-सारदा वी
सीडीएससीओ यानी सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन ने दवाओं पर एक मासिक रिपोर्ट जारी की है। इसमें 48 दवाएं शामिल हैं।
इस सूची में पेरासिटामोल, पेन-डी, और ग्लेसिमेट एसआर 500 जैसी दवाएं भी हैं, जो सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं। ये दवाएं आवश्यक गुणवत्ता पैमाने पर खरी नहीं उतरी हैं।
सीडीएससीओ हर महीने तय मानकों से नीचे मिलने वाली दवाओं की एक सूची जारी करता है। अगस्त महीने की सूची में 48 दवाएं शामिल हैं, जिनमें वो दवाएं भी हैं, जो आमलोग ज़्यादातर इस्तेमाल करते हैं।
पेरासिटामोल आईपी 500 एमजी का उत्पादन कर्नाटक एंटीबायोटिक्स और फॉर्मास्यूटिकल्स और पेन-डी का उत्पादन अलकेम हेल्थ साइंस करती है।
वहीं, मॉन्टेयर एलसी किड का उत्पादन प्योर एंड क्योर हेल्थकेयर प्रायवेट लिमिटेड और ग्लेसिमेट एसआर 500 का उत्पादन स्कॉट-एडिल फार्मेसिया करती है।
इनको सूची में उन दवाओं में रखा गया है, जो गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतर पाई हैं।
दो बड़ी फार्मा कंपनी सन फार्मा और टोरंट ने कहा है कि रिपोर्ट में जिन दवाओं का नाम है वो उन्होंने नहीं बनाई हैं।
‘स्टैंडर्ड क्वालिटी’ ना होने का क्या अर्थ?
दवाओं को कई कारणों से तय मानकों की गुणवत्ता में कमी वाली कैटेगरी में रख दिया जाता है, जैसे वजऩ तय सीमा से कम होना, दिखने में अंतर या उसकी घुलनशीलता में फर्क होना।
उत्पाद की असली पहचान छिपाकर उसे दूसरी दवा बताकर बेचना किसी भी दवा को ‘जाली या नकली दवा’ बनाता है।
हाल ही में आई सूची में एमॉक्सिलिन और पौटेशियम क्लेवोनेट आईपी (क्लेवम 625), एमॉक्सिलिन एंड पौटेशियम क्लेवोनेट टैबलेट्स (मैक्सक्लेव 625), पेन्टोप्राजोल गैस्ट्रो-रसिस्टेंड एंड डोमपेरिडोन प्रोलॉन्ग्ड- रिलीज कैप्सूल्स आईपी (पैन-डी) को नकली यानी जाली दवा बताया गया।
नकली दवा बनाने वालों के खिलाफ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट एमेंडमेंट 2008 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। इस क़ानून में 10 साल से लेकर उम्र क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान है।
इसके अलावा कम से कम दस लाख रुपये या जब्त की गई दवा की तीन गुनी कीमत (इन दोनों में से जो भी राशि अधिक हो) बतौर जुर्माना वसूल किए जाने का प्रावधान भी है।
इस सूची में शामिल बाक़ी दवाओं को तय मानकों से नीचे मानने की वजह उनके तत्व, घुलने और शरीर में मिलने जैसे ब्योरे या दवा की बनावट में पाई गई दिक्कतें हैं। सभी दवाएं एक खास खेप का हिस्सा हैं, जो गुणवत्ता परीक्षण में फेल हो गईं और इनको बाजार से वापस मंगवाया गया है।
असली और नकली दवा में फर्क कैसे करें?
दवाओं के नकली होने की खबर से कुछ लोग चिंतित हैं।
चेन्नई में रहने वाले 58 वर्षीय संकरन कहते हैं, ‘मैं 10 साल से डायबिटीज की दवा ले रहा हूं। मुझे इन दवाओं को नियमित तौर पर लेना होता है। मुझे इसके विकल्प के लिए और कहां जाना चाहिए? हमें यह कैसे पता लगेगा कि कौन सी दवा गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरी है? कोई जनता को इस बारे में कुछ क्यों नहीं बताता है? हमें अधूरी जानकारी और रिपोर्ट्स के साथ अंधेरे में रखा जाता है।’’
चेन्नई के अरुमबक्कम में रहने वाली 43 वर्षीय उषारानी पूछती हैं कि अगर डॉक्टरों की लिखी जा रही दवाएं भी सुरक्षित नहीं हैं, तो उन जैसे लोग क्या करें?
डॉक्टरों का कहना है कि तय मानकों पर खरी न उतर पाने वाली दवाओं का नियमित सेवन सेहत पर बुरा असर कर सकता है।
चेन्नई के डॉक्टर चंद्रशेखर ने सही दवा की पहचान के लिए ये बातें बताईं -
अगर दवाओं में उपयुक्त मात्रा में इनग्रेडिएंट यानी अंश ना हों तो दवा का असर मनचाहा नहीं होता।
तय मानकों पर खऱा न उतर पाने वाली दवाओं का सेवन लंबे समय तक करने से शरीर के अंगों को नुक़सान हो सकता है।
अगर कोई डायबिटिज या हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों के लिए दवा ले रहा है तो यह ज़रूरी है कि वो डॉक्टर से समय-समय पर जाँच करवाए।
मेडिकल स्टोर से दवा खरीदते वक्त आईएसओ (इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर स्टैंडर्डाइज़ेशन) या डब्ल्यूएचओ-जीएमपी (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस) का सर्टिफिकेट जरूर देखें।
जिन दवाओं की एक्सपाइरी डेट नजदीक आ चुकी है, उन्हें खरीदने से बचें। अगर दवाओं को सही ढंग से स्टोर नहीं किया गया हो तो वो बेअसर हो सकती हैं।
इंजेक्शन और इंसुलिन जैसी दवाएं खरीदने से पहले ये पता कर लें कि जहां से खरीद रहे हैं वहाँ रेफ्रिजरेशन की सुविधा है कि नहीं।
सावधान रहने की ज़रूरत
ड्रग कंट्रोल निदेशालय के अधिकारी और दवाओं के डीलरों का कहना है कि घबराने की ज़रूरत नहीं है। ऐसी जाँच नियमित तौर पर होती रहती है और इनसे ‘जि़ंदगी को खतरे’ जैसी कोई बात नहीं है।
तमिलनाडु केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष एस.एस.रमेश कहते हैं कि छोटे-मोटी खामियों के कारण भी दवाओं को सब-स्टैंडर्ड करार दिया जाता है और ऐसे कड़े नियमों के कारण दवाओं की क्वालिटी सुधारने में मदद मिलती है।
उन्होंने बताया, ‘‘अगर किसी दवा को आपके मुंह में पांच सेकेंड में घुल जाना चाहिए लेकिन उस छह सेकेंड लगते हैं तो इसे सब-स्टैंडर्ड मान लिया जाता है।’
चेन्नई के डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘कुछ कैमिस्ट 80 फीसदी तक का डिस्काउंट देते हैं। लेकिन कोई 100 रुपए का उत्पाद 20 रुपए में कैसे बेच सकता है? कई जगहों पर दवाएं बड़ी मात्रा में खरीद ली जाती हैं, और जब उनकी एक्सपाइरी डेट में तीन महीने बचते हैं तो उनको भारी डिस्काउंट पर बेचा जाता है।’
डॉक्टर अश्विन कहते हैं कि अगर दवाओं की पैकेजिंग ठीक से नहीं की गई हो या उन्हें ठीक तरह से स्टोर नहीं किया गया हो तो एक्सपाइरी डेट के नज़दीक आते ही उनका असर घट जाता है।
डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘कुछ मौकों पर आईवी दवाओं (सीधे ब्लडस्ट्रीम में इंजेक्ट की जाने वाली दवाएं) में बैक्टीरिया भी पनप जाते हैं। इंसुलिन को 6 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखना होता है, मगर जब इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता है, तो कई बार इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है। इसलिए इंसुलिन ऑनलाइन नहीं खरीदनी चाहिए क्योंकि सही तापमान के बिना ये सिफऱ् पानी है।’
इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन तमिलनाडु, केरल, पॉन्डिचेरी चैप्टर्स के चेयरमैन जे जयसीलन का कहना है कि नकली दवाओं और तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं में भेद करने की जरूरत है।
उनके मुताबिक- तय मानकों पर खरा न उतरने वाली दवा का पता लगाना भी इंडस्ट्री प्रैक्टिस का हिस्सा है, और वहीं अवैध दवाओं पर तत्काल कार्रवाई की जाती है।
उन्होंने कहा, ‘सामान्य तौर पर 3 से 5 फ़ीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो तय मानकों पर खऱा नहीं उतर पाते हैं, जबकि 0।01 फीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो नकली निकलते हैं। तय मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली दवाओं की खेप को तुरंत बाजार हटा लिया जाता है। अमेरिका जैसे देशों में भी ये होता है। ये ऐसा मुद्दा नहीं है जिससे सेहत को कोई गंभीर ख़तरा हो।’
जयसीलन कहते हैं, ‘कई बार कैमिस्ट दवाओं को निर्धारित तापमान में स्टोर नहीं करते हैं। ऐसे में जब 12 महीने बाद दवा को टेस्ट किया जाता है तो उसकी गुणवत्ता तय मानक से कम मिल सकती है। केंद्र सरकार दवाओं के वितरण की अच्छी व्यवस्था लागू करने जा रही है जिसमें वितरण प्रक्रिया में शामिल हर व्यक्ति की जिम्मेदारी तय होगी। मुझे उम्मीद है कि इससे निगरानी में सुधार होगा।’
जयसीलन कहते हैं कि भारत को फॉर्मेसी ऑफ़ द वल्र्ड कहा जाता है। अमेरिका की 40 फीसदी और यूरोप की 25 फीसदी दवाएं भारत में बनती हैं। कई गरीब देश भी दवाओं के लिए भारत पर निर्भर हैं।
जे जयसीलन ने इस बात पर जोर दिया कि लोगों को उस मेडिकल स्टोर से दवा लेनी चाहिए, जिसने इसकी पढ़ाई की हो।
फ़ार्मा कंपनियां क्या कह रही हैं?
सन फॉर्मा और टोरंट ने कहा, ‘सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन ने जो दवाएँ नकली बताई हैं, वो हमने नहीं बनाई हैं।’
न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक- सन फार्मा के प्रवक्ता ने कहा, ‘हमारी कंपनी ने इस मामले की जाँच की है। इसमें पाया गया कि पल्मोसिल (सिल्डेनेफिल इंजेक्शन), बैच नंबर केएफए0300, पेन्टोसिट (पेन्टोप्राजोल टैबलेट आईपी), बैच नंबर एसआईडी2041ए और यूरोस्कोल 300 (उर्सोडियोक्सिकोलिक एसिट टैबलेट आईपी), बैच नंबर जीटीई1350ए नकली हैं।’
सन फार्मा ने यह भी कहा कि वो मरीजों की सुरक्षा को लेकर कदम उठा रहे हैं।
कंपनी ने कहा, ‘‘हम अपने कुछ ब्रैंड्स पर क्यूआर कोड भी प्रिंट करवा रहे हैं। मरीज़ आसानी से इस पर लिखे कोड के जरिए दवा की प्रमाणिकता की जाँच कर सकता है।’’
द हिंदू ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि टोरंट फार्मा ने भी उसी खेप (शेलकाल 500) की जाँच की, जिसका सैंपल सीडीएससीओ ने लिया था। इस कंपनी ने भी अपनी जाँच में पाया कि ये दवाएं नकली थीं। टोरंट फ़ार्मा का कहना है कि शेलकाल पर क्यू आर कोड थे लेकिन सीडीएससीओ ने जो सैंपल जब्त किए उन पर ये क्यूआर कोड नहीं थे।
लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर जयलाल ने कहा, ‘दवाओं के गुणवत्ता पर खरा न उतर पाना गंभीर चिंता का विषय है। इस मामले में ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। दवा के वितरण से जुड़े हर पहलू पर नजऱ रखने की जरूरत है। यानी दवा बनाने वाली कंपनी से उपभोक्ता तक पहुंचने के दौरान दवा पर नजर रखने की जरूरत है। कई पश्चिमी देशों में ऐसा होता भी है।’
उन्होंने कहा, ‘पश्चिमी देशों की तर्ज पर दवाओं के फैक्ट्री से ग्राहक तक पहुंचने को ट्र्रैक किए जाने की जरूरत है। सरकारी एजेंसियां सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी को दवा का ठेका देती हैं। ऐसे में शायद तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाएं भी सरकारी क्षेत्र में वितरण प्रणाली में शामिल हो जाती है।’
सरकार क्या कदम उठा रही है?
डॉक्टर श्रीधर तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर हैं। उन्होंने बताया कि जब कोई दवा तय मानकों पर खरा नहीं उतरती , तो तुरंत उसकी जाँच शुरू कर दी जाती है।
इसके तहत दवा बनाने वाले और इसे बाजार में बेचने वाले का पता लगाया जाता है।
उन्होंने कहा, ‘‘सबसे पहले इन दवाओं को दुकानों से हटाने का आदेश दिया जाता है। दवा सभी दुकानों से हटा ली जाती है। दवा बनाने वाले का पता लगने के बाद हम यह पता लगाते हैं कि गलती कहां की गई?’’
उन्होंने कहा, ‘‘इसके बाद दवा बनाने वाले को नोटिस जारी किया जाता है और उससे जवाब मांगा जाता है। अगर कंपनी लगातार ऐसी गलती करती है, तो उनके खिलाफ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट की सेक्शन 18 के तहत कानूनी कार्रवाई की जाती है।’’
तमिलनाडु ड्रग सेलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष नटराज ने बताया कि दवाओं के ऑनलाइन बिकने के कारण बाज़ार में तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं की संख्या में इजाफ़ा हो रहा है।
उन्होंने कहा, ‘ऑनलाइन दवा की बिक्री में कश्मीर से भी कोई व्यक्ति तमिलनाडु में दवा बेच सकता है। कोई इसकी जाँच नहीं करता है कि दवा कहां से आई है।’
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल डायरेक्टोरेट ने दवाओं की निगरानी तेज कर दी है। उन्होंने हर महीने लिए जाने वाले दवाओं के सैंपल भी बढ़ाने का निर्देश दिया है।
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर डॉक्टर श्रीधर कहते हैं, ‘राज्य में 146 दवा निरीक्षक हैं। एक निरीक्षक हर महीने खुदरा व्यापारी, होलसेलर्स और सरकारी अस्पतालों से 8 सैंपल इक_ा करता है। अब उसे हर महीने दस सैंपल लेने के लिए कहा गया है।’((bbc.com/hindi)
गज़़ा के बाद लेबनान और अब यमन। इसराइली हमले के दायरे का विस्तार हो रहा है।
लेबनान में ईरान समर्थित शिया चरमपंथी संगठन के प्रमुख सैय्यद हसन नसरल्लाह को मारने के बाद इसराइल ने अब यमन में हूती चरमपंथी संगठन के ठिकानों पर हमला शुरू कर दिया है।
हूती विद्रोहियों के गुट को भी ईरान समर्थित चरमपंथी संगठन ही कहा जाता है।
नसरल्लाह के मारे जाने पर अरब के ज़्यादातर सुन्नी मुसलमानों के नेतृत्व वाले देश चुप रहे हैं या बहुत ही सधी हुई प्रतिक्रिया आई है।
सुन्नी नेतृत्व वाले अरब के देशों के समक्ष दुविधा रही है कि वे इसराइल से संबंध सामान्य करें या हिज्बुल्लाह को प्रश्रय देने वाले ईरान का विरोध करें।
नसरल्लाह पिछले 32 सालों से हिज़्बुल्लाह की अगुवाई कर रहे थे और उनके ‘दुश्मन’ इसराइल और पश्चिम के अलावा आसपास के भी देश थे।
2016 में खाड़ी के देशों के अलावा अरब लीग ने हिज्बुल्लाह को आतंकवादी समूह घोषित किया था। हालांकि इस साल अरब लीग ने आतंकवादी घोषित करने का फैसला वापस ले लिया था।
सऊदी अरब और जीसीसी ने दिया बयान
सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब ने रविवार की शाम कहा कि लेबनान में जो कुछ भी हो रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है। सऊदी ने लेबनान की संप्रभुता और उसकी सुरक्षा की बात कही। लेकिन सऊदी अरब ने नसरल्लाह का जिक्र नहीं किया।
वहीं सुन्नी नेतृत्व वाले देश कतर, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और बहरीन नसरल्लाह के मारे जाने पर पूरी तरह से चुप हैं।
यूएई और बहरीन ने तो 2020 में इसराइल से संबंध सामान्य कर लिए थे। 2011 में बहरीन ने शिया समुदाय के लोकतंत्र के समर्थन में शुरू हुए आंदोलन को दबा दिया था। बहरीन शिया बहुल देश है लेकिन शासक सुन्नी हैं। जैसे कि सीरिया के शासक शिया हैं और ज़्यादा आबादी सुन्नियों की है।
खाड़ी के छह देशों (बहरीन, ओमान, कतर, सऊदी अरब, यूएई और कुवैत) के संगठन गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) ने बयान जारी कर लेबनान की संप्रभुता, सुरक्षा और स्थिरता का समर्थन किया है।
जीसीसी ने लेबनान-इसराइल सीमा पर तुरंत संघर्ष विराम पर जोर दिया है। साथ ही बयान में ये भी कहा गया है कि कोई भी हथियार लेबनान की सरकार की अनुमति के बिना मौजूद न हो और उसके प्रशासन के अलावा कोई प्रशासन मौजूद न हो।
यानी जीसीसी का कहना है कि लेबनान की सरकार के अलावा वहाँ कोई और प्रभाव में ना रहे। ज़ाहिर है कि हिज़्बुल्लाह का लेबनान में काफी दखल रहा है।
बहरीन में प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेने की खबर
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, बहरीन में ईरान समर्थित लुआलुआ टीवी ने एक वीडियो का प्रसारण किया, जिसमें नसरल्लाह के प्रति सहानुभूति दिखाई गई। इस चैनल ने कहा कि बहरीन की सरकार ने नसरल्लाह के समर्थन में आए लोगों पर हमला किया और उन्हें हिरासत में ले लिया।
बहरीन के विपक्ष की वेबसाइट बहरीन मिरर का कहना है कि प्रशासन ने शिया धर्मगुरु को हिरासत में ले लिया क्योंकि वह नसरल्लाह को श्रद्धांजलि दे रहे थे। रॉयटर्स का कहना है कि उसने बहरीन की मीडिया रिपोर्ट्स की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की है।
मिस्र के राष्ट्रपति अब्दल फ़तेह अल-सीसी ने लेबनान के प्रधानमंत्री नाजिब मिकाती से फ़ोन पर बात की और उन्होंने नसरल्लाह का नाम लिए बिना कहा कि मिस्र लेबनान की संप्रभुता के उल्लंघन को नकारता है।
ईरान के छद्म संगठनों और उसकी नीतियों को लेकर मिस्र उसके खिलाफ रहा है। हालांकि ईरान की सरकार से मिस्र की अनौपचारिक बातचीत होती रही है।
मिस्र के राष्ट्रपति ने नसरल्लाह के मारे जाने के बाद कहा था कि पूरा इलाक़ा मुश्किल हालात में है। उन्होंने कहा कि मिस्र चाहता है कि इस इलाके की स्थिरता और सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित हो।
अल-सीसी ने टीवी पर प्रसारित अपने भाषण में नसरल्लाह का नाम तक नहीं लिया। वहीं शिया शासकों वाले देश सीरिया और इराक में तीन दिनों के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई है।
शनिवार तक कई अरब देशों में हसन नसरल्लाह का नाम सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा था, जिसमें कई लोग उनकी मौत पर दुख जता रहे थे।
ओमान के शाही इमाम शेख़ अहमद बिन हमाद अल-ख़लीली ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा कि उनका देश ‘हिज़्बुल्लाह के महासचिव के गुजऱने पर दुख जता रहा है, वो बीते तीन दशकों से यहूदी परियोजना के गले की फांस बने हुए थे।’
पाकिस्तान में विरोध-प्रदर्शन
तुर्की के इसराइल के साथ राजनयिक संबंध हैं, लेकिन तुर्की ने गजा में इसके आक्रमण की तीखी आलोचना की है।
तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने एक्स पर कहा कि लेबनान में ‘जनसंहार’ किया जा रहा है। हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर नसरल्लाह का जिक्र नहीं किया है।
हसन नसरल्लाह की मौत पर पाकिस्तान ने भी बयान जारी किया था। हालांकि उसने भी सीधे नसरल्लाह का नाम नहीं लिया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा था कि ‘पाकिस्तान मध्य-पूर्व में बढ़ती इसराइली दुस्साहस की निंदा करता है। लेबनान की संप्रभुता के उल्लंघन को स्वीकार नहीं करेंगे।’
पाकिस्तान ने साथ ही कहा कि उसकी लेबनान की जनता और इसराइली हमले के पीडि़त परिवारों के साथ सहानुभूति है।
नसरल्लाह के मारे जाने के बाद पाकिस्तान में इसराइल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं। रविवार को लाहौर, कराची के अलावा इस्लामाबाद, पेशावर में भी प्रदर्शन हुए हैं। कराची में प्रदर्शन के दौरान झड़पें भी हुई हैं।
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि रहीं मलीहा लोधी ने एक टीवी चैनल के साथ बातचीत में कहा कि ‘इस शहादत के बाद इसराइल का ये सोचना कि हिज़्बुल्लाह का आंदोलन रुक जाएगा, फलस्तीनी हक़ के लिए आवाज़ नहीं उठाएगा तो ये उसकी गलतफ़हमी है।’
उन्होंने कहा, ‘हिज़्बुल्लाह के लिए ये झटका है कि उसका टॉप लीडर इस तरह से शहीद हुआ है। इनसे पहले हिज़्बुल्लाह के नेता को भी इसराइल ने शहीद किया था। क्या इसके बाद हिज़्बुल्लाह ख़त्म हो गया? उसके बाद भी इसका आंदोलन चलता रहा जो और मजबूत हुआ। ये हिज़्बुल्लाह के लिए झटका जरूर है लेकिन वो फिर से उठेगा।’
पाकिस्तान के मीडिया में नसरल्लाह की मौत को शहादत कहा जा रहा है।
अरब के कई इलाकों में जश्न क्यों?
एक तरफ हसन नसरल्लाह की मौत पर कुछ लोगों ने दुख जताया वहीं कुछ लोग इसका जश्न भी मना रहे थे। इनमें अधिकतर सीरिया में विद्रोही गुटों के कब्ज़े वाले इलाक़े थे।
सीरिया में बशर अल असद की सेना को रूस और ईरान के अलावा हिज़्बुल्लाह ने भी समर्थन दिया था और सरकार विरोधी लड़ाकों से वापस कई इलाकों पर पकड़ बनाने में असद सरकार की मदद की थी।
एक्स पर इराक़ स्थित पत्रकार उमर अल-जमाल ने लिखा, ‘सीरिया में नसरल्लाह की वजह से लाखों पीडि़त हैं। क्या वो मुसलमानों से रहम की उम्मीद रखते हैं?’
