनाव में 70 में से 28 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था।
उस समय बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाई। लेकिन ये सरकार सिर्फ 49 दिनों तक चल पाई।
अरविंद केजरीवाल ने फरवरी 2014 में ये कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि ‘दिल्ली विधानसभा में संख्या बल की कमी की वजह से वो जन लोकपाल बिल पास कराने में नाकाम रहे हैं, इसलिए फिर से चुनाव बाद पूर्ण जनादेश के साथ लौटेंगे।’
2015 में जब चुनाव हुआ तो दिल्ली की राजनीति में इतिहास रचते हुए ‘आप’ ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं।
इस बात को एक दशक बीत चुके हैं।
दिल्ली में कथित शराब घोटाले में जेल से रिहा होने के बाद केजरीवाल ने पिछले साल सितंबर में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और एलान किया, ‘मैं सीएम की कुर्सी से इस्तीफ़ा देने जा रहा हूं और मैं तब तक सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा जब तक जनता अपना फ़ैसला न सुना दे।’
और केजरीवाल तबसे दिल्ली की जनता के बीच हैं, सभाएं कर रहे हैं, यात्रा निकाल रहे हैं और नई घोषणाएं कर रहे हैं, जिनमें ‘पुजारी ग्रंथी सम्मान योजना’ और ‘महिला सम्मान योजना’ चर्चा में हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि इस बार का चुनाव काफ़ी रोचक होने वाला है। जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना आंदोलन के बीच से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ, इसी मुद्दे पर बीजेपी केजरीवाल को घेरने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है।
बीजेपी ने अभी अपने पूरे उम्मीदवारों की सूची भी जारी नहीं की है लेकिन चुनाव प्रचार अभियान के लिए पार्टी ने अपने स्टार प्रचारक पीएम नरेंद्र मोदी को उतार दिया है और उन्होंने अपनी पहली ही चुनावी सभा में आम आदमी पार्टी पर आक्रामक हमला बोला।
पीएम मोदी ने आम आदमी पार्टी को ‘आप-दा’ कहा। बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री रहते हुए अरविंद केजरीवाल के आधिकारिक आवास को ‘शीशमहल’ बनाने के आरोप पुरजोर तरीके से लगाए जा रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि यह चुनाव इसलिए भी रोचक होने जा रहा है क्योंकि इसके नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे और सबसे ज़्यादा, आम आदमी पार्टी के भविष्य को तय करेंगे।
कड़ी टक्कर
बीते चार सालों में मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल, पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह की भी गिरफ़्तारी हुई। हालांकि ये सभी लोग ज़मानत पर बाहर हैं, लेकिन बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाया है और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक क्रूसेडर की ‘आप’ की छवि को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश की है।
राजनीतिक टिप्पणीकार और वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि बीजेपी इस चुनाव में अधिक आक्रामक है। इसकी वजह ये भी है कि पिछले दो चुनावों से इस बार उसकी स्थिति बहुत बेहतर है।
नीरजा चौधरी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘टक्कर सिर्फ आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच है। कांग्रेस कहीं पिक्चर में नहीं है और वह सिर्फ वोट कटवा होगी। इस चुनाव में केजरीवाल के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा है। बाकी पार्टियां हार भी जाएं तो उनका बहुत कुछ दांव पर नहीं है।’
लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की भूमिका दिलचस्प हो गई है। अगर बीजेपी तेजी से वोट शेयर का अंतर कम करती है तो कुछ सीटों पर जीत का फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहता है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘केजरीवाल की जीत में मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के बीच आम आदमी पार्टी की पैठ एक अहम कारक है। इसके अलावा महिला मतदाताओं का रुझान एक निर्णायक भूमिका निभाएगा। और केजरीवाल ने महिला सम्मान योजना की घोषणा कर उन्हें रिझाने की कोशिश की है।’
उन्होंने महाराष्ट्र चुनावों का उदाहरण दिया, जहां अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों से ठीक पहले छत्रपति शिवाजी महाराज की मूर्ति टूटने में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत उछला लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की ‘लाडक़ी बहीन योजना’ भारी पड़ी और महायुति गठबंधन ने भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की। जबकि महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज का मुद्दा बहुत भावनात्मक मुद्दा है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘राजनीतिक तौर पर केजरीवाल बहुत चतुर हैं। वह समय के साथ अपनी रणनीति बदलने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्होंने बीजेपी के नैरेटिव को जड़ नहीं पकडऩे दी। हालांकि मध्य वर्ग में उनका आधार कम हुआ हो सकता है लेकिन झुग्गी झोपड़ी और निम्न मध्यवर्गीय इलाक़ों में उनकी पकड़ अभी भी बरकऱार है और अपनी योजनाओं से उन्होंने इसे और मज़बूत ही किया है।’
वो यह भी कहती हैं कि बीजेपी और कांग्रेस की ओर से तमाम तीखे हमलों के बावजूद ‘यह चुनाव भी केजरीवाल के इर्द-गिर्द ही रहने वाला है।’
बीजेपी का आक्रामक प्रचार अभियान
बीजेपी भले ही बीते दो दशकों में दिल्ली की सत्ता पर काबिज नहीं हुई लेकिन इसके दौरान उसका वोट शेयर 32त्न से कम भी नहीं हुआ, बल्कि पिछले लोकसभा चुनाव में उसका वोट शेयर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के कुल वोट शेयर से अधिक ही रहा।
2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी को आठ सीटें मिली थीं और 2015 की तरह ही कांग्रेस को एक सीट भी नहीं मिल पाई।
2020 में बीजेपी को 38.51त्न वोट शेयर हासिल हुआ जो आम आदमी पार्टी के मुकाबले 15 प्रतिशत कम था। साल 2015 में यह अंतर 22 प्रतिशत से अधिक था।
वोट शेयर में कम होता अंतर और आठ महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर जीत, बीजेपी की उम्मीद की बड़ी वजहें हैं।
पीएम मोदी की आक्रामक एंट्री ने इस चुनाव को और रोचक बना दिया है।
दिल्ली की राजनीति पर नजऱ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘बीजेपी के चुनावी प्रचार अभियान की शुरुआत पार्टी के शीर्ष नेता पीएम नरेंद्र मोदी ने की है। उन्होंने आम आदमी पार्टी पर हमला किया है, यानी वह कांग्रेस को तो इस लड़ाई में गिन भी नहीं रहे हैं।’
हालांकि वो हैरानी जताते हैं, ‘आम आदमी पार्टी इतनी बड़ी चीज क्यों हो गई कि बीजेपी उसे हर हालत में हराना चाहती है!’
उनके अनुसार, ‘पीएम मोदी की ‘आक्रामक एंट्री’से यही लगता है कि बीजेपी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। लेकिन आम आदमी पार्टी का भी यही हाल है और उसने 20 से अधिक मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया समेत कई नेताओं की सीट बदल दी।’
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘इससे पता चलता है कि आम आदमी पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का डर है। जबकि बीजेपी की आक्रामकता की वजह है कि वह इस मौके पर नैरेटिव में छा जाना चाहती है और केजरीवाल के खिलाफ आरोपों को जनता के बीच फैला देना चाहती है।’
पीएम मोदी ने चुनावी तारीख़ें घोषित होने के पहले कई योजनाओं का शिलान्यास किया और दिल्ली को एक विश्वस्तरीय राजधानी बनाने का वादा किया।
इस तरह बीजेपी दो तरफा रणनीति अपना रही है, एक तरफ आप सरकार पर हमला और दूसरी तरफ विकास का नैरेटिव जनता में ले जाना।
कहां खड़ी है कांग्रेस?
दिल्ली में 1998 से 2013 तक 15 साल तक कांग्रेस थी। 2013 के चुनाव में भी वह तीसरी बड़ी ताक़त (आठ सीटें) थी और त्रिशंकु विधानसभा के चलते आम आदमी पार्टी (28 सीटें) को उससे हाथ मिलाकर सरकार बनानी पड़ी।
लेकिन उसके बाद से कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं जीत पाया, न तो 2015 में न 2020 में। कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिर कर 4.26त्न हो गया, जो कि 2015 में 10त्न से भी कम हो गया था।
दिल्ली में कांग्रेस के चुनावी प्रचार की अगुवाई संदीप दीक्षित कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का दोनों ही पार्टियों को फायदा नहीं मिला।
इसे लेकर कांग्रेस के अंदर भी मतभेद सामने आए। दिल्ली में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय माकन और संदीप दीक्षित इस गठबंधन के पक्ष में नहीं थे।
कहा यह भी जाता है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन की संभावना और कम हुई। अब कांग्रेस और आप अकेले बूते पर चुनावी मैदान में हैं।
विश्लेषक कहते हैं कि कांग्रेस इस चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश करेगी, लेकिन अभी उसकी तरफ़ से कोई ख़ास रणनीति सामने नहीं आई है।
बीते नवंबर में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा की तजऱ् पर कांग्रेस पार्टी की ओर से न्याय यात्रा शुरू की गई लेकिन ज़मीन पर ठंडी प्रतिक्रिया मिलने से कोई ख़ास माहौल नहीं बन पाया।
कांग्रेस के शीर्ष नेता अभी भी चुनाव प्रचार में नहीं उतरे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘संदीप दीक्षित मुखर हैं और आम आदमी पार्टी को लेकर हमलावर हैं लेकिन कांग्रेस दिल्ली में अपना कोई नैरेटिव नहीं खड़ा कर पा रही है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा लगता है, और ख़ासकर पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में, कि लोग चाहते हैं कि बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस कुछ काउंटर फोर्स के रूप में देश में उभरे।’
अगर ऐसा होता है तो कुछ दलित और अल्पसंख्यक वोट उसे ज़रूर मिल सकता है।
उनके अनुसार, ‘लेकिन समस्या ये है कि कांग्रेस का मनोबल इतनी जल्दी टूट जाता है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में जैसे ही हार मिली, उसके बाद से वे खुद को उठा नहीं पा रहे हैं।’
नीरजा चौधरी कहती हैं कि ‘कांग्रेस अधिक से अधिक दिल्ली में वोट कटवा की भूमिका निभाएगी।’
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी का जैसे जैसे आधार खिसका है, उसका काफी हिस्सा आम आदमी पार्टी ने लेने की कोशिश की है। इसलिए कांग्रेस के लिए ‘आप’ की चुनौती प्रमुख है और अगर नतीजे आप के पक्ष में नहीं आते तो कांग्रेस खुश ही होगी।’
‘आप’ का दिल्ली मॉडल
आंदोलन की कोख से पैदा हुई आम आदमी पार्टी जितने कम समय में एक बड़ी पार्टी बनी, वह एक मिसाल है। आज दो जगहों दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकार है। कई राज्यों में उसकी मौजूदगी है और उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल है।
लंबे समय से देश की राजनीति को देखने वाली नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘स्वतंत्र भारत के इतिहास में आम आदमी पार्टी से पहले भी कई पार्टियां आंदोलन के बीच से जन्मीं, लेकिन वैसी सफलता किसी को नहीं मिली।’
‘असम में आसू (ऑल असम स्टूडेंट यूनियन) ने असम गण परिषद बनाया। लेकिन यह असम तक सीमित रहा। 1977 के जेपी आंदोलन में भी पार्टी बनाने की कोशिश हुई, अंतत: कई पार्टियों को मिलाकर जनता पार्टी बनाई गई, जिसने इंदिरा गांधी को हराया। 1989 में वीपी सिंह के सामने भी नई पार्टी बनाने का सवाल आया लेकिन उन्हें लगा कि यह मुश्किल काम है इसलिए सभी गैर कांग्रेसी पार्टियों को इक_ा किया और राजीव गांधी को हराया और प्रधानमंत्री बने।’
वो कहती हैं, ‘केजरीवाल ने न केवल पार्टी बनाई बल्कि उसे देशभर में ले गए। दिल्ली में वह चौथी बार चुनाव लड़ रहे हैं। अगर वह जीतते हैं तो राष्ट्रीय फलक पर उनकी भूमिका बढ़ेगी।’
केजरीवाल के लिए दिल्ली अपनी राजनीति को देशव्यापी बनाने का ‘स्प्रिंगबोर्ड’ साबित हुआ है लेकिन ‘दिल्ली मॉडल’ की छवि उन्होंने बहुत सावधानी से बनाई है।
दिल्ली के बजट में स्वास्थ्य और शिक्षा पर ख़र्च सबसे अधिक है, आप सरकार इसका श्रेय लेती भी है। मुख्यमंत्री आतिशी ने बीते अगस्त में कहा था दिल्ली सरकार ने शिक्षा पर बजट का सर्वाधिक 25 फीसद आबंटित किया, ऐसा करने वाला यह पहला राज्य है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘शिक्षा, स्वास्थ्य, फ्ऱी बिजली-पानी या अन्य सुविधाएं जैसे महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा जैसे लोकप्रिय कदमों से दिल्ली मॉडल की छवि बनी।’
वो कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी के पास ये कहने को है कि हमने आम लोगों को ये सुविधाएं दीं और हमें हराने वाले चाहते हैं कि ये सुविधाएं बंद हों। ये चीज़ें उसे लोकप्रिय बनाने में मदद करती हैं और यह उनका एक मज़बूत हथियार है।’
हालांकि भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे हैं, उससे एक धारणा टूटी है कि ‘नई रीति नीति और एक नई राजनीति’ लाने का दावा करने वाली ‘आप’ इन सालों में दूसरी पार्टियों जैसी ही बन गई है।
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री आवास की साज सज्जा के बारे में जो ऑडिट रिपोर्ट आई है, उससे कोई भ्रष्टाचार साबित तो नहीं होता लेकिन इससे ये ज़रूर पता चलता है कि जो लोग बहुत सीधे साधे तरीके से बिना गाड़ी बंगला के रहना चाहते थे और देश की व्यवस्था को सुधारना चाहते थे, वे पाखंडी साबित हुए।’
दिल्ली के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे
आम आदमी पार्टी विपक्षी इंडिया गठबंधन का हिस्सा है और गठबंधन की एकमात्र पार्टी है जिसकी एक से अधिक राज्य में सरकार है।
इस गठबंधन की अगुवा पार्टी कांग्रेस से केजरीवाल के संबंध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं, हालांकि इस ब्लॉक के अन्य नेताओं से उनकी कऱीबी ने कांग्रेस को पशोपेश में डाल रखा है।
बीते दिनों जब ममता बनर्जी ने गठबंधन के नेतृत्व पर दावा ठोंका तो आम आदमी पार्टी ने इसका समर्थन किया। कांग्रेस को छोडक़र गठबंधन के अन्य नेताओं से केजरीवाल के रिश्ते अच्छे हैं।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘आम आदमी पार्टी की दिल्ली में जीत का राष्ट्रीय राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। ममता बनर्जी की मांग का केजरीवाल समर्थन करेंगे। शरद पवार, लालू यादव पहले ही ममता के नेतृत्व का समर्थन करने की बात कह चुके हैं। ऐसे में गठबंधन में क्षेत्रीय पार्टियों के मुकाबले कांग्रेस की मुश्किल बढ़ जाएगी।’
‘आम आदमी पार्टी चौथी बार जीतती है तो केजरीवाल का राष्ट्रीय राजनीति में कद और बढ़ेगा। जनता की नजर में उन्हें राष्ट्रीय नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जाने लगेगा।’
वो कहती हैं, ‘इसी साल के अंत में बिहार में चुनाव होने वाले हैं। दिल्ली के नतीजों का राजद और कांग्रेस के बीच गठबंधन के समीकरण पर भी असर होगा। लेकिन अगर आम आदमी पार्टी हारती है तो उसके लिए यह विनाशकारी साबित हो सकता है।’
नीरजा चौधरी के मुताबिक, ‘चौतरफा मुश्किलों में घिरी आम आदमी पार्टी के लिए हार अस्तित्व का संकट बन जाएगा। क्योंकि ऐसी स्थिति में पार्टी टूट फूट का शिकार होकर बिखराव की ओर जा सकती है।’
हालांकि जीत के बाद भी केजरीवाल के फिर से मुख्यमंत्री बन पाने में संशय है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की जमानत की शर्त में मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करने पर कई बंदिशें लगाई गई हैं। फिर सवाल उठेगा कि क्या आतिशी ही मुख्यमंत्री बनेंगी या कोई और। (bbc.com/hindi)
पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक़ डार अगले महीने बांग्लादेश के दौरे पर जाएंगे।
पाकिस्तानी मीडिया में कहा जा रहा है कि पिछले साल अगस्त महीने में बांग्लादेश से भारत समर्थक सरकार के हटने के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश की करीबी बढ़ रही है।
2012 के बाद बांग्लादेश में किसी भी पाकिस्तानी विदेशी मंत्री का यह पहला दौरा होगा। पिछले गुरुवार को डार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि बांग्लादेश के विदेश मंत्री के आमंत्रण पर वह अगले महीने फऱवरी में दौरा करेंगे।
डार ने इस बात की भी पुष्टि की थी कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस ने पाकिस्तान आने का न्योता स्वीकार कर लिया है और दोनों देशों की सहमति से दौरे की तारीख़ की घोषणा की जाएगी।
हिना रब्बानी खार पाकिस्तान की आखऱिी विदेश मंत्री थीं, जो नवंबर 2012 में डी-8 समिट में हिस्सा लेने ढाका गई थीं। हिना रब्बानी खार का यह दौरा सिफऱ् पाँच घंटे का था।
डार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा था कि पाकिस्तान बांग्लादेश को हर संभव मदद करेगा। हालांकि बांग्लादेश ने पाकिस्तान से किसी तरह की मदद मांगी नहीं थी। इसके बावजूद डार ने बांग्लादेश को मदद की पेशकश की है।
डार की पेशकश पर सवाल उठ रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि पाकिस्तान की तुलना में बांग्लादेश के पास विदेशी मुद्रा भंडार ज़्यादा है, आर्थिक वृद्धि दर ज़्यादा है, निर्यात ज़्यादा है तो मदद क्या मिलेगी?
