अमेरिकी वोटरों को राष्ट्रपति चुनाव के दिन डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस या रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप में किसी एक को चुनना होगा।
आइए देखते हैं कि वो किन चीजों का समर्थन करते हैं और अलग-अलग मुद्दों पर उनकी नीतियां क्या हैं।
अर्थव्यवस्था
उप राष्ट्रपति और डेमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति उम्मीदवार कमला हैरिस ने कहा है कि उनकी पहले दिन से ये प्राथमिकता होगी कि वो कामकाजी परिवारों के लिए खाने-पीने की चीजों और मकान की कीमतों को कम करने की कोशिश करेंगी।
उन्होंने कहा है कि वो ग्रॉसरी की कीमतें गैर वाजिब ढंग से बढ़ाने पर प्रतिबंध लगाएंगी और पहली बार घर खरीद रहे लोगों की मदद के लिए क़दम उठाएंगी। वो ये सुनिश्चित करेंगी कि अधिक से अधिक मकान बनाए जाएं। इसके लिए वो इन्सेंटिव देने की व्यवस्था करेंगी।
वहीं ट्रंप ने महंगाई को खत्म करने का वादा किया है। उन्होंने अमेरिका को एक बार फिर से वैसा देश बनाने का वादा किया है जहां लोग सस्ती चीजें खरीद सकें।
ट्रंप ने ब्याज दरों को कम करने का वादा किया है। हालांकि ब्याज दरें सरकार के नियंत्रण में नहीं होतीं। उन्होंने कहा है कि जिन आप्रवासियों के पास अमेरिका में रहने के दस्तावेज़ नहीं हैं, उन्हें वापस भेजने से हाउसिंग पर बोझ कम होगा और लोगों को मकान मिल पाएंगे।
गर्भपात
कमला हैरिस ने गर्भपात के अधिकार को अपने चुनावी अभियान के केंद्र में रखा है। वो ऐसे कानून का समर्थन कर रही हैं जो पूरे देश में लोगों के लिए एक जैसे प्रजनन अधिकारों का रास्ता साफ करेगा।
जबकि हाल के कुछ हफ्तों में गर्भपात विरोधी रुख़ के समर्थन के मामले में ट्रंप संघर्ष करते दिखे हैं।
ट्रंप ने अपने कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में जिन तीन जजों को नियुक्त किया था उन्होंने 1973 के ‘रो बनाम वेड केस’ में दिए गए उस फैसले को पलट दिया था जिसमें गर्भपात को संवैधानिक अधिकार बना दिया गया था।
कमला हैरिस को देश की दक्षिणी सीमा पर आप्रवासियों की भीड़ को नियंत्रित करने का जि़म्मा दिया गया था। उन्होंने वहां उन इलाकों में अरबों डॉलर का निजी निवेश कराया ताकि लोगों को उत्तर की ओर आने से रोका जाएगा।
2023 के आखऱि में मैक्सिको से रिकॉर्ड संख्या से आप्रवासी सीमा पार कर अमेरिका में घुसे। लेकिन अब ये तादाद कम हुई है।
मौजूदा प्रचार अभियान के दौरान हैरिस ने दक्षिण अमेरिकी देशों से अमेरिका में आने वाले आप्रवासियों के मामले में कड़ा रुख़ अपनाया है।
उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग को रोकने में कैलिफोर्निया का उनका अभियोजक का बैकग्राउंड काफी काम आएगा।
जबकि ट्रंप ने कथित अवैध आप्रवासियों को रोकने के लिए बॉर्डर को सील करने का वादा किया है और सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाने की वकालत की है। लेकिन उन्होंने रिपब्लिकन समर्थकों से हैरिस समर्थित कड़े और क्रॉस-पार्टी बॉर्डर बिल को समर्थन न देने की अपील की है।
उन्होंने कहा कि वो जीते तो अमेरिका के इतिहास में बगैर दस्तावेज़ों वाली अब तक की सबसे बड़ी आप्रवासी आबादी को वापस भेजा जाएगा।
हालांकि विशेषज्ञों ने बीबीसी को बताया कि अगर ट्रंप ने ऐसा किया तो इसे अदालत में चुनौती मिल सकती है।
टैक्स
कमला हैरिस बड़ी कंपनियों, उद्योगों और साल भर में चार लाख डॉलर कमाने वाले अमेरिकियों पर टैक्स बढ़ाना चाहती हैं।
लेकिन उन्होंने मतदाताओं से ऐसे कई क़दम उठाने का वादा किया है जिनसे अमेरिकी परिवारों पर टैक्स का बोझ कम होगा।
इनमें चाइल्ड टैक्स क्रेडिट का दायरा बढ़ाने जैसा क़दम भी शामिल है।
दूसरी ओर ट्रंप ने खरबों डॉलर की टैक्स कटौती के कई प्रस्ताव रखे हैं।
ट्रंप के मुताबिक़ 2017 में उनकी सरकार ने जो टैक्स कटौतियां की थीं उन्हें विस्तार दिया गया था। इन कटौतियों से ज्यादातर अमीरों को ही मदद मिली थी।
विश्लेषकों का कहना है कि हैरिस और ट्रंप दोनों के टैक्स प्लान से राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।
लेकिन सरकारी खजाने पर ट्रंप की योजना हैरिस की योजना से ज़्यादा बोझ डालेगी।
विदेश नीति
हैरिस ने कहा है कि रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन को दी जाने वाली उनकी मदद जारी रहेगी।
उन्होंने ये भी कहा कि अगर वो जीतीं तो ये सुनिश्चित करेंगी कि 21वीं सदी अमेरिका की हो चीन की नहीं।
हैरिस इसराइल-फिलस्तीन मुद्दे पर लंबे समय से दो देशों के सिद्धांत की समर्थक रही हैं। उन्होंने कहा कि गाजा में जल्द से जल्द युद्ध ख़त्म हो।
जबकि ट्रंप अलग-थलग विदेश नीति के पैरोकार हैं। वो चाहते हैं कि अमेरिका दुनिया में कहीं भी होने वाले संघर्षों से खुद को दूर रखे।
उन्होंने कहा है कि वह रूस से सौदेबाजी कर यूक्रेन युद्ध को 24 घंटे में खत्म करा देंगे।
जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी का कहना है कि इससे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और मजबूत होंगे।
ट्रंप ने खुद को इसराइल के कट्टर समर्थक के तौर पर पेश किया है
लेकिन इस बारे में बहुत कम बताया है कि वो गज़़ा युद्ध को कैसे ख़त्म कराएंगे।
व्यापार
हैरिस ने हर आयात पर टैरिफ लगाने की ट्रंप की नीति की आलोचना की है। उन्होंने उसे एक नेशनल टैक्स करार दिया है, जिसका देश के परिवार पर सालाना चार हजार रुपये का बोझ पड़ेगा।
हैरिस भी आयात पर टैरिफ लगा सकती हैं लेकिन वो इस मामले में चुनिंदा चीजों पर ये टैक्स लागू करना चाहेंगी।
ट्रंप ने टैरिफ को अपने चुनाव प्रचार अभियान का प्रमुख नारा बनाया है। उन्होंने कहा है कि वो विदेश से आने वाली चीजों पर 10 से 20 फीसदी टैरिफ लगाएंगे। जबकि चीन से आने वाले सामान पर इससे भी ज्यादा टैरिफ लगाया जाएगा।
जलवायु परिवर्तन
बतौर उप राष्ट्रपति कमला हैरिस ने महंगाई घटाने वाला कानून पारित कराने में मदद की। इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट की वजह से सैकड़ों अरब डॉलर रिन्युबल एनर्जी सेक्टर, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स टैक्स क्रेडिट और रिबेट प्रोग्राम के मद में दिए गए।
लेकिन उन्होंने फ्रैकिंग का विरोध छोड़ दिया है। फ्रैकिंग गैस और तेल निकालने की तकनीक है, जिसका पर्यावरणवादी विरोध कर रहे हैं।
जबकि राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण के सैकड़ों नियमों को वापस ले लिया था। इनमें बिजली संयंत्रों और वाहनों से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती का क़ानून भी शामिल था।
अपने मौजूदा प्रचार अभियान में उन्होंने आर्कटिक में ड्रिलिंग बढ़ाने का वादा किया है। उन्होंने इलेक्ट्रिक कारों को निशाना बनाया है।
हेल्थकेयर
हैरिस उस व्हाइट हाउस प्रशासन का हिस्सा रही हैं जिसने डॉक्टरों की लिखी दवाइयों के दाम घटा दिए थे और इंसुलिन की कीमत 35 डॉलर तय कर दी थी।
जबकि ट्रंप ने कहा है कि अपने राष्ट्रपति रहते उन्होंने जिस अफोर्डेबल केयर एक्ट को खत्म किया था उसे दोबारा बहाल नहीं करेंगे। इस कानून से लाखों लोगों का मेडिकल इंश्योरेंस होता था।
उन्होंने कहा कि फर्टिलिटी ट्रीटमेंट के लिए टैक्स पेयर का पैसा खर्च होगा। लेकिन संसद में इस तरह की योजना का रिपब्लिकन ही विरोध करेंगे।
अपराध
हैरिस ने अपने अभियोजक होने के अनुभव की तुलना ट्रंप के एक अपराध के लिए दोषी पाए जाने के तथ्य से करने की कोशिश की।
जबकि ट्रंप ने ड्रग्स कार्टेल को खत्म करने और गैंग्स के बीच होने वाली हिंसा को कुचलने की कसम खाई है।
उनका कहना है कि वो डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन वाले शहरों को नई शक्ल देंगे। ट्रंप मानते हैं कि इन शहरों में जमकर अपराध होते हैं। (www.bbc.com/hindi)
- हेमलता शाक्यवल
हमारे देश में लडक़ा और लडक़ी के बीच अंतर आज भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। वैसे तो यह अंतर सभी जगह नजऱ आता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी स्लम बस्तियों के सामाजिक परिवेश में किशोर और किशोरियों के बीच किया जाने वाला भेदभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है। बात चाहे शिक्षा की हो या स्वास्थ्य की, प्रत्येक क्षेत्र में लडक़ा और लडक़ी के बीच किया जाने वाला भेदभाव स्पष्ट तौर पर नजऱ आता है। एक ओर जहां उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता है तो वहीं दूसरी ओर लडक़ों की तुलना में लड़कियों को पोषणयुक्त आहार कम उपलब्ध हो पाता है। जिसके कारण किशोरावस्था में ही उनमें कुपोषण और एनीमिया के बहुत अधिक लक्षण पाए जाते हैं।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में किशोरियों और महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) का होना बहुत आम है। एनएफएचएस-5 डेटा के अनुसार भारत में प्रजनन आयु वर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीडि़त होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत, दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां लगभग 20 प्रतिशत किशोर आबादी निवास करती है। जिनकी आयु 10 से 19 वर्ष के बीच है। इनमें लगभग 12 करोड़ किशोरियां हैं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक किशोरियां एनीमिया से पीडि़त हैं। जो उनमें विकास को पूरी तरह से प्रभावित करता है। उनमें जीवन जीने की क्षमता को सीमित कर देता है। किशोरियों में कुपोषण के कई कारण होते हैं। जिनमें गरीबी, सही पोषण न मिलना, पराया धन समझना, लडक़ी को बोझ समझना, उन्हें शिक्षा से वंचित रखना, बाल विवाह होना और कम उम्र में मां बनना ऐसे प्रमुख कारक हैं जो उनके विकास की क्षमता को प्रभावित करता है।
ग्रामीण क्षेत्रों के साथ साथ बाबा रामदेव नगर जैसे देश के शहरी स्लम बस्तियों की किशोरियों का भविष्य भी इन्हीं कारकों से जुड़ा हुआ है। राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है। न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से 500 मीटर की दूरी पर आबाद इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है। जिसमें लोहार, जोगी, कालबेलिया, मिरासी, रद्दी का काम करने वाले, फक़ीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों की संख्या अधिक है। यहां रहने वाले सभी परिवार बेहतर रोजग़ार की तलाश में करीब 20 से 12 वर्ष पहले राजस्थान के विभिन्न दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास करके आये हैं। इनमें से कुछ परिवार स्थाई रूप से यहां आबाद हो गया है तो कुछ मौसम के अनुरूप पलायन करता रहता है। इसका सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर होता है। वहीं उन्हें बोझ और पराया धन समझने की प्रवृत्ति भी उनके समग्र विकास में बाधा बन रही है।
इस संबंध में बस्ती की 16 वर्षीय किशोरी सांची बताती है कि उसके माता-पिता दोनों दैनिक मज़दूरी करते हैं। घर की देखभाल के नाम पर पांचवीं के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। अब वह घर में छोटी बहन और भाइयों की देखभाल करती है। उनके लिए खाना पकाती है और कपड़े धोती है। हालांकि उसे पढ़ लिख कर डॉक्टर बनने का शौक था। वह पांचवीं तक सभी क्लास में अच्छे नंबर लाती रही है। इसके बावजूद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। वह कहती है कि ‘उसके पिता अक्सर उसे पराया धन कहते हैं और पढऩे से अधिक घर का कामकाज सीखने पर ज़ोर देते हैं। उसकी जल्द शादी कर देने की बात करते रहते हैं। सांची कहती है कि इस बस्ती में 14 से 16 वर्ष की आयु में लड़कियों की शादी हो जाना आम बात है। दुबला पतला शरीर और आंखों में पीलापन के कारण सांची स्वयं कुपोषण से ग्रसित नजऱ आ रही थी।
वहीं 55 वर्षीय गीता बाई राणा कहती हैं कि बाबा रामदेव नगर में बालिकाओं के प्रति बहुत अधिक नकारात्मक सोच विधमान है। अभिभावक उन्हें पढ़ाने से अधिक उनकी शादी की चिंता करते हैं। इसलिए उन्हें बहुत अधिक नहीं पढ़ाया जाता है। इस बस्ती की कोई भी लडक़ी अभी तक 10वीं तक भी नहीं पढ़ सकी है। पढ़ाई छुड़वा कर उन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है। लडक़ों की तुलना में उन्हें बहुत अच्छा खाना भी खाने को नहीं मिलता है। इसलिए यहां की लगभग सभी किशोरियां एनीमिया से पीडि़त नजऱ आती हैं। जो आगे चल कर उनकी गर्भावस्था में कठिनाइयां उत्पन्न करता है और मृत्यु दर को बढ़ाता है। गीता बाई कहती हैं कि इस बस्ती की कई लड़कियों को उन्होंने प्रसव के दौरान कठिनाइयों से गुजऱते देखा है। यह उनकी कम उम्र में शादी और खून की कमी के कारण होता है। वह कहती हैं कि चूंकि इस बस्ती में बहुत ही गरीब परिवार रहता है। घर की आर्थिक स्थिति का नकारात्मक प्रभाव लडक़ों की तुलना में लड़कियों के भविष्य पर पड़ता है। इससे न केवल उनकी शिक्षा बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है। इस तरह सबसे पहले वह शिक्षा से वंचित कर दी जाती हैं।
इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019-21 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लडक़ों के मामले में यह आंकड़ा 28त्न है। वहीं लडक़ों की तुलना में लड़कियों में मानसिक तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गई है। वहीं शिक्षा की अगर बात करें तो अभी भी बड़ी संख्या में किशोरियां स्कूल से बाहर हैं।
साल 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोडऩे की दर 1.35त्न है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढक़र 12.25त्न हो गई है। कोरोना महामारी के बाद भारत की किशोरियों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित हुई है। लड़कियों की एक बड़ी संख्या न केवल शिक्षा से वंचित हुई है बल्कि बाल विवाह में भी बढ़ोतरी देखी गई थी। हालांकि अब इसमें कुछ कमी आई है लेकिन बाबा रामदेव नगर जैसी बस्तियों में रहने वाली किशोरियों का भविष्य अभी भी उज्जवल होने की राह तक रहा है। शहर में होने के बावजूद इस बस्ती की किशोरियों का भविष्य स्कूल से दूर है। (चरखा फीचर्स)
-अमिताभ पाराशर
दाई सीरो देवी रोते हुए मोनिका थट्टे से लिपट गईं। 30 की उम्र के करीब पहुंच रहीं मोनिका उस जगह लौटी हैं, जहां वो पैदा हुई थीं।
उस भारतीय शहर में, जहां सीरो देवी ने सैकड़ों बच्चे पैदा करवाए थे। लेकिन ये कोई सहज पुनर्मिलन नहीं था। सीरो के आंसुओं के पीछे दर्द भरा इतिहास है।
मोनिका के जन्म के कुछ समय पहले तक सीरो देवी और उनकी जैसी कई दाइयों पर इस बात का लगातार दबाव रहता था कि वो नवजात बच्चियों को मार डालें।
सबूत बताते हैं कि मोनिका उन बच्चियों में शामिल थीं, जिन्हें उन्होंने बचाया था।
मैं सीरो देवी की कहानी को पिछले 30 सालों से फॉलो कर रहा हूं। ये 1996 की बात है जब मैंने बिहार जाकर सीरो देवी और उनकी जैसी ग्रामीण इलाकों में काम करने वाली चार और दाइयों का इंटरव्यू किया था।
एक एनजीओ ने इस बात का पता लगाया था कि बिहार के कटिहार जि़ले में नवजात बच्चियों की मौत में इन दाइयों का हाथ था। ये दाइयां माता-पिता के दबाव में आकर उनकी नवजात बच्चियों की हत्या कर रही थीं।
अमूमन उन्हें केमिकल चटा कर या फिर उनकी गर्दन मरोड़ कर मारा जा रहा था।
मैंने जिन दाइयों का इंटरव्यू किया था, उनमें सबसे उम्रदराज़ थीं हकिया देवी। उन्होंने मुझे उस समय बताया था कि उन्होंने 12-13 बच्चियों को मार दिया था।
एक और दाई धरमी देवी ने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने इससे ज़्यादा यानी कम से कम 15-20 बच्चियों को मारा है।
हालांकि जिस तरह से आंकड़े जुटाए गए थे, उससे ये बताना मुश्किल है कि आखिर ऐसी कितनी बच्चियों को मारा गया होगा।
मगर 1995 में एक एनजीओ की रिपोर्ट में उनकी और उनकी जैसी 30 दाइयों के इंटरव्यू के आधार पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई। अगर इस रिपोर्ट का आकलन सटीक माना जाए तो सिर्फ 35 दाइयां ही हर साल एक जिले में एक हजार से अधिक बच्चियों को मार रही थीं।
उस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में उस समय 5 लाख से ज़्यादा दाइयां काम करती थीं और शिशु हत्या सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं थी।
हकिया देवी ने बताया था किसी भी दाई के लिए नवजात बच्ची को मार देने का आदेश मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। (बाकी पेज 8 पर)
हकिया देवी ने बताया, ‘परिवार कमरा बंद कर हमारे पीछे डंडे लेकर खड़ा हो जाता था। फिर वो कहते हमारी पहले से चार-पांच बेटियां हैं। हमारी सारी जमा-पूंजी इन्हीं पर खत्म हो जाएगी। चार लड़कियों को दहेज देने के बाद हमारे सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। अब एक और लडक़ी पैदा हो गई है। मार दो इसे।’
उन्होंने मुझे बताया, ‘हम किससे शिकायत करते? हमें डर था। अगर हम पुलिस के पास जाते तो फँस जाते। और अगर हम इसके खिलाफ आवाज़ उठाते तो हमें गांव के लोग धमकाते।’
वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पाराशर 1990 के दशक में दाइयों से किए गए उस असाधारण इंटरव्यूज को देखते हुए। कमरे में अंधेरा था और उनके चेहरे पर स्क्रीन की रोशनी थी।
इमेज कैप्शन,अमिताभ 1990 के दशक में दाइयों से किए गए उन असाधारण इंटरव्यूज़ को देखते हुए।
ग्रामीण भारत में दाइयों की भूमिका परंपरा की जड़ में है। ये गरीबी और जाति की कठोर सच्चाइयों के बोझ से दबी है। मैंने जिन दाइयों के इंटरव्यू किए वो भारत की जाति व्यवस्था में निचली जातियों से आती हैं।
ये दाइयां बच्चे पैदा करवाने का ये काम अपनी मां और दादी-नानी से सीखती थीं। वे एक ऐसी दुनिया में रहती थीं, जहां ताक़तवर और ऊंची जाति के परिवारों के आदेश का पालन न करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।
एक दाई को किसी बच्ची को मारने के एवज में एक साड़ी, एक बोरी अनाज या फिर कुछ पैसे देने का वादा किया जाता था। लेकिन कभी-कभी ये भी नहीं मिलता था। लडक़ा पैदा होने पर एक हजार रुपये दिए जाते थे, जबकि लडक़ी पैदा होने पर 500 रुपये।
उन्होंने बताया कि इस असंतुलन की जड़ें भारत में दहेज लेने-देने की परंपरा में है। हालांकि दहेज लेन-देन की प्रथा को 1961 में गैर-क़ानूनी बना दिया गया।
मगर 1990 के दशक में भी दहेज लेने-देने की प्रथा मजबूत बनी हुई थी और आज भी ये बदस्तूर जारी है।
दहेज के तौर पर कुछ भी हो सकता है। जैसे- नकदी, गहने, बर्तन वगैरह। लेकिन कई परिवारों के लिए चाहे वो अमीर हो या गऱीब, दहेज शादी की शर्त होती है।
यही वो वजह है कि कइयों के लिए आज भी बेटे का जन्म उत्सव है और बेटी का जन्म एक आर्थिक बोझ।
जिन दाइयों का मैंने इंटरव्यू किया, उनमें सीरो देवी अभी भी जीवित हैं। उन्होंने लडक़ी और लडक़े के बीच इस असमानता को समझाने के लिए एक उदाहरण का सहारा लिया।
उन्होंने कहा, ‘लडक़े का दर्जा ऊपर है। लडक़ी का नीचा। बेटा भले ही अपने मां-बाप का ख़्याल न रखे लेकिन सब बेटा ही चाहते हैं।’
भारत में राष्ट्रीय स्तर के आंकड़ों में बेटे को दी जाने वाली तवज्जो दिख सकती है।
सबसे हालिया, 2011 की जनगणना में देश में प्रति 1000 पुरुषों में 943 महिलाओं का अनुपात था।
1990 के दशक यानी 1991 की जनगणना के मुकाबले यह फिर भी ठीक था। तब यह अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले 927 महिलाओं का था।
1996 तक जब मैंने इन दाइयों के सबूतों को फिल्माना ख़त्म किया, तब तक एक मौन बदलाव शुरू हो गया था। पहले बच्चियों को मारने का आदेश चुपचाप सुन लेने वाली दाइयों ने अब इसका प्रतिरोध करना शुरू कर दिया था।
इस बदलाव के लिए उन्हें अनिला कुमारी ने प्रेरित किया था। वो एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो उन दिनों कटिहार के आसपास की महिलाओं की मदद कर रही थीं। अनिला कुमारी नवजात बच्चियों की हत्या की असल वजहों को ख़त्म करने के लिए समर्पित थीं।
अनिला का तरीका आसान था। वो इन दाइयों से पूछतीं- क्या तुम अपनी बेटी के साथ भी यही करती?
