विचार / लेख

कानों कान खबर नहीं, किसी पर असर नहीं
20-Dec-2025 7:32 PM
कानों कान खबर नहीं, किसी पर असर नहीं

-प्रकाश दुबे

अजीब समानता है। भ्रष्टाचार का मामला सतह पर आने के बाद हर आरोपी न्याय पाने के लिए लडऩे का दावा करता है। भांडा फूटने पर गुम होने वालों में से कुछ अस्पताल में भर्ती होते हैं। रोग की जकडऩ में होने का डॉक्टरी प्रमाणपत्र उन्हें आसानी से मिलता है। बीमारी का नाम भ्रष्टाचार नहीं लिखा होता। कार्रवाई से बचने का यह मान्यता प्राप्त उपचार बनता जा रहा है। सिर्फ मासूम पूछ सकते हैं कि नाशिक के केनेडी कार्नर में अपने और भाई के नाम दो फ्लैट लेने के लिए कम आय वर्ग का फर्जी प्रमाणपत्र क्यों देना पड़ा?

पांच बार की विधायकी का सेहरा सिर पर है। दो साल की कैद और 50 हजार का जुर्माना सामने है। सिन्नर में राजनीति करने वाले माणिकराव शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस के शरद और अजित पवार वाले गुटों में भ्रमण करते रहे हैं। बुरे वक्त में कोई काम नहीं आया।  कोकाटे का त्यागपत्र मुख्यमंत्री के पास भेजने के बाद उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने जनता को संवादमाध्यमों के जरिये बहलाया-हम संविधान और न्याय का आदर करते हैं। मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री कोई दादा की बात नहीं काट सकता। उन सबने समय समय पर इसकी बानगी पेश की है। बीड जिले में कार्यकर्ता की हत्या के बाद लंबे समय तक खींचतान के बावजूद इस्तीफा देने के लिए विवश धनंजय मुंडे इस संवैधानिक सत्य से सहमत होकर सक्रिय हो उठे। कोकाटे के त्यागपत्र से रिक्त सिंहासन के लिए मुंडे अपने राजतिलक की आस लगा बैठे होंगे।

मध्यप्रदेश में पन्ना जिले की प्रतिनिधि राज्यमंत्री के भाई हैं या कथित भाई और बहिनोई, यह जानकारी एक तरफ। उनके पास से नशीले पदार्थ का जखीरा बरामद किया, यह तो सर्वज्ञात है। राष्ट्र में हो या सिर्फ महाराष्ट्र में अनदेखी हुई या लापरवाही, या मिलीभगत का भांडा फूटा? तय होना बाकी है।

जाकी रही भावना जैसी के मुताबिक असली पापी की तलाश शुरु है। करोड़ों के सिंचन घोटाले में अजित दादा पर अंगुली उठाने वालों को रोकने वाले तत्काल सवाल पूछेंगे-खजाने की चाबी, पत्नी को राज्यसभा और साथियों को मलाईदार महकमे देने वाले कौन हैं? अंगुली की दिशा मोडऩे वाले ताल ठोंककर कहेंगे-इतने सालों से अदालतें क्या कर रही हैं? अदालतों का सुख दुख न्यायाधीश जानें, दूर किनारे पर बैठे लोग आपस में बतियाते समय नौकरशाही का नाम लेते हैं। इस तरह दुनिया में सब चोर चोर का शोर कानों में गूंजता है। मध्यकाल नहीं है, जब सबकी तरफ से कवि दोहा रचता था-जो दिल खोजों आपनो मुझसा बुरा न कोय।

बकझख परिक्रमा का निष्कर्ष आसान है। भ्रष्टाचार की जांच करने वाली एजेंसियों के पास पर्याप्त कर्मचारी और सुविधाएं नहीं हैं। अदालतों में न्यायाधीश कम हैं। लाडली बहन के नाम पर घोटाला करने फर्जी भाई छ़ुट्टे घूम रहे हैँ। मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस अकेले अपवाद हैं जिन्होंने समाचार पत्र के कार्यालय में दृढ़ता से कहा कि बहनों का पैसा डकारने वालों को बख्शा नहीं जाएगा।  यह कोई नीति विषयक निर्णय नहीं है। प्रशासन को अपनी तरफ से कार्रवाई कर अब तक दोषी व्यक्तियों को सही जगह भेज देना चाहिए था। संबंधित मंत्री को जिम्मेदार ठहराने के बजाय पूरा मंत्रिमंडल कड़ाई बरतकर प्रमाणित कर सकता था कि उनकी वास्तविक संवेदना महिलाओं के साथ है।किसी ने विचार ही नहीं किया कि चुनाव जिताऊ रणनीति का आरोप लगाने वालों का मुंह तभी बंद किया जा सकता है जब हर राज्य में महिलाओं सहित वंचित वर्ग के कल्याण के लिए तय राशि गड़प करने वालों को सचमुच कानून का भय हो। पात्र व्यक्तियों को भरोसा हो कि मंदिर में विराजमान मूर्ति पर प्रसाद चढ़ाने का दिखावा उनके साथ नहीं किया जा रहा है। उनके अधिकार को कानूनी मान्यता देने की कर्मठता कायम है।       

 

महाराष्ट्र इन दिनों स्थानीय निकाय के चुनाव की नाव पर सवार है। मंत्री के त्यागपत्र का बवंडर परेशान करने लगा। नाशिक जिले से चार चार मंत्री हैं। आपसी कलह इतना अधिक है कि पालक मंत्री से लेकर नाशिक कुंभ तक की कमान संभालने पर खींचतान समाप्त हो ही नहीं रही है।

हमारी निराशा, हताशा और सही मुद्दों से पलायन की प्रवृत्ति के कारण गंभीर समस्याएं सोशल मीडिया के चुटकुले में बदलने लगी हैं। नैतिक पराजय पर खिसियानी हंसी हंसकर अपना अपराध छुपाने लगे हैं। क्रिकेट खिलाडिय़ों को अपनी टीम में शामिल करने के लिए करोड़ों की बोली लगती है। 25 करोड़ रुपए में एक खिलाड़ी खरीदा गया। जिन खिलाडिय़ों के पास जूते नहीं थे, वे भी करोड़ों में बिके। यह तो हुई यश-कथा। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद याद नहीं आए, जिन्होंने नंगे पैर खेलकर भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता। हम उन खिलाडिय़ों की विवश्यता पर कुपित नहीं होते जिन्हें माता पिता अपने खर्च से मैच में शामिल होने भेजते हैं। हमें सलीम दुर्रानी के परिवार की वर्तमान स्थिति का ध्यान नहीं आया। हमें इस बात का तनिक अफसोस है कि विधायक-सांसद बार बार जीत की कई बार पेंशन लेते हैं। साथ ही गरीब के हिस्से के आवास भी? हम कह रहे हैं-इससे अधिक कमाई राजनीति में हो जाती है। इसे संवेदना कहना उचित होगा?

(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)


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