यूएई स्थित पत्रकार सैफ़ अल दरई ने सीरिया में लोगों के जश्न मनाते वीडियो को पोस्ट किया। उन्होंने लिखा, ‘हिज़्बुल्लाह ने सीरिया में हमारे भाइयों के ख़िलाफ़ वो कर दिखाया जो यहूदी नहीं कर पाए।’
न्यूज़वीक पत्रिका में जॉर्डन सीनेट के पूर्व सदस्य मुहम्मद अलाज़ेह ने लिखा कि साल 2006 में इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच हुई जंग में पूरे अरब जगत और मुस्लिम देशों में हिज़्बुल्लाह के समर्थन में रैलियां निकलती थीं लेकिन आज तस्वीर बदल चुकी है।
वो लिखते हैं कि हिज़्बुल्लाह ने सीरिया, इराक़ और यमन में दख़ल देना शुरू किया इसके अलावा बहरीन के प्रदर्शनों में भी उसकी भूमिका रही जिससे वो इसराइल के साथ-साथ इन देशों में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ भी हो गया।
प्रदर्शन करते लोग
वो लिखते हैं, ‘हिज़्बुल्लाह का यमन, सीरिया, इराक़ और ईरान के भ्रष्ट शासन को समर्थन का बड़ा असर इसराइल पर हमले की तुलना में अरब और इस्लामी मुल्कों के लोगों पर ज़्यादा पड़ा है। इसी वजह से हसन नसरल्लाह की मौत पर इनके बीच आंसू नहीं बहाए गए हैं।’
हिज़्बुल्लाह न केवल लेबनान का सबसे शक्तिशाली खिलाड़ी है बल्कि उसका दक्षिण एशिया को लेकर एक क्रांतिकारी नज़रिया रहा है। इस नज़रिए का सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी के मुल्कों के साथ मतभेद रहा है।
साल 2016 में गल्फ़ कॉओपरेशन काउंसिल (जीसीसी) ने हिज़्बुल्लाह को ‘आतंकवादी संगठन' घोषित कर दिया था।
उसी समय हिज़्बुल्लाह के नेतृत्व ने इस्लामिक स्टेट (आईएस) के उदय के लिए सऊदी अरब को जि़म्मेदार ठहराया था। वो सऊदी अरब पर क्षेत्र में सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देने का भी आरोप लगाता रहा है।
अरब जगत में बदलते समीकरणों के बीच ये सवाल अब भी बरकऱार है कि हिज़्बुल्लाह और सऊदी अरब समेत सुन्नी बहुल देशों के संबंध अब किस तरह प्रभावित होंगे।
इस्लामिक देशों का विरोधाभास
यूएई और बहरीन ने इसराइल से राजनयिक रिश्ते कायम कर लिए थे। इनके बाद सूडान और मोरक्को ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का फैसला किया था। सूडान और मोरक्को भी मु्स्लिम बहुल देश हैं।
ऐसा ही दबाव सऊदी अरब पर भी था। लेकिन सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया और कहा कि जब तक फलस्तीन 1967 की सीमा के तहत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं बन जाता है तब तक इसराइल से औपचारिक रिश्ता कायम नहीं करेगा। सऊदी अरब पूर्वी यरुशलम को फ़लस्तीन की राजधानी बनाने की भी मांग करता है।
तुर्की यूएई और बहरीन की आलोचना कर रहा था कि इन्होंने इसराइल से राजनयिक संबंध क्यों कायम किए। ऐसा तब है जब तुर्की के राजनयिक संबंध इसराइल से हैं। तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था।
यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे। इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाकात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को ख़तरा है बल्कि पूरी दुनिया को है।
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे। 2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था। इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी। हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताडि़त करने का भी आरोप लगाया था। 2000 के दशक में हमास की करीबी ईरान से बढ़ी। (bbc.com/hindi)
-चन्द्रशेखर गंगराड़े
जब-जब केंद्र एवं राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रहती हैं तब-तब अक्सर राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच टकराव के समाचार सुनने में आते रहते हैं। राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य में राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारित करते हैं। जब केंद्र एवं राज्यों में एक ही दल की सरकारें होती थीं तब ऐसा कोई टकराव नहीं होता था लेकिन वर्ष 1967 के बाद जब से राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनने लगीं तब से राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई और केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से राज्य सरकारों पर नियंत्रण का प्रयास करती रही हैं। इसी कारण अनुच्छेद 356 का उपयोग करते हुए कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया लेकिन जब धारा 356 का उपयोग बहुत ज्यादा होने लगा तब इस प्रवृत्ति का विरोध होने लगा और राज्यपालों की भूमिका का निर्धारण करने के लिए सरकारिया आयोग का गठन वर्ष 1983 में किया गया और उसने अपना प्रतिवेदन वर्ष 1987 में प्रस्तुत किया। जिसमें राज्यपालों की भूमिका, कर्त्तव्य और दायित्व आदि के संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांत निर्धारित किए गए और सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बाद ही राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के मामले कम होने लगे। उत्तरप्रदेश में तो फरवरी 1998 में तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बर्खास्त कर दिया था और जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया था तब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दखल देते हुए दो दिन के भीतर विधानसभा में कैमरे की निगरानी में मत विभाजन का निर्देश दिया और कहा कि दोनों में से जो जीतेगा उसे मुख्यमंत्री माना जाएगा तब तक के लिए दोनों मुख्यमंत्री बने रहेंगे। अंतत: श्री कल्याण सिंह को अधिक वोट मिले और वे मुख्यमंत्री पद पर काबिज बने रहे।
हाल ही में तमिलनाडु, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल,कर्नाटक तथा दिल्ली में राज्यपालों और वहां की सरकारों के बीच लगातार टकराव की काफी खबरें आ रही हैं। जहां राज्यपाल, राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों को अनुमति नहीं दे रहे हैं. इस कारण राज्य सरकारों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ रही है।
पंजाब के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 23 नवंबर 2023 को अपने फैसले में कहा कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति रोक रहे हैं तो उन्हें विधेयक को विधान सभा को वापस करना होगा और वे विधेयक को अनिश्चित काल के लिए अपने पास रोककर नहीं रख सकते. यहां तक कि पंजाब में और पश्चिम बंगाल में तो राज्य विधान सभा का सत्र आहूत करने में भी अवरोध की स्थिति उत्पन्न हुई, जिससे संवैधानिक संकट की स्थिति भी निर्मित हो रही है।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की कि कई विषयों को राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच सुलझाने की आवश्?यकता है और उन्होंने यह सलाह भी दी कि राज्यपाल मुख्यमंत्री के साथ बैठकर उन चीजों को हल करें जिनमें कोई परेशानी है।
पश्चिम बंगाल विधान सभा का सत्र तो बिना राज्यपाल की अनुमति के आहूत किया गया जबकि विधान सभा का सत्र संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत राज्यपाल ही विधान सभा सत्र को आहूत करने का आदेश देते हैं।
विगत दिनों पश्चिम बंगाल में एक और संवैधानिक संकट खड़ा हुआ। उपचुनाव में निर्वाचित दो विधायकों को शपथ दिलाई जानी थी जिन्हें राज्यपाल ने राजभवन में शपथ दिलाने का निर्णय किया लेकिन उन सदस्यों ने राजभवन में शपथ लेने से इंकार कर दिया और विधान सभा में ही शपथ लेने पर अड़े रहे। संविधान के अनुच्छेद 188 में यह प्रावधान है कि राज्यपाल किसी व्यक्ति विशेष को शपथ दिलाने के लिए अधिकृत कर सकते हैं और उन्होंने विधान सभा उपाध्यक्ष को अधिकृत भी किया लेकिन विधान सभा उपाध्यक्ष ने विधान सभा अध्यक्ष के रहते शपथ दिलाने में असमर्थता व्यक्त की और विधान सभा अध्यक्ष ने 5 जुलाई, 2024 को विधान सभा में शपथ दिला दी. जिस पर राज्यपाल ने आपत्ति दर्ज करवाई और इस संबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भी प्रेषित की है। हालांकि इस घटनाक्रम के संबंध में विधान सभा अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने के लिए पत्र भी लिखा।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच जंग जैसी स्थिति निर्मित हो गई है। जहां राज्यपाल ने राज्य सरकार की मुख्यमंत्री के विरूद्ध मानहानि का वाद दायर किया, वहीं राज्यपाल ने राज्य सरकार की पुलिस का राज भवन में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया.
संविधान के अनुच्छेद 154 में यह प्रावधान है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह उसका प्रयोग संविधान के अनुरूप स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा वहीं अनुच्छेद 163 के तहत उसे अपने स्वविवेक से भी कार्य करने का अधिकार प्राप्त है और इसी स्वविवेक का अधिकार और मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करने के प्रावधान, ये दोनों ही इनके बीच टकराव का महत्वपूर्ण कारण हैं।
एक अन्य मामले में जब तमिलनाडु के एक मंत्री एम.आर. पोनमुडी को सजा होने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाने के बावजूद राज्यपाल उन्हें मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं कर रहे थे तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च, 2024 को राज्यपाल के इस कृत्य पर उन्हें फटकार लगाई।
तमिलनाडु में ही जब राज्य विधान सभा द्वारा वर्ष 2020 से 2023 के मध्य पारित विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने दिनांक 13 नवंबर, 2023 को उसे पुनर्विचार के लिए विधान सभा को वापस किया और विधान सभा ने पुन: दिनांक 18 नवंबर, 2023 को उन विधेयकों को यथावत पारित कर राज्यपाल को अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने उन्हें अपने पास लंबित रखने का उल्लेख दिनांक 28 नवंबर, 2023 को किया और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया तो राज्य सरकार ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि राज्यपाल को विधान सभा द्वारा पुन: पारित 10 विधेयकों को रोकने का कोई विवेकाधिकार नहीं है. यहां तक कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 1 दिसंबर, 2023 को सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी भी की कि विधान सभा द्वारा पुन: पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित नहीं रखा जा सकता।
चूँकि राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है और राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख भी होता है तो यह प्रयास होना चाहिए की विवादित मुद्दों पर आपस में विचारविमर्श कर लिया जाये ताकि विवाद की स्थिति न बने। (पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
जब से मोबाइल और इन्टरनेट सबके हाथ में आया है तब से अन्य नई तकनीकों की तुलना में इस तकनीक का दुरुपयोग बहुत तेजी से हुआ है। संगठित गिरोह और आतंकवादी संगठनों के नेटवर्क और चाइल्ड पोर्नोग्राफी सहित अश्लीलता के विविध गोरख धंधों से जुड़े लोगों के लिए तो इंटरनेट ने मानो कमाई का सिमसिम खोल दिया है। ज्यादातर यूरोपीय देशों और अमेरिका में उन चीज़ों को अश्लील मानकर प्रतिबंधित नहीं किया जाता जिन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति फूहड़ और अश्लील मानती है। यही कारण है कि इन्टरनेट के अधिकांश सर्वर विदेशों में होने के कारण इस पर उपलब्ध सामग्री को प्रतिबंधित करना आसान नहीं है। इधर केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों की तमाम घोषणाओं और कड़े कानूनों के बावजूद बच्चों और उनमें भी विशेष रूप से बच्चियों के साथ यौन शौषण और यौन अपराधों में बाढ़ सी आई है जो सभ्य समाज के लिए अत्यंत शर्मनाक और चिंतनीय है।
देश के अन्य क्षेत्रों की तरह मध्य प्रदेश में भी बच्चियों और महिलाओं के साथ जघन्य यौन अपराधों की कई घटनाओं ने महिलाओं और उनसे भी अधिक अबोध बच्चियों की सुरक्षा पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। इन घटनाओं का और भी दुखद और शर्मनाक पहलू यह है कि इनमें यौन बर्बरता के बाद हत्याओं को अंजाम दिया गया है और ये घटनाएं प्रतिष्ठित स्कूलों और राजधानी भोपाल की कालोनियों तक में घटित हुई हैं। बच्चों के साथ घटने वाली इन घटनाओं में संबंधित संस्थान के कर्मचारियों और कॉलोनीवासियों की संलिप्तता हमारे पूरे परिवेश को संदिग्ध बना देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चियों और महिलाओं के लिए कालोनी से लेकर सफर और स्कूल, कॉलेज , और कोचिंग संस्थान आदि कुछ भी सुरक्षित नहीं है। सुबह के अखबार में इन घटनाओं के जो विवरण प्रकाशित होते हैं उनसे ऐसा लगता है जैसे हमारे समाज में वहशीपन तमाम हदें पार कर चुका है। इन परिस्थितियों से निबटने के लिए निश्चित रूप से पुलिस और कानून का अहम रोल है लेकिन समाज की इस सडऩ को रोकने के लिए केवल पुलिस, कानून और न्याय व्यवस्था सक्षम नहीं है। इसके लिए शिक्षा से लेकर घर परिवार और सभी प्रतिष्ठानों को निरंतर व्यापक सुधार और जन जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।
समाज में घट रहे इन जघन्य अपराधों को कम करने में चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर आए सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय का भी सकारात्मक प्रभाव होगा। मद्रास न्यायालय ने चाइल्ड पोर्नोग्राफी की फोटो और वीडियो मोबाइल और कंप्यूटर आदि में रखने को अपराध नहीं माना था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को पलटते हुए कहा है कि अपने पास ऐसे क्लिप रखना भी अपराध की श्रेणी में आता है।
यदि किसी को अज्ञात स्रोत से इस तरह की कोई क्लिप मिलती है तो उन्हें उसे तुरंत हटाना चाहिए और उसके स्रोत की सूचना पुलिस को भी देनी चाहिए ताकि इन्हें प्रचारित प्रसारित करने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो सके। बहुत से मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बच्चों से जुडे यौन शौषण के अपराध इसलिए होते हैं क्योंकि बच्चों को आसानी से बहकाया जा सकता है। वे ज्यादा प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं होते इसीलिए उन्हें निशाना बनाना सरल है। इन अपराधों की बढ़ती संख्याओं ने बच्चों के अभिभावकों की चिंता इतनी बढ़ा दी है कि जब तक बच्चे स्कूल कोचिंग से वापस नहीं आ जाते उनके प्राण किसी अनहोनी की आशंका में अटके रहते हैं। लोग बच्चों को खेलने के लिए आसपास के पार्क में भेजने से भी डरते हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव बच्चों के विकास पर भी पड़ रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर जरूर अंकुश लगेगा।
भाषा और स्थानीयता के नाम पर बिहार से नौकरी के लिए परीक्षा देने या मजदूरी करने दूसरे राज्यों में गए छात्र या कामगार अक्सर उन राज्यों के लोगों के दुर्व्यवहार का शिकार होते हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
ताजा मामला पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी का है, जहां बिहार के छात्रों के साथ मारपीट तथा उनके डॉक्यूमेंट को फाडऩे की कोशिश की गई। इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद मामला तूल पकडऩे पर पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया है। दरअसल, एसएससी-जीडी (स्टॉफ सेलेक्शन कमीशन- जनरल ड्यूटी) की परीक्षा देने पटना निवासी अंकित यादव समेत कई अभ्यर्थी मंगलवार को सिलीगुड़ी पहुंचे थे। बुधवार को बांग्ला पक्खो (बंगाल पक्ष) नामक संगठन के लोग खुफिया विभाग के अधिकारी बनकर उनके कमरे में घुस गए जहां वे सो रहे थे। उनलोगों ने सवाल किया कि वे लोग परीक्षा देने बिहार से बंगाल क्यों आए हैं? उसके बाद वे डॉक्यूमेंट मांगने लगे। मना करने पर वे मारपीट करने लगे तथा जेल भेजने की धमकी देने लगे। कहने लगे, बंगाल के डोमिसाइल नहीं हो तो क्यों अप्लाई किया। इस बीच वे सभी खुद को आईबी व पुलिस का अधिकारी बताते रहे। कान पकड़ कर उन्हें उठक-बैठक भी कराया गया तथा उनके डॉक्यूमेंट फाडऩे की कोशिश की गई। उनसे माफी मांगने को कहा गया। माफी मांगने के बाद उन्हें छोड़ा गया।
भाषा तथा प्रांत के नाम पर बिहार के युवकों से दुर्व्यवहार और उन्हें धमकाने का मामला प्रकाश में आते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश के निर्देश पर राज्य के चीफ सेक्रेटरी (मुख्य सचिव) अमृत लाल मीणा और डीजीपी (पुलिस महानिदेशक) आलोक राज ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल के समकक्ष अफसरों से बात की। बिहार पुलिस ने वायरल हो रहे वीडियो पर संज्ञान लेते हुए उसे एक्स हैंडल पर पोस्ट भी किया। इसके बाद सिलीगुड़ी पुलिस हरकत में आई और वीडियो में चेहरा पहचानकर रजत भट्टाचार्य नामक एक कट्टरपंथी को गिरफ्तार किया। उसके साथ गिरिधारी रॉय नामक व्यक्ति को भी पकड़ा गया है। दोनों ही सिलीगुड़ी के रहने वाले हैं। समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार सिलीगुड़ी के पुलिस कमिश्नर सी। सुधाकर ने बताया कि पूछताछ में रजत ने कहा कि बिहार-उत्तर प्रदेश के लोग फर्जी डिग्री लेकर आते हैं और बंगाल के युवकों की नौकरियां छीन लेते हैं। वह उन छात्रों के फर्जी प्रमाणपत्र की जांच करने गया था। किंतु, जब उससे जब यह पूछा गया कि फर्जीवाड़े की सूचना मिली तो पुलिस को क्यों नहीं बताया तो उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
इस घटना के बाद से एक बार फिर बिहार से पलायन का मुद्दा भी सुर्खियों में आ गया है। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार ई-श्रम पोर्टल पर निबंधन कराने वाले दो करोड़ नब्बे लाख से अधिक लोग बिहार से नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में जा चुके हैं। आंकड़ों के अनुसार दूसरे राज्यों में नौकरी की तलाश में जाने वालों की संख्या में करीब आधे बिहार व उत्तर प्रदेश से हैं। पलायन में आधी हिस्सेदारी इन्हीं दो राज्यों की है। इन दोनों राज्यों से सबसे अधिक युवा पंजाब, गुजरात, बेंगलुरू, दिल्ली, तेलंगाना खासकर हैदराबाद तथा महाराष्ट्र, विशेष तौर पर मुंबई जाते हैं। जहां मुख्य रूप से विभिन्न क्षेत्रों में मजदूर का काम करते हैं।
तेज हुई सियासत, निशाने पर आई ममता
बांग्ला पक्खो नामक यह संगठन बंगाल में पिछले दिनों हिंदी और अंग्रेजी में लिखे साइन बोर्ड पर कालिख पोतने तथा विवादित बयानों के बाद चर्चा में आया था। पिछले वर्ष भी संगठन के सदस्यों ने गैर बंगालियों, खासतौर पर हिंदी भाषियों के खिलाफ पोस्टरबाजी की थी तथा 'बंगाल बंगालियों का है', जैसे नारे लगाए थे। उधर, सिलीगुड़ी के सामाजिक संगठन बिहारी सेवा समिति ने स्थानीयता, प्रांतवाद एवं भाषा के नाम पर भेदभाव को गलत बताते हुए इस घटना की भर्त्सना की है। समिति ने सडक़ पर उतरकर बांग्ला पक्खो के खिलाफ आंदोलन करने की घोषणा भी की है। बिहार से जुड़े अन्य स्थानीय संगठनों ने भी बांग्ला पक्खो द्वारा प्रांत के नाम पर इस तरह के कृत्य की कड़ी निंदा की है।
बिहार के युवाओं से दुर्व्यवहार और मारपीट की घटना का घटना का वीडियो शेयर करते हुए बेगूसराय के बीजेपी सांसद व केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने पूछा कि क्या ममता सरकार के राज में बच्चों का बंगाल में परीक्षा देने जाना भी गुनाह है? वहीं एलजेपी (रामविलास) के प्रमुख तथा केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता व लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव से पूछा कि वह किस हक से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का समर्थन करेंगे।
वहीं, बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) के बंगाल प्रभारी व बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय का कहना था, ‘यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या अब राहुल गांधी या इंडी गठबंधन के नेता ममता बनर्जी से दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग करेंगे? यह सरासर गुंडागर्दी है।’ हालांकि, इन आरोपों पर टीएमसी नेता कुणाल घोष कहते हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है। स्थानीय समस्या हो सकती है। हमारी सरकार सबका स्वागत करती है। हमारा राज्य लोकतांत्रिक है। वहीं, आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) के मुख्य प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव के अनुसार, ‘आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने इस मामले पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात की। ममता दीदी ने उन्हें घटना का हवाला देकर बताया कि इस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।’
हर बार किसी न किसी बहाने निशाने पर बिहारी
