विचार/लेख
-आमिर खान
भारत मनोरंजन और मीडिया उद्योग में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, यह तेजी से बढ़ रहा है और लगातार विकसित हो रहे परिदृश्य में फल-फूल रहा है। हम इंटरनेट कनेक्शन पर ऑडियो और वीडियो फाइलों को निरंतर प्रसारित करने की सेवाओं, क्षेत्रीय भाषा निर्माणों और तकनीक-प्रेमी दर्शकों के उदय से प्रेरित विविध प्लेटफार्मों पर सामग्री निर्माण में उछाल देख रहे हैं, जो ताजा, आकर्षक और समावेशी कथाओं की मांग करते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस क्षेत्र में भारत के लिए अपार संभावनाएं हैं, न केवल मनोरंजन के स्रोत के रूप में बल्कि सांस्कृतिक अभिव्यक्ति, आर्थिक विकास और वैश्विक प्रभाव के लिए एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में। विश्व ऑडियो विजुअल और मनोरंजन शिखर सम्मेलन, जिसे संक्षिप्त शब्द वेव्स के नाम से जाना जाता है, 1 से 4 मई, 2025 तक मुंबई, महाराष्ट्र में भारत सरकार द्वारा आयोजित किया जा रहा है, जो भारत के बढ़ते सम्मान और उसकी बढ़ती पहचान का गवाह होगा और वेव्स बाज़ार इस आयोजन का एक प्रमुख भाग है। उद्योग में दशकों बिताने वाले व्यक्ति के रूप में, मेरा मानना है कि कहानी सुनाने में एकजुट होने, प्रेरित करने और बदलने की ताकत है। वेव्स और वेव्स बाज़ार के साथ, हम वैश्विक मनोरंजन समुदाय के लिए अधिक सहयोगी और समावेशी भविष्य बनाने की दिशा में एक साहसिक कदम उठा रहे हैं।
वेव्स बाज़ार वैश्विक मनोरंजन इकोसिस्टम में पेशेवरों, व्यवसायों और रचनाकारों को जोडऩे के लिए तैयार किया गया एक क्रांतिकारी ऑनलाइन बाज़ार बनने का प्रयास है। सहजता से और मिलजुलकर काम करने को बढ़ावा देने के अपने मिशन के साथ, वेव्स बाज़ार मीडिया और मनोरंजन उद्योग के लिए अंतिम व्यावसायिक केन्द्र के रूप में काम करने का प्रयास करता है, जिससे पेशेवरों को अपनी पहुँच का विस्तार करने, नए अवसरों की खोज करने और उच्च-मूल्य वाली साझेदारियों में शामिल होने में मदद मिलती है। 27 जनवरी, 2025 को केन्द्रीय सूचना और प्रसारण, रेलवे और इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव द्वारा आधिकारिक रूप से शुरू किया गया, वेव्स बाज़ार मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र में वेव्स शिखर सम्मेलन को एक प्रमुख कार्यक्रम में बदलने के माननीय प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को साकार करने में एक महत्वपूर्ण साधन है, जो वित्त और अर्थव्यवस्था क्षेत्रों के लिए दावोस शिखर सम्मेलन जैसा है।
मेरा मानना है कि शुरूआत के बाद से, एमऔरई सेक्टर के विभिन्न क्षेत्रों से 5500 खरीदार, 2000 से ज़्यादा विक्रेता और लगभग 1000 प्रोजेक्ट पोर्टल पर पंजीकृत हो चुके हैं। लंबे समय में, पोर्टल को एमऔरई उद्योग के लिए एक व्यापक कंटेंट मार्केटप्लेस और नेटवर्किंग हब के रूप में विकसित होने की उम्मीद है, जिसमें एआई-संचालित प्रोफाइलिंग और मैचमेकिंग टूल शामिल हैं। यह प्लेटफ़ॉर्म के भीतर ऑनलाइन पिचिंग सेशन, वर्चुअल बी2बी मीटिंग, वेबिनार और बहुत कुछ की मेजबानी करेगा।
वेव्स बाज़ार एक अनूठा ई-मार्केटप्लेस है जो मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र के हितधारकों को एक साथ लाता है- जिसमें फि़ल्म, टेलीविजऩ, एनीमेशन, गेमिंग, विज्ञापन, एक्सआर, संगीत, साउंड डिज़ाइन, रेडियो और बहुत कुछ शामिल है। यह प्लेटफ़ॉर्म खरीदारों और विक्रेताओं के बीच एक पुल के रूप में कार्य करेगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि उद्योग के पेशेवर आसानी से अपनी विशेषज्ञता का प्रदर्शन कर सकें, संभावित ग्राहकों से जुड़ सकें और सार्थक सहयोग प्राप्त कर सकें।
चाहे आप एक फिल्म निर्माता हों जो एक प्रोडक्शन पार्टनर की तलाश कर रहे हों, एक विज्ञापनदाता जो सही मंच की तलाश कर रहे हों, एक गेम डेवलपर जो निवेशकों की तलाश कर रहे हों, या एक कलाकार जो अपने काम को वैश्विक दर्शकों के सामने प्रदर्शित करना चाहते हों, वेव्स बाजार उद्योग के पेशेवरों को नेटवर्क, सहयोग और अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए एक गतिशील स्थान प्रदान करने की आशा करता है।
वेव्स बाजार एक एकीकृत बी2बी बाज़ार है जो वैश्विक मनोरंजन उद्योग के जुडऩे, सहयोग करने और बढऩे के तरीके में क्रांतिकारी बदलाव ला रहा है। फिल्म, टेलीविजन, संगीत, गेमिंग, एनीमेशन, विज्ञापन और एक्सआर, एआर और वीआर जैसी इमर्सिव तकनीक के पेशेवरों को एक साथ लाकर, यह प्लेटफ़ॉर्म विविध रचनात्मक क्षेत्रों में लिस्टिंग, खोज और लेन-देन के लिए एक व्यापक स्थान प्रदान करता है। चाहे आप वितरण चाहने वाले निर्माता हों, नए आईपी की तलाश करने वाले गेम डेवलपर हों या लाइसेंसिंग अवसरों की तलाश करने वाले साउंड डिज़ाइनर हों, वेव्स बाज़ार श्रेणी-विशिष्ट लिस्टिंग, सुरक्षित व्यूइंग रूम और क्यूरेटेड नेटवर्किंग सुविधाओं के साथ पूरी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करता है।
निर्बाध व्यावसायिक संपर्कों के लिए डिज़ाइन किया गया, वेव्स बाज़ार विक्रेताओं और खरीदारों दोनों को भौगोलिक सीमाओं के बिना सही साझेदार और अवसर खोजने में सक्षम बनाता है। विक्रेता- फिल्म स्टूडियो और एनीमेशन हाउस से लेकर पॉडकास्ट क्रिएटर और मार्केटिंग एजेंसियों तक-निवेशकों, वितरकों और सहयोगियों के वैश्विक दर्शकों के सामने अपनी सेवाएँ और सामग्री प्रदर्शित कर सकते हैं। साथ ही, खरीदारों को उच्च-गुणवत्ता वाली, अत्याधुनिक परियोजनाओं तक पहुँच प्राप्त होती है, जबकि निवेशक सह-निर्माण सौदों और स्केलेबल उपक्रमों की खोज करते हैं। यह प्लेटफॉर्म उद्योग की घटनाओं, देखने के कमरों, निवेशक मीट-अप और लाइव स्क्रीनिंग तक विशेष पहुँच को भी एकीकृत करता है, यह सुनिश्चित करता है कि सार्थक सौदे वर्चुअल बातचीत से परे हों।
वेव्स बाजार का मुख्य आकर्षण 1 से 4 मई 2025 तक मुंबई के बीकेसी स्थित जियो कन्वेंशन सेंटर में होने वाले वेव्स शिखर सम्मेलन में इसकी वास्तविक उपस्थिति होगी। डिजिटल मार्केटप्लेस से चुने गए प्रतिभागियों को शीर्ष-स्तरीय हितधारकों के साथ व्यक्तिगत रूप से पिच, नेटवर्क और सौदे करने का अवसर मिलेगा। क्यूरेटेड स्क्रीनिंग से लेकर लाइव चर्चा और सहयोग मंचों तक, यह शिखर सम्मेलन मनोरंजन नेटवर्किंग के भविष्य को आकार देने के लिए डिजिटल और गैर-डिजिटल को मिलाता है। अपने अभिनव दृष्टिकोण के साथ, वेव्स बाज़ार सिर्फ एक मंच नहीं है - यह एक स्मार्ट, अधिक कनेक्टेड और वैश्विक रूप से समावेशी मनोरंजन उद्योग की दिशा में एक आंदोलन है।
-अशोक दाहाल
करीब 17 साल पहले पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को शाही परिवार का निवास नारायणहिटी दरबार छोडऩा पड़ा था। इसके बाद से वह समय-समय पर अपना बयान जारी करते रहते हैं।
नेपाली नववर्ष की पूर्व संध्या पर भी एक बयान उन्होंने जारी किया है लेकिन इस बार इसकी काफी चर्चा है। उन्होंने पहली बार कहा है कि वह अब भी ‘संवैधानिक राजशाही’ के पक्ष में हैं।
इन दिनों ज्ञानेंद्र शाह नेपाल की राजनीति में दोबारा सक्रिय हैं। सरकार और लोकतंत्र समर्थक दल कह रहे हैं कि अगर उन्होंने ऐसा करना जारी रखा तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई हो सकती है।
इस माहौल में भी पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने अपने संदेश में यह भी कहा है कि देश की पूरी व्यवस्था को नए सिरे से सोचना चाहिए।
पिछले महीने राजशाही समर्थकों ने एक विरोध प्रदर्शन किया था, जो बाद में हिंसक हो गया था। इसमें दो लोगों की मौत भी हो गई थी। इसके साथ ही कई जगहों पर आगजनी, तोडफ़ोड़ और लूटपाट की भी घटनाएं हुई थीं।
इन घटनाओं के बाद लोकतंत्र समर्थक दलों ने ज्ञानेंद्र शाह के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की थी। ज्ञानेंद्र शाह ने इन घटनाओं पर दुख जताया है।
ज्ञानेंद्र शाह ने 11 जून 2008 को दरबार छोड़ा था। इसके बाद उन्होंने खुद को लंबे समय तक ‘पूर्व राजा’के तौर पर ही पेश किया।
पिछले चार साल से वह हर नववर्ष पर खुद को पूर्व राजा बताते हुए शुभकामना संदेश जारी कर रहे थे लेकिन 14 अप्रैल 2022 को उन्होंने ‘पूर्व’ शब्द हटाकर खुद को ‘श्री 5 महाराजाधिराज’ लिखा।
बीबीसी ने बीते पांच सालों के दौरान ज्ञानेंद्र शाह की तरफ से नववर्ष पर जारी किए गए सभी शुभकामना संदेशों का अध्ययन किया है और ये जानने की कोशिश की है कि आखिर उसके मायने क्या हैं?
शुभकामना संदेशों में बदली ‘राजनीतिक भाषा’
साल 2021 के नए वर्ष पर दिए गए शुभकामना संदेश में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने यह संकेत दिया कि राजनीतिक दलों में आपसी समझ नहीं है।
उन्होंने कहा कि देश में राजनीति करने वालों को नैतिकता, जनता के प्रति जि़म्मेदारी, ईमानदारी और सच्चाई बनाए रखनी चाहिए।
साल 2022 के नए साल पर दिए गए संदेश में उन्होंने अपने नाम के आगे से ‘पूर्व’ शब्द हटा दिया।
इस बार उन्होंने सरकार को यह कहकर सावधान किया कि देश को किसी एक देश के साथ पूरी तरह न जुडऩा चाहिए और न किसी देश से दूरी बनानी चाहिए।
इस साल उनका नाराजग़ी भरा रुख़ पहले से ज़्यादा साफ दिखाई दिया। उन्होंने कहा कि सिर्फ बड़े-बड़े नारे, वादे और बिना मतलब के बदलाव से आम लोग न तो शांत हैं और न ही संतुष्ट हैं।
यह सोचने की बात है। उसी साल नेपाल में स्थानीय, राज्य और केंद्रीय चुनाव हुए। इन चुनावों में जनता का भरोसा पुराने राजनीतिक दलों पर कम होता दिखा।
साल 2023 में दिए गए नए साल के संदेश में ज्ञानेंद्र शाह ने कहा था कि आज की युवा पीढ़ी सरकार की व्यवस्था और उसके कामकाज से बहुत नाराज़ है।
उन्होंने कहा था कि पिछले 30 साल से जो कोशिशें हो रही हैं, उनसे युवा अब पूरी तरह नाराज़ होकर बदलाव की सोच रखने लगे हैं।
पिछले साल राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी ने राज्य चुनाव में हिस्सा नहीं लिया था और काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने भी राज्य चुनाव में वोट नहीं दिया।
उसी साल दिए गए संदेश में ज्ञानेंद्र शाह ने कहा कि आम लोगों की उम्मीदों और भावनाओं को समझते हुए आगे बढऩा चाहिए।
साल 2024 के नए साल पर उन्होंने कहा कि जो लोग देश से प्यार करते हैं और जनता की भलाई चाहते हैं, उन्हें मिलकर एक सोच बनानी चाहिए।
उन्होंने यह भी कहा कि देश में कानून, नियम, बोलचाल और काम करने का तरीका तो बदला है लेकिन असली बदलाव नहीं आया।
उन्होंने देश की अस्थिरता पर चिंता जताते हुए कहा कि अब समय है कि सब कुछ दोबारा सोचें, मिलकर बात करें, किसी को अलग न करें और सही सोच के साथ आगे बढ़ें।
राजशाही के पक्ष में पूर्व राजा का बयान
नववर्ष के अलावा दशहरा, दीपावली, लोकतंत्र दिवस जैसे कई मौकों पर दिए गए शुभकामना संदेशों में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने बीते कुछ सालों में राजनीतिक असंतोष के साथ-साथ व्यवस्था में बदलाव को लेकर भी अपनी राय रखी है।
जानकारों का कहना है कि उन्होंने कई बार इन संदेशों के ज़रिए अपने विचार सामने रखे हैं। इस बार उन्होंने पहली बार वीडियो संदेश के ज़रिए नववर्ष की शुभकामना दी है।
इस संदेश में उन्होंने साफ शब्दों में खुद को संवैधानिक राजशाही के पक्ष में बताया है। अपने संदेश में उन्होंने कहा है, ‘जनता की भावनाओं के मुताबिक़ चलने वाले बहुदलीय लोकतंत्र और संवैधानिक राजशाही की परंपरा में हमारी आस्था रही है।’
उन्होंने यह भी कहा कि जनता की बदलती इच्छाओं को समझा जाना चाहिए और वह इस बात को साफ मानते हैं कि राज्य शक्ति का असली स्रोत जनता ही होती है।
हालांकि, ‘बाह्रखरी’ नाम के समाचार पोर्टल के चीफ़ एडिटर प्रतीक प्रधान का मानना है कि पूर्व राजा के हाल के संदेशों में दोबारा सक्रिय होने की इच्छा दिखाई देती है।
उन्होंने कहा, ‘लगता है कि पूर्व राजा को अब यह यकीन होने लगा है कि उन्हें जनता ने नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों ने हटाया था। उन्हें लगने लगा है कि जनता उनके साथ है और संवैधानिक राजशाही के नाम पर वो राजशाही को फिर से वापस लाकर अपने तरीके से शासन चला सकते हैं।’
प्रतीक प्रधान का यह भी कहना है कि नेपाल में राजशाही इसलिए ख़त्म हुई क्योंकि ज्ञानेंद्र शाह खुद कार्यकारी शासन को अपने हाथ में लेना चाहते थे।
‘घटना और विचार’ साप्ताहिक पत्रिका के चीफ़ एडिटर देवप्रकाश त्रिपाठी का कहना है कि पूर्व राजा ने अपने हालिया संदेश में संवैधानिक राजशाही को लेकर दोबारा साफ बात इसलिए कही है ताकि यह शंका दूर हो कि वह किसी आंदोलन के ज़रिए राजशाही को पूरी तरह वापस लाना चाहते हैं।
त्रिपाठी कहते हैं, ‘मुझे लगता है उन्होंने यह महसूस किया कि यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि वह जिस राजशाही की बात कर रहे हैं, वह संवैधानिक होगी।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘कई बातों से यह समझा जा सकता है कि पूर्व राजा अब राजशाही की वापसी के पक्ष में हैं। वह काफ़ी समय से राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक मेल-जोल को लेकर एक जैसे ही संदेश देते आए हैं।’
क्या आंदोलन से राजशाही वापस आ सकती है?
पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थन में अगर आंदोलन होता है, तो क्या उससे राजशाही लौट सकती है?
इस पर पत्रकार प्रतीक प्रधान और देवप्रकाश त्रिपाठी का साफ कहना है कि आंदोलन के ज़रिए राजशाही की वापसी संभव नहीं है।
प्रतीक प्रधान कहते हैं, ‘मुझे अफ़सोस होता है जब मैं देखता हूं कि पूर्व राजा कुछ ग़लत लोगों को आगे करके अपनी भावनाएं पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं।’
उनका कहना है, ‘अगर लोकतंत्र में फिर से राजशाही लानी है, तो उसे जनता के द्वारा चुना जाना होगा। इसके लिए संविधान को बदलना पड़ेगा और ऐसा करने का एकमात्र तरीका चुनाव है। आंदोलन से यह मुमकिन नहीं है।’
देवप्रकाश त्रिपाठी भी यही मानते हैं कि जब तक बड़े राजनीतिक दल साथ न दें, तब तक किसी आंदोलन से राजशाही की वापसी संभव नहीं है।
वह कहते हैं, ‘सिर्फ राजा की इच्छा से राजशाही नहीं लौटती। यह तभी मुमकिन है जब कांग्रेस और एमाले जैसे बड़े दल सहमत हों। अगर ये पार्टियां साथ नहीं देतीं तो फिर राजशाही का लौटना लगभग असंभव है।’
त्रिपाठी का यह भी कहना है कि अगर किसी तरह राजशाही लौट भी आएगी तो वह ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगी।
‘राजनीतिक इरादे की झलक’
नए साल के अपने हालिया शुभकामना संदेश में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने नेपाल में राजशाही की भूमिका की चर्चा की है। उन्होंने यह भी प्रस्ताव दिया है कि पृथ्वीनारायण शाह के ‘दिव्योपदेश’ को देश चलाने का मुख्य आधार बनाया जाना चाहिए।
उन्होंने देश में सुशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी जैसी समस्याओं की बात की है। इसके साथ ही यह भी कहा है कि जिस तरह राप्रपा के नेता ‘संरचनात्मक बदलाव’ की बात करते हैं, वैसी ही सोच अब जरूरी है।
अपने संदेश में उन्होंने कहा है, ‘जनता की भावनाएं और इच्छाएं समझकर देश की पूरी व्यवस्था में बदलाव और सुधार की ज़रूरत साफ़ तौर पर दिखती है।’
पत्रकार देवप्रकाश त्रिपाठी का मानना है कि पूर्व राजा काफी पहले से इस तरह के बदलाव की बात करते आ रहे हैं।
उन्हें लगता है कि ज्ञानेंद्र शाह की ये सोच नारायणहिटी दरबार छोडऩे के बाद से ही उनके बयानों में दिखता रहा है।
-ब्रैंडन ड्रेनॉन
अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने कहा है कि वह हार्वर्ड विश्वविद्यालय को दी जाने वाली दो अरब अमेरिकी डॉलर (कऱीब 2 लाख करोड़ रुपये) की फंडिंग रोक रहा है।
दरअसल दुनिया के सबसे नामचीन शिक्षा संस्थानों में शुमार हार्वर्ड को अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यालय ने मांगों की एक सूची भेजी थी। यूनिवर्सिटी ने उन मांगों को अस्वीकार कर दिया था।
इसके कुछ घंटों बाद हार्वर्ड की फ़ंडिंग को रोक दिया गया।
अमेरिकी शिक्षा विभाग ने एक बयान में कहा, ‘हार्वर्ड का बयान उस चिंताजनक मानसिकता की झलक है जो हमारे देश के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेजों में दिखती है।’
व्हाइट हाउस ने पिछले हफ़्ते हार्वर्ड को मांगों की एक सूची भेजी थी।
अमेरिका राष्ट्रपति के कार्यालय ने कहा था कि यह सूची कैंपस में यहूदी विरोधी भावना से लडऩे के लिए बनाई गई थी। इस पत्र में मांग की गई थी कि यूनिवर्सिटी अपने प्रशासन, भर्ती और दाख़िले की प्रक्रियाओं में बदलाव करे।
हार्वर्ड ने सोमवार को इन मांगों को ख़ारिज करते हुए कहा था कि व्हाइट हाउस उसपर नियंत्रण की कोशिश कर रहा है।
ट्रंप को दी चुनौती
यह अमेरिका का पहला बड़ा विश्वविद्यालय है जिसने ट्रंप की नीतियों में बदलाव के दबाव को नकारा है।
व्हाइट हाउस ने हार्वर्ड से जो मांगें की थीं उनसे विश्वविद्यालय के संचालन में बदलाव आ जाता और वो काफ़ी हद तक सरकार के नियंत्रण में चला जाता।
पिछले साल गज़़ा में युद्ध और इसराइल के लिए अमेरिकी समर्थन के ख़िलाफ़ अमेरिकी कॉलेजों में प्रदर्शन हुए थे। राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रमुख विश्वविद्यालयों पर इन प्रदर्शनों के दौरान यहूदी छात्रों की हिफ़ाज़त करने में विफल रहने का आरोप लगाया है।
सोमवार को हार्वर्ड समुदाय के अध्यक्ष एलन गार्बर ने एक पत्र में कहा कि व्हाइट हाउस ने शुक्रवार को 'मांगों की विस्तृत सूची भेजी है, जिनके पूरा न होने पर सरकार के साथ वित्तीय संबंध टूट सकते हैं।
उन्होंने लिखा, ‘हमने अपने कानूनी सलाहकार के ज़रिए ट्रंप प्रशासन को बता दिया है कि हम उनके प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेंगे। विश्वविद्यालय अपनी स्वतंत्रता या अपने संवैधानिक अधिकारों को नहीं छोड़ेगा।’
एलन गार्बर ने कहा कि हार्वर्ड ने यहूदी-विरोधी भावना से लडऩे के अपने फज़ऱ् को ‘हल्के में’ नहीं लिया है, लेकिन सरकार उनके अधिकारों का अतिक्रमण कर रही है।
उन्होंने कहा, ‘सरकार की कुछ मांगें यहूदी-विरोधी भावना से निपटने के उद्देश्य से हैं, लेकिन अधिकतर मांगें हार्वर्ड पर प्रत्यक्ष सरकारी रेगुलेशन का प्रतिनिधित्व करती हैं।’
शिक्षा विभाग ने रोकी फ़ंडिंग
गार्बर के पत्र के बाद, अमेरिकी शिक्षा विभाग ने कहा कि वह हार्वर्ड को दिए जाने वाले 2।2 बिलियन डॉलर के अनुदान और 60 मिलियन डॉलर के अनुबंधों पर तत्काल रोक लगा रहा है।
शिक्षा विभाग ने कहा, ‘हाल के वर्षों में कैंपसों में पढ़ाई में जो बाधाएं आई हैं, वह अस्वीकार्य है।’
बयान में कहा गया, ‘यहूदी छात्रों का उत्पीडऩ सहन नहीं किया जा सकता। अगर वो फ़ंडिंग जारी रखना चाहते हैं तो इस समस्या को गंभीरता से लें और सार्थक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध हों।’
व्हाइट हाउस ने शुक्रवार को अपने पत्र में कहा, ‘हार्वर्ड हाल के वर्षों में बौद्धिक और नागरिक अधिकारों पर खरा उतरने में विफल रहा है। ये दोनों का पालन संघीय फंडिंग के लिए ज़रूरी है।’
-सनियारा खान
कभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज जगनमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करने की हिम्मत की थी। शायद उस समय संविधान और लोकतंत्र का स्वरूप सच में अलग हुआ करता था।
अब बात करते है इस समय की। पिछली बीस मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट के ही एक न्यायाधीश राम मनोहर नारायण मिश्र ने कहा कि अगर कोई पुरुष किसी औरत के निजी अंगों को छूने या फिर पाजामा का नाड़ा तोड़े तो इसे बलात्कार करने की कोशिश नहीं माना जा सकता। ये बड़ी बात नहीं है कि उन्होंने ये कहा, बड़ी बात ये है कि इस घटिया बयान को लेकर पूरे देश में जिस तरह आक्रोश फैलना चाहिए था, उस तरह कुछ भी नहीं हुआ। ये एक संकेत है कि सामाजिक मानसिकता पतन की दिशा में जाने तैयार हो गई है। बड़ी बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कथन की खंडन करने के लिए काफी समय ले लिया....जब कि हम मार्च के महीने में ही पूरे विश्व के साथ कदम मिला कर महिला दिवस मनाते हैं।
न्याय प्रणाली के साथ साथ राजनीति के अनेक महारथी गण औरतों के अधिकारों को लेकर बड़ी बड़ी बातें कहते हैं। लेकिन हकीकत में बहुत सारे बलात्कारियों को राजनैतिक नुकसान होने के डर से बचा लिया जाता हैं। जब न्याय प्रणाली के प्रति राजनेताओं का डर खतम हो जाता हैं और न्याय प्रणाली खुद ही एक राजनैतिक बंदी बन जाती है, तब देश पतन की दिशा में तेजी से बढऩे लगता है। इसीलिए तो शासन और न्याय व्यवस्था की कमजोरी का फायदा उठाकर आसाराम और राम रहीम जैसे लोग जब मर्जी तब खुले आसमान के नीचे सांस लेने पहुंच जाते हैं। और अब तो बलात्कारियों का समाज में सम्मान करने का रिवाज़ भी जोरों पर है। तो देश में ‘निर्भया’ कम कैसे होगी? बल्कि निर्भायाओं की संख्या बढ़ती ही जा रही है!
न्यायालय में एक पीडि़ता को न्याय न मिलने पर दस बलात्कारियों की हिम्मत बढ जाती है। जिस समय ‘बेटी पढ़ेगी’और ‘बेटी बचेगी’जैसे स्लोगनों से दीवारें भरी हुई देखी जा रही है, उस समय गुजरात में एक स्कूल की लडक़ी जो कि ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’इस विषय में बोल कर पुरस्कार जीत जाती है, उसी का बलात्कार होने की खबर हमें पढऩे मिलती हैं। उत्तर प्रदेश में बलात्कार पीडि़ता पत्नी के लिए आवाज़ उठाने पर एक पति को बलात्कारियों द्वारा जला देने की खबर हमने पढ़ी हैं। और हां, कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक केस में यह कहा था कि पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक यौनाचार करने वाले पति को अपराधी नहीं कहा जा सकता है। अब ये सोचकर दिल दहल जाता है कि चाहे नन्ही सी गुडिय़ा हो या फिर अस्सी साल की दादी नानी हो, इस समाज में और इस कानून में सभी संकट में हैं।
एक खबर के अनुसार मुजफरपुर जेल में रह रही एक औरत ने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, महिला आयोग, राज्य के मुख्य सचिव और जेल के डीआईजी को चि_ी लिखकर कहा कि जेल में शारीरिक संबंध बनाने से इंकार करने पर खाना न देकर भूखा रखा जाता है और मारपीट भी की जाती है। हमें मालूम है कि इस बात पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। इस बीच मध्यप्रदेश में एक बलात्कारी की सज़ा इस बात पर कम कर दी गई कि उस बलात्कारी ने पीडि़ता को जान से तो नहीं मारा। इससे ये पता चलता है कि वह बलात्कारी होते हुए भी एक दयालु आदमी है। लगता है अब न्याय इसी तरह होगा ।
-दिलीप कुमार पाठक
लेखक /पत्रकार
कांग्रेस पार्टी को दुश्मन की क्या आवश्यकता जब पार्टी में ही ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस पार्टी को अंदर से खोखला कर रहे हैं तो दुश्मनों की क्या ही आवश्यकता? पार्टी को रसातल में ले जाने के लिए वे ही काफी हैं। कांग्रेस पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे नेताओं को पार्टी से बाहर निकालने की बजाय पार्टी उनके चुंगल में फंसती चली जा रही है ।
कांग्रेस पार्टी का अभी एक मामला सामने आया है । कांग्रेस ने अपने तेज-तर्रार प्रवक्ता आलोक शर्मा को सचिव पद से मुक्त कर दिया है, हालांकि प्रवक्ता बने रहेंगे। जबकि आलोक शर्मा का बैकग्राउंड देखें तो वह टीवी पर कांग्रेस का मज़बूती एवं तार्किकता से पक्ष रखते हुए दिखाई देते हैं । कांग्रेस के अपने नेताओं को डिफेंड करते हैं। अपनी पार्टी के लिए लड़ते दिखाई देते हैं अपना पक्ष बिना डरे मजबूती के साथ रखते हैं, लेकिन उनको ही बाहर निकाल दिया गया, इससे कांग्रेस पार्टी के कार्यकताओं में क्या संदेश जाएगा? कांग्रेस नेताओं की पार्टी है या कार्यकर्ताओं की? वैसे भी कांग्रेस पार्टी में कार्यकर्ताओं से ज्य़ादा नेताओं की भरमार है। राहुल गांधी सभाओं में तकरीरें करते हैं कि हम ऐसे नेताओं को बाहर निकाल फेंकेंगे जो पार्टी के अंदर रहकर नुकसान पंहुचाने का प्रयास करते हैं । कांग्रेस पार्टी आजकल ऐसे नेताओं से घिरी हुई है जो कांग्रेस को नीचे ही ले जाएंगे ।
कांग्रेस अपने शुभचिंतको एवं पार्टी के बंटाधार करने वालों को पहिचान नहीं कर पा रही है । पार्टी में ऐसे-ऐसे बयान बहादुर हैं जो हमेशा अपनी जुबान जब खोलेंगे कांग्रेस का नुकसान ही करेंगे। राजीव गांधी, सोनिया गांधी के दौर के नेताओ को जनता पहले ही बहुत नकार चुकी है, कितना झेल पाएगी... अब बस कर दीजिए एक नई पीढ़ी को आगे बढ़ाएं। कांग्रेस पार्टी हमेशा से बुजुर्ग नेताओं को ढो रही है। सिंधिया जैसे नेता को खो दिया। वो तो सचिन पायलट कांग्रेस के लिए इतने वफ़ादार हैं कि वे पार्टी छोडक़र नहीं गए अन्यथा सचिन पायलट कब का पार्टी छोडक़र चले गए होते ! कांग्रेस के बुज़ुर्ग नेता पार्टी में अपनी पकड़ बनाए हुए हैं जबकि पार्टी निरंतर अपना प्रभुत्व खोती जा रही है ।
कांग्रेस पार्टी में असंतुष्ट नेताओं का एक गुट है जिसे त्र-23 कहते हैं जो हमेशा शीर्ष नेतृत्व को अपने इशारों पर नचाना चाहता है। वो हमेशा पार्टी आलाकमान को कोसते रहते हैं लेकिन पार्टी उनके खिलाफ़ कोई एक्शन नहीं ले पाती । जबकि सभी को पता है कि वे पुराने नकारे हुए नेता जिन्होंने अपनी जि़ंदगी में हमेशा राज्यसभा से राजनीति की, ऐसे नेता कभी बिना पद के पार्टी में नहीं रहे, उनमें से आधे तो पार्टी ही छोड़ गए, उनमें से कुछ राज्यसभा चले गए। और जो कुछ बिना पद के रह गए हैं वे भी कोई न कोई पद ग्रहण कर ही लेंगे। उनके रहते नए नेताओं को पद मिलें सवाल ही नहीं उठता।
सीडब्ल्यूसी में कुल 84 सदस्य है, जिनमें 39 सदस्य, 32 स्थायी आमंत्रित सदस्य और 13 विशेष आमंत्रित सदस्य शामिल हैं। कांग्रेस सीडब्ल्यूसी टीम में बुजुर्ग नेताओं की भरमार है, जबकि युवाओं को नजरअंदाज कर दिया गया।
खरगे की सीडब्ल्यूसी के 39 सदस्यों में 50 साल से कम उम्र के जिन नेताओं को जगह मिली है, अलावा सीडब्ल्यूसी के बाकी 68 सदस्यों की उम्र 50 साल के पार है। 50 साल के ज्यादा उम्र के करीब 68 नेता हैं और 70 साल के ज्यादा के नेताओं की संख्या भी अच्छी खासी है । सीडब्ल्यूसी में शामिल पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी की उम्र 82 साल तो मल्लिकार्जुन खरगे 81 साल के हैं । जबकि इनके अलावा लाल थानेवाल 81 साल, अंबिका सोनी 80 साल, मीरा कुमार 78 साल, पी चिदंबरम 77 साल, सोनिया गांधी 76 साल, दिग्विजय सिंह 76 साल, हरीश रावत 75 साल, ताम्रध्वज साहू 74 साल, तारिक अनवर 72 साल और आनंद शर्मा 70 साल के हैं। इतना ही नहीं सीडब्ल्यूसी के स्थायी आमंत्रित और विशेष आमंत्रित सदस्यों में भी तमाम नेता हैं, जिनकी उम्र 70 साल के ऊपर है ।
कांग्रेस की सीडब्ल्यूसी टीम में युवा चेहरों की तुलना में पुराने नेताओं को तवज्जो ज्यादा मिली है। उदयपुर और रायपुर के 50 अंडर 50 प्रस्ताव के अमल नहीं किए जाने से कांग्रेस के युवा नेताओं में निराशा लगातार झलकती रहती है। कांग्रेस के युवा नेताओं के सवाल यही हैं कि कांग्रेस में इसी तरह से अगर उम्रदराज नेताओं को ही जगह मिलती रही तो फिर युवा लीडरशिप कैसे आगे बढ़ पाएगी। पवन खेड़ा, सुप्रिया श्रीनेत, आलोक शर्मा जैसे बेबाक वक्ताओं को पार्टी राजसभा नहीं भेजती बल्कि उन्हें भेजती है जिन्हें आज का नया वोटर ढ़ंग से जानता तक नहीं है । पुराने नेताओ की सोशल मीडिया पर कोई सक्रियता नहीं है जमीन पर सक्रियता तो छोड़ ही दीजिए । राजनीति में आपने योगदान दिया है लेकिन क्या नैतिकता नहीं है कि अब आप नई पीढ़ी के लिए जगह छोड़ कर पार्टी के नए नेताओं का मार्गदर्शन करें?
