विचार / लेख
वीर नारायण सिंह की पुण्य स्मृति (10 दिसम्बर) पर विशेष
-चुन्नीलाल साहू
वर्ष 1857 के महान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उल्लेख होते ही दिल्ली, झांसी, कानपुर और मेरठ की छवियाँ सहज ही स्मृतियों में उभर आती हैं। लेकिन आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में हमारे क्रांतिवीरों का एक गौरवशाली अध्याय ऐसा भी है, जो छत्तीसगढ़ और पश्चिम ओडि़शा की धरती पर लिखा गया, जहाँ ऐसे रणबांकुरे पैदा हुए जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता को बार-बार चुनौती दी। यह कहानी सिर्फ वीर नारायण सिंह की शहादत तक सीमित नहीं है, उनके पुत्र गोविंदसिंह, ससुर माधवसिंह, साले कुंजलसिंह और अंत में किसानों के संरक्षक लालसिंह मांझी तक फैली एक सुदीर्घ, किंतु विलक्षण, देशभक्ति पूर्ण संघर्ष-गाथा है। अमर शहीद वीर नारायण सिंह के पुण्य स्मृति-दिवस पर हमें इतिहास की इस वीरता पूर्ण गाथा को याद करना चाहिए।
वह 10 दिसंबर 1857 का दिन था, जब छत्तीसगढ़ ने अपना महान देशभक्त योद्धा वीर नारायण सिंह को हमेशा के लिए खो दिया, अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार ने रायपुर में उन्हें मौत की सजा दे दी। वीर नारायण सिंह सोनाखान के प्रजा हितैषी ज़मींदार थे। सोनाखान उस ज़माने में रायपुर जिले में था, वर्तमान में बलौदा बाज़ार-भाटापारा जिले में है। वीर नारायण सिंह पर अकाल पीडि़त ग्रामीणों के लिए एक सम्पन्न व्यक्ति का अनाज भंडार खुलवाकर जरूरतमंद लोगों में वितरित करने का आरोप अंग्रेज हुकूमत द्वारा लगाया गया था। अंग्रेजों की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की ।वीर नारायण सिंह ने किसानों और ग्रामीणों को संगठित कर अंग्रेजी फौज के खिलाफ संघर्ष किया, लेकिन आखिऱ उन्हें गिरफ्तार होना पड़ा और वे मौत की सजा पाकर शहीद हो गए।
अंग्रेज हुकूमत का दमन चक्र यहीं नहीं थमा। नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह को भी लंबे समय तक जेल में बंद रखा गया। उन्हें 16 अगस्त 1859 को रिहा किया गया। रिहा होने के बाद उनके मन में केवल एक संकल्प था, उनके पिता के प्रति विश्वासघात करने वाले देवरी के ज़मींदार महाराज साय को दंडित करना। इस उद्देश्य से वे बरगढ़ (पश्चिम ओडिशा ) स्थित अपने मामा के गांव घेंस पहुँचे, जहाँ उनके नाना और घेंस के ज़मींदार माधव सिंह पहले ही अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए थे।
वीर नारायणसिंह की फाँसी के बाद माधवसिंह ने संघर्ष की मशाल अपने हाथों में ले ली। उन्होंने 72 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का कठोर प्रतिरोध किया, सिंघोड़ा घाटी को बंद किया। यह घाटी वर्तमान राष्ट्रीय राजमार्ग 53 पर रायपुर -सम्बलपुर के बीच पड़ती है । माधवसिंह ने इस घाटी में अपने चार बहादुर पुत्रों के साथ लगभग दस महीनों तक अंग्रेजी सेना से सीधी भिड़ंत की। कई बार अंग्रेजों को मात देने के बाद भी, कुछ स्थानीय जमींदारों के विश्वासघात के कारण वे पकड़े गए और 31 दिसंबर 1858 को सम्बलपुर में उन्हें फाँसी दे दी गई। उनकी शहादत के तुरंत बाद अंग्रेजों ने घेंस जमींदारी पर कब्जा कर लिया और विद्रोह को कुचलने के लिए भारी सेना तैनात कर दी। इसी दौरान वीर नारायण सिंह के दूसरे साले और प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर सुरेंद्र साय के सेनापति कुंजल सिंह ने पश्चिम ओडि़शा में स्थित नृसिंहनाथ और गंधमार्दन की पहाडिय़ों में नई रणनीतियाँ बनानी शुरू कर दी। सहयोग की कमी के बावजूद उन्होंने माड़ागुड़ा और सोनाबेड़ा के पहाड़ी क्षेत्र में स्थानीय जनजातियों के साथ मिलकर देवरी के उस व्यक्ति को दंडित करने का निश्चय किया। वीर सुरेन्द्र साय के मार्गदर्शन में 10 मई 1860 को कुंजल सिंह,हटेसिंह, बैरीसिंह और गोविंदसिंह ने देवरी पर हमला किया और कुंजल सिंह ने स्वयं उस विश्वासघाती ज़मींदार का अंत कर दिया।
इस घटना से अंग्रेज हुकूमत बौखला उठी । कुंजल सिंह पर 500 रुपये और गोविंद सिंह पर 250 रुपये का इनाम घोषित कर दिया गया। इसके बाद विद्रोही दल ने पदमपुर की ओर न जाकर खरियार जमींदारी में शरण ली, जहाँ किसानों का अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ आंदोलन पहले से जारी था और राजा कृष्णचंद्र देव का उन्हें परोक्ष समर्थन भी प्राप्त था। इसी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे नुआपाड़ा के पास स्थित तानवट गांँव के गौंटिया-लालसिंह मांझी। आगे चलकर वे इस समूचे संघर्ष के सबसे प्रमुख और निर्णायक योद्धा सिद्ध हुए।