स्थानीयता के नाम पर कभी महाराष्ट्र तो कभी तमिलनाडु में बिहार के लोगों से दुर्व्यवहार की घटनाएं हुईं। हाल में ही पंजाब के कई गांवों में बिहार के कामगारों को रातों-रात इलाका छोड़ कर जाने को कहा गया। जबकि, किसी भी हिंदी भाषी राज्य में गैर हिंदी भाषियों के खिलाफ या फिर किसी अन्य राज्य में हिंदी भाषियों को छोड़ कर किसी दूसरे प्रदेशों के लोगों के साथ ऐसी घटना शायद ही कभी होती हैं। राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, दरअसल इन घटनाओं का विरोध भी राजनीतिक लाभ-हानि देखकर किया जाता है। सिलीगुड़ी की घटना को देखिए। पीडि़त छात्र यादव जाति से भी है, किंतु क्या समाजवादी पार्टी (एसपी) के नेता अखिलेश यादव या बिहार के आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने इस घटना के विरोध में आवाज बुलंद की। जवाब है, नहीं। अगर टीएमसी की जगह बंगाल में बीजेपी की सरकार होती तो यह कहने में गुरेज नहीं कि पूरी यादव जाति ही इन्हें खतरे में नजर आती।’
साफ है जब तक हिंदी भाषी प्रदेशों के नेता एकजुट होकर इसका कड़ा प्रतिकार नहीं करेंगे, तब तक ऐसे ही चलता रहेगा। दरअसल, बिहार के लोगों के प्रति नफरत की बुनियाद महाराष्ट्र में पड़ी और धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, ‘दरअसल, बिहार सरकार भले ही बहुत कुछ करने का दावा करती हो, लेकिन राज्य में नौकरियों का संकट बना हुआ है। इसकी भयावहता कोरोना काल में पूरी दुनिया को दिख गई थी, जब लाखों की संख्या में बिहार के लोग अपने घर लौटने के लिए बदहवास होकर सडक़ों पर उतर गए थे। आज भी अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग दूसरे राज्यों में निर्माण व पशुपालन क्षेत्र या खेतों में मजदूरी करने, रिक्शा, ऑटो या टैक्सी चलाने जैसे छोटे-मोटे काम करने को मजबूर हैं। भरोसा न हो रहा हो तो बिहार से बाहर जाने वाली ट्रेनों का नजारा देख लीजिए।’
कभी रोजगार हड़पने तो कभी अपराध बढ़ाने तो कभी गंदगी फैलाने का आरोप लगाकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी बिहारी को अपमानित किया जाता है। ये हाल तब है जब पंजाब के किसानों के अनाज की कोठी बिहार-उत्तर प्रदेश के मजदूर न मिले तो शायद खाली ही रह जाए या फिर राजस्थान के कोटा शहर की आर्थिकी बिहार के छात्र न मिले तो चरमरा जाए। (dw.com)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में लगातार तीन बार उम्मीदवार बनने से पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के सबसे चमक दमक वाले अरबपति थे।
साल 2015-16 में राष्ट्रपति चुनावों से पहले के दशकों में न्यूयॉर्क के ‘रियल एस्टेट मुग़ल’ डोनाल्ड ट्रंप के जीवन के बारे में टैबलॉयड्स और टेलीविजन में ख़ूब कहानिया छपा करती थीं।
उनके मशहूर नाम और चुनाव अभियान की शैली की वजह से उन्हें अनुभवी राजनेताओं को हराने में मदद मिली। लेकिन विवादों की वजह से उन्हें एक ही कार्यकाल के बाद राष्ट्रपति चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार 78 साल के डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर मुश्किलों को चुनौती देते हुए एक जोरदार राजनीतिक वापसी करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी वजह से वो एक बार फिर राष्ट्रपति के पद पर पहुंच सकते हैं।
परिवार के उत्तराधिकारी
डोनाल्ड ट्रंप न्यूयॉर्क के रियल एस्टेट टायकून फ्रेड ट्रंप की चौथी संतान हैं।
पारिवारिक संपत्ति के बावजूद ट्रंप अपने पिता की कंपनी में सबसे छोटी नौकरी करना चाहते थे। 13 साल की उम्र में वो जब स्कूल में दुव्र्यवहार करने लगे थे, तब उन्हें मिलिट्री स्कूल भेज दिया गया था।
पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के वार्टन स्कूल से डिग्री लेने के बाद वो अपने पिता के उत्तराधिकारी बनने के दावेदार बन गए, क्योंकि उनके बड़े भाई फ्रेड ने पायलट बनने का फैसला कर लिया था।
ज्यादा शराब पीने की वजह से 43 साल की उम्र में फ्रेड ट्रंप की मौत हो गई।
ट्रंप का कहना है कि उन्होंने इसी वजह से पूरी जिंदगी शराब और सिगरेट से परहेज़ किया।
ट्रंप का कहना है कि उन्होंने कंपनी में शामिल होने से पहले अपने पिता से रियल एस्टेट बिजनेस के लिए 10 लाख अमेरिकी डॉलर का एक ‘छोटा’ कर्ज लिया था।
उन्होंने अपने पिता के न्यूयॉर्क शहर में रिहाइशी परियोजनाओं के व्यापक पोर्टफ़ोलियो को संभालने में उनकी मदद की और कंपनी का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। ट्रंप ने साल 1971 में कंपनी का नाम बदल कर ‘ट्रंप ऑर्गनाइजेशन’ कर दिया।
डोनाल्ड ट्रंप अपने पिता को ‘अपनी प्रेरणा’ मानते हैं। साल 1999 में उनके पिता की मौत हो गई थी।
एक ब्रांड
ट्रंप के नेतृत्व में उनका फेमिली बिजऩेस ब्रुकलिन और क्वींस में आवासीय फ्लैटों से बढक़र तडक़ भडक़ वाली मैनहट्टन परियोजनाओं तक पहुंच गया।
जाना माना ‘फिफ़़्थ एवेन्यू’ ट्रंप का घर बन गया, जो कई सालों तक उनका घर रहा। यह ट्रंप की सबसे मशहूर संपत्ति भी रही। वहीं जर्जर हो चुका कमोडोर होटल को ग्रैंड हयात के रूप में फिर से स्थापित किया गया।
कैसिनो, साझेदारियां, गोल्फ कोर्स और होटल समेत डोनाल्ड ट्रंप की कई संपत्तियां हैं, जो अटलांटिक शहर, शिकागो और लास वैगास से भारत, तुर्की और फिलीपींस तक फैली हैं।
उनका स्टारडम मनोरंजन के क्षेत्र में भी बढ़ता रहा। पहले वो मिस यूनिवर्स, मिस यूएसए और मिस टीन यूएसए ब्यूटी प्रतियोगिताओं के कर्ताधर्ता रहे, फिर एनबीसी रियालटी शो के क्रिएटर-होस्ट बने।
14 सीजऩ से भी ज्यादा समय तक जब अप्रेंटिस प्रतिभागियों ने उनके बिजऩेस साम्राज्य में एक प्रबंधन अनुबंध के लिए प्रतिस्पर्धा की, तब उनके ट्रेडमार्क ‘यू आर फायर्ड’ ने ‘द डोनाल्ड’ को एक मशहूर नाम बना दिया।
ट्रंप ने कई किताबें लिखी हैं, कई फिल्मों में अभिनय किया है और प्रो रेसलिंग जैसे कई टीवी कार्यक्रमों में दिखे हैं। इसके अलावा उन्होंने सोडा ड्रिंक से लेकर गले में बांधी जानी वाली टाई जैसी लगभग हर चीज बेची है।
हालांकि, हाल के सालों में उनकी कुल माली हैसियत में गिरावट हुई है। फ़ोर्ब्स के मुताबिक वर्तमान में उनकी संपत्ति 4 अरब डॉलर के कऱीब है।
ट्रंप को छह अलग-अलग मौकों पर व्यापारिक दिवालियापन का भी सामना करना पड़ा है। उनके कई व्यवसाय जैसे- ट्रंप स्टीक्स और ट्रंप यूनिवर्सिटी जैसे प्रोजेक्ट डूब गए हैं।
उन्होंने जांच से बचने के लिए टैक्स से जुड़ी अपनी जानकारी भी छुपाई, जिस पर साल 2020 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने विस्तार से प्रकाशित किया था।
इस रिपोर्ट में कई साल की आयकर चोरी और दीर्घकालिक वित्तीय घाटे का खुलासा हुआ।
ट्रंप का परिवार
डोनाल्ड ट्रंप के निजी जीवन को व्यापक सुर्खियां मिली हैं। उनकी पहली और सबसे ज़्यादा चर्चित पत्नी इवाना जेलनिकोवा एक चेक एथलीट और मॉडल थीं। साल 1990 में तलाक से पहले इन दोनों के तीन बच्चे हुए- डोनाल्ड जूनियर, इवांका और एरिक।
दोनों की कानूनी लड़ाई गॉशिप कॉलम्स के पहले पन्ने पर छपीं और दिवंगत मिसेज ट्रंप की ओर से घरेलू हिंसा के आरोपों को ट्रंप पर बनी एक नई फिल्म में दिखाया गया था।
हालांकि इवाना ने घरेलू उत्पीडऩ के आरोपों पर बहुत कम बात की।
इसके बाद ट्रंप ने अभिनेत्री मार्ला मेपल्स से साल1993 में शादी की। शादी के दो महीने बाद उन्होंने अपने इकलौते बच्चे टिफऩी को जन्म दिया। साल 1999 में दोनों में तलाक हो गया।
ट्रंप की वर्तमान पत्नी पूर्व स्लोवेनियाई मॉडल मेलानिया नॉस हैं। दोनों ने साल 2005 में शादी की और उनका एक बेटा है, जिनका नाम बैरन विलियम ट्रंप है, वो हाल ही में 18 साल के हुए हैं।
ट्रंप पर यौन दुव्र्यवहार और अवैध संबंधों के भी आरोप लगे हैं।
इस साल की शुरुआत में दो अलग-अलग जूरी ने फैसला सुनाया कि ट्रंप ने यौन उत्पीडऩ के आरोपों से इनकार कर लेखिका ई जीन कैरोल को बदनाम किया है।
उनसे लेखिका को 8।8 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भुगतान करने को कहा गया। लेकिन ट्रंप ने इस फैसले के खिलाफ आगे अपील की। इसके अलावा ट्रंप को पोर्न स्टार स्टॉर्मी डेनियल्स के साथ ‘हश मनी’ को छुपाने के लिए बिजऩेस रिकॉर्ड में हेराफेरी करने के 34 मामलों में दोषी ठहराया गया है। यह साल 2006 में विवाहेतर संबंध से जुड़ा मामला है।
राष्ट्रपति उम्मीदवार
साल 1980 में ट्रंप 34 साल के थे। उन्होंने उस वक्त एक इंटरव्यू में राजनीति को ‘बहुत ही बदतर जीवन’बताया था और कहा था,‘सबसे सक्षम लोग राजनीति की बजाय बिजनेस को चुनें।’
हालांकि, साल 1987 के आते-आते उन्होंने राष्ट्रपति पद की दावेदारी पेश करनी शुरू कर दी। ट्रंप ने साल 2000 के राष्ट्रपति चुनाव में रिफ़ॉर्म पार्टी के उम्मीदवार बनने की संभावना को तलाशा था।
इसके बाद उन्होंने साल 2012 में भी रिपब्लिकन उम्मीदवार बनने की कोशिश की।
ट्रंप ‘बर्थरिज़्म’ यानी ‘जन्म लेने के सिद्धांत’ के सबसे मुखर समर्थकों में शामिल रहे हैं।
इसे एक षडय़ंत्रकारी सिद्धांत बताया जाता है जिसके मुताबिक़ बराक ओबामा के अमेरिका में पैदा होने पर संदेह जताया जाता है।
साल 2016 तक ट्रंप ने इस सिद्धांत को झूठ करार नहीं दिया था और ऐसा न कर पाने लिए कभी माफी भी नहीं मांगी।
ट्रंप ने साल 2016 तक यह स्वीकार नहीं किया कि यह ‘झूठ’ था और उन्होंने कभी इसके लिए माफी भी नहीं मांगी।
साल 2015 के जून महीने के अंत तक ट्रंप के व्हाइट हाउस की दौड़ में शामिल होने के लिए आधिकारिक तौर पर घोषणा नहीं हुई थी। तब उन्होंने अमेरिकी सपनों को मृत बताया था और इसे ‘बड़ा और बेहतर बनाने’ का वादा किया था।
ट्रंप के भाषणों में उन्हें अपनी संपत्ति और व्यावसायिक सफलता का दिखावा करते देखा गया। साथ ही उन्होंने मेक्सिको पर आरोप लगाया कि उसने ड्रग्स, अपराध और बलात्कारियों को अमेरिका भेजा है। उन्होंने देश से सीमा पर दीवार बनाने का वादा किया।
उन्होंने बहस के मंच पर अपने प्रभावी प्रदर्शन और विवादों से भरी नीति के जरिए से प्रशंसकों और आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया।
इसके साथ ही उन्होंने मीडिया को भी अपनी ओर आकर्षित किया।
‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ अभियान के नारे के ज़रिए उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन का सामना करने के लिए रिपब्लिकन पार्टी में प्रतिद्वंद्वियों को आसानी से हरा दिया।
इस अभियान को लेकर कई विवाद हुए, जिसमें यौन शोषण के बारे में लीक हुआ ऑडियो टेप भी शामिल था। इसकी वजह से वो आम चुनाव से पहले हुए जनमत सर्वेक्षणों में पिछड़ते दिखे।
लेकिन, ट्रंप ने अनुभवी हिलेरी क्लिंटन को हराकर राजनीतिक पंडितों और सर्वेक्षणकर्ताओं को चौंका दिया। उन्होंने 20 जनवरी 2017 को अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।
राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप
अपने कार्यकाल के पहले घंटे से ही डोनाल्ड ट्रंप ने बड़े नाटकीय ढंग से काम किया। वो अक्सर ट्विटर (अब एक्स) पर घोषणाएं करते दिखे और खुले तौर पर विदेशी नेताओं से भिड़ते दिखे।
उन्होंने प्रमुख जलवायु और व्यापार समझौतों से अमेरिका को अलग कर लिया। इसके अलावा सात मुस्लिम बहुल देशों से होकर गुजरने वाली यात्रा पर प्रतिबंध लगाया, अप्रवासन को लेकर सख्त प्रतिबंध लगाए।
ट्रंप ने चीन के साथ ट्रेड वॉर शुरू किया, रिकॉर्ड टैक्स कटौती लागू की और मध्य-पूर्व क्षेत्र के साथ संबंधों को नया रूप दिया।
साल 2016 के ट्रंप के अभियान और रूस की मिलीभगत के आरोपों को लेकर करीब दो सालों तक एक विशेष अभियोजनकर्ता ने जांच की। इस दौरान कंप्यूटर हैकिंग और वित्तीय अपराधों जैसे आरोप में 34 लोगों पर आपराधिक मामले दर्ज हुए।
लेकिन ट्रंप पर कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। जांच में आपराधिक मिलीभगत की पुष्टि नहीं हो सकी।
इसके तुरंत बाद अमेरिका के इतिहास में महाभियोग का सामना करने वाले ट्रंप तीसरे राष्ट्रपति बने। उन पर आरोप लगाए गए थे कि उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन के बारे में जानकारी जुटाने के लिए एक विदेशी सरकार पर दबाव डाला।
डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतृत्व वाले हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स ने उन पर महाभियोग चलाया, लेकिन रिपब्लिकन के दबदबे वाली सीनेट में उन्हें बरी कर दिया गया।
साल 2020 में उनके चुनावी साल में कोविड-19 महामारी हावी रही।
इस संकट से निपटने के उनके तरीकों के लिए उन्हें कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा क्योंकि अमेरिका संक्रमण और मौतों के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे था।
इसके अलावा उनकी विवादास्पद टिप्पणियों की वजह से भी उनकी कड़ी आलोचना हुई, जिसमें शरीर में कीटाणुनाशक डालकर वायरस का इलाज करने को लेकर शोध करने का सुझाव देना शामिल है।
अक्तूबर 2020 में कोविड-19 से संक्रमित पाए जाने के बाद उन्हें कुछ दिनों के लिए चुनाव प्रचार अभियान रोकना पड़ा था।
राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप को करीब 7।4 करोड़ वोट मिले थे, जो कि किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति से ज़्यादा थे। फिर भी वो बाइडन से 70 लाख से अधिक वोटों से चुनाव हार गए थे।
नवंबर 2020 से जनवरी 2021 तक उन्होंने व्यापक चुनावी धोखाधड़ी और वोटों की चोरी का आरोप लगाते हुए कानूनी लड़ाई लड़ी, जिसे 60 से अधिक अदालती मामलों में खारिज किया गया।
चुनाव परिणामों को नकारते हुए ट्रंप ने अपने समर्थकों के साथ छह जनवरी को वाशिंगटन में रैली की और उनसे एकजुट होने की अपील की। उसी दिन बाइडन की जीत को औपचारिक रूप से कांग्रेस द्वारा प्रमाणित किया जाना था।
ट्रंप की यह रैली दंगों में बदल गई, जिसकी वजह से सांसदों और उनके खुद के उप राष्ट्रपति ख़तरे में पड़ गए थे। यह ऐतिहासिक और दूसरे महाभियोग का कारण बना। हालांकि ट्रंप को फिर से सीनेट ने बरी कर दिया।
उस दिन ट्रंप की कथित हरकतों की वजह से उनपर दो आपराधिक मामले चल रहे हैं।
ट्रंप की वापसी
कैपिटल हिल पर हमले के बाद डोनाल्ड ट्रंप का राजनीतिक करियर खत्म सा हो गया था। उनके डोनर और समर्थकों का कहना था कि वो उनका अब कभी समर्थन नहीं करेंगे।
यहां तक कि उनके सबसे करीबी सहयोगियों ने भी सार्वजनिक रूप से उनका बहिष्कार किया।
बाइडन के उद्घाटन समारोह में वो शामिल नहीं हुए और अपने परिवार के साथ फ्लोरिडा चले गए। लेकिन अपने प्रशंसकों के एक भरोसेमंद दल के साथ उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की लगाम थामे रखी।
ट्रंप के राष्ट्रपति पद की सबसे बड़ी विरासत तब सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट के तीन दक्षिणपंथी न्यायाधीशों ने 50 साल पुराने राष्ट्रीय गर्भपात अधिकारों को खत्म करने में उनकी मदद की।
इन न्यायाधीशों को ट्रंप ने नामित किया था, जिन्होंने रूढि़वादी बहुमत को मजबूत किया और लगभग 50 साल पुराने राष्ट्रीय गर्भपात अधिकारों को ख़त्म करने में मदद की।
साल 2022 के बीच में हुए चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी की कमज़ोर वापसी के लिए दोषी ठहराए जाने के बावजूद ट्रंप ने राष्ट्रपति पद के लिए एक और चुनाव लडऩे की घोषणा की और जल्द ही अपनी पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बन गए।
पूर्व उपराष्ट्रपति सहित एक दर्जन से अधिक विरोधियों ने उन्हें चुनौती दी। लेकिन ट्रंप ने बहस से परहेज किया और बाइडन पर निशाना साधा।
ट्रंप ने आम चुनाव की शुरुआत चार आपराधिक मामलों में 91 आरोपों का सामना करते हुए की थी। लेकिन, कानूनी मामलों को टालने की उनकी रणनीति काफ़ी हद तक कारगर रही।
चुनाव से पहले तीन मामले में सुनवाई अभी नहीं होगी और न्यूयॉर्क में उनकी सज़ा नवंबर के अंत तक टाल दी गई है।
बीते 13 जुलाई को पेंसिल्वेनिया के बटलर में एक 20 साल के बंदूकधारी ने एक चुनावी रैली के दौरान ट्रंप की पर जानलेवा हमला किया था।
थॉमस मैथ्यू क्रूक्स ने पास की छत से एआर-स्टाइल राइफ़ल से आठ राउंड फ़ायर किए थे। इससे पहले कि हमला करने वाला मारा जाता, ट्रंप के दाहिने कान को छूती हुई गोली चली थी।
इसके कुछ दिनों बाद रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में पार्टी ने उनकी प्रशंसा की और आधिकारिक तौर पर उन्हें लगातार तीसरी बार रिपब्लिकन पार्टी का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया।
उसके बाद राष्ट्रपति बाइडन के साथ उनका दोबारा मुकाबला होना तय हो गया था।
महामारी के बाद बाइडन का कार्यकाल आर्थिक और बुनियादी ढांचे मं मजबूती के साथ अधिक महंगाई, अवैध अप्रवासन में बढ़ोत्तरी और विदेश नीति में अराजकता से घिरा रहा है।
जब से बाइडन ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी छोड़ी है और अपनी डिप्टी कमला हैरिस का समर्थन किया है, तब से ट्रंप ने कमला हैरिस को प्रशासन की विफलताओं के साथ जोडऩे की कोशिश की है।
राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से यह संकेत मिल रहा है कि कमला हैरिस ने लिबरल वोटरों को प्रेरित किया है और लाखों डॉलर जुटाए हैं। जिससे नवंबर में होने वाला अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव दिलचस्प हो गया है।
ट्रंप ने अपने समर्थकों से कहा है कि ‘पांच नवंबर 2024 की तारीख़ अमेरिका के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तारीख़ होगी।’ (www.bbc.com/hindi)
-तारेकुज्जमां शिमुल
बांग्लादेश में छात्रों और आम लोगों की ओर से बड़े पैमाने पर हुए आंदोलन की वजह से शेख हसीना सरकार के पतन के बाद ज़्यादातर इलाकों में हमले के डर से अवामी लीग के नेता और कार्यकर्ता भूमिगत हो गए थे। अब डेढ़ महीने से भी ज़्यादा समय बीतने के बाद उनमें से कुछ लोग अपने इलाकों में लौटने लगे हैं। लेकिन उनको घर वापसी के लिए मोटी रकम चुकानी पड़ रही है।
आरोप है कि पैसे नहीं देने वालों को उनके इलाके में घुसने नहीं दिया जा रहा है। पता चला है कि कुछ इलाकों में उनको हमले का भी शिकार होना पड़ रहा है।
बीबीसी बांग्ला ने अवामी लीग के कुछ ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं से बात की है जो हाल में पैसे देकर घर लौटे हैं या लौटने का इंतजार कर रहे हैं।
उनमें से कोई भी सुरक्षा कारणों से अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहता। यहां तक कि उन लोगों ने इलाके के नाम का भी जि़क्र नहीं करने का अनुरोध किया।
लेकिन उन लोगों ने अपने अनुभव के बारे में बीबीसी को बताया है कि उनको अपने इलाके में लौटने के लिए किसे कितनी रकम देनी पड़ी है और अब वो किन हालात में दिन गुज़ार रहे हैं।
घर से निकलना मुश्किल
निचले स्तर के एक अवामी लीग नेता ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘घर से निकल नहीं पा रहा हूं। पूरा दिन घर में ही बंद होकर गुजारना पड़ता है।’
घर लौटने वाले अवामी लीग के नेताओं ने दावा किया है कि हमलों से बचने के लिए उनको ख़ालिदा जिय़ा की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) समेत इलाके प्रभावशाली लोगों को पैसे देने पड़ रहे हैं।
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की नेता खालिदा जिया देश की प्रधानमंत्री रह चुकी हैं लेकिन शेख हसीना के दौर में वे जेल में थी। उन्हें सत्ता परिवर्तन के बाद जेल से छोड़ा गया है।
बीएनपी नेताओं ने इन आरोपों को निराधार बताया है। दूसरी ओर, निचले स्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं के घर लौटने के बावजूद अवामी लीग के ज्यादातर केंद्रीय नेता अब तक छिप कर ही रह रहे हैं।
पता चला है कि उनमें से कई लोग देश से बाहर चले गए हैं और देश छोड़ कर जाने के प्रयास में कुछ लोग गिरफ्तार भी किए गए हैं।
ऐसे में नेतृत्व संकट से जूझ रही पार्टी के बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं। यही वजह है कि कऱीब एक महीने की चुप्पी के बाद अब पार्टी को हाल में बयान जारी करते देखा गया है।
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह बयान देश के भीतर से जारी किया गया है या बाहर से। अमित शाह की टिप्पणी पर बांग्लादेश के मीडिया में कैसी चर्चा, बाइडन-यूनुस मुलाकात पर क्या कह रहे हैं विशेषज्ञ
‘एक लाख टका देकर लौटे’
बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार के सत्ता से बेदखल होने के बाद अवामी लीग के नेता और कार्यकर्ता करीब डेढ़ महीने से अपने घरों से दूर छिपकर रह रहे हैं।
बीते पांच अगस्त के बाद उनके घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर जिस पैमाने पर हमले हो रहे थे, वैसा अब नजऱ नहीं आता। इसी वजह से अब ज़मीनी स्तर के नेता और कार्यकर्ता अपने परिवार के पास लौटना चाहते हैं।
लेकिन उनको यह डर भी सता रहा है कि अचानक लौटने की स्थिति में उनको हमले का शिकार होना पड़ सकता है। इसके लिए वो लौटने से पहले इलाके के प्रभावशाली लोगों से संपर्क कर रहे हैं।
अवामी लीग के वार्ड स्तर के एक नेता ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘हमारे सामने इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। बीवी-बच्चों को छोड़ कर आखिर कितने दिनों तक छिपते रहेंगे?’
ज्यादातर इलाकों में बीएनपी का नियंत्रण होने के कारण अवामी लीग के भूमिगत नेता और कार्यकर्ता फिलहाल बीएनपी के नेताओं से संपर्क कर रहे हैं। अपने इलाके में लौने के लिए उनको मोटी रकम का भुगतान करना पड़ रहा है।
दक्षिणी बांग्लादेश के एक जिले के एक नेता ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘वो तीन लाख मांग रहे थे। लेकिन काफी मान-मनौव्वल के बाद एक लाख पर मामला तय हुआ। वह रकम देने के बाद घर लौट सका हूं।’
पैसे किसने लिए?