-सुरेश गवानिया और
नामदेव काटकर
‘डा. बाबा साहेब आंबेडकर को दो चीजों का बहुत शौक था, किताबें खरीदने का और उन्हें पढऩे का। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, किताबों से उनका लगाव भी बढ़ता गया।’
‘एक समय ऐसा आया जब उनके पास करीब सात से आठ हजार किताबें हो गईं। इनकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपए या उससे ज़्यादा होने का अनुमान है।’
यह जानकारी डॉ. आंबेडकर के जीवन पर लिखी गई एक पुस्तक में है, जो 1940 में प्रकाशित हुई थी। यह किताब उस समय लिखी गई, जब वह जीवित थे।
दिलचस्प बात यह है कि यह पुस्तक गुजराती भाषा में लिखी गई थी। 28 अगस्त 1940, गुजरात, गुजराती भाषा और पूरे भारत में आंबेडकरवादियों के लिए विशेष महत्व रखता है।
इसी दिन डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित हुई थी। यह किताब जीवनी से कहीं ज़्यादा एक मूल्यवान ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
इस किताब के लिखे जाने और इसके प्रकाशित होने की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।
आंबेडकर की पहली जीवनी का प्रकाशन
यूएम सोलंकी की लिखी इस किताब का नाम था- डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर। इसमें आंबेडकर के 1940 तक के जीवन का विवरण दर्ज किया गया।
उस समय उनके किए गए सामाजिक कार्यों और उनके प्रयासों को भी इसमें शामिल किया गया। उस समय उनके बारे में लोगों की सोच को भी यह किताब दर्शाती है।
बीबीसी ने इस ऐतिहासिक जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले अमित प्रियदर्शी ज्योतिकर से बात की। उन्होंने 1940 में पुस्तक के मूल प्रकाशन की पूरी कहानी साझा की।
उन्होंने बताया, ‘करशनदास लेउवा आंबेडकर के अनुसूचित जाति संघ से जुड़े गुजरात के एक प्रमुख नेता थे। वह डॉ.आंबेडकर की जीवनी लिखवाना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसके लिए किसी योग्य व्यक्ति की तलाश थी। उस समय शिक्षा में जाति आधारित व्यवस्था के कारण बहुत कम दलित शिक्षित थे। ऐसे में एक सवाल यह था कि अगर कोई पुस्तक लिख भी देता है, तो कितने लोग इसे पढ़ पाएंगे?’
इसके बावजूद, करशनदास लेउवा जीवनी प्रकाशित करने को लेकर संकल्पित रहे। आखिरकार, इस जीवनी को लिखने के लिए योग्य व्यक्ति यूएम सोलंकी उन्हें मिल गए।
इसके बाद, करशनदास ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी और उन्होंने डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित करने के पीछे अपने इरादे और विचार को भी विस्तार से बताया।
भूमिका में करशनदास ने लिखा, ‘1933 में, मैंने पहली बार डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखने के बारे में सोचा। उस समय, आंबेडकर न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर एक बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे।’
‘हालाँकि, गुजरात में लोग उनके बारे में बहुत कम जानते थे। 1937 में कुमार नाम की एक पत्रिका का एक अंक मुझे मिला। उसके संपादकीय में मैंने डॉ. आंबेडकर के जीवन के कुछ दिलचस्प किस्से पढ़े।’
उन्होंने लिखा, ‘इसके बाद उनकी जीवनी प्रकाशित करने की मेरी इच्छा बहुत बढ़ गई। मैंने अपने मित्र यूएम सोलंकी से आवश्यक जानकारी बटोरने का अनुरोध किया।’
‘सोलंकी ने पूरी लगन से डॉ.आंबेडकर के जीवन के बारे में बहुमूल्य सामग्री एकत्र की। इसके बाद हमने एक पत्रिका के लेख में कुछ अंश भी प्रकाशित किए।’
जीवनी का प्रकाशन आसान नहीं था। इसे छपवाने के लिए जरूरी धन एक बड़ी बाधा थी। इसके लिए कांजीभाई बेचरदास दवे आगे आए और कुछ पैसे दान किए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।
अंत में पुस्तक प्रकाशित कराने की पूरी जिम्मेदारी करशनदास लेउवा ने ली।
इसके परिणाम स्वरूप लेखक यूएम सोलंकी, दूरदर्शी करशनदास लेउवा और दानकर्ता कांजीभाई दवे की तस्वीरें इस पुस्तक में सम्मान के प्रतीक के रूप में छापी गईं।
अंत में डॉ.आंबेडकर की सभी शैक्षणिक योग्यताएं और डिग्रियों के साथ 28 अगस्त 1940 को डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर शीर्षक से यह पुस्तक प्रकाशित हुई।
पुस्तक का प्रकाशन अहमदाबाद के दरियापुर के महागुजरात दलित नवयुवक मंडल ने किया और इसे अहमदाबाद के धलावरगढ़ में स्थित मंसूर प्रिंटिंग प्रेस में छापा गया।
पुस्तक में जहां कीमत दर्ज की जाती है, वहां बस ‘अनमोल’ लिखा था। उस समय इस पुस्तक की कोई कीमत निश्चित नहीं की गई।
साहित्यिक अर्थ में इस पुस्तक का प्रकाशन इसके विशाल ऐतिहासिक और भावनात्मक मूल्य को व्यक्त करता है।
यूएम सोलंकी कौन थे?
यूएम सोलंकी पेशेवर लेखक नहीं थे, लेकिन वह डॉ.आंबेडकर के विचारों और लेखन से अच्छी तरह परिचित थे।
करशनदास लेउवा की तरह ही वह भी आंबेडकरवादी कार्यकर्ता और आंबेडकर के काम के प्रशंसक थे। इसी भावनात्मक जुड़ाव ने उन्हें गहराई के साथ पूरे जुनून से जीवनी लिखने में मदद की।
सोलंकी अंग्रेजी और गुजराती दोनों में पारंगत थे। इस पुस्तक को लिखने के लिए उन्होंने आंबेडकर के सभी भाषणों और अंग्रेजी में लिखे लेखों का अध्ययन किया।
आंबेडकर की विचारधारा के बारे में उनकी व्यक्तिगत समझ ने उन्हें जीवनी को स्पष्टता और सटीकता के साथ लिखने मदद की।
हाल ही में जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले संपादक और अनुवादक अमित ज्योतिकर ने कहा, ‘यूएम सोलंकी ने पूरी किताब हाथ से लिखी। उनकी भाषा बहुत ही कोमल थी, लेकिन छुआछूत जैसी कुप्रथा की आलोचना करने में उन्होंने जरा सा भी संकोच नहीं किया। उन्होंने बिना कठोर शब्दों का इस्तेमाल किए हुए अन्यायपूर्ण सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ मजबूती से अपना पक्ष रखा।’
पहली जीवनी का पुन: प्रकाशन कैसे हुआ?
डॉ. आंबेडकर की 1940 में लिखी गई जीवनी को 2023 में फिर से प्रकाशित किया गया है। इसके प्रकाशक डॉ. अमित प्रियदर्शी हैं।
जीवनी के नए संस्करण के लिए पुस्तक को गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिससे यह पुस्तक ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके।
अंग्रेजी अनुवाद के साथ-साथ मूल गुजराती भी है।
डॉ. अमित ज्योतिकर ने बीबीसी को बताया, ‘हमने पुस्तक को उसी तरह से पुन: प्रकाशित किया है, जैसा कि वह मूल संस्करण में थी। हमने मूल व्याकरण संबंधी त्रुटियों और भाषा को भी बरकरार रखा है। यह केवल एक पुस्तक नहीं है- यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।’
डॉ. अमित ज्योतिकर ने कहा कि हम चाहते हैं कि दुनिया को पता चले कि डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी गुजराती में थी।
दोबारा प्रकाशन में विजय सुरवड़े की भूमिका
महाराष्ट्र के आंबेडकरवादी लेखक विजय सुरवड़े इस ऐतिहासिक पुस्तक को फिर से जीवंत करने में अहम साक्षी रहे हैं।
विजय सुरवड़े, एक फोटोग्राफर और ऐतिहासिक दस्तावेजों के संग्रहकर्ता और डॉ. आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर के करीबी सहयोगी थे।
पुन: प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में सुरवड़े लिखते हैं, ‘मैं कई वर्षों से पत्रों के माध्यम से प्रियदर्शी ज्योतिकर के संपर्क में था। मैं आईडीबीआई बैंक में काम करता था।’
‘जब मेरा तबादला ऑडिट विभाग में हुआ, तो मैं किसी काम के सिलसिले में अहमदाबाद गया और यहां ज्योतिकर से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की। उनके पास डॉ.आंबेडकर की दुर्लभ तस्वीरें थीं।’
उन्होंने लिखा, ‘22 अगस्त 1993 को मैं उनके घर गया और उनके संग्रह में डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी की एक मूल प्रति मिली। यह एक अमूल्य दस्तावेज था।’
‘मैंने इसे अपने पास सुरक्षित रखने के लिए इसकी फोटोकॉपी ली।’
पूर्व आईपीएस अधिकारी भी मानते हैं कि अंग्रेजों के जमाने में जिस तरह कैदियों को जेल में रखा जाता था वह भारत की जेलों में आज भी जारी है। जेल में 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, और इनकी वजह से वहां भारी भीड़ है।
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी ने देश भर की जेलों में बंद कैदियों की दिक्कतों का खुद संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी किया है। आयोग ने एक बयान में कहा है कि जेलों में बंद कैदियों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, खासकर महिला कैदियों को। आयोग ने जेलों की जिन प्रमुख समस्याओं को नोटिस किया है उनमें जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदियों का होना, जेलों में बुनियादी सुविधाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव शामिल है।
अधिकारियों की ऐसी लापरवाही तीन साल जेल में रहा शख्स
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बयान में कहा है, ‘देश भर की विभिन्न जेलों का दौरा करने के बाद तैयार रिपोर्ट और शिकायतों के माध्यम से इन मुद्दों को आयोग के संज्ञान में लाया गया है।’
इसके बाद आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी कर उनसे चार हफ्ते के भीतर रिपोर्ट मांगी है। आयोग ने ये भी बताया है कि जो रिपोर्ट सौंपी जाए उसमें किन बातों का जिक्र होना चाहिए।
महिला कैदियों की स्थिति
आयोग ने राज्यों से जो जानकारी मांगी है उनमें राज्य की जेलों में बंद महिला कैदियों की संख्या बताने को कहा है। इसके साथ ही बच्चों के साथ रहने वाली महिला कैदियों की संख्या भी मांगी गई है। आयोग ने दोषी और विचाराधीन महिला कैदियों की संख्या भी मांगी है यानी जिन्हें अभी सजा नहीं मिली है, सिर्फ ट्रायल चल रहा है। इसके अलावा उन विचाराधीन महिला और पुरुष कैदियों का भी आयोग ने ब्योरा मांगा है जो एक साल से ज्यादा समय से जेल में बंद हैं।
आयोग ने महिला कैदियों के सम्मान और सुरक्षा के अधिकारों के उल्लंघन, उनके खिलाफ बढ़ती हिंसा के कारण मानसिक तनाव, पर्याप्त शौचालयों का अभाव, सैनिटरी नैपकिन और स्वच्छ पेयजल सुविधाओं जैसी बुनियादी जरूरतों के पूरा नहीं होने पर चिंता जताई है।
आयोग ने अपने बयान में जेलों में मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया है जिसकी वजह स कुपोषण होता है, खासकर गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली मांओं के मामलों में। इसके अलावा महिला कैदियों के साथ रहने वाले बच्चों की शिक्षा, कैदियों को मिलने वाली कानूनी सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण, पुनर्वास जैसे मामलों में भी चिंता जताई गई है।
भारत में जेलों की स्थिति
करीब दो साल पहले संसद में गृह मामलों की स्थायी समिति ने ‘जेल-स्थितियां, बुनियादी ढांचा और सुधार' पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमें जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदियों पर चिंता जताई गई थी।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश भर की जेलों में कैदियों की औसत दर 130 फीसदी है। यानी यदि जेल की क्षमता सौ कैदियों की है तो वहां 130 कैदी रह रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और दिल्लीऔर मध्य प्रदेश सहित छह राज्यों की जेलों में भारत के आधे से ज्यादा कैदी बंद हैं।
समिति ने ज्यादा भीड़भाड़ वाली जेलों से कैदियों को उसी राज्य के भीतर या दूसरे राज्यों की जेलों में ट्रांसफर करने की सिफारिश की थी।
समिति ने भी उन मुद्दों पर सवाल उठाए थे जिन पर मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया है। इसके अलावा समिति ने जेल कर्मचारियों की कमी और जेल की नौकरियों में महिलाओं की कम संख्या पर भी सवाल उठाए थे और सिफारिश की थी कि खाली पदों को तीन महीने के भीतर भरा जाना चाहिए।
यूपी में वरिष्ठ पदों पर रह चुके आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर को पुलिस विभाग में व्याप्त खामियों को उजागर करने की वजह से कुछ साल पहले जबरन रिटायर कर दिया गया था। अमिताभ ठाकुर आईजी रूल्स एंड मैन्युअल्स के पद पर रह चुके हैं। रिटायर करने के बाद उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था जिसकी वजह से वो कई दिनों तक जेल में भी रहे। डीडब्ल्यू से बातचीत में अमिताभ ठाकुर कहते हैं कि उनके पास एक अफसर और कैदी, दोनों के अनुभव हैं।
असली समस्या कहां है?