सालों से जिन चीज़ों को स्वीकार कर लिया गया था, इस सवाल से उस सोच को झटका लगा।
इन दाइयों को सामुदायिक समूहों के जरिए कुछ वित्तीय मदद मिली। फिर धीरे-धीरे हिंसा का ये चक्र बाधित हो गया था।
सीरो देवी ने 2007 में बात करते हुए मुझे इस बदलाव के बारे में समझाया था।
उन्होंने बताया था, ‘अब कोई मुझसे बच्ची को मारने को कहता है तो मैं उनको कहती हूं कि देखो, बच्ची मुझे दे दो। मैं उसको अनिला मैडम के पास ले जाऊंगी।’
उन दाइयों ने उन परिवारों के कम से पांच नवजात बच्चियों को बचाया था जो या तो उन्हें मरवाना चाहते थे या फिर उन्होंने उन्हें छोड़ दिया था।
एक बच्ची तो बच नहीं पाई। लेकिन अनिला ने चार बच्चियों को पटना के एक एनजीओ को भिजवा दिया। वहां उस एनजीओ ने उन बच्चियों को गोद देने की व्यवस्था कर दी।
यह कहानी यहीं खत्म हो सकती थी। मगर, मैं जानना चाहता था कि उन बच्चियों का क्या हुआ, जिन्हें बचा कर गोद दे दिया गया था। जिंदगी उनको कहां ले कर चली गई थी।
अनिला के रिकॉर्ड बड़ी ही सावधानी और तफसील से बने थे। लेकिन गोद दिए गए बच्चों की बाद की जिंदगी के बारे के बारे में ब्योरे कम थे।
बाद में मेरा परिचय मेधा शेखर नाम की एक महिला से हुआ। वो नब्बे के दशक में बिहार में भ्रूण हत्या पर रिसर्च कर रही थीं। ये वही वक्त था जब अनिला और दाइयों की बचाई गई बच्चियां एनजीओ पहुंचाई जा रही थीं।
आश्चर्यजनक रूप से मेधा अभी भी एक युवा महिला के संपर्क में थीं, जिनके बारे में उन्हें विश्वास था कि वो उन बचाई गई बच्चियों में से एक हैं।
अनिला ने मुझे बताया कि दाइयों की ओर से बचाई गई सभी बच्चियों को नाम दिए जाने से पहले ही उन्होंने उनके नाम के आगे कोसी जोड़ दिया था। ये बिहार की नदी कोसी को दी गई उनकी श्रद्धांजलि थी।
मेधा को याद है कि मोनिका के नाम के आगे भी ‘कोसी’ उपनाम जोड़ा गया था। यह उसको गोद लिए जाने से पहले की बात है।
गोद देने वाली एजेंसी हमें मोनिका के रिकॉर्ड नहीं देखने देती। लिहाजा हमारे पास उनकी असली पहचान जानने को कोई ज़रिया नहीं हो सकता था।
लेकिन उनके मूल स्थान पटना, उनकी जन्मतिथि की नजदीक की तारीखों और नाम से पहले ‘कोसी’ का जुड़ा होना- हमें उसी समान निष्कर्ष की ओर से ले गया। और वो ये कि वो संभवत: उन पांच बच्चियों में से एक हैं जिसे अनिला और दाइयों ने बचाया था।
जब मैं उनसे (मोनिका) मिलने 2000 किलोमीटर दूर पुणे पहुंचा था तो उन्होंने कहा था कि वो खुशकिस्मत हैं कि एक प्यारे परिवार ने उन्हें गोद लिया।
लाल और सफेद कुर्ते में बैठी मोनिका अपने पिता की ओर झुकी हुईं। क्रीम रंग की शर्ट पहने इसी शख़्स ने उन्हें गोद लिया था।
उन्होंने कहा, ‘एक सामान्य खुशहाल जिंदगी की मेरी परिभाषा यही है और मैं ये जि़ंदगी जी रही हूं।’
मोनिका जानती थीं कि उन्हें बिहार से गोद लिया गया था। लेकिन हम मोनिका को उन्हें गोद दिए जाने की परिस्थितियों के बारे में ज्यादा ब्योरे दे पाए थे।
इस साल की शुरुआत में मोनिका ने अनिला और सीरो देवी से मुलाकात करने के लिए बिहार की यात्रा की।
मोनिका ख़ुद को अनिला और उन दाइयों जैसी महिलाओं के कठिन परिश्रम की परिणति के तौर पर देख रही थीं।
मोनिका ने कहा, ‘इम्तिहान में अच्छा करने के लिए जैसे कोई काफी तैयारी करता है, मैं वैसा ही महसूस कर रही थी। उन्होंने कड़ी मेहनत की थी और नतीज़ा देखने के लिए इतनी उत्सुक थीं। निश्चित तौर पर मैं उन लोगों से मिलना चाहती थी।’
मोनिका से मिलने के वक्त अनिला की आंखों में खुशी के आंसू थे। लेकिन सीरो की प्रतिक्रिया कुछ अलग तरह की थी।
उन्होंने मोनिका को गले लगाया और जोर-जोर से सुबकने लगीं। वो मोनिका के बालों में कंघी करने लगीं।
उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी जिंदगी बचाने के लिए मैं तुम्हें एक अनाथालय ले गई थीज् अब मेरी आत्मा को शांति मिली है।’ लेकिन ये बात अभी ख़त्म नहीं हुई है। अभी भी कुछ लोगों के मन में बच्चियों के लिए पूर्वाग्रह है।
शिशु हत्या की ख़बरें तुलनात्मक तौर पर अब दुर्लभ हैं। लेकिन लिंग के आधार पर भ्रूण हत्या के मामले अब भी देखने को मिल जाते हैं, इसके बावजूद कि सरकार ने 1994 में ही इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया था
उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में बच्चों के जन्म के समय गाए जाने वाले लोक गीत सोहर को कोई सुने तो पता चलेगा जन्म की खुशियां सिफऱ् लडक़ों के लिए सुरक्षित रखी गई हैं।
साल 2024 में भी स्थानीय गायकों को गानों के बोल बदलवाने की कोशिश करनी पड़ती है ताकि बच्चियों के पैदा होने की खुशी झलके।
जब हम अपनी डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग कर रहे थे, तब कटिहार में दो नवजात बच्चियां मिली थीं।
इनमें से एक बच्ची को झाडिय़ों में जबकि दूसरी को सडक़ किनारे छोड़ दिया गया था। दोनों बच्चियों को जन्म लिए कुछ घंटे हुए थे। बाद में उनमें से एक की मौत हो गई थी, जबकि दूसरी को गोद लिए जाने के लिए भेज दिया गया था।
मोनिका ने बिहार छोडऩे से पहले कटिहार के स्पेशल अडॉप्शन सेंटर में इस बच्ची को जाकर देखा।
उसने बताया कि वह इस अहसास से ही डर गई थीं कि शिशु हत्या भले ही कम हो गई हो लेकिन अभी भी बच्चियों को जन्म के बाद छोड़ दिया जाना जारी है।
‘यह एक चक्र है। मैं देख सकती हूं कि कुछ साल पहले मैं जिस जगह थी, आज कोई और लडक़ी मेरी जैसी स्थिति में है।’
मगर, कुछ ऐसी समानताएं भी थीं, जिन्हें लेकर खुश हुआ जा सकता है।
उस बच्ची को उत्तर-पूर्वी राज्य असम के एक दंपति ने गोद लिया था। उन्होंने उसे ईधा नाम दिया था। जिसका मतलब है खुशी।
उसे गोद लेने वाले पिता गौरव ने बताया, '' हमने उसकी फोटो देखी और हमने तय कर लिया कि एक बच्ची को एक बार छोड़ दिया गया। उसे दूसरी बार नहीं छोड़ा जा सकता है।''
गौरव भारतीय वायु सेना में एक अधिकारी हैं।
हर कुछ हफ्तों में गौरव मुझे उस बच्ची का नया वीडियो भेजते हैं। कुछ मौकों पर मैं उन वीडियो को मोनिका के साथ भी साझा करता हूं।
पीछे मुडक़र देखता हूं तो लगता है कि इस कहानी पर 30 साल खर्च करना सिर्फ अतीत का आख्यान नहीं है।
ये परेशान करने वाली सच्चाइयों से रूबरू होना था। अतीत की गलतियों को मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन अब बदलाव संभव है। इस बदलाव में ही उम्मीद है। (www.bbc.com/hindi)
-नीरजा चौधरी
आधी सदी तक कम्युनिस्ट रहने के बावजूद सीताराम येचुरी के बारे में कुछ भी सिद्धांतवादी या हठधर्मी नहीं था। वे हमेशा एक मिलनसार व्यक्तित्व वाले शख्स थे।
उन्होंने 1975 में कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन की। इसी साल देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की और येचुरी को जेल जाना पड़ा।
वहां से शुरू हुआ सियासी सफर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने तक पहुँचा। वे 2015 से पार्टी की अगुवाई कर रहे थे।
सीताराम 1992 से पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे। कम्युनिस्ट होते हुए भी वो एक सेंटरिस्ट नेता की तरह थे जिन्हें थोड़ा उदारवादी और बीच का रास्ता अपनाने वाला माना जाता था।
गुरुवार को 72 वर्ष की आयु में दिल्ली के एम्स अस्पताल में एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया है।
जब मैं सीताराम येचुरी के बारे में सोचती हूँ तो मेरे मन कई ख़्याल आते हैं। वह एक विद्वान, विचारशील, पढ़े-लिखे, लेखक थे जो लगातार विचारों से जूझते रहते थे।
जब 1977 में उन्होंने दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र संघ का चुनाव जीता तो कैंपस में काफ़ी उथल-पुथल मची हुई थी। उन दिनों में वो जनरल बॉडी मीटिंग बुलाते और भोर तक चर्चाओं का दौर चलता।
एक मंझे हुए स्पीकर की हैसियत से वे अपने सुनने वालों का मूड भांप लेते थे और लगातार ये समझने की कोशिश करते थे कि लोगों को अपने विचारों से सहमत करवाने के लिए उन्हें क्या कहना है।
जब येचुरी जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष थे, तब सी राजा मोहन महासचिव हुआ करते थे।
वह कहते हैं, ‘वो जटिल मुद्दों को संभालने की काबिलियत रखते थे और बहुत अच्छें संयोजक थे लेकिन सबसे पहले वो एक ऐसे शख़्स थे जो लोगों का दिल जीतना जानते थे।’
भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में उनकी पार्टी कभी भी मुख्यधारा की ताकत नहीं बन पाई। उनकी पार्टी मुख्य रूप से तीन राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा को छोडक़र बाकी राज्यों में सफल क्यों नहीं हुई ये अभी तक जारी एक बहस का हिस्सा है। इसके बावजूद येचुरी को केवल समावेशी भारत के लिए प्रतिबद्ध एक प्रमुख वामपंथी नेता के तौर पर ही याद नहीं किया जाएगा।
उन्हें इस देश की राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले लीडर के तौर पर भी याद किए जाएगा। ख़ास तौर पर बीजेपी का विकल्प गढऩे के लिए 1989-2014 के बीच बने कई गठबंधनों में उनकी भूमिका थी।
दोस्तों के बीच ‘सीता’ कहकर पुकारे जाते थे येचुरी
दूसरे सियासी दलों से मतभेद के बावजूद अलग-अलग राजनीतिक दलों से दोस्ती करने में माहिर सीताराम येचुरी को कभी-कभी ‘एक और हरकिशन सिंह सुरजीत’ के रूप में जाना जाता था।
पंजाब से आने वाले सुरजीत 1992 से 2005 तक सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी थे। उनके राजनीतिक कौशल और पर्दे के पीछे के कदमों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को 1989 में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़ा किया था।
सुरजीत ने साल 1996 में तीसरे मोर्चे की सरकार को सत्ता में लाने में मदद की और साल 2004 में एक बार फिर भाजपा को सत्ता से दूर रखने में भूमिका निभाई।
येचुरी अपने दोस्तों और सहयोगियों के बीच में ‘सीता’ नाम से पुकारे जाते थे।
सुरजीत की ही तरह इन्होंने भी 1996 में संयुक्त मोर्चा के बनने में अहम भूमिका निभाई थी। साथ ही 2004 में यूपीए गठबंधन और 2023 में बनने वाले इंडिया गठबंधन को तैयार करने में मदद की।
वो इंडिया गठबंधन जिसने 2024 के चुनाव में बीजेपी को अपने बूते बहुमत तक पहुँचने से रोका।
जब येचुरी ने सुनाया सीपीएम की ऐतिहासिक गलती वाला कि़स्सा
सीताराम येचुरी ने साल 1996 और 2004 में यूनाइटेड फ्रंड और यूपीए सरकारों के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करने में मदद की।
बाद के सालों में उन्होंने सीपीआई (एम) की उस ‘ऐतिहासिक गलती’ की कहानी सुनाई जो साल 1996 में की गई थी।
उन्होंने याद दिलाया कि आखिर कैसे और क्यों पार्टी ने साल 1996 में कैसे भारत का पहला माक्र्सवादी प्रधानमंत्री बनने देने का मौका गंवा दिया।
उस दौर में बीजेपी संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थी और संयुक्त मोर्चा के नेता सरकार बनाने के लिए तैयार थे और उन्होंने सीपीआई (एम) नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के तौर पर नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन पार्टी की शीर्ष केंद्रीय समिति ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, जिसे बाद में बसु ने एक ‘ऐतिहासिक गलती’ के रूप में बताया था।
येचुरी उन तीन चौथाई सदस्यों में शामिल थे जिन्होंने इस कदम का विरोध किया था, लेकिन ये पता नहीं है कि उन्होंने बाद के सालों में अपनी राय बदली थी या नहीं।
लेकिन वो सुरजीत, ज्योति बसु के साथ कर्नाटक भवन पहुंचे थे, जहां पर संयुक्त मोर्चा के नेता जैसे देवगौड़ा, चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव बेचैनी से जवाब का इंतजार कर रहे थे।
असहमतियों के बावजूद पार्टी के साथ चले
सीताराम येचुरी ने संसद में भी अपनी छाप छोड़ी। वह 12 सालों तक राज्यसभा में रहे, उन्हें उनके बेहतरीन भाषणों के लिए याद किया जाता है, ऐसे में उन्हें न केवल एक कुशल सांसद के तौर याद किया जाता है, बल्कि बीजेपी के ख़िलाफ़ पार्टियों के बीच फ्लोर पर समन्वय बनाने के लिए भी वो याद किए जाते हैं।
उन्हें वो नियम पता थे, जिनके तहत वे मुद्दा उठाए जा सकते थे, जिन्हें वह उठाना चाहते थे।
जब उनका दूसरा कार्यकाल ख़त्म हुआ तो अलग-अलग दलों के कई सांसदों ने एकजुट होकर चाहा कि उनकी पार्टी उन्हें फिर से नामित कर दे।
पार्टी के एक अनुशासित सिपाही के तौर पर कई बार वह असहमतियों को बावजूद पार्टी के फैसलों के साथ चलते थे। मसलन वे भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह की सरकार से वामपंथी दलों का समर्थन वापस लेने के ख़िलाफ़ थे। ये ऐसा मुद्दा था जिसपर तत्कालीन प्रधानमंत्री अपनी सरकार को ख़तरे में डालने के जोखिम के बावजूद भी आगे बढऩा चाहते थे। अपने सहयोगी और तत्कालीन सीपीएम महासचिव प्रकाश करात से येचुरी के मतभेद भी जगज़ाहिर थे।
करात और येचुरी प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी एक-दूसरे के सहयोगी थे। ये दोनों देश की आज़ादी के बाद देखी गई उन कई राजनीतिक जोडिय़ों में से एक थे, जिन्होंने भारत को एक तरह से आकार देने में मदद की। जैसे नेहरू-पटेल, और वाजपेयी-आडवाणी या फिर मोदी और शाह की तरह।
मुश्किल दौर में बने सीपीएम महासचिव
पहले सोनिया और फिर राहुल गांधी से उनका रिश्ता एक दोस्त और मार्गदर्शक जैसा था। राहुल गांधी ने तो येचुरी के साथ घंटों तक देश के भविष्य के लिहाज से गंभीर मुद्दों पर हुई चर्चाओं को याद भी किया।
साल 2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस ने यूपीए सरकार की अगुवाई की और उस दौरान जब भी कांग्रेस और वाम दलों के संबंधों में किसी गतिरोध की आशंका होती, तब सोनिया गांधी येचुरी की ओर मुड़तीं।
सीताराम येचुरी को सीपीआईएम के महासचिव पद की जि़म्मेदारी उस समय सौंपी गईं जब बीजेपी एक ताकतवर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश पर शासन करने आई थी और देश की राजनीति में बदलाव ला रही थी।
ये ऐसा समय था जब सीपीएम प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन सीताराम येचुरी तेज़ी से बीजेपी को चुनौती दे सकने वाले सभी राजनीतिक ताकतों को इंडिया गठबंधन के तौर पर एक साझा मंच पर ला रहे थे।
येचुरी को भारत में विपक्ष को अहम क्षणों में एकजुट करने में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाएगा। हालांकि, उनकी भूमिका पर्दे के पीछे अधिक रही।
इसलिए ऐसे समय में जब सीपीएम लंबे समय तक अपना साथ देने वाले कॉमरेड को अंतिम विदाई दे रही है, तब देश भी भारत के इस बेटे को ज़रूर याद करेगा।
एक ऐसी शख़्सियत जिसने देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को बनाए रखने और इस देश के गरीबों को एक नई सुबह देने के लिए काम किया। (www.bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
विवाह-परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, इस बारे में एक दिलचस्प उडिय़ा आदिवासी लोककथा पढऩे को मिली। इस कथा के मुताबिक़ पुराने ज़माने में विवाह नाम की कोई संस्था नही थी। आपस में प्रेम करने वाले लडक़े-लडकियां स्वेच्छा से साथ रहने को स्वतंत्र थे। यह व्यवस्था कबीले के मुखिया और ओझा को नागवार गुजऱती थी। इससे उन्हें न कोई आर्थिक लाभ था और न दारू-मुर्गा की प्राप्ति होती थी। एक दिन दोनों ने मंत्रणा कर यह फैसला सुनाया कि कबीले के युवक-युवती अपनी मर्जी से साथ नहीं रह सकते। लडक़े को लडक़ी के साथ ओझा की देखरेख में ब्याह कर स्थायी रूप से साथ रहना होगा। और यह ब्याह भी तब होगा जब लडक़ा अपने भावी ससुर, मुखिया और ओझा को मदिरा और मुर्गे का भरपूर उपहार देकर खुश कर देगा। गांव के एक युवा ने इस आदेश का विरोध किया तो मुखिया ने उसका ब्याह अपनी बेटी से करने का आदेश सुना दिया।
एक दूसरी युवती को प्रेम करने वाला वह युवक ब्याह से बचने के लिए बरगद के एक खोखले पेड़ के भीतर जा छिपा। ओझा ने वधु के परिवार की औरतों से कहा कि इस खोखले वृक्ष में खूब हल्दी लगाओ, उसमें बहुत सारा पानी डालो और देर तक पंखा झलो। हल्दी, पानी और हवा के मिले-जुले असर से बेचारे लडक़े को इस कदर ठंढ लगी कि उसे बाहर आकर मुखिया का आदेश मान लेना पड़ा। ओझा ने मंत्र पढ़े और दोनों की शादी हो गई। तभी से शादी और शादी से पहले लडक़े और लडक़ी को हल्दी लगाने, नहलाने और पंखा झलने की प्रथा की शुरूआत हुई जो धीरे-धीरे लगभग समूचे देश में फैल गई।
उस उडिय़ा मुखिया और ओझा की कृपा थी कि हम सब ब्याह करने और हल्दी लगवाने के सुख-दुख आजतक भोग रहे हैं।
-मोहर सिंह मीणा
‘मैं उस समय 18 साल की थी और गाने की कैसेट लेने बाज़ार गई थी। मुझे याद है कि उस समय दोपहर के 12 बज रहे थे। वो मेरा पड़ोसी था और मुझे जानता था। उसने मेरे हाथ से दोनों कैसेट छीन लिए और भागने लगा। भागते-भागते हम खंडहर तक जा पहुंचे।
इस खंडहर में सात-आठ लोग पहले से मौजूद थे। उन्होंने मेरा मुंह, दोनों हाथ बांध दिए।
उन सभी ने मेरे साथ रेप किया और मेरी नग्न तस्वीरें खींची। रेप करने के बाद उन्होंने मुझे दो सौ रुपये देकर कहा कि लिपस्टिक-पाउडर खरीद लेना। मैंने पैसे लेने से इनकार कर दिया।
उस खंडहर में दो रास्ते थे, उन्होंने मुझे दूसरे दरवाज़े से बाहर निकाल दिया। उस समय शाम के चार बज चुके थे।’
इस बारे में बताते हुए संजना (बदला हुआ नाम) की आंखें नम हो गईं। संजना के हाथ कांप रहे थे और नजऱें झुकी हुई थीं।
संजना उन 16 सर्वाइवर में से एक हैं, जिनका राजस्थान के अजमेर में 1992 में रेप किया गया था।
रेप करने वालों ने इन लड़कियों को कई दिनों तक ब्लैकमेल किया। शहर में लड़कियों की नग्न तस्वीरों को बाँटा जाने लगा।
इन तस्वीरों का प्रिंट लैब से निकाला गया था। तस्वीरें यहीं से लीक हुईं।
मामले का पता कैसे चला
1992 के अप्रैल-मई महीने में दैनिक नवज्योति नाम के अख़बार ने इस मामले को उजागर किया और ख़बरें प्रकाशित करनी शुरू की।
इसी अख़बार में काम करने वाले पत्रकार संतोष गुप्ता बीबीसी हिंदी से कहते हैं, ‘ख़बर से कई महीने पहले से यह ब्लैकमेल करने का खेल चल रहा था। जिसकी जानकारी जि़ला पुलिस तंत्र से लेकर ख़ुफिय़ा विभाग और राज्य सरकार तक पहुंच चुकी थी, लेकिन सभी मौन थे।’
राज्य की तत्कालीन भैरो सिंह शेखावत सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच सीआईडी-क्राइम ब्रांच को सौंपी।
हाल ही में अजमेर की स्पेशल पॉक्सो कोर्ट ने इस मामले में नफ़ीस चिश्ती, नसीम उफऱ् टाजऱ्न, सलीम चिश्ती, इक़बाल भाटी, सोहेल गनी और सैयद ज़मीर हुसैन को दोषी मानते हुए उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई और पांच-पांच लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया।
इस मामले के 18 अभियुक्तों में से कुछ फऱार हैं। एक ने सुसाइड कर लिया, एक पर रेप का केस है। बाकी, सजा पूरी कर चुके हैं और कुछ जेल में हैं।
जो पड़ोसी संजना को खंडहर तक लेकर गया था उसका नाम कैलाश सोनी था और कोर्ट ने इस मामले में उन्हें भी उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी।
इस मामले में सरकारी वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ बताते हैं, ‘कैलाश सोनी को निचली कोर्ट से उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई थी और वो कऱीब आठ साल तक जेल में भी रहे। लेकिन, हाई कोर्ट ने कैलाश सोनी को दोषमुक्त कर दिया था।’
संजना कहती हैं कि वे एक गऱीब परिवार से थीं और वो लोग काफ़ी रसूख़ वाले थे। ये एक लंबी लड़ाई थी, न्याय मिला लेकिन देरी से।
इसके बाद संजना फूट-फूट कर रोने लगीं। इस बीच संजना के माता-पिता, भाई-भाभी की मौत हो चुकी है।
उन्होंने अपने परिवार को इस घटना के बारे में नहीं बताया था।
वे सहमी आवाज़ में कहती हैं, ‘उन्होंने मुझे ख़ूब डराया, धमकाया और कहा कि अगर अपने भाइयों को बताया तो उन्हें कटार से ख़त्म कर देंगे।’
लेकिन परिवार तक ये जानकारी पहुंच ही गई।
संजना कहती हैं, ‘धमकियों से डर गई थी। कभी किसी से जि़क्र नहीं किया। लेकिन, घटना के कऱीब तीन साल बाद पुलिस वाले पूछते हुए घर आ गए। तब परिवार को पहली बार जानकारी हुई।’
ख़ुद की और परिवार की पीड़ा बताते हुए उनका चेहरा बिल्कुल फ़ीका सा पड़ गया था।
उनका परिवार ख़ामोश रहा क्योंकि रसूख़दारों को सामने खड़े होने की हमारी हिम्मत नहीं थी। न्याय की तो उम्मीद ही नहीं थी।
लेकिन फिर स्वयंसेवी संस्थाओं और कुछ पुलिसकर्मियों ने समझाया कि इस मामले में अभियुक्तों को सज़ा दिलवाने के लिए उन्हें गवाही देनी चाहिए।
सरकारी वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ कहते हैं, ‘32 साल चले इस मामले में न्याय दिलाने के लिए संजना ने अहम भूमिका निभाई। इस मामले में तीन सर्वाइवर गवाह बनी थीं जिसमें से वो एक हैं।’
जब पति ने दिया तलाक़
इस बीच संजना की जि़ंदगी चलती रही।
घटना के कऱीब चार साल बाद उनकी शादी हुई।
संजना इस रिश्ते की शुरुआत पूरे विश्वास और सच्चाई से करना चाहती थीं और पति से घटना के बारे में छिपाना नहीं चाहती थीं।
वे बताती हैं, ‘शहर के नज़दीक ही मेरी शादी हो गई थी। चार ही दिन हुए थे और हाथों की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा था। उन्होंने सब सुनने के बाद कुछ नहीं कहा। लेकिन, अगली सुबह मुझसे कहा कि चलो तुम्हें मायके घुमाकर लाता हूं। धोखे से वह मुझे मेरे घर ले आए और तलाक़ दे दिया। ऐसा लगा जैसे फिर एक बार मेरी बसी हुई दुनिया लूट ली गई हो।’
संजना ने भी समय के साथ ख़ुद को संभाला और अगले चार साल भी गुज़ार दिए। इस मामले में कोर्ट की कार्रवाई भी साथ चलने लगी थी।
संजना से जहां हमारी बातचीत हो रही थी, उस कमरे की दीवार पर कई तस्वीरें लगी हुई थीं।
एक तस्वीर की ओर इशारा करते हुए संजना कहती हैं, ‘जब मैं 28 साल की हुई तो परिवार ने इनके साथ मेरी दूसरी शादी करा दी, मैं उनकी तीसरी पत्नी थी।’
‘कुछ समय बाद मैंने एक बेटे को जन्म दिया। यूं लगा मानो जीवन तो शुरू ही अब हुआ है।’
वो कहती हैं, ‘बाहर कहीं से मेरे दूसरे पति को मेरे साथ हुई उस घटना का पता चल गया। इसके बाद उन्होंने मुझे तलाक़ दे दिया और मेरा दूध पीता दस महीने का बच्चा भी मुझसे छीन लिया।’ कमरे में रखी अपने बच्चे की तस्वीर पर हाथ फेरते हुए वो कहती हैं, ‘अब वह 22 साल का है। भारत से बाहर एक देश में रहता है। सिफऱ् नाम का ही है बेटा मेरा।’
‘मुफ़्त राशन से दिन कट रहे हैं’
संजना फिलहाल किराए के कमरे में रहती हैं और सीमित संसाधनों में जीवन जी रही हैं।
वो कहती हैं, ‘पेंशन और निशुल्क मिलने वाले राशन से दिन कट रहे हैं।’
उनके पास पैसे कमा सकने के लिए काम नहीं है। बाहर ज़्यादा निकलती नहीं हैं और बढ़ती उम्र के साथ बीमारियां भी घेरने लगी हैं। उस घटना के बाद से मन में क्या रहता है? यह सवाल जैसे उनके लिए 32 साल की कहानी बताने जैसा ही था।
वो कहती हैं, ‘मैं तो बहुत छोटी थी, मुझे कुछ समझ नहीं थी। उस समय मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ है। हमेशा जेहन में ज़रूर रहता है कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ।’
वह बड़े उदास मन से बताती हैं, ''32 साल में किसी ने मेरी मदद नहीं की। कोर्ट में गवाही के लिए जाना होता था तो मेरे चाचा ले जाते थे, पहली पेशी पर वही मुझे लेकर कोर्ट गए थे। लेकिन फिर उनकी भी मौत हो गई।’
‘साल 2015 में मुझे कोर्ट में बयानों के लिए बुलाया। कोर्ट का कागज़़ लेकर आए पुलिस वाले को मैंने कहा कि मैं किसके साथ आऊं, कोई नहीं है लाने वाला।’
‘तब वो पुलिस वाला भाई ही मुझे कोर्ट में बयानों के लिए लेकर गया था।’
अचानक से फिर भावुक होकर वो कहती हैं, ‘बहुत दुख देखे हैं इतने बरस में, अपनों को बिछड़ते और मरते देखा है। अब बचा जीवन भी यूं ही कट जाएगा। क्या कर सकते हैं भैया, जो किस्मत में लिखा है।’
इतनी लंबी लड़ाई लडऩे के लिए हौसला कहां से आया?
इस सवाल पर संजना कहती हैं, ‘मीडिया ने लड़ाई लड़ी है। उन्ही से हौसला मिला तो मैं कोर्ट जाती थी, वहां मुझसे बहुत से सवाल पूछे जाते थे और मैं जवाब देती थी।’ (बीबीसी)
एक प्रस्तावित कोयला खनन योजना के लिए बीते दिनों हसदेव में करीब 11 हजार पेड़ काटे गए. स्थानीय आदिवासियों ने इसका भारी विरोध किया. कार्यकर्ताओं के मुताबिक, अब तक खनन के लिए यहां एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा की रिपोर्ट-
छत्तीसगढ़ के वन विभाग की वेबसाइट खोलते ही सबसे पहले एक बैनर दिखाई देता है, जिसपर लिखा है- "एक पेड़ मां के नाम." इस बैनर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और वन मंत्री केदार कश्यप के मुस्कुराते हुए चेहरे भी नजर आते हैं.
