विचार / लेख
-सनियारा खान
आजादी की लड़ाई में सब से कम उम्र में शहीद होने वाली लडक़ी के रूप में असम की कनक लता बरुआ का चेहरा ही सामने आ जाता है। उनका नाम भले ही असम के लोगों के लिए जाना पहचाना और स्मरणीय नाम हो, लेकिन बाकी देश के शायद मु_ी भर लोग ही उनके बारे में जानते होंगे। ये बड़े अफसोस की बात है कि आज़ादी की लड़ाई लडऩे वाले और लड़ कर जान देने वाले हमारे देश के अलग अलग प्रांतों के बहुत से नामों को हम जानते ही नहीं हैं या फिर जानने के बाद भी धीरे धीरे भूल जाते हैं।
कनक लता बरुआ, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले कर देश के लिए जान देने वाली असम की पहली महिला थी। सन 1924 में 22 दिसम्बर के दिन जन्म लेने वाली कनक लता एक सम्भ्रांत परिवार से थी। उनके मामा देवेंद्र नाथ बरा एक जाने-माने कांग्रेसी नेता थे। छोटी उम्र से ही मामा और बाकी लोगों से वे ये सब बातें सुनती रहती थी कि कैसे सात समंदर पार से आ कर अंग्रेजों ने हमारे मुल्क पर कब्जा कर लिया था और कैसे अपने मुल्क को उनसे आज़ाद करने के लिए हमारे भारतीय भाई बहन सभी अपनी जानों की परवाह न करते हुए लड़ रहे थे! गांधीजी की बातों से वे कम उम्र में ही प्रभावित हो गई थी। लेकिन एक समय वे दिलों जान से आजाद हिन्द फौज में शामिल होना चाहती थी। शायद वे तय कर नहीं पा रही थी कि किसके साथ मिल कर देश बचाने की राह में आगे बढ़े! तभी असम के प्रख्यात गीतकार और नाट्यशिल्पी ज्योति प्रसाद आगरवाला जी द्वारा गठित ‘मृत्यु बाहिनी’ नामक लड़ो या मरो मानसिकता रखने वाली एक संगठन के बारे में कनक लता बरुआ को पता चला। ये संगठन देशप्रेमी और जांबाज युवक युवतियों से भरा हुआ था।
सत्रह साल की उम्र में सजना संवरना, प्यार करना इन सभी बातों से दूर रह कर कनक लता सिफऱ् देश को आज़ाद कराने के बारे में सोचती रहती थी और ज़रूरत पडऩे पर जान भी देने के लिए खुद को पूरी तरह से तैयार कर ली थी। इसी के बाद वे मृत्यु बाहिनी में आजादी की सिपाही बन कर जुड़ गई। मृत्यु बाहिनी ने तय किया कि वे गहपुर की स्थानीय पुलिस चौकी में जा कर अंग्रेजों का झंडा उतार कर हिन्दुस्तानी झंडा फहराएंगे। ये सन 1942 की बात है। देश में सब तरफ ‘अंग्रेजोंं भारत छोड़ो’ का नारा फैल गया था। उसी समय कनक लता की नेतृत्व में बाकी सभी साथी हाथ में राष्ट्रीय झंडा ले कर पुलिस चौकी के तरफ आगे बढ़ रहे थे। उन लोगों को रोकने के लिए जिस अफसर द्वारा सेना को उन पर गोली चलाने के लिए आदेश दिया गया था, वह एक हिन्दुस्तानी ही था। इससे ये बात पता चलती है कि देश के साथ गद्दारी करने वाले तभी से ही देश में मौजूद थे। गोली खा कर बीस सितंबर के दिन कनकलता बरुआ शहीद हो गई। मरते-मरते भी वे अपने हाथ से राष्ट्रीय झंडे को जमीन पर गिरने नहीं दिया। उनकी बहादुरी के किस्से जानने वाले उनको ‘पूर्वोत्तर की रानी लक्ष्मीबाई’ कहकर सम्मान देते हैं।