पहले उन्होंने एक अफसर के अनुभव को साझा किया। अमिताभ ठाकुर कहते हैं, ‘क्षमता से ज्यादा कैदी तो सबसे बड़ी समस्या है ही। जेल मैन्युअल में कैदियों की संख्या को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि किसी जेल में कितने अधिकतम कैदी रहेंगे। संख्या का निर्धारण क्यों और कैसे होगा, यह भी स्पष्ट नहीं है।’
अमिताभ ठाकुर आगे कहते हैं, ‘दूसरी सबसे बड़ी समस्या हमारी न्यायिक व्यवस्था में है जिसकी वजह से विचाराधीन कैदियों की संख्या इतनी ज्यादा है। विचाराधीन कैदी पूरी दुनिया में कहीं भी इतने ज्यादा नहीं हैं। हमारे यहां तो जेलों में करीब अस्सी फीसदी विचाराधीन कैदी ही हैं जबकि तमाम देशों में यह संख्या शून्य है। इस पर न्यायालयों को विचार करने की जरूरत है।’
जेलों में बढ़ती भीड़ पर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार चिंता जता चुका है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के मुताबिक, 31 दिसंबर, 2021 तक भारतीय जेलों में कुल 5,54,034 कैदी थे लेकिन इनमें से महज 22 फीसद कैदी ही ऐसे थे जिन्हें अदालतों ने दोषी साबित किया था और वो उसकी सजा काट रहे थे। बाकी कैदी विचाराधीन थे। इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक देश भर की निचली अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और इनमें से ज्यादातर मामले ऐसे हैं जो एक साल से ज्यादा पुराने हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील अभिषेक सिंह कहते हैं कि जेलों में इतनी ज्यादा संख्या में विचाराधीन कैदियों का होना ना केवल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के कामकाज पर सवाल उठाता है बल्कि जेलों में बंद कैदियों के लिए अमानवीय स्थिति भी पैदा करता है। जेलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी के लिए भी एक कारण क्षमता से ज्यादा कैदियों का होना है।
-डेबुला केमोली
सोना लगातार चढ़ता जा रहा है। गोल्ड की कीमतें अब रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच रही हैं।
अनिश्चित बाज़ार के मौजूदा दौर में कारोबारी एक सुरक्षित निवेश के तौर पर लगातार सोना खऱीद रहे हैं।
गोल्ड पारंपरिक तौर पर एक भरोसेमंद और स्थायी संपत्ति माना जाता है जो मुश्किल या अस्थिर आर्थिक माहौल में काम आता है।
लेकिन दुनियाभर के बाज़ारों के उतार-चढ़ाव वाले मौजूदा दौर में क्या गोल्ड सचमुच एक सुरक्षित निवेश है?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब से ऊंचे टैरिफ का एलान किया है पूरी दुनिया के बाज़ारों में खलबली मची है।
कारोबारी नीतियों के लिहाज़ से इसे ‘सदी का बदलाव’ कहा जा रहा है।
अमेरिकी टैरिफ़ के बाद से वैश्विक बाज़ार में जो उथल-पुथल मची है उससे पिछले सप्ताह तक सोने की कीमत 3167 डॉलर प्रति औंस की रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी।
टैरिफ़ और ट्रेड वॉर ने दुनियाभर में जो चिंता पैदा की है उससे सोने की कीमतों ने इस साल कई बार नया रिकॉर्ड बनाया है। जब भी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता का आलम होता है सोने की कीमतों को पंख लग जाते हैं।
सोना खऱीद कौन रहा है?
ग्लोबल अर्थव्यवस्था के इस अनिश्चितता भरे दौर में आखिर सोना खरीद कौन रहा है?
बेलफास्ट यूनिवर्सिटी के आर्थिक इतिहासकार डॉ। फिलिप फ्लायर्स कहते हैं, ‘सरकारें, रिटेल निवेशक या आम निवेशक सोना खऱीद रहे हैं।’
वो कहते हैं, ‘बड़ी तादाद में लोग अब शेयर जैसे इक्विटी इंस्ट्रूमेंट्स छोड़ कर गोल्ड में निवेश कर रहे हैं। यही वजह है कि गोल्ड की कीमतों में इतनी तेज़ी आ गई है।’
दरअसल जब भी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार में अनिश्चितता का माहौल होता है निवेशकों का स्वाभाविक रुझान गोल्ड में निवेश की ओर बढ़ जाता है।
2020 में जब कोविड महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई थी तो गोल्ड के दाम तेजी से आसमान छूने लगे थे।
हालांकि ऐसी अनिश्चितता गोल्ड की कीमतों को चोट भी पहुंचा सकती है।
जनवरी 2020 में जैसे ही कोविड महामारी फैली तो सोने की कीमतें अचानक काफी बढ़ गईं लेकिन उसी साल मार्च में ये फिर गिरने लगीं।
डॉ. फ़्लायर्स कहते हैं, ‘सुरक्षित निवेश का मतलब ये नहीं है कि इसमें जोखिम नहीं है।’
आर्थिक अनिश्चितताओं के दौर में गोल्ड में निवेश को सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इसकी हमेशा एक अहमियत रही है।
इतिहास के हर दौर और संस्कृति में इसको काफी महत्व दिया गया है। इसलिए इसे आसानी से खऱीदा-बेचा जा सकता है।
प्राचीन मिस्र में तूतनखामन के गोल्ड मास्क से लेकर घाना के असांते में गोल्डन स्टूल और भारत के पद्मनाभन मंदिर में स्वर्ण सिंहासन तक, सोने की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के उदाहरण हैं।
इसलिए ये आश्चर्य की बात नहीं है कि कई लोग सोने को सबसे भरोसेमंद संपत्ति मानकर जमा करते हैं।
-फैसल इस्लाम
डोनाल्ड ट्रंप और उनके आसपास के लोग ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि पिछले सात दिनों में जो कुछ हुआ वो अराजक नहीं था।
अब तक जो हुआ, उससे तो लगता है कि चीन ट्रंप की शंतरज की चाल में फंस गया है। अपने सबसे बड़े बाज़ार में लगे आयात शुल्क के बाद चीनी अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़ी मुसीबत की ओर बढ़ रही है।
वैसे ट्रंप ने चीन को छोडक़र बाकी देशों पर टैरिफ को 90 दिन के लिए भले ही रोक दिया हो, लेकिन ये 1930 के दशक के बाद अपनी तरह का पहला क़दम है।
वैसे 10त्न का टैरिफ अब भी लागू है। आसान भाषा में समझें तो चाहे दुनिया का कोई देश अमेरिका को अधिक सामान बेचता हो या कम, सभी पर 10 प्रतिशत टैरिफ तो लग ही चुका है।
ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही अमेरिका से अधिक सामान खऱीदते हैं और वहां कम सामान बेचते हैं। लेकिन, ये टैरिफ दोनों देशों पर लागू हो चुका है।
अब यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच कोई अंतर नहीं बचा है। दोनों पर बराबर टैरिफ़ लग चुके हैं।
अब सभी लोग बेसब्री से ट्रंप के अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या ट्रंप दवाइयों पर भी टैरिफ़ लगाएंगे? ब्रिटेन दवाइयों का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
एक अन्य चुनौती अमेरिका पहुँचे ‘मेड इन चाइना’ सामान पर टैरिफ़ वसूलने की है।
ये आसान काम नहीं होगा, क्योंकि दुनिया के आधे मर्चेंट शिप अगले शुक्रवार को ये सामान लेकर अमेरिकी बंदरगाहों पर लंगर डालने वाले हैं।
ट्रंप की 90 दिनों की मोहलत के बावजूद ग्लोबल ट्रेड से जुड़ी कंपनियों के लिए अनिश्चिततता बरकऱार है।
-ओम थानवी
विदाई में मनोज कुमार को देशभक्ति की फि़ल्मों के याद किया जा रहा है। उन्होंने इसमें महारत हासिल कर ली थी। भावना का ज्वार अपूर्व कामयाबी लेकर आया। ‘पूरब और पश्चिम’ ने तो प्रवासियों तक को झकझोर दिया था। फि़ल्म ने विदेश में कीर्तिमान बनाया। हालाँकि आगे लोगों को वही दुनिया ख़ूब रास आई, जिसे वह फि़ल्म अपने पश्चिमी ठप्पे से ख़ारिज कर आई थी।
भावना और हक़ीक़त में नाज़ुक फ़ासला होता है। मनोज कुमार दीवारों पर गांधी-नेहरू की तसवीरें दिखाते थे। ‘है प्रीत जहाँ की रीत सदा’ में ‘काले-गोरे का भेद नहीं’ याद दिलाते थे। मगर फि़ल्मी भावुकता दर्शक को भीतर से नहीं हिलाती। लोग हॉल से बाहर निकल कर वही हो रहते।
‘मेरे देश की धरती’ ख़ूब गाया गया, ‘उपकार’ सुपरहिट हो गई, ढेर सारे अवार्ड मिले। पर उस ‘भारत’ के गौरव-गान में सिनेमाई भावोत्तेजना काम न आई। किसानों के प्रति नज़रिया आज तक नहीं बदल पाया है। न लोगों का, न राज का।
भारत ने बांग्लादेश को दी जाने वाली ट्रांसशिपमेंट सुविधा ख़त्म कर दी है। लेकिन भारत के रास्ते नेपाल और भूटान को होने वाले बांग्लादेश के निर्यात को ये सुविधा बरकरार रहेगी।
भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि बांग्लादेश को दी जा रही इस सुविधा की वजह से उसके हवाईअड्डों और बंदरगाहों पर भीड़ बढ़ गई थी। इन जगहों पर कंटेनरों की तादाद बढ़ जाने से खुद भारत का निर्यात प्रभावित हो रहा था।
ट्रांसशिपमेंट यानी किसी एक देश से दूसरे देश को निर्यात के दौरान बीच में पडऩे वाले किसी तीसरे देश के रास्ते को इस्तेमाल करने की सुविधा।
दरअसल बांग्लादेश कई देशों को अपना सामान निर्यात करता है उनमें से कुछ देशों का निर्यात भारत के रास्ते से होकर गुजऱता है। हाल के दिनों में भारत और बांग्लादेश के बीच तनाव देखा जा रहा है।
भारत सरकार के केंद्रीय अप्रत्यक्ष और सीमाशुल्क बोर्ड ने 8 अप्रैल को एक सर्कुलर जारी कर 29 जून 2020 के उस सर्कुलर को वापस ले लिया है जिसके तहत भारत ने बांग्लादेश को अपने हवाईअड्डों और बंदरगाहों से किसी तीसरे देश में निर्यात की सुविधा दी थी। इससे भूटान, नेपाल और म्यांमार जैसे देशों में बांग्लादेश के निर्यात को सहूलियत मिल रही थी।
भारत सरकार ने ये फ़ैसला ऐसे वक़्त किया है जब अमेरिका ने भारत और बांग्लादेश समेत कई देशों पर भारी भरकम टैरिफ़ लगा दिए हैं।
यूनुस-मोदी मुलाक़ात में बेहतर रिश्तों पर था ज़ोर
पिछले साल बांग्लादेश में छात्रों के आंदोलन के बाद शेख़ हसीना सरकार के पतन के बाद से ही भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में तनाव देखा जा रहा है। शेख़ हसीना पिछले साल 5 अगस्त को भारत आ गई थीं। इसके बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार लगातार भारत से शेख़ हसीना को वापस भेजने की मांग करती रही है। लेकिन भारत ने इससे इनकार किया है।
पाकिस्तान और चीन के साथ बांग्लादेश की बढ़ती कऱीबी भी दोनों देशों के संबंधों को और जटिल बना रही है।
पिछले दिनों थाईलैंड में बिम्सटेक के सम्मेलन के दौरान बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाक़ात में हिंदुओं की सुरक्षा और शेख़ हसीना के प्रत्यर्पण का मुद्दा हावी रहा था।
पीएम मोदी के कार्यालय की ओर से जारी बयान में कहा गया था कि प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश में हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों की सुरक्षा मुद्दा उठाया और उम्मीद जताई कि बांग्लादेश सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, जिसमें उनके ख़िलाफ़ किए गए अत्याचारों के मामलों की गहन जांच भी शामिल है।
इस मुलाक़ात के बारे में बांग्लादेश की ओर से जारी एक बयान में कहा गया था कि प्रोफ़ेसर यूनुस ने पीएम मोदी से बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के प्रत्यर्पण का मुद्दा उठाया।
मोहम्मद यूनुस ने कहा था बांग्लादेश, भारत के साथ अपने संबंध को बहुत अहमियत देता है।
प्रोफ़ेसर यूनुस ने कहा था, ‘पूर्व प्रधानमंत्री (शेख हसीना) ने तमाम मीडिया आउटलेट में भडक़ाऊ बयान दिया था और बांग्लादेश में हालात को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं, जो कि भारत की ओर से दी गई मेहमाननवाज़ी का दुरुपयोग है।’
उन्होंने कहा था, ‘बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के ख़िलाफ़ वह लगातार गल़त और भडक़ाऊ आरोप लगा रही हैं। हम अपील करते हैं कि आपके देश में रहते हुए इस तरह के भडक़ाऊ बयान देने से भारत सरकार उन्हें रोके।’
-नमिता भंडारे
भारत में सबसे अधिक लैंगिक समानता वाले राज्य में भी सबसे वरिष्ठ नौकरशाह को रंग की वजह से कटाक्ष झेलने पड़ते हैं, आखिर क्यों? श्रीमती शारदा मुरलीधरन, मुख्य सचिव केरल राज्य के साथ पिछले दिनों कुछ ऐसा ही घटित हुआ है ।
सोशल मीडिया पर यह एक टिप्पणीकार ने लिख दिया कि आपका कार्यकाल आपकी तरह उतना ही काला है, जितना आपके पति का गोरा था। टिप्पणी भले ही मजाक के रूप में की गई, पर वरिष्ठ अधिकारी शारदा मुरलीधरन इसे चुपचाप नहीं सहने वाली थीं और उन्होंने जवाब दिया।