नाम नहीं छापने की शर्त पर अवामी लीग के एक नेता का कहना था, ‘जिसने पैसे लिए वह बीएनपी का कोई बड़ा नेता नहीं बल्कि हमारी तरह ही वार्ड स्तर का नेता था। उन्होंने कुछ सप्ताह पहले उससे संपर्क किया था। बीएनपी का वह नेता उसी समय तैयार था। लेकिन उसने कुछ दिनों तक इंतजार करने की सलाह दी थी।’
इस पूरे मामले के सामने आने के बाद भी इलाके में लौटने वाले अवामी लीग के नेता पैसे लेने वाले बीएनपी नेताओं के नाम बताने को तैयार नहीं हैं।
अवामी लीग के उस नेता ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘नाम सामने आने पर हमारे लिए मुश्किल पैदा हो जाएगी। उसके बाद हमारे लिए अपने परिवार के साथ इस इलाके में रहना मुश्किल हो जाएगा।’
‘कितने लोगों को पैसे देंगे?’
अवामी लीग के वह नेता पैसे देकर भले घर लौट आए हों। कई ऐसे लोग हैं जो पैसे देने के बावजूद अब तक घर नहीं लौट पा रहे हैं।
ऐसे ही एक नेता ने बीबीसी बांग्ला को बताया कि उन्होंने घर लौटने के लिए बीएनपी के दो नेताओं को अलग-अलग पैसे दिए हैं।
उनका कहना था, ‘पैसे देने के तीन सप्ताह बाद भी मैं घर नहीं लौट सका हूं। यह भी नहीं पता कि कब तक लौट सकूंगा।’
लेकिन पैसे देने के बावजूद घर नहीं लौट पाने की क्या वजह है?
अवामी लीग के उस नेता ने असंतोष जताते हुए बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘कैसे लौटूं? मैंने दो लोगों को पैसे दिए हैं। इस बात का पता लगने के बाद कई लोग फोन पर पैसे मांग रहे हैं। मैं आखिर कितने लोगों को पैसे दूं?’
उनको लगता है कि बीएनपी के दो नेताओं को उन्होंने अब तक डेढ़ लाख की जो रकम दी है, उसका कोई फायदा नहीं होगा।
उस नेता ने बताया कि पहली बार बीएनपी के एक स्थानीय नेता ने पैसे लिए थे। लेकिन अब पैसे मांगने वाले लोग खुद के बीएनपी के विभिन्न संगठनों का सदस्य होने का दावा कर रहे हैं। उनका कहना था, ‘कोई खुद को युवा दल का नेता बता रहा है तो कोई स्वयंसेवक दल का। उन्होंने धमकी दी है कि पैसे नहीं देने पर वो लोग मुझे इलाके में पांव नहीं रखने देंगे।’
‘घर बचाने के लिए 50 हजार’
बीते पांच अगस्त को शेख हसीना सरकार के पतन के बाद अवामी लीग के हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं के घरों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों पर हमले किए गए थे। लेकिन आरोप है कि जो लोग उस समय बच गए थे अब उनके घरों पर भी हमले की धमकियां दी जा रही हैं।
ढाका के करीब ही मौजूद एक जिले के अवामी लीग नेता ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘मैं तो डेढ़ महीने से घर से दूर रह रहा हूं। इस बीच, बीएनपी के लोगों ने घर जाकर मेरी पत्नी को एक सप्ताह के भीतर 50 हजार की रकम तैयार रखने की धमकी दी है।’
उन्होंने बताया, ‘चंदा मांगने वाले उन लोगों ने धमकी दी है कि तय समय के भीतर पैसे नहीं देने की स्थिति में घर में तोड़-फोड़ कर आग लगा दी जाएगी।’
वह नेता कहते हैं, ‘आमदनी तो पहले से ही ठप है। ऐसे में मुझे यह चिंता खाए जा रही है कि चंदे के लिए इतनी रकम का इंतजाम कहां से करूंगा।’
लेकिन चंदा मांगने वाले कौन हैं?
अवामी लीग के उस जिला स्तरीय नेता का कहना था, ‘वह मेरे इलाके के ही लोग हैं। अब तक वो राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं थे। अब वो खुद को युवा दल का सदस्य बता रहे हैं।’
घर लौटने के बाद भी नजरबंदी की हालत
अवामी लीग के नेता और कार्यकर्ता पैसे देकर घर भले लौट गए हों, वो पहले की तरह सार्वजनिक रूप से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
डेढ़ महीने बाद घर लौटने वाले अवामी लीग के वार्ड स्तर के एक नेता ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘जिनके जरिए इलाके में लौटा हूं, उन्होंने ही घर से बाहर निकलने को मना किया है। उनका कहना है कि इससे मैं मुश्किल में पड़ सकता हूं।’
ऐसी स्थिति में चालीस के पार वाले वह नेता अपने घर में ही नजऱबंद होकर दिन काट रहे हैं। हमले के डर से घर से बाहर नहीं निकलने के कारण वो अपनी दुकान भी नहीं खोल पा रहे हैं।
उनका कहना था, ‘बाजार में मेरी कपड़ों की एक दुकान है। लेकिन वह डेढ़ महीने से बंद है। पता नहीं, उसमें सब ठीक-ठाक है भी या नहीं।’
पता चला है कि इलाके में लौटने के बाद सार्वजनिक रूप से बाहर निकलने वाले कई लोगों पर हमले भी हुए हैं। खुलना के छात्र लीग के नेता शफीकुल इस्लाम मुन्ना भी उनमें से ही एक हैं।
उनके एक रिश्तेदार ने बताया कि लंबे समय तक भूमिगत रहने के बाद हाल में घर लौटने पर उन पर हमला हुआ है।
उस रिश्तेदार ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘तीन-चार लोगों ने उनको सडक़ पर दौड़ा लिया था। उनको नीचे गिरा कर धारदार हथियारों से गोदा गया। फिलहाल मुन्ना अस्पताल में भर्ती हैं।’
दूसरी ओर, लक्ष्मीपुर में नूर आलम नामक अवामी लीग के एक नेता की पीट-पीट कर हत्या करने का आरोप भी सामने आया है। यह घटना सदर उपजिला के चंद्रगंज यूनियन की है।
इसके अलावा बीते एक सप्ताह के दौरान बारीसाल और चुआडांगा में छात्र लीग के तीन नेता अलग-अलग हमलों में गंभीर रूप से घायल हो चुके हैं।
इन घटनाओं में पुलिस भले अब तक किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकी हो, हमले के शिकार लोगों के परिजनों ने इसके लिए बीएनपी और उससे जुड़े संगठनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं को ही जिम्मेदार ठहराया है।
बीएनपी क्या कह रही है?
बीएनपी के शीर्ष नेताओं ने अवामी लीग के नेताओं-कार्यकर्ताओं से जबरन चंदा वसूली मामलों में अपनी पार्टी के शामिल होने के आरोपों का खंडन किया है।
बीएनपी की स्थायी समिति के सदस्य नजरुल इस्लाम खान बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, ‘अवामी लीग ने बीते डेढ़ दशक तक सत्ता में रहने के दौरान जिस तरह बीएनपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हमले किए हैं उसके बाद मुझे नहीं लगता कि हमारे नेता या कार्यकर्ता ऐसी घटनाओं में शामिल होंगे।’
बीएनपी के एक अन्य नेता शमा ओबैद का कहना है कि बीएनपी की छवि खराब करने के लिए कुछ लोग चंदा उगाही के लिए उसके नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं।
वह कहते हैं, ‘इस मामले में शुरू से ही हमारी पार्टी का रुख़ बेहद कड़ा है। पार्टी की ओर से सबको स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि कोई भी ऐसी गतिविधियों में शामिल नहीं हो। इसके बावजूद देखने-सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग बीएनपी के नाम का इस्तेमाल कर ऐसे गलत काम कर रहे हैं।’
उन्होंने आम लोगों को सलाह दी है कि अगर कोई बीएनपी के नाम का इस्तेमाल कर किसी से चंदा मांगता है तो संबंधित लोगों को उसके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए।
पार्टी ने आम लोगों से कहा है कि अगर बीएनपी का कोई सदस्य चंदा उगाही समेत किसी अवैध गतिविधि में शामिल है तो सबूतों के साथ उसके ख़िलाफ़ शिकायत करें।
स्थायी समिति के सदस्य खान कहते हैं, ‘ऐसे तमाम मामलों में शिकार लोगों को सामने आकर नाम बताना होगा और अपने आरोप के समर्थन में ठोस सबूत पेश करना होगा। आरोप साबित होने पर संबंधित नेताओं-कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ सांगठनिक रूप से कार्रवाई की जाएगी।’
बीते पांच अगस्त को हसीना सरकार के पतन के बाद देश के विभिन्न इलाकों में बीएनपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ हमले, लूटपाट औऱ जबरन चंदा उगाही के आरोप लगते रहे हैं।
बीते डेढ़ महीनों के दौरान ऐसे कुछ मामलों में बीएनपी ने पटुआखाली, नेत्रकोना और खुलना समेत कई जि़लों में सौ से ज्यादा नेताओं और कार्यकर्ताओं को 'कारण बताओ' नोटिस जारी करने के अलावा उनको पदों से हटाया है और कुछ लोगों को पार्टी से भी निकाल दिया है। (www.bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
आज हिंदी सिनेमा का संगीत तकनीकी तौर पर समृद्ध ज़रूर हो गया है, लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो यह वह संगीत नहीं है जो हमारी भावनाओं, हमारे सुख-दुख से सीधे जुड़ जाया करता है। हमारी पीढ़ी को वे दिन भुलाए नहीं भूलते जब हम ट्रांजि़स्टर लेकर गर्मियों की रात में घर की खुली छत पर और सर्दियों की रात में रजाई में चले जाते थे। आधी रात तक रेडियो सिलोन, विविध भारती और आल इंडिया रेडियो के उर्दू प्रोग्राम में तब फरमाइशी गीतों की जादुई महफि़लें सजती थीं। रफ़ी, मुकेश, लता, तलत, आशा, किशोर कुमार, शमशाद बेगम, मुबारक बेगम, सुरैया के गानों में हम देर तक अपने प्रेम का आकाश और दर्द का बिस्तर तलाशते थे। उस तिलिस्मी माहौल में जब अचानक एक गहरी, गंभीर आवाज़ में न ये चांद होगा न तारे रहेंगे, देखो वो चांद छुपकर करता है क्या इशारें, सुन जा दिल की दास्तां, याद किया दिल ने कहां हो तुम, जाग दर्दे इश्क़ जाग, आ नीलगगन तले प्यार हम करें, तुम पुकार लो तुम्हारा इंतज़ार है, ये नयन डरे डरे, नैन से नैन नाही मिलाओ, छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा, जाने वो कैसे लोग थे, न तुम हमें जानो, बस एक चुप सी लगी है, या दिल की सुनो दुनिया वालों जैसे गीत बजते थे तो मन ख़्यालों और भावनाओं के एक अलग आयाम में टहलने निकल जाता था। यह सात्विक, गहरी और पुरसकून आवाज़ होती थी हिंदी और बंगला फिल्मों के महान गायक, संगीतकार हेमंत कुमार की। यह आवाज आज भी मेरी भावनाओं के सबसे करीब है। आज भी उन्हें सुनते हुए मुझे संगीतकार सलिल चौधरी की यह बात याद आती है - ईश्वर यदि गाता होता तो उसकी आवाज़ बिल्कुल हेमन्त कुमार की तरह ही होती।
अपने सबसे प्रिय गायक हेमंत दा की पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि!
-इमरान कुरैशी
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पत्नी को हुए जमीन आबंटन के मामले में हाई कोर्ट के फैसले ने पार्टी नेताओं को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से भी ज़्यादा दुविधा में डाल दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे सिद्धारमैया की बेदाग़ छवि को झटका लगा है।
लेकिन इससे ओबीसी नेता के तौर पर उनके कद को देखते हुए एक संगठन के तौर पर पार्टी पर इसके दूरगामी असर को राजनीतिक विश्लेषक खारिज नहीं कर रहे हैं।
पार्टी हलकों में यह अच्छी तरह से समझा जाता है कि उनका शीर्ष नेतृत्व फिलहाल मौजूदा हालात को बिगाडऩे के लिए इस मुद्दे पर कुछ नहीं करने वाला है।
कर्नाटक में जस्टिस एम नागप्रसन्ना के फैसले के साथ ही इस मुद्दे पर कानूनी लड़ाई अभी शुरू हुई है और सिद्धारमैया को क्लीन चिट पाने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया का सामना करना है।
लेकिन अब यह सवाल भी है कि पार्टी आलाकमान कब तक विपक्षी बीजेपी और जेडीएस की ओर से सिद्धारमैया की छवि खराब करने की कोशिश को नाकाम कर पाएगा।
राजनीतिक विश्लेषक और एनआईटीटीई एजुकेशन ट्रस्ट के अकादमिक निदेशक संदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘इससे एक नेता के तौर पर सिद्धारमैया की पूरी छवि को नुकसान पहुंचा है। यही कांग्रेस पार्टी की दुविधा होगी।’
‘उसे संभालना कठिन हो सकता है और अगर सुप्रीम कोर्ट का रुख़ भी हाई कोर्ट की तरह होता है तो यह उन्हें एक बोझ बना देगा। इस घटना से उनकी राजनीतिक पकड़ भी कमजोर हो गई है।’
क्या है मामला
मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण (एमयूडीए) ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पत्नी बीएम पार्वती को 14 जगहों पर प्लॉटों का आबंटन किया था।
प्राधिकरण ने कथित तौर पर उनकी 3।16 एकड़ ज़मीन पर अवैध तौर पर कब्जा कर लिया था। यह ज़मीन उनके भाई बीएम मल्लिकार्जुनस्वामी ने 20 साल पहले तोहफे में दी थी।
इस मामले पर कर्नाटक के राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17 ए और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 218 के तहत उनके खिलाफ जांच की मंजूरी दी थी।
सिद्धारमैया ने इस जांच की मंज़ूरी पर सवाल उठाया था और इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की थी। हालाँकि हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ केवल जांच की अनुमति दी है, उन पर मुकदमा चलाने की नहीं।
कानूनी जानकारों ने इस फ़ैसले पर सवाल भी खड़े किए हैं। सबसे पहले यह फ़ैसला अपनी पत्नी को ज़मीन आवंटन कराने में मुख्यमंत्री की मिलीभगत की पुष्टि करने के लिए ‘साक्ष्य’ पेश करने में नाकाम रहा है।
कानूनी मामलों जानकार, वकील और ‘विधि सेंटर फॉर लिगल पॉलिसी’ के सह संस्थापक आलोक प्रसन्ना कुमार ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘कोई भी जांच ओपन-एंडेड नहीं हो सकती। फैसले में मुख्य तौर पर जो बिंदु गायब है, वह यह है कि इसमें मुख्यमंत्री की सीधी भूमिका की ओर इशारा नहीं है।’
जानकारों के मुताबिक मामला कितना गंभीर
सिद्धारमैया साल 1996 और 1999 के बीच और फिर साल 2004-2005 तक कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री थे। वो साल 2009 और साल 2013 में विपक्ष के नेता भी रहे हैं।
उसके बाद साल 2013 से 2018 के बीच और फिर मौजूदा समय में वो साल 2023 से वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं।
कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस नागप्रसन्ना ने कहा है, ‘यदि घटना के लिंक या इसकी कडिय़ों पर ध्यान दें तो इसमें जोडऩे के लिए कुछ है। यह वह कनेक्शन है जिसके लिए कम से कम पूछताछ या जांच की ज़रूरत होगी।’
जस्टिस नागप्रसन्ना के मुताबिक, ‘मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि याचिकाकर्ता की पत्नी के पक्ष में 14 सेल डीड रजिस्टर होने के तुरंत बाद ही, एमयूडीए के कमीश्नर को दिशा-निर्देश तैयार होने तक मुआवज़े के तौर पर दिए जाने वाले प्लॉट के आवंटन को रोकने के निर्देश दिए गए।’
प्रसन्ना कुमार कहते हैं, ‘यह मानते हुए कि इसमें कोई अपराध हुआ है, इसमें जांच के आदेश देना ठीक है। लेकिन इस मामले में यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है कि मल्लिकार्जुनस्वामी ने अपने बहनोई सिद्धारमैया के नाम का इस्तेमाल एक एहसान हासिल करने के लिए किया, ताकि वह अपनी बहन पार्वती को जमीन उपहार में दे सकें।’
‘यह 2जी घोटाले जैसा है। इसे हर किसी ने घोटाला, घोटाला कहा और सात साल बाद यह साबित हो गया कि राज्य के खजाने को कोई नुक़सान नहीं हुआ और सभी को बरी कर दिया गया। वे एक भी बात साबित नहीं कर पाए।’
जस्टिस नागप्रसन्ना ने यह भी कहा कि, ‘संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत मंत्रिपरिषद की सलाह लेना राज्यपाल का कर्तव्य है। लेकिन वो असमान्य हालात में स्वतंत्र फैसला ले सकते हैं। राज्यपाल के विवादित आदेश में स्वतंत्र विवेक का प्रयोग करने में कोई कसूर नहीं निकाला जा सकता है।’
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने बताया कि यह फैसला मैसूर शहर में नुक़सान की भरपाई के लिए दी गई ज़मीन का विस्तृत विश्लेषण कर, संवैधानिक प्रावधानों के सवालों से निपटने के मुद्दे से दूर चला गया है।
संजय हेगड़े ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘मूल रूप से संवैधानिक प्रावधानों में सवाल अधिक सीमित था कि क्या राज्यपाल ने कैबिनेट की सलाह के बावजूद इसके ख़िलाफ़ जाकर, मुख्यमंत्री को छोडक़र अपने विवेक से काम किया था।’
‘इस फैसले के ‘तर्क’ में खामी है। उनका निष्कर्ष दोषपूर्ण है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है वह यह है कि यदि कैबिनेट ने कोई सलाह दी है, तो यह मानना आमतौर पर राज्यपाल के लिए बाध्यकारी है। सिवाय इसके कि जब यह पूरी तरह से गलत हो।’
संजय हेगड़े कहते हैं, ‘इन निष्कर्षों को देखते हुए यदि इन्हें अपील में रद्द नहीं किया जाता है, तो यह जांच करने वालों की सोच को प्रभावित करेगा। जांच अधिकारी और ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट के फैसले का असर महसूस करेंगे। उन्हें यह भी लग सकता है कि वे उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ नहीं जा सकते । अगर इस फैसले को कायम रहने दिया गया तो यह एक बड़ा झटका होगा।’
कानून के जानकार ये अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे हैं कि सारी कानूनी प्रक्रिया में कितना वक़्त लगेगा। लेकिन राजनीतिक टीकाकारों को लगता है कि एक तरफ़ कांग्रेस और सिद्धारमैया के बीच खींचतान और दूसरा विपक्ष के साथ रस्साकशी आने वाले हफ्तों में और बढ़ेगी।
बीजेपी-जेडीएस गठबंधन के लिए ये उस व्यक्ति पर हमला करने का सुनहरा मौका है जिसकी वजह से वो कर्नाटक में बहुमत पाने से चूक गए थे।
अदालत का फैसला आने के तुरंत बाद सिद्धारमैया ने ख़ुद कहा था, ‘ये लोग अपने दम पर कभी भी सरकार नहीं बना पाए हैं। बीजेपी ने हमेशा धनबल और ऑपरेशन लोटस का इस्तेमाल किया है।’
कांग्रेस की सियासी उलझन
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर ए नारायण ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि बीजेपी अब लगातार एक अभियान चलाएगी। हाई कोर्ट के फैसले के बाद देखना होगा कि अब कौन सी एजेंसी निचली अदालत से इस मामले की जांच का इजाजत मांगेगी।’
‘अगर ये अनुमति राज्य सरकार की कोई एजेंसी या लोकायुक्त मांगता है तो बीजेपी आपत्ति करेगी और कांग्रेस को भी लगेगा कि इससे जनभावना उसके खिलाफ जा सकती है।’
सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय से आते हैं। यह कर्नाटक में सबसे बड़ा ओबीसी समुदाय है।
प्रोफेसर नारायण कहते हैं, ‘अगर सिद्धरमैया को हटाया गया तो सवाल यही होगा कि क्या पार्टी एकजुट रह पाएगी। लेकिन अगर अदालत ने सीबीआई को जांच करने के लिए कहा तो पार्टी सिद्धारमैया का साथ देगी।’
‘पार्टी हमेशा उनके साथ खड़ी रही है। लेकिन अगर उन्हें हटाया गया तो कांग्रेस के लिए कुरुबा जैसे समुदाय का समर्थन बचा पाना मुश्किल होगा।’
कर्नाटक के राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर हरीश रामास्वामी भी प्रोफेसर नारायण से सहमत दिखते हैं।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘अगर सिद्धारमैया को हटाया तो पार्टी को एकजुट रख पाना मुश्किल होगा। दरअसल पार्टी इस बात का ख़्याल रखेगी कि उसे इसबार लिंगायत समुदाय का जो समर्थन मिला है वैसा साल 1990 में वीरेंद्र पाटिल के दौर के बाद कभी नहीं मिला है।’
लेकिन प्रोफेसर शास्त्री कहते हैं कि अगर सिद्धारमैया को पद से हटा भी दिया गया तो भी उनका ओबीसी समुदाय के बीच समर्थन घटेगा नहीं।
वे कहते हैं, ‘ऐसा देखा गया है कि पद से हटने के बाद भी समर्थन बरकरार रहता है। ये एक बड़ी वजह है जो उन्हें देवराज अर्स के बाद कम प्रभाव वाले ओबीसी समुदाय का बड़ा नेता बनाता है।’ (www.bbc.com/hindi)
-अजय ब्रहमात्मज
फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने इस साल आमिर ख़ान प्रोडक्शन की किरण राव निर्देशित ‘लापता लेडीज’ को भारत की ओर से ऑस्कर में भेजने की घोषणा की है।
इस घोषणा के साथ ही विवाद शुरू हो गया।
ऐसा कहा जा रहा है कि पायल कपाडिय़ा की फि़ल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ ज़्यादा बेहतर होती।
इस साल भारत में निर्मित विभिन्न भाषाओं की 29 फि़ल्मों पर विचार किया गया।
इनमें ‘कल्कि 2898 एडी’, ‘एनिमल’, ‘चंदू चैंपियन’, ‘सैम बहादुर’, ‘केट्टूकल्ली’, ‘आर्टिकल 370’ भी विचार के लिए आई थीं।
फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया की 13 सदस्यों की निर्णायक मंडली ने परस्पर सहमति से किरण राव की ‘लापता लेडीज’ को भेजने की सिफ़ारिश की।
यह फि़ल्म पिछले साल टोरंटो इंटरनेशनल फि़ल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की गई थी, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए ये इस साल एक मार्च को सिनेमाघर में रिलीज़ हुई। उसके ठीक 8 हफ़्तों के बाद यह फि़ल्म ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म नेटफ़्िलक्स पर आ गई।
दावा किया जा रहा है कि नेटफ़्िलक्स पर यह सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली फि़ल्म हो गई है।
भारत की ‘लापता लेडीज़’ के साथ 50-52 देशों की फि़ल्में इस श्रेणी में भेजी गई हैं।
ऑस्कर एंट्री के लिए ‘लापता लेडीज़’ के चुने जाने के बाद निर्देशक किरण राव ने कहा, ''यह पहचान हमारी पूरी टीम के अथक कार्य का साक्ष्य है। टीम के समर्पण और पैशन से यह कहानी जीवंत हुई।''
राव ने कहा, ‘सिनेमा हमेशा से दिलों को जोडऩे, सीमाओं को तोडऩे और सार्थक विमर्श आरंभ करने का शक्तिशाली माध्यम रहा है। मुझे उम्मीद है कि यह फि़ल्म भारतीय दर्शकों की तरह ही पूरे संसार के दर्शकों को झंकृत करेगी। मैं आमिर ख़ान प्रोडक्शन और जिओ स्टूडियो के अविचल सहयोग और भरोसे के लिए उन्हें धन्यवाद देती हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे साथ एक प्रतिभाशाली टीम थी, जिसने इस कहानी को कहने की मेरी प्रतिबद्धता को शेयर किया।’
आमिर ख़ान के अनुभव का मिलेगा लाभ
‘लापता लेडीज़’ के निर्माता आमिर ख़ान हैं और उनकी प्रोडक्शन की फि़ल्में ‘लगान’ और ‘तारे ज़मीन पर’ पहले इस श्रेणी के लिए भेजी जा चुकी हैं।
इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अपने पिछले अनुभवों का उपयोग करते हुए आमिर ख़ान ‘लापता लेडीज़’ की ऑस्कर एंट्री को ख़ास मुकाम तक पहुंचा सकेंगे।
इस श्रेणी के लिए भेजी गई दुनिया भर की फि़ल्मों को परखने के लिए ऑस्कर की एक निर्णायक मंडली होती है। उनके संज्ञान में लाने के लिए भेजी गई फि़ल्मों के निर्माताओं को ज़बरदस्त प्रचार और अनेक प्रयोजनों की व्यवस्था करनी पड़ती है।
इस अभियान में भारी रकम ख़र्च होती है। अगर चुनी गई फि़ल्म के पीछे कोई मज़बूत निर्माता नहीं हो तो देखा गया है कि इस प्रचार और ज़रूरी ख़र्च के लिए धनउगाही का अभियान भी चलता है।
प्रतिभाओं की ऊर्जा और मेधा ख़र्च होती है। पांच-छह महीने का पूरा समय भी जाता है। इसके बाद फि़ल्म नमांकित भी न हो पाए तो देश के दर्शकों और फि़ल्म प्रेमियों को काफ़ी निराशा होती है।
ऑस्कर पुरस्कारों के जानकारों के मुताबिक फि़ल्मों को परखने, सराहने और पुरस्कार के योग्य मानने का ख़ास तरीक़ा होता है। इस तरीक़े में भारत समेत कई देशों की फि़ल्में पीछे रह जाती हैं।
मुंबई की हिंदी फि़ल्म इंडस्ट्री और अन्य भाषाओं की फि़ल्म इंडस्ट्री के अनेक फि़ल्मकार इस सालाना ‘ऑस्कर अभियान’ को भारतीय फि़ल्मों के लिए ग़ैरज़रूरी मानते हैं।
कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय फि़ल्मों की श्रेष्ठता के लिए ऑस्कर मुहर की क्या ज़रूरत है?