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल एबीएन से बात करते हुए कहा, ‘मुझे लगता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान वाली ग़लती बांग्लादेश में ना करे। इसहाक डार ने बांग्लादेश को लेकर जो कहा, उस पर मुझे सख्त आपत्ति है।’
‘डार ने बांग्लादेश का जिक्र करते हुए कहा कि वह उसे तरह की मदद करने के लिए तैयार हैं। ‘मदद करने के लिए तैयार हैं’ जैसी भाषा को डिप्लोमैसी में ख़ुद को सुपरियर दिखाने के रूप में देखा जाता है। पहले तो यही बताना चाहिए क्या बांग्लादेश ने हमसे मदद मांगी है?’
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे
अब्दुल बासित ने क्या कहा?
अब्दुल बासित ने कहा, ‘पाकिस्तान से बांग्लादेश कई मोर्चों पर आगे है। बांग्लादेश की जीडीपी पाकिस्तान से बेहतर है। प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान से बेहतर है। सबसे अहम बात तो यह है कि बांग्लादेश ने कोई मदद मांगी ही नहीं है। ऐसे में आप मदद की पेशकश क्यों कर रहे हैं?’
बासित ने कहा, ‘इसी चीज़ को बेहतर भाषा में कहा जा सकता था कि पाकिस्तान बांग्लादेश के साथ हर मोर्चे पर साथ मिलकर काम करना चाहता है। डिप्लोमैसी में बात ऐसे होती है। मुझे नहीं मालूम कि उन्हें कौन ऐसी स्क्रिप्ट लिखकर दे रहा है। इन्हें जानना चाहिए कि बांग्लादेश के लोग बहुत ही ग़ैरतमंद हैं। बांग्लादेश के लोगों ने पाकिस्तान बनाया था। मुझे लगता है कि पाकिस्तान को बांग्लादेश के मामले में थोड़ा एहतियात से काम लेना चाहिए।’
अब्दुल बासित ने कहा, ‘अफगानिस्तान को हमने जिस तरह से हैंडल किया है, उस पर शर्म आती है। ऐसी ग़लती हमें बांग्लादेश के साथ नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान के बांग्लादेश से संबंध अच्छे हो रहे हैं, इसमें पाकिस्तान की कोई मेहनत नहीं है। शेख़ हसीना को वहाँ के लोगों ने हटा दिया, इसलिए पाकिस्तान को बढ़त मिल गई है।
बासित ने कहा, ‘अफग़़ानिस्तान में तालिबान के आने पर हमने जश्न मनाया था लेकिन इसका क्या हुआ?इसीलिए बांग्लादेश के मामले में हमें बहुत ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है। हमें बांग्लादेश के साथ ताल्लुकात को भारत के लेंस से नहीं देखना चाहिए। सार्क को लेकर बांग्लादेश उत्साहित है। लेकिन भारत के बिना सार्क को सक्रिय नहीं किया जा सकता है।’
अब्दुल बासित ने कहा, ‘बांग्लादेश के मामले में हमें धीरे-धीरे और संभलकर आगे बढऩा चाहिए। संभव है कि बांग्लादेश की सरकार जनभावना के कारण भारत को लेकर आक्रामक हो। इसलिए हमें बहुत जल्दीबाज़ी में नहीं रहना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान को अवसर मिला है और इस अवसर को अफगानिस्तान की तरह गँवाए ना।’
पाकिस्तान में बांग्लादेश की विदेश नीति पर बहस
पाकिस्तानी मीडिया में बांग्लादेश को लेकर ख़ासा उत्साह देखने को मिल रहा है। इस उत्साह की सबसे बड़ी वजह ये है कि भारत और बांग्लादेश के संबंधों में कड़वाहट आई है।
पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार नजम सेठी ने पाकिस्तानी न्यूज चैनल समा टीवी से कहा, ‘बांग्लादेश की विदेश नीति को लेकर बहस हो रही है। इसमें बात की जा रही है कि नई नीति में भारत की क्या भूमिका होगी और पाकिस्तान का क्या रोल होगा। मोहम्मद युनूस ने सार्क को जिंदा करने के लिए कहा है। मोहम्मद युनूस को लगता है कि सार्क को जि़ंदा कर दक्षिण एशिया में पाकिस्तान और बाक़ी देशों के साथ भारत को अलग-थलग किया जा सकता है। ये पहली दफ़ा है कि पाकिस्तान तो भारत विरोधी था ही लेकिन बाक़ी के पड़ोसियों में भी ये भावना बढ़ी है।’
नजम सेठी ने कहा, ‘ज़ाहिर है, भारत को तकलीफ़ हो रही है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच व्यापार शुरू हो रहा है। पाकिस्तान व्यापार समुद्र या हवाई मार्ग से ही कर सकता है। हवाई मार्ग से करने के लिए भारत के एयर स्पेस का इस्तेमाल करना होगा। दोनों देशों के बीच हवाई सेवा भी शुरू हो रही है लेकिन इसके लिए पैसेंजर भी तो होने चाहिए। ज़ाहिर है कि इसमें वक़्त लगेगा। बांग्लादेश में एक सोच बन रही है कि भारत तमाम तनाव के बावजूद पाकिस्तान से एक अरब डॉलर से ज़्यादा का कारोबार कर रहा है तो हम क्यों नहीं कर सकते हैं। अब ये सारे तथ्य सामने आ रहे हैं।’
नजम सेठी ने कहा, ''पाकिस्तान के लोग टेक्सटाइल उद्योगपति बांग्लादेश में अपना प्लांट लगाना चाह रहे हैं। बांग्लादेश में पाकिस्तान के कारोबारियों को आधारभूत संरचना मिलेगी और अपना कारोबार बढ़ा सकते हैं। यहाँ बिजली और श्रम दोनों सस्ते हैं। दूसरी तरफ बांग्लादेश चाहता है कि पाकिस्तानी आर्मी बांग्लादेश की आर्मी को ट्रेनिंग दे। ऐसे में भारत बहुत डरा हुआ है। बांग्लादेश की आर्मी पाकिस्तान से ट्रेनिंग लेगी तो भारत विरोधी होगी। ज़ाहिर है कि ट्रेनिंग से विचार भी बदलेगा। पाकिस्तान की सोच है कि अब उसे बांग्लादेश के ज़रिए भारत को निशाना बनाने का मौका मिलेगा। इसहाक़ डार इन्हीं चीज़ों पर मुहर लगाने जा रहे हैं।’
बांग्लादेश के लोगों में पाकिस्तान को लेकर भावना स्थायी या अस्थायी?
एजाज अहम चौधरी पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट हैं और उन्होंने हाल ही में बांग्लादेश का दौरा किया था।
पाकिस्तान के डॉन टीवी से अपना अनुभव साझा करते हुए एजाज अहमद ने बताया, ‘दो साल पहले जब मैं ढाका गया था तो एयरपोर्ट से निकलते ही शेख़ मुजीब-उर रहमान हर जगह दिखते थे लेकिन इस बार उनका नामोनिशान नहीं था। यानी शेख़ हसीना को लेकर बहुत ग़ुस्सा था। दूसरी तरफ़ हिन्दुस्तान को लेकर भी मुझे भारी नाराजग़ी वहां दिखी। मैं बे ऑफ बंगाल कन्वर्सेशन में गया था। उस सेशन के दौरान हॉल में एक युवा बांग्लादेशी लडक़ी ने कहा कि आप ट्रंप की नीति की बात न करें बल्कि मोदी की नीति की बात करें, जिन्होंने हमारी जनसंहारक प्रधानमंत्री को जगह दे रखी है।’
एज़ाज़ चौधरी ने कहा, ‘तीसरा रूझान मुझे दिखा कि बांग्लादेश में पाकिस्तान को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल था। 1971 को लेकर कोई नाराजग़ी नहीं दिखी। दो साल पहले भी लोग पाकिस्तान से प्रेम दिखाते थे लेकिन शेख़ हसीना सरकार से डरते थे। लेकिन अब लोग खुलकर बोल रहे हैं। बांग्लादेश के लोग कहते थे कि पाकिस्तान जाने का ठप्पा पासपोर्ट पर लगता था तो फिर हिन्दुस्तान का वीज़ा नहीं मिलता था।’
एज़ाज़ अहमद से पूछा गया कि बांग्लादेश के लोगों में पाकिस्तान को लेकर जो अभी जज़्बा दिख रहा है वो अस्थायी है या स्थायी है?
इस सवाल के जवाब में एज़ाज़ चौधरी ने कहा, ‘ये सवाल बहुत वाजिब है। ढाका ट्रिब्यून में एक लेख पढ़ रहा था कि जिसमें लिखा था कि बांग्लादेश में हिन्दू 9 प्रतिशत हैं लेकिन सरकारी नौकरी में वे 15 फ़ीसदी हैं। हम अभी से ये नहीं कह सकते हैं कि शेख़ हसीना की अवामी लीग़ ख़त्म हो गई है। अब भी है। बांग्लादेश तीन तरफ़ से भारत से घिरा है। ऐसे में उसे भारत के प्रभाव से निकलना आसान नहीं होगा। मेरा भी मानना है कि पाकिस्तान को लेकर यह जज़्बा अभी अस्थायी है।’
बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन मानती हैं कि शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बांग्लादेश में पाकिस्तान को लेकर उत्साह बढ़ा है।
तसलीमा नसरीन ने लिखा है, ‘कुछ महीने पहले बांग्लादेश में बांग्ला बोलने वाले पाकिस्तान समर्थकों ने मोहम्मद अली जिन्ना की पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि दी थी। उसके बाद जिन्ना की जयंती मनाई गई। बांग्लादेश में अचानक जिन्ना प्रेम क्यों बढ़ा है? सच यह है कि जिन्ना प्रेम कोई नया नहीं है बल्कि शुरू से ही था।’
‘बांग्ला बोलने वाले ये मुसलमान व्यापक इस्लामी दुनिया की सोच से संचालित होते हैं। मैं जानबूझकर इन्हें बांग्ला बोलने वाला कहती हूं, न कि बंगाली क्योंकि हर बांग्ला बोलने वाला व्यक्ति बंगाली नहीं हो सकता है। जो सच्चा बंगाली होगा, वह बंगाली संस्कृति से प्रेम करेगा।’ (bbc.com/hindi)
A Painful Memory of a Fellow Journalist
-Dipankar Ghosh
For two days, words have failed me. How do you begin to write a tribute to a journalist, a friend, a brother? What memories do you choose? How do you describe him when nothing really contains him?
The first time I met Mukesh Chandrakar was in December 2015, weeks after I had landed in Chhattisgarh as the Indian Express correspondent in the state. There was a story in Bastar, and I had reached Bijapur, one of India's most dangerous places to report, with very little to go on. There I was, at the district headquarters, in a run-down press club building among a group of journalists eyeing me suspiciously. The suspicion of "national journalists" is warranted. Very often, we climb on the shoulders of our regional colleagues, leave them to danger, or worse forget we ever knew them. The story spot was deep inside the forests, some 80 kilometres away. Impossible to access without help.
I asked loudly, sheepishly, if someone would come with me tomorrow. By come with me, I meant take me. In that moment, I was helpless. There was only one voice that said "Haan, kal chalenge aapke saath."
I went back to the relative comfort of my hotel in Jagdalpur. Mukesh went to the mechanic shop to repair his motorcycle for what lay ahead. The next day, at the agreed 5 am, we met at the Bijapur bus stop(there was no phone network except BSNL in Bastar in 2015), and set off. Me on the back of his bike. He was young, but he was my first teacher in Bastar. He taught me the dangers of relieving yourself on the sides of a freshly laid road, because that's where an IED would be. He taught me to stand up on the back of a bike to ensure that your muscles don't spasm under duress. We navigated paved roads, and then unpaved roads, and then no roads. Carried the motorcycle across streams. Waded through mud. He told me how to navigate a complicated world of hostile police, hostile Maoists, and beleaguered people. I was doing all this for my story. He too was doing all this for my story.
The piece appeared. It was an important story, and the state took note. I was congratulated for my work. The byline said my name, not his. I worked for the Indian Express, he didn't. For four and a half years, Mukesh did this over and over again. Not just for me, but for many others. It was on his back that stories of Bastar, of state-Maoist violence, of people were ever told.
For me, Mukesh was the personification of bravery. I'm not going to pretend that in a universe where media organisations he worked for didn't even pay for his petrol let alone a stable salary, sustenance wasn't a problem, and therefore some wires weren't crossed. But Mukesh loved journalism with a passion. When he was with you, nothing was impossible. He was always compassionate to people he reported on, always empathetic.
He was rooted in Bastar, but not limited by it. After a decade of jumping from one channel to the other, he realised organisations would never truly value its ground reporters in the region. He recognized the power of technology, and became an enterpreneur--starting Bastar Junction, a YouTube channel that at last count has 162 thousand followers. Go to YouTube now and watch his videos, and you will find more journalism than screaming television studios can ever offer. He reported and wrote from spots of attacks, crossed forests and mountains to get to victims of violence, reported from police camps, and from Naxal camps. If one core principle of journalism is to inform, to reach new areas, to give voice to the voiceless, journalists like Mukesh are peerless.
Journalism in Bastar has risks, and he bore them all. Getting to a spot is more physically arduous, more dangerous than most can imagine. Maoists threatened his life several times; the state threatened him when he exposed excess. He was often bullied by his own Bijapur fraternity for helping "national journalists" but he never, ever wavered. It was him, and my other dear friend Ganesh Mishra, who risked their lives and went deep into the forests to rescue a CRPF Jawan abducted by Maoists.
But Bastar claimed him. On December 24, Mukesh helped report a story of a road in Bijapur, being built at great cost, but with shoddy material and obvious corruption. The story caused an enquiry. A week later, one day after the new year, Mukesh was found dead, buried inside a septic tank in the home of the contractor that built that road.
The last time I met him was during the Chhattisgarh elections, when I spent the day with him, Ganesh Mishra. We reported, talked and laughed for hours. And then Mukesh took me home because he had cooked some lunch himself. We laughed and lamented my distance from Bastar, and friends like the two of them. His last message to me, in October, had the words "Pata nahi kab mulakat hogi, par mulakat ka intezaar humesha rahega." I told him, "jald hogi mulakat."
How does one begin to remember him? As a journalist? As a bridge to Bastar? As the voice of those that would never be heard otherwise? Remember him as them all. He was them all. To me, he was my friend, my brother--Mukesh Chandrakar. Go well, Bhai. Mulaqaat ka humesha intezaar rahega.
-हिमांशु दुबे और अभय सिंह
कनाडा चर्चा में है। कारण हैं वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो। उन्होंने सोमवार (स्थानीय समय के मुताबिक़) को सत्ताधारी लिबरल पार्टी के नेता पद और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
ट्रूडो ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने इस्तीफ़े की घोषणा की। उन्होंने कहा कि वो पार्टी के नेता के तौर पर इस्तीफ़ा देते हैं और अगला नेता चुने जाने के बाद वो पीएम पद छोड़ देंगे।
वैसे पीएम जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफ़ा देने का भारत पर क्या असर पड़ेगा? क्या भारत को इससे ख़ुश होना चाहिए? लिबरल पार्टी का नया नेता भारत के लिए कैसा साबित होगा?
ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी हिंदी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक मामलों के जानकारों से बातचीत की। विशेषज्ञ मानते हैं कि जस्टिन ट्रूडो के हटने से संबंध बेहतर होने की उम्मीद है।
क्या भारत को ख़ुश होना चाहिए?
ये बिलकुल स्पष्ट था कि जब तक ट्रूडो कनाडा के प्रधानमंत्री बने रहेंगे, तब तक भारत-कनाडा के संबंधों में नया मोड़ जिसकी ज़रूरत है, वो नहीं आ पाएगा।’
यह कहना है प्रोफ़ेसर हर्ष वी। पंत का, जो नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं।
उन्होंने कहा, ‘ट्रूडो ने इसे निजी तौर पर ले लिया था और जिस तरह की संजीदगी इस मुद्दे पर चाहिए थी, वो नहीं दिखा रहे थे। उससे दोनों देशों के बीच के संबंधों में काफ़ी नुक़सान हुआ।’
दरअसल, जस्टिन ट्रूडो पिछले कुछ समय से भारत विरोधी बयानबाज़ी कर रहे थे। इस बीच, कनाडा ने स्टूडेंट वीज़ा से जुड़ा एक फ़ैसला लिया था, जिससे भारतीय स्टूडेंट्स की दिक्कतें बढ़ गई थीं।
यही वजह है कि भारत और कनाडा के बीच तनाव देखने को मिल रहा है।
वॉशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर थिंक टैंक में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन भी भारत और कनाडा के संबंधों को लेकर यही राय रखते हैं।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘ट्रूडो का इस्तीफ़ा भारत-कनाडा के बिगड़ते संबंधों को स्थिर करने का मौका दे सकता है।’
‘नई दिल्ली ने द्विपक्षीय संबंधों में गहराई तक फैली समस्याओं के लिए सीधे तौर पर ट्रूडो को जि़म्मेदार ठहराया है। हाल के वर्षों में कनाडा एकमात्र पश्चिमी देश है, जिसके भारत के साथ संबंध लगातार खऱाब हुए हैं।’
क्या अब बदलेंगे कूटनीतिक संबंध?