वहीं दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने बीते दिनों 'परसा ईस्ट केते बासेन' खनन परियोजना के दूसरे चरण के लिए हसदेव जंगल में हजारों पेड़ काटने की अनुमति दे दी. स्थानीय लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इसका जमकर विरोध किया.
हसदेव में पांच कोयला खदानें आवंटित हो चुकी हैं
हसदेव जंगल, छत्तीसगढ़ के तीन जिलों- सरगुजा, कोरबा और सूरजपुर में फैला है. करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैला हसदेव अरण्य जैव विविधता से भरपूर है. प्रकृति और पर्यावरण के लिए इसका महत्व रेखांकित करते हुए अक्सर इसे "मध्य भारत का फेफड़ा" कहा जाता है.
हसदेव जंगल के गर्भ में कोयले का अकूत भंडार भी है. भारतीय खान ब्यूरो के मुताबिक, यहां लगभग 5,500 मिलियन टन कोयले का भंडार होने का अनुमान है. स्थानीय निवासियों और पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं कि यही कोयला अब हसदेव की सबसे बड़ी मुसीबत बन गया है. सरकारें और उद्योगपति पेड़ों को काटकर जंगल के नीचे दबे कोयले को निकालना चाहते हैं. वहीं, पर्यावरण कार्यकर्ता और स्थानीय आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं. टकराव की यह स्थिति बीते कई सालों से बनी हुई है.
मार्च 2023 में तत्कालीन कोयला एवं खान मंत्री प्रह्लाद जोशी ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि हसदेव जंगल के क्षेत्र में कुल पांच कोयला खदानें आवंटित की गई हैं. इनमें से तीन कोयला खदानें राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड, या कहें कि राजस्थान सरकार को दी गई हैं. ये तीनों कोयला खदानें हैं- परसा ईस्ट एवं केते बासेन (पीईकेबी), परसा और केते एक्सटेंशन. इनमें से फिलहाल पीईकेबी खदान में ही खनन हो रहा है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, राजस्थान सरकार ने पीईकेबी खदान के प्रबंधन और खनन का काम अदाणी समूह को सौंपा है. इस खदान से दो चरणों में कोयले का खनन होना है. छत्तीसगढ़ वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, पहले चरण में 762 हेक्टेयर वन भूमि से कोयला निकाला जा चुका है. इस खनन परियोजना के लिए करीब 80 हजार पेड़ काटे गए थे. दूसरे चरण में 1,136 हेक्टेयर भूमि पर खनन होना प्रस्तावित है, जिसके लिए चरणबद्ध तरीके से पेड़ काटे जा रहे हैं.
स्थानीय आदिवासी जंगल बचाने की मुहिम चला रहे हैं
दूसरे चरण के अंतर्गत सितंबर 2022 में पहली बार करीब 8,000 पेड़ काटे गए थे. फिर दिसंबर 2023 में 12,000 हजार से ज्यादा पेड़ गिराए गए. अब बीते 30 अगस्त को तीसरी बार पेड़ों की कटाई शुरू हुई है. 'छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन' के संयोजक और पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में बताया, "तीन दिन तक चले कटाई अभियान में 74 हेक्टेयर वन भूमि से करीब 11 हजार पेड़ काटे गए. स्थानीय आदिवासियों ने शांतिपूर्वक ढंग से इसका काफी विरोध किया, लेकिन पुलिस बल की भारी मौजूदगी के बीच कटाई पूरी कर ली गई."
अब तक हसदेव में हुई कटाई पर आलोक बताते हैं, "दूसरे चरण के लिए लगभग दो लाख 46 हजार पेड़ काटे जाने की योजना है. अब तक तीन चरणों के तहत इनमें से लगभग 30,000 पेड़ काटे जा चुके हैं. इससे 206 हेक्टेयर जंगल साफ हो गया है."
आलोक शुक्ला 'हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति' नाम की एक सामूहिक मुहिम के भी सदस्य हैं. वह लंबे समय से हसदेव जंगल को बचाने के अभियान के साथ जुड़े हुए हैं. इसी साल उन्हें प्रतिष्ठित 'गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार' भी दिया गया है, जो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे जमीनी कार्यकर्ताओं को मिलता है.
काटे जा चुके एक लाख से ज्यादा पेड़
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हसदेव जंगल में पीईकेबी खनन परियोजना के दोनों चरणों के लिए अब तक एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं. पर्यावरण कार्यकर्ताओं को आशंका है कि दूसरे चरण के लिए अभी दो लाख से ज्यादा पेड़ और काटे जाएंगे. वे चिंता जताते हुए कहते हैं कि इस तरह तो धीरे-धीरे पूरा जंगल ही खत्म हो जाएगा.
आलोक शुक्ला भी ऐसी ही आशंका जताते हैं, "हसदेव में खनन होने पर समृद्ध जैव विविधता और वन्य प्राणियों का रहवास खत्म हो जाएगा. छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ जाएंगी. इसके अलावा बांगो बांध के अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा, जिसके पानी से जांजगीर जिले में चार लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है." वह आगे कहते हैं कि स्थानीय लोगों की पहचान और संस्कृति, उनके गांव और जंगल के साथ जुड़ी हुई है. हसदेव के कटने से यह पूरी तरह खत्म हो जाएगी.
डीडब्ल्यू हिंदी की टीम मई 2024 में ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए हसदेव जंगल गई थी. उस समय स्थानीय आदिवासियों ने हसदेव के प्रति अपनी आस्था जताते हुए बताया था कि वे इस जंगल को अपना देवता मानते हैं. हसदेव अरण्य में बसे एक गांव हरिहरपुर में स्थानीय निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता रामलाल करियाम ने मूलनिवासियों की वन आधारित जीवनशैली को रेखांकित करते हुए कहा था, "हम अपनी आजीविका के लिए जंगल पर ही निर्भर रहते हैं. यह हमारे लिए बैंक की तरह है. जब तक जंगल है, हमारे सामने कभी भी खाने-पीने का संकट नहीं आएगा. जंगल कटने से हम सब खतरे में आ जाएंगे."
जंगल काटकर कोयला निकालने से पर्यावरण को दोहरा नुकसान होता है. जंगल कटने से वन क्षेत्र कम होता है और पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है. कार्बन सिंक घटता है और पेड़ों में मौजूद कार्बन, सीओटू के रूप में वायुमंडल में चला जाता है. दूसरा, कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जिसका ज्यादातर इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए होता है. जब पावर प्लांट में बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है तो बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है.
नियमों का पालन ना करने के आरोप
हसदेव जंगल के मामले में प्रशासन पर नियमों का पालन नहीं करने के आरोप लगते रहे हैं. आलोक शुक्ला आरोप लगाते हैं कि अदाणी कंपनी के मुनाफे के लिए सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर हसदेव का विनाश किया जा रहा है. वह बताते हैं, "हसदेव अरण्य का क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है. पेसा कानून (1996) और जमीन अधिग्रहण कानून (2013) के अनुसार, इस इलाके में जमीन का अधिग्रहण करने से पहले ग्रामसभा की सहमति लेना जरूरी होता है."
आलोक शुक्ला आगे कहते हैं, "इस साल जून में जमीन अधिग्रहण की सहमति लेने के लिए घाटबर्रा गांव में ग्रामसभा हुई थी, लेकिन उसमें प्रक्रिया का ठीक ढंग से पालन नहीं किया गया. लोगों के विरोध को दरकिनार कर खाली रजिस्टर में लोगों के हस्ताक्षर करवा लिए गए. बाद में उसमें प्रस्ताव लिख दिया गया. नियम कहते हैं कि ग्रामसभा में एक भी व्यक्ति के विरोध करने पर वोटिंग करवानी चाहिए, लेकिन प्रशासन ने वोटिंग नहीं करवाई."
राजनीतिक दलों पर भी सवाल
इस मामले में स्थानीय लोग राजनीतिक दलों के रवैये पर भी सवाल उठाते हैं और पार्टियों पर पक्ष-विपक्ष की राजनीति में अलग-अलग रुख अपनाने का आरोप लगाते हैं. पूर्ववर्ती भूपेश बघेल सरकार के कार्यकाल के दौरान जुलाई 2022 में सर्वसम्मति से प्रदेश विधानसभा में एक संकल्प पारित हुआ. इसके जरिए केंद्र सरकार से हसदेव अरण्य क्षेत्र में आवंटित सभी कोयला खदानों को निरस्त करने का अनुरोध किया गया. इसके दो महीने बाद ही खनन के लिए 8,000 पेड़ काट दिए गए. तब इस मुद्दे पर विपक्षी पार्टी बीजेपी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार का विरोध किया था. हालांकि, पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन होने के बाद भी स्थिति नहीं बदली.
बीजेपी के आदिवासी नेता विष्णुदेव साय दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने. इसके करीब हफ्ते भर बाद ही हसदेव में फिर पेड़ों की कटाई शुरू हो गई. जब इस पर सवाल उठे, तो मुख्यमंत्री साय ने इसे पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार का फैसला बताया. उन्होंने कहा कि हसदेव में पेड़ काटने का फैसला कांग्रेस सरकार के दौरान लिया गया था, उसी आधार पर पेड़ों की कटाई की गई है.
स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि भाजपा-कांग्रेस में से जो भी पार्टी राज्य में विपक्ष में होती है, वह हसदेव में पेड़ काटे जाने का विरोध करती है. जैसे ही वह पार्टी सत्ता में आती है, उसका रुख बदल जाता है. (dw.com)
-अपूर्व गर्ग
पिछले बीस सालों में धीरे-धीरे रोमन हिंदी कहीं देव नागरी से ज़्यादा तो नहीं लिखी जा रही ?
हिंदी भाषी और देव नागरी में जो टाइप कर सकते हैं उनके मुकाबले सोचिये और कल्पना करिये घर की गृहणियों से लेकर बच्चे, युवा जो एक दूसरे से खटाखट स्मार्ट फ़ोन पर चैट करते हैं, इनकी संख्या कितनी है?
जरा सोचिये, आज जब चि_ियों से संवाद बंद हो चुका और पूरा संवाद मोबाइल से हो रहा कितने प्रतिशत लोग नागरी लिपि का इस्तेमाल कर रहे हैं?
जरा सोचिये , हिंदी भाषी और उर्दू भाषी इसमें पाकिस्तान को भी शामिल करिये कितने प्रतिशत लोग देवनागरी या अरबी लिपि का सॉफ्टवेयर रख टाइप करते हैं?
क्या हिंदुस्तान के उर्दूभाषी देवनागरी में टाइप कर संदेश भेजते हैं?
बात यही है कि आज जब कलम-कागज़ का प्रयोग कम हो चुका और डिवाइस से सम्प्रेषण हो रहा तो लिपि कौन सी है ?
अभिजात्य वर्ग तो मुख्यत: अंग्रेजी में करता है . हिंदी भाषी देवनागरी में और उर्दू भाषी भी उर्दू को देवनागरी में टाइप करते हैं पर एक सचाई है नयी पीढ़ी बड़ी तादाद में रोमन की तरफ मुड़ चुकी है। जबकि उसे स्कूल में रोमन सिखाया नहीं जाता। रोमन की कोई परीक्षा नहीं होती।
हिंदी अखबार रोमन में नहीं आते पर ‘ऑन लाइन वल्र्ड’ की लिपि रोमन बनती जा रही जरा गौर करिये !
मैं देवनागरी-अरबी या रोमन के इतिहास या भविष्य पर कुछ न कह कर सिर्फ यही रेखांकित कर रहा हूँ कि जिस रोमन लिपि को कल तक हमें समझने में तकलीफ होती थी .हम सब नापसंद करते रहे उसका प्रयोग कितना बढ़ चुका, सोचिये .एक समय 1935 से पहले जब नागरी तार प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी .लोग रोमन को समझते नहीं थे ऐसे समय एक दिन हिन्दी के साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने एक तार रोमन लिपि में देखा lekh vapais bhejiye, sanshodhnarth इसकी देखा-देखी उन्होंने बधाई का तार भेजा अपने भतीजे के विवाह पर रोमन में ‘Badhai’ लिखकर।
अब वाजपेयी जी के भाई साहब के परिवार को ‘Badhai’ समझ न आई। उन्होंने अंग्रेजी की डिक्शनरी छान मारी पर अर्थ न मिला।
इसके बाद इन लोगों ने वाजपेयी जी को तार देकर पूछा क्या हुआ? क्या बात है ? तार समझ में न आया।
तब एक ‘Badhai’ शब्द समझ न आया और आज तो पूरी स्क्रिप्ट, लेख, संदेश रोमन में भेजे जा रहे ,अंग्रेजी की चटनी लगा के सोचिये लोग कितने अभ्यस्त हो गए ?
- विजुअल जर्नलिज्म और डेटा टीमें
पांच नवंबर को अमेरिका में मतदाता अपने अगले राष्ट्रपति का चुनाव करने के लिए मतदान में हिस्सा लेंगे।
पहले ये चुनाव 2020 की पुनरावृत्ति होने वाले थे यानी मुक़ाबला पिछले चुनावों की तरह ट्रंप और जो बाइडन में ही होने वाला था लेकिन बाइडन के रेस से हटने के बाद उप राष्ट्रपति कमला हैरिस मैदान में हैं।
अब सबसे बड़ा सवाल यही है- क्या डोनाल्ड ट्रंप को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या अमेरिका को पहली महिला राष्ट्रपति?
जैसे-जैसे चुनाव का दिन निकट आता जाएगा हम आपके लिए सर्वेक्षणों पर नजर रखेंगे। साथ ही मंगलवार को ट्रंप और हैरिस के बीच होने वाली डिबेट जैसे कार्यक्रमों का असर पर भी रोशनी डालते रहेंगे।
सर्वेक्षणों में कौन आगे?
सर्वे में बाइडन के राष्ट्रपति पद की दौड़ से अपना हाथ खींचने से पहले, उन्हें ट्रंप से पिछड़ता दिखाया जा रहा था। हालांकि उस समय ये सिर्फ कोरी कल्पना ही थी लेकिन कुछ जानकार उस वक्त कह रहे थे कि अगर रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस होतीं तो उनका हाल भी ऐसा ही होता।
लेकिन जैसे ही कमला हैरिस चुनाव अभियान में कूदीं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पर एक छोटी सी बढ़त बना ली।
दोनों उम्मीदवारों के ताजा नेशनल सर्वेक्षणों का औसत नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया जा रहा है।
नीचे दिए गए पोल ट्रेकर में दिखाया गया है कि कैसे हैरिस के चुनाव में कूदने के बाद ट्रेंड बदलने लगा है। ग्राफ़ में दिख रहे डॉट्स विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजों को दर्शा रहे हैं।
हैरिस शिकागो में चली चार दिनों की पार्टी कनवेंशन के दौरान 47 फीसदी तक पहुँच गई थीं। इसके बाद 22 अगस्त को सभी अमेरिकी लोगों के लिए ‘एक नई राह’ वाली स्पीच के बाद भी आगे बढ़ीं। लेकिन इसके बाद से उनकी लोकप्रियता में कोई विशेष परिवर्तन दर्ज नहीं किया गया है।
ट्रंप की औसत भी लगभग एक जैसी ही रही है। सर्वेक्षणों में उनकी लोकप्रियता 44 फीसदी के आस-पास रही है। 23 अगस्त को जब रॉबर्ट एफ कैनेडी ने आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडऩे से अपने हाथ पीछे खींचे उसके बाद भी ट्रंप की लोकप्रियता में कोई बदलाव दर्ज नहीं किया गया।
अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में होने वाले ये चुनाव पूर्व सर्वेक्षण उम्मीदवारों की लोकप्रियता की ओर इशारा तो करते हैं लेकिन ये ज़रूरी नहीं है कि राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों के पूर्वानुमान का ये सटीक तरीका हो।
इसकी एक बड़ी वजह है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम का प्रयोग होता है। इसलिए अधिक मतदान से ज़्यादा ये ज़रूरी है कि आप किन राज्यों में जीत दर्ज कर रहे हैं।
अमेरिका में 50 राज्य हैं। लेकिन इन राज्यों में अधिकतर वोटर हमेशा एक ही पार्टी को वोट देते हैं। तो हकीकत में ऐसे बहुत कम राज्य हैं जहां दोनों उम्मीदवार जीत की उम्मीद लगा सकते हैं। और यही राज्य हैं जहाँ चुनाव जीता या हारा जाता है। इन्हें अमेरिका में बैटलग्राउंड स्टेट्स कहा जाता है।
बैटलग्राउंड स्टेट्स में कौन जीत रहा है?
फि़लहाल सात बैकग्राउंड राज्यों में टक्कर कांटे की है। यही वजह है रेस में कौन आगे है ये बताना मुश्किल है।
राज्यों में, राष्ट्रीय स्तर की तुलना में चुनाव पूर्व कम सर्वेक्षण हो रहे हैं। इसलिए राज्यों की रुझान के बारे में अधिक डेटा उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा हर पोल में एक ‘मार्जिन ऑफ एरर’ होता और संभव है कि आंकड़े कुछ प्रतिशत ऊपर या नीचे हो सकते हैं।
ताजा सर्वेक्षणों के अनुसार इस वक्त कई राज्यों में दोनों उम्मीदवारों के बीच एक या उससे भी कम प्रतिशत का अंतर है।
इनमें पेनसिल्वेनिया राज्य भी शामिल है। ये राज्य काफी अहम है क्योंकि यहाँ इलेक्टोरल कॉलेज के सर्वाधिक वोट हैं। और यहां मिली जीत के सहारे कोई भी उम्मीदवार अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक 270 इलेक्टोरल कॉलेज के वोटों का जादुई आंकड़ा छू सकता है।
नेतन्याहू से क्या चाहते हैं बाइडन?
पेनसिल्वेनिया, मिशिगन और विस्कॉनसिन 2016 में ट्रंप के राष्ट्रपति पद के चुनाव जीतने से पहले डेमोक्रेटिक पार्टी का गढ़ था। बाइडन ने 2020 के चुनावों में इसे वापस हासिल कर लिया। अगर हैरिस इस साल भी वही प्रदर्शन दोहरा पाएंगी तो वो चुनाव जीत जाएंगी।
हैरिस के डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने के बाद राष्ट्रपति पद की दौड़ में बदलाव के संकेत दिख रहे हैं, क्योंकि जो बाइडन ने जिस दिन इस दौड़ से बाहर होने का फैसला लिया उसी दिन वो इन सात बैटलग्राउंड स्टेट्स में ट्रंप से तकऱीबन पांच फ़ीसदी पॉइंट से पीछे थे।
ये औसत कैसे तैयार होते हैं?
हमने ग्राफि़क्स में जिन आंकड़ों का इस्तेमाल किया है उनका औसत सर्वेक्षण विश्लेषण वेबसाइट 538 ने तैयार किया है जो अमेरिकी न्यूज़ नेटवर्क एबीसी न्यूज़ का हिस्सा है। इन औसत को 538 उन आंकड़ों को इक_ा करके बनाती है जो राष्ट्रीय स्तर पर और बैटलग्राउंड स्टेट्स में कई सर्वेक्षण कंपनियां लाती हैं।
गुणवत्ता नियंत्रण के लिए 538 केवल उन कंपनियों के सर्वे लेती है जो कुछ निश्चित मानदंडों को पूरा करती हैं, जैसे कि इस बारे में पारदर्शी होना कि उन्होंने कितने लोगों को सर्वे में शामिल किया, सर्वे कब हुआ और इसे किस तरह से किया गया (मसलन टेलीफोन कॉल्स, टेक्स्ट मैसेज, ऑनलाइन आदि)।
आप 538 की कार्य पद्धति के बारे में यहां पढ़ सकते हैं।
क्या हम सर्वे पर भरोसा कर सकते हैं?
इस समय सर्वे बताते हैं कि कमला हैरिस और डोनाल्ड ट्रंप बैटलग्राउंड स्टेट्स और राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ही औसत के अंतर से आगे-पीछे हैं, और जब दौड़ बेहद कऱीबी है तो ये अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है कि कौन जीतेगा।
2016 और 2020 के राष्ट्रपति चुनावों से पहले हुए सर्वेक्षणों में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक को कम करके आंका गया था। अब सर्वे करवाने वाली कंपनियां कई तरीकों से इस समस्या से निपटेंगी। इन तरीकों में सर्वे करते वक्त मतदान करने वाली आबादी की संरचना को ध्यान में रखना शामिल है।
उन बदलावों को सही करना मुश्किल है। सर्वेक्षणकर्ताओं को अभी भी अन्य कारणों के बारे में ‘शिक्षित अनुमान’ लगाना होगा, मिसाल की तौर पर कि कैसे पाँच नवंबर को कौन या कितने लोग मतदान करने आएंगे।
माइक हिल्स और लिबी रोजर्स द्वारा लिखित और प्रोड्यूस। जॉय रॉक्सस का डिज़ाइन। (www.bbc.com/hindi)
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपने अमेरिकी दौरे के दौरान वाशिंगटन डीसी में स्थित जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में छात्रों के साथ संवाद किया। भारत में जाति के आधार पर आरक्षण खत्म करने के सवाल पर उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी आरक्षण खत्म करने के बारे में तब सोचेगी, जब भारत में आरक्षण के लिहाज से निष्पक्षता होगी और अभी ऐसा नहीं है।
राहुल गांधी ने यहां प्रतिष्ठित जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित करते हुए यह बात कही। यहां विश्वविद्यालय के छात्रों ने राहुल से आरक्षण को लेकर सवाल किया था और पूछा था कि यह कब तक जारी रहेगा। इस पर उन्होंने कहा, ‘‘जब भारत में (आरक्षण के लिहाज से) निष्पक्षता होगी, तब हम आरक्षण खत्म करने के बारे में सोचेंगे। अभी भारत इसके लिए एक निष्पक्ष जगह नहीं है।’
नेता प्रतिपक्ष ने कहा, ‘जब आप वित्तीय आंकड़ों को देखते हैं, तो आदिवासियों को 100 रुपये में से 10 पैसे मिलते हैं। दलितों को 100 रुपये में से पांच रुपये मिलते हैं और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लोगों को भी लगभग इतने ही पैसे मिलते हैं। सचाई यह है कि उन्हें उचित भागीदारी नहीं मिल रही है।’
उन्होंने कहा, ‘समस्या यह है कि भारत की 90 प्रतिशत आबादी भागीदारी करने में सक्षम नहीं है। भारत के हर एक ‘बिजनेस लीडर’ की सूची देखें। मैंने ऐसा किया है। मुझे आदिवासी नाम दिखाओ। मुझे दलित नाम दिखाओ। मुझे ओबीसी नाम दिखाओ। मुझे लगता है कि शीर्ष 200 में से एक ओबीसी है। वे भारत की आबादी का 50 प्रतिशत हैं। लेकिन हम बीमारी का इलाज नहीं कर रहे हैं। यही समस्या है। अब, यह (आरक्षण) एकमात्र साधन नहीं है। अन्य साधन भी हैं।’
राहुल गांधी ने कहा, ‘ऐसे कई लोग हैं जो उच्च जाति से आते हैं, जो कहते हैं कि देखो, हमने क्या गलत किया है? हमें क्यों दंडित किया जा रहा है? तो, फिर आप इनमें से कुछ चीजों की आपूर्ति में नाटकीय रूप से वृद्धि के बारे में सोचते हैं। आप सत्ता के विकेंद्रीकरण के बारे में सोचते हैं। आप हमारे देश के शासन में कई और लोगों को शामिल करने के बारे में सोचते हैं। मैं पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि मुझे नहीं लगता कि आप में से कोई भी कभी भी अदाणी या अंबानी बनने जा रहा है। इसका एक ही कारण है। आप नहीं बन सकते क्योंकि इसके लिए दरवाजे बंद हैं। इसलिए सामान्य जाति के लोगों को जवाब है कि आप उन दरवाजों को खोलें।’
समान नागरिक संहिता के बारे में पूछे जाने पर राहुल ने कहा कि वह इस पर तभी टिप्पणी करेंगे जब उन्हें पता चलेगा कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का प्रस्ताव क्या है। उन्होंने कहा, ‘‘बीजेपी समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव कर रही है। हमने इसे नहीं देखा है। हमें नहीं पता कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। हमारे लिए इस पर टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं है। जब वे इसे लाएंगे, तब हम इसे देखेंगे और इस पर टिप्पणी करेंगे।’
उन्होंने यह भी कहा कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सदस्यों में मतभेद हैं, लेकिन वे कई बातों पर सहमत भी हैं। उन्होंने कहा, ‘‘हम सहमत हैं कि भारत के संविधान की रक्षा की जानी चाहिए। हममें से अधिकांश जाति जनगणना के विचार पर सहमत हैं। हम सहमत हैं कि दो उद्योगपति, यानी अदाणी और अंबानी को ही भारत में हर एक व्यवसाय नहीं चलाना चाहिए। इसलिए, आपका यह कहना कि हम सहमत नहीं हैं, मुझे लगता है, गलत है।’
राहुल ने कहा, ‘दूसरी बात यह है कि सभी गठबंधन में थोड़े बहुत मतभेद हमेशा होते रहेंगे। यह पूरी तरह से स्वाभाविक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमने कई बार सरकारें चलाई हैं जो गठबंधन के साथ सफल रही हैं। इसलिए हमें पूरा विश्वास है कि हम ऐसा दोबारा कर सकते हैं।’ (नवजीवनइंडिया) (पीटीआई के इनपुट के साथ)
राजनीति में साथ और ख़िलाफ़ अपने-अपने हितों के हिसाब से होता है।
जब आम आदमी पार्टी बनी तब शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि कांग्रेस के साथ इसका चुनावी गठबंधन होगा। जाहिर है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ ही खड़ी हुई थी।
हालांकि आम आदमी पार्टी ने अपने बनने के कुछ महीने बाद ही कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाई थी।
कांग्रेस के साथ आप का रिश्ता बीजेपी के विस्तार से जुड़ा है। जैसे-जैसे बीजेपी मज़बूत होती गई, कांग्रेस और आप की करीबी बढ़ती गई।
अब बात ये होती है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन किन-किन राज्यों में होगा और कितनी सीटों पर होगा।
हरियाणा में बीजेपी और कांग्रेस अपने उम्मीदवारों की कई लिस्ट जारी कर चुकी हैं। इसी कड़ी में अब आम आदमी पार्टी ने भी हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी की है।
ये लिस्ट ऐसे वक़्त में जारी हुई है, जब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की बातें बीते दिनों बढ़ी थीं।
मगर ‘आप’ ने 20 उम्मीदवारों की जो लिस्ट नौ सितंबर को जारी की है, उनमें से 12 सीटें ऐसी हैं, जहां से कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं। इसके बाद 10 सितंबर को पार्टी ने नौ उम्मीदवारों की दूसरी लिस्ट जारी की है।
ऐसे में सवाल ये है कि इंडिया गठबंधन की दो सहयोगी पार्टियां कांग्रेस और ‘आप’ क्या हरियाणा में एक-दूसरे के खिलाफ हो जाएंगी? क्या हरियाणा में 10 साल से सत्ता में बैठी बीजेपी के ख़िलाफ़ पडऩे वाला वोट बँट सकता है?