कला, संस्कृति और सिनेमा के भूमंडलीकरण के इस दौर में हम सभी जानते हैं कि हमारी फि़ल्में किस स्तर की बनती हैं और अंतरराष्ट्रीय मंच पर होने कैसी तवज्जो मिलती है?
लापता लेडीज़ की विशेषता
किरण राव की ‘लापता लेडीज़’ आज से 23 साल पहले 2001 की कहानी है। किरण राव ने किसी भी संभावित विवाद और आरोप से बचने के लिए ‘निर्मल प्रदेश’ नामक काल्पनिक राज्य की कहानी चुनी है। यह उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश नहीं है।
फिर भी यह तय है कि पर्दे पर आया यह काल्पनिक प्रदेश (संभवत: बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश) हिंदी भाषी प्रदेश ही है, जिसे राजनीतिक लेखों और अध्ययन में ‘बीमारू प्रदेश’ तक कहा जाता है।
किरण राव ने इस निर्मल प्रदेश की सामाजिक धडक़न को पेश करते हुए समाज में सदियों से मौजूद पुरुष प्रधान सोच को उजागर किया है।
फि़ल्म के लेखकों और निर्देशक ने पैनी दृष्टि से समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और रूढिगत परंपराओं की एक मामूली कहानी को दो महिला चरित्रों के ज़रिए ख़ूबसूरती से पेश किया है।
हिंदी प्रदेश के गंवई-समाज के इन चरित्रों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने उन्हें उनकी कमज़ोरियों की वजह से हास्यास्पद (कॉमिकल) नहीं होने दिया है।
अच्छी बात है कि फि़ल्म में कोई नारेबाज़ी नहीं है और ना ही आक्रामक स्त्रीवादी सोच का सहारा लिया गया है।
लेखक-निर्देशक ने परतदार हिंदी समाज में महिलाओं की स्थिति और संभावनाओं को संवेदनशील तरीक़े से रोज़मर्रा जि़ंदगी के मामूली प्रसंगों और घटनाओं से बुना है।
यह फि़ल्म समाज में लापता जि़ंदगी जी रही महिलाओं के चित्रण के बहाने विकास और विकसित भारत का दम भरने वाली सत्तारूढ़ राजनीति की वास्तविकता ज़ाहिर करती है।
फि़ल्म की मूल कहानी के साथ टिप्पणियों, दृश्यों और कहकहों में वर्तमान समय में मौजूद अनेक सामाजिक विसंगतियों भी प्रकट हुई हैं।
लंबे समय के बाद किसी हिंदी फि़ल्म में गांव-देहात दिखाई पड़ा है। खेत-खलिहान और गांव की पगडंडियों के साथ रोज़मर्रा जि़ंदगी में उपयोगी साधन-सुविधाओं का दर्शन हुआ है। असुविधाएं भी प्रकट हुई है।
हमें (शहरी दर्शकों) दिखता और पता चलता है कि भारतीय गांव-देहात विकास की होड़ में कहीं पीछे छूट गए हैं।
खुलेपन और आधुनिकता की लहर अभी तक वहां नहीं पहुंची है। इस समाज में अधिकांश गतिविधियां शिथिल हैं।
धीमी रफ़्तार की जि़ंदगी की कहानी
हालांकि धीमी रफ़्तार की जि़ंदगी में क्लेश नहीं है, लेकिन उनके परिवेश और जीवन को देखकर आश्चर्य भी होता है कि क्यों विकास की धारा इन इलाक़ों तक नहीं पहुंची?
क्यों उनकी जि़ंदगी जटिल हो गई? फि़ल्म में दृश्यमान परिवेश पर निर्देशक की चौकस नजऱ है, जबकि उन्हें फूल और जया की कहानी कहनी है। भाषा, वेशभूषा, संवाद और माहौल में गंवई सहजता है।
किसी भी प्रकार की कृत्रिमता का एहसास नहीं होता, जबकि फि़ल्म निर्माण में नैसर्गिक माहौल में दृश्य विधान के लिए अनुकूल तब्दीली करनी पड़ती है।
थोड़ी भी चूक हो तो दृश्य, परिवेश, सेट और कॉस्ट्यूम नकली लगने लगते हैं। ‘लापता लेडीज़’ की क्रिएटिव और टेक्निकल टीम के संयुक्त प्रयास से सब कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है।
फूल और जया दो दुल्हनें हैं। शादी के बाद वे एक ही ट्रेन से यात्रा कर रही है। लगन का समय है। ट्रेन के डब्बे में और भी दुल्हनें बैठी हैं।
लगभग सभी ने नाक तक घूंघट काढ़ रखी है। यह घूंघट उन दुल्हनों की वास्तविकता के साथ एक सामाजिक रूपक भी है। हड़बड़ी और बेख्याली में दुल्हनें बदल जाती हैं।
फेरबदल के इस संयोग पर हंसी आती है, लेकिन चरित्रों के साथ आगे बढऩे पर हमें स्थिति की जटिलता समझ में आती है।
बतौर दर्शक चरित्रों के साथ हम भी चिंतित होते हैं कि फूल और जया कैसे सही ठिकानों तक पहुँचेंगी?
कहीं उनके साथ कुछ अप्रिय तो ना हो जाएगा? फूल और जया की परिस्थितियां अलग होने के बावजूद एक सी हैं। दोनों का वर्तमान अनिश्चय के घेरे में है।
फूल अपनी सादगी और जया अपनी होशियारी के बावजूद पुरुष प्रधान समाज के संजाल में फंस चुकी है।
दोनों के पति स्वभाव में अलग है। दीपक अपनी सोच में प्रगतिशील है, लेकिन प्रदीप रूढि़वादी और पुरुषवादी समझदारी रखता है।
फूल, जया, दीपक और प्रदीप इन चारों चरित्रों के ताने-बाने में महिलाओं की अस्मिता, पहचान और प्रतिष्ठा के सवाल उठते हैं। किरण राव ने अत्यंत सरल तरीक़े से इन सवालों को प्रस्तुत करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दी हैं।
कलाकारों ने दिखाया दम
बिप्लव गोस्वामी, स्नेहा देसाई और दिव्यनिधि शर्मा के लेखन में नवीनता है। ऊपर से उनके गढ़े किरदारों में आए नए कलाकारों से दर्शकों की कोई पूर्व धारणा नहीं बनती।
उनके अपने और व्यवहार में नयापन है। परिचित कलाकार नए किरदारों में भी घिसे-पिटे आचरण से नीरस लगने लगते हैं, क्योंकि दर्शकों को उनकी प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान हो जाता है।
‘लापता लेडीज़’ में किरण राव ने एक रवि किशन के अलावा किसी लोकप्रिय कलाकार को नहीं चुना है।
रवि किशन भी अपनी प्रचलित छवि से भिन्न एक मामूली किरदार में है। वह अपने अनोखे अंदाज़, अदाकारी और भाव-भंगिमा से मिले किरदार को आत्मीय बना देते हैं।
और फिर उनके किरदार में जो ट्विस्ट और शिफ़्ट आता है, वह उन्हें दर्शकों का प्रिय भी बना देता है।
‘लापता लेडीज़’ के आलोचकों का मानना है कि दशकों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गऱीबी, दुर्दशा और कमियों पर केंद्रित फि़ल्में भेजते रहे हैं।
‘लापता लेडीज़’ नई कोशिश है। बहुभाषी भारतीय फि़ल्म इंडस्ट्री में हर साल फि़ल्मों के चुनाव को लेकर विवाद होता ही है। चूंकि फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया मुंबई में स्थित है।
क्या क्या हैं सवाल?
सबसे ज़्यादा हिंदी फि़ल्में ही विचार के लिए आती हैं और निर्णायक मंडली में भी मुंबई फि़ल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि रहते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि हिंदी फि़ल्में ही मोटे तौर पर चुनी जाती हैं।
इस साल भी विचार के लिए आई 29 फि़ल्मों में से 14 फि़ल्में हिंदी की रही हैं।
सवाल तो निर्णायक मंडली के सदस्यों की योग्यता पर भी होते हैं। एक सुझाव भी आया था कि राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार से सम्मानित सर्वश्रेष्ठ फि़ल्म को ही ऑस्कर एंट्री के लिए भेजा जाए।
पिछले सालों में विचार के लिए भेजी जाने वाली फि़ल्म के साथ जमा किए जाने वाले आवश्यक भारी शुल्क की भी आलोचना हुई है।
अनेक फि़ल्मकार शिकायत करते हैं कि उन्हें फि़ल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया कि इस गतिविधि की जानकारी समय पर नहीं मिल पाती है।
इसके अलावा अनेक निर्माता अपनी फि़ल्मों को विचार के लिए भेजते ही नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ़ समर्थ निर्माता अपनी साधारण फि़ल्मों की भी एंट्री कर देते हैं।
ऑस्कर के सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फि़ल्म की श्रेणी में भेजी जाने वाली फि़ल्मों के साथ एक जिज्ञासा तो बनती ही है कि आखऱि हमारी फि़ल्मों का प्रदर्शन कैसा रहा? छन कर आई कुछ ख़बरों और तस्वीरों से हम ख़ुश होते रहते हैं।
बहरहाल, हर साल भारतीय फि़ल्म इंडस्ट्री में सितंबर से फरवरी के बीच ‘ऑस्कर अभियान’ चलता है।
इस अभियान की सच्चाई से भी हमलोग वाकिफ़ हैं। 2001 में आमिर ख़ान प्रोडक्शन की आशुतोष गोवारिकर निर्देशित फि़ल्म ‘लगान’ नामांकन सूची तक पहुँच पाई थी। उसके पहले और बाद हर साल एक फि़ल्म भेजी जाती है, लेकिन अभी तक सिफऱ् तीन बार भारतीय फि़ल्मों को नामांकन मिल पाया है।
रिकॉर्ड के मुताबिक़ 1957 से हर साल एक भारतीय फि़ल्म इस श्रेणी के लिए भेजी जाती है, किंतु अभी तक सिफऱ् ‘मदर इंडिया’(1957), ‘सलाम बॉम्बे’(1988) और ‘लगान’(2001) ही नामांकन तक पहुँच पाई हैं। (बीबीसी) (ये लेखक के निजी विचार हैं) (www.bbc.com/hindi)
-अभय कुमार सिंह
इस साल फऱवरी महीने में अनुरा कुमारा दिसानायके जब भारत आए थे, तो किसी ने शायद ही सोचा था कि कऱीब सात महीने बाद वो श्रीलंका के राष्ट्रपति बनेंगे।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस मुलाक़ात पर ख़ुशी जताते हुए अपने एक्स पोस्ट में लिखा था कि दोनों के बीच द्विपक्षीय संबंधों और इसे गहरा करने पर अच्छी बातचीत हुई है।
अब 22 सितंबर को आए नतीजों में वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में जीत दर्ज की है।
वो जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता हैं और नेशनल पीपल्स पावर (एनपीपी) गठबंधन से चुनाव लड़ रहे थे।
साल 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दिसानायके को महज़ 3त्न वोट मिले थे। इस बार के चुनाव में पहले राउंड में दिसानायके को 42।31त्न और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे सजीथ प्रेमदासा को 32।76त्न वोट मिले।
जीत के एलान के कुछ ही घंटों बाद रविवार रात को श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त संतोष झा ने अनुरा कुमारा दिसानायके से मुलाक़ात की और उन्हें जीत की बधाई दी।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक्स पोस्ट में दिसानायके को जीत की बधाई दी और कहा, ‘भारत की नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी और विजन में श्रीलंका का ख़ास स्थान है।’
पीएम मोदी की बधाई के जवाब में अनुरा ने लिखा, ''प्रधानमंत्री मोदी आपके समर्थन और सहयोग के लिए बहुत धन्यवाद। दोनों देशों में सहयोग को और मज़बूत करने के लिए हम आपकी प्रतिबद्धता के साथ हैं। हमारा साथ दोनों देशों के नागरिकों और इस पूरे इलाक़े के हित में है।''
साल 2022 में जब श्रीलंका भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रहा था, उस वक़्त दिसानायके तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के मुखर विरोधी माने जाते थे।
उन्होंने ख़ुद को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लडऩे वाले नेता के तौर पर पेश किया था। इससे छात्र, कर्मचारी वर्ग समेत एक बड़ा तबका उनके साथ आता गया।
अब राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अनुरा कुमारा दिसानायके के सामने आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार और जातीय तनाव जैसी घरेलू चुनौतियां तो हैं ही, साथ ही ये भी देखना होगा कि वो श्रीलंका की विदेश नीति को किस दिशा में आगे ले जाते हैं और भारत के साथ संबंध कैसे होते हैं।
भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को दक्षिणपंथी विचारधारा का माना जाता है जबकि अनुरा कुमारा दिसानायके वामपंथी विचारधारा से हैं। अक्सर वामपंथी सरकारों को वैचारिक रूप से चीन के कऱीब माना जाता है। ऐसे में क्या भारत के लिए दिसानायके चुनौती बनेंगे?
प्रोफेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं।
उनका मानना है कि भले ही दिसानायके और जेवीपी का रुख़ पहले थोड़ा ''भारत विरोधी'' रहा हो लेकिन हाल के सालों में बदलाव दिखा है।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘उनकी पार्टी जेवीपी (जनता विमुक्ति पेरामुना) परंपरागत रूप से भारत विरोधी रही है। इसका शुरू से ही भारत के प्रभाव के ख़िलाफ़ रुझान रहा है। अगर आप उनके इतिहास को देखेंगे, तो पाएंगे कि उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ कई बार हिंसक विरोध किया है।’
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘ाीलंका में भारत के प्रभाव को कम करने का उनका एक बड़ा एजेंडा रहा है। लेकिन मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में दिसानायके के बयान थोड़ा संतुलित और सोच के साथ रहे हैं। उन्होंने सुशासन, संतुलन और गुट-निरपेक्ष विदेश नीति पर ज़ोर दिया है। मुझे लगता है कि उनकी सरकार का ध्यान भी इसी पर रहेगा। खासकर, आईएमएफ़ पैकेज के बाद के प्रभावों और समाज पर पड़े असर को ध्यान में रखकर। यही मुद्दे उनके चुनाव में जीत के कारण बने हैं।''
प्रोफ़ेसर पंत का कहना है कि साल 2022 में जिस तरह से राजपक्षे की सरकार गई और विक्रमसिंघे आए, उस दौरान भारत ने जिस तरह श्रीलंका की मदद की थी, उसे ध्यान में रखकर श्रीलंका की नई सरकार को काम करना होगा।
चेन्नई के लोयोला कॉलेज के प्रोफ़ेसर ग्लैडसन ज़ेवियर भी इस बात को मानते हैं कि भारत की तरफ़ से की गई आर्थिक मदद को नए राष्ट्रपति ध्यान में रखेंगे।
बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से बातचीत में वो कहते हैं, ‘जहाँ तक अनुरा का सवाल है, वो कुछ भारतीय परियोजनाओं की आलोचना करते हैं। लेकिन उन्होंने चीन की कभी आलोचना नहीं की, तो चलिए ये मान लेते हैं कि उनमें एक तरह का पूर्वाग्रह है।’
‘हालांकि, श्रीलंका अब भी आर्थिक संकट में है। देश को भारत से वित्तीय सहायत की ज़रूरत पड़ती रहेगी। जब श्रीलंका में आर्थिक संकट गहराया था तो भारत ने तुरंत वित्तीय सहायता दी थी। मुझे लगता है कि नए राष्ट्रपति इन बातों को ध्यान में रखेंगे। मुझे नहीं लगता कि वो भारत को बाहर करके देश को कठिन हालात में ले जाएंगे।’
जाफना यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डॉ अहिलन कदिरगामर मानते हैं कि जेवीपी फिलहाल किसी भी देश के बहुत कऱीब या दूर नहीं होगी।
बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से बातचीत में वो कहते हैं, ‘जहाँ तक सवाल जनता विमुक्ति पेरामुना का है तो ये पुरानी जेवीपी नहीं है। ये एक मध्यमार्गी पार्टी बन गई है। लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि भारत के लिए वो इतने अनुकूल होंगे, जितना रानिल विक्रमसिंघे थे। मुझे लगता है कि किसी भी देश के लिए वो न तो बहुत कऱीबी का या न तो दुश्मनी का रिश्ता रखेंगे। उन्हें समझना होगा कि ये समय अभी कट्टर रुख़ अपनाने का नहीं है।’
भारत और चीन के बीच संतुलन
भारत और चीन दोनों ही एक लंबे समय से श्रीलंका के साथ अपने कूटनीतिक और व्यापारिक संबंधों को तरजीह देते आए हैं।
पिछले कई सालों से आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका को दोनों ही देशों ने सहायता भी पहुँचाई है।
इसकी बड़ी एक वजह है, श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति। श्रीलंका के साथ बेहतर संबंध व्यापार के अलावा समुद्री सीमा में सामरिक दृष्टिकोण से भी बेहद अहम है।
अब इस लिहाज़ से श्रीलंका में आई नई सरकार का भारत और चीन के बीच संतुलन कैसा होगा?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘जो राजपक्षे की सरकार थी, वो चीन की तरफ़ बहुत झुकी थी और उसका नतीजा श्रीलंका को भुगतना पड़ा। जब आर्थिक संकट आया, तब चीन कहीं नजऱ नहीं आया समर्थन के लिए जबकि भारत ने समर्थन दिया। तो मुझे लगता है कि ये एक तरह से बेंचमार्क भी बन गया है। संतुलन तो सभी करेंगे, ये भी करेंगे लेकिन क्या ये एक तरफ़ ज़्यादा झुकाव बनाएंगे? ये तो उनकी आने वाली नीतियों से ही पता चलेगा।’
प्रोफ़ेसर पंत का कहना है, ‘अगर आप हिंद-प्रशांत में हैं तो भारत और चीन दोनों ही ऐसे देश हैं, जिन्हें आप नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। साथ ही आप भारत को उस नज़रिये से नहीं देख सकते, जिस नज़रिये से इनकी पार्टी पहले देखा करती थी। भारत अब सक्षम है, विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आँकड़ों के अनुसार जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। तो अगर आपको भारत को अपनी विकास यात्रा में शामिल करना है, तो ये ध्यान में रखकर आगे बढऩा पड़ेगा।’
प्रोफ़ेसर पंत और प्रोफ़ेसर ज़ेवियर दोनों ही अनुरा कुमारा दिसानायके के भारत दौरे का भी जि़क्र भी करते हैं।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं कि जब दिसानायके इसी साल फऱवरी महीने में भारत आए थे तो उन्होंने क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर बातें की थीं और कहा था कि भारत की संवेदनशीलता का ध्यान रखना चाहिए।
‘ये देखना होगा कि वो अब वो इसे कैसे कार्यान्वित करते हैं। आखऱिकार, आपको दोनों के साथ संतुलन बनाकर रखना होगा।’
प्रोफ़ेसर जेवियर कहते हैं कि फऱवरी, 2024 में दिसानायके को भारत ने बुलाया था और उन्हें पूरी तरह से नजऱअंदाज़ नहीं किया गया था। ''उन्होंने प्रमुख नेताओं से मुलाक़ात की। ये पहली बार था, जब भारतीय पक्ष, जेवीपी के संपर्क में आया था।''
मालदीव है सबक
भारत और चीन के बीच संतुलन का एक ऐसा ही उदाहरण प्रोफ़ेसर पंत मालदीव को भी बताते हैं।
उनका कहना है कि पहले मालदीव के साथ भारत के संबंध कुछ ख़ास अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन बाद में भाषा बिल्कुल बदल गई।
वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि ऐसा ही नज़ारा हमें यहां भी देखने को मिलेगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि आज की स्थिति में आप भारत को नाराज़ करके श्रीलंका में काम कर सकते हैं।’
मालदीव में राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्जू ने अपने चुनावी अभियान के दौरान ही 'इंडिया आउट' का नारा दिया था। मुइज़्ज़ू को चीन के प्रति झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है।
लेकिन हाल-फि़लहाल में मालदीव से भारत के रिश्ते दुरुस्त होने के संकेत मिले हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही मालदीव के राष्ट्रपति कार्यालय की प्रमुख प्रवक्ता हीना वलीद ने बताया था कि राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्जू बहुत जल्द भारत की आधिकारिक यात्रा पर आएंगे।
मुइज़्ज़ू ने भारत से वापस मालदीव
जाने के बाद क्या कहा?