बताते चलें कि मुरलीधरन ने सितंबर 2024 में केरल के मुख्य सचिव का पदभार संभाला था, जब उनके पूर्ववर्ती वी वेणु, 1990 बैच के आईएएस अधिकारी (संयोग से उनके पति) सेवानिवृत्त हुए थे। वह राज्य नौकरशाही के शीर्ष पद पर पहुंचने वाली पहली महिला हैं। ध्यान रहे, केरल महिला बहुल राज्य है और यहां साल 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रति 1,000 पुरुषों पर 1,084 महिलाएं हैं।
मुरलीधरन का करियर बेहद प्रभावशाली रहा है । वह अनेक ऊंचे और जिम्मेदार पदों पर रही हैं। एक उच्चाधिकारी के रूप में उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। फिर भी, उन्हें पेशेवर उपलब्धियों से नहीं, बल्कि उनकी त्वचा के रंग से आंका जा रहा है ।
मुरलीधरन की एक लंबी पोस्ट में उनके बचपन के उस आघात का जिक्र है, जो उन्हें रंग साफ न होने की वजह से झेलना पड़ा था। चार साल की उम्र में ही उन्हें अपनी त्वचा के रंग के बारे में पता चल गया था। उन्होंने अपनी मां से पूछा था, मां, क्या आप मुझे वापस अपने गर्भ में रख सकती हैं और मुझे गोरी व सुंदर बना सकती हैं? यह दर्द उन्होंने साझा किया। वह बताती हैं, मैं 50 से अधिक वर्ष तक रंग की इसी व्यथा-कथा तले दबी रही कि मेरा रंग अच्छा नहीं है। बाद में, बच्चों ने एहसास दिलाया कि उन्हें अपनी सांवली विरासत पर गर्व है। सांवलापन या काला सुंदर है।
वैसे, काले-गोरे का यह विवाद नया नहीं है। साल 2023 में प्रियंका चोपड़ा ने स्वीकार किया था कि उन्हें अपने करियर की शुरुआत में ‘हानिकारक’ फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों का हिस्सा बनने का पछतावा है।
वैसे, अपने भारत में औपनिवेशिक स्वामियों और ‘गोरी’ त्वचा के प्रति भारतीयों का जुनून नया नहीं है और यह जुनून केवल भारत तक सीमित नहीं है। एशिया, अफ्रीका और भारत में कथित ‘फेयरनेस क्रीम’ का प्रसार इस बात का प्रमाण है कि गोरेपन का मतलब सुंदर होना है। 1975 में हिन्दुस्तान यूनिलीवर द्वारा फेयर ऐंड लवली के लॉन्च के बाद इसी तरह के उत्पादों की बाढ़ आ गई, जिसमें पुरुषों के लिए भी उत्पाद शामिल थे। 2019 में भारत में फेयरनेस क्रीम का बाजार 3,000 करोड़ रुपये का होने का अनुमान लगाया गया था।
-प्रभाकर मणि तिवारी
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल में स्कूल सेवा आयोग के ज़रिए हुई करीब 25,000 शिक्षकों और गैर-शिक्षकों की बहाली को रद्द कर दिया था। सोमवार को राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शिक्षकों को भरोसा दिलाया कि 'उनके जीते जी किसी भी योग्य उम्मीदवार की नौकरी नहीं जाएगी।’
उन्होंने कहा कि ज़रूरत पडऩे पर सरकार दो महीने के भीतर वैकल्पिक व्यवस्था करेगी। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने नौकरी गंवाने वाले शिक्षकों से कहा कि वे स्वेच्छा से स्कूलों में पढ़ाना जारी रखें।
बीते गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल सेवा आयोग की 2016 की शिक्षक और गैर-शिक्षक भर्ती प्रक्रिया को रद्द करते हुए तीन महीने के भीतर नई भर्ती प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया।
इससे पहले अप्रैल 2023 में कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी यही फ़ैसला सुनाया था। उस फ़ैसले को सरकार और सेवा आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
अब सुप्रीम कोर्ट ने मामूली संशोधनों के साथ हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरकरार रखते हुए राज्य सरकार को नई बहाली की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया है।
‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ के बीच भ्रम
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से प्रभावित हुए हज़ारों शिक्षकों ने अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए ‘डिप्राइव्ड टीचर्स एसोसिएशन’ नामक संगठन बनाया है। संगठन का दावा है कि उसके करीब 15 हज़ार सदस्य हैं।
कोर्ट के आदेश के बाद एसोसिएशन के प्रतिनिधियों ने राज्य के शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु से मुलाक़ात की इच्छा जताई थी, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ख़ुद इस बैठक में शामिल होने की सहमति दी।
इसी आधार पर सोमवार को नेताजी इंडोर स्टेडियम में ममता बनर्जी के साथ शिक्षा मंत्री, मुख्य सचिव मनोज पंत और दूसरे वरिष्ठ अधिकारी सुबह से ही मौजूद थे।
बैठक से पहले कथित तौर पर 'योग्य' और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों के बीच तीखी झड़प हुई, जिससे इलाके में अफरा-तफरी मच गई। हालात को देखते हुए ट्रैफिक रोकना पड़ा और पुलिस के साथ-साथ रैपिड एक्शन फ़ोर्स (रैफ) के जवानों की तैनाती करनी पड़ी।
शहीद मीनार से जुलूस की शक्ल में स्टेडियम पहुंचे उम्मीदवारों के हाथ में एक ‘पास’ था, जिस पर लिखा था, ‘हम लोग योग्य हैं।’ यह पास किसने जारी किया, यह स्पष्ट नहीं हो सका है।
उम्मीदवारों का दावा था कि यह ‘पास’ उन्हें राज्य सचिवालय से मिला है, हालांकि सरकार की ओर से इसकी पुष्टि नहीं हुई। मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारियों ने इसी पास को दिखा कर उम्मीदवारों को भीतर जाने की अनुमति दी।
ममता बनर्जी के मंच पर पहुंचने के बाद एसोसिएशन की ओर से उन्हें मांगें पढक़र सुनाई गईं। इसमें कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ समीक्षा याचिका दायर की जाए और जब तक इस पर सुनवाई पूरी न हो, किसी भी शिक्षक को नौकरी से नहीं निकाला जाए।
साथ ही यह याचिका उसी खंडपीठ के सामने न दायर की जाए जिसने फ़ैसला सुनाया है। संगठन का यह भी कहना था कि इस बीच नए सिरे से कोई बहाली परीक्षा आयोजित न की जाए।
उनका दावा था कि सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड में योग्य और अयोग्य उम्मीदवारों की सूची पहले से मौजूद है, और उसी के आधार पर समीक्षा याचिका दाखिल की जाए।
ममता का भरोसा - नौकरी नहीं छिनने दूंगी
शिक्षकों की मांगें सुनने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने भाषण में कहा, ‘किसी भी योग्य उम्मीदवार की नौकरी नहीं जाएगी। सरकार पहले सुप्रीम कोर्ट से इस फ़ैसले की व्याख्या मांगेगी। उसका जवाब नकारात्मक होने की स्थिति में तय समय के भीतर योग्य उम्मीदवारों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाएगी। ऐसे लोगों की सर्विस भी ब्रेक नहीं होगी।’
उनके मुताबिक़, सरकार ने इसके आगे की रणनीति तय कर ली है, लेकिन उन्होंने इसके बारे में नहीं बताया।
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं अपने जीते-जी किसी भी ‘योग्य’ उम्मीदवार की नौकरी नहीं छिनने दूंगी, चाहे इसका कुछ भी नतीजा हो। यह मेरे लिए एक चुनौती है। सरकार क़ानून के दायरे में ही रह कर यह काम करेगी। हो सकता है कि इन शिक्षकों का साथ देने के लिए मुझे जेल भी जाना पड़े। लेकिन मैं उसके लिए भी तैयार हूं।’
ममता का कहना था, ‘मानवता के आधार पर सुप्रीम कोर्ट को ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों की सूची सरकार को देनी चाहिए।’
उन्होंने आगे कहा, ‘नए सिरे से भर्ती परीक्षा आयोजित करने से पहले हमें यह बात जाननी होगी कि स्कूल कैसे चलेंगे? बाकी कामकाज कैसे होगा? अगर आप नौकरी नहीं दे सकते तो मेरा अनुरोध है कि इसे छीनें भी मत।’
मुख्यमंत्री ने शिक्षकों से कहा, ‘सरकार की ओर से आपको अब तक बर्ख़ास्तगी का नोटिस नहीं मिला है। आप स्कूलों में जाकर स्वेच्छा से काम जारी रखिए।’
सीएम के बयान पर क्या बोले शिक्षक?
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बैठक के बाद नौकरी गंवाने वाले शिक्षकों के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली।
उनका कहना था कि अगर वे मुख्यमंत्री की बात मान कर स्कूल जाते भी हैं, तो यह साफ़ नहीं है कि उन्हें वेतन मिलेगा या नहीं।
साथ ही, यह व्यवस्था कितने दिन चलेगी, इस पर भी कुछ साफ़ नहीं है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों की सूची आखिरकार सुप्रीम कोर्ट जारी करेगा या स्कूल सेवा आयोग?
-आर.के.जैन
मस्तराम मस्ती में आग लगे बस्ती में । Apple के लिए कुछ ऐसा ही माहौल इंडिया में बना हुआ है । खुद के देश में भले राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के trump tariff ने उथल पुथल मचा रखी हो, मगर इंडिया में कंपनी की बल्ले-बल्ले हो रखी है।
कंपनी इंडिया में महीने के हजारों करोड़ और साल के लाखों करोड़ में बिजनेस कर रही है। महीने दर महीने और साल दर साल भारत में एप्पल का कारोबार दोगुना हो रहा है । अकेले मार्च के महीने में कंपनी ने 20 हजार करोड़ का माल एक्सपोर्ट कर दिया है जो मार्च 2024 के मुकाबले 9 हजार करोड़ ज्यादा हैं ।
अमेरिकी कंपनी ने मार्च 2025 में इंडिया से 20 हजार करोड़ का माल दुनिया भर के देशों को भेज दिया। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि एक्सपोर्ट का बड़ा हिस्सा अमेरिका गया है। वही अमेरिका जहां सुनने में आ रहा है कि कुछ दिनों से Panic Buying भी हो रही है ।
-शंभूनाथ
लोक साहित्य का पिछले 200 सालों में जो सृजन हुआ या कबीर, सूर, मीरा, तुलसी आदि का जो लोक साहित्य है और हजारों साल के क्लासिकल ग्रंथों में जिन लोक कथाओं को स्थान मिला, वे सभी समाज के कमजोर और वंचित लोगों की आवाजें हैं। महाभारत में नल– दमयंती और शकुंतला– दुष्यंत की कथा की उपस्थिति लोक कथा के रूप में ही है।
जुआ में हारने के बाद युधिष्ठिर जब निराश थे, एक ऋषि ने उनमें आशा पैदा करने के लिए नल और दमयंती की कथा सुनाई। नल भी जुआ में अपना राजपाट हार गया था, पर अन्तत: संघर्ष से गुजर कर फिर पा गया। फर्क यह था कि नल ने राजपाट हारने के बाद जुआ में दमयंती को दांव पर नहीं लगाया था, जबकि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को वस्तु बनाकर दांव पर लगा दिया था। इससे लोक कथा में स्त्री के स्वत्व को मिले महत्व का बोध होता है! शास्त्र में स्त्री वस्तु है, लोक में वह गरिमा से भरी है। लोक साहित्य शास्त्र से एक आत्मीय द्वंद्व है!
सूर एक पद में कहते हैं, ’जा दिन श्याम मिले सो नीको’! भद्रा या भरनी नक्षत्र हुआ तो क्या, किसी को छींक आ गई तो क्या, कृष्ण से मिलने के लिए हर क्षण शुभ है! गोपिकाएं धर्म ग्रंथों और ज्योतिष को मानने से इंकार कर देती हैं!
यह चीज छठ पर्व तक है, जिसमें स्त्री न सिर्फ अपना स्वत्व घोषित करती है, बल्कि पुरोहित वर्ग को परिदृश्य से बिलकुल हटा देती है! जो स्त्री पहले हिम्मत दिखाती थी, उसे अब ऐसे लोक गीतों और लोक संस्कृति के कुछ ऐसे रूपों से बांधने की कोशिश हो रही है जो अंधविश्वासों से भरी है।
-साइमन जैक
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ की घोषणा करके दुनियाभर के शेयर बाजारों में खलबली मचा दी है।
पर क्या इसका मतलब यह है कि दुनिया मंदी की ओर बढ़ रही है?
सबसे पहले इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि शेयर बाज़ार में जो कुछ भी होता है, वो अर्थव्यवस्था में होने वाले बदलावों से अलग होता है।
यानी, शेयर की कीमतों में गिरावट का मतलब हमेशा आर्थिक संकट नहीं होता। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है। किसी कंपनी की स्टॉक मार्केट वेल्यू में गिरावट का अर्थ है कि भविष्य में उसके मुनाफे के मूल्यांकन में बदलाव।
दरअसल, बाज़ार का अनुमान है कि टैरिफ़ बढऩे के बाद चीज़ों की लागत बढ़ेगी। इसकी वजह से कंपनियों के मुनाफ़े में गिरावट आएगी।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मंदी भी आएगी ही। पर ट्रंप की टैरिफ़ घोषणाओं के बाद ऐसा होने की आशंका स्पष्ट रूप से बनी हुई है।
आर्थिक मंदी की क्या परिभाषा है?
जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाहियों तक ख़र्च या निर्यात सिकुड़ जाता है तो माना जाता है कि मंदी आ गई है।
पिछले साल अक्तूबर और दिसंबर के बीच, ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 0।1 फ़ीसदी की बढ़त देखी गई थी। पिछले महीने का डेटा बताता है कि जनवरी में इस अर्थव्यवस्था में इतनी ही गिरावट देखी गई।
ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था ने फऱवरी में कैसा प्रदर्शन किया, इसका पहला अनुमान इस शुक्रवार को जारी किया जाएगा। तो जहाँ तक ब्रिटेन की बात है, हमें अभी और आंकड़ों का इंतज़ार करना होगा।
-रेहान फजल
जब सन् 1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की तो जनता सरकार में उप-प्रधानमंत्री रहे जगजीवन राम ने 28 फऱवरी को ऐलान किया कि वो दोहरी सदस्यता के मुद्दे को छोड़ेंगे नहीं और इस पर आखिरी फैसला लेकर ही रहेंगे।
दोहरी सदस्यता यानी जनता पार्टी और आरएसएस दोनों की सदस्यता एक साथ होना, इस पर कई बड़े नेताओं को गहरा एतराज था।
चार अप्रैल को जनता पार्टी की कार्यकारिणी ने तय किया कि जनसंघ के लोग अगर आरएसएस नहीं छोड़ेंगे तो उन्हें जनता पार्टी से निकाल बाहर किया जाएगा लेकिन जनसंघ के सदस्यों को इसका पहले से ही अंदाज़ा लग गया था।
किंशुक नाग अपनी किताब ‘द सैफऱन टाइड, द राइज ऑफ द बीजेपी’ में लिखते हैं, ‘पाँच और छह अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी के जनसंघ घटक ने दिल्ली के फिऱोज शाह कोटला स्टेडियम में बैठक की जिसमें करीब तीन हजार सदस्यों ने भाग लिया और यहीं भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की घोषणा की गई।’
अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया जबकि लालकृष्ण आडवाणी को सूरज भान और सिकंदर बख्त के साथ पार्टी का महासचिव बनाया गया।
1980 के चुनाव में जनता पार्टी सिर्फ 31 सीटें जीत पाई थी जिसमें जनसंघ घटक के 16 सदस्य थे यानी तकरीबन आधे।
इन सभी लोगों ने राज्यसभा के 14 सदस्यों, पाँच पूर्व कैबिनेट मंत्रियों, आठ पूर्व राज्य मंत्रियों और छह पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ नई पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। इन सबने दावा किया कि वो ही असली जनता पार्टी हैं।
चुनाव आयोग ने दिया कमल चुनाव चिन्ह
जब जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने जनसंघ से जुड़े रहे नेताओं के इस दावे को चुनौती दी कि वो ही असली जनता पार्टी हैं तो शुरू में चुनाव आयोग ने उनके विरोध को नहीं माना।
आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को सीधे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दे दिया और जनता पार्टी के चुनाव चिह्न ‘हलधर किसान’ को कुछ समय के लिए फ्रीज कर दिया। चुनाव आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को कमल चुनाव चिह्न दिया। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने चक्र और हाथी चुनाव चिह्न देने का अनुरोध किया था जिसे चुनाव आयोग ने स्वीकार नहीं किया।
चंद्रशेखर ने चुनाव आयोग से चुनाव चिह्न फ्ऱीज़ किए जाने के फैसले की समीक्षा करने का अनुरोध किया। छह महीने बाद चुनाव आयोग ने चंद्रशेखर के अनुरोध को मानते हुए हलधर किसान चुनाव चिह्न को अनफ्रीज कर दिया लेकिन भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बरकरार रहा।
बाहरी नेताओं को तरजीह
शुरू में भारतीय जनता पार्टी में ग़ैर-आरएसएस नेताओं को नजऱअंदाज़ नहीं किया गया।
नलिन मेहता अपनी किताब ‘द न्यू बीजेपी’ में लिखते हैं, ‘बीजेपी ने पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, मशहूर वकील राम जेठमलानी, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज केएस हेगड़े और पूर्व कांग्रेस नेता सिकंदर बख़्त का न सिफऱ् खुले दिल से स्वागत किया बल्कि उन्हें मंच पर भी बिठाया। दिलचस्प बात ये थी कि पार्टी का संविधान बनाने वाली तीन सदस्यीय समिति के दो सदस्य संघ से बाहर के थे।’
राम जेठमलानी विभाजन के बाद सिंध से शरणार्थी के तौर पर आए थे जबकि सिकंदर बख्त दिल्ली के मुसलमान थे।
सिकंदर बख़्त ने ही पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वाजपेयी के नाम का प्रस्ताव किया था जिसको राजस्थान के बीजेपी नेता भैरों सिंह शेख़ावत ने अपना समर्थन दिया था।
‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाया
बीजेपी के जन्म लेने से पहले इस बात पर भी बहस हुई कि नई पार्टी का नाम क्या रखा जाए। वाजपेयी नई विचारधारा के साथ पार्टी का नया नाम भी चाहते थे।
बीजेपी के आधिकारिक दस्तावेज़ों के अनुसार पार्टी के पहले सत्र में आए लोगों से जब पार्टी के नाम के बारे में पूछा गया तो तीन हज़ार में से सिफऱ् 6 सदस्यों ने पुराने नाम जनसंघ को जारी रखने का समर्थन किया।
अंतत: भारतीय जनता पार्टी नाम रखने पर सहमति हुई। वैचारिक रूप से पार्टी ने ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाया लेकिन शुरू में इसे पार्टी के कई हलकों में समर्थन नहीं मिला।
किंशुक नाग लिखते हैं, ‘विजयराजे सिंधिया के नेतृत्व में कई बीजेपी नेता ‘समाजवाद’ शब्द का इस्तेमाल करने के बारे में सशंकित थे क्योंकि इससे कम्युनिस्टों के साथ वैचारिक मेलजोल का आभास मिलता था जिससे आरएसएस हर हालत में दूर रहना चाहता था। कुछ दूसरे नेताओं का विचार था कि ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाकर पार्टी पर नकलची होने और कांग्रेस की विचारधारा को अपनाने का आरोप लगेगा।’
ये भी माना जाता है कि उस समय आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस भी ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में वो इसके लिए राज़ी हो गए थे।
किंशुक नाग लिखते हैं, ‘आरएसएस के लोग ग़ैर-हिंदुओ को, जिसमें मुसलमान भी शामिल थे, पार्टी में शामिल करने पर ख़ुश नहीं थे। लेकिन इसके बावजूद पार्टी में इस बात पर ज़ोर था कि जनसंघ की पुरानी विचारधारा को भूलकर नई शुरुआत की जाए। शायद इसी वजह से पार्टी के मंच पर श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के चित्रों के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण के चित्र भी लगे हुए थे।’
बंबई में पार्टी का महाधिवेशन बुलाया गया
दिसंबर, 1980 के अंतिम हफ़्ते में बंबई में पार्टी का पूर्ण अधिवेशन बुलाया गया जिसमें पार्टी के हज़ारों सदस्यों ने भाग लिया।
लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ में दावा करते हैं कि तब तक देश भर में 25 लाख लोग भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बन चुके थे। जनसंघ के चरम पर भी पार्टी के सदस्यों की संख्या 16 लाख से अधिक नहीं थी।
सुमित मित्रा ने इंडिया टुडे की 31 जनवरी, 1981 में छपी अपनी रिपोर्ट ‘बीजेपी कन्वेंशन, ओल्ड वाइन इन न्यू बॉटल’ में लिखा था, ‘बीजेपी के कुल 54,632 प्रतिनिधियों में 73 फ़ीसदी पाँच राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से आए थे। बंबई के बाँद्रा रिक्लेमेशन क्षेत्र में एक अस्थायी बस्ती बनाई गई।’
सम्मेलन 28 दिसंबर को शुरू हुआ था और उसमें 40 हज़ार लोगों के रहने और खाने का इंतज़ाम किया गया था। दोपहर तक 44 हज़ार प्रतिनिधि सभास्थल पर पहुंच चुके थे। शाम तक और प्रतिनिधियों के पहुंचने की उम्मीद थी। पार्टी के महासचिव लालकृष्ण आडवाणी को ये अनुरोध करना पड़ा कि अगर संभव हो तो पार्टी सदस्य सभास्थल के बाहर भोजन करें।
वाजपेयी को समारोहपूर्वक शिवाजी पार्क ले जाया गया
सभास्थल में हर जगह पार्टी के नए झंडे लगे हुए थे। इसका एक तिहाई हिस्सा हरा और दो तिहाई हिस्सा केसरिया था।
28 दिसंबर, 1980 की शाम 28 एकड़ में फैले शिवाजी पार्क में पार्टी का खुला सत्र हुआ था जिसमें आम लोगों को भी भाग लेने की छूट थी।
विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी, द बीजेपी बिफ़ोर मोदी’ में लिखते हैं, ‘पार्टी के नए अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने सभास्थल से शिवाजी पार्क का चार किलोमीटर का रास्ता खुली जीप में तय किया था। स्थानीय लोगों और हिंदु राष्ट्रवाद की भावना को मूर्त रूप देने के लिए मराठी सैनिक की वेशभूषा में एक व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर सबसे आगे चल रहा था। उसके पीछे ट्रकों का एक काफिला था, ट्रकों पर दीनदयाल उपाध्याय और जय प्रकाश नारायण के चित्र लगे हुए थे।’
आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस के भाई भाऊराव देवरस भी वहाँ मौजूद थे। वहाँ मौजूद आरएसएस के नेता शेषाद्रि चारी ने स्वीकार किया था कि उनके लिए जयप्रकाश नारायण के ‘गांधीवादी समाजवाद’ को पचा पाना मुश्किल हो रहा था।
प्रवीण तोगडिय़ा ने भी एक इंटरव्यू में कहा था, ‘बीजेपी के अधिकांश सदस्य गांधीवादी समाजवाद और पार्टी का झंडा बदलने से सहमति नहीं रखते थे। मुझे ये पता था क्योंकि उस समय मैं स्वयंसेवक हुआ करता था। ये असहमति चारों तरफ व्याप्त थी लेकिन इसे मुखर नहीं होने दिया गया था।’
-डॉ. दिनेश मिश्र
हिमाचल प्रदेश की कालका शिमला रेल मार्ग के बड़ोग की (ड्ढड्डह्म्शद्द) सुरंग भुतहा नहीं है, भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं होता। कर्नल बड़ोग के नाम पर बनी इस सुरंग (टनल) के भुतहा होने संबंध में कुछ स्थानीय लोगों व मीडिया के द्वारा फैलाई गई अफवाह तर्कहीन है। जबकि यह स्टेशन विश्व हेरिटेज यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट की लिस्ट में है फिर भी समय-समय पर इसके संबंध में अन्धविश्वास, भ्रम फैलाया जाता रहा है जबकि उन्होंने अपने दल के साथ बड़ोग जाकर सच्चाई जानी।
20वीं सदी की शुरुआत में कालका शिमला रेलवे के निर्माण के दौरान सोलन के नजदीक बसाया गया एक छोटा सी बस्ती है। जिसका नाम एक इंजीनियर कर्नल बड़ोग के नाम पर रखा गया है, जिसने 1903 में उस क्षेत्र में रेलवे लाइन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कर्नल बड़ोग एक ब्रिटिश रेलवे इंजीनियर थे, जो पहाड़ों में रेलवे के लिए सुरंग बनाने का काम करते थे। बरोग से पहाड़ में सुरंग बनाने के नापजोख में कुछ त्रुटि हो गई जिससे वजह से दोनो तरफ से बनने वाली सुरंग कभी मिल ही नहीं पाई, जिस से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा उन पर कार्यवाही करते हुए एक रुपये का जुर्माना लगाया गया था। बड़ोग से यह अपमान सहन नहीं हुआ और उसी स्थान पर बड़ोग ने आत्महत्या कर ली। बाद में उन्हें एक अधूरी सुरंग के पास दफना दिया गया। इस स्थान को बाद में बड़ोग के नाम से जाना गया यह सुरंग मार्ग की सबसे लंबी सुरंग है।
डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कभी-कभी सिर्फ रोमांचक स्टोरी बनाने के फेर में मीडिया भी अंधविश्वास फैलाने का एक माध्यम बन जाता है जब मैंने इस सुरंग के बारे में जानकारी प्राप्त की, तब मुझे देश के बड़े-बड़े समाचार पत्रों में इस सुरंग के बारे में सिर्फ एकतरफा स्टोरी ही सुनाई व दिखाई दी यहां तक राष्ट्रीय अखबारों और कुछ चर्चित टीवी चैनलों तथा कुछ वेबसाइट में सिर्फ एकतरफा खबरें ही दिखाई और सुनाई पड़ी, कि इस सुरंग में कर्नल बड़ोग का भूत रहता है, वहां लोग आने से डरते हैं, शाम को कर्नल बड़ोग की चीखें सुनाई पड़ती है, रात में रहस्यमयी वातावरण हो जाता है आदि आदि। इस प्रकार की अफवाहें फैलती गईं कि बड़ोग स्टेशन को भुतहा (हॉन्टेड) स्टेशन के नाम से दुष्प्रचारित कर दिया गया, जबकि यह स्टेशन पहाडिय़ों व जंगलों के बीच अपनी प्राकृतिक छटा के कारण यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट में शामिल है।
बड़ोग के संबंध में इस प्रकार की जानकारी होने के बाद हमने तय किया कि अपने साथियों के साथ वहां जाकर, परीक्षण कर कर्नल बड़ोग स्टेशन के संबंध में और इस स्टेशन के बारे में फैलाई जा रही अफवाहों के बारे में कुछ सही बातें और तार्किक की बातें लोगों को बताई जाए।
पिछले दिनों जब मेरा हिमाचल जाना हुआ, तब दिल्ली से चंडीगढ़ होते हुए हम कसौली पहुंचे, और फिर वहां से दूसरे दिन सालोन नामक स्थान पर पहुंचे जिसके जुड़ा हुआ ही बड़ौद स्टेशन है, स्टेशन से नीचे उतरने के लिए काफी कच्चा रास्ता है, काफी ढलान है, सकरी पगडंडी है, लेकिन आसपास के दृश्य अत्यंत सुंदर और प्राकृतिक हैं, चीड़ और देवदार के पेड़ों से भरे इस क्षेत्र में मेरे साथ में डॉ, सुभाष अग्रवाल, डॉ अतुल तिवारी, डॉ. मोनिका अग्रवाल, शताक्षी तिवारी और सुजाता मिश्र, हम छह लोगों का दल इस मुहिम में शामिल हुआ। हम सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे नीचे उतरते चले गए, बड़ोग स्टेशन मुख्य सडक़ से करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे है, जहां से स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहुंचे। सबेरे 11 बजे भी प्लेटफार्म पर न ही कोई यात्री था और न ही कोई कर्मचारी और न कोई वेंडर। जब कि जब भी हम स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाते हैं, यात्रियों की चहल पहल देखते हैं, वेंडरों की आवाजें सुनते है, कर्मचारियों की आवाजाही देखते हैं। प्लेटफार्म नंबर 1 पर कुछ दूरी पर एक बच्ची खेल रही थी उसने पूछने पर अपना नाम दीपिका बताया। उससे ही पूछा हमने उसने हमें वहां की कैंटीन का रास्ता बताया और स्टेशन मास्टर के ऑफिस के दिखाया। लंबा साफ सुथरा सुंदर प्लेटफार्म है जहां यूनेस्को द्वारा वल्र्ड हेरिटेज साइट का शिलालेख निर्मित है। जहां से चलते हुए हम लोग स्टेशन मास्टर के ऑफिस तक पहुंचे, उसके नजदीक सुरंग को भी देखा जो दूर से ही दिखाई दे रही थी, वहां लिखा हुआ है 33 नंबर इसके बारे में मीडिया के काफी हिस्से ने रहस्यमई सुरंग,भुतहा सुरंग कर्नल बड़ोग के भूत वाली सुरंग के नाम से प्रचारित किया है, सुरंग के द्वार पर ही बड़ोग सुरंग के सम्बन्ध में जानकारी अंकित है। यह पुरानी वास्तुकला से निर्मित है सुरंग, जिसमें से पटरिया गुजराती दिखती है, अंदर लाइटें भी लगी हैं, इसे सबसे लंबी सुरंग माना जाता है उसका सिग्नल भी वहीं है सुरंग के मुहाने व सुरंग के अंदर भी दूरी तक जाकर के हमने देखा, हमें कोई भी भय, डर की बात नहीं लगी। फिर बड़ोग के स्टेशन मास्टर कुलदीप भाया से मिले, जो पिछले 8 वर्षों से उसे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में कार्य कर रहे हैं, उनसे बात की, उनसे चर्चा की, उन्होंने अपने इतने लंबे कार्यकाल के दौरान किसी भूत को भुतहा चीख की आवाज नहीं सुनी, उनसे काफी देर तक अनुभव सुने, उनके साथ फोटो भी खिंचवाई, सुरंग में फोटो खींची, सुरंग के बाहर फोटो खींची, दीपिका जो बच्ची वहां प्लेटफार्म पर खेल रही थी, उस बच्ची के साथ हम प्लेटफार्म से कुछ ऊंचाई पर बने कैंटीन पर गए, वहां मैनेजर, कर्मचारी से भी बातचीत हुई, जो नियमित रूप से वहां ड्यूटी करते हैं, कैंटीन में काम करने वाले कर्मचारी बड़ोग के समीप गांव से वहां पर काम करने आते हैं उन्होंने भी कोई चीखचीख नहीं सुनी, उन्हें कभी नहीं लगा कोई वहां पर भूत, आत्मा रहती है।
हमने उसे कैंटीन में बने ताजा कटलेट कभी आनंद लिया और चाय भी पी। प्लेटफार्म के नजदीक वहीं एक और पुरानी सुरंग है जिसे बंद कर दिया गया वहां तक भी पहुंचे करनाल बड़ोग कथित कब्र भी देखी, क्योंकि बड़ोग रेलवे स्टेशन था, कथित तौर पर भूतों का भी मामला था, डरने की भी कहानी भी चर्चा में थी, इसलिए हमने वहां पर अपने साथियों के साथ प्रतीकात्मक इंसानी रेल भी चलाई।
हमें स्टेशन मास्टर ने जानकारी दी, कि वहां पर शिमला जाने वाली ट्रेन जब आती है, तब कुछ लोग उतरते हैं क्योंकि वह शिमला जाती है वह पटरी कालका शिमला रूट है इसलिए स्टेशन पर उतरने वालों की संख्या बहुत ही कम होती है लेकिन उन्होंने अपनी ड्यूटी के दौरान कभी भी किसी भी भूत-प्रेत असामान्य बातों के न दर्शन हुए उन्होंने कभी ऐसा महसूस हुआ।
बड़ोग स्टेशन के पास ही गांव में बच्चों का स्कूल है, जहां आसपास के गांव से बच्चे पढऩे आते हैं, वहां पर वैक्सीनेशन के लिए जाती हुई
एक मितानिन से भी बातचीत हुई, जो बच्चों के लिए वैक्सीन लेकर जा रही थी उससे भी चर्चा की उसने बताया नजदीक के गांव से आना जाना करती है लेकिन उसे भी कभी वहां पर कोई भूत प्रेत नहीं दिखे और न डर लगा।
भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है, यह बात सही है कि उस सुरंग के निर्माण में कुछ चुके हुई होगी जिसके कारण इंजीनियर कर्नल बड़ोग को आत्महत्या करने पड़ी, और यह भी सही कि उनको वहां पर दफना दिया गया, उस स्टेशन का नाम भी बड़ोग के नाम पर रख दिया गया है, स्टेशन में उनके संबंध में जानकारी भी वहां लिखी हुई है, लेकिन इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि स्टेशन बड़ोग में उनका भूत है, जिसकी चीखने चिल्लाने की आवाज रात में आती है, वह लोगों को तंग करता है, लोगों को नहीं वहां जाना चाहिए इत्यादि-इत्यादि।
भूत वाली बात पूरी तरह से काल्पनिक, अफवाहें हैं। आम लोगों को ऐसे अंधविश्वासों पर भरोसा नहीं करना चाहिए साथ में मीडिया को भी इस प्रकार की स्टोरी जो सिर्फ लोगों में अफवाह और अंधविश्वास फैलती है ऐसी स्टोरी प्रसारित करने से भी बचना चाहिए ।
जिस बड़ोग स्टेशन का नाम यूनेस्को के वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है, ऐसे प्राकृतिक सुंदरता वाले स्थान को आम पर्यटकों को देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि पर्यटन बढ़े।
-चंचल भू
5 अप्रैल बाबू जगजीवन राम का जन्म दिन है । बाबू जी बिहार से उठे और तमाम ‘असुविधाओं’ को झेलते हुए शिखर पर जा बैठे। काशी विश्व विद्यालय के छात्र थे , बिरला छात्रावास के कमरा नम्बर 19 उनके नाम से आवंटित हुआ। यहां उन्हें पाखंडी सनातनियों द्वारा बहुत अपमानित होना पड़ा था लेकिन इस विश्व विद्यालय का मोह वे कभी नही छोड़ पाए ।
हमारी उनसे जान पहचान 77 में हुई। हम संघ को हराकर छात्रसंघ का चुनाव जीते थे । इस खबर से बाबू जी बहुत खुश थे । इसके पहले ही वे हमारा नाम सुन चुके थे । आपातकाल के खत्म होने के बाद बाबू जी कांग्रेस से अलग ष्टस्नष्ठ बना लिए थे और सासाराम से प्रत्यासी थे। एक दिन सच्चिदा बाबू (भाई जगदानंद के बड़े भाई और प्रसिद्ध समाजवादी) बनारस आये थे और हमे चुनाव प्रचार के लिए सासाराम ले गए । वहां बहुत छोटी मुलाकात हुई । बाद में जब हम छात्रसंघ का चुनाव जीते तो बाबू जी को हमारे चुनाव जीतने की खबर सच्चिदा भाई ने ही दिया । बाबू जी ने सच्चिदा भाई से कहा इसे दिल्ली बुलाओ। जब ये बात हो रही थी तो उस समय बहुगुणा जी (स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा) वहां मौजूद थे , यह जिम्मेदारी बहुगुणा जी ने ले ली और हमारी मुलाकात बाबू जी हो गई । आजीवन मिलते रहे ।
इन लोगों में पंच और विट गजब का रहा। हम जब भी मिलते बाबू जी बे रोक टोक बोलते-आइए अध्यक्ष जी। और हम बोलते- जी मंत्री जी । और जोर का ठहाका लगता।
एक दिन बाबू जी ने कहा- हमारे साथ कोई फोटो नही खिंचवाना चाहते? कैमरा देखते ही खिसक जाते हो?