कांग्रेस बनाम आम आदमी पार्टी?
हरियाणा में 20 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने के सवाल पर ‘आप’ के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने समाचार एजेंसी एएनआई से नौ सितंबर को बात की।
संजय सिंह ने कहा, ‘12 तारीख तक नामांकन होना है। समय कम बचा है। बीजेपी के 10 साल के कुशासन को हटाना हमारी प्राथमिकता है। 20 प्रत्याशियों की लिस्ट जारी हुई है।’
गठबंधन की अड़चनों के बारे में संजय सिंह ने कहा, ‘अब उसकी चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। आज 20 प्रत्याशियों की सूची आई है। जल्द और सूचियां आएंगी। हम आगे बढ़ रहे हैं। पहली लिस्ट जारी कर चुके हैं। हमने 15 दिन में 45 रैलियां की हैं।’
इससे पहले हरियाणा में ‘आप’ के प्रदेश अध्यक्ष सुशील गुप्ता ने कहा था, ‘मैं 90 सीटों की तैयारी कर रहा हूँ। आलाकमान की तरफ से किसी भी प्रकार के गठबंधन की कोई खबर हमारे पास अभी तक नहीं आई है।’
यानी हरियाणा में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे।
हरियाणा विधानसभा चुनाव
हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं।
बीजेपी 2014 और 2019 में विधानसभा चुनाव जीतकर बीते 10 सालों से सत्ता में बनी हुई है।
साल 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 40 और कांग्रेस को 31 सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी दुष्यंत चौटाला के साथ गठबंधन के कारण सरकार बनाने में सफल रही थी।
इस बार के 2024 के विधानसभा चुनाव में हरियाणा में पांच अक्तूबर को मतदान होगा और आठ अक्तूबर को मतगणना होगी।
2019 से तुलना करें तो हरियाणा लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर भी 58 प्रतिशत से घटकर 46 प्रतिशत हो गया है। कहा जा रहा है कि इस बार बीजेपी के लिए हरियाणा विधानसभा चुनाव आसान नहीं है।
इसकी कई वजहें गिनाई जाती हैं।
10 साल से सत्ता में रहने के कारण बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बताई जा रही है। ये चुनाव किसान आंदोलन के बाद हो रहे हैं। किसान आंदोलन में बड़ी संख्या में हरियाणा के किसान भी शामिल थे।
किसान आंदोलन को लेकर बीजेपी के रुख़ की आलोचना होती रही है।
हरियाणा से सेना में जाने वालों की संख्या अच्छी ख़ासी रहती है। इस बार अग्निवीर योजना को मुद्दा बनाए जाने को लेकर कांग्रेस आक्रामक है।
इसी को देखते हुए अग्निवीर योजना में मोदी सरकार ने कुछ बदलाव भी किए हैं ताकि चुनाव में होने वाले संभावित नुकसान को कुछ कम किया जा सके। इसके अलावा बीते साल दिल्ली के जंतर-मंतर पर हरियाणा के पहलवानों ने भी तब के बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ धरना दिया था।
इस प्रदर्शन को लेकर बीजेपी नेताओं के रुख़ को भी हरियाणा में अच्छे से नहीं लिया गया था।
धरना दे चुके पहलवानों में से विनेश फोगाट और बजरंग पुनिया अब जब कांग्रेस में आ चुके हैं और कई नेता पार्टी का साथ छोड़ रहे हैं, तब बीजेपी के लिए ये चुनाव आसान नहीं माना जा रहा है।
हरियाणा में आम आदमी पार्टी की स्थिति
अरविंद केजरीवाल मूल रूप से हरियाणा से हैं। हरियाणा के हिसार जिले का खेड़ा केजरीवाल का पैतृक गांव है।
केजरीवाल अतीत में कई मौक़ों पर अपनी हरियाणा की पहचान को खुलकर बताते रहे हैं। 2024 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता प्रचार कर रही हैं।
इस प्रचार के दौरान सुनीता केजरीवाल अरविंद को हरियाणा का बेटा बताती हैं।
सुनीता ने हाल ही में एक चुनावी रैली में कहा, ‘जो काम बड़ी-बड़ी पार्टियां नहीं कर पाईं, वो काम आपके लाल ने कर दिया। आपके भाई ने कर दिया। आपके बेटे ने हरियाणा का नाम पूरे देश, दुनिया में रौशन किया है। क्या आप सब चुपचाप बैठे रहेंगे? क्या आप अपने बेटे का साथ नहीं देंगे।’
जाहिर है कि सुनीता और आम आदमी पार्टी केजरीवाल को जेल भेजे जाने को मुद्दा बनाने की कोशिश करेंगे। हालांकि लोकसभा चुनाव 2024 में पार्टी को इस बात का फ़ायदा नहीं मिला था। न तो दिल्ली में और न ही हरियाणा में।
अब सवाल ये है कि अब तक के चुनावों में हरियाणा में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहा है।
लोकसभा चुनाव 2024 में हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर लड़े थे। हालांकि ‘आप’ सिर्फ एक कुरुक्षेत्र सीट पर लड़ी थी। इस सीट से चुनावी मैदान में ‘आप’ के प्रदेश अध्यक्ष सुशील गुप्ता थे।
सुशील गुप्ता इस सीट पर करीब पांच लाख 13 हजार वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे। इस सीट से बीजेपी के टिकट पर नवीन जिंदल जीते थे।
लोकसभा चुनाव 2024 में ‘आप’ हरियाणा में 3.94 फीसदी वोट पाने में सफल रही थी।
2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी 46 सीटों पर लड़ी थी। मगर पार्टी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा था और वो एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
‘आप’ के उम्मीदवारों की कई सीटों पर जमानत तक ज़ब्त हो गई थी। पार्टी का वोट शेयर 0.48 प्रतिशत रहा था।
2019 लोकसभा चुनाव में हरियाणा की सभी दस सीटें बीजेपी ने जीती थीं। तब ‘आप’ ने तीन लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इन चुनावों में ‘आप’ का वोट शेयर 0.36 प्रतिशत रहा था।
हरियाणा चुनाव और गठबंधन की राजनीति
हरियाणा में कई ऐसे दूसरे राजनीतिक दल हैं, जो किंगमेकर की भूमिका में आते रहे हैं। बीते चुनाव में दुष्यंत चौटाला की जेजेपी ने सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी।
इस बार जेजेपी और बीजेपी की राहें अलग हो गई हैं। मगर चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी और जेजेपी के बीच गठबंधन हो गया है।
2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में जीती 47 सीटों को छोड़ दिया जाए, तो तब से बीजेपी लगातार ढलान पर है।
कई लोग मान रहे हैं कि हरियाणा में चुनाव धर्म से ज़्यादा जाति की तरफ़ झुकते नजऱ आ रहे हैं।
इंडिया गठबंधन जातिगत जनगणना के बहाने जाति के मुद्दे को लगातार उठा रहा है। हरियाणा के चुनावों में जाति का असर अतीत में देखने को मिलता रहा है।
हरियाणा में जाट और गैर-जाट वोट निर्णायक भूमिका में रहे हैं।
हरियाणा की आबादी में जाट 20 से 30 फ़ीसदी हैं। माना जाता है कि ये वोट बैंक बीजेपी के साथ नहीं जाता है।हरियाणा में जाट ओबीसी का दर्जा हासिल करने के लिए कई बार सडक़ों पर उतर चुके हैं। लेकिन बीजेपी उनकी ये मांग पूरी नहीं कर सकी। किसान आंदोलन में भी जाटों की अच्छी ख़ासी भागीदारी थी और पहलवानों के आंदोलन में भी यह समुदाय साथ खड़ा था।
चंद्रशेखऱ आज़ाद और दुष्यंत चौटाला के साथ आने से दलित वोट बँट सकता है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने इनेलो के साथ गठबंधन किया है। दलित वोटों पर दावेदारी चंद्रशेखर और मायावती दोनों की रहती है। उधर बीजेपी भी गैर-जाट वोटों को एकजुट करने की कोशिश करती है। ऐसे में चुनाव दिलचस्प हो गया है।
बीजेपी के सामने चुनौतियां
आईएनएलडी और जेजेपी का प्रदर्शन भले ही लोकसभा चुनाव में अच्छा ना रहा हो, मगर इनके होने से बीजेपी को नुक़सान हो सकता है।
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में भी हरियाणा में कांग्रेस के मजबूत होने के संकेत मिले हैं।
मगर ऐसा नहीं है कि इससे बीजेपी के लिए बाज़ी हाथ से पूरी तरह निकल गई है।
कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, जेजेपी, आजाद समाज पार्टी, आईएनएलडी- इतने राजनीतिक दलों के हरियाणा के चुनावी मैदान में होने से एंटी-बीजेपी वोट बँट सकता है।
बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव में 46 फीसद वोट पाने में सफल रही थी।
साथ ही हरियाणा में कांग्रेस के अंदर दो गुट नजर आ रहे हैं- कुमारी शैलजा बनाम हुड्डा। हालांकि बीजेपी में भी भीतरघात के कई मामले सामने आए हैं। (bbc.com/hindi)
-कनुप्रिया
जावेद अख़्तर न बीमार थे, न पेट खराब था। स्वस्थ थे, टैलेंटेड थे और सफल भी। शबाना के गले कोई आफत नही मढ़ी गई थी जिसका बोझ बतौर पत्नी ईरानी पर था और अब शबाना को सुपुर्द कर दी गई थी। शबाना उनके साथ ख़ुश रहीं , जीवन भर उनका साथ रहा।
जावेद अख्तर और सलीम जावेद पर बनी डॉक्यूमेंट्री में हनी ईरानी के स्वर में जावेद अख्तर के लिये तल्खी दिखती है जो कि जाहिर है होगी ही, और जावेद अख्तर भी उनके प्रति अपना अपराध स्वीकारते हैं, शबाना भी उन्हें सराहती हैं। मगर इससे कुछ नही बदलता, अक्सर जीवन ऐसा ही क्रूर होता है, आपकी पीड़ाओं को कहीं से न्याय नही मिलता, बस समय के साथ उनकी तीव्रता कम हो जाती है।
यह बहुत कष्टप्रद होता है कि जिस व्यक्ति के साथ आपने अपने जीवन के बड़े हिस्से का समय, आपका भावनात्मक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक , आर्थिक निवेश किया हो, पता चले कि वो व्यर्थ गया और अब आपको फिर से वही निवेश नए सिरे करने हैं। यह आसान नही, बिल्कुल आसान नहीं। इसके अलावा रिजेक्शन आपके आत्मबल को भी किसी हद तक तोड़ देता है, इस सबसे उबरने और अपने जीवन में वापसी के लिये बहुत मानसिक और भावनात्मक ऊर्जा की ज़रूरत होती है।
फिर यह राहत भी ज़रूरी नही कि ख़ारिज करने वाला पुरुष ख़ुद ख़ारिज करने लायक ही हो, बीमार हो, पादता हो, दुनिया भर के नखरे हों और नींद लेने के लिये आपके द्वारा पैरों की मालिश पर निर्भर हो। रिजेक्शन एक सफल, स्वस्थ और हैंडसम व्यक्ति की तरफ़ से भी आ सकता है, और प्रेमिका उसे भुगते ही ये ज़रूरी नहीं।
फिर भी पुरुष कोई ट्रॉफ़ी नहीं है, न रक्षक है, अगर वो किसी और के साथ प्रेम में है तो आपके लिये छोड़ देने लायक ही है।
स्त्रियों के लिये कहीं न कहीं ये बेहद जरूरी है कि वो पुरूष से इतर भी अपनी जीवन यात्रा को, उसकी सार्थकता को समझें, जीवन आपका है, यही सबसे महत्वपूर्ण बात है, पुरुष या तो पार्टनर है या फिर नहीं है।
अच्छी बात ये है कि हनी ईरानी ने मजबूती से एक शानदार जीवन जिया, अनेक सफल और ‘क्या कहना’ जैसी ज़बरदस्त मूवी की लेखिका रहीं, उनके बच्चे भी टैलेंटेड और सफल हैं, उनकी जीवन यात्रा जावेद अख्तर के जाने से ख़त्म नहीं हो गई। अगर सफलताएँ उनके हिस्से न भी आती हों तब भी उनका जीवन उनका जीवन ही होता।
-ओशो
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है कि एक मछली बेचने वाली औरत गांव से शहर मछली बेचने आई। मछलियां बेच कर जब लौटती थी तो अचानक बाजार में उसे बचपन की एक सहेली मिल गई। वह सहेली अब मालिन हो गई थी। उस मालिन ने कहा, आज रात मेरे घर रुको! कल सुबह होते ही चले जाना। कितने वर्षों बाद मिले, कितनी-कितनी बातें करने को हैं!
मछली बेचने वाली औरत मालिन के घर रुकी। मालिन का घर बगिया से घिरा हुआ। फिर पुरानी सहेली की सेवा मालिन ने खूब दिल भर कर की। और जब सोने का समय आया और मालिन सोई, तो इसके पहले कि वह सोती, बगिया में गई, चांद निकला था, बेले के फूल खिले थे, उसने बेलों की झोली भर ली और बैलों का ढेर अपनी सहेली उस मछली बेचने वाली औरत के पास आकर लगा दिया, कि रात भर बेलों की सुगंध! लेकिन थोड़ी देर बाद मालिन परेशान हुई, क्योंकि मछली बेचने वाली औरत सो ही नहीं रही, करवट बदलती है बार-बार। पूछा कि क्या नींद नहीं आ रही है?
उसने कहा, क्षमा करो, ये फूल यहां से हटा दो। और मेरी टोकरी, जिसमें मैं मछलियां लाई थी, उस पर जरा पानी छिडक़ कर मेरे पास रख दो।
मालिन ने कहा, तू पागल हो गई है?
उसने कहा, मैं पागल नहीं हो गई। मैं तो एक ही सुगंध जानती हूं: मछलियों की। और बाकी सब दुर्गंध है।
भीड़ मछलियों की गंध को जानती है। उससे परिचित है। शास्त्रों के पिटे-पिटाए शब्द दोहराए जाएं तो भीड़ उनसे राजी होती है, क्योंकि बाप-दादों से वही सुने हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही सुने हैं। सुनते-सुनते उनके कान भी पक गए हैं। वे ठीक लगते हैं।
मैं उनसे वह कह रहा हूं जो मेरी प्रतीति है, मेरा अनुभव है। और मजा यह है कि मैं उनसे वह कह रहा हूं जो कि शास्त्रों की अंतर्निहित आत्मा है। मगर शास्त्रों के शब्द मैं उपयोग नहीं कर रहा हूं। शब्द तो पुराने पड़ गए। शब्द तो बदल दिए जाने चाहिए। अब तो हमें नये शब्द खोजने होंगे। हर सदी को अपने शब्द खोजने होते हैं। हर सदी को अपने धर्म के लिए पुन:-पुन: अवतार देना होता है। हर सदी को अपनी अभिव्यक्ति खोजनी होती है।
तो मैं वही कह रहा हूं जो बुद्ध ने कहा, कृष्ण ने कहा, मोहम्मद ने कहा, जीसस ने कहा; लेकिन अपने ढंग से कह रहा हूं। मैं बीसवीं सदी का आदमी हूं। मैं चाहूं भी तो कृष्ण की भाषा नहीं बोल सकता। कृष्ण की भाषा अब किसी अर्थ की भी नहीं है। सार्थक थी उस दिन जिस दिन अर्जुन से कृष्ण बोले थे। आज न तो अर्जुन है, न कुरुक्षेत्र है, न महाभारत हो रहा है। आज कृष्ण की गीता पर अगर कुछ कहना भी हो तो बीसवीं सदी की भाषा में कहना होगा। और तुम्हारी आदत शब्दों को पकडऩे की है, आत्मा को पहचानने की नहीं।
तो भीड़ मेरे नये शब्दों से परेशान है, मेरी नई दृष्टि से परेशान है। जो समझ सकते हैं, वे तो तत्क्षण पहचान लेते हैं कि मैं वही कह रहा हूं जो सदा कहा गया है। भाषा भिन्न है, भाव भिन्न नहीं है। अभिव्यंजना भिन्न है। शायद मेरा वाद्य भिन्न है, मगर जो गीत मैं गा रहा हूं वह शाश्वत का गीत है, सनातन गीत है। उसके अतिरिक्त कोई गीत ही नहीं है। मैं तो हूं भी नहीं, परमात्मा जो गा रहा है उसे ही बिना बाधा डाले तुम तक पहुंच जाने दे रहा हूं। मगर भीड़ की अपनी आदतें हैं।
जो कारागृहों में रहने के आदी हो गए हैं, उन्हें मुक्त करना आसान नहीं। जो अंधविश्वासों में जीने के आदी हो गए हैं, उनको उनके बाहर लाना आसान नहीं। जिन्होंने कुछ पक्षपात निर्मित कर लिए हैं, पक्षपात ही जिनके प्राण बन गए हैं, उनसे उनके पक्षपात छीनना आसान नहीं। मेरे हाथ लहूलुहान होंगे।
-अनिल जैन
पूरे 97 बरस तक जीने के बाद राम जेठमलानी दो साल पहले 8 सितंबर को ही अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर खर्च हो गए थे।
देश के सबसे वरिष्ठ, सबसे महंगे, सबसे मुंहफट, सबसे चर्चित और सबसे विवादास्पद वकील के तौर पर जाने गए राम जेठमलानी देश के न्यायिक इतिहास में एकमात्र ऐसे वकील रहे जिन्होंने महज 17 साल की उम्र में एलएलबी की डिग्री लेकर वकालत की सनद हासिल की थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे बचपन में भी कितने प्रतिभाशाली रहे होंगे।
जिस समय उन्होंने एलएलबी पास की थी, उस समय वकालत शुरू करने के लिए 21 साल की उम्र जरूरी थी, मगर जेठमलानी के लिए एक विशेष प्रस्ताव पारित कर 18 साल की उम्र में प्रैक्टिस करने की इजाजत दी गई थी।
उन्होंने वकालत के अपने 80 साल के करियर में कई दुर्दांत नामी-गिरामी लोगों के मुकदमे लड़े। इन नामी-गिरामी लोगों में हत्यारे आतंकवादियों, भ्रष्ट और दंगाखोर नेताओं, बलात्कारी बाबाओं, तस्करों, बेईमान और घोटालेबाज कारोबारियों-उद्योगपतियों आदि का शुमार था।
वे बेहद महंगे वकील थे और लाखों में फीस होती थी उनकी। लेकिन कुछ नेताओं से उन्होंने पैसे के बजाय राज्यसभा की सदस्यता के रूप में फीस वसूली। जिन नेताओं से उन्होंने उनके मुकदमे लडऩे की एवज में राज्यसभा की सदस्यता वसूली उनमें नरेंद्र मोदी, लालू प्रसाद, बाल ठाकरे और जयललिता शामिल रहे।
जेठमलानी के जीवन का सबसे चमकदार और सार्थक मुकदमा रहा मंडल आयोग की सिफारिशों से संबंधित, जिसमें उन्होंने बिहार सरकार के वकील की हैसियत से सुप्रीम कोर्ट में त्रावणकोर के राजा के एक दस्तावेज के जरिए साबित किया कि वर्ग ही जाति है और जाति ही वर्ग है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के वीपी सिंह सरकार के फैसले को सही माना। उस फैसले के कारण पिछड़ी जातियों के करोड़ों लोगों को लोगों को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में फायदा मिला और भारतीय राजनीति का व्याकरण भी बदला।
मेरी उनसे दो बार प्रत्यक्ष मुलाकात हुई उनके सरकारी आवास पर। एक मुलाकात के दौरान मैंने उनसे उनकी फिटनेस का राज पूछा तो उन्होंने बताया कि वे सुबह-शाम नियमित रूप से बैडमिंटन खेलते हैं, शाम के वक्त नियंत्रित मात्रा में रसरंजन (विदेशी) करते हैं और खाना बहुत कम खाते हैं।
राम जेठमलानी अपने मुंहफट अंदाज और अक्खड़ मिजाज के लिए भी खूब मशहूर रहे। एक हाई कोर्ट में किसी मुकदमे की पैरवी करते हुए उन्होंने बहस के दौरान जज को कुछ समझाने की कोशिश की। उनकी यह कोशिश जज साहब को अपनी शान में गुस्ताखी लगी। शायद बोबड़े साहब टाइप जज रहे होंगे।
जज साहब शायद जेठमलानी के इतिहास और मिजाज से भली भांति परिचित नहीं थे, सो उन्होंने अपनी जज वाली ठसक में जेठमलानी से कह दिया कि अब आप मुझे कानून समझाएंगे! जेठमलानी ने हडक़ाने के अंदाज में कहा कि बिल्कुल, मेरा काम ही जज को कानून की बारीकियां समझाना है। फिर उन्होंने जज से उनकी उम्र पूछी और कहा कि जितनी आपकी उम्र है उससे ज्यादा साल हो गए है मुझे प्रैक्टिस करते हुए। बेचारा जज....!
गोगोई, मिश्र और बोबड़े टाइप के जजों की खुशनसीबी रही कि उनका जेठमलानी से ज्यादा सामना नहीं हुआ।
जेठमलानी ने अपनी राजनीति की शुरुआत जनसंघ से की थी और कुछ साल उन्होंने भाजपा में भी बिताए, लेकिन अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्होंने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का मुखर विरोध किया।
-हिमांशु दुबे
आजकल राजनीतिक गलियारों में हरियाणा विधानसभा चुनाव की ख़ूब चर्चा है। राज्य की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति बनाने में व्यस्त हैं।
एक तरफ़ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में गठबंधन की चर्चा है। तो दूसरी ओर बीजेपी अकेले विधानसभा चुनाव लड़ेगी, क्योंकि दुष्यंत चौटाला की जेजेपी यानी जन नायक जनता पार्टी बीजेपी का साथ छोड़ चुकी है। जेजेपी ने अब चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के साथ गठबंधन किया है।
विधानसभा चुनाव में जेजेपी 70 सीटों पर जबकि आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस बीच बीजेपी ने विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दी है। इसमें 67 उम्मीदवारों के नाम हैं।
लेकिन टिकट बंटवारे के बाद से ही बीजेपी के कुछ नेता नाराजग़ी जता रहे हैं तो कुछ ने इस्तीफ़ा भी दे दिया है। चुनाव से ठीक पहले बीजेपी के लिए ये आंतरिक संकट कितनी बड़ी मुसीबत बन सकता है?
बीजेपी ने इस बार किसका टिकट काटा?
बीजेपी की सूची के मुताबिक़ राज्य के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी लाडवा से चुनाव लड़ेंगे, जो कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र में आता है। जबकि राज्य में बीजेपी के वरिष्ठ नेता अनिल विज को अंबाला कैंट से टिकट मिला है।
इसी सूची में बीजेपी ने मौजूदा 9 विधायकों को टिकट नहीं दिया है।
इनमें पलवल से दीपक मंगला, फरीदाबाद से नरेंद्र गुप्ता, गुरुग्राम से सुधीर सिंगला, बवानी खेड़ा से विशम्भर वाल्मीकि, रनिया से रणजीत चौटाला, अटेली से सीताराम यादव, पेहोवा से संदीप सिंह, सोहना से संजय सिंह और रतिया से लक्ष्मण नापा के नाम शामिल हैं।
हरियाणा की रनिया विधानसभा से बीजेपी ने हरियाणा सरकार के कैबिनेट मंत्री रणजीत सिंह चौटाला की जगह शीशपाल कंबोज को टिकट दिया है।
इस बात से नाराज़ होकर कैबिनेट मंत्री रणजीत सिंह चौटाला ने इस्तीफ़ा दे दिया है।
विधायक लक्ष्मण नापा ने भी बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया है। इसकी वजह रतिया विधानसभा से सुनीता दुग्गल को टिकट देना बताया जा रहा है।
उनके अलावा, हरियाणा बीजेपी किसान मोर्चा के अध्यक्ष सुखवीर श्योराण, सोनीपत से बीजेपी युवा कार्यकारिणी सदस्य एवं विधानसभा चुनाव प्रभारी अमित जैन, वरिष्ठ नेता शमशेर गिल और हरियाणा में ओबीसी मोर्चा के प्रमुख रहे करणदेव कंबोज ने भी पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया।
उन्होंने कहा, मैं और मेरा परिवार जनसंघ के ज़माने से बीजेपी में रहे हैं। अब यहां कांग्रेस की संस्कृति हावी हो रही है। मैंने पाँच साल तक ओबीसी समुदाय को बीजेपी से जोडऩे की कोशिश की, लेकिन मेरी जगह किसी और को टिकट दिया गया। यह बाक़ी पार्टी वर्करों के साथ धोखा है। हम इसका विरोध करेंगे। कांग्रेस यहां सरकार बनाएगी और बीजेपी का सपना, सपना ही रहेगा।
दिलचस्प ये भी है कि बीजेपी की पहली सूची से उसके अपने नाराज़ हैं लेकिन दूसरी तरफ़ लिस्ट में जेजेपी के तीन पूर्व विधायकों को टिकट दिया गया है। इनमें देवेंद्र सिंह बबली, राम कुमार गौतम और अनूप धानक शामिल हैं।
पार्टी ने देवेंद्र सिंह बबली को टोहाना, अनूप धानक को उकलाना से और राम कुमार गौतम को सफीदों से टिकट दिया है।
हालांकि, बीजेपी फिलहाल इस नाराजग़ी को बहुत बड़ा मानती नहीं दिख रही है।
बीजेपी हरियाणा के मीडिया प्रभारी अरविंद सैनी ने टिकट बँटवारे को लेकर स्थानीय नेताओं की नाराजग़ी को लेकर कहा, चुनावी माहौल में क्षणिक नाराजग़ी हो जाती है। बीजेपी का कार्यकर्ता समर्पित भाव से राज्य में तीसरी बार सरकार बनाने के लिए जुटा हुआ है।
हरियाणा में बीजेपी के प्रति किसानों की नाराजग़ी के मामले पर सैनी ने कहा, भाजपा से ज़्यादा किसान हितैषी पार्टी कोई दूसरी नहीं हो सकती है। हरियाणा पहला राज्य है, जहां सूबे में होने वाली सभी 24 फ़सलों पर एमएसपी दी जा रही है। पहले 14 फ़सलों पर दी जा रही थी। अब 24 पर दी जा रही है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बता दें कि वो किन-किन राज्यों में ऐसा कर रहे हैं?