हालांकि, जिस तरह से दिसानायके ने चुनाव से पहले अदाणी ग्रुप की तरफ़ से संचालित एक एनर्जी प्रोजेक्ट का विरोध किया था, विश्लेषक इसे भी पार्टी के भारत विरोधी रुख़ के तौर पर आंकते हैं।
सितंबर, 2023 में एक राजनीतिक बहस के दौरान, दिसानायके ने अदाणी ग्रुप के विंड एनर्जी प्रोजेक्ट को रद्द करने का वादा किया था और इसे श्रीलंका की संप्रुभता को कम करने वाला बताया था।
इस पर जाफना यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डॉ अहिलन कदिरगामर, बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से कहते हैं कि सिफऱ् इस मुद्दे के आधार पर भारत से संबंधों के निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते।
वो कहते हैं, ‘जहां तक बात अदाणी के विंड पावर प्रोजेक्ट की है, विरोध इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि ये भारत का प्रोजेक्ट है। न केवल जेवीपी बल्कि दूसरे भी इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं। इस प्रोजेक्ट को लेकर कई इकोलॉजिकल और इकनॉमिक आलोचनाएं हैं।’
नई सरकार में भारत क्या देखेगा?
प्रोफ़ेसर पंत मानते हैं कि भारत को पहले ये समझना पड़ेगा कि श्रीलंका की नई सरकार की आर्थिक नीतियां क्या हैं और ये कैसे सरकार चलाते हैं।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ''अगर वो ऐसी आर्थिक नीतियां लाते हैं, जिसमें श्रीलंका में स्थिरता बनी रहती है, तो वो भारत के लिए अपने आप में अच्छी बात होगी। भारत के लिए परेशानी तब होती है, जब इस तरह की स्थिति आ जाती है, जहां हमारे पड़ोसी देश आर्थिक बदहाली की कगार पर खड़े हो जाते हैं और फिर उसके बाद भारत को समर्थन करना पड़ता है, वहां जाकर उन्हें संभालना पड़ता है, समाधान देना पड़ता है, आपको मदद देनी पड़ती है।''
वो कहते हैं कि इसके साथ ही भारत इस बात पर भी नजऱ रखेगा कि उसकी जो संवेदशीलताएं हैं, उनका ध्यान श्रीलंका की नई सरकार रख रही है या नहीं।
श्रीलंका की बहुत महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति है। वहाँ चीन काफ़ी समय से नजऱ गड़ाए खड़ा है। वहाँ के जो इंफ्रास्ट्रक्चर और पोर्ट्स हैं, उनमें श्रीलंका का कितना हिस्सा है और चीन का कितना हिस्सा है, ये सारे मुद्दे हैं जिन पर भारत नजऱ रखेगा और देखेगा कि यह नई सरकार किस तरह से इन बातों में संतुलन बैठाती है।’ ((bbc.com/hindi)
-गेविन बटलर, अर्चना शुक्ला
अभूतपूर्व आर्थिक संकट के चलते साल 2022 में बड़े पैमाने पर उथल पुथल और राष्ट्रपति के सत्ता से हटने के बाद श्रीलंका में पहला राष्ट्रपति चुनाव हो रहा है।
शनिवार को हो रहे मतदान को एक तरह से देश को पटरी पर लाने के लिए किए गए आर्थिक सुधारों पर जनमत संग्रह के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन टैक्स बढऩे, सब्सिडी और कल्याणकारी खर्चों में कटौती के कारण अभी भी अधिकांश श्रीलंकाई मुश्किल का सामना कर रहे हैं।
कई विश्लेषकों का अनुमान है कि इस कांटे के चुनाव में मतदाताओं के ज़ेहन में आर्थिक संकट सबसे प्रमुख होगा। भारत के थिंकटैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो सौम्या भौमिक ने बीबीसी से कहा, ‘देश में बढ़ती महंगाई, जीवनयापन की आसमान छूती क़ीमतें और गरीबी ने मतदाताओं के अंदर कीमतों को स्थिर करने का हल निकालने और जीवनयापन में सुधार को लेकर बेचैनी अधिक है।’
उनके मुताबिक, ‘एक ऐसा देश जो आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश में है, वहां यह चुनाव श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने और सरकार में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय भरोसे को पैदा करने के लिए बहुत ही अहम साबित होने वाला है।’
श्रीलंका को आर्थिक संकट से निकालने का भारी भरकम कार्यभार राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे को मिला था। वो दोबारा कार्यकाल पाने के लिए रेस में हैं।
जब पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को सत्ता छोडऩी पड़ी थी, तो उसके एक सप्ताह बाद ही संसद ने 75 साल के विक्रमसिंघे को नियुक्त किया था।
कार्यकाल संभालने के कुछ दिनों बाद ही विक्रमसिंघे ने जो बचा खुचा प्रदर्शन था, उसे बलपूर्वक ख़त्म किया था। उन पर राजपक्षे परिवार को बचाने और फिर से ताकत हासिल करने देने के आरोप लगते रहे हैं, हालांकि वे इन आरोपों से इंकार करते हैं।
राष्ट्रपति पद की दौड़ में एक और मज़बूत उम्मीदवार हैं और वो हैं वामपंथी राजनेता अरुना कुमारा दिसानायके। उनके भ्रष्टाचार विरोधी प्लेटफॉर्म को लगातार अच्छा खासा जनता का समर्थन हासिल हो रहा है।
शनिवार के इस चुनाव में श्रीलंका के इतिहास के सबसे अधिक उम्मीदवार मैदान में हैं। लेकिन तीन दर्जन उम्मीदवारों में से चार सुर्खियों में हैं।
विक्रमसिंघे और दिसानायके के अलावा प्रतिपक्ष के नेता सजित प्रेमदासा और बेदखल किए गए राष्ट्रपति के भतीजे और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के 38 साल के बेटे नमल राजपक्षे हैं।
स्थानीय समय के अनुसार शाम चार बजे मतदान समाप्त हो जाएगा और रविवार को नतीजे आएंगे।
बढ़तीं आर्थिक चुनौतियां
जब देश में आर्थिक संकट गहरा गया था तो एक आंदोलन ‘अरागालया’ (संघर्ष) उठ खड़ा हुआ है जिसने पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को गद्दी से उतरने को मजबूर कर दिया।
सालों तक कम टैक्स, कमजोर निर्यात और बड़ी बड़ी नीतिगत गलतियों ने कोविड-19 की महामारी के बाद मिलकर ऐसा विकराल रूप धारण किया कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया। सार्वजनिक कर्ज 83 अरब डॉलर से भी अधिक हो गया और महंगाई 70 फीसदी तक पहुंच गई।
हालांकि इस गहरे संकट से देश के सामाजिक और राजनीतिक रूप से रसूखदार आमतौर पर अछूते रहे लेकिन आम लोगों के लिए राशन, गैस सिलेंडर और दवाएं पाना मुश्किल हो गया, जिसने असंतोष और अशांति में घी का काम किया।
उस समय राष्ट्रपति रहे राजपक्षे और उनकी सरकार को इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और उनके इस्तीफे की मांग के लिए महीने भर तक प्रदर्शन हुए।
13 जुलाई 2022 को एक नाटकीय घटनाक्रम में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया। ये घटना पूरी दुनिया में प्रसारित हुई और लोगों ने देखा कि प्रदर्शनकारी स्विमिंग पूल में छलांग लगा रहे थे और घर में तोडफ़ोड़ कर रहे थे।
राजपक्षे के देश छोडक़र जाने के बाद राष्ट्रपति विक्रमसिंघे की अंतरिम सरकार ने आर्थिक संकट को कम करने के लिए बहुत कड़ी खर्च कटौती को लागू किया।
राजपक्षे 50 दिनों तक देश से बाहर निर्वासित थे।
आर्थिक संकट का असर
हालांकि आर्थिक सुधार महंगाई को सफलतापूर्वक नीचे लाने में कामयाब रहा और श्रीलंकाई रुपये को मजबूत भी किया। लेकिन हर श्रीलंकाई इन सुधारों के असर का दर्द महसूस करता है।
32 साल के येशान जयालथ कहते हैं, ‘नौकरी पाना सबसे मुश्किल है। अकाउंटिंग डिग्री होने के बाद भी मैं एक परमानेंट नौकरी नहीं पा सकता।’ वो पार्ट टाइम या अस्थाई नौकरी कर रहे हैं।
पूरे देश में अधिकांश छोटे व्यवसाय उस संकट से अभी भी उबर नहीं पाए हैं।
उत्तरी कोलंबो में नॉर्बेट फर्नांडो की रूफ टाइल फैक्ट्री थी, जिसे उन्हें 2022 में बंद करना पड़ा था।
उन्होंने बीबीसी को बताया कि मिट्टी, लकड़ी और केरोसिन जैसे कच्चे माल दो साल पहले के मुकाबले आज तीन गुना महंगे हैं। बहुत कम लोग घर बना रहे हैं या रूफ़ टाइल्स खरीद रहे हैं।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘35 सालों बाद, फैक्ट्री का बंद होना तकलीफ देता है।’ उन्होंने ये भी बताया कि उस इलाके में 800 टाइल फैक्ट्रियां थीं। लेकिन 2022 के बाद सिर्फ 42 ही बची हैं।
व्यवसाय के माहौल को लेकर केंद्रीय बैंक के आंकड़े दिखाते हैं कि 2022-23 में मांग में काफ़ी गिरावट आई और 2024 में हालात थोड़े सुधरे लेकिन यह संकट से पहले वाली स्थिति में फिर भी नहीं आ पाया है।
इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (आईसीजी) में श्रीलंका को लेकर काम करने वाले सीनियर कंसल्टेंट एलन कीनान ने बीबीसी को बताया, ‘श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था अब अपने पैरों पर फिर से खड़ी हो सकती है लेकिन बहुत सारे नागरिकों को ये समझाने की ज़रूरत है कि जो कीमत वे अदा कर रहे हैं उसकी अपनी अहमियत है।’
मुख्य उम्मीदवार कौन कौन हैं?
रानिल विक्रमसिंघे: पहले के दो राष्ट्रपति चुनावों में इन्हें हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन संसद की बजाय श्रीलंकाई जनता द्वारा चुने जाने के लिए उनके पास यह तीसरा मौका है।
अरुना कुमारा दिसानायके: वामपंथी नेशनल पीपुल्स पार्टी अलायंस के उम्मीदवार ने भ्रष्टाचार विरोधी कड़े उपायों और गुड गवर्नेंस का वादा किया है।
सजित प्रेमदासा: विपक्षी नेता प्रेमदासा अपनी समागी जन बलावेगाया पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पिता 1993 में हत्या किए जाने से पहले तक श्रीलंका के दूसरे कार्यकारी राष्ट्रपति थे।
नमल राजपक्षे: 2005 और 2015 में देश की अगुवाई करने वाले महिंदा राजपक्षे के बेटे हैं नमल राजपक्षे। वो एक ताकतवर राजनीतिक परिवार से आते हैं, लेकिन उन्हें मतदाताओं का मन जीतना होगा, जो आर्थिक संकट के लिए इसी परिवार को जिम्मेदार मानते हैं।
विजेता कैसे तय होगा?
श्रीलंका में मतदाता वरीयताक्रम में तीन उम्मीदवारों में से रैंकिंग के आधार पर एक विजेता को चुनते हैं।
अगर एक उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो उसे विजेता घोषित कर दिया जाएगा।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो दूसरे दौर की मतगणना कराई जाएगी, इसके बाद दूसरी और तीसरी वरीयता के वोटों की गिनती की जाएगी।
श्रीलंका में अभी तक दूसरी और तीसरी वरीयता वाले वोटों की गिनती तक नहीं जाना पड़ा है, क्योंकि पहले वरीयता वोटों के आधार पर एक अकेला उम्मीदवार हमेशा ही स्पष्ट विजेता के रूप में उभरा है।
लेकिन इस साल कुछ अलग हो सकता है।
आईसीजी के कीनान ने कहा, ‘ओपिनियन पोल्स और शुरुआती चुनाव प्रचार अभियानों से पता चलता है कि पहली बार ऐसा हो सकता है कि पहली बार कोई उम्मीदवार पूर्ण बहुमत न हासिल कर सके।’
उनके मुताबिक़, ‘उम्मीदवार, पार्टी नेता और चुनाव अधिकारी को किसी भी संभावित विवाद को शांतिपूर्वक और स्थापित प्रक्रियाओं के तहत हल करने के लिए तैयार रहना चाहिए।’
- चंदन कुमार जजवाड़े
केंद्रीय कैबिनेट ने बुधवार को ‘एक देश, एक चुनाव’ पर बनाई उच्च स्तरीय कमेटी की सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया है। यह कमेटी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनाई गई थी।
केंद्र सरकार का दावा है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है।
कमेटी के प्रस्तावों के मुताबिक भारत में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को लागू करने के लिए दो बड़े संविधान संशोधन की ज़रूरत होगी। इसके तहत पहले संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा।
लेकिन मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के पास 240 सीटें ही हैं और मोदी सरकार को बहुमत के लिए सहयोगी दलों के समर्थन की ज़रूरत है और ये सरकार के लिए बहुत आसान नहीं दिखता है।
हालांकि मोदी सरकार को इस मुद्दे पर ज़्यादातर सहयोगियों के अलावा कुछ अन्य दलों का समर्थन भी हासिल है, लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका विरोध किया है। इसके अलावा कई क्षेत्रीय दल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का खुलकर विरोध करते हैं।
जानकार मानते हैं कि सरकार के सामने चुनौती ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को लागू कराने के लिए जरूरी विधेयक पास कराने की ही नहीं बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी कई मुश्किलें हैं।
‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने से क्या भारत में संवैधानिक संकट खड़ा होगा?
संविधान संशोधन कितना आसान
भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस वक़्त केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने इसे कोई महत्व नहीं दिया था।
उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था। उस वक्त केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी।
साल 2014 में बीजेपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से दिए अपने भाषण में भी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का जिक्र किया था।
हालांकि इस मुद्दे पर विपक्षी दल और राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी और केंद्र सरकार पर सवाल उठाते रहे हैं। फिलहाल महाराष्ट्र और हरियाणा का जिक्र किया जा रहा है, जहाँ पिछली बार विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
जबकि इस साल इन दोनों राज्यों के चुनाव भी अलग-अलग हो रहे हैं। इसके अलावा भी कई चुनावों का जिक्र किया जाता है जो ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के सिद्धांत से मेल नहीं खाता है।
वरिष्ठ वकील और संविधान के जानकार संजय हेगड़े कहते हैं, ‘इसे लागू करने के लिए सरकार को कई संविधान संशोधन कराने होंगे और इसके लिए उनके सहयोगी साथ देंगे या नहीं यह भी निश्चित नहीं है। अगर यह पारित हो भी जाता है तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा, क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे को बदलने वाला होगा।’
एक देश एक चुनाव
संजय हेगड़े के मुताबिक एक साथ चुनाव कराने का मतलब है कि एक तरह का प्रेसीडेंशियल फॉर्म ऑफ डेमोक्रेसी हो जाएगा, यानी चुनाव कुछ इस तरह का हो जाएगा कि ‘आपको नरेंद्र मोदी पसंद हैं या नहीं हैं, आपको राहुल गांधी पसंद हैं या नहीं हैं।’
लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार पीडीटी आचारी के मुताबिक़, ‘वन नेशन वन इलेक्शन को लागू करने के लिए संविधान संशोधन के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी। भारत के संवैधानिक ढांचे में वन नेशन वन इलेक्शन कराना संभव ही नहीं है क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है।’
पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘राज्य विधानसभा का चुनाव संविधान की सातवीं अनुसूची में ‘स्टेट लिस्ट’ में आता है। राज्य विधानसभा को समय से पहले भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है। लेकिन 'वन नेशन वन इलेक्शन' के लिए राज्य विधानसभाओं से यह अधिकार छीन लिया जाएगा, जो संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ है। इसलिए यह कभी नहीं हो सकता है।’
मसलन लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए उन राज्यों की विधानसभा को भी भंग करना होगा, जिनका कार्यकाल पूरा नहीं हुआ होगा।
विधानसभा भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास नहीं रह जाएगा और इसका नियंत्रण केंद्र सरकार के पास चला जाएगा।
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी संवाददाता संदीप राय से कहा था कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ कोई आज की बात नहीं है। इसकी कोशिश 1983 से ही शुरू हो गई थी और तब इंदिरा गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया था।
प्रदीप सिंह ने बीबीसी को बताया था, ‘चुनावों में ब्लैक मनी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है और अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो इसमें काफ़ी कमी आएगी। दूसरे चुनाव ख़र्च का बोझ कम होगा, समय कम ज़ाया होगा और पार्टियों और उम्मीदवारों पर ख़र्च का दबाव भी कम होगा।’
उनका तर्क था, ‘पार्टियों पर सबसे बड़ा बोझ इलेक्शन फंड का होता है। ऐसे में छोटी पार्टियों को इसका फायदा मिल सकता है क्योंकि विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ेगा।’
एक देश और एक चुनाव
भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची अलग-अलग मुद्दों पर राज्य और केंद्र के बीच अधिकार के बंटवारे की बात करता है।
इसमें सेंटर लिस्ट के विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है, जबकि स्टेट लिस्ट राज्य सरकार के अधीन है। कॉन्करेंट लिस्ट यानी समवर्ती सूची के विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को अधिकार दिए गए हैं।
पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि आप संविधान में कोई भी संशोधन कर सकते हैं, लेकिन इसके मूलभूत ढांचे में फेरबदल नहीं कर सकते हैं।’
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक इस वन नेशन वन इलेक्शन के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी को 47 राजनीतिक दलों ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी थी, जिनमें 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ बताया था।
इस मामले में एक और संकट स्थानीय निकायों के चुनावों से जुड़ा है। सरकार ने जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी है, उनमें स्थानीय निकायों यानी ग्राम पंचायत और नगर पंचायत के चुनाव लोकसभा विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के अंदर कराने का जिक्र किया गया है।
वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों पर नजऱ रखने वाले अरविंद सिंह कहते हैं, ‘यह सही है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद बहुत सारे काम पर रोक लग जाती है। इसके समाधान के लिए साल 2013 में संसद की एक समीति ने कहा था कि ‘आचार संहिता’ मुद्दे पर विचार होना चाहिए।’
‘लेकिन मौजूदा सरकार स्थानीय निकायों के चुनाव 100 दिनों में कराने की बात कर रही है। इसके अलावा जिस राज्य की सरकार समय से पहले गिर जाएगी वहां दोबारा बचे हुए कार्यकाल के लिए विधानसभा चुनाव होंगे।’
‘यानी यह जीएसटी की तरह होगा, ‘जिसे वन नेशन वन टैक्स’ कहा तो जाता है, लेकिन फिर भी हम टोल टैक्स, इनकम टैक्स जैसे कई तरह के टैक्स भरते ही हैं।’
सरकार की दलील
भारत में आज़ादी और संविधान के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार साल 1951-52 में आम चुनाव हुए थे। पहली बार चुनाव होने से उस वक़्त 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी साथ कराए गए थे। यह प्रक्रिया करीब 6 महीने तक चली थी।
भारत में हुए पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए करीब 17 करोड़ मतदाताओं को वोटिंग करनी थी, जबकि मौजूदा समय में भारत में वोटरों संख्या करीब 100 करोड़ है।
भारत में 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और कई राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
हालांकि तब भी 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में अलग से चुनाव हुए थे। साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा साल 1972 में होने वाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे।
1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को दिया था। लेकिन यह तब प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ पाया था।
दावा किया जाता है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से देश के विकास कार्यों में तेजी आएगी।
दरअसल चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है। आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है।
यह भी तर्क दिया जाता है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से चुनावों पर होने वाले खर्च भी कम होगा। इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा।
भारत में चुनाव पर खर्च
‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के पीछे बड़े चुनावी खर्च की दलील भी कई बार दी जाती है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत इसके बारे में बीबीसी को बताया था कि भारत का चुनाव दुनियाभर में सबसे सस्ता चुनाव है। भारत में चुनावों में कऱीब एक अमेरिकी डॉलर (आज की तारीख में करीब 84 रुपये) प्रति वोटर के हिसाब से ख़र्च होता है।
इसमें चुनाव की व्यवस्था, सुरक्षा, कर्मचारियों का तैनाती, ईवीएम और वीवीपीएटी पर होने वाला ख़र्च शामिल है। भारत के ही पड़ोसी देश पाकिस्तान में पिछले आम चुनाव में करीब 1.75 डॉलर प्रति वोटर खर्च हुआ था।
ओपी रावत के मुताबिक जिन देशों के चुनावी ख़र्च के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें केन्या में यह ख़र्च 25 डॉलर प्रति वोटर होता है, जो दुनिया में सबसे महंगे आम चुनावों में से शामिल है।
भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं, ‘भारत में चुनाव कराने में करीब चार हजार करोड़ का ख़र्च होता है, जो कि बहुत बड़ा नहीं है।
‘इसके अलावा राजनीतिक दलों के करीब 60 हजार करोड़ के ख़र्च की बात है तो यह अच्छा है। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे गरीबों के पास पहुंचते हैं।’
भारत में बदलते समय में चुनावों में तकनीक का इस्तेमाल भी बढ़ा है। इसके बावजूद भी चुनावों के दौरान बैनर-पोस्टर और प्रचार सामग्री बनाने, चिपकाने वालों से लेकर ऑटो और रिक्शेवाले तक को काम मिलता है।
इस तरह से आम लोगों और उनकी अर्थव्यवस्था के लिए चुनाव कई मायनों में अच्छा भी माना जाता है।
एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक़ अगर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके लिए मौजूदा संख्या से तीन गुना ज़्यादा ईवीएम की जरूरत पड़ेगी।
भारत में इस्तेमाल होने वाले एक ईवीएम की कीमत करीब 17 हजार रुपये और एक वीवीपीएटी की कीमत भी करीब इतनी ही है। ऐसे में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के लिए करीब 15 लाख नए ईवीएम और वीवीपीएटी खरीदने की जरूरत पड़ सकती है। (www.bbc.com/hindi)
-कनुप्रिया
बाबाओं द्वारा अंधविश्वास फैलाने वाले वीडियोज/रील्स तो बहुत देखी होंगी, जिसमें वो तर्क ही नहीं सहज-बुद्धि की भी धज्जियाँ उड़ा देते हैं, और अपने जीवन से परेशान धर्म में अपनी तकलीफों का उपाय ढूँढने वाले लोग इन बाबाओं की उल्टी सीधी जाहिलियत भरी बातें भी भक्ति भाव से सुनते हैं क्योंकि उन्होंने उस धर्म का चोला पहन रखा है जिसके प्रति लोग सम्मान से भरे हैं, जो उनके अस्तित्व का आधार बन चुका है, इसलिये भले उस चोले के पीछे कितना ही बड़ा मूर्ख, मक्कार, ढोंगी, धोखेबाज, ठग ही क्यों न छुपा है, वो उसे सर माथे बिठाएँगे।
मगर इसी बीच जब ऐसे वीडियोज/रील्स दिखाई देती हैं जहाँ फि़जि़क्स को बहुत ही छोटे छोटे प्रयोग के साथ सिखाया जा रहा हो तो सुकून मिलता है। विज्ञान भी चमत्कार से भरा है बस उसके नियम पता होने की देर है। हम लोगों ने फिजिक्स को महज किताबों से जाना, उसकी प्रयोगशालाओं में गिने-चुने निर्धारित प्रयोग होते थे, विज्ञान नम्बर लाने की चीज़ होता था। मगर यहाँ रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें क्यों और किस तरह काम करती हैं, जऱा सा दबाव बदल कर, जरा से पृष्ठ तनाव से, जऱा सा तापमान ऊपर नीचे करके, द्घह्म्द्बष्ह्लद्बशठ्ठ और ड्डठ्ठद्दह्वद्यड्डह्म् द्वश1द्वद्गठ्ठह्ल को काम मे लेकर, शिक्षक बच्चों की कक्षाओं में उन्हें छोटे छोटे प्रयोगों से सिखा रहे हैं, और विज्ञान मानो जादू जैसा लगता है, कठिन लगकर उसके प्रति भीतर दुराव नही पैदा होता।
टीवी, पर मीडिया पर दूसरे ग्रह के प्राणियों की झूठी कहानियाँ, जादुई गुफा, भूतों वाली हवेलियाँ , नागलोक की सीढिय़ों, बर्फानी बाबा जैसी चीजें दिखाने की जगह प्राकृतिक चमत्कारों के पीछे की फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित दिखाई जाती तो बेहतर होता।
मगर नहीं, लोगों को तार्किक सोच वाला जागरूक व्यक्ति बनाने की जगह अंधविश्वासी मूर्ख और महज पैसे कमाने वाली मशीन में बदला जा रहा है। जब विज्ञान और तकनीक नित नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं तो कौन हैं वो लोग जो नहीं चाहते कि आम लोगों में सामान्य बुद्धि भी बची रहे?