इतना भद्दा हूँ ? हमें अंदर से तकलीफ हुई। विश्वविद्यालय ने उनके साथ जो किया था, वो याद आ गया। हम चुपचाप संजीदा बने बैठे रहे। अचानक टाइम्स के फोटोग्राफर आ गए। हम उठे और बाबू जी के बगल में जाकर बैठ गए। फोटो हो गया। हम उठे, चलने को हुए, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया , उन्हें कुछ असहज लगा। बोले - बैठिए अभी नहीं जाना है काफी पीकर जाओ ।
-सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
इस रिपोर्ट में डेटा लोकेलाइजेशन अनिवार्यताओं और कड़ी सैटेलाइट नीतियों को लेकर भी आलोचना की गई है, जिससे व्यापार संबंधों में तनाव बढ़ा है।
अमेरिका को डर है कि भारत का नियंत्रित करने वाला रुख अधिकाधिक चीन की तरह होता जा रहा है।
व्हाइट हाउस के अनुसार, अगर ये बाधाएं हटा दी जाती हैं, अमेरिकी निर्यात वार्षिक स्तर पर कम से कम 5.3 अरब डॉलर तक बढ़ सकता है।
धर का कहना है, ‘इससे बुरा समय नहीं हो सकता- ट्रेड वार्ता के बीच ये सब होना केवल हमारी मुश्किलों को बढ़ाता ही है। यह केवल बाज़ार खोलने का मामला नहीं है, यह पूरा पैकेज है।’
इसके अलावा, वियतनाम या चीन पर बढ़त हासिल करना रातों रात नहीं होगा, मौके तलाशना और प्रतिस्पर्धात्मक मजबूती हासिल करने में समय लगता है। (बीबीसी)ट्रंप का टैरिफ : क्या भारतीय उद्योगों
के लिए आपदा के बजाय अवसर है?
सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
-एनाबेल लियंग
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को अमेरिका के हर ट्रेडिंग पार्टनर पर टैरिफ लगाने का एलान किया, इस दौरान उन्होंने चीन के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।
घोषणा के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मैं बहुत इज्जत करता हूं। लेकिन वो अमेरिका का बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठा रहे हैं।’
ट्रंप ने एक चार्ट दिखाते हुए कहा कि जिन देशों ने अमेरिकी वस्तुओं के बिजनेस में मुश्किलें खड़ी की हैं वो इस तरह से हैं, ‘अगर आप देखें चीन 67 फीसदी के साथ पहले नंबर पर है। यह अमेरिका पर लगाया गया टैरिफ है, जिसमें मुद्रा हेरफेर और व्यापार से संबंधी बाधाएं शामिल हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हम रेसिप्रोकल टैरिफ में छूट दे रहे हैं और 34 फीसदी टैरिफ ही लगा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो हमारे ऊपर चार्ज लगा रहे हैं, हम उन पर चार्ज लगा रहे हैं। हम तो कम चार्ज लगा रहे हैं। तो फिर कोई निराश कैसे हो सकता है?’
लेकिन चीन के वाणिज्य मंत्रालय ने तुरंत इस कदम को 'एकतरफा धमकी' करार दिया। चीन ने कहा कि वो अपने हितों की रक्षा के लिए कदम उठाएगा।
चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने ट्रंप पर कारोबार को एक सामान्य ‘टिट फॉर टैट’ यानी ‘जैसे को तैसा’ के खेल में बदलने का आरोप लगाया।
हालांकि एक्सपर्ट्स का मानना है चीन के पास निराश होने की काफी वजहें हैं।
उनमें से एक ये एलान है जिसमें चीन की वस्तुओं पर पहले से लग रहे टैरिफ के अलावा 20 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया गया है।
जब ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में चीन पर टैरिफ लगाए थे तो चीन ने बचने के लिए एक रास्ता निकाला था। लेकिन कंबोडिया, वियतनाम और लाओस सहित अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों पर भारी टैरिफ लगाकर ट्रंप ने उस रास्ते को बंद कर दिया है।
जिन 10 देशों पर सबसे ज्यादा टैरिफ लगाए गए हैं उनमें पांच एशियाई देशों के नाम शुमार हैं।
ट्रंप ने अमेरिका में आयात पर टैरिफ़ की एक लंबी लिस्ट की घोषणा की है और अमेरिकी समयानुसार, 5 अप्रैल से ज़्यादातर देशों पर 10 प्रतिशत का बेसलाइन टैरिफ़ भी लागू होगा, जबकि 9 अप्रैल से अमेरिका के कुछ सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों पर ऊंचा आयात शुल्क लागू होगा।
चीन के लिए टैरिफ में हो रही है बढ़ोतरी
जनवरी में व्हाइट हाउस में लौटने के बाद से ट्रंप ने चीन से आयात पर नए टैरिफ लगाए थे। अब इन्हें 20 फीसदी और बढ़ा दिया गया है।
एक हफ्ते से भी कम समय में ये टैरिफ बढक़र 54 फीसदी हो जाएंगे। इसके अलावा कार, स्टील और एल्युमीनियम जैसे उत्पादों पर टैरिफ कम होगा।
चीन को ट्रंप की वजह से बिजनेस से जुड़ी अन्य मुश्किलों का सामना भी करना पड़ रहा है।
इससे पहले बुधवार को राष्ट्रपति ने चीन से आने वाले कम मूल्य के पार्सल के प्रावधान को समाप्त करने के लिए एक कार्यकारी आदेश पर साइन किए।
इस प्रावधान से चीन के शीन और टेमू जैसे ई कॉमर्स प्लेटफॉर्म अमेरिका में 800 डॉलर की कीमत के पैकेज बिना किसी टैक्स के भेज पाते थे।
कस्टम डेटा के मुताबिक इस प्रावधान के तहत बीते वित्त वर्ष में 1.4 अरब डॉलर के पैकेज चीन से अमेरिका पहुंचे हैं।
प्रावधान हटने की वजह से चीन की कुछ कंपनियों को कस्टमर्स से अतिरिक्त चार्ज लेना होगा। इस वजह से अमेरिका में उनकी वस्तुओं की मांग कम हो सकती है।
हीनरीच फाउंडेशन से जुड़ीं डेबरा एम्स कहती हैं कि अगर देखा जाए तो इस वक्त चीन की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं।
उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि नए टैरिफ चीन पर ही लगाए गए हैं। लेकिन जब चीन पर अमेरिका एक के बाद एक टैरिफ लगाता है तो फिर नंबर्स चौंकाने वाले होते हैं।’
‘चीन को पलटवार करना होगा। वो चुपचाप बैठकर ये सब होते हुए नहीं देख सकते हैं।’
सप्लाई चेन पर पड़ेगा असर
कंबोडिया, वियतनाम और लाओस पर ट्रंप ने 46 से 49 फीसदी तक टैरिफ लगाए हैं।
इन्वेसटमेंट फर्म एसपीआई एससेट से जुड़े स्टीफन इन्स ने कहा, ‘चीन की विस्तार की गई सप्लाई चेन पर हमला किया गया है।’
‘वियतनाम और अन्य देशों को अमेरिका की बिजनेस नीति से नुकसान पहुंच सकती है। ये कोई बदला नहीं है। लेकिन टैरिफ के जरिए रणनीतिक नियंत्रण है।’
कंबोडिया और लाओस इस क्षेत्र के सबसे गरीब देश हैं और वो चीन की सप्लाई चेन पर निर्भर करते हैं। हाई टैरिफ की वजह से इन देशों पर बुरा असर पड़ सकता है।
वियतनाम चीन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान जब चीन और अमेरिका के बीच तनाव था तब वियतनाम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा था।
ट्रंप ने साल 2018 में चीन पर टैरिफ लगाए। इसकी वजह से बिजनेस करने वालों ने इस बात पर विचार किया कि प्रोडक्ट कहां बनाए जाएं और उन्होंने इसके लिए वियतनाम को चुना।
चूंकि चीन की कंपनियां वियतनाम चली गईं, इसलिए वियतनाम से अमेरिका में किए जाने वाले आयात में बढ़ोतरी दर्ज हुई।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के एक्सपर्ट और अमेरिकी सरकार के लिए काम कर चुके स्टीफन ओल्सन ने बीबीसी को बताया, ‘चीन के साथ जुड़े होने की वजह से वियतनाम को निशाना बनाया गया है।’
नए आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका वियतनाम का सबसे बड़ा निर्यात बाजार बना हुआ है। वहीं चीन वियतनाम को सबसे ज़्यादा सामान सप्लाई करने वाला देश बन गया है।
इतना ही नहीं चीन वियतनाम के कुल आयात में एक तिहाई से अधिक का योगदान देता है।
वियतनाम में पिछले साल जो नए निवेश हुए उनमें से हर तीन में एक के पीछे चीन की कंपनी ही थी।
इनसीड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर पुशन दत्त का कहना है कि दक्षिण पूर्व एशिया पर लगाए गए नए टैरिफ चीन को रोकने के लिए हैं।
उन्होंने कहा, ‘चीन में डिमांड एक दिक्कत बन गई है। ट्रंप के पिछले कार्यकाल के दौरान चीन की कंपनियों ने अपने प्लांट चीन से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में शिफ़्ट किए। लेकिन अब ये दरवाजा भी बंद हो गया है।’
लेकिन ट्रंप के टैरिफ का असर अमेरिका की उन कंपनियों पर भी पड़ेगा जो अपने प्रोडक्ट दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में बनाते हैं।
उदाहरण के लिए अमेरिका की बड़ी कंपनियों एपल, इंटेल और नाइकी पर भी इसका असर पड़ेगा क्योंकि इनकी अधिकतर फैक्ट्री वियतनाम में ही हैं।
वियतनाम में अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स के हाल ही में किए गए सर्वे में पाया गया कि वहां अधिकांश अमेरिकी निर्माताओं को आशंका है कि अगर टैरिफ लगाया गया तो वे अपने कर्मचारियों की छंटनी कर देंगे।
आगे का मुश्किल रास्ता
सवाल ये है कि चीन के पास टैरिफ का जवाब देने का क्या रास्ता है क्योंकि इनके लागू होने में कुछ ही दिन का वक्त है।
ओल्सन कहते हैं कि चीन टैरिफ पर मजबूती से पलटवार कर सकता है और वो ऐसे कदम उठा सकता है जिससे अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन में काम करना मुश्किल हो जाए।
वहीं प्रोफेसर दत्त मानते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था पहले ही चुनौतियों का सामना कर रही है और उसके सामने आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
उन्होंने कहा, ‘अन्य क्षेत्रों में निर्यात करने से वहां औद्योगिकीकरण ख़त्म होने का खतरा है। वहां के राजनेता इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका मतलब है कि चीन को अंत में घरेलू मांग को बढ़ावा देना होगा।’
ये टैरिफ चीन को उन अन्य एशियाई देशों के साथ गठजोड़ बनाने के लिए भी प्रेरित कर सकते हैं, जो टैरिफ का सामना कर रहे हैं।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सदस्य वांग वेयाओ कहते हैं कि इस मुश्किल वक्त में एशियाई देशों को एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।
वो कहते हैं, ‘अंत में अमेरिका का प्रभाव खत्म हो जाएगा और वो अकेला महसूस करेगा।’
-विष्णु नागर
विनोद कुमार शुक्ल को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर व्यापक रूप से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं,जो स्वाभाविक भी है। इन्हीं दिनों विनोद जी के स्वर में यह कविता फेसबुक पर सुनी तो मेरी इस प्रिय कविता पर लिखने का मन हुआ:-
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकडक़र वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता मुझे बार -बार अपनी ओर खींचती है, याद आती है। मैं इसे हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूं। यांत्रिक दृष्टि से देखें तो विनोद जी की कविता में जिस व्यक्ति की हताशा की बात की जा रही है और जो उस हताश व्यक्ति की ओर मदद का हाथ बढ़ाकर उसे खड़ा करने में मदद देता है, दोनों अमूर्त हैं।न उनका कोई नाम है, न वर्ग है। न उस हताशा का कोई नाम है। वह हताशा किन कारणों से उपजी है, किसकी है, इसका कोई सीधा संकेत कविता में नहीं है।
फिर भी थोड़ा ध्यान से देखने- सोचने पर जो व्यक्ति हताशा में बैठ गया है और जो उसकी ओर मदद का हाथ बढ़ा रहा है वे दोनों निम्नमध्यवर्गीय हैं। वे हताशा से गुजरते हैं मगर साथ चलने का मूल्य जानते हैं। साथ चलने में उनका विश्वास कायम है। कविता यह बात अधिक शब्दों में कहे, कहती है। इन ग्यारह पंक्तियों में कवि ने जो कह दिया है और जिस सहजता से कह दिया है, कविता को कविता न बनाने के अंदाज़ में कह दिया है, वह मामूली कवि का काम नहीं? है। ऐसी कविता रचने के लिए कविता में ही नहीं, जीवन में भी मनुष्य होना जरूरी है।
इस कविता में कविता बनाने की चिंता प्राथमिक नहीं दिखती। यहां किसी अनोखे सत्य को पा लेने का छुपा या प्रकट दंभ भी नहीं है। यह कविता एक साधारण सत्य को उसकी साधारणता में पकडक़र उसे असाधारण रूप देती है। अनोखे शब्द संयम के साथ और उसका किसी तरह का दिखावा किये बगैर, उसका शोर मचाये बिना यह काम करती है।
साधारण शब्दों में यह कविता कहती है कि हताश व्यक्ति कौन है, वह किसी का परिचित है या अपरिचित, इसे मत देखो, उसकी हताशा को देखो, उसे पहचानो और उसके साथ खड़े होओ। तुम खुद अपनी हताशा के क्षणों में किसी का हाथ पाकर खड़े हुए हो तो तुम्हारे अंदर वह माद्दा होना चाहिए कि तुम दूसरों की हताशा को भी पहचान कर, उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाओ। जीवन के इस मामूली सत्य की यह कविता है। यह किसी की तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की कविता है। यह कविता फिर बताती है कि जीवन के बेहद मामूली तथ्यों -सत्यों पर कविता लिखी जा सकती है, लिखी जानी चाहिए।
यह नहीं कह सकते कि इस सहज-सरल मार्मिकता में धंसी इस कविता में किसी तरह की निर्मित नहीं है मगर इसकी खूबी यह है कि कविता ऊंगली पकडक़र यह नहीं बताती। यह अपनी सादगी बनाए रखती है। उसका सारा प्रयास उस सत्य की ओर ले जाना है, किसी काव्यात्मक तामझाम से पाठक को प्रभावित करना नहीं। कवि यह कविता लिखकर स्वयं अनुपस्थित हो जाना चाहता है। अपने को ओट कर लेना चाहता है। इसके विपरीत कुंवर नारायण आदि की कविताओं में अतिरिक्त श्रम की बनावट साफ नजर आती है। वह कविता को कम, कवि को अधिक प्रकाशित करती हुई लगती है।