तो क्या अब बदल जाएंगे भारत और कनाडा के कूटनीतिक संबंध? इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं कि जब भी इस तरह का बदलाव होता है, तो बदलाव की उम्मीद तो होती है।
उन्होंने कहा, ‘जब नया प्रशासन आएगा, वो नई शुरुआत करेगा। और नए प्रधानमंत्री और नए प्रशासन से एक नई उम्मीद तो रहती है। लेकिन, यह ज़रूर है कि लिबरल पार्टी की भी अपनी चुनौतियाँ हैं।’
‘अक्टूबर में चुनाव होने हैं। तो चुनावों में तो काफ़ी समय है। और लिबरल पार्टी की जो सीटें हैं, उसमें भी कई ऐसे नेता हैं, जो सिख कम्युनिटी से आते हैं।’
‘और जो रेडिकल सिख कम्युनिटी बिहेवियर को सपोर्ट करते रहे हैं। तो मुझे लगता है कि कोई इतनी बड़ी उम्मीद करना, थोड़ा अस्वाभाविक बात होगी।’
‘जब तक चुनाव नहीं हो जाते, तब तक मुझे लगता है कि यह समस्या बनी रहेगी। क्योंकि, लिबरल पार्टी को तो अपनी सीटों को बनाकर रखना पड़ेगा, फिर चाहे ट्रूडो लीड करे या कोई और लीड करे।’
भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल की राय भी कुछ ऐसी ही है। उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘ट्रूडो ने अपने इस्तीफे का ऐलान कर दिया, जो अच्छी बात है।’
‘उन्होंने अपनी ग़ैर-जि़म्मेदार नीतियों से भारत-कनाडा संबंधों को नुक़सान पहुंचाया। लेकिन, कनाडा में सिख उग्रवाद की समस्या ख़त्म नहीं होगी, क्योंकि इन तत्वों ने कनाडा की राजनीतिक प्रणाली में गहरी पैठ बना ली है।’
क्या कंजर्वेटिव के आने से बेहतर होंगे रिश्ते?
ऐसे में सवाल उठता है कि कनाडा में अगर कंजर्वेटिव पार्टी का नेता प्रधानमंत्री बनता है तो क्या उसका व्यवहार भारत के लिए अलग होगा?
प्रोफेसर पंत कहते हैं, ‘बिल्कुल, मुझे लगता है कि ऐसा होगा। क्योंकि, ट्रूडो से पहले आप स्टीफन हार्पर की बात करें, जो एक कंज़र्वेटिव कार्यकाल था, तब भारत-कनाडा के संबंधों ने एक नया आयाम लिया था।’
‘ट्रूडो के आने से बिल्कुल पहले, प्रधानमंत्री मोदी वहां गए थे। तब स्टीफन हार्पर वहां के प्रधानमंत्री थे। और दोनों देशों के बीच एक बहुत बड़ी साझेदारी का खाका तैयार किया गया था।’
‘फिर ट्रूडो आए। उन्होंने अपने हिसाब से चीज़ें कीं, जिसका नुकसान भारत-कनाडा संबंधों को हुआ। मुझे लगता है कि कंजर्वेटिव आते हैं, तो भारत-कनाडा के संबंधों को फायदा होना चाहिए।’
हालांकि, प्रोफे़सर पंत का यह भी कहना है कि ऐसा मानना कि जो समस्याएं हैं, उनको पूरी तरह से दरकिनार कर दिया जाएगा, तो ऐसा नहीं होगा।
उन्होंने कहा, ‘ये समस्याएं तो बनी रहेंगी। लेकिन, उस समस्या को किस तरह से हैंडल किया जाता है, वो महत्वपूर्ण है। खासतौर पर उन देशों के लिए, जो खुद को स्ट्रेटेजिक पार्टनर कहते हैं।’
क्या ट्रूडो की विदेश नीति ने खेल बिगाड़ा?
क्या ट्रूडो की विदेश नीति उन पर भारी पड़ गई? इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर पंत ने कहा कि देखिए, इनका (ट्रूडो) जो राजनीतिक पतन हुआ, वो अंदरूनी कारणों से ही होता है।
उन्होंने कहा, ‘यह जरूर है कि जब इनको लगा कि मैं राजनीति में कमजोर हो रहा हूं, तो इन्होंने कोशिश की कि विदेश नीति में कुछ नया किया जाए। जैसे- पहले इन्होंने भारत के साथ तनातनी की।’
‘फिर हाल ही में इन्होंने कहा कि मैं ट्रंप से मिलूंगा। कोशिश करूंगा कि ये टैरिफ कम हो जाएं। तो उसका नतीजा भी हमको देखने को मिला कि किस तरह से यह उन पर भारी पड़ा।’
पंत ने कहा, ‘मुझे ऐसा लगता है कि ट्रूडो जिस तरह से विदेश नीति के मामले में फ़ेल हुए, इस बात ने कनाडा के मतदाताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि फिलहाल ये नेतृत्व और प्रधानमंत्री हमारे लिए सही नहीं हैं।’
पिछले कुछ समय से जस्टिन ट्रूडो को कनाडा में विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ अपनी पार्टी के नेताओं से भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है।
इसका एक प्रमाण कनाडा की उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड का प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से टकराव के बाद पद छोडऩा भी माना जा सकता है।
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी भी जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफे को लेकर कुछ ऐसी ही राय रखते हैं।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘कनाडा की तीन अहम दिक्कतें ‘टी’ से शुरू होती हैं- ट्रूडो, टेररिज़्म (जिसका सबसे बड़ा उदाहरण एयर इंडिया बम विस्फोट है), और टैरिफ़।’
‘अब ट्रंप के टैरिफ़ की धमकी ने लगभग एक दशक तक सत्ता में रहने के बाद ट्रूडो को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया है।’
इस्तीफा देने के बाद क्या बोले ट्रूडो?
जस्टिन ट्रूडो ने इस्तीफ़ा देने के बाद कहा, ‘प्रधानमंत्री के रूप में हर एक दिन सेवा करना मेरे लिए गर्व की बात रही। हमने महामारी के दौरान सेवा की, मज़बूत लोकतंत्र के लिए काम किया, बेहतर कारोबार के लिए काम किया। आप सभी को पता है कि मैं फाइटर हूं।’
उन्होंने कहा, ‘2015 में जब से मैं प्रधानमंत्री बना, तब से कनाडा और इसके हितों की रक्षा के लिए काम कर रहा हूँ। मैंने मध्य वर्ग को मज़बूत करने के लिए काम किया। देश को महामारी के दौरान एक दूसरे का समर्थन करते देखा।’
हालांकि, प्रोफे़सर पंत ने कहा कि यह तो कई समय से चल रहा था कि ट्रूडो को जाना पड़ेगा। यह लिबरल पार्टी के लिए ज़रूरी था। यह कनाडाई राजनीति के लिए ज़रूरी था।
उन्होंने कहा, ‘वहां (कनाडा में) एक तरह से असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। मुझे लगता है कि भारत और कनाडा के संबंधों के लिए भी यह ज़रूरी था।’
‘क्योंकि यह माना जा रहा था कि जितने लंबे समय तक ट्रूडो सत्ता में बने रहेंगे, तो भारत और कनाडा के संबंधों में बदलाव नहीं आ सकता।’
‘उनके जाने के बाद देखना होगा कि भारत और कनाडा के संबंधों में बदलाव कितने जल्दी आते हैं।’
कैसे बिगड़े भारत-कनाडा के रिश्ते?
जून 2023 में 45 साल के ख़ालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की कनाडा के वैंकूवर के पास बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इस हत्या के पीछे भारत का हाथ होने का आरोप लगाया था। इसके बाद भारत और कनाडा के रिश्तों में तनाव बढ़ता चला गया।
फिर अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने सूत्रों के हवाले से लिखा था कि भारत के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कनाडा में सिख अलगाववादियों के खिलाफ अभियान के ऑर्डर दिए थे।
29 अक्टूबर, 2024 को कनाडा की सरकार के उप विदेश मंत्री डेविड मॉरिसन ने देश की नागरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा कमेटी को बताया कि भारत सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ने कनाडाई नागरिकों को धमकी देने या उनकी हत्या के अभियान को मंजूरी दी थी। इसके बाद यह मामला और भी ज़्यादा बिगड़ गया था।
दरअसल, कनाडा में ख़ालिस्तान समर्थकों की ओर से भारत विरोधी प्रदर्शनों का होना और खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद भारत और कनाडा के रिश्तों में तनाव लगातार बढ़ा है।
कनाडा का आरोप है कि ख़ालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत का हाथ है, जबकि भारत इससे इनकार करता रहा है।
भारत और कनाडा के बीच का कारोबार
भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, पिछले वित्तीय वर्ष (2023-2024) में 31 मार्च तक कनाडा और भारत का द्विपक्षीय व्यापार 8।4 अरब डॉलर का था।
भारत विशेष तौर पर कनाडा में रत्न, ज्वेलरी, महंगे पत्थर, दवाइयां, रेडीमेड कपड़े, ऑर्गेनिक केमिकल और लाइट इंजीनियरिंग गुड्स निर्यात करता है।
वहीं, कनाडा से भारत दाल, न्यूज़प्रिंट, वुड पल्प, एस्बेस्टस, पोटाश, आइरन स्क्रैप, कॉपर और इंडस्ट्रियल केमिकल आयात करता है।
नेशनल इन्वेस्टमेंट प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन एजेंसी (इन्वेस्ट इंडिया) के अनुसार, भारत में विदेशी निवेशकों में कनाडा 18वें नंबर पर है।
2020-21 से 2022-23 में कनाडा का भारत में कुल निवेश 3।31 अरब डॉलर था। वैसे, कनाडा का यह निवेश भारत के कुल एफड़ीआई का आधा प्रतिशत ही है। (bbc.com/hindi)
-सतीश जायसवाल
महाराष्ट्र के लोकनृत्य ‘लावणी’ को कुलीन समाज में प्रतिष्ठा की जगह देर से मिली। इन दिनों उसका क्रेज है।‘ लावणी’ का यह क्रेज लोक मंच से निकलकर भव्य मंडपों और नृत्य समारोहों में दिखने लगा है।
‘लावणी’ को इन दिनों के ‘क्रेज’ से अलग, उसके विकास क्रम में देखने के लिए भी यह उपयुक्त समय है।
महाराष्ट्र की यह लोकनृत्य परम्परा अब अपनी क्षेत्रीय पहचान से आगे निकलकर भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा में अपनी जगह बनाने के लिए उत्सुक्त दिखती है।
‘लावणी’ के लिए ‘नौवारी’ साड़ी अनिवार्य है। एक तरह से ‘लावणी’ का एक हिस्सा। लेकिन महाराष्ट्र के एक बड़े हिस्से में यह ग्रामीण स्त्रियों का सहज पहनावा है।
इन दिनों ‘लावणी’ की तरह ही, यह ‘नौवारी’ साड़ी भी शहरी युवतियों के लिए ‘फैशन क्रेज’ होती जा रही है।भव्य समारोहों में अलग से दिखती है। लेकिन ‘नौवारी’ साड़ी पहनना आसान नहीं होता।
एक तो नौ गज की उसकी लम्बाई को सम्हालना।फिर बीच में से काष्टा मारकर दोनों पांवों को अलग अलग ढांकना। शहरी युवतियों के लिए यह बहुत आसान नहीं होता।
आज सुबह की सैर में ‘नौवारी’ साड़ी का वैभवशाली सौंदर्य अनायास ही देखने मिल गया।
गोरेगांव स्टेशन पर एक नव वधू ‘बायको’ (स्त्री) अपने परिवार के साथ अभी अभी किसी लोकल ट्रेन से उतरी।शायद अपने पति के साथ उसके गांव जा रही थी।
उसके परिवार के लोगों ने वहीं, स्टेशन से बाहर की भीड़ में दोनों की आरती उतारी और हल्दी कुमकुम का टीका भी किया।
मैं दूर पर था। लेकिन वह सब मेरे सामने था। वह एक सुखद दृश्य था।उसमें छुअन थी।
‘नौवारी’ साड़ी पहनी हुई वह नव वधू किसी गुडिय़ा की तरह सजी हुई दिख रही थी। लेकिन अपनी साड़ी में गुमी जा रही थी। कुछ ऐसे कि, साड़ी में नारी है या नारी में साड़ी है ..?’.