जब हम लगातार दकियानूसी समाज बनते जा रहे हों तो ऐसी पहल करने वाले जो नई पीढ़ी को दिलचस्प तरीकों से विज्ञान से अवगत करा रहे हों, देखकर ख़ुशी होती है।
आंध्र प्रदेश के मशहूर तिरुपति मंदिर के प्रसाद में मिलने वाले लड्डू को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है।
दावा किया जा रहा है कि प्रसाद के लड्डू में जानवरों की चर्बी मिली हुई है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी गुरुवार को कहा, ‘पिछली सरकार के दौरान तिरुमला लड्डू को बनाने में शुद्ध घी की बजाय जानवरों की चर्बी वाला घी इस्तेमाल किया जाता था।’
जगन मोहन रेड्डी की पार्टी ने नायडू की टिप्पणी पर विरोध जताया है और इन आरोपों को ख़ारिज किया है। इस मामले पर बीजेपी समेत कई राजनीतिक दल अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
सत्ताधारी तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी जिस रिपोर्ट के हवाले से ये दावा कर रही है, बीबीसी उस रिपोर्ट की पुष्टि नहीं करता है। इस मामले में कौन क्या कह रहा है और प्रसाद का ये लड्डू कौन सा है, जो पहले भी विवादों में रहा है।
जिस रिपोर्ट के हवाले आरोप लगाए गए, उसमें क्या है
आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु जाते हैं। मंदिर जाने वाले लोगों को प्रसाद में लड्डू दिया जाता है।
टीडीपी गुजरात की नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड यानी एनडीडीबी के हवाले से बता रही है कि लड्डू में जानवरों की चर्बी होने की पुष्टि हुई है।
हालांकि एनडीडीबी ने इस पूरे विवाद पर कोई टिप्पणी ख़बर लिखे जाने तक नहीं की है। न ही इस बारे में कोई बयान आया है कि जिस सैंपल पर विवाद हो रहा है, वो क्या वाक़ई तिरुपति मंदिर से लिया गया है।
जो रिपोर्ट शेयर की जा रही है, उसमें भी इस बात का जि़क्र नहीं दिखा है कि सैंपल तिरुपति मंदिर का है।
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से कहा, ‘लड्डू और दूसरे प्रसाद बनाने के लिए जो घी इस्तेमाल होता है, वो वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के दौर में कई एजेंसियों से लिया गया था।’
टीडीपी की ओर से जो रिपोर्ट पेश की जा रही है, उसमें कई चीज़ों का जिक्र है।
इसमें सोया बीन, सूरजमुखी, कपास का बीज, नारियल जैसी चीजें लिखी हैं। मगर जिन चीज़ों पर आपत्ति जताई जा रही है, वो हैं- लार्ड, बीफ टेलो और फिश ऑयल।
लार्ड यानी किसी चरबी को पिघलाने पर निकलने वाला सफेद सा पदार्थ। फिश ऑयल यानी मछली का तेल और बीफ टेलो यानी बीफ की चर्बी को गर्म करके निकाले जाने वाला तेल।
साथ ही ये भी दावा गया है कि इनमें तय अनुपात के हिसाब से चीजें नहीं थीं। इसे एस वैल्यू कहा गया है। यानी अगर ऊपर लिखी चीज़ों का एस वैल्यू सही नहीं है तो ये गड़बड़ बात है।
चंद्रबाबू नायडू ने और क्या कहा
चंद्रबाबू नायडू ने कहा, ‘कोई ये सोच भी नहीं सकता कि तिरुमला लड्डू को इस तरह अपवित्र किया जाएगा। पिछले पाँच सालों में वाईएसआर ने तिरुमला की पवित्रता को अपवित्र कर दिया है।’
नायडू ने दावा किया, ‘इस बात की पुष्टि हो गई है कि तिरुमला लड्डू के घी में जानवर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया। इस मामले में जांच चल रही है। इसके लिए जो भी दोषी होंगे, उन्हें सज़ा दी जाएगी।’
टीडीपी के महासचिव नारा लोकेश ने दावा किया, ‘पिछली सरकार में प्रसाद के लड्डू के घी में जानवरों की चर्बी और मछली के तेल का इस्तेमाल हुआ। प्रसाद के नमूनों के परीक्षण में पाया गया है कि इन लड्डुओं में मछली का तेल और बीफ़ चर्बी का इस्तेमाल हुआ है।’
नायडू ने कहा, ‘हम सबकी जि़म्मेदारी है कि वेंकटेश्वर भगवान की पवित्रता की रक्षा करें।’
वाईएसआर ने क्या कहा
आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर ने भी इस मामले पर प्रतिक्रिया दी है और नायडू के आरोपों को ख़ारिज किया है। वाईएसआर नेता और तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट के चेयरमैन रहे वाई वी सुब्बारेड्डी ने सोशल मीडिया पर लिखा, ''नायडू ने तिरुमला मंदिर की पवित्रता को नुक़सान पहुंचाकर और करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाकर पाप किया है। कोई भी व्यक्ति ऐसे आरोप नहीं लगा सकता।’
सुब्बारेड्डी ने, ‘ये एक बार फिर साबित हो गया है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए नायडू हिचकेंगे नहीं। तिरुमला प्रसाद के मामले में मैं और मेरा परिवार ईश्वर की कसम खाने के लिए तैयार हैं। क्या चंद्रबाबू नायडू अपने परिवार के साथ कसम खाकर ये बात कहेंगे?’
वाईएसआर के सोशल मीडिया हैंडल्स पर वाईएसआर नेता सुब्बारेडी ने कहा, ‘भगवान के प्रसाद के लिए बीते तीन साल से घी समेत जो सामग्री इस्तेमाल होती है, वो सब ऑर्गेनिक हैं।’
सुब्बारेड्डी ने कहा, ‘ये आरोप लोगों को गुमराह करने के मक़सद से लगाए जा रहे हैं।’
बीजेपी और कांग्रेस ने क्या कहा
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस नेता शर्मिला ने इस मामले पर टीडीपी और वाईएसआर पर राजनीति करने के आरोप लगाए हैं और सीबीआई जांच की मांग की है।
शर्मिला ने कहा, ‘हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई। चंद्रबाबू नायडू की टिप्पणी परेशान करने वाली है।’
बीजेपी सांसद लक्ष्मण ने कहा, ''लड्डुओं में जानवर की चर्बी का इस्तेमाल दुर्भाग्यपूर्ण है। पूरा हिंदू समाज इस घटना की निंदा कर रहा है।’
लक्ष्मण ने चंद्रबाबू नायडू सरकार से उन अधिकारियों पर कार्रवाई करने के लिए कहा, जो कथित तौर पर इसमें शामिल थे।
चंद्रबाबू नायडू ने लड्डू को लेकर ये भी कहा, ‘हमारी सरकार में पवित्र लड्डू बनाए जा रहे हैं।’
आंध्र प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री पवन कल्याण ने सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया दी है।
पवन कल्याण ने लिखा, ‘तिरुपति बालाजी के प्रसाद में जानवर की चर्बी (मछली का तेल, पोर्क और बीफ़ फ़ैट) मिले होने की पुष्टि से हम सभी बहुत परेशान हैं। तत्कालीन वाईसीपी सरकार की ओर से गठित टीटीडी बोर्ड को कई सवालों के जवाब देने होंगे।’
बोर्ड की भूमिका और जवाब
तिरुपति मंदिर से जुड़ा ट्रस्ट 'तिरुमला तिरुपति देवस्थानम' यानी टीटीडी के नाम से जाना जाता है। ये ट्रस्ट मंदिर से जुड़े कामों में शामिल रहता है। इस ट्रस्ट से जुड़े लेबर यूनियन के कंदारपु मुरली ने सीएम नायडू के बयान की आलोचना की है और इसे टीटीडी कर्मचारियों का अपमान बताया है।
मुरली ने कहा, ‘टीटीडी में पारदर्शी प्रक्रिया है। टीटीडी के अंदर ही लैब है, जहाँ प्रसाद में डलने वाली चीज़ों की जांच की जा सकती है। जांच परख के बाद ही प्रसाद का इस्तेमाल होता है।’
मुरली ने कहा, ‘टीटीडी को जो प्रसाद मिलता है, वो रोज सर्टिफाइड होने के बाद ही मिलता है।’
फैक्ट चेकर मोहम्मद ज़ुबैर ने टीटीडी के एक पुराने ट्वीट को साझा किया है।
इस ट्वीट की तस्वीरों में जून 2024 में टीटीडी के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बने श्यामला राव दिख रहे हैं।
21 जून को टीटीडी के एक्स हैंडल से तस्वीरों को साझा कर लिखा गया- शुद्ध घी से बने सैंपल लड्डू ट्राई किए।
इस पोस्ट में लड्डुओं के अच्छे शुद्ध घी से बनने और बेसन इस्तेमाल किए जाने की बात बताई गई।
मोहम्मद ज़ुबैर ने इन तस्वीरों के साथ लिखा, ‘टीडीपी सरकार ने 14 जून 2024 को श्यामला राव को नियुक्त किया था। वो 21 जून को अच्छे घी से प्रसाद बनने की बात इस ट्वीट में कह रहे हैं।’
लड्डू पहले भी विवाद में रहे
सितंबर 2024 की शुरुआत में लड्डू पाने के लिए टोकन दिखाने की व्यवस्था की गई है।
एक लड्डू सबको फ्री में दिया जाता है। हां, अगर आपको एक लड्डू और हासिल करना है तो 50 रुपये चुकाने होंगे।
श्रद्धालुओं के लिए आधार कार्ड दिखाने की भी व्यवस्था की गई। जिन लोगों ने दर्शन नहीं किए, वो आधार कार्ड दिखाकर लड्डू हासिल कर सकते हैं।
मंदिर में श्रद्धालुओं के लिए 7500 बड़े लड्डू और 3500 वड़ा बनाए जाते थे।
2008 तक एक लड्डू के अलावा अगर किसी को प्रसाद चाहिए होता तो 25 रुपये में दो लड्डू दिए जाते थे। इसके बाद क़ीमत बढ़ाकर 50 रुपये कर दी गई।
2023 में इन लड्डुओं को ब्राह्मणों से बनवाए जाने से जुड़े एक नोटिफिकेशन पर भी विवाद हुआ था।
इतिहासकार गोपी कृष्णा रेड्डी ने बीबीसी से कहा था, ‘शुरू से ही ऐसा कोई जि़क्र नहीं मिलता है कि लड्डू किस जाति के लोगों को बनाना चाहिए और किसे नहीं। शुरू में ईसाई और मुसलमान भी टीटीडी में थे। अब भी हो सकते हैं। सब तरह के लोगों को शामिल करना चाहिए।’
तिरुमला मंदिर और लड्डू
भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित तिरुमला तिरुपति मंदिर भारत के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है।
यहाँ सोने के चढ़ावे को लेकर अक्सर ख़बरें आती रहती हैं। मंदिर में रोज़ाना औसतन एक लाख से ज़्यादा श्रद्धालु न केवल प्रार्थना करते हैं बल्कि दान भी देते हैं।
मंदिर की दानपेटियों में लाखों रुपए तो पड़ते ही हैं, ज़ेवरात चढ़ाने वालों की भी कमी नहीं है।
तिरुपति मंदिर देश का सबसे अमीर मंदिर प्राचीन मान्यता है कि भगवान वेंकटेश्वर जब पद्मावती से अपना विवाह रचा रहे थे तो उन्हें पैसे की कमी पड़ गई, इसलिए वो धन के देवता कुबेर के पास गए और उनसे एक करोड़ रुपये और एक करोड़ सोने की गिन्नियां मांगी।
मान्यता है कि भगवान वेंकटेश्वर पर अब भी वो कजऱ् है और श्रद्धालु इस कजऱ् का ब्याज चुकाने में उनकी मदद करने के लिए दिल खोलकर दान देते हैं।
तिरुमाला मंदिर को हर साल लगभग एक टन सोना दान में मिलता है। मुख्य मंदिर परिसर मज़बूत दीवारों से घिरा है और मंदिर के अंदर किसी तरह की फोटोग्राफ़ी की इजाज़त नहीं है।
अब जो लड्डू चर्चा में हैं, उसे मंदिर के गुप्त रसोईघर में तैयार किया जाता है। ये रसोईघर पोटू कहलाता है।
माना जाता है कि यहां हर रोज़ हज़ारों लड्डू तैयार किए जाते हैं।
साल 2009 में तिरुपति के लड्डू को भौगोलिक संकेत या जियोग्राफिकल इंडिकेटर दे दिया गया था।
लड्डू को चने के बेसन, मक्खन, चीनी, काजू, किशमिश और इलायची से बनाया जाता है।
कहा जाता है कि इस लड्डू को बनाने का तरीक़ा 300 साल पुराना है। (www.bbc.com/hindi)
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अंतत: अरविंद केजरीवाल को लगभग छह महीने जेल में रहने के बाद जमानत मिल गई और उन्होंने मुख्यमंत्री पद भी छोड़ दिया। प्रवर्तन निदेशालय के मामले में कड़े कानून के बावजूद उन्हें जमानत मिलने से यह तो स्पष्ट हो गया था कि उसी मामले में सी बी आई के केस में भी उन्हें जमानत मिल जाएगी। वैसे भी एक मामले में अलग अलग एजेंसियों द्वारा बार बार किसी व्यक्ति को जेल में रखने का कोई औचित्य नहीं है। और जब मामला काफ़ी पुराना है तो उसमें यह भी तर्क नहीं दिया जा सकता कि अभियुक्त बाहर रहकर सबूत नष्ट कर सकता है क्योंकि कोई चतुर व्यक्ति सालों तक अपने खिलाफ सबूत सुरक्षित नहीं रखेगा।
बहरहाल उसी शर्त पर दस लाख के मुचलके पर केजरीवाल जेल से बाहर आए थे जो शर्त प्रवर्तन निदेशालय के केस में थी, मसलन वे सी एम दफ्तर नहीं जाएंगे , फाइलों पर दस्तखत नहीं करेंगे आदि। न्यायालय ने सी बी आई की गिरफ़्तारी के समय को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणी की है और माना है कि जांच शुरू होने के सालों बाद गिरफ्तारी का औचित्य नहीं है। दूसरे क्योंकि अभी कोर्ट में सुनवाई शुरू नही हुई है और मामला काफ़ी लम्बा चलने की उम्मीद है इसलिए इतने लंबे समय तक उन्हें जेल में रखना उचित नहीं है। तीसरे उन्हें प्रवर्तन निदेशालय के मामले में ज्यादा कड़े प्रावधान के चलते भी जमानत मिल चुकी है इसलिए सी बी आई के मामले में जमानत स्वीकार्य है। न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां ने पूर्व न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा की उस टिप्पणी, जिसमें सी बी आई को पिंजरे का तोता कहा गया था, को आगे बढ़ाते हुए उम्मीद जताई है कि सी बी आई अपनी पिंजरे के तोते की छवि तोडक़र स्वतंत्र जांच करेगी। यह टिप्पणी जांच एजेंसी से ज्यादा केंद्र सरकार के खिलाफ है।
जहां तक अरविंद केजरीवाल का प्रश्न है उनके लिए अभूतपूर्व स्थिती है। केजरीवाल ने चौतरफा दबाव से अंतत: भारी मन से मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडऩा ही उचित समझा। हालांकि वे बिहार में जीतनराम मांझी को नीतीश द्वारा सौंपी गई कुर्सी और हेमंत सोरेन द्वारा अपने साथी चंपई सोरेन को अपनी कुर्सी पर बैठाने की फजीहत देख चुके हैं।
मुख्यमंत्री पद पर तो केजरीवाल ने अपनी पसंदीदा मंत्री आतिशी मार्लेना को बिठा दिया लेकिन अब अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री आवास और उससे जुड़ी तमाम सुविधाएं भी छोडऩी होंगी । मुख्यमंत्री की हैसियत से वे अन्य प्रदेशों में घूमते रहते थे अब उन्हें उन सब सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ेगा। वे भले ही राजनिति में खुद को सादगी पसंद व्यक्ति घोषित करते रहे हैं लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री के भव्य आवास को और भव्य बनाने में उन्होंने भी जनता का खूब धन खर्च किया था।यदि वे अभी भी पद पर बने रहने की जिद पर अड़े रहते तो उनके साथ पद लोलुपता हमेशा के लिए बुरी तरह चिपक जाती। उनके पद पर बने रहने से जन कल्याण के वे सब मामले भी अटक जाते जिन पर मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर जरुरी हैं। चुनावी वर्ष में इतना रिस्क लेना संभव नहीं था।
यदि अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता की सही अर्थ में सेवा करना चाहते हैं तो उन्हें जनता से सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए । सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें केवल जमानत दी है दोषमुक्त नहीं किया। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से भी यह सिफारिश करनी चाहिए कि उनके मामले को तय समय सीमा में त्वरित जांच और प्रतिदिन सुनवाई कर शीघ्र निबटाया जाए। यदि वे कथित शराब घौटाले में दोषमुक्त हो जाते हैं तब वे फिर से जोशो खरोस से मुख्यमंत्री पद संभाल सकते हैं।फिलहाल मुख्यमंत्री पद आतिशी मार्लेना को सौंपकर केजरीवाल का कद अपनी पार्टी और राजनीतिक जमात में थोडा तो बढ़ ही गया। अब वे भार मुक्त होकर आगामी विधानसभा चुनावों में अपने दल और गठबंधन दोनों को मज़बूत करने में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं।
-शंभूनाथ
सोशल मीडिया एक बिल्कुल मध्यवर्गीय मामला है। इसपर न अमीर होते हैं और न गरीब। लाखों- करोड़ों की मासिक आमदनी वाले लोग फेसबुक आदि पर कभी नहीं होते!
कई बार सोशल मीडिया आभास कराता है कि वही सभी कला- साहित्यिक रूपों का वैकल्पिक मीडिया है। हम लेखक-बुद्धिजीवी उसमें अपनी गुमटी बना कर बैठे होते हैं। फेसबुक , व्हाट्सएप, ब्लॉग आदि हमें सहयोग देते हुए दिखते हैं। वे हमें स्वतंत्रता का आभास कराते हैं, जो चाहे पोस्ट करो। लेकिन वस्तुत: वे हमारी क्षमताएं छीन रहे होते हैं, हमारी चिंताओं को संकुचित कर रहे होते हैं। हमारी दिमागी गैस निकल जाती है। हम घर बैठे ही दिग्विजय कर लेते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया प्रसूति- गृह है और तत्क्षण कब्रगाह भी !
यह मीडिया आत्म सम्मोहन की प्रवृत्ति को उकसाता है, नार्सिस्टिक बनाता है। ग्रीक नायक नार्सिसस को अपने चेहरे से इतना प्यार हो गया कि वह हर तरफ सिर्फ अपना चेहरा देखना चाहता था।
सोशल मीडिया पर टिड्डियों की तरह पोस्ट आते हैं। क्या करे पाठक, ‘यूजर’ ? ऑनलाइन पर सक्रिय कुछ संपादक और लेखक दावा करते हैं कि उनके 10 हजार फॉलोवर हैं, एक लाख फॉलोवर हैं। फॉलोवर के संबंध में यह सोचना कि वे लंबी रचनाएं पढ़ते हैं, एक बहुत बड़ा भ्रम है। 20- 30 लाइनों की छोटी रचनाएं जरूर कुछ ज्यादा पढ़ी जाती हैं, अन्यथा 5-7 लाइनों के बाद आमतौर पर दम उखड़ जाता है। कई हैं जो खुद पढऩे की जगह पढ़ाने में ज्यादा तत्पर दिखते हैं! वस्तुत: ऑनलाइन पर दावे की तुलना में बहुत थोड़े धैर्यवान पाठक होते हैं।
डिजिटल मंच पर हमें आभास होता है कि हम एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं। खासकर किसी की मृत्यु पर तुरंत सूचना मिल जाती है, एकमात्र इस मामले में एका झलकता है। कहना न होगा कि डिजिटल मंच अपरिहार्य हैं, पर उनपर निर्भरता एक बड़े साहित्यिक पाठक वर्ग की संभावना से हमें काट देगी। ऐसे भी सोशल मीडिया पुस्तकें, पत्रिकाएं और लंबी रचनाएं पढऩे की संस्कृति का बड़े पैमाने पर नाश कर रहा है। नौजवानों की पीढ़ी इस सम्मोहक बाढ़ में तबाह है! उनके दिमाग में फेसबुक कई बार जोंक की तरह होता है, इसी में डूबे रहते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया के इलाकों पर मुख्यत: बड़ी सूचना- फैक्टरियों का कब्जा है। ये निर्मित और कई बार झूठी सूचनाएं प्रसारित करती हैं। पोस्ट को लाइक और आंख मूंदकर फारवर्ड करते- करते नागरिक या उपयोगकर्ता खुद सोचने और कल्पना करने की अपनी ताकत खो देता है।
कई चीजें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, डिजिटल मनोरुग्णता बढ़ाती हैं। कई बार किसी को अभिमन्यु की तरह घेर कर महारथियों का वीरता- प्रदर्शन भी देखने को मिला है। ऐसी घटनाओं से, यदि व्यक्ति कठकरेजी न हुआ तो अवसाद का शिकार हो जाता है।
मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को सुबह- शाम चाय पीने से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। हम सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए इसे स्वतंत्रता का महाद्वार न समझ लें, इसकी सीमाओं को जानें। इसकी लगाम अदृश्य हाथों में होती है।
यह भी महसूस किया जा सकता है कि साहित्य अगर प्रिंट में नहीं बचेगा तो वह ऑनलाइन में भी नहीं बचेगा। इससे समझा जा सकता है कि ऑनलाइन कभी भी प्रिंट का विकल्प नहीं है, जिस तरह कोकोकोला पानी का विकल्प नहीं है।
मेरा यह सब लिखना सोशल मीडिया पर अपने से ही युद्ध है!