सैनी ने कहा, 2014 में हरियाणा में हमने सरकार बनाई क्योंकि, किसान हमसे खुश थे। 2019 में हमने सरकार बनाई, क्योंकि किसान हमसे खुश थे। और अब 2024 में भी हम सरकार बनाएंगे। हमने पूरे दस साल पूरी पारदर्शिता के साथ काम किया है। हमने युवाओं, महिलाओं, किसानों सभी के लिए काम किया है।
बीजेपी की चुनौती क्या है?
जानकारों के मुताबिक हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए तीन मुद्दे मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
पहला- किसानों की नाराजग़ी। दूसरा- महिला पहलवानों के मामले में बढ़ा असंतोष और तीसरा- सत्ता विरोधी लहर।
वरिष्ठ पत्रकार सूर्यनारायण मिश्रा कहते हैं, किसानों और किसान आंदोलन को लेकर दिया गया कंगना रनौत का बयान हो या महिला पहलवानों का मुद्दा, इन दोनों ही मामलों को लेकर बीजेपी को लोगों की नाराजग़ी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, स्थानीय जनता हो या किसान, दोनों में केंद्र के रवैये को लेकर ज़्यादा नाराजग़ी है। पिछले कुछ वर्षों में आप देखें तो केंद्र ने इस नाराजग़ी को दूर करने को लेकर कोई विशेष प्रयास नहीं किए हैं। ऐसे में निश्चित रूप से इसका असर चुनाव पर दिखेगा। क्योंकि, हरियाणा में सबसे बड़ा वर्ग किसान है।
फि़ल्म अभिनेत्री और हिमाचल प्रदेश की मंडी सीट से बीजेपी सांसद कंगना रनौत ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान बांग्लादेश में हुए आंदोलन को भारत के किसान आंदोलन से जोड़ दिया था।
कंगना ने कहा था, जो बांग्लादेश में हुआ है, वो यहाँ (भारत में) होते हुए भी देर नहीं लगती, अगर हमारा शीर्ष नेतृत्व सशक्त नहीं होता।यहाँ पर जो किसान आंदोलन हुए, वहाँ पर लाशें लटकी थीं, वहाँ रेप हो रहे थे, किसानों की बड़ी लंबी प्लानिंग थी, जैसे बांग्लादेश में हुआ। चीन, अमेरिका, इस तरह की विदेशी शक्तियाँ यहां काम कर रही हैं। हालांकि, बीजेपी ने कंगना रनौत के इस बयान से किनारा कर लिया था।
बीजेपी ने कहा था, बीजेपी, कंगना रनौत के बयान से असहमति व्यक्त करती है। पार्टी की ओर से, पार्टी के नीतिगत विषयों पर बोलने के लिए कंगना रनौत को न अनुमति है और न वे बयान देने के लिए अधिकृत हैं। भारतीय जनता पार्टी की ओर से कंगना रनौत को निर्देशित किया गया है कि वे इस प्रकार के कोई बयान भविष्य में न दें।
भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर पिछले साल की शुरुआत में महिला पहलवानों ने यौन शोषण समेत कई गंभीर आरोप लगाए गए थे। पहलवानों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन भी किया था।
यह विरोध-प्रदर्शन चर्चित पहलवान बजरंग पुनिया, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक की अगुवाई में शुरू हुआ था। कुछ खिलाड़ी, खाप पंचायत, किसान संगठनों और विपक्षी पार्टियों ने पहलवानों का समर्थन भी किया था।
फि़लहाल यह मामला न्यायालय में है। इस बीच बजरंग पुनिया और विनेश फोगाट ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है और अब उनके हरियाणा विधानसभा चुनाव लडऩे की भी चर्चा है।
हाल ही में बजरंग पुनिया और विनेश फोगाट की कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मुलाक़ात की तस्वीर सामने आई थी। इसके बाद दोनों के कांग्रेस की ओर से चुनाव लडऩे की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है।
मगर, क्या हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा?
इस पर वरिष्ठ पत्रकार सूर्यनारायण मिश्रा कहते हैं, दस साल सत्ता में रहने के बाद थोड़ा बहुत एंटी-इनकम्बेंसी का माहौल हर सरकार के साथ रहता है। ऐसे में बीजेपी के लिए भी ये चुनौती वैसी ही रहने वाली है।
लेकिन बीजेपी के अलावा बाकी पार्टियों के लिए हरियाणा विधानसभा चुनाव में क्या संभावनाएं बनती दिख रही हैं?
इस पर सूर्यनारायण मिश्रा ने कहा, जेजेपी हो या इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी), दोनों ही पार्टियां इस बार भी किंगमेकर की भूमिका में नजऱ आ सकती हैं। जहां तक सवाल मायावती की बहुजन समाज पार्टी या चंद्र शेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) का है, तो मुझे नहीं लगता है कि दोनों पार्टियां कोई बहुत बड़ा उलटफेर करने में सफल हो पाएंगी। कुल मिलाकर ये चुनाव मुख्य तौर पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही लड़ा जाने वाला है।
उन्होंने कहा, जहां तक सवाल आम आदमी पार्टी का है, तो आपको यह बात मानना पड़ेगी कि दिल्ली-पंजाब और हरियाणा में फिलहाल आम आदमी पार्टी के वोट बैंक को नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन होता है तो ये दोनों पार्टियों के लिए फायदेमंद ही होगा।
हरियाणा में बीजेपी पिछले 10 सालों से सत्ता में है। साल 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रदेश की 90 सीटों में से 47 सीटें जीतकर बहुमत की सरकार बनाई थीं।
तब आईएनएलडी यानी इंडियन नेशनल लोकदल ने 19 और कांग्रेस ने 15 सीटें जीती थीं। साल 2019 में बीजेपी ने दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी।
इस चुनाव में बीजेपी केवल 40 सीटें जीत पाई थी। तब 10 सीटें जीतने वाली जेजेपी के साथ बीजेपी ने गठबंधन सरकार बनाई थी।
साल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस ने पाँच-पाँच सीटें जीती थीं। हालांकि बीजेपी ने सूबे की सारी 10 सीटें जीतने का दावा किया था।
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। इसे बीजेपी की मौजूगा सरकार के ख़िलाफ़ लहर का संकेत माना जा रहा है।
विनेश फोगाट कितना बड़ा फ़ैक्टर?
जानकारों का कहना है कि एक बीजेपी नेता के ख़िलाफ़ सडक़ पर उतरकर विरोध प्रदर्शन कर चुकी और ओलंपिक के फाइनल तक पहुंच चुकीं विनेश और ओलंपिक में ब्रॉन्ज़ मेडल जीत चुके बजरंग पुनिया के कांग्रेस में शामिल होने से चुनाव और दिलचस्प हो गया है।
एआईसीसी मुख्यालय में समारोह के बाद हरियाणा कांग्रेस के प्रभारी दीपक बाबरिया ने संकेत दिए हैं विनेश फोगाट जुलाना से कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ सकती हैं। इसके बाद शाम को कांग्रेस की ओर जारी एक बयान में कहा गया कि बजरंग पुनिया को अखिल भारतीय किसान सभा का चेयरमैन बनाया जा रहा है।
विनेश फोगाट का चुनाव लडऩा बीजेपी के लिए कितनी बड़ी चुनौती हो सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त अत्री ने बीबीसी हिंदी के दिनभर कार्यक्रम में कहा, हरियाणा के संदर्भ में और देश के संदर्भ में, विनेश एक बहुत बड़ा नाम हैं। वो एक सेलिब्रिटी हैं। ओलंपिक के फाइनल तक पहुंचने वाली पहली महिला पहलवान और विश्व चैंपियन को हराया था।
हरियाणा में एक आइकन हैं। वो पहलवान हैं, महिला हैं, जवान हैं और साथ ही उन्होंने जो संघर्ष किया है, इससे उनका रुतबा बढ़ गया है। जब वो सात साल की थीं तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। वो ग्रामीण परिवार से आती हैं और हालात से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ीं हैं।
हेमंत अत्री का कहना है, उनके पक्ष में एक तरफ ये बात है कि वो महिला हैं, युवा हैं और पहलवान हैं लेकिन जिस तरह की उनकी उपलब्धि है वैसी किसी और खिलाड़ी की नहीं है। दूसरी बात जो उनके पक्ष में जाती है वो उनका मानवीय पक्ष।
हेमन्त अत्री ने कहा, उनके साथ कुश्ती महासंघ में कोई परेशानी नहीं हुई थी लेकिन उन्होंने युवा खिलाडिय़ों के लिए आवाज़ उठाई थी। वो दिल्ली के जंतर-मंतर पर 140 दिनों तक बैठी रहीं, उसके बाद किसानों के साथ जाकर विरोध में शामिल हुईं। इस तरह वो हरियाणा के मुख्य मुद्दों- युवा, खेती-किसान और महिलाओं के जुड़ती हैं।
वो संघर्ष की प्रतीक हैं और जब वो इस तरह के मुद्दों को उठाएंगी तो उन्हें सुना जाएगा। बीजेपी के खेमे में भी पहलवान बबीता फोगाट हैं, उन्हें क्यों टिकट नहीं देते। बीजेपी के लिए मुश्किल होगा क्योंकि विनेश से जूझना उनके सामने बड़ी मुश्किल हो सकती है।
बीजेपी को किस बात का फ़ायदा मिल सकता है?
हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में गठबंधन की चर्चा है। लेकिन हरियाणा कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने इसे लेकर नाराजग़ी जताई है।
अगर हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस स्थानीय नेताओं की नाराजग़ी को नहीं दूर कर पाती है, तो इसका फ़ायदा बीजेपी को मिल सकता है।
हालांकि अभी बीजेपी को अपने नेताओं की नाराजग़ी का सामना करना पड़ रहा है।
वहीं, दुष्यंत चौटाला की जन नायक जनता पार्टी और चंद्र शेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के गठबंधन से भी वोट बँटने की आशंका बनी रहेगी। इसका फ़ायदा बीजेपी को मिल सकता है।
हरियाणा विधानसभा चुनाव में 90 सीटों के लिए पाँच अक्तूबर को एक चरण में मतदान होगा। वोटों की गिनती आठ अक्तूबर को होगी। (बीबीसी)
फ्रांस में संसदीय चुनाव के दो महीने बाद राष्ट्रपति माक्रों ने दक्षिणपंथी दल के नेता मिशेल बार्निए को पीएम चुना है. वाम धड़े के विरोध के बाद अब सरकार बनाने की चाबी मरीन ले पेन की धुर-दक्षिणपंथी पार्टी के पास है.
फ्रांस में करीब दो महीने से जारी राजनीतिक गतिरोध, ऊहापोह और लंबी बातचीत के बाद आखिरकार देश को नया प्रधानमंत्री मिल गया। राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने मिशेल बार्निए को पीएम नियुक्त किया है। 73 साल के बार्निए 1958 में ‘फिफ्थ रिपब्लिक’ के गठन से अबतक के सबसे उम्रदराज प्रधानमंत्री हैं। बार्निए प्रधानमंत्री पद पर जिन गैब्रिएल अताल की जगह ले रहे हैं, उनकी उम्र 35 साल है और वह आधुनिक फ्रांस के सबसे युवा पीएम थे।
पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में मौजूद फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों। पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में मौजूद फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों।
लंबा राजनीतिक करियर रहा है बार्निए का
बार्निए ने ‘बदलाव’ लाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह आम फ्रेंच लोगों की समस्याओं पर ध्यान देंगे। उन्होंने कहा कि आम लोगों की परेशानियों, गुस्से और चुनौतियों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना भी उनकी सरकार की प्राथमिकताओं में होगा। उन्होंने शिक्षा, सुरक्षा और ‘इमिग्रेशन पर नियंत्रण’ को अपने प्रमुख लक्ष्यों में गिनाया।
पीएम बार्निए दक्षिणपंथी रिपब्लिकन्स पार्टी के नेता हैं। उनके पास दशकों का राजनीतिक अनुभव है। वह 22 साल की उम्र में बतौर काउंसिलर चुने गए और 1978 में संसद के सबसे युवा सदस्य बने। वह फ्रांस में कैबिनेट मंत्री रहे हैं। विदेश मंत्रालय के अलावा वह पर्यावरण मंत्रालय, यूरोपीय मामलों का मंत्रालय और कृषि मंत्रालय भी संभाल चुके हैं।
ब्रेक्जिट (ब्रिटेन का यूरोपीय संघ छोडऩा) से जुड़ी बातचीत के समय वह ईयू के प्रमुख वार्ताकार थे। उन्हें जुलाई 2016 में ईयू के ‘आर्टिकल 50 टास्क फोर्स’ का प्रमुख बनाया गया था। ईयू का आर्टिकल 50, किसी सदस्य देश के ब्लॉक छोडक़र जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। बार्निए दो बार यूरोपीय आयोग में कमिश्नर भी रहे हैं। बतौर कमिश्नर उन्होंने क्षेत्रीय नीति की जिम्मेदारी संभाली।
बार्निए के आगे अब विश्वासमत हासिल करने की चुनौती है। उन्होंने कहा है कि समर्थन जुटाने और सहमति बनाने के लिए वह अलग-अलग राजनीतिक धड़ों से मुलाकात करेंगे।
फ्रांस के चुनाव में किसी को नहीं मिला था बहुमत
दो महीने पहले जुलाई में फ्रांस में मध्यावधि चुनाव हुए। तीनों राजनीतिक धड़ों (सेंटर, लेफ्ट और फार-राइट) में से किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। 577 सीटों की नेशनल असेंबली में ‘न्यू पॉपुलर फ्रंट’ को सबसे ज्यादा 188 सीटें मिलीं। यह चार पार्टियों का लेफ्ट-ग्रीन गठबंधन है।
हालांकि, बहुमत के लिए कम-से-कम 289 सीटों की जरूरत है। माक्रों के इन्सैंबल (ईएनएस) गठबंधन को 161 सीटें और धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली अलायंस (आरएन) को 142 सीटें मिलीं।
सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर भी लेफ्ट-विंग गठबंधन के उम्मीदवार के नाम पर सहमति नहीं बनी। वाम मोर्चे ने बार्निए के चुनाव से निराशा जताई है। उसने कहा है कि वह अविश्वास प्रस्ताव लाएगा। इस गठबंधन में चार घटक दल हैं- एलएफआई, सोशलिस्ट पार्टी (पीएस), फ्रेंच ग्रीन पार्टी (एलई-ईईएलवी) और फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी (पीएसएफ)।
फ्रांस में वामपंथी गठबंधन ने जीतीं सबसे ज्यादा सीटें
वाम मोर्चे ने लूसी कैस्ते को प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार बनाया था। वह एक वरिष्ठ वित्तीय अधिकारी और फाइनैंशल क्राइम के मामलों की विशेषज्ञ हैं। राष्ट्रपति माक्रों ने उन्हें नियुक्त करने से इनकार कर दिया। माक्रों ने आशंका जताई कि कैस्ते पर सहमति नहीं बनेगी और अगर उनके नेतृत्व में सरकार गठित हुई, तो उसे जरूरी बहुमत नहीं मिलेगा।
बार्निए को नामित किए जाने पर निराशा जताते हुए कैस्ते ने समाचार चैनल आरटीएल से कहा, ‘मैं बहुत गुस्से में हूं, उन लाखों फ्रांसीसी मतदाताओं की तरह जो कि मेरे विचार में अपने साथ धोखा महसूस कर रहे हैं।’ कैस्ते ने माक्रों पर आरोप लगाया कि वह धुर-दक्षिणपंथी राजनीति से जुड़ी पार्टी नैशनल रैली (आरएन) के साथ हो रहे हैं।
यूरोपीय आयोग में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते मिशेल बार्निए। यह तस्वीर दिसंबर 2017 की है। यूरोपीय आयोग में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते मिशेल बार्निए। यह तस्वीर दिसंबर 2017 की है।
क्या बार्निए को समर्थन देगी मरीन ले पेन की आरएन पार्टी?
इस घटनाक्रम के कारण मरीन ले पेन की पार्टी आरएन असली किंगमेकर बन सकती है। खबरों के मुताबिक, राष्ट्रपति माक्रों अब आरएन से उम्मीद कर रहे हैं कि वह वाम धड़े के प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग कर बार्निए को बचा लें। आरएन ने कहा है कि वह इंतजार कर रही है कि अपने पहले संबोधन में बार्निए संसद के आगे किन नीतिगत योजनाओं की रूपरेखा रखते हैं। इसके बाद ही वह फैसला करेगी कि बार्निए की सरकार को समर्थन देना है या विरोध करना है। हालांकि, ले पेन ने यह भी स्पष्ट किया कि समर्थन देने की स्थिति में भी आरएन नई कैबिनेट का हिस्सा नहीं होगी।
बार्निए दक्षिणपंथी सदस्यों के बीच खासे लोकप्रिय बताए जाते हैं। आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति माक्रों लगातार खुद को यूं पेश करते रहे कि वह धुर-दक्षिणपंथ के सत्ता में पहुंचने की राह में दीवार हैं। अब उन्होंने बार्निए को चुनकर मरीन ले पेन को किंगमेकर बनने का अवसर दे दिया है। फ्रेंच अखबार ‘ले मोंद’ ने बार्निए को ऐसा प्रधानमंत्री बताया है, ‘जो आरएन की निगरानी में रहेंगे।’ अखबार ने अपने फ्रंट पेज पर बार्निए की तस्वीर डालकर लिखा, ‘मरीन ले पेन द्वारा मंजूर।’
जानकारों की राय में, आरएन बार्निए के खिलाफ वोट नहीं करेगी। ले मोंद के अनुसार, पार्टी की नेता ले पेन ने सकारात्मक संकेत देते हुए बार्निए को बातचीत करने वाली शख्सियत बताया और कहा कि उन्होंने कभी आरएन के बारे में ‘अपमानजनक’ बातें नहीं कहीं। उन्होंने बार्निए को बतौर प्रधानमंत्री ‘मौका देने’ का रुझान दिखाते हुए यह भी कहा कि उनकी पार्टी ने उम्मीदवार के लिए जो पहली पात्रता रखी थी कि वह ‘अलग-अलग राजनीतिक धड़ों के प्रति सम्मान रखता हो’ और बार्निए इस शर्त को पूरा करते हैं। (dw.comhi)
शेख हसीना के हाथ से बांग्लादेश की सत्ता निकले एक महीना हो गया है।
बीते दिनों ऐसे कई वाकय़े रहे, जिसमें बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार समेत अहम पक्षों ने पाकिस्तान और चीन से रिश्ते मज़बूत करने के संकेत दिए हैं।
एक महीने पहले तक जो बांग्लादेश भारत के करीब था, वो अब चीन और पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की वकालत कर रहा है। बांग्लादेश में पाकिस्तान के उच्चायुक्त सैय्यद अहमद ने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मंत्री नाहिद इस्लाम से एक सितंबर को मुलाकात की थी।
अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाईम्स ने एक अधिकारी के हवाले से अपनी रिपोर्ट में कहा है कि नाहिद इस्लाम ने इस मुलाकात में पाकिस्तान के साथ 1971 का मसला सुलझाने की बात की। दोनों देशों के बीच बीते सालों में 1971 की लड़ाई एक अहम मुद्दा रही है।
इससे पहले 30 अगस्त को पाकिस्तानी पीएम शहबाज शरीफ ने अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस से बात की थी।
चीन की पहल
1971 में पूर्वी पाकिस्तान जंग के बाद पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना था। बांग्लादेश के बनने में भारत की अहम भूमिका थी। वहीं चीन बांग्लादेश बनाए जाने के खिलाफ था।
मगर अब बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार चीन की ओर कदम बढ़ाती दिख रही है।
कुछ दिन पहले ही बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी पर लगी पाबंदी हटाई गई थी। जमात-ए-इस्लामी पर शेख़ हसीना सरकार ने 2013 में पाबंदी लगाई थी।
जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी है। इस पार्टी का छात्र संगठन काफ़ी मज़बूत है। जिस आंदोलन के बाद शेख़ हसीना की सत्ता गई, उसमें इस संगठन के छात्रों की भूमिका अहम रही है।
इस पर देश में हिंसा और चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं।
भारत में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जमात पर बांग्लादेश में हिन्दू विरोधी दंगे भडक़ाने का भी आरोप लगा था। जमात-ए-इस्लामी की छवि भारत विरोधी मानी जाती है।
जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख शफीक-उर रहमान ने बीते दिनों कहा था- भारत ने अतीत में कुछ ऐसे काम किए हैं जो बांग्लादेश के लोगों को पसंद नहीं आए।
शफीक-उर रहमान ने बांग्लादेश में हाल ही में आई बाढ़ के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया था।
रहमान ने कहा था, ‘बांग्लादेश को अतीत का बोझ पीछे छोडक़र अमेरिका, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ मज़बूत और संतुलित संबंध बनाए रखना चाहिए।’
शेख़ हसीना का हटना चीन के लिए मौका?
ऐसे में पाबंदी हटने के बाद जमात-ए-इस्लामी के नेताओं से चीनी राजदूत ने मुलाक़ात की।
चीनी राजदूत याओ वेन ने कहा, ‘चीन बांग्लादेश के साथ अच्छे रिश्ते बनाना चाहता है। चीन बांग्लादेश और बांग्लादेशियों का समर्थक है।’
शेख हसीना सरकार में बांग्लादेश का झुकाव चीन से ज़्यादा भारत की तरफ रहा।
जुलाई महीने में शेख हसीना अपना चीन दौरा बीच में छोडक़र बांग्लादेश लौट आई थीं।
इसके बाद शेख हसीना ने कहा था कि तीस्ता परियोजना में भारत और चीन दोनों की दिलचस्पी थी लेकिन वह चाहती हैं कि इस परियोजना को भारत पूरा करे।
जाहिर है कि ये बात चीन को रास नहीं आई होगी।
कहा जा रहा है कि शेख हसीना का सत्ता से बाहर होना चीन और पाकिस्तान के लिए मौके की तरह है।
चीनी राजदूत और जमात नेताओं की मुलाकात को भी इसी रूप में देखा जा रहा है।
विशेषज्ञों का क्या कहना है?
भारत के पूर्व विदेश सचिव और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कंवल सिब्बल ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘चीन ने बांग्लादेश बनने का विरोध किया था। चीन ने सबसे आखऱि में बांग्लादेश को मान्यता दी।’
सिब्बल लिखते हैं, ‘जमात ने भी बांग्लादेश बनने का विरोध किया था। चीन का बांग्लादेशियों का समर्थन करने की बात खोखली है। चीन अपने देश में बांग्लादेश जैसे प्रदर्शन के बाद किसी तरह का सत्ता परिवर्तन नहीं चाहेगा। 1989 (तियानमेन स्क्वायर) को याद कर लीजिए। जमात भी चीनियों का समर्थन करता है सिवाय वीगर मुसलमानों के।’
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने भी सोशल मीडिया पर बांग्लादेश के बदलते रुख पर टिप्पणी की है।
चेलानी लिखते हैं, ‘बांग्लादेश में सेना की बनाई अंतरिम सरकार हिंसक इस्लामिस्ट को खुली छूट दे रही है। इनके पास कोई संवैधानिक अधिकार या बहुमत नहीं है। देश के चीफ जस्टिस और पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों को बाहर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट में एक अपील की गई। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को वापस लेने की बात कही गई, जिसके बाद संसद ने संशोधन कर केयरटेकर सरकार के विकल्प को ख़त्म किया था। इस फ़ैसले को सुनाने वाले चीफ जस्टिस के खिलाफ हत्या का झूठा मुक़दमा दर्ज किया गया।’
लेखक तसलीमा नसरीन बांग्लादेश से हैं, मगर अपनी किताबों से हुए विवादों के कारण वो सालों से बांग्लादेश लौट नहीं सकी हैं।
2011 से तसलीमा नसरीन भारत में हैं।
द मिंट की रिपोर्ट के मुताबिक- नसरीन ने कहा, ‘मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार के अंतर्गत हालात और बदतर होंगे। ज़मीन पर हालात भारत विरोधी, महिला विरोधी और लोकतंत्र विरोधी है।’
पाकिस्तान की राह पर बांग्लादेश?