-राजेश अग्रवाल
बीजापुर (बस्तर) के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की बेरहमी से हुई हत्या के बाद इस बात पर बहस हो रही है कि पत्रकार सुरक्षा कानून जल्द से जल्द लागू किया जाए। मगर सच तो यह है कि यदि मार्च 2023 में विधानसभा में जिन प्रावधानों के साथ यह पारित किया गया, उसे आंखों में धूल झोंकने वाला कानून करार दिया जा सकता है। इस विधेयक का उद्देश्य मीडियाकर्मियों की सुरक्षा और पंजीकरण सुनिश्चित करना था, लेकिन इसकी धाराओं को करीब से देखने पर यह अधिकतर मामलों में अप्रभावी और निरर्थक है।
विधेयक की उत्पत्ति 2015 के पत्रकार आंदोलन से हुई, जब बस्तर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों के चलते सुरक्षा कानून की मांग उठी थी। कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आते ही जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति बनाई, जिसने 2020 में एक विस्तृत और विचारशील मसौदा तैयार किया। मसौदे में मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के लिए ठोस प्रावधान और पंजीकरण प्रक्रिया का समावेश था।
विधेयक की प्रमुख समस्याएं कुछ इस तरह से हैं- एक, विधेयक में मीडियाकर्मियों की पंजीकरण प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से जटिल बना दिया गया है। केवल पंजीकृत मीडिया संस्थानों में काम करने वाले मीडियाकर्मियों को ही सुरक्षा का प्रावधान दिया गया है। स्वतंत्र पत्रकारों और स्ट्रिंगर्स को इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है, जो पत्रकारिता की जमीनी हकीकत के विपरीत है। मुकेश चंद्राकर स्वतंत्र पत्रकार थे और संभवत: वे न्यूज चैनल एनडीटीवी एमपीसीजी के लिए केवल स्ट्रिंगर थे। ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं, जिन्हें नियमित वेतन नहीं मिलता, कर्मचारियों के रूप में रिकॉर्ड नहीं दर्ज होता। वे अंशकालीन काम करते हैं और असाइनमेंट के अनुसार ही भुगतान किया जाता है। दूसरा, जस्टिस आफताब आलम समिति ने पंजीकरण और सुरक्षा के लिए अलग-अलग निकायों का सुझाव दिया था। लेकिन अंतिम विधेयक में सुरक्षा समिति को ही पंजीकरण का कार्य सौंपा गया है, जो एक हास्यास्पद स्थिति है। पंजीकरण की प्रक्रिया में किसी अपीलीय प्राधिकरण का प्रावधान भी नहीं है, जिससे मीडियाकर्मियों के लिए न्याय पाने का रास्ता कठिन हो जाता है। पंजीयन से मना करने पर पत्रकार समिति के खिलाफ कहीं भी शिकायत नहीं कर सकता। इसके अलावा विधेयक में यह प्रावधान है कि किसी भी शिकायत के आधार पर मीडियाकर्मी का पंजीकरण निलंबित किया जा सकता है। यह प्रावधान पत्रकारों की स्वतंत्रता को बाधित कर सकता है और उनकी सुरक्षा को कमजोर करता है।
मौजूदा शक्ल में यह स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा देने के बजाय, मीडियाकर्मियों की सरकार पर निर्भरता बढ़ाने का काम करता है। विधेयक में उनकी सुरक्षा के लिए प्रभावी प्रावधानों की बेहद कमी है। अच्छा होगा कि सरकार यदि वास्तव में पत्रकारों की स्वतंत्र रिपोर्टिंग को संरक्षण देना चाहती है तो इसके प्रावधानों को सरल बनाए, बदलाव करे। मौजूदा कानून के जरिये तो मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकारों को संरक्षण मिलना तो मुश्किल दिखाई पड़ता है।
बिधूड़ी और कब-कब रहे विवादों में
बीते एक साल से चर्चाओं में रहने वाले बीजेपी नेता और पूर्व सांसद रमेश बिधूड़ी एक बार फिर से चर्चाओं में हैं।
चाहे संसद में एक मुस्लिम सांसद पर आपत्तिजनक टिप्पणी करना हो या 2024 लोकसभा चुनाव में टिकट कटना हो या फिर दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनावों में विधायकी का टिकट दिया जाना हो, वो चर्चाओं में बने रहते हैं।
अब रमेश बिधूड़ी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा और दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी पर विवादित टिप्पणी को लेकर चर्चा में हैं।
उनके बयान की कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने निंदा की है।
कांग्रेस ने जहां बीजेपी से माफी की मांग की है। वहीं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि ‘महिला मुख्यमंत्री के अपमान का बदला दिल्ली की सभी महिलाएं लेंगी।’
रमेश बिधूड़ी क्यों हैं चर्चा में
साल 2014 और 2019 में दक्षिणी दिल्ली से सांसद रहे रमेश बिधूड़ी को बीजेपी ने कालकाजी सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है। इसी सीट से दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी विधायक हैं और वो फिर से इसी सीट से चुनावी मैदान में हैं।
वहीं कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी की पूर्व नेता अल्का लांबा को इस सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है।
रमेश बिधूड़ी का हाल का एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें वो इसी इलाके की एक जनसभा को संबोधित कर रहे हैं। इसमें वो कथित तौर पर बिहार की सडक़ों और हेमा मालिनी को लेकर दिए गए लालू प्रसाद यादव के बयान का जि़क्र कर रहे हैं।
इसी बयान में बिधूड़ी ने आगे बोलते हुए बेहतरीन सडक़ बनाने का वादा किया और इस बीच प्रियंका गांधी के बारे में विवादास्पद बात कही।वहीं, रविवार को दिल्ली के रोहिणी में हुई ‘परिवर्तन रैली’ के दौरान रमेश बिधूड़ी ने भाषण देते हुए मुख्यमंत्री आतिशी के नाम को लेकर विवादित टिप्पणी की।
कांग्रेस और आप आक्रामक
पूर्व सांसद के ये बयान सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे। इसको लेकर कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बिधूड़ी के भाषण का एक वीडियो एक्स पर साझा करते हुए लिखा, ‘ऊपर से नीचे तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कार आपको भाजपा के इन ओछे नेताओं में दिख जाएंगे।’
कांग्रेस ने प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत का एक वीडियो बयान जारी कर बिधूड़ी के बयान को बेहद शर्मनाक बताया।
उन्होंने कहा, ‘यह बीजेपी का असली चेहरा है। इस महिला विरोधी भाषा और सोच के जनक खुद पीएम मोदी हैं, जो ‘मंगलसूत्र’ और ‘मुजरा’ जैसे शब्द बोलते हैं। इस घटिया सोच के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए।’
आतिशी पर बयान के लिए आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा, ‘बीजेपी ने फिर अपना ‘महिला विरोधी चेहरा’ दिखाया। बीजेपी के गालीबाज नेता रमेश बिधूड़ी ने महिला मुख्यमंत्री आतिशी जी के खिलाफ भद्दी और गंदी भाषा का इस्तेमाल किया। अपनी हार नज़दीक देखकर अप बीजेपी इतना बौखला गई है कि महिलाओं को खुलेआम गाली दे रही है।’
वहीं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविंद केजरीवाल ने इस मुद्दे को चुनाव से भी जोड़ दिया।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बीजेपी के नेताओं ने बेशर्मी की सारे हदें पर कर दीं। बीजेपी के नेता दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी जी को गंदी-गंदी गालियां दे रहे हैं। एक महिला मुख्यमंत्री का अपमान दिल्ली की जनता सहन नहीं करेगी। दिल्ली की सभी महिलाएं इसका बदला लेंगी।’
रमेश बिधूड़ी की ‘सफ़ाई’
प्रियंका गांधी वाड्रा पर दिए बयान का वीडियो वायरल होने के बाद रविवार को बिधूड़ी ने एक्स पर पोस्ट करके कहा कि उनका मकसद किसी को अपमानित करना नहीं था।
उन्होंने लिखा, ‘किसी संदर्भ में मेरे द्वारा दिये गये बयान पर कुछ लोग ग़लत धारणा से राजनीतिक लाभ के लिए सोशल मीडिया पर बयान दे रहे हैं।’
‘मेरा आशय किसी को अपमानित करने का नहीं था। परंतु फिर भी अगर किसी भी व्यक्ति को दुख हुआ है तो मैं खेद प्रकट करता हूँ।’
हालांकि उन्होंने अभी तक आतिशी पर दिए गए भाषण को लेकर कुछ भी नहीं कहा है।
विवादों से पुराना नाता
19 सितंबर 2023 को संसद के मॉनसून सत्र में ‘चंद्रयान-3 की सफलता’ विषय पर चर्चा चल रही थी। इस दौरान रमेश बिधूड़ी ने बसपा सांसद कुंवर दानिश अली के खिलाफ असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया।
इस बयान के असंसदीय होने की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चर्चा के दौरान सदन में मौजूद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने फौरन इस पर अपना अफसोस जाहिर किया।
बसपा सांसद दानिश अली को कहे गए अपशब्दों को लेकर पड़े चौतरफा दबाव के बाद बीजेपी को अपने सांसद को कारण बताओ नोटिस जारी करना पड़ा।
कुंवर दानिश अली ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ‘मुझे उम्मीद है कि मेरे साथ न्याय होगा और स्पीकर साहब कार्रवाई करेंगे। अगर ऐसा नहीं होता है तो मैं भरे मन से इस सदन को छोडऩे पर विचार करूंगा।’
इस मामले में हालांकि कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। कुछ ऐसी मीडिया रिपोर्ट्स भी आईं जिसमें बताया गया कि रमेश बिधूड़ी ने लोकसभा की विशेषाधिकार समिति के आगे अपने बयान के लिए अफ़सोस ज़ाहिर किया।
सोनिया गांधी को बनाया निशाना
ऐसा नहीं था कि रमेश बिधूड़ी का नाम पहली बार किसी विवाद के सिलसिले में सामने आया हो। साल 2017 में उन्होंने कांग्रेस पर हमला करने के लिए सोनिया गांधी के इतालवी मूल का मुद्दा उठाया था।
मथुरा में उन्होंने एक जनसभा के दौरान कहा, ‘इटली में ऐसे संस्कार होते होंगे कि शादी के पांच-सात महीने बाद पोता या पोती भी आ जाए, भारतीय संस्कृति में ऐसे संस्कार नहीं हैं।’
हालांकि बाद में उन्होंने इस बयान पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि ‘हमारे पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले हमसे ‘अच्छे दिन’ का हिसाब नहीं मांग सकती है।’
बिधूड़ी ने ये बात कांग्रेस की उस आलोचना का जवाब देने में कही थी कि सरकार बनने के ढाई साल बाद भी बीजेपी सरकार ने अपने वादे पूरे नहीं किए हैं।
महिला सांसदों की शिकायत
बिधूड़ी पर पहले भी संसद के भीतर ‘असंसदीय’ और ‘अशोभनीय’ कमेंट करने का आरोप लग चुका है।
साल 2015 में चार महिला सांसदों ने स्पीकर के पास जाकर उनके कथित ‘बर्ताव’ को लेकर शिकायत की थी।
रंजीत रंजन, सुष्मिता देव, अर्पिता घोष और पीके श्रीमति टीचर ने बिधूड़ी पर ‘अभद्र और अमर्यादित’ भाषा के इस्तेमाल का आरोप लगाया था। (बाकी पेज 8 पर)
हालांकि बिधूड़ी ने उनके आरोपों से इनकार किया था।
एक अंग्रेज़ी अख़बार से उन्होंने इस मामले पर पूछे जाने पर अपने जवाब में कहा था, ‘मेरी उनसे कोई निजी लड़ाई नहीं है और मैंने ऐसी किसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया है। वे ध्यान भटकाने के लिए ऐसे तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। वे महिला होने का नाजायज फायदा उठा रही हैं।’
रमेश बिधूड़ी का राजनीतिक करियर
दिल्ली के तुगलकाबाद में जन्मे बिधूड़ी की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई इसी शहर में हुई।
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उनके पिता ने गांव में स्कूल, आर्य समाज मंदिर और अस्पताल के लिए अपनी ज़मीन दान कर दी थी।
अस्सी के दशक में दिल्ली यूनिवर्सिटी के भगत सिंह कॉलेज की स्टूडेंट पॉलिटिक्स के जरिए वो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संपर्क में आए।
इसके बाद बिधूड़ी ने लंबी सियासी पारी खेली। वे संगठन की राजनीति के रास्ते साल 2003 में पहली बार दिल्ली विधानसभा पहुंचे।
साल 2014 में पहली बार दक्षिणी दिल्ली की प्रतिष्ठित सीट से लोकसभा के लिए चुने जाने से पहले वे तीन बार दिल्ली विधानसभा के सदस्य रह चुके थे।
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में रमेश बिधूड़ी ने आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा और कांग्रेस उम्मीदवार और बॉक्सिंग चैंपियन विजेंदर सिंह को हराया था। (bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
कहा जाता है कि राजनीति में कुछ भी बेवजह नहीं होता है। संभव है कि वजह बाद में पता चले।
बिहार में नीतीश कुमार कुछ भी करने वाले होते हैं तो उसके संकेत पहले से ही मिलने लगते हैं। कई बार लगता है कि ये तो सामान्य बात है लेकिन कुछ महीने बाद ही असामान्य हो जाती है।
नीतीश कुमार की एक तस्वीर पर ख़ूब बात हो रही है। इस तस्वीर में नीतीश कुमार ने हँसते हुए तेजस्वी यादव के कंधे पर हाथ रखा है और तेजस्वी हाथ जोडक़र थोड़ा झुक कर हँस रहे हैं।
हालांकि यह एक सरकारी कार्यक्रम की तस्वीर है। जहां पक्ष और विपक्ष का आना एक औपचारिक रस्म होता है। लेकिन कई बार औपचारिक रस्म में ही अनौपचारिक चीज़ें हो जाती हैं।
दरअसल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान राज्यपाल की शपथ ले रहे थे और इसी कार्यक्रम में नीतीश कुमार भी मौजूद थे और बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव भी।
दोनों नेताओं की यह तस्वीर आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के उस बयान के बाद आई है, जिसमें उन्होंने एक चैनल के कार्यक्रम में कहा था कि नीतीश कुमार के लिए उनके दरवाज़े खुले हुए हैं।
बिहार में इसी साल विधानसभा के चुनाव होने हैं और राज्य के सियासी गलियारों में पिछले कुछ दिनों से नीतीश कुमार को लेकर लगातर अटकलें लगाई जा रही हैं। इन अटकलों को नीतीश की चुप्पी ने भी हवा दी है।
लालू के इस बयान के बाद बिहार में कांग्रेस के नेता शकील अहमद ख़ान ने भी कहा, ‘गांधीवादी विचारधारा में विश्वास करने वाले लोग गोडसेवादियों से अलग हो जाएंगे, सब साथ हैं, नीतीश जी तो गांधीजी के सात उपदेश अपने टेबल पर रखते हैं।’
कऱीब एक साल पहले ही नीतीश कुमार ने बिहार में महागठबंधन का साथ छोड़ा था और वापस एनडीए में चले गए थे। वो अगस्त 2022 में दोबारा बिहार में महागठबंधन से जुड़े थे।
गुरुवार को जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पत्रकारों ने इस मुद्दे पर सवाल किया तो वो ख़ामोश दिखे, लेकिन राज्य के नए राज्यपाल ने पत्रकारों के सवाल के जवाब में कहा, ‘आज शपथ ग्रहण का दिन है, राजनीतिक सवाल मत पूछिए।’
हालांकि जेडीयू के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने लालू के बयान से किनारा करते हुए कहा, ‘छोडि़ए न... लालू जी क्या बोलते हैं, क्या नहीं बोलते हैं ये लालू जी से जाकर पूछिए हमलोग एनडीए में हैं और मज़बूती से एनडीए में हैं।’
हालांकि ललन सिंह का यह कहना बहुत मायने नहीं रखता है क्योंकि नीतीश कुमार ने तो यहां तक कहा था कि मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन फिर से बीजेपी के साथ नहीं जाऊंगा।
क्या नीतीश फिर पाला बदल सकते हैं?
बिहार में बीजेपी के नेता कई बार इस तरह का बयान देते हैं कि वो राज्य में अपना मुख्यमंत्री और अपनी सरकार चाहते हैं।
पिछले दिनों बीजेपी विधायक और राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा ने भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती के मौक़े पर कहा था कि अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब राज्य में बीजेपी का अपना मुख्यमंत्री होगा।
हालांकि बाद में वो अपने बयान से पलटते नजऱ आए और एक बयान जारी कर नीतीश कुमार को बिहार में एनडीए का चेहरा बताया।
हाल के समय में देशभर में कई क्षेत्रीय दलों में टूट हुई है, जिनमें महाराष्ट्र की शिव सेना और एनसीपी जैसे दल भी शामिल हैं। बिहार में रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी पार्टी एलजेपी के भी दो टुकड़े हो गए, जिसके लिए चिराग पासवान ने बीजेपी के प्रति नाराजग़ी भी जताई थी।
इसके अलावा ओडिशा में बीजू जनता दल जैसी ताक़तवर क्षेत्रीय पार्टी भी बीजेपी से हार गई। क्षेत्रीय पार्टियों के कमज़ोर पडऩे का सीधा फायदा बीजेपी को हो रहा है। ऐसे में क्या नीतीश के मन में भी बीजेपी का डर है?
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, ‘डर बड़े-बड़े नेताओं को होता है तो नीतीश कुमार को क्यों नहीं होगा। इसलिए नीतीश कुमार दो तरह से खेल रहे हैं। वो बीजेपी के साथ हैं और तेजस्वी के कंधे पर हाथ रखकर संकेत दे रहे हैं कि हालात बदले तो वो आरजेडी के साथ भी आ सकते हैं।’
सुरूर अहमद मानते हैं कि अगर नीतीश को कभी बिहार की सत्ता किसी और को सौंपनी पड़े तो उनकी पार्टी में कोई नेता नहीं है और वो बिहार के मौजूदा नेताओं को यहां की सत्ता नहीं सौंपेंगे, ऐसी स्थिति में उनके लिए तेजस्वी यादव ज़्यादा सही हैं।
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी बिहार की मौजूदा सियासत को कुछ अलग नज़रिए से देखते हैं।
उनका कहना है, ‘नीतीश राजनीतिक तौर पर मज़बूत हैं, इसलिए उनकी चर्चा होती रहती है। अलग बीजेपी ने नीतीश की पार्टी तोड़ी तो भी उनका वोट नहीं तोड़ पाएंगे। नीतीश के भरोसे ही केंद्र की सरकार चल रही है तो बीजेपी ऐसा क्यों करेगी।’
उनका मानना है कि बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्य में बहुत फक़ऱ् है। नीतीश कुमार सियासी तौर पर बहुत अनुभवि नेता हैं, जो हर चाल को पहले ही भांप लेते हैं।
वो कहते हैं, ‘नीतीश अगर आरजेडी के साथ जाते हैं तो भी वो ज़्यादा से ज़्यादा सीएम ही रहेंगे, पीएम नहीं बन जाएंगे। हो सकता है कि नीतीश कुमार बीजेपी पर दबाव बना रहे हों कि वो 122 विधानसभा सीटें चाहते हैं, बाक़ी सीटें बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ बांटे।’
बिहार में कैसे शुरू हुईं अटकलें
बिहार में विधानसभा की 243 सीटें हैं और राज्य के पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू को महज़ 43 सीटों पर जीत मिली थी जबकि उसने 115 सीटों पर चुनाव लड़ा था। हालांकि इसके बाद भी नीतीश कुमार ही राज्य के मुख्यमंत्री बने थे।
पहले उन्होंने एनडीए में रहकर सीएम पद अपना दावा बनाए रखा और फिर अगस्त 2022 में महागठबंधन में आ गए। उनकी पार्टी ने उस वक्त आरोप भी लगाया था कि जेडीयू को तोडऩे की कोशिश की जा रही थी।
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, ‘दरअसल नीतीश को लेकर नई चर्चा पिछले दिनों बीजेपी के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान के बाद शुरू हुई।’
‘एक चैनल के कार्यक्रम में अमित शाह से पूछा गया कि एनडीए ने महाराष्ट्र में बिना सीएम का चेहरा पेश किए बड़ी जीत हासिल की है, तो क्या बीजेपी बिहार में भी ऐसा प्रयोग करना चाहेगी? तो अमित शाह ने कहा मैं पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता हूँ। इस तरह के फ़ैसले लेना संसदीय बोर्ड का काम होता है।’
नचिकेता नारायण कहते हैं कि नीतीश को लेकर अमित शाह ने स्पष्ट बयान नहीं दिया और यहीं से नीतीश ने चुप्पी अपना ली है, जो बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश भी हो सकती है ताकि उन्हें विधानसभा चुनावों में साझेदारी में ज़्यादा से ज्य़ादा सीटें मिल सकें।
नचिकेता नारायण मानते हैं, ‘लालू प्रसाद यादव ने नीतीश के लिए दरवाजा खुला होने की बात कहकर एक सधी हुई चाल चली है। इसका असर धीरे-धीरे समझ में आएगा। लालू जानते हैं कि एनडीए में किसी भ्रम या टूट का फ़ायदा आरजेडी को होगा।’
दरअसल बिहार में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और नीतीश कुमार की जेडीयू राज्य की एक ऐसी पार्टी है जो आरजेडी या बीजेपी किसी के साथ भी गठबंधन में जा सकती है।
आंकड़े बताते हैं कि नीतीश कुमार की पार्टी अकेले भले ही बहुत कुछ हासिल न कर पाए लेकिन वो जिस गठबंधन में होती है, उसकी ताक़त काफ़ी बढ़ जाती है।
सुरूर अहमद कहते हैं, ‘बिहार को लेकर जो ख़बरे चल रही हैं या चलाई जा रही हैं, वह काफ़ी दिनों से हो रहा है। लेकिन बीते 15 दिनों से इसमें कुछ ख़ास बातें देखी गईं। पहले 15 दिसंबर से नीतीश महिला सम्मान यात्रा पर जाने वाले थे, जिसे स्थगित कर दिया, फिर प्रगति यात्रा की योजना बनाई गई। लेकिन 25-26 दिसंबर के आसपास नीतीश को लेकर अटकलें गर्म होनी शुरू हो गईं।’
इसी दौरान 19 और 20 दिसंबर को राजधानी पटना में ‘बिहार बिजनेस कनेक्ट -2024’ का आयोजन हुआ, जिसमें निवेश के अहम समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। इस कार्यक्रम के आखिरी दिन नीतीश कुमार को मुख्य अतिथि के तौर पर आना था, लेकिन वो इसमें नहीं आ सके।
इस मामले ने भी सियासी अटकलों को काफी हवा दी।
नीतीश को लेकर क्या है बेचैनी?