लालसिंह मांझी ने किसानों की ज़मीन , उनके अधिकार और उनकी परम्पराओं की रक्षा को जीवन का ध्येय बनाया। वे समझते थे कि अंग्रेजों की ठेकेदारी व्यवस्था किसानों के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी। उन्होंने विद्रोही दल को जंगलों में सुरक्षित आश्रय उपलब्ध करवाया, मार्गदर्शन दिया और खुद गुरिल्ला युद्ध की शैली में अंग्रेजों का सामना करने लगे। मई 1860 तक अंग्रेजी सेना तोर्रा गांव तक पहुँच चुकी थी, लेकिन घने जंगल और भारी वर्षा उनके कदम रोकते रहे। सितंबर-अक्टूबर 1860 में युद्ध पुन: तेज हुआ और लालसिंह मांझी ने कैप्टन कॉकबर्न को रणभूमि में पराजित कर दिया। यह हार अंग्रेजों की प्रतिष्ठा के लिए बड़ा आघात थी। उन्होंने लालसिंह मांझी को डाकू और विश्वासघाती घोषित कर दिया और विद्रोही करार दिया। नवम्बर 1860 में रायपुर से 390 सैनिक बुलाए गए और तीन दिशाओं से लालसिंह मांझी पर धावा बोला गया, लेकिन उनकी छापामार युद्धकला और पहाड़-जंगलों का भूगोल अंग्रेजों के लिए अबूझ साबित हुआ।
मानिकगढ़, जुमलागढ़ और सोनाबेड़ा की पहाडिय़ाँ लालसिंह की ढाल बन गईं। ग्रामीणजन भी पूरी निष्ठा से उनके साथ खड़े थे। कई बार गाँवों के लोग गाय-बैलों को मार्ग में छोडक़र अंग्रेजों की सेना को रोक देते, जिससे उनकी गति थम जाती थी । इन लगातार असफलताओं से अंग्रेज प्रशासन के अफसर बुरी तरह हताश होने लगे। जब अंग्रेजों को लगा कि ग्रामीण विद्रोहियों का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे, तो उन्होंने खरियार के राजा कृष्णचंद्र देव पर दबाव बढ़ाया। उन्हें भारत का खतरनाक राजा (डेंजरस किंग ऑफ इंडिया) घोषित कर पदवी छीनने की धमकी दी गई। इसके बाद अंग्रेजों ने भयानक दमन शुरू किया। गांवों को जलाने , पशुओं को जब्त करने और ग्रामीणों को तरह -तरह की यातनाएँ देने लगे। तब यहीं लालसिंह मांझी का सबसे बड़ा निर्णय सामने आया। वे जानते थे कि युद्ध जारी रखने से उनके अपने क्षेत्र के गांव और किसान बर्बाद हो जाएंगे। विकल्प मात्र दो थे। या तो निरंतर संघर्ष कर गाँवों को उजड़ते देखना या स्वयं का बलिदान देकर अपने लोगों को बचा लेना। उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना।
उन्होंने पहले वीर सुरेंद्र साय, कुंजलसिंह, हटेसिंह और गोविंदसिंह को सुरक्षित स्थान सोनाबेड़ा, गतिबेड़ा की पहाडिय़ों तक पहुँचाया। इसके बाद उन्होंने 22 नवंबर 1860 को खरियार के राजा कृष्णचंद्र देव के सामने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया। अगले दिन राजा ने लालसिंह मांझी और उनके साथी चेतशाह को अंग्रेज कमांडर वॉलेंस के हवाले कर दिया। उन्हें सम्बलपुर ले जाया गया और 26-27 नवम्बर 1860 के बीच काला पानी की सजा सुनाकर सुदूरवर्ती अंडमान द्वीप भेज दिया गया। वहीं लाल सिंह मांझी की जीवन यात्रा का अंत हो गया। अपनी मिट्टी को अंतिम बार देखे बिना वे देश के लिए और अपनी जनता के लिए शहीद हो गए।
वीर नारायणसिंह, उनके पुत्र गोविंद सिंह, जमींदार माधवसिंह, सेनापति कुंजल सिंह और किसानों के मसीहा लालसिंह मांझी, इन सभी ने उस दौर में अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी, जब उसका सामना करना असंभव माना जाता था। उनका संघर्ष केवल स्वतंत्रता का संघर्ष नहीं था। वह स्वाभिमान, भूमि, परंपरा और मानवीय गरिमा की रक्षा का युद्ध था।
वीर नारायण सिंह के साथ-साथ इन वीरों के बलिदानों को याद करना केवल इतिहास दोहराना नहीं, बल्कि उस मिट्टी की सुगंध को महसूस करना है, जिसे बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राण अर्पित कर दिए। यह वीर गाथा हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता केवल बड़े शहरों में हुए आंदोलनों से या लड़ाइयों से नहीं मिली, बल्कि यह जंगलों, पहाड़ों, घाटियों और छोटे गाँवों में जन्मे अनगिनत वीरों की भेंट है, जिनकी कहानियाँ आज भी हमारे मस्तकों को गर्व से ऊँचा उठाती हैं।
(लेखक-पूर्व सांसद महासमुंद लोकसभा और कोसल के क्रांतिवीरों के शोधकर्ता हैं)