शेख हसीना के दौर में बांग्लादेश और पाकिस्तान के संबंध अच्छे नहीं रहे थे। 2018 के चुनाव में पाकिस्तानी उच्चायोग पर बांग्लादेश के चुनावों में दखल देने के आरोप भी लगे थे।
पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने नई अंतरिम सरकार के सदस्यों से मुलाकात को अहम बताया और कई क्षेत्रों में सहयोग करने की बात कही।
द जापान टाइम्स वेबसाइट पर ब्रह्मा चेलानी ने दोनों देशों को लेकर एक लेख लिखा है।
चेलानी इस लेख में लिखते हैं, ‘2022 तक बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती दिख रही थी।
लेकिन आज हालात अलग हैं। बांग्लादेश ने आईएमएफ से तीन अरब डॉलर, वल्र्ड बैंक से 1.5 अरब डॉलर और एशियन डेवलपमेंट बैंक से एक अरब डॉलर की मांग की है। विकास के मामले में पाकिस्तान की तुलना में बांग्लादेश के हालात अलग रहे।’
चेलानी ने लिखा, ‘ऐसी कई घटनाएं हैं, जिसके आधार पर सवाल उठ रहा है कि क्या बांग्लादेश पाकिस्तान की राह पर चल सकता है- जहां अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है, जहां हिंसक घटनाएं होती रहती हैं। चुनावों में भी सेना की भूमिका रहती है। पाकिस्तान की ही तरह बांग्लादेश में सेना अहम भूमिका में आ गई है। सत्ता के पीछे आर्मी चीफ खड़े दिखते हैं।’
1971 युद्ध को लेकर बांग्लादेश पाकिस्तान से माफ़ी की मांग करता रहा है।
चेलानी कहते हैं- शेख हसीना की सेक्युलर सरकार में हिंसक धार्मिक समूहों पर कार्रवाई की गई। मगर अब हालात दूसरे हैं। अगर सही दिशा में कोशिशें नहीं की गईं तो बांग्लादेश पाकिस्तान का ही दूसरा रूप बन सकता है।
बांग्लादेश में जब सत्ता पलटी तो मुजीब-उर रहमान की मूर्तियों को नुकसान पहुंचाया गया।
बांग्लादेश के संस्थापक और शेख हसीना के पिता शेख़ मुजीब-उर रहमान पाकिस्तान को लेकर बहुत सख़्त रहे थे।
यहाँ तक कि शेख मुजीब-उर रहमान ने बांग्लादेश को मान्यता दिए बिना पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो (बाद में प्रधानमंत्री) से बात करने से इनकार कर दिया था।
पाकिस्तान भी शुरू में बांग्लादेश की आज़ादी को खारिज करता रहा।
बाद में पाकिस्तान के तेवर में अचानक परिवर्तन आया।
फऱवरी 1974 में ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस का समिट लाहौर में आयोजित हुआ। तब भुट्टो प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मुजीब-उर रहमान को भी औपचारिक आमंत्रण भेजा था।
पहले मुजीब ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन बाद में इसे स्वीकार कर लिया।
इस समिट के बाद भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच एक त्रिकोणीय समझौता हुआ। 1971 की जंग के बाद बाकी अड़चनों को सुलझाने के लिए तीनों देशों ने नौ अप्रैल, 1974 को समझौते पर हस्ताक्षर किए।
1974 में ही जुल्फिकार अली भुट्टो ने मान्यता की घोषणा करते हुए कहा था, ‘अल्लाह के लिए और इस देश के नागरिकों की ओर से हम बांग्लादेश को मान्यता देने की घोषणा करते हैं। एक प्रतिनिधिमंडल आएगा और हम सात करोड़ मुसलमानों की तरफ से उन्हें गले लगाएंगे।’
बांग्लादेश को मान्यता देने पर भुट्टो ने कहा था, ‘मैं ये नहीं कहता कि मुझे यह फैसला पसंद है। मैं ये नहीं कह सकता कि मेरा मन खुश है। यह कोई अच्छा दिन नहीं है लेकिन हम हकीकत को नहीं बदल सकते। बड़े देशों ने बांग्लादेश को मान्यता देने की सलाह दी लेकिन हम सुपरपावर और भारत के सामने नहीं झुके। लेकिन ये अहम वक्त है। जब मुस्लिम देश बैठक कर रहे हैं, तब हम नहीं कह सकते कि दबाव में हैं। ये हमारे विरोधी नहीं हैं, जो बांग्लादेश को मान्यता देने के लिए कह रहे हैं। ये हमारे दोस्त हैं, भाई हैं।’
इस बात के करीब 50 साल हो चुके हैं और अब शेख़ हसीना के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश एक दूसरे को गले लगाने की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। साथ में चीन भी खड़ा नजर आ रहा है और इस वजह से भी भारत की चिंताएं और बढ़ गई हैं। (bbc.com/hindi)
भारत में नेशनल मेडिकल कमीशन ने पाठ्यक्रम से जुड़े नए दिशानिर्देश जारी किए हैं. इस लेस्बियन और सोडोमी को यौन अपराध माना गया. हालांकि, क्वीयर और विकलांगता अधिकार समूहों के कड़े विरोध के बीच इसे वापस ले लिया गया है.
भारत में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने एमबीबीएस छात्रों के लिए योग्यता-आधारित चिकित्सा शिक्षा पाठ्यक्रम (सीबीएमई) की नई गाइडलाइंस जारी की हैं। 31 अगस्त को जारी किए गए नए दिशा-निर्देशों में ऐसे कुछ मुद्दों को शामिल किया गया है, जो मौजूदा दौर में एलजीबीटीक्यूए+ और महिलाओं के प्रति रूढि़वादी सोच को दर्शाते हैं। एनएमसी, मेडिकल के क्षेत्र में शिक्षा और शोध का शीर्ष नियामक है।
नई गाइडलाइंस के तहत, फॉरेंसिक मेडिसिन के पाठ्यक्रम में लेस्बियनिजम और सोडोमी को यौन अपराधों की श्रेणी में रखा गया है। दिशा-निर्देश संख्या एफएम 8.4 में व्यभिचार और अप्राकृतिक यौन अपराधों के तहत इन दोनों को शामिल किया गया है। साथ ही, वर्जिनिटी और हाइमन जैसे विषय भी फिर से पाठ्यक्रम में जुड़ गए हैं।
भारत के सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को मंजूरी देने से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अदालत के बाहर एलजीबीटीक्यू प्लस समुदाय के दो सदस्य एक-दूसरे का हाथ पकडक़र हौसला बढ़ाते हुए। भारत के सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को मंजूरी देने से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अदालत के बाहर एलजीबीटीक्यू प्लस समुदाय के दो सदस्य एक-दूसरे का हाथ पकडक़र हौसला बढ़ाते हुए।
इनके अलावा, विकलांगता से जुड़ी सात घंटे की ट्रेनिंग हटा दी गई है। लैंगिक पहचान और यौन रुझान के बीच का अंतर अब मनोरोग विज्ञान के मॉड्यूल में शामिल नहीं होगा। क्वीयर लोगों के बीच सहमति से होने वाले सेक्स को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है।
लैंगिक अधिकारों के लिए तैयार नहीं एनएमसी?
सीबीएमई पाठ्यक्रम पहली बार 2019 में आयोग ने लागू किया था। करीब पांच साल बाद नए बदलावों के साथ इसे दोबारा लाया गया है। कई जानकार, संस्थाएं और अधिकार समूह पाठ्यक्रम में रूढि़वादी पक्षों को शामिल किए जाने का विरोध कर रहे हैं। विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर सत्येंद्र सिंह और ‘ट्रांसजेंडर हेल्थ इन इंडिया’ के सीईओ जॉ। संजय शर्मा ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और एनएमसी को चि_ी लिखी है। इसमें नए दिशानिर्देशों को क्वीयर और विकलांगता विरोधी बताया गया है। आलोचक इन्हें ट्रांसजेंडर अधिकारों पर आए सुप्रीम कोर्ट के नालसा जजमेंट 2014 और ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन ऐक्ट 2019 की अवमानना भी बता रहे हैं।
समलैंगिक विवाह पर फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका
संजय शर्मा, ‘डॉक्टर्स विथ डिसेबिलिटीज’ नाम के संगठन से जुड़े हैं। पाठ्यक्रम में हुए ताजा बदलाव पर बात करते हुए उन्होंने डीडबल्यू हिन्दी से कहा, ये नई गाइडलाइंस हम डॉक्टरों के लिए भी एक चौंकाने वाली बात है। हम यह नहीं कह रहे कि आयोग उन बातों को शामिल करें, जो हम चाहते हैं। भारत में ट्रांसजेंडरों की सुरक्षा के लिए कानून है, विकलांग व्यक्तियों के लिए ऐक्ट है। आयोग बस उनका पालन करे, यह उसकी जिम्मेदारी भी है।
लैंगिक पहचानों पर अवैज्ञानिक और अपमानजनक रुख
संजय शर्मा ध्यान दिलाते हैं कि 2019 में जब पहली बार सीबीएमई आया, तब भी छात्रों और संबंधित पक्षों से कोई बात नहीं की गई थी। वह बताते हैं, इस मुद्दे के साथ सबसे अधिक छात्रों का हित जुड़ा हुआ है, लेकिन ना ही 2019 में उनसे बात की गई, ना ही 2024 में। ना ही इसे बनाने में क्वीयर समुदाय से किसी विशेषज्ञ को शामिल किया गया। मैं जानता हूं कि मेडकल कॉलेजों के छात्र भी इस नई गाइडलाइन के विरोध में हैं। ये मुद्दे हमारी निजी पसंद का मसला नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी हैं।
समलैंगिक रिश्तों को भी सुप्रीम कोर्ट ने दी परिवार की संज्ञा
इसपर डॉ. सत्येंद्र कहते हैं, उस वक्त भी आयोग ने कहा था कि ऐसी किताबों को शामिल ना किया जाए, जिसमें क्वीयर समुदाय के खिलाफ रूढि़वादी या अवैज्ञानिक बातें शामिल हैं। आयोग खुद क्यों नहीं ऐसा पाठ्यक्रम लाता है, जिसमें ये मुद्दे शामिल हों। ये नए निर्देश दिखाते हैं कि आयोग बदलावों को लेकर कितना कठोर है।
देश के कानून को नजरअंदाज करते हैं नए दिशा-निर्देश
लैंगिक पहचानों व अधिकारों से जुड़े पूर्वाग्रह और भ्रांतियां दूर करने के लिए सबसे बड़ा बदलाव तब आया था, जब 1973 में अमेरिकन साइकैट्री एसोसिएशन ने होमोसेक्शुअलिटी को मानसिक विकारों की सूची से हटाया। इसके बाद 1990 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को मानसिक बीमारियों की अंतरराष्ट्रीय सूची से हटाया।
मेडिकल पाठ्यक्रमों और इस क्षेत्र में क्वीयर समुदाय को लेकर मौजूद पूर्वाग्रह उनके स्वास्थ्य अधिकारों के लिए एक बड़ी रुकावट हैं। इसलिए ये कदम क्वीयर और वंचित समुदायों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने की दिशा में सबसे जरूरी माने गए। इसके बावजूद आज भी मेडिकल क्षेत्र पूरी तरह क्वीयर और दूसरे विविध पहचानों से आने वाले लोगों के लिए पूरी तरह समावेशी नहीं बन पाया है। यह क्षेत्र आज भी महिला और पुरुष की बाइनरी पर ही आधारित है।
भारत में ट्रांसजेंडर कर रहे अलग टॉयलेट की मांग
डॉ. संजय शर्मा कहते हैं, हमारा पूरा मेडिकल सिस्टम एक बाइनरी सिस्टम है। इसमें शामिल ज्यादातर लोग भी उसी महिला-पुरुष की बाइनरी वाली सोच रखते हैं। मेडिकल पाठ्यक्रमों में जेंडर और सेक्शुअलिटी से जुड़े मुद्दे शामिल नहीं हैं। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की जो नई गाइडलाइन आई है, उसे बनाने वाले लोगों ने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस शायद इसी बाइनरी वाली सोच के दायरे में की है। बदलते वक्त के साथ उन्होंने अपनी जानकारी को अपडेट नहीं किया। इन मुद्दों पर मेडिकल साइंस कितना आगे बढ़ चुका है, कितनी ही संवेदनशील और वैज्ञानिक जानकारियां हमारे आस-पास हैं।
हाइमन का कथित महत्व पढ़ाना महिला विरोधी
आयोग ने पाठ्यक्रम में वर्जिनटी और हाइमन के कथित महत्व को भी शामिल किया है। आयोग की गाइडलाइन में ‘डिफ्लोरेशन’ शब्द का भी इस्तेमाल किया गया है। ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर पहले से ही समाज में अवैज्ञानिक और रूढि़वादी सोच गहराई तक पैठी हुई है। कुआंरेपन को लेकर चले आ रहे अस्वस्थ और विकृत विचारों ने वर्जिनिटी टेस्ट की नींव भी रखी। कुआंरेपन की जांच को डब्ल्यूएचओ मानवाधिकार हनन मानता है। भारत समेत कई देशों में इस दकियानूसी अवधारणा पर रोक लगाने के लिए अदालतों ने फैसले सुनाए हैं।
सेक्स एजुकेशन : शादी की पहली रात से जुड़े भ्रम और अंधविश्वास
डॉ.संजय शर्मा इस दृष्टिकोण से भी नए दिशा-निर्देशों को मानवाधिकार हनन मानते हैं। वह कहते हैं, अगर कोई इस जमाने में भी ऐसी गाइडलाइंस बना रहा है, तो इसका साफ मतलब है कि उसे अपने देश के कानून के बारे में भी वहीं पता है। ना ही वे देश के कानून और संबंधित अधिनियमों का ध्यान रख रहे हैं, ना ही विज्ञान का। विज्ञान तो विविधिता में भरोसा करता है। ये दिशा-निर्देश राष्ट्रीय स्तर पर एक शर्म का विषय हैं।
डॉ.सत्येंद्र और डॉ. संजय, दोनों कहते हैं कि अगर एनएमसी ये दिशा-निर्देश वापस नहीं लेता, तो वे ‘वल्र्ड फेडेरेशन ऑफ मेडिकल एजुकेशन’ को भी चिट्ठी लिखेंगे। पाठ्यक्रम में जोड़ी जा रही संबंधित चीजें फेडरेशन के मानकों के खिलाफ भी हैं।
ऐसे में अगर एनएमसी ने सुधार नहीं किया, तो वे फेडरेशन से उसकी मान्यता रद्द करने की भी मांग करेंगे। (dw.com/hi)
बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण पाकिस्तान में बाल विवाह के मामले बढ़े हैं. गरीब परिवारों में माता-पिता पैसे लेकर नाबालिग लड़कियों की शादी कर रहे हैं. 2022 की भीषण बाढ़ के बाद ऐसे मामलों में तेजी आई है.
पाकिस्तान उन देशों में है, जहां बीते सालों में जलवायु संकट के कारण बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा ज्यादा भीषण और नियमित हुई हैं। चरम मौसमी घटनाओं का एक बड़ा खामियाजा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक, मॉनसून की तेज बारिश के बाद बाढ़ के डर के कारण यहां बाल विवाह के मामले बढ़ गए हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें माता-पिता ने गरीबी की वजह से पैसे लेकर अपनी नाबालिग बेटियों की शादी कर दी।
खुशहाल जिंदगी की उम्मीद में दोगुनी उम्र के आदमी से शादी
सिंध प्रांत के दादू जिले में रहने वाली 14 साल की शमीला और उनकी 13 वर्षीय बहन अमीना के साथ यही हुआ। बाढ़ के डर के बीच बारिश का मौसम शुरू होने से पहले ही माता-पिता ने शमीला और अमीना की शादी कर दी। उन्होंने यह फैसला परिवार को बाढ़ के समय आने वाली किल्लत से बचाने के लिए लिया था। उन्हें उम्मीद थी कि शमीला को अच्छी जिंदगी मिल सकेगी।
शमीला का पति उससे दोगुनी उम्र का है। वह कहती हैं, अपनी शादी की बात सुनकर मैं बहुत खुश थी। मुझे लगा, जिंदगी काफी आसान हो जाएगी। शमीला की यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। वह बताती हैं, मेरे पास कुछ बचा नहीं। और अब दोबारा बारिश का मौसम आ रहा है तो लग रहा है कि जितना है कहीं वो भी ना चला जाए।
शमीला की सास बीबी सचल ने बताया कि उन्होंने अपने बेटे की शादी के लिए शमीला के माता-पिता को दो लाख पाकिस्तानी रुपए दिए। यह बड़ी रकम है, खासकर ऐसे ग्रामीण क्षेत्र में जहां कई परिवार 80 रुपए के दैनिक खर्च में गुजारा करते हों।
2022 की भीषण बाढ़ का असर
यूनिसेफ के अनुसार, जलवायु संकट के कारण आ रही प्राकृतिक आपदाओं ने लड़कियों को भारी जोखिम में डाल दिया है। माशूक बरहमनी, गैर-सरकारी संगठन 'सजग संसार' के संस्थापक हैं। वह धार्मिक गुरुओं के साथ मिलकर बाल विवाह पर रोक लगाने और जागरूकता फैलाने का अभियान चलाते हैं। बरहमनी बताते हैं कि 2022 में आई भीषण बाढ़ के बाद दादू जिले के कई गांवों में बाल विवाह के मामले बढ़ गए हैं। एएएफपी से बातचीत में उन्होंने कहा, इस वजह (कुदरती आपदा) से लोग अपनी नाबालिग बच्चियों की शादियां करा रहे हैं। परिवारों को बस जिंदा रहने का साधन चाहिए होता है और इसमें पिसती हैं लड़कियां, जिनकी पैसों के बदले शादी कर दी जाती है।
साल 2022 में आई ऐतिहासिक बाढ़ में पाकिस्तान का एक तिहाई हिस्सा डूब गया। तीन करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। हजारों स्कूल, अस्पताल का नुकसान हुआ। बुनियादी ढांचे को बड़ी चोट पहुंची। दो साल बाद भी इस भीषण बाढ़ का असर महसूस किया जा रहा है। जानकारों के मुताबिक, इस त्रासदी के बाद खासतौर पर वंचित वर्गों के बीच आपदाओं का डर काफी बढ़ गया है।
दक्षिण एशिया में भारत की ही तरह पाकिस्तान में भी किसानों के लिए मॉनसून की बारिश बहुत अहमियत रखती है। जुलाई से सितंबर के बीच होने यह बारिश फसल की बुआई और सिंचाई के लिए बेहद अहम है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का मौसम लंबा और अप्रत्याशित होता जा रहा है। बेमौसम बरसात और मूसलधार बारिशें ज्यादा नियमित हो गई हैं। इसके कारण भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। कहीं बारिश के इंतजार में फसल सूख रही है, तो कहीं अतिवृष्टि के कारण फसल बेकार हो जाती है।
पाकिस्तान में बाल विवाह की क्या स्थिति
देश के अलग-अलग प्रांतों में शादी की न्यूनतम आयु से जुड़े नियम एक जैसे नहीं हैं। आमतौर पर यह आयुसीमा 16 से 18 साल के बीच है। जानकारों के मुताबिक, कानून को लागू करा पाना एक बड़ी चुनौती है। दिसंबर 2023 में आए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 18 साल से कम उम्र में शादी करने वाली लड़कियों की संख्या के मामले में पाकिस्तान दुनिया में छठे स्थान पर है।
पिछले कुछ समय से बाल विवाह के मामलों में गिरावट आई थी, लेकिन अब फिर से स्थितियां खराब हो रही हैं। मानवाधिकार समूहों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आ रही आपदाएं भी इस समस्या को बढ़ाने में योगदान दे रही हैं। नियाज अहमद चांडियो, दादू में बच्चों के अधिकारों से जुड़े एक गैर-सरकारी संगठन के संयोजक हैं। उन्होंने डीडबल्यू को बताया, पिछले एक साल के दौरान दादू में बाल विवाह के 45 मामले दर्ज किए गए हैं। मेरा मानना ??है कि ऐसे और भी दर्जनों मामले हो सकते हैं, जिनका अभी तक पंजीकरण ही नहीं हुआ है। शमीला और अमीना के खान मोहम्मद मल्लाह गांव में ही पिछले मॉनसून के बाद से अब तक करीब 45 नाबालिग लड़कियों की शादी हो चुकी है।
बाल विवाह बना परिवारों के जीने का साधन
65 साल के बुजुर्ग मई हजानि भी खान मोहम्मद मल्लाह गांव के निवासी हैं। 2022 की बाढ़ के बाद हालात और मानसिकता में कैसा बदलाव आया है, इसे रेखांकित करते हुए वह बताते हैं, 2022 की भारी बरसात से पहले तक किसी को भी अपनी छोटी लड़कियों की शादी करने की जल्दी नहीं थी। लड़कियां यहां खेती करती थीं, लकड़ी के बिस्तरों के लिए रस्सियां बुनती थीं। आदमी भी मछली पकडऩे और खेती करने में व्यस्त रहते थे। कुछ ना कुछ काम हमेशा होता ही था।
लोगों का कहना है कि अब उन्हें बेटियों को ब्याहने की जल्दी है। कई ग्रामीणों ने एएफपी को बताया कि आमतौर पर वे पैसे लेकर बेटियों की शादी कर देते हैं। इससे परिवार की भी आमदनी होती है और उन्हें लगता है, बेटियां भी गरीबी से निकल जाएंगी। ऐसे भी मामले सामने आएं हैं, जहां लड़क़े के परिवार ने शादी की रकम देने के लिए कर्ज लिया और फिर कर्ज चुकाने में नाकाम रहने पर लडक़ा पत्नी समेत अपनी ससुराल में रहने लगा।
नजमा अली और उनके पति की आपबीती ऐसी ही है। 2022 की बाढ़ के बाद माता-पिता ने महज 14 साल की उम्र में नजमा की शादी कर दी। शादी के समय नजमा काफी खुश थीं। वह बताती हैं, मेरे पति ने मेरे माता-पिता को ढाई लाख रुपए दिए, वो भी कर्ज लेकर। अब वह कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं। अपने छह महीने के बच्चे का पालना झुलाते हुए नजमा आगे कहती हैं, मैंने सोचा था कि मैं नए कपड़े लूंगी, लिपस्टिक लाऊंगी, नए बर्तन खरीदूंगी। लेकिन अब मैं वापस अपने माता-पिता के पास आ गई हूं, पति और बच्चे को लेकर।
जलवायु संकट के कारण रोजी-रोटी के लाले
नजमा, नैरा घाटी के एक गांव में रहती हैं। यह भी सिंध प्रांत का इलाका है। यहां पानी इतना प्रदूषित है कि सारी मछलियां मर चुकी हैं। नजमा की मां कहती हैं, हमारे धान के खेत हुआ करते थे, जहां हमारी बेटियां भी काम करती थीं। वहां हम सब्जियां भी उगाते थे। अब पानी इतना जहरीला हो गया कि वहां सब कुछ खत्म हो चुका है। यह खासकर 2022 के बाद हुआ है। नजमा की मां कहती हैं, पहले लड़कियां बोझ नहीं हुआ करती थीं, लेकिन अब ऐसा है कि जिस उम्र में लड़कियों की कायदे से शादी होनी चाहिए, उस उम्र में उनके 3-4 बच्चे हैं। और फिर वो वापस भी आ जाती हैं अपने माता-पिता के साथ रहने क्योंकि उनके पति काम नहीं करते।
2022 की बाढ़ का साफ पानी की आपूर्ति और जल स्रोतों पर बड़ा असर पड़ा। बड़ी संख्या में तालाब और कुएं प्रदूषित हो गए। उनका पानी पीने लायक नहीं बचा। 2023 में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ प्रभावित इलाकों में करीब 54 लाख लोग अब भी अपनी जरूरतों के लिए पूरी तरह प्रदूषित पानी पर निर्भर हैं।
बाल विवाह के नुकसानों पर जागरूकता की जरूरत
मौसमी संकट तो है ही, लेकिन पाकिस्तान के पितृसत्तात्मक समाज ने भी इस संकट को बड़ा बनाने में अहम भूमिका निभाई है। पर्यावरण और लैंगिक मुद्दों पर काम कर रहीं पत्रकार आफिया सलाम ने डीडब्ल्यू को बताया, यहां लड़कियों को बोझ समझा जाता है। जल्द-से-जल्द उनकी शादी करने की कोशिश की जाती है। वह मानती हैं कि इस मुद्दे पर व्यापक जागरूकता की जरूरत है।
बाल विवाह के कारण लड़कियां जल्दी मां भी बन जाती हैं और आगे चलकर उन्हें स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं भी झेलनी पड़ती हैं। शिक्षा और रोजगार की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं, जिससे वे असुरक्षित महसूस करती हैं और पूरी तरह से अपने परिवारों पर निर्भर रहती हैं। ऐसे में सरकार, प्रशासन और सिविल सोसायटी की और से ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है। समय रहते दखल दिया जाए तो कुछ बदलाव हासिल हो सकते हैं, जैसा कि महताब के साथ हुआ। महताब का परिवार भी 2022 की बाढ़ से प्रभावित हुआ। वे राहत शिविर में ही थे, जब उनके पिता दिलदार अली शेख ने महताब की शादी तय कर दी। उस समय महताब मात्र 10 साल की थीं।
गैर-सरकारी संगठन सुजग संसार के हस्तक्षेप के कारण महताब की ना केवल शादी टल गई, बल्कि संगठन ने एक सिलाई की वर्कशॉप में भी उनका दाखिला कराया। इसके कारण महताब की पढ़ाई भी जारी रही और वह थोड़ा-बहुत कमाने भी लगीं। लेकिन जब मॉनसून आता है, महताब को शादी का डर सताने लगता है। वह कहती हैं, मैंने अपने पिता से कहा है कि मैं पढऩा चाहती हूं। मैं अपने आस-पास शादीशुदा लड़कियां देखती हूं जिनकी जिंदगी बहुत मुश्किल है। मैं अपने लिए ऐसा नहीं चाहती।एसके/एसएम (एएफपी)
-कीर्ति दुबे
जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय प्रवक्ता पद से केसी त्यागी का इस्तीफा नीतीश कुमार की पार्टी की उलझन की ओर इशारा करता है।
केसी त्यागी जिस जेडीयू के प्रवक्ता थे, वह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन का हिस्सा है। जेडीयू केंद्र सरकार में भी शामिल है और बिहार में भी बीजेपी के समर्थन से सरकार चला रही है।
लेकिन केसी त्यागी जेडीयू की बात जिस तरह से मीडिया के सामने रख रहे थे, उससे कई बार लगता था कि वह उस जेडीयू के प्रवक्ता हैं, जब नीतीश कुमार का तेवर 2017 से पहले वाला हुआ करता था।
केसी त्यागी की टिप्पणी से एनडीए की लाइन के बचाव से ज़्यादा सवाल खड़े हो रहे थे। उन्होंने मोदी सरकार की नीतियों पर जमकर सवालिया निशान लगाए थे। खासकर लैटरल एंट्री, इसराइल, गाजा और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के मामले में।
बीते रविवार को जेडीयू ने केसी त्यागी की जगह राजीव रंजन को पार्टी का नया राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया।
इससे पहले मार्च 2023 में केसी त्यागी ने प्रवक्ता के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था लेकिन दो महीने बाद ही उनकी वापसी हो गई थी। अब दो साल में दूसरी बार उन्होंने ये पद छोड़ा है।
अपने इस्तीफे पर केसी त्यागी की सफाई
बीबीसी से खास बातचीत में केसी त्यागी ने अपने इस्तीफे, राहुल गांधी, जेडीयू की आंतरिक राजनीति और प्रशांत किशोर की विधानसभा चुनाव में एंट्री जैसे कई मुद्दों पर बात की।
अपने इस्तीफ़े पर उन्होंने कहा, ‘नीतीश कुमार अब जब अध्यक्ष नहीं रहे तो लगा मुझे ये पद छोड़ देना चाहिए। पिछले दो-ढाई सालों से मैं संगठन के पद पर नहीं हूँ। बस पार्टी का प्रवक्ता था और मुख्य सलाहकार हूँ। पिछले कुछ समय से मैं लेखन के काम में लगा हुआ हूं। लिहाजा मैंने नीतीश कुमार से आग्रह किया कि मुझे पार्टी के पदों से मुक्त किया जाए। मेरा नीतीश कुमार से 48 सालों का रिश्ता है। वो मेरे नेता भी हैं और मित्र भी।’
केसी त्यागी कहते हैं, ‘मैं एक बात ऑन रिकॉर्ड कहना चाहता हूं कि मैं इस पार्टी में नीतीश कुमार की वजह से हूँ। जहाँ तक अखबारों में चर्चा है, मेरा कोई भी बयान ऐसा नहीं है, जो जेडीयू की विचारधारा से मेल ना खाता हो और एक भी बयान बीजेपी के खिालफ नहीं है।’ महागठबंधन की सरकार में नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री रहते हुए बिहार में जातिगत जनगणना कराई। इसके बाद वो फिर बीजेपी के साथ हो लिए।
बीते दिनों आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा था, ‘जातिगत जनगणना संवदेनशील मामला है और इसका इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसका इस्तेमाल पिछड़े समुदाय और जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए।’
ये बयान बीजेपी के जातिगत जनगणना पर दिए गए पिछले बयानों से अलग है।बीते साल छत्तीसगढ़ की एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘गरीब ही सबसे बड़ी जाति और सबसे बड़ी आबादी है। कांग्रेस देश में हिन्दुओं को बाँट रही है।’
केसी त्यागी संघ के बयान को बीजेपी की ओर से जातिगत जनगणना के प्रति सकारात्मक पहल के रूप में देखते हैं।
क्या नीतीश कुमार कमजोर पड़ गए हैं?