बिहार में बीजेपी के सहयोगी दलों की बात करें तो ये पार्टियाँ आमतौर पर सेक्युलर पॉलिटिक्स के लिए जानी जाती हैं।
इनमें नीतीश कुमार की जेडीयू, चिराग पासवान की एलजेपी (आर), पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हम (सेक्युलर) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा जैसे दल शामिल हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार कहते हैं, ‘बीजेपी के साथ आने से इन दलों के सेक्युलर वोटों में जो नुक़सान होता है, उसे आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को राज्यपाल बनाकर एक संदेश देने और भरने कोशिश ज़रूर की गई है। लेकिन बीजेपी मूल रूप से बिहार को लेकर बेचैन रहती है।’
प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार कहते हैं, ‘लोकसभा चुनावों में बीजेपी नीतीश कुमार से साथ एकता चाहती है। लेकिन विधानसभा चुनाव में वह अपनी ताक़त बढ़ाकर अपने बूते राज्य में सरकार बनाना चाहती है, इसलिए नीतीश कुमार को कमज़ोर करना चाहती है। पिछली बार भी चिराग पासवान की मदद से यह कोशिश की गई।’
‘इस तरह से देखें तो नीतीश कुमार बीजेपी की ज़रूरत भी हैं और बेचैनी की वजह भी। यही बेचैनी कई बार बीजेपी नेताओं के बयान में भी नजऱ आती है।’
हालांकि बाद में वो अपने बयान से पलटते नजऱ आए और एक बयान जारी कर नीतीश कुमार को बिहार में एनडीए का चेहरा बताया है।
पुष्पेंद्र कुमार मानते हैं कि नीतीश कुमार अपनी चुप्पी से रहस्य बनाकर रखते हैं, बाक़ी संजय झा जैसे नेता लोगों के बीच मान्य नेता नहीं हैं, वो बीजेपी और नीतीश के बीच डोर का काम करते हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं हैं।
बिहार के मौजूदा सियासी समीकरण पर नचिकेता नारायण कहते हैं, ‘बिहार में भ्रम की जो स्थिति है उसकी सच्चाई नीतीश कुमार को छोडक़र कोई नहीं जानता है। पिछली बार भी जब नीतीश कुमार ने गठबंधन बदला था तो दो दिन पहले तक उनके मंत्रियों तक को कुछ पता नहीं था।’
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूजरूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
-विष्णुकांत तिवारी
40 साल बाद और हफ़्ते भर की गहमागहमी के बीच बुधवार रात साल 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के बाद बचा ज़हरीला कचरा शहर से बाहर भेजा जा रहा है।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फ़ैक्ट्री में हुई त्रासदी को दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक आपदाओं में से एक माना जाता है। तीन दिसंबर 1984 की सुबह, अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के स्वामित्व वाली एक कीटनाशक फ़ैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक हुई थी, जिसके चलते लाखों लोग ज़हरीली गैस की चपेट में आ गए थे।
सरकारी आँकड़ों में गैस रिसाव से 5000 लोगों की मौत का दावा किया जाता है लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता और स्थानीय लोग ये संख्या 10 हज़ार तक मानते हैं।
बुधवार रात ज़हरीला कचरा 12 ट्रकों में भरकर भोपाल से 230 किलोमीटर दूर पीथमपुर के लिए रवाना किया गया।
भारी पुलिस सुरक्षा के बीच बुधवार रात 9:30 बजे 40 गाडिय़ों का काफि़ला प्रशासन की ओर से तैयार किए गए ग्रीन कॉरिडोर से गुजऱते हुए सुबह 6 बजे पीथमपुर पहुँचा।
प्रशासन के अनुसार ज़हरीला कचरा भरते हुए विशेष सावधानी बरती गई है और जिस स्थान पर कचरा रखा था, वहाँ की धूल भी पीथमपुर भेजी गई है।
कचरा भरने के लिए 50 से ज़्यादा मज़दूरों को पीपीई किट के साथ लगाया गया था और हर 30 मिनट में मज़दूरों की टीमों को बदला जा रहा था।
साल 2015 में हुए ट्रायल रन के अनुसार, एक घंटे में 90 किलोग्राम कचरे को जलाया जा सकता है। उस हिसाब से 337 टन कचरे को जलाने में पाँच महीने से अधिक का समय लग सकता है।
मध्य प्रदेश गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग के संचालक स्वतंत्र कुमार सिंह ने बताया, ‘देश में औद्योगिक कचरे की आवाजाही और ट्रासंपोर्ट में अब तक के सबसे उच्च सुरक्षा प्रोटोकॉल के साथ यूनियन कार्बाइड का कचरा बुधवार रात पीथमपुर के लिए रवाना हुआ था, जहाँ अगले कुछ महीनों के अंदर इसे जलाया जाएगा।’
ज़हरीले कचरे को हटाने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा कि इस कचरे के निपटान में भारत सरकार के कई संगठन शामिल हैं।
उन्होंने कहा, ‘पिछले 40 सालों से भोपाल के लोग इस कचरे के साथ रह रहे थे। इस ज़हरीले कचरे के निपटान से पर्यावरण पर कोई असर नहीं पड़ा है। पूरी प्रक्रिया शांतिपूर्ण तरीक़े से हुई। हमारी कोशिश यह भी है कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण न हो।’
कचरे के लिए लंबी क़ानूनी लड़ाई
भोपाल निवासी आलोक प्रताप सिंह ने कचरे को हटाने के लिए सबसे पहले अगस्त 2004 में हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी।
इसके बाद की सुनवाइयों के दौरान हाई कोर्ट ने साल 2005 में यूनियन कार्बाइड के ज़हरीले कचरे को निपटाने के लिए एक टास्क फ़ोर्स समिति बनाई, जिसे इस प्रक्रिया के सही तरीक़े से किए जाने के लिए सुझाव देना था।
इसी दौरान केंद्र और राज्य सरकार ने मिलकर 345 मीट्रिक टन ख़तरनाक कचरा इक_ा किया।
साल 2006 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 346 मीट्रिक टन ज़हरीले कचरे को अंकलेश्वर (गुजरात) भेजने का आदेश दिया था।
लेकिन उसके कुछ समय बाद गुजरात सरकार ने इस मामले में अपनी असमर्थता व्यक्त की।
साल 2010 से 2015 तक पीथमपुर स्थित एक फ़ैक्ट्री में कचरे को जलाने के लिए सात परीक्षण किए गए थे, जिनमें आखऱिी परीक्षण में पर्यावरण के मानकों को पूरा किया गया था।
इसी दौरान ट्रायल रन के तहत पीथमपुर में लगभग 10 टन कचरे को जलाया भी गया।
साल 2021 में राज्य सरकार ने बचे हुई 337 मीट्रिक टन ज़हरीले कचरे को निपटाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की थीं।
जुलाई 2024 में पीथमपुर इंडस्ट्रियल वेस्ट मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड को कचरा ले जाने और इसे निपटाने के लिए अधिकृत किया गया।
इसी बीच साल 2022 में राज्य सरकार ने पीथमपुर में कचरे को नष्ट करने का एलान किया, जिसमें अनुमानित 126 करोड़ रुपए की लागत का बजट केंद्र सरकार ने मध्य प्रदेश सरकार को दिया।
चार दिसंबर 2024 को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए चार सप्ताह के भीतर कचरे को भेजने का आदेश दिया था।
इसके बाद क़वायद तेज़ करते हुए सरकार ने कचरे को पीथमपुर पहुँचाने की प्रक्रिया 29 दिसंबर को शुरू की। चार दिन तक चली इकठ्ठा करने की प्रक्रिया में 337 मीट्रिक टन कचरे को बैग्स में भरा गया।
इस दौरान सरकार ने पूरी गोपनीयता बनाए रखी। कचरा ले जाने के लिए गाडिय़ाँ कब निकलेंगी, इस पर सरकार ने चुप्पी साध रखी थी।
मंगलवार 31 जनवरी की रात से कचरे के इन बैग्स को कंटेनर्स में लोड करना शुरू किया गया और बुधवार दोपहर तक पूरा कचरा भरे जाने के बाद रात में ही इसे पुलिस की भारी मौजूदगी में पीथमपुर रवाना किया गया।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार, सरकार को तीन जनवरी यानी शुक्रवार को रिपोर्ट पेश करनी है। इस कारण भी कचरा बुधवार रात ही रवाना कर दिया गया था।
ज़हरीले कचरे का
क्या होगा?
लेकिन सवाल ये है कि पीथमपुर पहुँचने के बाद इस कचरे का होगा क्या?
इस मामले पर मध्य प्रदेश गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग के संचालक स्वतंत्र कुमार सिंह ने बीबीसी को बताया, ‘मध्य प्रदेश में औद्योगिक इकाइयों में निकलने वाले रासायनिक और अन्य अपशिष्ट के निष्पादन के लिए धार जि़ले के पीथमपुर में एकमात्र प्लांट है। यहाँ ज़हरीले कचरों को सुरक्षित तरीक़े से जलाया जाता है।’
‘यह प्लांट सेंट्रल पल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) के दिशा निर्देश के मुताबिक़ संचालित होता है। हमने साल 2015 में सीपीसीबी की देखरेख में सभी निर्धारित मानकों के अनुसार, सुरक्षा का ध्यान रखते हुए 10 मीट्रिक टन कचरे को जलाने का ट्रायल रन किया था।’
संचालक स्वतंत्र कुमार सिंह ने बताया कि देश में पीथमपुर जैसे 42 संयंत्र हैं, जिनमें ऐसे रासायनिक कचरों को जलाया जाता है।
सरल शब्दों में कहें तो भोपाल से पीथमपुर पहुँचे कचरे को सबसे पहले ज़्यादा तापमान वाले इंसीनरेटर (भट्टी) में जलाया जाएगा, इससे निकलने वाले धुएं को नियंत्रित करने के लिए व्यवस्था की गई है, जो यह तय करेगी कि कचरे को जलाने पर निकले धुएँ में मौजूद ख़तरनाक तत्व आबोहवा में न घुल जाएँ।
जलाने के बाद अवशेष की भी कई परतों पर जाँच की जाएगी और जब तक सभी ख़तरनाक रसायन नष्ट नहीं हो जाते तब तक प्रक्रिया दोहराई जाती रहेगी। इसके बाद जो बच जाएगा, उसे ज़मीन में गाड़ दिया जाएगा।
ज़मीन के नीचे गाडऩे के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि ये राख अंदर ही अंदर अन्य जल स्रोतों और अन्य जगहों पर रिस कर न पहुँचे।
लैंडफि़लिंग के लिए ज़मीन में डबल कंपोजिट लाइनर सिस्टम (दो प्लास्टिक लाइनर और दो मिट्टी के लाइनर का मिश्रण) का इस्तेमाल किया जाएगा।
मध्य प्रदेश के पर्यावरणविद और पूर्व केमिस्ट्री प्रोफ़ेसर सुभाष सी पांडेय कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में 150 के आसपास केमिकल फ़ैक्टरी हैं, जहाँ का कचरा पीथमपुर स्थित प्लांट में जलाया जाता है। यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी के कचरे को जलाने के लिए वो उपयुक्त जगह है।’
‘हालांकि कई मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि इससे समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं। लेकिन मेरा मानना है कि जो केमिकल यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी के कचरे में हैं, उनसे ज़्यादा घातक और ख़तरनाक केमिकल युक्त कचरे को पीथमपुर में जलाया जा रहा है। इस तरह की बातें लोगों को भ्रमित करेंगीं।’
वे कहते हैं, ‘क्योंकि ये काम सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की देखरेख में हो रहा है, तो इसमें ग़लती या लापरवाही की गुंजाइश बहुत कम है।’
पीथमपुर में कचरा ले जाने के बीच स्थानीय लोगों और अन्य फ़ैक्टरी कर्मचारियों में असमंजस बरकरार है।
एक स्थानीय व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि सरकार को पहले यहाँ के लोगों को इस बारे में दिशा निर्देश देने थे, उसके बाद इस प्रक्रिया को पूरा करना चाहिए था।
उन्होंने कहा,‘भोपाल में हुई गैस त्रासदी के लिए हमारी संवेदनाएं हैं लेकिन ऐसा कुछ यहाँ न हो इसको लेकर व्यवस्था नहीं की गई। स्थानीय लोगों को कुछ भी नहीं बताया गया। कचरे को निपटाने से अगर कोई समस्या होती है, तो हम लोग कहाँ जाएँगे?’