इन ग्यारह पंक्तियों में हर दो पंक्ति के बाद कवि ने पाठक के लिए स्पेस छोड़ा है ताकि वह उस स्पेस को अपने अनुभवजगत से भरे,उस स्थिति में स्वयं डूबे, जबकि आज अधिकांश कविता पाठक पर कुछ नहीं छोड़ती, जबकि कविता ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की,किसी भी विधा में की गई रचना का बुनियादी काम अपने पाठक या श्रोता पर भरोसा करना है क्योंकि वह अंतत: उसके लिए है, उसकी है। जो कला अपने पाठक या श्रोता पर विश्वास नहीं करती, वह कला होने के मानक पूरे नहीं करती।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का हवाला देते हुए चीन से अपनी अर्थव्यवस्था को विस्तार देने की अपील करके बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के नेता मोहम्मद यूनुस ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।
उन्होंने पूर्वोत्तर के सातों राज्यों को लैंडलॉक्ड (ज़मीन से चारों ओर से घिरा) क्षेत्र बताया और बांग्लादेश को इस इलाक़े में समंदर का एकमात्र संरक्षक बताते हुए चीन से अपने यहां आर्थिक गतिविधि बढ़ाने की अपील की।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मोहम्मद यूनुस के बयान को 'आपत्तिजनक' बताया है। पूर्व भारतीय राजनयिकों ने भी यूनुस के इस बयान पर हैरानगी जताई है।
पिछले हफ़्ते ही यूनुस चीन के दौरे पर गए थे और इस दौरान बीजिंग के साथ कई समझौते हुए हैं। जिनमें तीस्ता रिवर कॉम्प्रिहेंसिव मैनेजमेंट एंड रेस्टोरेशन प्रोजेक्ट में चीनी कंपनियों को शामिल होने का न्योता भी दिया, जिसे भारत के लिए एक झटके के रूप में देखा जा रहा है।
इस यात्रा के दौरान बांग्लादेश को चीन और उसकी कंपनियों की ओर से तकरीबन 2।1 अरब डॉलर के निवेश, कजऱ् और अनुदान के रूप में मदद का आश्वासन मिला है।
मोहम्मद युनूस ने क्या कहा
मोहम्मद यूनुस ने 28 मार्च को बीजिंग में एक कार्यक्रम के दौरान पूर्वोत्तर को लेकर टिप्पणी की थीष
बांग्लादेश के लीडर ने कहा, ‘भारत के सात राज्य।।।भारत के पूर्वी हिस्से।।।जिन्हें सेवन सिस्टर्स कहा जाता है, ये भारत के लैंडलॉक्ड क्षेत्र हैं। समंदर तक उनकी पहुंच का कोई रास्ता नहीं है। इस पूरे क्षेत्र के लिए समंदर के अकेले संरक्षक हम हैं। इसलिए यह विशाल संभावना के द्वार खोलता है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए यह चीनी अर्थव्यवस्था के लिए विस्तार हो सकता है। चीजें बनाएं, उत्पादन करें। चीज़ें बाज़ार में ले जाएं।। चीजें चीन में लाएं और बाकी दुनिया तक पहुंचाएं।’
मोहम्मद यूनुस ने जल संसाधन को लेकर नेपाल और भूटान का भी जि़क्र किया और कहा, ‘नेपाल और भूटान के पास असीमित हाइड्रो पॉवर है। हम इन्हें अपने मकसद के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, फैक्ट्रियां स्थापित कर सकते हैं। और बांग्लादेश के मार्फत आप कहीं भी जा सकते हैं क्योंकि समंदर हमारे ठीक पीछे है।’
चीन को लेकर उन्होंने कहा, ‘ये कोई ज़रूरी नहीं है कि किसी चीज़ का अपने यहां आप उत्पादन करें और दुनिया को बेचें, बल्कि बांग्लादेश में उत्पादन करें और चीन में भी बेचें। ये मौके हैं जिनका हम फ़ायदा उठाना चाहेंगे।’
उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में चीजों का उत्पादन करना आसान है।
बांग्लादेश की सरकारी न्यूज़ एजेंसी बीएसएस के अनुसार, मोहम्मद यूनुस से मुलाक़ात के दौरान शी जिनपिंग ने कहा है कि चीन दूसरे देशों में विशेष चाइनीज़ इंडस्ट्रियल इकोनॉमिक ज़ोन और इंडस्ट्रियल पार्क बनाने का समर्थन करेगा।
मोहम्मद यूनुस ने अपने दौरे में नदी जल प्रबंधन में चीन की विशेषज्ञता की मदद मांगी, ख़ासकर तीस्ता नदी को लेकर।
हिमंत बिस्व सरमा ने क्या कहा?
यूनुस के इस बयान को लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने तीख़ी प्रतिक्रिया दी है।
हिमंत बिस्व सरमा ने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश की तथाकथित अंतरिम सरकार के मोहम्मद यूनुस का, पूर्वोत्तर भारत के सेवन सिस्टर्स राज्यों का को लैंडलॉक्ड बताना और बांग्लादेश को उनके लिए समंदर तक पहुंच का एकमात्र गार्जियन बताना, आपत्तिजनक और निंदनीय है।’
‘यह टिप्पणी भारत के रणनीतिक 'चिकन नेक' कॉरिडोर से जुड़े ख़तरे के लगातार नैरेटिव को रेखांकित करती है। ऐतिहासिक रूप से भारत के भीतर में भी अंदरूनी तत्वों ने पूर्वोत्तर को मेनलैंड से काटने का ख़तरनाक सुझाव दिया है। इसलिए, चिकन नेक कॉरिडोर के नीचे और उसके आसपास और भी मज़बूत रेलवे और सडक़ नेटवर्क विकसित करना ज़रूरी है।’
‘इसके अलावा, चिकन नेक को प्रभावी ढंग से दरकिनार करते हुए पूर्वोत्तर को मेनलैंड भारत से जोडऩे वाले वैकल्पिक सडक़ मार्गों की खोज को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।’
‘हालाँकि इसमें इंजीनियरिंग चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन दृढ़ संकल्प और इनोवेशन के साथ इसे हासिल किया जा सकता है।’
‘मोहम्मद यूनुस के ऐसे भडक़ाऊ बयानों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि ये गहरे रणनीतिक विचारों और लंबे समय से चले आ रहे एजेंडे को दर्शाते हैं।’
क्या कह रहे हैं एक्सपर्ट
बांग्लादेश में भारत की उच्चायुक्त रहीं वीना सीकरी ने बीबीसी को बताया, ‘भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार मार्गों के बारे में सटीक बॉर्डर एग्रीमेंट हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘बांग्लादेश की मौजूदा लीडरशिप द्वारा भारत के पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड होने वाले बयान का मैं कोई लॉजिक नहीं समझ पा रही हैं।’
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी ने बीबीसी से कहा, ‘चीन में भारत के पूर्वोत्तरी राज्यों का जि़क्र करते वक्त मोहम्मद यूनुस भूल जाते हैं कि यह भारत का हिस्सा है। बांग्लादेश के एक जि़म्मेदार राजनीतिक व्यक्ति के रूप में उन्हें किसी तीसरे देश में इस पर चर्चा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह एक अच्छी कूटनीतिक प्रथा नहीं है।’
‘पूर्वोत्तर लैंडलॉक्ड नहीं है और भारत का हिस्सा है। इस हिस्से के बारे में अगर चीन से बात करनी हो तो भारत स्वयं कर सकता है। अगर यूनुस भारत के साथ बेहतर आर्थिक एकीकरण चाहते हैं तो द्विपक्षीय दृष्टिकोण अधिक कारगर हो सकता है। हालाँकि, इसके लिए बांग्लादेश में राजनीतिक स्थिरता की ज़रूरत होगी। ये वर्तमान में एक गंभीर चिंता का विषय है।’
भारत के विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल ने मोहम्मद यूनुस के बयान को ‘खतरनाक विचार’ बताया है।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश में हसीना के पहले की राजनीति में यह चर्चा थी कि अगर भारत बांग्लादेश को तीन तरफ़ से घेरता है और उसकी हालत नाज़ुक है, तो बांग्लादेश भी हमारे पूर्वोत्तर को तीन तरफ़ से घेरता है और बांग्लादेश की ओर से इसे दबाव के बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। उनका ग़लती से हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों को एक देश कहना और फिर सुधार करना बहुत कुछ कहता है।’
‘पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के बेहतर होते सैन्य समबंधों के चलते, बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) के दिनों में जाने का जोखिम पैदा हो गया है। ऐसा लगता है कि यूनुस, बांग्लादेश के माफऱ्त हमारे पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीन के प्रभाव को बढ़ाने, और समंदर के तट पर बांग्लादेश के नियंत्रण का लाभ उठाते हुए, हमारे पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड राज्यों को चीन के प्रभाव में लाने के लिए चीन को और अधिक खुलकर प्रोत्साहित कर रहे हैं।’
‘हमें आधिकारिक रूप से इस पर उचित प्रतिक्रिया देनी चाहिए।’
अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को लैंडलॉक्ड वाले मोहम्मद यूनुस के बयान पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने यूनुस के बयान की एक वीडियो क्लिप को साझा करते हुए एक्स पर लिखा, ‘दिलचस्प है कि यूनुस चीन से सार्वजनिक रूप से अपील कर रहे हैं कि भारत के सात राज्य लैंडलॉक्ड हैं। बांग्लादेश में निवेश के लिए चीन का स्वागत है, लेकिन इसमें सात राज्यों के लैंडलॉक्ड होने का हवाला देने का असल मतलब क्या है?’
बांग्लादेश और चीन की कऱीबी पर पाकिस्तान में चर्चा
बांग्लादेश और चीन के बीच बढ़ती कऱीबी और मोहम्मद यूनुस के चीन दौरे को लेकर पाकिस्तान में हलचल है।
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने कहा है कि ‘चीन को तीस्ता रिवर प्रोजेक्ट मिल गया।’
‘ऐसा लगता है कि ढाका ने चीन के साथ संबंधों को और मजबूत करने का फैसला किया है और इससे भारत की परेशानी बढ़ सकती है ख़ासकर तीस्ता को लेकर।’
अपने एक वीडियो ब्लॉग में उन्होंने कहा है कि ‘दोनों देशों ने अपने संबंधों को कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रेटिजिक कोआपरेटिव पार्टनरशिप, यह बहुत अहम सूत्रीकरण है और इससे लगता है कि दोनों देशों के बीच कऱीबी और बढ़ेगी।’
-भागीरथ
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में बसे अमाड़ गांव के आदिवासियों को महुआ का मौसम लखपति बनने का पूरा अवसर देता है। गांव में जिसके पास जितने ज्यादा महुआ के पेड़ हैं, वह उतना ही अमीर है। उदाहरण के लिए अपने 60 महुआ के पेड़ों से करीब 20-25 क्विंटल महुआ हासिल करने वाले धनेश्वर इस मौसम में लखपति बन जाते हैं।
करीब 240 परिवारों वाले इस गांव में हर परिवार में औसतन 5-6 सदस्य हैं। कुछ परिवारों में 20 सदस्य भी हैं। गांव में बड़े परिवार का अर्थ है, महुआ संग्रहण के लिए अधिक हाथ और ज्यादा आय।
गांव की वन संसाधन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष गणेश राम यादव बताते हैं कि 70-75 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ हैं। गांव के अधिकार क्षेत्र में करीब 1,517 हेक्टेयर का जंगल है, जहां महुआ के पेड़ बहुतायत में हैं। जिन 20-25 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ नहीं हैं, वे इस मौसम में जंगल पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं।
उनका कहता है कि इसके अतिरिक्त जिन लोगों के पास अधिक पेड़ हैं और वे पूरा महुआ बीनने में सक्षम नहीं हैं, वे भी महुआ के पेड़ों से वंचित परिवारों को महुआ बीनने की इजाजत दे देते हैं।
इस तरह गांव का प्रत्येक परिवार इस सीजन में कम से कम पांच क्विंटल महुआ इक_ा कर ही लेता है। यादव के अनुसार, अधिकतम संग्रहण की कोई सीमा नहीं हैं। 15-20 सदस्यीय परिवार जंगल और निजी पेड़ों से आसानी से 20 क्विंटल तक महुआ संग्रहित कर करीब एक लाख रुपए तक की आय सृजित कर सकता है।
-शंभूनाथ
रामायण में बाली और सुग्रीव की कथा है। यह कथा आज की लड़ाइयों और बहसों का सामान्य चरित्र स्पष्ट करने के लिए काफी है। बाली से जो भी लड़ता था उसकी आधी ताकत घटकर बाली के पास चली जाती थी। बाली पहले से अधिक बलशाली हो जाता था।
आज बड़े–बड़े नेता और बुद्धिजीवी सांप्रदायिकता से जितना लड़ते हैं, सांप्रदायिकता उतनी मजबूत हो जाती है। वे जाति का प्रश्न जितना उठाते हैं, उच्च वर्णकेंद्रिक जातिवाद पिछड़ी– दलित जातियों को उतनी आसानी से निगल लेता है। स्त्री विमर्श जितना तीखा होता है, महिलाओं की कलश यात्राएं, प्रवचनों में उनकी भीड़ और उनकी धर्म–प्रवणता उतनी बढ़ जाती है। राष्ट्रवाद का जितना विरोध किया जाता है, राष्ट्रवाद उतना अधिक लोकप्रिय हो जाता है। बाजार के खिलाफ जितना बोलते हैं , बाजार की तानाशाही उतनी बढ़ जाती है। इस ’बाली सिंड्रोम’ को समझना चाहिए।
आज धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद, पितृसत्तात्मकता, बहिष्कारपरक राष्ट्रवाद आदि ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया है जो इसकी चपेट से काफी बचे हुए थे। आज जो विपक्ष में हैं वे सभी कभी सत्ता में रहते हुए इतने ’पाप’ कर चुके हैं कि घड़ा अभी तक खाली नहीं हुआ है!लोगों को उनके अत्याचार और स्वार्थपूर्ति की बातें याद आ जा रही हैं। बाली क्यों न मजबूत हो!
मुख्य विडंबना यह नहीं है कि उधर फुटबॉल की 11 व्यक्तियों की सुगठित टीम है और इधर 11 के 11 खिलाड़ी ही कैप्टन हैं। मुख्य बात यह है कि हमारे देश का संपूर्ण विपक्ष बौद्धिक विकलांगता का शिकार है। वह तोता की तरह रटे हुए अपने उन्हीं पुराने विचारों की दुनिया में है जो अपना तर्क और अपनी जमीन खो चुके हैं। उसके विचारों में प्राण शेष नहीं है और आम जनता से उसके संबंध में दम नहीं है।
यह हाल फिलहाल सभी रंग के लोकतंत्रवादियों, वामपंथियों और विमर्शकारों का है। इन्होंने दुनिया को पाकर भी खो दिया, बल्कि अंतत: जर्जर होकर ऐसे कठोर हाथों में दुनिया को सौंप दिया है जिन्होंने इसमें आज आग लगा रखी है!