नीतीश कुमार मोदी 3.0 सरकार के लिए कई बार ये दोहराते दिखते हैं कि इस सरकार को जेडीयू का ‘बेशर्त समर्थन’ है।
अगर संख्या बल देखें तो इस एनडीए सरकार में नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दो ऐसे नेता हैं जो सरकार को बरकरार रखने और गिराने का दम रखते हैं।
ऐसे में जेडीयू का इतना अहम समर्थन होने के बाद भी नीतीश कुमार बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा क्यों नहीं ले पा रहे?
केसी त्यागी इस पर कहते हैं, ‘बजट में बिहार के लिए हजारों करोड़ दिए गए हैं। बिहार में मेडिकल कॉलेज बनेंगे, हवाईअड्डे बनेंगे, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काम होगा। विशेष राज्य बनाने की दिशा में केंद्र सरकार का बड़ा कदम है।’
बतौर जेडीयू नेता केसी त्यागी भले ये कह रहे हों लेकिन बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले लोग इसे नीतीश कुमार का मोदी सरकार के सामने झुके हुए बर्ताव की तरह देखते हैं।
पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘केंद्र में एनडीए सरकार के लिए उनका समर्थन काफी अहम है। नीतीश कुमार ऐसी स्थिति में हैं कि वो चाहें तो कई मांगें बिहार को लेकर मनवा सकते हैं, लेकिन वो हर जगह यही कहते हैं कि हमारा बीजेपी को समर्थन बिना शर्त के है। आज एनडीए सरकार में जो हैसियत जेडीयू की है, इसके बावजूद नीतीश कुमार का दंडवत होने वाला रवैया मुझे समझ नहीं आता।’
केसी त्यागी समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेता हैं। जेडीयू की कमान चाहे शरद यादव के हाथ में रही हो या ललन सिंह के पास, केसी त्यागी हमेशा ही नीतीश कुमार के कऱीबी रहे।
केसी त्यागी ने 1974 में चौधरी चरण सिंह के साथ काम किया और साल 1989 में लोकसभा सांसद रहे।
इससे पहले त्यागी जॉर्ज फर्नांडीस के साथ इमरजेंसी के खिलाफ आंदोलन में रहे और यहीं से समाजवाद की राजनीति में उनका कद बढ़ा।
खेमा बदलने पर नीतीश का बचाव
क्या केसी त्यागी के लिए बार-बार नीतीश कुमार के खेमा बदलने का बचाव करना और जायज ठहराना मुश्किल रहा है?
इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘नहीं। नीतीश कुमार ने बिहार के भले के लिए किया और मुझे इसका बचाव करने में कोई संकोच नहीं हुआ।’
लेकिन जो लोग केसी त्यागी को करीब से जानते हैं वो अक्सर ये कहते हैं कि त्यागी समाजवादी नेता हैं और विचारधारा के बिल्कुल उलट कुछ बोल पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था।
बिहार की राजनीति में जाना-माना नाम शिवानंद तिवारी जेडीयू में भी रहे और अब आरजेडी में हैं। समाजवाद के आंदोलन से निकले शिवानंद तिवारी केसी त्यागी को काफी करीब से जानते हैं।
शिवानंद तिवारी केसी त्यागी को लेकर कहते हैं, ‘केसी त्यागी को हम 1977 के वक्त से जानते हैं। वो समाजवादी हैं। अपनी विचारधारा पूरी तरह नहीं बदल देंगे। गाजा में जो हो रहा है, उनकी राय वही रहेगी जो हमारी राय है। लेकिन आज के समय में वैचारिक प्रतिबद्धता आसान नहीं है।’
शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘आजकल नेता बॉस के अंदाज में काम करते हैं। मैं जेडीयू में रहा और आरजेडी में भी। मुझे नहीं पता कि केसी त्यागी जी ने इस्तीफा क्यों दिया है लेकिन जो मैं अखबारों में ही पढ़ रहा हूं उससे तो यही लगता है कि उनके बयान बीजेपी को और जेडीयू के नेतृत्व को असहज कर रहे थे।’
विचारधारा, धर्मनिरपेक्षता और वोट बैंक की राजनीति
एक वक्त था, जब नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार तक करने नहीं आने देते थे।
साल 2013 में नीतीश कुमार ने बीजेपी से 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया था। इसे नीतीश कुमार की धर्मनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्धता के रूप में देखा जाता था। अब चीज़ें पूरी तरह से बदल गईं। नीतीश कुमार को बीजेपी अपने हिसाब से कई बार झुका चुकी है।वर्तमान समय में नीतीश कुमार मोदी सरकार को बिना शर्त समर्थन की बात करते हैं। भारत की राजनीति में अब अक्सर कहा जाता है कि धर्मनिरेपक्षता वैचारिक प्रतिबद्धता से ज्यादा वोट बैंक सुनिश्चित करने का जरिया है। नीतीश कुमार के पाला बदलने को इसी से जोड़ा जाता है।
केसी त्यागी नीतीश कुमार का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘जब जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म हुआ तो हमारी पार्टी ने वॉकआउट किया था। यूसीसी पर भी नीतीश कुमार ने कहा था कि हम इसके खिलाफ नहीं हैं लेकिन इसके स्टेकहोल्डर्स से बात की जानी चाहिए।’
वो कहते हैं, ‘जब मैंने एनडीए उम्मीदवार के रूप में मेरठ से चुनाव लड़ा तो मुस्लिम वोट बीएसपी को पड़े लेकिन इससे मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता थोड़ी भी नहीं डगमगाई। मैं या नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष हैं और ये प्रतिबद्धता वोटबैंक के लिए नहीं है।’ हाल के वर्षों में धर्म के आधार पर लिंचिंग की कई घटनाएं हुई हैं।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अक्सर एक समुदाय को टारगेट करने वाला बयान देते हैं। हाल ही में उनकी सरकार ने असम में विधानसभा सत्र के दौरान जुमे की नमाज के लिए मिलने वाला वक्त खत्म कर दिया था।
असम सरकार के इस फैसले पर केसी त्यागी कहते हैं, ‘हम इस फैसले के पूरी तरह खिलाफ हैं और ये नहीं होना चाहिए।’
बिहार चुनाव और प्रशांत किशोर की एंट्री
बिहार में अगले साल चुनाव होने हैं और इस बार के चुनाव में प्रशांत किशोर ने एंट्री ली है। लगभग दो साल से वो बिहार में पदयात्रा कर रहे हैं। उनकी पार्टी 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। ऐसे में उनकी पार्टी क्या कोई अहम भूमिका निभा सकती है?
इस सवाल पर त्यागी कहते हैं, ‘बिहार का चुनाव दोतरफा है। एक तरफ है, बीजेपी और जेडीयू तो दूसरी तरफ आरजेडी और कांग्रेस का गठबंधन होगा। ये चुनाव भी गठबंधन में बँटा होगा। यहां की राजनीति में किसी भी तीसरे दल की जगह नहीं है। प्रशांत किशोर पदयात्रा कर रहे हैं लेकिन उससे ज़्यादा उन्हें बिहार चुनाव में कुछ हासिल नहीं होगा। वो किसी को भी नुकसान नहीं पहुँचा पाएंगे।’
साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर नीतीश कुमार के साथ थे। तब प्रशांत किशोर ने नारा दिया था- बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है।
दोनों के बीच घनिष्ठता ऐसी बढ़ी थी कि नीतीश कुमार ने उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया लेकिन ये साथ लंबा नहीं चला और प्रशांत किशोर ने जेडीयू छोड़ दी।
लेकिन नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर के बीच वास्तव में हुआ क्या था?
इस पर केसी त्यागी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को पार्टी का सोल वाइस प्रेजिडेंट बनाया, जिसका मतलब है कि उनकी जानकारी के बिना पार्टी में कोई फैसला नहीं हो सकता था। लेकिन वही बताएंगे कि उन्होंने पार्टी क्यों छोड़ी। जेडीयू में रहते हुए उन्होंने ममता बनर्जी का कैंपेन संभाला, तमिलनाडु में डीएमके लिए काम किया। हम और नीतीश कुमार 40 साल से साथ हैं और हमने तो आज तक दल नहीं बदला, दल के प्रति निष्ठा अलग चीज़ है।’
इंडिया गठबंधन बनाने का आइडिया नीतीश कुमार का था। उन्होंने पटना में इसकी बैठक कराई। लेकिन फिर उन्होंने ख़ुद को इस गठबंधन से अलग किया और फिर से बीजेपी के साथ चले गए।
नीतीश कुमार के इंडिया ब्लॉक छोडऩे की वजह बताते हुए केसी त्यागी कहते हैं, ‘इंडिया ब्लॉक में ये तय हुआ था कि प्रधानमंत्री के लिए कोई नाम तय नहीं होगा। फिर ममता बनर्जी ने एक बैठक में कहा कि मल्लिकार्जुन खडग़े जी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाया जाए। जब ये तय हुआ था कि कोई उम्मीदवार उम्मीदवार नहीं होगा तो ऐसा क्यों हुआ?’
केसी त्यागी कहते हैं, ‘उस पर भी सबके सामने बैठक में राहुल गांधी ने कहा कि नीतीश जी ममता जी के प्रस्ताव पर राजी नहीं हैं। इसके बाद ही नीतीश कुमार ने इंडिया ब्लॉक छोडऩे का मन बना लिया। राहुल गांधी ये बात नीतीश जी से अकेले में भी कर सकते थे लेकिन जिस तरह उन्होंने कहा वो ही हमारे गठबंधन छोडऩे का कारण बना।’ (bbc.com/hindi)
-अपूर्व
कभी अमरनाथ से कटरा जा रही बस के ड्राइवर सलीम शेख गुजरात के तीर्थ यात्रियों को आतंकी हमले से बचाते हैं, तो कभी आशिक अली गंगा में डूबने से कावडिय़े को बचाते हैं। कोरोना के दौरान मुंबई में मुस्लिम बहुल बस्ती में हिन्दू बुजुर्ग की मौत होने के बाद पड़ोसी मुस्लिमों ने पूरे हिंदू रीति रिवाज से अंतिम संस्कार करवाया।
दरअसल, ये खबरें आम हैं। रोज की बात है पर आज का मीडिया इन्हें तवज्जो नहीं देता क्योंकि इसमें प्यार है।
आपको याद है शैल देवी मुजफ्फरपुर की जिन्होंने कई मुस्लिम परिवार की जान बचाई थी और तत्कालीन सीएम मांझी ने उन्हें झाँसी की रानी कह कर प्रशंसा की, पुरस्कृत किया था।
उत्तराखंड के डोईवाला(देहरादून) के हिंदू और मुस्लिम परिवार ने हिमालयन अस्पताल में भर्ती एक-दूसरे के बेटे को किडनी देते हैं।
ऐसी खबरें ही नहीं इससे ज़्यादा प्यार है पर जिस मीडिया को आप देखते पढ़ते हैं उसके लिए ये खबरें नहीं?
वैसे ठीक भी है जो प्यार-दोस्ती हमेशा रही हो और हर समय कायम हो वो खबर क्यों बने?
इतिहास के पन्ने पलटिये ये प्यार हर पन्ने में दर्ज है ।
प्रेमचंद जब अपने अंतिम दिनों में तबियत खराब होने के चलते लखनऊ इलाज के लिए पहुंचे तो कुछ दिन अपने दोस्त कृपा शंकर निगम के घर रुके। इसके बाद अमीनाबाद के सूर्य होटल चले गए।
यहाँ पता चला उन्हें ‘लिवर सिरोसिस’ है।
काफी गंभीर हो गए थे प्रेमचंदजी, उन्हें इलाज के साथ देखरेख की भी उतनी ही जरूरत थी ।
लखनऊ में ही प्रेमचंद के एक दोस्त थे, आर्टिस्ट अब्दुल हकीम साहब। उनका घर बहुत छोटा था पर दिल बड़ा वो मुंशी प्रेमचंद जी को होटल से जबरदस्ती आग्रहपूर्वक, अधिकार से अपने घर ले आये।
प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय ने लिखा है कि ‘...अब्दुल हकीम साहब ने बिल्कुल अपने सगे भाई की तरह उनकी सेवा की, कमोड तक साफ किया, धुन्नू [बड़े बेटे] को सुला देते और खुद रात-रात भर जागते मगर चेहरे पर शिकन नहीं।
अब्दुल हकीम साहब और प्रेमचंद जी का प्यार इस मिट्टी में शामिल है, ये हमेशा महकता रहेगा और ये मोहब्बत बनी रहेगी।
-रेहान फजल
लैटरल एंट्री को लेकर पिछले दिनों काफी विवाद रहा और मोदी सरकार ने 45 पदों पर होने वाली नियुक्ति रोक दी। लेकिन मोदी सरकार 2018 से अब तक बड़ी तादाद में पेशेवर लोगों को लैटरल एंट्री दे चुकी है और उसके पहले भी यह सिलसिला लगातार जारी रहा है।
दरअसल, इसकी शुरुआत देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ही कर दी थी।
जब 1947 में भारत आजाद हुआ तो पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनकी टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि किस तरह नए देश का बुनियादी ढाँचा खड़ा किया जाए।
नए देश के सामने युद्ध, सूखे और सांप्रदायिक तनाव की समस्या मुँह बाए खड़ी थी।
आईसीएस (अँग्रेजों के जमाने के इंडियन सिविल सर्विसेज) के लिए आखिरी परीक्षा सन् 1943 में हुई थी और आजादी के बाद कई आईसीएस अफसरों ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया था।
एक पत्रकार को मिली विदेश सेवा में लैटरल एंट्री
खाली प्रशासनिक पदों को भरने के लिए तुरंत कोई परीक्षा कराई नहीं जा सकती थी इसलिए नेहरू सरकार ने इन पदों पर बिना परीक्षा के लोगों को भर्ती करना शुरू कर दिया था।
इनमें से कई लोग सेना, ऑल इंडिया रेडियो और वकालत के पेशे से चुने गए थे। सबसे पहले भारतीय विदेश सेवा के लिए चुने गए लोगों में पीआरएस मणि का नाम आता है।
उन्होंने सन् 1939 में ऑल इंडिया रेडियो मद्रास में पब्लिसिटी असिस्टेंट और उद्घोषक के तौर पर अपना करियर शुरू किया था।
अपने रेडियो के करियर के दौरान वो जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आए और जब 1946 में नेहरू ने मलाया का दौरा किया तो वो ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के रिपोर्टर के तौर पर उनके साथ वहाँ गए।
मणि की पहली पोस्टिंग इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में भारतीय दूतावास में प्रेस अताशे के तौर पर की गई थी।
कल्लोल भट्टाचार्जी अपनी किताब नेहरूज फस्र्ट रेक्रूट्स में लिखते हैं, मणि के प्रयासों का ही नतीजा था कि भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो मुख्य अतिथि के तौर पर पधारे थे। ये काम विदेश सेवा के किसी अधिकारी की बदौलत नहीं बल्कि पीआरएस मणि के उत्साही प्रयासों की बदौलत हुआ था।
सन् 1995 में इंडोनेशिया की सरकार ने पीआरएस मणि को अपने सबसे बड़े राजकीय पुरस्कार फस्र्ट क्लास स्टार ऑफ सर्विस से सम्मानित किया था। मणि के बाद ऑल इंडिया रेडियो में अंग्रेजी का समाचार पढऩे वाले रणबीर सिंह को भारतीय विदेश सेवा में सीधे नियुक्त किया गया था। इसके बाद ऑल इंडिया रेडियो के ही एआर सेठी को भारतीय विदेश सेवा में लिया गया था।
लैटरल एंट्री से नियुक्तियां
परमेश्वर नारायण हक्सर इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत किया करते थे। वो कांग्रेस के नेता और इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी के दोस्त हुआ करते थे।
उन्हें भी अक्तूबर, 1947 में नेहरू ने विदेश मंत्रालय में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी नियुक्त किया था। इसके बाद वो नाइजीरिया और ऑस्ट्रिया में भारत के राजदूत रहे। दो दशक बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने उन्हें अपना प्रधान सचिव नियुक्त किया था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेने के बाद वो 30 के दशक में इंग्लैंड गए थे, जहाँ उन्होंने मशहूर एंथ्रोपॉलॉजिस्ट ब्रोनिसलॉ मेलिनोस्की की देखरेख में मानवशास्त्र की पढ़ाई की थी।
जयराम रमेश हक्सर की जीवनी ‘इंटरट्वाइंड लाइव्स पीएन हक्सर एंड इंदिरा गांधी’ में लिखते हैं, हक्सर के बारे में कहा जाता था कि आधुनिक भारत के नाजुक मोड़ पर वो न सिर्फ यहाँ के सबसे ताक़तवर नौकरशाह थे, बल्कि इंदिरा गांधी के बाद भारत के दूसरे सबसे ताकतवर इंसान भी थे और उनकी ताकत का स्रोत इंदिरा गांधी नहीं थीं।
चीफ ऑफ प्रोटोकॉल मिर्जा राशिद बेग
विदेश मंत्रालय में सीधे प्रवेश पाने वाले एक और शख्स थे मिर्जा राशिद अली बेग। बेग ने सेना के अफसर के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की थी। इसके बाद वो मोहम्मद अली जिन्ना के निजी सचिव बन गए थे।
पाकिस्तान की स्थापना के मुद्दे पर उनसे मतभेद होने पर उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया था।
सन् 1952 में उन्हें फि़लीपींस में तैनात किया गया था। वो बाद में भारत के सबसे सफल चीफ ऑफ प्रोटोकॉल बने।
अपने चर्चित कार्यकाल के दौरान उन्होंने दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर, सोवियत प्रधानमंत्री ख्रूश्चेव, चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई, वियतनामी नेता हो ची मिन्ह, ब्रिटेन की महारानी एलेजाबेथ, मिस्र के राष्ट्रपति जमाल नासेर, सऊदी अरब के शाह सऊद, ईरान के शाह और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव डैग हैमरशोल्ड जैसे नेताओं का स्वागत किया।
खुशवंत सिंह की भी हुई लैटरल एंट्री
आजादी के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान के भांजे मोहम्मद यूनुस को भी नेहरू ने विदेश मंत्रालय में नियुक्त किया। यूनुस तुर्की, इंडोनेशिया और स्पेन में भारत के राजदूत रहे और 1974 में वाणिज्य सचिव होकर रिटायर हुए।
बाद में उन्हें ट्रेड फेयर अथॉरिटी का प्रमुख बनाया गया। वो अंत तक इंदिरा गाँधी के करीब रहे। 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हारीं और सांसद नहीं रह गईं तो उन्होंने उन्हें 12 विलिंग्टन क्रेसेंट का अपना घर रहने के लिए दे दिया था।
विदेश मंत्रालय में सीधी नियुक्ति पाने वालों में मशहूर कवि हरिवंशराय बच्चन भी थे। वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के लेक्चरर थे।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की थी। वहाँ से लौटने पर वो आकाशवाणी इलाहाबाद में प्रोड्यूसर के तौर पर नियुक्त हो गए थे।
जवाहरलाल नेहरू की पहल पर उन्हें विदेश मंत्रालय मे हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के तौर पर नियुक्त किया गया था।
कल्लोल भट्टाचार्जी लिखते हैं, बच्चन की सलाह पर ही बाहरी मामलों के मंत्रालय का नाम विदेश मंत्रालय रखा गया था।
उन्होंने गृह मंत्रालय का नाम देश मंत्रालय सुझाया था लेकिन इसे सरकार ने स्वीकार नहीं किया था।
उन्होंने विदेश मंत्रालय में आने वाले कई अफसरों को हिंदी पढ़ाई थी। बाद में विदेश मंत्री बने नटवर सिंह उनमें से एक थे।
मशहूर लेखक खुशवंत सिंह को भी लैटरल एंट्री मिली थी। उस समय वो लाहौर में वकालत कर रहे थे। सूचना और प्रसारण मंत्रालय में उप सचिव अजीम हुसैन के कहने पर उन्हें लंदन में भारतीय उच्चायोग में सूचना अधिकारी की नौकरी मिली थी। बाद में इसी पद पर उनका तबादला कनाडा की राजधानी ओटावा में कर दिया गया था। वहाँ उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
इसके बाद वो पत्रकारिता में चले गए थे और योजना, इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और नेशनल हेरल्ड के संपादक के तौर पर उन्होंने काफी नाम कमाया था।
केआर नारायणन की नियुक्ति
सरोजिनी नायडू की बेटी लीलामणि नायडू ने भी विदेश मंत्रालय में सीधे प्रवेश किया था। सन् 1941 से 1947 तक वो ओस्मानिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग की प्रमुख थीं।
इसके बाद वो हैदराबाद के निजाम कॉलेज में दर्शन शास्त्र विभाग की प्रमुख हो गईं थीं। वहाँ से उन्हें सीधे विदेश मंत्रालय में सीनियर स्केल में नियुक्त किया गया था।
सन् 1948 में पेरिस में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में उन्हें भारतीय प्रतिनिधिमंडल का सलाहकार नियुक्त किया गया था।
नेहरू की सिफारिश पर विदेश मंत्रालय में नौकरी पाने वालों में केआर नारायणन भी थे जो आगे चलकर भारत के राष्ट्रपति बने।
वो लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के प्रोफेसर लास्की का नेहरू के नाम एक पत्र लेकर आए थे जिसमें लास्की ने उनकी बहुत तारीफ की थी।
सन् 1949 में उनकी पहली पोस्टिंग सेकेंड सेक्रेट्री के रूप में बर्मा में की गई थी।
सन् 1950 से 1958 के बीच उन्होंने टोक्यो और लंदन के भारतीय दूतावासों में काम किया था। सन 1976 में उन्हें चीन में भारत का राजदूत बनाया गया था।
इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पुल की स्थापना
सन 1959 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के उच्च पदों को भरने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगिक प्रबंधन पुल (इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल) की स्थापना की थी।
इसमें पूरे भारत से कुल 131 पेशेवर लोगों को चुना गया था। इनमें से कई लोग जैसे मंतोष सोंधी, वी कृष्णामूर्ति, मोहम्मद फजल और डीवी कपूर जैसे लोग सचिव स्तर तक पहुंचे थे।
इससे पहले सन् 1954 में अर्थशास्त्री आईजी पटेल को पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में आर्थिक उप-सलाहकार नियुक्त किया गया था। बाद में वो आर्थिक मामलों के सचिव और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी बने थे।
सन् 1971 में मनमोहन सिंह को वाणिज्य मंत्रालय में सलाहकार के तौर पर लाया गया था। इससे पहले वो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे।
मनमोहन सिंह आर्थिक मामलों के सचिव, रिज़र्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष का पद संभालने के बाद भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे थे।
जारी रहा सिलसिला
जनता सरकार के जमाने में रेलवे इंजीनयर एम मेंज़ेस को सीधे रक्षा उत्पादन मंत्रालय का सचिव बनाया गया था।
राजीव गांधी ने केरल इलेक्ट्रॉनिक डेवेलपमेंट कॉर्पोरेशन के प्रमुख केपीपी नाम्बियार को इलेक्ट्रॉनिक्स सचिव नियुक्त किया था।
उसी जमाने में सैम पित्रोदा को सीधे अमेरिका से लाकर सेंटर फॉर डेवेलपमेंट ऑफ़ टेलीमेटिक्स (सी-डॉट) का प्रमुख बनाया गया था।
1980 और 90 के दशक में कई टेक्नोक्रैटेस जैसे मोंटेक सिंह अहलूवालिया, राकेश मोहन, विजय केलकर और बिमल जालान जैसे लोगों को अतिरिक्त सचिव के स्तर पर नौकरशाही में शामिल किया गया था जो बाद में सचिव स्तर तक पहुंचे थे।
अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में आरवी शाही को निजी क्षेत्र से लाकर सीधे पावर सेक्रेट्री बनाया गया था।
मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भी नंदन नीलेकणि को निजी कंपनी इन्फोसिस से लाकर भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण का प्रमुख बनाया गया था।
सन् 2018 से अब तक 63 लोगों को संयुक्त सचिव स्तर पर नौकरशाही में शामिल किया गया है, जिनमें से 35 अधिकारी निजी क्षेत्र से लिए गए हैं। (bbc.com/hindi)
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को शरण देना भारत के लिए एक कूटनीतिक संकट बन सकता है. बांग्लादेश के लोग हसीना की वापसी चाहते हैं, लेकिन भारत के लिए उन्हें भेजना आसान नहीं होगा.