इसी बीच पीथमपुर बचाओ समिति ज़हरीला कचरा लाने के विरोध में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन कर रही है और इलाक़े के कई मज़दूर संगठनों ने भी 2-3 जनवरी को पीथमपुर बंद का आह्वान किया है।
बीजेपी नेता का भी विरोध
जहाँ एक तरफ़ स्थानीय लोगों में असमंजस और ऊहापोह बना हुआ है, वहीं इस ज़हरीले कचरे के इर्द गिर्द राजनीति भी तेज़ है।
पीथमपुर से सटे इंदौर के मेयर और बीजेपी नेता पुष्यमित्र भार्गव ने भी पीथमपुर में कचरा न जलाने की बात कही है।
उन्होंने कहा, ‘बीते कुछ दिनों से कचरा निष्पादन की बात की जा रही है। पीथमपुर के लोग विरोध भी कर रहे हैं तो मेरा मानना है कि इसको लेकर पुनर्विचार होना चाहिए ताकि पीथमपुर में ये कचरा न जले।’
‘ये पीथमपुर के साथ इंदौर और प्रदेश के लिए भी सही होगा। क्योंकि इस कचरे को पहले गुजरात में जलाने की बात थी, लेकिन उस पर रोक लगी, फिर इसको जर्मनी भेजने की बात आई उस पर भी रोक लगी।’
उन्होंने इस पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया।
पुष्यमित्र भार्गव ने कहा कि कचरा जलाने के बाद जो इसका पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ेगा, उसकी जाँच के बाद जो भी तथ्य सामने आएँ, उन्हें माननीय न्यायालय के सामने पेश करना चाहिए और उसके बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए।
इस मामले पर सरकार पूरी सुरक्षा व्यवस्था और कचरा जलाने के बाद पर्यावरण से संबंधित किसी दुष्प्रभाव की बात से इनकार कर रही है, लेकिन पीथमपुर और आस पास के इलाक़ों में लोगों के मन में इसको लेकर संशय बना हुआ है। (bbc.com/hindi)
-सैयद मोजिज इमाम
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बार फिर चर्चा में हैं। वजह पिछले दिनों राज्यसभा में दिया गया गृहमंत्री अमित शाह का एक बयान है।
इसने विपक्ष को गृहमंत्री और उनकी पार्टी पर हमलावर होने का मौक़ा दे दिया है। हालाँकि, अमित शाह का कहना है कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है।
यही नहीं, उनके बयान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘एक्स’ पर कांग्रेस पर पलटवार किया। अमित शाह ने प्रेस वार्ता की।
इससे भी अंदाज़ा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी इस विवाद से कितनी बेचैन है।
आखऱि डॉ. आंबेडकर आज के वक़्त और राजनीति में क्यों महत्वपूर्ण हैं, हमने कुछ विशेषज्ञों के ज़रिए इसे समझने की कोशिश की।
‘डॉ. आंबेडकर मसीहा हैं’
डॉ. आंबेडकर को दलित समाज में एक मसीहा की तरह माना जाता है।
उन्होंने एक समता मूलक समाज की स्थापना का ख़्वाब देखा। वह शोषित वर्गों के अधिकार, आज़ादी और गरिमापूर्ण जि़ंदगी के लिए अलख जगाने वाले माने जाते हैं।
पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर श्याम लाल ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘डॉ। आंबेडकर ने दलित समाज के उत्थान के लिए जैसा काम किया है, ऐसे में अगर वह समाज उन्हें अपना मसीहा या भगवान मानता है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति भी नहीं है।’
‘आज़ादी से पहले या उसके बाद इस समाज के लिए आंबेडकर ने जितना काम किया, उतना किसी और ने नहीं किया है।’
पूर्व आईएएस अधिकारी और कांग्रेस के नेता पीएल पुनिया का कहना है, ‘अगर आंबेडकर ने सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई न लड़ी होती, तो हम लोग आईएएस अधिकारी न बनकर आज भी ग़ुलामी की जि़ंदगी जी रहे होते।’
पुनिया ने कहा, ‘बाबा साहेब की मूल लड़ाई समाज में बराबरी के अधिकार की थी। साथ ही उनका संघर्ष इस बात के लिए भी था कि राजनीतिक शक्ति समाज के आखिऱी व्यक्ति तक कैसे पहुँचे।’
‘दिल्ली के भारती कॉलेज के आंबेडकर स्टडी सर्किल के डॉ। जसपाल सिंह का कहना है, ‘आंबेडकर ने सिफऱ् दलित वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि समाज के सभी दबे-कुचले लोगों की बेहतरी के लिए काम किया।’
हालाँकि, इस संदर्भ में दूसरों के साथ उनके राजनीतिक मतभेद भी रहे लेकिन उनका मूल लक्ष्य समाज में बराबरी का ही था।’
आंबेडकर और राजनीति
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर ही भाजपा को घेरने की कोशिश की थी। ऐसा माना जाता है कि इस वजह से भी भाजपा अकेले बहुमत के आँकड़े तक नहीं पहुँच सकी। लिहाज़ा, अमित शाह के बयान पर भाजपा चिंतित दिख रही है।
अमित शाह राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान डॉ। बीआर आंबेडकर की विरासत पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा था, अब ये एक फ़ैशन हो गया है। आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकरज् इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।
गृह मंत्री के भाषण के इसी छोटे से अंश पर विपक्षी दल आपत्ति जता रहे थे।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शुक्ला कहते हैं, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर पर राजनीतिक दलों के बीच चल रहे आरोप-प्रत्यारोप के केंद्र में अनुसूचित जाति के 20-22 प्रतिशत मतदाता हैं।
असली लड़ाई इस वोट बैंक को हासिल करने और उसे बरकऱार रखने की है। वास्तव में लंबे प्रयास के बाद पिछले दिनों भाजपा अनुसूचित जाति के एक बड़े वर्ग को लुभाने में कामयाब हुई थी।
इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और शाह के हमलों के बावजूद कांग्रेस इस मुद्दे पर पीछे हटते दिखना नहीं चाहती।
कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा, बाबा साहेब आंबेडकर जी ने हमें हमारा संविधान दिया। हर नागरिक को अधिकार दिया है।
भाजपा ने जिस तरह से उनका अपमान किया, उससे पूरे देश की जनता आहत है। बाबा साहेब का इस तरह से अपमान देश नहीं सहेगा।
कांग्रेस के साथ ही बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) भी भाजपा के खिलाफ सडक़ों पर उतर आई।
अभी तक ज़्यादातर मुद्दों पर ख़ामोश रहने वाले बीएसपी के कार्यकर्ताओं ने मंगलवार 24 दिसंबर को हर जि़ला मुख्यालय पर प्रदर्शन किया और राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन भी दिया।
हालाँकि, बीएसपी की अध्यक्ष मायावती ने 'एक्स' पर लिखा कि धरना-प्रदर्शन इसका हल नहीं है।
उन्होंने कहा, बाबा साहेब विरोधी टिप्पणी वापस नहीं लेने व पश्चाताप नहीं करने पर बीएसपी के आह्वान पर आयोजित ऐसे प्रदर्शन आदि समस्या का स्थाई हल नहीं हैं।
इसके लिए बहुजनों को सत्ता की मास्टर चाबी प्राप्त करके, शासक वर्ग बनकर ही अपना उद्धार स्वयं करने योग्य बनना होगा। तभी मुक्ति व सम्मान संभव होगा।"
भीमराव आंबेडकर की विरासत के साथ कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति को मज़बूत किया था। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तौर पर दलितों की अनदेखी संभव नहीं है।
आंबेडकर ने दलित समाज में सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही चेतना जगाई है। अब यह एक बड़ा धड़ा है। राजनीतिक रूप से काफ़ी मज़बूत भी है।
इसके साथ आ जाने पर सत्ता के शीर्ष तक पहुँचा जा सकता है।
प्रोफेसर श्याम लाल का बयान।
दलित समाज में आंबेडकर का क्या स्थान है, भाजपा को भी ये बात बख़ूबी पता है।
इसलिए इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आगे तो आए लेकिन उन्होंने बीएसपी के खिलाफ कुछ नहीं कहा।
मंगलवार 24 दिसंबर को एक प्रेस कांफ्रेंस में योगी आदित्यनाथ ने कहा, गृहमंत्री अमित शाह के आधे-अधूरे बयान को पेश कर राजनीति की जा रही है।
कांग्रेस और सपा ने गफ़लत पैदा करने का प्रयास किया है। सपा सरकार के समय सुपर सीएम ने बाबा साहेब पर क्या कहा था, यह किसी से छिपा नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शुक्ला के मुताबिक, साल 2024 के लोकसभा के चुनावों के दौरान इंडिया गठबंधन ने दलित समाज के एक धड़े को अपने पक्ष में कर लिया था।
विपक्ष ने भाजपा के कई नेताओं के बयानों के आधार पर जनता को यह बताया कि अगर भाजपा चुनाव जीतती है तो आरक्षण समाप्त कर देगी। संविधान बदल देगी।
यही नहीं, गृह मंत्री अमित शाह के अप्रैल 2024 के एक बयान को काट-छाँट कर आरक्षण समाप्त करने की झूठी बात फैलाई गई। लोकसभा चुनाव में वह काम भी कर गई।
हालाँकि, शुक्ला नहीं मानते कि यह रणनीति दोबारा काम करेगी। उनका तर्क है, ऐसा इसलिए कि एक तो चुनाव अभी दूर है। दूसरा, एक ही मसले को राजनीतिक दल कितनी बार उपयोग में ला सकते हैं।
आंबेडकर कैसे बने दलितों के मसीहा
मीडिया स्टडीज़ ग्रुप ने समाजवादी चिंतक मधु लिमये की एक किताब छापी है- डॉ। आंबेडकर: एक चिंतन।
इसमें उनके हवाले से लिखा गया है जीवन के कटु अनुभवों से आंबेडकर ने सीखा था कि दलितों की स्थिति में सुधार समतामूलक समाज की स्थापना में एक व्यापक आंदोलन का हिस्सा है।
इस वजह से ही आंबेडकर ने सामाजिक परिवर्तन की लडाई लड़ी। इसमें उनके अन्य लोगों से वैचारिक मतभेद भी रहे। यहाँ तक कि आंबेडकर ने सामाजिक चेतना जगाने के लिए हिंदू धर्म को भी त्याग दिया था।
मधु लिमये के मुताबिक, आंबेडकर को अर्थशास्त्र पढऩे के लिए विदेश भेजा गया था लेकिन उनकी सबसे ज्यादा रुचि जाति समस्या को लेकर ही थी।
जाति व्यवस्था के उद्गम स्थल की खोज और उसको नष्ट करना ही उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य बन गया था।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिय़ा का कहना है, आंबेडकर अपने इस विचार की वजह से दोनों धड़ों के निशाने पर रहे हैं।
भाजपा और कांग्रेस ने आंबेडकर की विचारधारा का समर्थन राजनीतिक कारणों से ही किया है लेकिन इसका समायोजन नहीं किया।
आंबेडकर जाति व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ रहे थे। इसके खिलाफ उनकी विचारधारा की लड़ाई अब भी जारी है।
हालाँकि, अनिल चमडिय़ा का कहना है, आंबेडकर को कांग्रेस भी नापसंद करती रही है। भाजपा और कांग्रेस द्वारा एक-दूसरे को आंबेडकर का विरोधी बताना, हिन्दुत्ववाद के बीच में डॉ। आंबेडकर को फँसाए रखने का प्रयास है।
डॉ. आंबेडकर ने हिन्दुत्ववादी यानी मनुवादी विचारधारा को किसी भी स्तर पर स्वीकार करने वाली राजनीतिक पार्टियों की आलोचना की है। उन्हें समाज में समानता विरोधी बताया है।
दूसरी ओर, प्रोफ़ेसर श्याम लाल का मानना है, सिर्फ दलितों के लिए ही नहीं, आंबेडकर ने महिला, पुरुष, अल्पसंख्यक के लिए भी काम किया है।
एक राष्ट्र को कैसे सबको एक साथ लेकर चलना चाहिए, यह सोच आंबेडकर ने ही दी है।
एक राष्ट्र तभी अग्रसर हो सकता है, जब समाज में सबको बराबरी को दर्जा प्राप्त हो। समाज में किस तरह से सबको शामिल करना है, यह आंबेडकर ने बताया है।
हालाँकि, प्रोफेसर श्याम लाल के मुताबिक, कोई भी महापुरुष होता है तो उसको उस समाज से जोड़ दिया जाता है, जिसमें वह पैदा होता है। ये एक त्रासदी है।
आंबेडकर ने सिफऱ् दलितों के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक के लिए काम किया।
जाति-विहीन व्यवस्था, स्वराज से अधिक ज़रूरी
आंबेडकर का मानना था कि स्वराज से पहले हिंदू समाज में जाति-विहीन व्यवस्था क़ायम करना ज़रूरी है।
एक जगह उन्होंने लिखा था, ऐसे स्वराज का कोई फ़ायदा नहीं है जिसकी आप रक्षा न कर सकें। मेरे विचार में हिंदू समाज जब जाति-विहीन हो जाएगा, तभी उसमें अपने-आप की रक्षा करने की ताक़त आएगी।
पूर्व आईएएस अधिकारी पीएल पुनिया कहते हैं, आंबेडकर ने अंग्रेज़ों से कहा कि वे यहाँ से जाएँ, लेकिन इस जाति व्यवस्था को ख़त्म करके ही जाएँ।
उस समय हिंदू महासभा जैसे संगठन भी हिंदू समाज को ताक़तवर बनाने की बात कर रहे थे।
हिंदुओं की संख्या बढ़ाने और मुसलमानों की तादाद कम करने का उनका एक फ़ॉर्मूला था। उन लोगों का शुद्धिकरण हो जिनके पूर्वजों ने किन्हीं कारणों से इस्लाम धर्म अपना लिया था।
आंबेडकर ने तेलुगू समाचार के एक अंक में लिखा था, अगर हिंदू समाज बचा रहना चाहता है तो उसे अपनी संख्या बढ़ाने के बजाय अपनी एकजुटता बढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए।
इसका सीधा मतलब है, जाति का उन्मूलन। अगर हिंदू समाज को जाति का उन्मूलन कर संगठित कर दिया जाए तो शुद्धि की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
आंबेडकर और सावरकर
बाबा साहब आंबेडकर ने बहुत पहले ही कह दिया था, हम समाज में बराबरी का अधिकार चाहते हैं और हम जहाँ तक संभव है, हिंदू समाज में ही रहकर ये अधिकार लेना चाहते हैं।
अगर ज़रूरी हुआ तो हम हिंदुत्व से पिंड छुड़ाने से नहीं हिचकेंगे। अगर हम हिंदुत्व को छोड़ते हैं तो मंदिर जाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं रहेगी।
हिंदू धर्म से जुड़े मुद्दों पर आंबेडकर और सावरकर की राय अलग-अलग थी।
जब आंबेडकर ने ये कहा था कि हिंदू धर्म छोडऩे में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होगी, तब उन्होंने ये साफ़ नहीं किया था कि वह बौद्ध धर्म अपनाने के बारे में सोच रहे हैं।
इस विषय में सावरकर ने 'निर्भिद' के तीन नवंबर 1935 के अंक में एक विस्तृत लेख लिखा था।
सावरकर ने आंबेडकर के हिंदू धर्म छोडऩे की इच्छा पर सवाल उठाते हुए लिखा था, हिंदू धर्म में भी हर संगठित धर्म की तरह तर्कहीनता के कुछ तत्व हैं। लेकिन दूसरे धर्मों में भी इस तरह की तर्कहीनता पाई जाती है। (bbc.com/hindi)
-सिद्धार्थ ताबिश
भारत में हर रोज सबसे ज्यादा मौतें सडक़ दुर्घटना से होती है.. यहां लगभग हर तीसरे मिनिट में रोड पर एक जान जाती है.. भारत दुनिया का सबसे अधिक रोड दुर्घटना वाला देश है।
मगर भारतीय रोड से आते हुए जंगल क्रॉस करने में डरते हैं, कुत्ते से डरते हैं, बाघ से डरते हैं, तेंदुए का सोच के ही इनकी जान सूख जाती है, श्मशान से डरते हैं, रात से डरते हैं.. क्योंकि ये फ्लैट में बैठे रहते हैं और इन्हें इनकी सरकार, समाज कभी ये याद नहीं दिलाते हैं कि ‘रोड’ पर चलना इनके लिए सबसे अधिक खतरनाक काम है।
एक लकड़बग्घा अगर किसी का शिकार कर दे तो यही फ्लैट में बैठे मूर्छित लोग जो मीडिया चलते हैं, हेडलाइन छापते हैं कि ‘आदमखोर’ भेडि़ए ने जान ली.. मगर यही लोग कभी किसी भी ब्रांड की किसी कार को ‘आदमख़ोर’ कहते आपको नहीं दिखेंगे.. दरअसल कारों को आदमख़ोर बोलना चाहिए हमें क्योंकि ये हर तीसरे मिनिट में एक ‘आदमी’ की जान लेती हैं.. सरकारें भी कभी कार को आदमख़ोर नहीं घोषित करती हैं क्योंकि कार इन्हें मोटा टैक्स देती हैं।
हमारी जीवन में जितनी भी धारणाएं और डर हैं वो सब समाज और बाज़ार जनित होते हैं.. मीडिया और बाज़ार जो दिखाता है वही हमारे मन मस्तिष्क पर हावी रहता है.. इंश्योरेंस कंपनियां जो डराती है वो कोई डर नहीं है, मेडिकल कंपनियां जो डराती हैं वो कोई वास्तविक डर नहीं होता है.. जितने भी आसपास आपको अपना इंश्योरेंस, प्रोडक्ट इत्यादि बेचने बैठे हैं, इनके यहां बड़े बड़े मनोवैज्ञानिक ‘डर’ क्रिएट करने के पैसे लेते हैं और आपको उसी हिसाब से डराया जाता है।
नेता और सरकार आपको आपके अस्तित्व, धर्म, समाज और आबादी को लेकर डराते हैं.. मगर एक भी नेता आपको कभी ये कहता नहीं मिलता है कि ‘जितने तुम आतंकवाद और धार्मिक वैमनस्यता में मरते हो उसका 200 गुना तुम रोज़ रोड पर मारे जाते हो.. और रोड पर चलना बंद कर दो वरना तुम्हारा अस्तित्व खतरे में आ जायेगा.. जिस धर्म की जितनी बड़ी भीड़ होगी वो उतना ही रोड दुर्घटना में मारा जाएगा’.. कभी सुना है किसी नेता, विचारक, मोटिवेशनल स्पीकर, धार्मिक व्यक्ति के मुंह से ऐसी बातें?
2024 को अब तक के सबसे गर्म साल के रूप में याद किया जाएगा। इस साल रिकॉर्ड गर्मी और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में वृद्धि हुई। भारत भी इन आपदाओं से अछूता नहीं रहा।
(dw.comhi)
2024 भारत के लिए 123 सालों में सबसे गर्म साल रहा। भारतीय मौसम विभाग के निदेशक मृत्युंजय महापात्र ने बताया कि 1901 के बाद यह देश का सबसे गर्म साल था। उन्होंने कहा, ‘भारत में 2024 का भूमि सतह का औसत वार्षिक तापमान 1991-2020 की अवधि के औसत से 0.65 डिग्री सेल्सियस अधिक था।’
पिछले साल भारत ने अब तक की सबसे लंबी ताप लहर का सामना किया, जहां तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच गया। मई में दिल्ली में तापमान 49.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो 2022 में दर्ज किए गए रिकॉर्ड के बराबर था।
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है, लेकिन उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। फिलहाल, देश ऊर्जा उत्पादन के लिए मुख्य रूप से कोयले पर निर्भर है।
दुनियाभर में प्रभाव
यह साल दुनिया के लिए भी सबसे गर्म रहा। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि 2024 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हुआ, जो एक दशक तक लगातार बढ़ती गर्मी का चरम था। वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन के विशेषज्ञों का कहना है कि 2024 में हुई लगभग सभी प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता में जलवायु परिवर्तन की भूमिका थी। जलवायु वैज्ञानिक फ्रेडरिके ओटो ने कहा, ‘2024 में जीवाश्म ईंधनों से होने वाली तापमान वृद्धि के प्रभाव पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट और विनाशकारी थे। हम एक खतरनाक नए युग में जी रहे हैं।’
जून में सऊदी अरब में हज यात्रा के दौरान तापमान 51.8 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जिससे 1,300 से अधिक लोगों की जान चली गई। थाईलैंड, भारत और अमेरिका में भी गर्मी से दर्जनों लोगों की मौत हुई। मेक्सिको में हालात इतने गंभीर थे कि बंदर पेड़ों से गिरकर मरने लगे।
अप्रैल में संयुक्त अरब अमीरात में एक दिन में दो साल की बारिश हुई, जिससे दुबई का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बंद हो गया। पश्चिम और मध्य अफ्रीका में ऐतिहासिक बाढ़ से 1,500 से अधिक लोगों की मौत हुई और करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए। यूरोप, खासकर स्पेन, में भी भारी बारिश और बाढ़ के कारण सैकड़ों लोगों की जान गई।
अमेरिका और कैरिबियन में कई बड़े तूफानों ने तबाही मचाई, जिनमें मिल्टन, बेरील और हेलीन शामिल हैं। फिलीपींस में नवंबर में छह बड़े तूफान आए, जिनमें से एक तूफान यागी ने दक्षिण-पूर्व एशिया में भारी तबाही मचाई। दिसंबर में चक्रवात ‘चीनो’ ने मायोट द्वीप को बुरी तरह प्रभावित किया।
अमेरिका, कनाडा और अमेजन बेसिन में भीषण सूखे और जंगल की आग से लाखों हेक्टेयर भूमि जलकर खाक हो गई। दक्षिण अमेरिका में जनवरी से सितंबर तक जंगल की आग की 400,000 से अधिक घटनाएं दर्ज की गईं। दक्षिणी अफ्रीका में लंबे सूखे के कारण 2.6 करोड़ लोग भूखमरी के कगार पर पहुंच गए।
स्विस री इंश्योरेंस कंपनी ने 2024 में वैश्विक आर्थिक नुकसान का अनुमान 310 अरब डॉलर लगाया। ब्राजील में सूखे के कारण कृषि क्षेत्र को जून से अगस्त के बीच 2.7 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक स्तर पर वाइन उत्पादन 1961 के बाद सबसे कम रहा।
भारत के लिए चुनौतियां
जलवायु परिवर्तन ने न केवल भारत के तापमान को बढ़ाया है, बल्कि बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति भी बढ़ाई है। इससे कृषि उत्पादन और जनजीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा है।
2024 में भारत ने सबसे लंबी ताप लहर, भीषण बाढ़ और सूखे का सामना किया, जिससे हजारों लोगों की जान गई और अरबों का आर्थिक नुकसान हुआ।
विशेषज्ञों के मुताबिक गर्मी और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को देखते हुए भारत को अपने ऊर्जा स्रोतों को फिर से जांचने और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने की जरूरत है। भारत को 2070 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। कई विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में पर्यावरणीय खतरों को नजरअंदाज किया जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर त्वरित और ठोस कदम उठाना जरूरी हो गया है। 2024 ने यह चेतावनी दी है कि यदि तुरंत कार्रवाई नहीं की गई, तो इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं।
वीके/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
1 जनवरी के अवसर पर
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल इस 1 जनवरी 2025 को अपने सुदीर्घ जीवन के 88वां वर्ष पूर्ण कर 89वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं इस अर्थ में वे हिंदी के सबसे सम्माननीय बुजुर्ग कवि-लेखक हैं।
विनोद कुमार शुक्ल आज भी जिस तरह से लेखन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहते हैं, वह काफी कुछ विस्मित करने वाला है। उनके लेखन का क्षेत्र भी इधर विविध और विपुल होता जा रहा है, जिसमें बहुत सारा लेखन बच्चों और किशोरों के लिए भी है।
विनोद कुमार शुक्ल के लगभग दो काव्य संग्रह के लायक कविताएं और कहानियां अभी अप्रकाशित हैं। विनोद कुमार शुक्ल जिस तरह से प्रचुर मात्रा में लिख रहे हैं उससे लगता है कुछ ही दिनों में इसकी संख्या में काफी इजाफा भी संभव है।
विनोद कुमार शुक्ल के पाठकों की संख्या काफी बड़ी है। हिंदी से बाहर भी उन्हें पढ़ने और प्यार करने वाले उनके असंख्य पाठक वर्ग है। इसलिए उनके काव्य संग्रह और कहानी संग्रह की सबको आतुरता के साथ प्रतीक्षा है।
'मैं दुनिया के सारे सन्नाटे को सुनता हूं। रात में जब नींद नहीं आती है तो मैं मुक्तिबोध की तस्वीर के निकट जाकर बैठ जाता हूं और इस तरह मुक्तिबोध को अपने निकट पाता हूं।’ कहने वाले विनोद कुमार शुक्ल अपने जीवन और लेखन में मुक्तिबोध के सान्निध्य में बिताए हुए दिनों को याद कर इन दिनों बेहद भावुक हो उठते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल को गढ़ने में जिन पांच विराट चरित्रों की सर्वाधिक उल्लेखनीय भूमिका रही है उनमें उनकी मां श्रीमती रुक्मिणी देवी, चाचा किशोरी लाल शुक्ल जिन्होंने पिता की असमय मृत्यु के पश्चात पूरे परिवार को आश्रय दिया, विनोद जी की धर्मपत्नी श्रीमती सुधा शुक्ल, हरिशंकर परसाई तथा मुक्तिबोध प्रमुख हैं।
जबलपुर में कृषि महाविद्यालय में अध्ययन के दरम्यान विनोद कुमार शुक्ल को हरिशंकर परसाई का सान्निध्य मिला। विनोद कुमार शुक्ल अक्सर परसाई जी के नेपियर टाउन स्थित घर जाया करते थे।
राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुक्तिबोध की नियुक्ति के पश्चात अपने बड़े भाई संतोष शुक्ल जो मुक्तिबोध के छात्र थे, उनके साथ मुक्तिबोध के बसंतपुर निवास में जाकर पहले पहल मिलना विनोद जी को आज भी रोमांचित करता है कि किस तरह शाम की गहरे धुंधलके में मुक्तिबोध अपने हाथों में कंदील लेकर बाहर निकले थे , जिसकी रोशनी पहले आई थी, रोशनी के पीछे-पीछे मुक्तिबोध आए थे किसी कविता की अपूर्व बिम्ब की तरह।
साहित्य और अपने लेखन को लेकर विनोद कुमार शुक्ल का यह कथन दुनिया के किसी भी बड़े कवि या लेखक के कथन की तरह है, अभी हाल ही में रायपुर के शैलेंद्र नगर स्थित अपने घर में उन्होंने कहा था कि ’आप जो लिख रहे हैं, वह अपने लिए नहीं लिख रहे हैं। आप जो भी लिख रहे हैं वह सब ओर बिखर जायेगा और बिखर कर सब तक पहुंच जाएगा। मेरा लिखा हुआ अगर बिखर कर सब तक नहीं पहुंचा तो मेरा लिखा हुआ एक पेड़ की तरह हो जायेगा जिससे लोग मेरी छाया में सुस्ता सकें।’
अभी हाल ही में दिसंबर के माहांत में विनोद जी के पास इजरायल से एक मेल आया है जिसमें मरीना रिम्शा ने उनकी तीन कविताओं ’हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ’जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे’ और ’जीने की आदत’ के हिबू्र और अंग्रेजी में अनुवाद करने की इजाजत मांगी है।
मरीना रिम्शा ने विनोद कुमार शुक्ल को भेजे गए अपने मेल में लिखा है कि उनकी इन कविताओं के हिबू्र भाषा में अनुवाद से इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध में आहत नागरिकों को राहत मिलेगी।
विनोद कुमार शुक्ल का एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में भी आ गया है। अमेरिका में अरविंद कृष्ण मल्होत्रा इस कार्य को पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सम्पन्न किया है । अंग्रेजी में अनुदित विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की अनुवाद की यह किताब 2024 में अमेरिका से प्रकाशित हो गई है ।
विनोद कुमार शुक्ल ने बीते दस पंद्रह वर्षों में बच्चों और किशोरों के लिए ढेर सारा साहित्य लिखा है जो अब तक के प्रचलित और लोकप्रिय बाल साहित्य के खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता है। यह हिन्दी का वैसा बाल साहित्य भी नहीं है जो सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत है।
अब उनकी एक अलक्षित कविता की बात भी इस नए वर्ष के प्रथम दिन जो विनोद कुमार शुक्ल का भी जन्मदिन है उस पर भी थोड़ी चर्चा हो जाए।
‘नजर लागी राजा’ विनोद कुमार शुक्ल की एक अलक्षित कविता है जिस पर किसी काव्य पारखी, गुणगाहक या समीक्षक की दृष्टि अब तक नहीं गई है। इस कविता से विनोद कुमार शुक्ल का नाम हटा दिया जाए तो पहचान करनी मुश्किल होगी कि यह विनोद कुमार शुक्ल की कोई कविता है। उनकी यह कविता अपनी अंतर्वस्तु, रूप और भाषा सबमें अलग और अनूठी है।
हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना यह मानते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता काव्य की दृष्टि से एक विलक्षण कविता है। वे यह भी मानते हैं कि 'नजर लागी राजा’ जैसी कविता समकालीन हिंदी कविता में अन्यत्र नहीं है। यह समकालीन हिंदी कविता की उपलब्धि है।
इस कविता का जिक्र करने पर स्वयं विनोद कुमार शुक्ल कुछ कम चकित नहीं होते हैं। उन्हें दुख है कि इस सुंदर कविता पर अब तक किसी की भी दृष्टि नहीं गई है।
विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता उनके छठवें और अब तक अंतिम काव्य संग्रह 'कभी के बाद अभी’ (प्रकाशन वर्ष सन 2012) में संग्रहित है।
बहरहाल विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'नजर लागी राजा’ उनके 88 वें जन्मदिवस 1 जनवरी 2025 के अवसर पर प्रस्तुत है:
नजर लागी राजा
नजर लागी राजा काले चश्में में
अब तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली हूं
काले चश्मे से मैं नहीं दिखूंगी।
राजा! चश्मा उतार दे
और नजर मिला ले
अपने सांवलेपन में मैं अच्छी दिखूं
इसलिए मैं तेज धूप में खड़ी हूं।
काले चश्मे की बदली ने तुम्हारी
आंखों को
और मुझे और सांवला ढांक दिया है
काला चश्मा उतार कर मुझे पूरा उघार दे
और मुझे नजर लगा दे।
सचमुच तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली
अंधेरी रात में तुमसे मिलना चाहती हूं
तेरे काले चश्मे से पूर्णिमा का गोरा चन्द्रमा भी
नहीं दिखता होगा
धूप का चश्मा लगाने वाले
चश्मा उतार दे
रात में कहीं धूप होती है?
मुझे और धूप को देखे हुए तुम्हें बहुत
दिन हो गये
मैं बहुत सांवली हूं
काला चश्मा उतार कर केवल मुझे देखोगे
तो लगेगा तुमने काला चश्मा नहीं उतारा।
राजा! प्रेम का संसार बुझ गया
मेरी छाती चकमक पत्थर की तरह कठोर और गोल हैं
तुम्हारे हाथ भी चकमक पत्थर की तरह कठोर हैं
हाथों के आघात से जो चिनगारी पैदा होगी
उसी की यह बुझता संसार प्रतीक्षा कर रहा है
कि जल उठे
और प्रेम की अग्नि को पा सके
परन्तु राजा! मैंने तुम्हारे ह्रदय को पत्थर नहीं कहा।
राजा! तुम्हारा काला चश्मा मैं क्यों चुराऊंगी
क्या तुम इसे पहने सो रहे?
कई रातों की जागी
तुममें जो मेरा मन बसा है
तुम तक मुझे बुलाता है
चलते-चलते तुम्हारी दूरी से थकी
एक दिन तुम्हारे बिछौने पर
तुम्हारे साथ सो जाऊंगी
तुम चश्मा पहने सो रहे होगे
और मैं तुमको चश्मा सहित चुरा लूंगी।
राजा! तेरे काले चश्मे में मेरी नजर लगी
अपनी अनदेखी देह का क्या करूं
मैं कैसे उजागर होऊं
कि केवल तुम मुझे देख सको
या तो चश्मा उतार कर फेंक दो
धूप में खड़ी मैं कोयला
तुम्हारी देह की हवा को छू लेने से
चिनगारी परच
अंगार होकर दहक गई हूं
देखो सूर्य बुझ गया है
और मैं सुलग रही हूं।
चश्मा मत उतारो।
जो गरमी है वह मेरा ताप है
तुम अब चश्मा मत उतारना
मेरे ताप में बहुत तेज धूप
जैसे तुम्हारी धूप में
मेरी धूप निकली है।
राजा! काले चश्मे में मेरी नजर लगी है
पर तुम्हारी धूप और ताप को मैं नहीं सह पाऊंगी
तुम काला चश्मा मुझे दे दो
मैं शृंगार करूंगी
हंसुली, पैरी, मुंदरी, पहनूंगी
स्नो-पाउडर लगाऊंगी
कीमती गहने की तरह काला चश्मा पहनकर
तुमको रिझा लूंगी।
तुम मेरे लिए मड़ई-मेले से
एक काला चश्मा खरीद देना
हम दोनों काला चश्मा लगाये मेला घूमेंगे
फोटो खिंचवायेंगे
परदे के हवाई जहाज के साथ
जिसमें दोनों काला चश्मा लगाये
सूरज तक उड़ेंगे।
-ग्राहम फ्रेजर
यह बात साल 1995 की है। उस साल बीबीसी के कार्यक्रम ‘टुमॉरोज वल्र्ड’ से जुड़े लोगों ने फ़ैसला किया कि वो 2025 में दुनिया कैसी होगी, इसकी भविष्यवाणी करेंगे।
इस शो में मशहूर वैज्ञानिक स्टीफऩ हॉकिंग भी थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि ‘2025 तक हम कई बड़े बदलावों की उम्मीद कर सकते हैं।’
इस कार्यक्रम की टीम ने भी भविष्य में दुनिया को हिला कर रख देने वाले आविष्कारों की संभावनाओं को लेकर उम्मीद जताई थी। इनमें होलोग्राम सर्जरी से लेकर अंतरिक्ष में फैले कबाड़ को सोख लेने वाले जेल जैसी चीजें बनाने की संभावना जाहिर की गई थी।
आइए देखते हैं कि 30 साल पहले लगाए गए अनुमान कितने सही साबित हुए हैं। इस आकलन के लिए हमने कुछ विशेषज्ञों की भी मदद ली है।
2005 के ‘साइबर स्पेस झगड़े’
1995 में, दुनिया भर में वर्ल्ड वाइड वेब का दायरा बढ़ रहा था। यह एक ऐसा विकास था, जिसे लेकर ‘टुमॉरोज वल्र्ड’ का मानना था कि ये भविष्य में परेशानी बढ़ाएगा।
उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि बिजनेस की दुनिया के दिग्गज और बैंक साल 2000 तक इंटरनेट पर नियंत्रण हासिल कर लेंगे। वो ‘सुपरनेट’ बना सकते हैं, जिस तक पहुंच को वो सीमित कर सकते हैं।
इससे हैकिंग, वायरस और यहां तक कि झगड़े को बढ़ावा मिलेगा।
हुआ क्या? - इंटरनेट आज भी ज़्यादातर खुला ही है। किसी तरह की कोई अराजकता भी देखने को नहीं मिली है । लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हैकर्स के कारनामों ने लोगों की मुश्किलें बढ़ाई हैं
एक भविष्यवाणी जो इस कार्यक्रम में नहीं की गई थी, वो थी उत्तर कोरिया जैसे देश में ‘स्टेट हैकर्स’ की भूमिका की।
साइबर सुरक्षा सरकारों और कंपनियों के लिए बेहद अहम है। जिन लोगों को बैंकों पर संदेह है उन्होंने बिटक्वाइन जैसी क्रिप्टोकरंसी का समर्थन किया है।
अंतरिक्ष में मलबा और खनन की संभावना
इस कार्यक्रम में यह अनुमान भी लगाया गया था कि स्पेस माइनिंग एक आकर्षक उद्योग बन कर उभरेगा। कंपनियां पृथ्वी के नजदीक छोटे ग्रहों में बेशकीमती धातुओं के लिए खनन करवा सकती हैं। इस शो में यह कहा गया था कि अंतरिक्ष पर बढ़ता मलबा भी एक समस्या बन जाएगा। ये अंतरिक्ष यात्रियों के लिए जोखिम भरा हो सकता है। इन मलबों को विशालकाय फोम जेल के जरिये कम किया जा सकता है।
इस मलबे को रोकने के विकल्प के तौर पर एक विशाल फ़ोम जेल के बारे में बताया गया था।
हुआ क्या?- हालांकि ऐसी सुपर फोम जेल तो नहीं बन पाई है लेकिनअंतरिक्ष में मलबे की समस्या गंभीर बनी हुई है।
फिलहाल अंतरिक्ष में खनन उद्योग तो अस्तित्व में नहीं आया है लेकिन भविष्य में तस्वीर बदल सकती है।
भविष्यवादी टॉम चीजऱाइट इस बात को लेकर उम्मीद भरे हैं कि हमारी धरती से बाहर खनन हो सकता है।
उन्होंने कहा, ‘हमारे पास इससे पैसा कमाने की अथाह संभावना है। टेक्नोलॉजी पूरी तरह से हमारे काबू में है।’
सुपर सर्जन और उनके रोबोट
‘टुमॉरोज वल्र्ड’ ने कहा था कि 2004 तक ब्रिटेन के सभी अस्पतालों के लिए एक कानून पारित होगा, जिसके मुताबिक़ सर्जनों की सफलता दर पर एक तालिका प्रकाशित करना जरूरी होगा।
इसमें कहा गया था कि तब टॉप सर्जन बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हो जाएंगे और उनके पास काफी पैसा होगा। इसके बाद उनके लिए मरीजों के पास जाने का कोई तुक नहीं होगा।
इसके बजाय उनके पास मरीजों की होलोग्राम इमेज भेजी जाएगी और सर्जन ‘विशेष दस्तानों’ का उपयोग करके उनका ऑपरेशन करेंगे। मरीजों के सामने बैठे रोबोट दूर बैठे डॉक्टरों के सर्जन के निर्देश पर ऑपरेशन करेंगे।
हुआ क्या?- बिल्कुल ऐसा तो नहीं हो पाया है लेकिन रोबोट अब सर्जरी के दौरान सर्जन की मदद तो कर ही रहे हैं।
फ्लोटिंग हेड वाला एक स्मार्ट स्पीकर
इस कार्यक्रम में भविष्य के एक व्यक्ति को दिखाया है जो वीआर हेडसेट पहने था। इसमें उसकी युवा पत्नी को भी दिखाया गया था और जगह आज के लंदन जैसी दिख रही थी।
इसके एक हिस्से में, विज़ुअल इफेक्ट की सहायता से दिखाया गया कि एक महिला का तैरता हुआ सिर ‘स्मार्ट स्पीकर’ से बाहर आता है और आदमी को बताता है कि ‘इंडो डिज़्नी’ में बिताई गई उसकी छुट्टियों को एक साल हो गया है।
फिर वो महिला उस शख़्स को शटल के जरिये बेंगलुरू पहुंच कर छुट्टी बिताने के लिए कहती है और कहती है कि वहां पहुँचने में केवल 40 मिनट लगेंगे।
हुआ क्या?- अल्ट्रा-फास्ट यात्रा हमेशा की तरह बहुत दूर की बात बनी हुई है। मगर, होलोग्राम, स्मार्ट स्पीकर्स और वीआर हेडसेट जैसी चीजें अब तेज़ी से प्रचलित हो रही हैं।
बाँह में माइक्रोचिप के ज़रिए बैंकिंग का इस्तेमाल
कार्यक्रम में भविष्य में बैंकिंग कैसी होगी, इसे लेकर भी बताया गया था।
इसमें दिखाया गया कि एक महिला बैंक जाती हैऔर शिकायत करती है कि वहां कोई नहीं है। और उसके बाद वह 100 ‘यूरो माक्र्स’ निकालती है। बैंक उसकी बाँह में लगी चिप को स्कैन करके उसे पैसे दे देता है।
हुआ क्या?- वैसे बैंकिंग अब और भी ज़्यादा ऑटोमेटेड हो चुकी है। और मानव शरीर के अंदर माइक्रोचिप के माध्यम से भुगतान करना एक वास्तविकता है लेकिन बैंकिंग में आजकल मुख्य रूप से फिंगरप्रिंट और फेस स्कैनिंग का इस्तेमाल अधिक हो रहा है।
कार्यक्रम के एंकरों की यादें
30 साल पहले टुमॉरोज़ वल्र्ड प्रोग्राम के प्रस्तुतकर्ताओं में से एक थे मॉन्टी डॉन।
उन्होंने शो में अपने हिस्से में जेनेटिक इंजीनियरिंग और बहुआयामी कृषि सुविधाओं के आधार पर ब्रिटिश वुडलैंड्स के दोबारा पनपने को लेकर भविष्यवाणी की थी, जिसके कारण वहां ब्राउन बियर समेत अन्य प्राणियों की भी वापसी हो सकती है।
अब इस बारे में बात करते हुए उन्होंने बीबीसी न्यूज़ को बताया कि कार्यक्रम में उनका हिस्सा ‘कल्पना से भरपूर’ था। इन कल्पनाओं में एक भोलापन भी था।
अगले तीस वर्षों की कल्पना करते हुए वो वर्तमान युवा पीढ़ी को लेकर बहुत खुश हैं। उनका मानना है कि ‘युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन को लेकर संवेदनशील’ है।
और वह यह भी मानते हैं कि 2055 तक लोग अपने खाने की अधिकतर चीजों की खुद खेती करेंगे।
उन्होंने आगे कहा, ‘टुमारोज वल्र्ड कार्यक्रम इस बात पर केंद्रित था कि मानव जाति किस तरह दुनिया को बदल सकती है और इसे बेहतर बना सकती है। लेकिन हमने पाया है कि हमारी आदत चीजों को बदतर बनाने की है। खासकर पर्यावरण के मामले में। हमें प्रकृति को बदलने और नियंत्रित करने के बजाय उसके साथ काम करना होगा।’
एक और प्रस्तुतकर्ता थीं विविएन पैरी, जिन्होंने शो में दवाओं को लेकर एक हिस्सा प्रस्तुत किया था।
उनको इसका फिल्मांकन भी अच्छे से याद है। उन्होंने बताया, ‘मुझे एक दम स्थिर रहना था। मेरे पास चश्मों का एक सेट था। उसमें एक छोटा सा कैमरा लगा था। उसे काले चिपचिपे पदार्थ की एक बड़ी बूंद के माध्यम से मेरे चेहरे पर चिपकाया गया था।’
उन्होंने कहा, ‘गर्मी बहुत थी इसलिए काला पदार्थ मेरे चेहरे से टपकने लगा था। लेकिन मैं हिल नहीं सकती थी। फिर मेकअप वाले ने इसे हटाने की कोशिश की ताकि मैं इस दिक्कत से निपट सकूं।’
विविएना 2013 से जीनोमिक्स इंग्लैंड से जुड़ी हैं। वो बताती हैं कि 1995 में ‘टुमॉरोज वल्र्ड’ में की गई कुछ भविष्यवाणी सच साबित हुई हैं, जो जीनोमिक सिक्वेंसिंग से जुड़ी हैं। वो जेनेटिक स्थितियों का पता लगाने और उनका इलाज करने से जुड़े एक रिसर्च अध्ययन पर काम कर रही हैं।
तो 30 साल बाद कैसी होगी दुनिया?