बांग्लादेश में छात्रों के आंदोलन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपना देश छोड़े एक महीने से ज्यादा हो गया है। इस्तीफा देने के बाद उन्होंने भारत में शरण ली थी। विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें शरण देना अब भारत के लिए कूटनीतिक सिरदर्द बनता जा रहा है।
शेख हसीना का सख्त शासन पिछले महीने उस समय समाप्त हो गया जब प्रदर्शनकारियों ने ढाका में उनके महल की ओर मार्च किया। 15 साल के उनके शासनकाल के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन और विपक्ष पर दमन के कई आरोप लगे थे।
उनकी सरकार के खिलाफ आंदोलन करने वाले छात्र अब हसीना की वापसी की मांग कर रहे हैं ताकि उन पर विद्रोह के दौरान प्रदर्शनकारियों की हत्या के लिए मुकदमा चलाया जा सके। भारत हसीना के शासनकाल के दौरान उनका सबसे बड़ा समर्थक था। अब उन्हें वापस भेजना भारत के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि इससे दक्षिण एशिया में उसके अन्य पड़ोसियों के साथ संबंध खराब होने का जोखिम है, जहां चीन के साथ प्रभाव के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है।
मुश्किल है शेख हसीना की वापसी
इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के थॉमस कीन ने कहा, भारत स्पष्ट रूप से उन्हें बांग्लादेश वापस भेजना नहीं चाहेगा। जो अन्य नेता दिल्ली के करीबी हैं, उनके लिए यह संदेश बहुत सकारात्मक नहीं होगा कि आखिरकार, भारत आपकी रक्षा नहीं करेगा।
पिछले साल मालदीव में भारत के पसंदीदा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की हार से भारत को पहले ही एक बड़ा झटका लग चुका है। वहीं शेख हसीना के सत्ता से बाहर होने से भारत का क्षेत्र में निकटतम सहयोगी भी छिन चुका है।
हसीना के शासन में पीडि़त लोगों में भारत के प्रति खुलेआम गुस्सा है। यह गुस्सा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू-राष्ट्रवादी सरकार की नीतियों और बांग्लादेश की कार्यवाहक सरकार के खिलाफ जोर-शोर से चलाए गए प्रचार के कारण और भी गहरा हो गया है।
मोदी ने 84 वर्षीय नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस द्वारा गठित नई सरकार को समर्थन देने का वादा किया है, जो हसीना के बाद सत्ता में आई है। साथ ही उन्होंने बांग्लादेश के हिंदू धार्मिक अल्पसंख्यक की सुरक्षा की भी जोरदार मांग की है।
हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले
बांग्लादेश के अंतरिम सरकार में गृह विभाग के सलाहकार जनरल एम शखावत हुसैन ने माना है कि अल्पसंख्यकों पर हमले हुए हैं और उनकी सुरक्षा में चूक हुई है। उन्होंने हिंदुओं से इसके लिए माफी भी मांगी। हिंदू परिवारों का कहना है कि इस हिंसा ने 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की ओर से किए गए अत्याचार के जख्मों को ताजा कर दिया है। कुछ इलाकों से हिंदुओं के मोहल्लों और मंदिरों की सुरक्षा में तैनात मुस्लिम युवकों की तस्वीरें और खबरें भी सामने आईं लेकिन इनके मुकाबले हमले की घटनाएं कहीं ज्यादा थीं। ऐसी खबरें हैं कि सांप्रदायिक तनाव और बढ़ सकता है।
हसीना की अवामी लीग को बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए अधिक समर्थक माना जाता था, जबकि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में बांग्लादेशी हिंदुओं के खतरे में होने की बात कही और बाद में इस मुद्दे को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ भी उठाया।
हसीना के देश छोडऩे के बाद हुए हमलों में कुछ बांग्लादेशी हिंदुओं और मंदिरों को निशाना बनाया गया था, जिसकी निंदा छात्र नेताओं और अंतरिम सरकार ने की। लेकिन भारतीय समाचार चैनलों ने इस हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, जिससे हिंदू संगठनों ने मोदी की पार्टी से जुड़े हुए विरोध प्रदर्शन किए।
भारत की कूटनीतिक उलझन
बीएनपी के एक शीर्ष नेता फखरुल इस्लाम आलमगीर ने कहा, भारत ने सभी अंडे एक ही टोकरी में रख दिए हैं और अब वह अपनी नीति को बदलने का रास्ता नहीं खोज पा रहा है। उन्होंने एएफपी से कहा, बांग्लादेश के लोग भारत के साथ अच्छे संबंध चाहते हैं, लेकिन अपने हितों की कीमत पर नहीं।
बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी दोनों देशों के बीच अविश्वास की भावना स्पष्ट है। अगस्त में बाढ़ के दौरान जब दोनों देशों में मौतें हुईं, तो कुछ बांग्लादेशियों ने इसके लिए भारत को दोषी ठहराया।
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने सार्वजनिक रूप से भारत में शरण लिए हसीना के मुद्दे को नहीं उठाया है, लेकिन ढाका ने उनका कूटनीतिक पासपोर्ट रद्द कर दिया है, जिससे वह आगे यात्रा नहीं कर सकेंगी। दोनों देशों के बीच 2013 में हस्ताक्षरित एक प्रत्यर्पण संधि है जो हसीना को आपराधिक मुकदमे का सामना करने के लिए वापस भेजने की अनुमति देती है। हालांकि, संधि में एक प्रावधान है जो कहता है कि यदि अपराध राजनीतिक स्वभाव का हो, तो प्रत्यर्पण से इनकार किया जा सकता है।
भारत के पूर्व राजदूत पिनाक रंजन चक्रवर्ती ने कहा कि द्विपक्षीय संबंध बहुत महत्वपूर्ण हैं और ढाका इसे बिगाडऩे के लिए हसीना के मुद्दे को तूल नहीं देगा। उन्होंने एएफपी से कहा, कोई भी परिपक्व सरकार समझेगी कि हसीना के भारत में रहने को मुद्दा बनाना उनके लिए कोई लाभ नहीं देगा। (डॉयचेवैले)
डॉनल्ड ट्रंप ने जेडी वैंस को अपने उपराष्ट्रपति के रूप में उम्मीदवार चुना है लेकिन वैंस की हिंदू पत्नी की धार्मिक पहचान पर उनकी पार्टी चुप्पी साधे हुए है.
उषा चिलुकुरी वैंस अपने मांस और आलू पसंद करने वाले पति, जेम्स डेविड वैंस से बहुत प्यार करती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में उपराष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार जेडी वैंस की पत्नी उषा वैंसने रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में दिए भाषण में बताया कि कैसे उनके पति ने उनकी शाकाहारी डाइट को अपनाया और उनकी प्रवासी मां से भारतीय खाना बनाना सीखा। उनके श्वेत, ईसाई पति का दक्षिण भारत के मसालेदार भोजन बनाना, खासकर एक ऐसी पार्टी के नेता के लिए असामान्य है, जिसके अधिकांश सदस्य अभी भी श्वेत और ईसाई हैं।
पारंपरिक रूप से तो भारतीय आप्रवासियों को अमेरिका में डेमोक्रैटिक पार्टी का समर्थक माना जाता है लेकिन उषा वैंस की मौजूदगी ने कुछ भारतीय अमेरिकी दक्षिणपंथियों में उत्साह जगाया है, खासकर हिंदू अमेरिकियों में। लेकिन पिछले महीने मिलवॉकी में दिए गए उनके चार मिनट के भाषण में, उन्होंने अपने हिंदू धर्म और निजी आस्था के बारे में कुछ नहीं कहा।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उनका हिंदू अमेरिकी होना अभी भी समुदाय के लिए गर्व की बात है, जबकि अन्य सवाल उठाते हैं कि क्या रिपब्लिकन पार्टी एक ‘हिंदू सेकंड लेडी’ के लिए वास्तव में तैयार है।
धर्म पर उषा वैंस की चुप्पी
उषा वैंस ने चुनाव से पहले अपने धर्म के बारे में चुप्पी साधी हुई है और इस पर एसोसिएटेड प्रेस से बात करने से इनकार कर दिया। उन्होंने इस बारे में सवालों का जवाब नहीं दिया कि क्या वह हिंदू धर्म का पालन करती हैं या कैथोलिक पति के साथ चर्च जाती हैं, या उनके तीन बच्चों को किस धर्म के तहत पाला जा रहा है।
सैन डिएगो में प्रोफेसर प्रवासी माता-पिता के हिंदू घर में पली-बढ़ी उषा वैंस ने पुष्टि की कि उनके बच्चों में से एक का भारतीय नाम है, और उनकी और जेडी वैंस की शादी भारतीय और अमेरिकी दोनों तरीकों से हुई थी। इन दोनों की मुलाकात येल लॉ स्कूल में पढ़ाई के दौरान हुई थी।
उषा वैंस की हिंदू पृष्ठभूमि कुछ दक्षिण एशियाई मतदाताओं को आकर्षित कर सकती है, जो डॉनल्ड ट्रंप के लिए एरिजोना, जॉर्जिया और नॉर्थ कैरोलाइना जैसे स्विंग राज्यों में फायदेमंद हो सकता है, जहां बड़े दक्षिण एशियाई समुदाय हैं। डेनवर यूनिवर्सिटी में हिंदू स्टडीज की प्रोफेसर दीपा सुंदरम कहती हैं कि कुछ भारतीय और हिंदू दक्षिणपंथी उषा वैंस को गले लगाने के लिए उत्सुक हो सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि यह पार्टी की सार्वजनिक रणनीति का हिस्सा है।
उन्होंने कहा, मुझे लगता है कि उनकी हिंदू पहचान पार्टी के लिए फायदे के बजाय एक बोझ है। ऐसा भी लगता है कि अभियान दोनों तरह से लाभ उठाना चाहता है- उषा शायद हिंदू हों, जो कि अच्छी बात है, लेकिन हम इसके बारे में बात नहीं करना चाहते।
सुंदरम ने कहा कि उषा वैंस खासकर उन हिंदू अमेरिकियों को आकर्षित करेंगी जो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति का समर्थन करते हैं, जिनके तहत हिंदू राष्ट्रवाद का उभार हुआ है।
कुछ भारतीय अमेरिकी समुदायों के भीतर टैक्स, शिक्षा, भारत के साथ संबंध और जाति-विरोधी भेदभाव कानून जैसे मुद्दों पर गहरे मतभेद हैं, जो सिएटल और कैलिफॉर्निया में जोर पकड़ रहे हैं। जाति, जन्म या वंश के आधार पर लोग विभाजित हैं और संबंधित भेदभाव को गैरकानूनी घोषित करने के लिए अमेरिका में आह्वान बढ़ रहा है।
अब भी डेमोक्रैट हैं अधिकतर भारतीय
प्यू रिसर्च सेंटर के 2022 और 2023 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक लगभग 10 में से 7 भारतीयों का झुकाव अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर है जबकि लगभग 3 में से 1 रिपब्लिकन पार्टी के करीबी हैं।
एएपीआई डेटा/एपी-नॉर्क सर्वेक्षणों से इस वर्ष की शुरुआत में पाया गया कि दक्षिण एशियाई अमेरिकियों में से 10 में से एक से भी कम, प्रमुख मुद्दों जैसे गर्भपात, बंदूक नीति और जलवायु परिवर्तन आदि के बारे में रिपब्लिकन पार्टी पर भरोसा करते हैं, जबकि लगभग आधे या अधिक डेमोक्रेटिक पार्टी पर अधिक भरोसा करते हैं।
फिर भी उषा वैंस, एक सेकेंड लेडी जो हमारी तरह दिखती है और हमारी तरह बोलती है, उन मतदाताओं का ध्यान आकर्षित कर सकती हैं, जिन्हें रिपब्लिकन तक पहुंचने में मुश्किल हो रही है, ऐसा कहना है ओहायो स्टेट सेनेटर नीरज अंटानी का, जो एक रिपब्लिकन और हिंदू अमेरिकी हैं और राज्य सेनेट के सबसे युवा सदस्य हैं।
उन्होंने कहा, अगर रिपब्लिकन अल्पसंख्यक समूहों तक नहीं पहुंचते हैं, तो हम चुनाव हार जाएंगे।
39 वर्षीय बायोटेक उद्यमी विवेक रामास्वामी ने 2020 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा था और अब ट्रंप-वैंस का समर्थन करते हैं। उन्होंने पिछले साल जब ट्रंप के खिलाफ रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए चुनाव लड़ा तो अभियान के दौरान अपने हिंदू धर्म को प्रमुखता से पेश किया। उन्होंने कहा कि हिंदू शिक्षाएं यहूदी-ईसाई मूल्यों के ही समान हैं। हालांकि वह प्राथमिक चुनाव हार गए थे।
उन्होंने उषा वैंस की धार्मिक पृष्ठभूमि के बारे में टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।
दक्षिणपंथियों की मजबूत मौजूदगी
बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में शोधकर्ता और एएपीआई डेटा के कार्यकारी निदेशक कार्तिक रामकृष्णन कहते हैं कि उषा वैंस की उनके धर्म पर चुप्पी और रामास्वामी की प्राथमिक चुनाव में हार इस बात का संकेत हो सकती है कि रिपब्लिकन पार्टी के कुछ हिस्सों के लिए ईसाई के अलावा किसी अन्य धर्म का होना अभी भी एक मुद्दा हो सकता है। उन्होंने कहा, कन्वेंशन के बाद हमने रिपब्लिकन पार्टी के भीतर अधिक लोगों को उषा और जेडी वैंस के खिलाफ बोलते देखा है।
इससे मुझे लगता है कि गैर-ईसाई धार्मिक पहचान के बारे में खुला होने की एक राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है। अभी लंबा रास्ता तय करना है।
अंटानी ने ओहायो राज्य में चुनाव जीते हैं, जो मुख्यत: ईसाई और बहुत हद तक दक्षिणपंथी राज्य है। अपनी हिंदू पहचान को प्रमुखता से रखने वाले अंटानी कहते हैं, रिपब्लिकन पार्टी में जो नस्लवाद है, वह नस्लवादियों से आ रहा है, ना कि रिपब्लिकन से।
अंटानी ने उषा वैंस द्वारा आरएनसी में अपनी भारतीय विरासत के बारे में बात करने का स्वागत किया। वह मानते हैं कि रामास्वामी की हार इसलिए नहीं हुई क्योंकि वह हिंदू हैं, बल्कि इसलिए कि वह अन्य उम्मीदवारों की तुलना में कम जानकार थे।
कैथोलिक पति की हिंदू पत्नी
जेडी वैंस ने 2019 में कैथोलिक धर्म अपनाया था। वह कहते हैं कि अब वह और उनका परिवार चर्च को अपना घर मानते हैं। उनके प्रचार अभियान दल ने इस बारे में सवालों का जवाब नहीं दिया कि क्या उनके तीन बच्चों ने भी कैथोलिक धर्म अपना लिया है। उन्होंने इस बारे में काफी बात की है कि कैसे उनकी पत्नी ने उन्हें कैथोलिक विश्वास अपनाने में मदद की, जब वह एक आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उतार-चढ़ाव का सामना कर रहे थे, क्योंकि उन्हें प्रोटेस्टेंट के रूप में पाला गया था और कॉलेज में वह नास्तिक बन गए थे।
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक, सुहाग शुक्ला ने कहा कि उषा वैंस ने अपने पति को कैथोलिक बनने की उनकी धार्मिक यात्रा में प्रेरित किया, यह हिंदू मूल्यों की सबसे बड़ी पहचान है।
उन्होंने कहा, हिंदू धर्म अपने स्वयं के मार्ग को खोजने और अपनी आध्यात्मिकता से जुडऩे के बारे में है। हिंदू की परिभाषा किसी ऐसे व्यक्ति से हो सकती है जो मंदिर जाता है और अनुष्ठान करता है। या फिर ऐसा व्यक्ति जो दिवाली जैसे त्योहार मनाता है या केवल ध्यान जैसी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं तक ही सीमित है।
शुक्ला ने कहा कि उषा वैंस हिंदू अमेरिकियों द्वारा किए गए सकारात्मक योगदान का एक उदाहरण हैं, और उनके अंतरधार्मिक विवाह और विभिन्न दृष्टिकोणों को सुनने की उनकी क्षमता हिंदू शिक्षाओं की ही पहचान है।
उन्होंने कहा, हिंदू अमेरिकी आत्मसात करते हैं, लेकिन साथ ही वे अपनी परंपरा और संस्कृति से मिली प्रेरणा को भी थामे रहते हैं। हमारी बहुलवादी पृष्ठभूमि हमें विभिन्न लोगों के साथ बिना अपनी पहचान खोए मिल-जुल कर रहने में सक्षम बनाती है। (डॉयचेवैले)
इसराइल में अरसे से प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के खिलाफ प्रदर्शन होते रहे हैं लेकिन जब इसराइल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ़) ने बताया कि उसे शनिवार को दक्षिणी गाजा के रफाह में एक सुरंग में छह बंधकों के शव मिले हैंइसराइली सेना जब तक इन बंधकों तक पहुंच पाती उससे कुछ देर पहले ही इन्हें मार दिया गया था। इसके बाद नेतन्याहू सरकार के खिलाफ हज़ारों की तादाद में लोग सडक़ों पर उतर पड़े।
वहीं छह मृत बंधकों में से एक हेर्श गोल्डबर्ग पोलिन की अंतिम यात्रा यरुशलम में निकली है।
इस दौरान कई शोकाकुलों में से एक शायदना एब्रान्सन ने कहा, हमें माफ कर दो हेर्श हम तुम्हें समय पर नहीं निकाल सके।
सोमवार को इसराइल में सभी बंधकों की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए आम हड़ताल का आह्वान किया गया लेकिन देश के लेबर कोर्ट ने इसे ख़त्म करने का आदेश दिया।
तेल अवीव की अदालत ने कहा है कि आम हड़ताल अपने समय से पहले ही ख़त्म कर दी जानी चाहिए।
लेकिन आज सुबह से ही देश में ये हड़ताल जारी रही जिसकी वजह से इसराइल में व्यवसायों से लेकर स्कूल और ट्रांसपोर्ट तक ठप पड़ा हुआ है। रविवार को विरोध प्रदर्शन की शुरुआत शांतिपूर्ण तरीके से हुई। लेकिन बाद में भीड़ ने पुलिस बैरियर तोड़ दिए और तेल अवीव में प्रमुख हाईवे ब्लॉक कर दिए। प्रदर्शनकारियों ने टायरों में भी आग लगाई।
गज़़ा की एक सुंरग में छह बंधकों के शव मिलने के बाद रविवार से ही हज़ारों लोग सडक़ों पर उतर आए थे। फि़लहाल 97 ऐसे लोग गाजा में हैं जिनके बारे में कोई सूचना नहीं है।
सोमवार की हड़ताल कितनी व्यापक?
इसराइल के लेबर कोर्ट द्वारा हड़ताल रोकने के आदेश से पहले ही कार्यकर्ताओं ने देश के कई हिस्सों में हड़ताल से जुड़े प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है।
देश के कई मुख्य मार्गों पर ट्रैफिक अवरुद्ध हुआ है। तेल अवीव के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भी कुछ फ़्लाइट रद्द हुईं और कई देर से उड़ीं। कई अस्पतालों में सेवाएं बाधित रहीं और बैंक भी बंद रहे।
लेबर कोर्ट के हड़ताल बंद करने के आदेश से पहले तेल अवीव की सडक़ों पर हज़ारों लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया है। इस हड़ताल को इसराइल की सबसे ताक़तवर ट्रेड यूनियन - हिस्ताद्रुत ने बुलाया था।
गाजा में बंधक बनाए गए लोगों के परिजनों के संगठन ने आज रात प्रधानमंत्री नेतन्याहू के घर के अलावा कई जगहों पर प्रदर्शन करने का एलान किया है।
प्रदर्शनकारी तेल अवीव, यरूशलम और अन्य कई शहरों में इसराइली झंडा अपने हाथों में लेकर निकले।
इनका कहना है कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू और उनकी सरकार बंधकों की रिहाई के लिए हमास के साथ समझौता करने के लिए पर्याप्त क़दम नहीं उठा पाई है।
इनकी मांग है कि नेतन्याहू की सरकार को बंधकों की रिहाई के लिए हमास के साथ समझौता करना चाहिए ताकि हमास की कैद में शेष बंधकों की रिहाई सुनिश्चित हो सके।
इसराइल की ट्रेड यूनियन ने सोमवार को देशव्यापी हड़ताल की जिसे बाद में लेबर कोर्ट ने ख़त्म करने का आदेश दिया। इसराइल के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन के नेता का कहना है कि उनके देश को डील के बजाय शवों के थैले मिल रही हैं।
हड़ताल का असर
सोमवार को आम हड़ताल बुलाने वाली हिस्ताद्रुत ट्रेड यूनियन में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के महानिदेशक पीटर लर्नर ने बीबीसी से कहा कि हड़ताल के कारण पहले से ही कई सेवाओं में रुकावट आई है।
उन्होंने कहा, हम बेन गुरियन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सूटकेसों का अंबार देख रहे हैं। कुछ बंदरगाह अपनी गतिविधियों को कम कर रहे हैं। कुछ नगरपालिकाओं में हम उम्मीद करते हैं कि निजी क्षेत्र में आज व्यवसाय नहीं खुलेंगे।
अदालत के हड़ताल ख़त्म करने के आदेश से पहले बेन गुरियन हवाई अड्डे पर कुछ उड़ानें स्थगित हुई हैं।
ग्रीस जा रहे ज़मी मोल्दोवन ने कहा, हमें पता चला कि ग्रीस के लिए हमारी उड़ान स्थगित कर दी गई है। मैं इस हड़ताल का समर्थन करता हूँ क्योंकि वास्तव में इसराइल के सभी लोग चाहते हैं कि हमारे दोस्त और भाई गज़ा से आज़ाद हों और लौटें।
हवाई उड़ानों पर तो असर पड़ा ही है, काम धंधे और स्कूल पर भी हड़ताल का असर है। हाइफा में रामबाम अस्पताल में सर्जरी विभाग के प्रमुख, प्रोफेसर येहुदा उल्मन ने कहा कि उन्होंने और उनके सहयोगियों ने हड़ताल में शामिल होने का फैसला किया।
प्रोफ़ेसर येहुदा उल्मन ने बताया, हम हड़ताल पर हैं। यह उन डॉक्टरों के लिए बहुत कठिन शब्द है जो रोगियों के जीवन और कल्याण की देखभाल करने के लिए यहां हैं। लेकिन हम और पूरा देश अब बहुत ही कठिन स्थिति में हैं, बंधकों की वजह से। और कल शायद यह सबसे कठिन दिन था क्योंकि हमने उन छह बंधकों के बारे में सुना जो ग्यारह महीने तक पीड़ा सहने के बाद मारे गए। हम अलग नहीं रह सकते और इसलिए हमने हड़ताल की।
पिछले साल सात अक्टूबर को इसराइल पर हमास ने हमला किया था और इसके बाद सैकड़ों की संख्या में लोगों को बंधक बनाकर गज़़ा ले जाया गया था।
बंधकों की रिहाई को लेकर सरकार पर दबाव
इसराइली बंधकों के परिवारों ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल में हिस्सा लिया। शेरोन लिफ्शित्ज़ लंदन में एक फि़ल्म निर्माता और शिक्षाविद हैं।
हमास ने 7 अक्टूबर को जिन लोगों को बंधक बनाया था उनमें उनके माता-पिता भी थे। उनकी माँ तो नवंबर के युद्ध विराम के दौरान रिहा हो गईं, लेकिन उनके 83 साल के पिता अभी भी लापता हैं।
माना जाता है कि उन्हें गज़़ा में बंदी बनाकर रखा गया है। उनका कहना है कि जब तक समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हो जाते, बंधकों की जान जोखिम में है।
शेरोन कहते हैं, ये बंधक एक हफ़्ते से भी कम समय पहले तक जिंदा थे। वे इसलिए मारे गए क्योंकि समझौते पर हस्ताक्षर करने में देरी हो रही है। इसराइल सरकार और हमास इस समझौते तक पहुँचने के रास्ते में और भी अड़चनें डाल रहे हैं।
मुझे और यहाँ रहने वाले समझदार नागरिकों को उम्मीद है कि इन मौतों के कारण पूरी दुनिया में हंगामा मचेगा, जिससे इसराइल और हमास की सरकारें इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होंगी और इस भयानक घटना का अंत होगा।
शेरोन का कहना है कि गज़़ा में अपने सैन्य अभियान के ज़रिए हमास को हराने की इसराइली सरकार की प्रतिज्ञा काम नहीं आएगी।
शेरोन की तरह ही जोनाथन डेकेल-चेन के पिता अभी भी बंधक हैं। उन्होंने दोहराया कि वह युद्धविराम और बंधकों के लिए एक समझौता चाहते हैं।
जोनाथन डेकेल-चेन कहते हैं, प्रधानमंत्री नेतन्याहू और याह्या सिनवार दोनों की जो सोच है वो साफ़तौर पर ज़मीनी हकीकत नहीं बयान करते हैं। उन्हें खुद के राजनीतिक या वैचारिक एजेंडे को अलग रखना होगा और लोगों की भलाई के लिए युद्ध विराम और बंधक समझौते पर पहुंचने के लिए तेजी से काम करना होगा। जब तक वे दोनों यह तय नहीं कर लेते कि उनका अपना राजनीतिक भविष्य या वैचारिक मसीहावाद उनके अपने लोगों की सुरक्षा से कम महत्वपूर्ण है।
समझौते में देरी क्यों?
बंधकों की रिहाई पर समझौता ना हो पाने के लिए इसराइल के प्रधानमंत्री बिनयामिन नेतन्याहू ने हमास नेताओं को दोषी ठहराते हुए कहा है कि हत्याओं से पता चलता है कि वे कोई समझौता नहीं चाहते थे।
नेतन्याहू का कहना है कि दिसंबर से हमास वास्तविक वार्ता करने से मना कर रहा है। तीन महीने पहले, 27 मई को, इसराइल ने अमेरिका के पूरे समर्थन के साथ बंधक रिहाई समझौते पर सहमति जताई थी। हमास ने इस दावे से इंकार किया है।
नेतन्याहू का कहना है, अमेरिका के 16 अगस्त को मसौदे की रूपरेखा को अपडेट करने के बाद भी हम सहमत हुए और हमास ने फिर से इंकार कर दिया। इस समय भी, जब इसराइल एक समझौते पर पहुंचने के लिए मध्यस्थों के साथ गहन वार्ता कर रहा है, हमास का किसी भी प्रस्ताव को खारिज करना जारी है। इससे भी बदतर बात ये है कि जारी वार्ता के दौरान उसने हमारे छह बंधकों की हत्या कर दी। जो बंधकों की हत्या करता है वह समझौता नहीं चाहता है।
ताज़ा घटनाक्रम के बाद नेतन्याहू ने कहा इसराइल हमास के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेगा।
लेकिन नेतन्याहू सिर्फ आम लोगों के ही निशाने पर नहीं हैं, उन्हें विपक्ष के हमलों का भी सामना करना पड़ा है।
विपक्ष के नेता याएर लैपिड ने नेतन्याहू पर बंधकों को न बचाने का फैसला करने का आरोप लगाया है।
लैपिड ने कहा है, वे जि़ंदा थे। नेतन्याहू और मौत की कैबिनेट ने उन्हें ना बचाने का फैसला किया। अभी भी जीवित बंधक हैं, अभी भी कोई समझौता हो सकता है। नेतन्याहू राजनीतिक वजहों से ऐसा नहीं करना चाहते। उन्हें हमारे बच्चों की जि़ंदगी बचाने के बजाय बेन-ग्विर के साथ गठबंधन को बचाना पसंद है। इन हत्याओं का दोष उनके सिर माथे रहेगा। (bbc.com/hindi)