भविष्यवादी ट्रैसी फ़ॉलोज़ मानती हैं कि यह बात सही है कि 1995 के कार्यक्रम के दौरान कई बड़े आइडियाज़ मिले थे।
लेकिन, उस दौरान बीते 30 सालों में जो दो बड़ी बातें हुईं, वो छूट गई थीं। इनमें से एक है बिग टेक। का प्रसार और दूसरा सोशल मीडिया।
वह मानती हैं कि 2055 तक लोग कुछ इस तरह से जुड़े होंगे, जहां मानव मस्तिष्क और प्रौद्योगिकी एक सर्वर के ज़रिए आइडियाज़ का आदान-प्रदान कर सकेंगे।
फॉलोज़ कहती हैं, ‘ब्रेनस्टॉर्मिंग वास्तविक रूप से संभव हो पाएगी, जहां मनुष्य अपना आइडिया दूसरे के साथ इस तरह भी शेयर कर पाएंगे।’
टॉम चीजऱाइट को लगता है कि अगले तीस सालों में दो रोमांचक संभावनाएं मैटेरियल साइंस और बायोइंजीनियरिंग से जुड़ी हो सकती हैं।
उन्होंने कहा, ‘धातुओं की दुनिया की बात करें तो और ज्यादा मजबूत, हल्के और पतले उपकरण दुनिया को बदल सकते हैं। जबकि सख्त नियमों से संचालित बायोइंजीनियरिंग से दवाओं में बहुत बदलाव आएगा। ये मानव जाति के सामने आज की बड़ी समस्याएं मसलन-डीकार्बनाइजेशन, साफ पानी की कमी और भोज जैसी समस्याओं को खत्म कर सकती हैं।
तो फिर अगले 30 साल में दुनिया कैसी होगी? आपका जवाब जो भी हो लेकिन यह सुनना अच्छा होगा
जो प्रोफेसर हॉकिंग ने तीन दशक पहले टुमॉरोज वल्र्ड में क्या कहा था।
उन्होंने कहा था, ‘इनमें से कुछ परिवर्तन बहुत रोमांचक हैं और कुछ चिंताजनक। एक बात जिसके बारे में हम निश्चित हो सकते हैं, वह ये कि बदलाव बहुत अलग होंगे। हम जैसी उम्मीद करते हैं शायद वैसा न भी हो।’(bbc.com/hindi)
अफगानिस्तान में 15 अगस्त 2021 को जब तालिबान ने अशरफ गनी की सरकार को सत्ता से बेदख़ल कर कमान अपने हाथ में ली थी तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया है।
इमरान खान ने तालिबान की जीत के एक दिन बाद ही यह बयान दिया था। पाकिस्तान की सरकार और सेना में जश्न का माहौल था।
पाकिस्तान में अशरफ गनी को भारत और अमेरिका समर्थक बताया जा रहा था। लेकिन अब पाकिस्तान की खुशी पीछे छूट गई है और वह तालिबान शासित अफगानिस्तान में हवाई हमले कर रहा है।
जिस तालिबान को पाकिस्तान से वर्षों तक मदद मिली, उसे लेकर अब हालात क्यों बदल गए?
पाकिस्तान की तालिबान नीति क्या नाकाम हो रही है? तालिबान क्या पाकिस्तान विरोधी हो गया है?
पिछले कुछ दिनों से यही बहस पाकिस्तानी मीडिया में जमकर हो रही है। पाकिस्तान के पत्रकार और पूर्व राजनयिक पाकिस्तान की तालिबान नीति पर सवाल उठ रहे हैं।
अफगानिस्तान से रिश्ते खऱाब होने की वजह
अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हककानी ने पाकिस्तान के न्यूज चैनल समा टीवी से कहा, ‘जो रिटार्यड अधिकारी हैं, उनको मैं सलाह दूंगा कि वो गोल्फ खेलें और अपना रिटायरमेंट अच्छे से गुजारें। देखिए अगर इन लोगों को विदेश नीति समझ में आती तो पाकिस्तान को पिछले कुछ सालों में जिन चीज़ों का सामना करना पड़ा है, वो नहीं हुआ होता।’
उन्होंने कहा, ‘ये तो काबुल फ़तह कर सोच रहे थे कि तालिबान वहाँ आएगा और पाकिस्तान का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा लेकिन वो तो हमारे ही गले पड़ गए हैं। विदेश नीति को समझने वालों के नज़रिया ही देखना चाहिए। आप कभी किसी ब्रिगेड के कमांडर थे तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको सब कुछ समझ में आ रहा होगा।’
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित का कहना है कि अफग़़ानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की नीति बुरी तरह विफल रही है। इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
वो कहते हैं कि एक ही समय पर दोनों देशों के बीच कारोबार और संबंध बढ़ाने की बात होती है और ठीक उसी समय पर हमले भी हो रहे होते हैं।
अब्दुल बासित अफग़़ानिस्तान से संबंध बिगडऩे के केंद्र में पाकिस्तान तालिबान (टीटीपी) को देखते हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान में आतंकवादी हमले बढ़े हैं और पाकिस्तान सरकार टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के खिलाफ कार्रवाई कर रही है लेकिन टीटीपी के सुरक्षित पनाहगाह अफगानिस्तान में हैं। इस तरह से ये पूरा मामला बेहद संवेदनशील हो जाता है।
अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज चैनल एबीएन न्यूज से कहा, ‘ये बड़ा संवेदनशील मामला है। अफगान तालिबान और पाकिस्तान तालिबान पूर्व में सहयोग करते रहे हैं। पाकिस्तान ये भी चाहता है कि काबुल के साथ उसके संबंध अच्छे हों, लेकिन ये हमले भी मजबूरी बन जाते हैं क्योंकि तालिबान सरकार पाकिस्तान तालिबान के ख़िलाफ़ क़दम नहीं उठा रही है।’
वो कहते हैं, ‘इन तमाम चीज़ों के बाद भी अफगानिस्तान नीति नाकाम हो गई है। इस हमले से एक दिन पहले हमारे विशेष प्रतिनिधि काबुल में मौजूद थे, ट्रेड बढ़ाने की बात कर रहे थे और दूसरी तरफ़ हमले हो रहे थे। इसका मतलब है कि शीर्ष स्तर पर आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। अगर हो भी तो वो दिख नहीं रहा है।’
अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने कहा है कि 24 दिसंबर की रात पकतीका के बरमल जि़ले में पाकिस्तानी हवाई हमले में 46 लोग मारे गए हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे।
पाकिस्तान की सरकार या सेना ने आधिकारिक तौर पर हमलों के बारे में कुछ नहीं कहा है, लेकिन कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर संवाददाताओं से कहा कि उनकी सेना ने बरमल जिले में ‘आतंकवादियों’ पर हमला किया।
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार ने 28 दिसंबर को कहा कि उसने जवाबी कार्रवाई के तौर पर पाकिस्तानी इलाक़े में हमले किए हैं।
उसने दावा किया है कि इस हमले में पाकिस्तानी अर्द्धसैनिक बल के कम से कम एक जवान मारा गया है और सात घायल हो गए हैं।
अफग़़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा विवाद
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सीमा विवाद भी है। अफगानिस्तानऔर पाकिस्तान के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा को डूरंड लाइन नाम से जाना जाता है। अफगानिस्तान इसे अपनी सरहद के तौर पर स्वीकार नहीं करता।
ब्रिटिश इंडिया में उत्तर-पश्चिमी हिस्सों पर नियंत्रण मजबूत करने के लिए 1893 में अफगानिस्तान के साथ 2640 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा खींची थी।
ये समझौता काबुल में ब्रिटिश इंडिया के तत्कालीन विदेश सचिव सर मॉर्टिमर डूरंड और अमीर अब्दुर रहमान ख़ान के बीच हुआ था। लेकिन अफगानिस्तान की किसी भी सरकार ने डूरंड लाइन की मान्यता नहीं दी।
थिंक टैंक विल्सन सेंटर के साउथ एशिया इंस्टीट्यूट डायरेक्टर माइकल कुगलमैन कहते हैं कि दरअसल पाकिस्तान का ये मानना कि तालिबान की अफगानिस्तान में सत्ता वापसी से उन्हें टीटीपी को रोकने में मदद मिलेगी, ये एक बड़ी विफलता है।
वो कहते हैं कि अगर ख़बरों की मानें तो पाकिस्तान के हालिया हमले में नागरिकों खास तौर पर बच्चों और महिलाओं की मौत हुई और पाकिस्तान टीटीपी के शीर्ष नेताओं को खत्म करने में विफल रहा । अगर ये सही है तो ये निश्चित तौर पर ये सामरिक और रणनीतिक विफलता होगी।
वो कहते हैं कि पाकिस्तान की स्थिति कठिन है। इसकी मुख्य वजह है कि अगस्त, 2021 में जब अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई तो पाकिस्तान को लगा कि इससे उन्हें टीटीपी को रोकने में मदद मिलेगी जबकि सच्चाई यह है कि तालिबान ने कभी अपने मिलिटेंट सहयोगियों (अलकायदा) को पीठ नहीं दिखाई है, ख़ास तौर पर जब वो टीटीपी जैसे कऱीबी हों तो और भी नहीं।
पाकिस्तान को अपनी नीतियों को लेकर स्पष्ट होना होगा
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित का कहना है कि पाकिस्तान को लगा था कि तालिबान के आने के बाद भारत को वो स्पेस नहीं मिलेगी अफग़़ानिस्तान में जो अशरफ गनी के समय मिल रही थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
उन्होंने कहा, ‘अब भी पाकिस्तान ने पूरी तरह अफगानिस्तान के साथ राजनयिक संबंध बहाल नहीं किए हैं। पाकिस्तान एक तरह से दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है, तो बात ये है कि आप तालिबान पर दबाव नहीं बना सकते। इस मामले में सही कोशिश होनी चाहिए।’
वो कहते हैं कि जो कछ भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच हो रहा है वो चिंता का विषय है और पाकिस्तान के साथ तालिबान भी इसके लिए जि़म्मेदार है। वो कहते हैं कि ऐसा लगता है कि भारत की तरह ही अफग़़ानिस्तान से भी दुश्मनी सी हो गई है। भारत के साथ भी सीमा के मसले रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं रहा है।
पाकिस्तान मामलों के रक्षा विशेषज्ञ एजाज़ हैदर कहते हैं, ‘दहशतगर्दी पर काबू पाना मुश्किल काम है। अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय मान्य सीमा को मानता नहीं है। वहीं, वो टीटीपी को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं। तालिबान पख्तून या अफगान राष्ट्रवाद की वजह से कर रहे हैं और ये टीटीपी को लेवरेज के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। एक मांग ये भी थी कि जो क़बाइली जि़ले हैं, उनका स्टेट्स पहले वाला बहाल करें।’
‘अफग़़ानिस्तान की अंतरिम सरकार चाहती है कि ये इलाका बफऱ ज़ोन के रूप में हो और टीटीपी के लोग इसके अंदर हों और पाकिस्तान की रियासत का यहां कोई दखल न हो और फिर ये इलाक़ा विचारधारा और धर्म के आधार पर धीरे-धीरे उनके पास आ जाएं।’
वो कहते हैं कि पाकिस्तान को नीतियां तैयार करते समय इन सारी बातों का ख़्याल रखना होगा। अपनी नीतियों को लेकर स्पष्ट होना होगा। इसमें पारदर्शिता होनी चाहिए।
पाकिस्तान के हमले के बाद अफग़़ानिस्तान ने जवाबी हमले किए थे। इस पर विश्लेषक साजिद तरार कहते हैं, ‘अफगानिस्तान ने पाकिस्तान पर जो हमला किया, वो कोई आम हमला नहीं था। इसमें जो हथियार इस्तेमाल हुआ है, वो आधुनिक हैं। ये अफगानिस्तान का पाकिस्तान पर हमला है, ये व्यक्तिगत हमला नहीं है। उन्होंने ये समझ लिया है कि पाकिस्तान कितना कमजोर है।’
पाकिस्तान के दूसरे देशों के साथ बिगड़ते रिश्ते
पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार नजम सेठी कहते हैं कि पाकिस्तान का रिश्ता दूसरे देशों के साथ अच्छे नहीं हो रहे हैं। उनका कहना है कि पड़ोसी देश भारत के साथ पहले से ही रिश्ते तनावपूर्ण हैं और अफगानिस्तान के साथ भी रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘आपके (पाकिस्तान) संबंध इस क्षेत्र में सिर्फ बांग्लादेश के साथ ही थोड़े ठीक हुए हैं, वो भी आपकी कोशिश की वजह से नहीं बल्कि उनके बांग्लादेश में आंतरिक घटनाक्रम की वजह से। बांग्लादेश में एंटी इंडिया भावनाओं की वजह से। पाकिस्तान के लिए ये एक बहुत अच्छी चीज़ हुई है। मगर बाक़ी जगह नकारात्मकता ही है।
नजम सेठी कहते हैं, ‘भारत के साथ रत्ती भर आपके ताल्लुकात अच्छे नहीं हुए हैं। अफग़़ानिस्तान के साथ संबंध और भी खऱाब हो गए हैं। बात ये है कि ईरान के साथ रिश्ते तो बेहतर हो नहीं रहे हैं, ईरान आप पर विश्वास ही नहीं करता है।’ (bbc.com/hindi)