-हिमांशु दुबे
एक तरफ ‘वीराना’, ‘तहखाना’, ‘बंद दरवाज़ा’ या ‘पुराना मंदिर’ जैसी पुरानी फिल्में हैं तो दूसरी तरफ ‘भूत’, ‘स्त्री’, ‘भेडिय़ा’ जैसी नए जमाने की फिल्में हैं।
लेकिन इन सभी फि़ल्मों में एक बात कॉमन है। वो है- डर से भरपूर माहौल।
इसी की तलाश में भारतीय सिनेमा की हॉरर फिल्मों का प्रशंसक थिएटर तक पहुंचता है।
70 और 80 के दशक में रामसे ब्रदर्स हॉरर फिल्मों का पर्याय बनकर उभरे थे। उन्होंने लगभग 45 फिल्में बनाईं और ज़्यादातर फिल्में कमाई के लिहाज से फायदे का सौदा साबित हुईं।
फिर एक लंबा अंतराल आया, जब बड़े परदे से हॉरर फिल्में लगभग गायब हो गईं। इस दौरान फिल्म मेकर राम गोपाल वर्मा ने कुछ फिल्में बनाईं, लेकिन वैसा माहौल नहीं बन पाया, जैसा रामसे ब्रदर्स के समय था।
राम गोपाल वर्मा ने ‘कौन’, ‘रात’, ‘भूत’, ‘फूंक’, ‘डरना मना है’, ‘भूत रिटर्न’ और ‘ये कैसी अनहोनी’ जैसी फिल्में बनाईं।
मगर, दर्शकों के बीच ‘रात’ और ‘भूत’ जैसी फि़ल्मों को ही पसंद किया गया।
इसके बाद पिछले कुछ सालों में ‘1920’, ‘स्त्री’, ‘शैतान’, ‘भेडिय़ा’, ‘मुंज्या’, ‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्में रिलीज हुईं, जिन्हें दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया। यह क्रम अभी भी जारी है।
ऐसे में सवाल उठा कि क्या भारतीय सिनेमा में हॉरर फिल्मों का दौर फिर लौट आया है? या इस बदलाव की वजह ओटीटी प्लेटफॉम्र्स मात्र ही हैं।
ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी हिंदी ने सिनेमा से जुड़े विशेषज्ञों से बात की, जिन्होंने इस ट्रेंड की कुछ खास संभावित वजहें बताई हैं।
‘अगर हॉरर के साथ कॉमेडी भी हो,
तो डबल मजा आता है’
जाने-माने फिल्म समीक्षक कोमल नाहटा कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि पहले के ज़माने में हॉरर फिल्में ‘सी’ कैटेगरी की मानी जाती थीं, तो फिल्म मेकिंग भी कमज़ोर रहती थी। फिल्म स्टार्स ऐसी फिल्में करने के लिए राजी नहीं होते थे। इसलिए, सामान्य तौर पर ऐसी फिल्मों में स्टार्स नहीं होते थे।’
‘जब से फिल्म स्टार्स ने ऐसी फिल्मों को महत्व देना शुरू किया, तब से इन फिल्मों का बजट भी बढ़ गया, क्योंकि, फिल्म स्टार्स पैसा लेते हैं।’
कोमल नाहटा मानते हैं कि भारतीय सिनेमा में हॉरर के बढ़ते क्रेज का क्रेडिट दर्शकों को भी जाता है।
वो कहते हैं, ‘ऑडियंस का मिजाज़ भी विकसित हुआ है। क्योंकि, इतने सालों तक हॉरर जॉनर आगे ही नहीं आया था।’
‘इसलिए, अचानक ऑडियंस को भी लगा कि हॉरर में भी मज़ा आता है और अगर हॉरर के साथ कॉमेडी भी हो, तो डबल मजा आता है।’
कोमल नाहटा कहते हैं, ‘इसलिए, आप देखेंगे कि फि़ल्म ‘स्त्री’ भी चली, ‘स्त्री-2’ भी चली। पहले ‘मुंज्या’ चली। कुछ साल पहले आई ‘गोलमाल अगेन’ भी चली थी, जो हॉरर कॉमेडी थी। ये एक नया पॉपुलर जॉनर ऑडियंस के बीच आ गया है।’’
तो फिल्म ‘तुम्बाड’ को थिएटर में मिल रही प्रतिक्रिया किस बात का इशारा है?
इस सवाल पर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘जब ‘तुम्बाड’ रिलीज हुई थी, तब अच्छी नहीं गई थी। बिजनेस अच्छा नहीं हुआ था। लेकिन, इसकी चर्चा ख़ूब हुई थी। क्लास ऑडियंस को यह बहुत पसंद आई थी।’
‘मुझे लगता है कि इस बार इसका बिजनेस पहले से ज़्यादा होगा। कई बार दिमाग में होता है कि यह हमने ओटीटी पर देखी थी। चलो, अब थिएटर में देखते हैं।’
‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ की कमाई
बॉक्स ऑफिस पर ‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्मों की कमाई इस बात का संकेत देती दिखती हैं कि दर्शकों की पसंद में बदलाव तो आ रहा है।
जाने-माने फिल्म क्रिटिक तरण आदर्श ने सोशल मीडिया पर लिखा- ‘फिल्म ‘स्त्री-2’ ने रिलीज होने के पांचवें हफ्ते में सोमवार (16 सितंबर 2024) को 3.17 करोड़ रुपये की कमाई की। यह फिल्म अब तक बॉक्स ऑफिस पर कऱीब 583 करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी है और 600 करोड़ रुपये की कमाई के आंकड़े को पार कर सकती है।’
उन्होंने दूसरे ट्वीट में लिखा- ‘फिल्म ‘तुम्बाड’ साल 2018 में जब पहली बार थिएटर में रिलीज़ हुई थी, तब इस फिल्म ने दो हफ्ते में करीब नौ करोड़ रुपए कमाए थे। इसने पहले हफ़्ते में 5.85 करोड़ रुपए और दूसरे हफ़्ते में 3.14 करोड़ रुपए थे।’
‘मगर, जब फिर से इस फि़ल्म को थिएटर में रिलीज किया गया, तो अब इस फि़ल्म ने केवल 4 दिन में करीब नौ करोड़ रुपए कमा लिए हैं। फिल्म ने शुक्रवार को 1.65 करोड़ रुपए, शनिवार को 2.65 करोड़ रुपए, रविवार को 3.04 करोड़ रुपए और सोमवार को 1.69 करोड़ रुपए कमाए। इस फि़ल्म ने सोमवार को शुक्रवार से ज़्यादा कमाई की।’
वैसे बॉक्स ऑफिस पर ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्मों के कमाई को लेकर वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज एक नया पहलू जोड़ते हैं।
वह कहते हैं, ‘फिल्म ‘तुम्बाड’ को थिएटर में मिल रहे रिस्पांस में एक मजेदार पक्ष जुड़ा है। इसे आपको केवल हॉरर फिल्म को मिल रहे रिस्पांस तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए। दरअसल, आजकल फिल्मों को फिर से थिएटर में रिलीज़ करने का मौका मिल रहा है। इसकी शुरुआत हुई थी ‘लव स्टोरी’ से। ’
उन्होंने कहा, ‘जब ऐसा होता है तो फिल्म को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बातें होती हैं। दर्शकों के बीच फिल्म को लेकर एक जुड़ाव पैदा हो जाता है, जो दर्शकों को थिएटर तक खींच लाता है। ‘तुम्बाड’ के साथ भी ऐसा ही हो रहा है।’
अजय ब्रह्मात्मज इसमें ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की एक बड़ी भूमिका मानते हैं।
वो कहते हैं, ‘इसमें ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने भी रोल प्ले किया है। इसके ज़रिए फि़ल्म का कनेक्शन दर्शकों के साथ पहले ही बन चुका था। अब दर्शक थिएटर में पहुंच रहे हैं।’
‘दरअसल, घर पर आपको थिएटर वाला अनुभव नहीं मिल पाता है। थिएटर में आप लोगों के साथ फि़ल्म देखते हैं। घर पर आप अकेले भी देखेंगे, तो एकाग्रता से नहीं देख पाएंगे। मगर, थिएटर में यह संभव हो जाता है।’
हॉरर फिल्मों का ट्रेंड किस ओर जा रहा है?
क्या हिंदी सिनेमा में हॉरर फिल्मों का दौर ऐसी फिल्मों से लौट पाएगा?
इस सवाल पर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘नहीं। ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्म से तो नहीं लौटकर आएगा। यह ट्रेंड सेट हो रहा है। ‘स्त्री-2 जैसी फिल्म से। वैसे तो ‘स्त्री’ के बाद ही यह ट्रेंड सेट हो गया था। ‘गोलमाल अगेन’ जैसी फि़ल्म भी चली थी।’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि ऐसी फि़ल्मों की संख्या अब भी कम है। अभी भी फ़ैमिली ड्रामा और रोमांस ज़्यादा है। मगर, हां। अब ऐसी फि़ल्मों को लेकर माहौल बन रहा है।’
दक्षिण भारत से एक्टर ममूटी की ‘ब्रह्मयुगम’ जैसी फिल्में भी हैं, जिसने सिनेमाघरों में अच्छी कमाई की थी और अब ओटीटी पर काफी पसंद की जा रही हैं।
तो क्या भारतीय सिनेमा में हॉरर फि़ल्मों का ट्रेंड लौट रहा है?
इस पर वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, ‘नहीं। मैं ऐसा नहीं मानता हूं। मुश्किल से एक या दो फिल्में सफल हुई हैं। एक ‘मुंज्या’ और दूसरी ‘स्त्री-2’। इसलिए, हम इसे ट्रेंड नहीं कहेंगे।’
वो कहते हैं, ‘तुम्बाड’ तो पुरानी फि़ल्म थी। लोगों का उससे जुड़ाव था। इसलिए उसे अच्छा रिस्पांस मिल रहा। बीच में ‘भूल भुलैया’ भी अच्छी चली है। अब ‘भूल भुलैया-3’ भी आ रही है।’
वो कहते हैं, ‘दरअसल, हॉरर और कॉमेडी का मिक्स लोगों को बहुत पसंद आ रहा है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है और बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, पब्लिक का ट्रेंड समझ पाना मुश्किल काम है।’
उन्होंने ख़ुद का उदाहरण देते हुए कहा, ‘जैसे मुझे ‘स्त्री-2’ अच्छी नहीं लगी। ‘स्त्री’ ज़्यादा बेहतर फि़ल्म थी। उसमें एक विचार था, जिसका इस्तेमाल फिल्ममेकर्स ने किया था। हालांकि, ‘स्त्री-2’ को देखने दर्शक पहुंच रहे हैं। नंबर्स यह बता रहे हैं।’
अजय कहते हैं, ‘मगर, क्या यह एक ट्रेंड बन गया है। मैं ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हूं। अभी भी दो-तीन फिल्में और बन रही हैं। उनमें पॉपुलर स्टार्स भी काम कर रहे हैं। तो यह एक सिलसिला है।’
बॉलीवुड में कैसा रहा है फि़ल्मों का ट्रेंड?
इसके इतर, बॉलीवुड में फि़ल्मों के ट्रेंड को लेकर वरिष्ठ पत्रकार सुदीप मिश्रा कहते हैं, ‘बॉलीवुड में शुरू से ही एक ट्रेंड रहा है। वो ये कि कुछ प्रोडक्शन हाउस एक जैसी फि़ल्में बनाते रहे हैं।’
उन्होंने कहा, ‘जैसे पहले के समय में रामसे ब्रदर्स हॉरर फि़ल्में बना रहे थे। उनकी ज़्यादातर फि़ल्मों को दर्शकों ने पसंद किया। अब ‘भेडिय़ा’, ‘मुंज्या’ या ‘स्त्री-2’ जैसी फि़ल्मों की बात करें तो इन्हें मैडॉक फिल्म्स बना रहा है। अभी भी ज़्यादा प्रोडक्शन हाउस ऐसी फिल्में नहीं बना रहे हैं।’
तो क्या यह माना जाए कि हॉरर फि़ल्मों की संख्या में कोई इजाफ़ा नहीं होने वाला है?
इस पर सुदीप कहते हैं, ‘देखिए, हॉरर फि़ल्में बॉलीवुड के लिए विक्रम भट्ट ने भी ख़ूब बनाई हैं। ‘1920’, ‘1920 रिटन्र्स’, ‘राज’ फ्रेंचाइजी की फि़ल्में उसी कड़ी में आती हैं। ये सभी सफल भी रही हैं।’
‘मगर, इसमें ऐसी फिल्मों के दौर लौटने वाली कोई बात नहीं है। कुछ सफल हो जाती हैं, तो कुछ असफल होती हैं। इसलिए, यशराज या धर्मा जैसे बड़े प्रोडक्शन हाउस ने हॉरर फिल्मों में ज़्यादा रुचि कभी नहीं दिखाई।’ (www.bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव को यूं तो पूरा विश्व ध्यान से देखता है इधर पिछले कुछ वर्षों से भारत के लोग भी अमेरिकी चुनाव में काफी रुचि लेने लगे हैं क्योंकि भारत के उच्च मध्यम वर्ग के बहुत सारे युवाओं के लिए अमेरिका पहली पसन्द बन गया है। वैसे इधर सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र में काफी समानताएं भी दिखाई दे रही हैं।
विशेष रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बातें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों से काफी मेल खाती हैं। भास्कर अखबार ने भी हाल में शायद इसी दृष्टि से ट्रंप का इंटरव्यू लिया है क्योंकि एन आर आई सहित काफी भारतीय अमेरिका के चुनाव पर नजर रखते हैं। भास्कर मे प्रकाशित इस इंटरव्यू के कुछ खास तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, मसलन यदि कमला हैरिस जीत गई तो वे अमेरिकियों की जेब से धन निकालेंगी और मैं जीता तो सबकी जेब में डॉलर आएंगे। याद आता है हमारे प्रधानमंत्री का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस के राज में स्विस बैंकों में भारत से अकूत काला धन विदेशों में गया था हम उसे वापस लाकर सबके खाते में पंद्रह लाख रूपये डालेंगे। दूसरे, ट्रंप कहते हैं कमला हैरिस यहूदियों से नफरत करती हैं और वे हमास समर्थक हैं, वे जीत गई तो यहूदियों का खात्मा तय है। हमारे प्रधानमंत्री और उनका दल भी ऐसी कई बात हिंदुओं और मुस्लिमों के संदर्भ में कहते रहे हैं। ट्रंप यह भी कहते हैं कि डेमोक्रेट्स के राज में अपराधी किस्म के घुसपैठियों ने अमेरिका में आफत मचा दी, हम जीतते ही उन्हें बाहर भगा देंगे। भारत में यह बात रोहिंग्या और बांग्लादेशियों के लिए कही जाती रही है।
ट्रंप ने इस इंटरव्यू में भारत और भारतवंशी समुदाय के लिए भी स्पष्ट संदेश दिया है कि व्हाइट हाउस में भारत के लिए उनसे बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता।
ट्रंप के चुनाव अभियान में धर्म और राष्ट्रीयता का जबरदस्त छौंक लगा है। उन्होंने अपने ऊपर हुए हालिया हमलों को भी चुनावी मुद्दा बनाया है।उनकी तुलना में कमला हैरिस के बयानों में उस तरह का बड़बोलापन नहीं है जिसके लिए ट्रंप जाने जाते हैं। डेमोक्रेट्स के चुनाव अभियान की तुलना अपने यहां कांग्रेस से की जा सकती है। हम भारतीय और अमेरिका में बसे भारतवंशी इस बात के लिए खुश या दुखी हो सकते हैं कि अमेरिका के लोकतंत्र में भी भारतीय लोकतंत्र की कई विकृतियों का प्रवेश हो गया है। कम से कम यही संतोष किया जा सकता है कि एक हम ही खराब नहीं हैं दुनिया के बड़े मुल्क भी खराब हो रहे हैं। बहरहाल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का असर केवल अमेरिका ही नहीं कम या अधिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरी दुनिया पर पड़ता है।जो देश शक्ति और संपन्नता में जितना बड़ा है उस पर अमेरिका का उतना ही ज्यादा असर होता है क्योंकि वर्तमान भौतिकतावादी दुनियां में संपन्नता ही शक्ति का सबसे बड़ा प्रतीक बन गई है। यही कारण है कि चाहे रूस यूक्रेन युद्ध हो या इजराइल फिलिस्तीन युद्ध या फिर पड़ोसी बांग्लादेश की ताजा अस्थिरता, अमेरिका के चुनाव के बाद जो भी राष्ट्रपति बनेगा वह इन सब मुद्दों को अगले कुछ साल तक अपने हिसाब से निबटाने की कोशिश करेगा। जहां तक भारत का प्रश्न है उसके बारे में रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप ने जहां खुलेआम भारत के पक्ष की घोषणा की है वहीं इस मामले में भारतीय मूल से जुड़ी डेमोक्रेट प्रत्याशी कमला हैरिस अभी खुलकर भारत अमेरिका संबंधों पर बोलने से बचती दिख रही हैं। अमेरिकी चुनाव में जीत हार चाहे जिसकी हो शायद अमेरिकी भारत वंशियों के लिए इस बार के चुनाव बड़ी दुविधा में डालने वाले हैं। एक तरफ भारवंशी का टैग लगी कमला हैरिश मे उन्हें अपनापन लग रहा है और दूसरी तरफ डोनाल्ड ट्रंप की खुलेआम भारत समर्थन की घोषणा उन्हें उनके पक्ष में आकर्षित कर रही होगी। इसके पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में भारतीय अमेरिकियों के लिए ऐसी दुविधा कभी नहीं रही। देखते हैं कांटे की टक्कर दिखते इस चुनाव में अमेरिकी जनमत किसे अपनी कमान सौंपता है!
-डॉ. संजय शुक्ला
भारत के लोग सदियों से उत्सवधर्मी रहे हैं जहां हर धर्म, जाति और संप्रदायों की अपनी धार्मिक और सामाजिक परंपराएं और हैं जिन्हें वे बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। हालांकि कभी-कभी इन उत्सवों के उमंग और तरंग में कुछ वजहों से भंग भी पड़ जाता है जो समाज के एक हिस्से को नागवार गुजरता है फलस्वरूप शासन और प्रशासन को दखल देना पड़ता है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के पर्यावरण एवं पर्यावरण विभाग द्वारा राज्य के सभी जिलों के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षकों पत्र लिखकर ध्वनि प्रदूषण (नियमन और नियंत्रण) नियम 2000 तथा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के परिप्रेक्ष्य में वाहनों पर साउंड बाक्स रखकर डीजे बजाने पर साउंड बाक्स जब्त व वाहन का परमिट निरस्त करने को कहा है। पत्र में यह भी कहा गया है कि वे शादियों, जन्मदिन, धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में निर्धारित मानकों से अधिक ध्वनि प्रदूषण पर आयोजकों के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना का मामला दर्ज करते हुए ध्वनि प्रदूषण यंत्र, टेन्ट , डीजे आदि को जप्त किया जाए। इस पत्र में प्रेशर हार्न, मल्टीटोन हार्न को निकालने तथा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, कोर्ट और कार्यालयों के 100 मीटर दायरे में लाउड स्पीकर बजाने को प्रतिबंधित करते हुए इसे जप्त करने का निर्देश दिया गया है। सरकार के इस आदेश के बाद राज्य के डीजे और धुमाल संचालकों में हडक़ंप मच गया है और वे विरोध प्रदर्शन की राह पर हैं।
अलबत्ता सरकार के इस फैसले का आम नागरिक स्वागत और समर्थन कर रहे हैं तथा इस पर सख्ती से अमल की मांग कर रहे हैं। गौरतलब है कि राज्य के अनेक नागरिक संगठन और आम नागरिक काफी दिनों से राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक आयोजनों,जूलूस, विसर्जन झांकियों , वैवाहिक एवं अन्य प्रसंगों के दौरान बजने वाले डीजे एवं धुमाल पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे थे। नागरिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने राज्य में ध्वनि प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका भी दायर किया था जिस पर अदालत ने राज्य सरकार को जनहित में ध्वनि प्रदूषण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। बिलाशक छत्तीसगढ़ सरकार का डीजे सहित तमाम ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाले माध्यमों पर रोक लगाने का फैसला जनस्वास्थ्य तथा कानून और व्यवस्था के लिहाज से सामयिक और सार्थक कदम है बशर्ते इसका मुस्तैदी के साथ क्रियान्वयन संभव हो सके।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न राज्यों में डीजे बजाने के नाम पर उपजे हिंसक घटनाओं में जहां अनेक लोगों की मौत हुई है वहीं इसके तेज आवाज की वजह से भी बुजुर्गों और युवाओं की मौत हो रही है। छत्तीसगढ़ में इस गणेश उत्सव के दौरान डीजे की वजह से पांच लोगों की मौत हो चुकी है। दुर्ग के नंदिनी गांव में डीजे पर डांस के नाम पर दो गुटों में हुए झड़प के बाद तीन युवकों की हत्या हो गई तो बलरामपुर में डीजे की तेज आवाज से एक युवक के मस्तिष्क की नस फटने से मौत हो गई। एक दुखदाई घटना पुरानी भिलाई थानांतर्गत हथखोज में हुई जहां एक हृदयरोगी बुजुर्ग ने गणेश पंडाल में तेज आवाज में डीजे बजाए जाने पर आत्महत्या कर ली। मृतक ने सुसाइड नोट में गणेशोत्सव समिति के अध्यक्ष पर मनमानी करने और प्रताडऩा का आरोप लगाया है। छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्यों में भी इस प्रकार की घटनाएं घटित हुई है। मध्यप्रदेश के सागर जिले के शाहपुर नगर में डीजे की तेज आवाज के चलते एक पुरानी इमारत की दीवार ढहने के कारण 9 बच्चों की मौत मलबे में दबने से हो गई। इसी प्रकार ओडिशा में वैवाहिक समारोह में एक 50 वर्षीय व्यक्ति की मौत डीजे के तेज आवाज की चलते दिल का दौरा पडऩे से हो गई।
गौरतलब है कि डीजे केवल धार्मिक आयोजनों और विसर्जन जुलूसों के दौरान ही लोगों के लिए परेशानी का सबब नहीं बन रहा है अपितु रिहायशी इलाकों से लेकर होटलों में वैवाहिक समारोहों के दौरान इसके प्रचलन ने लोगों का जीवन मुहाल कर दिया है। कोलाहल अधिनियम और ध्वनि प्रदूषण कानूनों की खुलेआम धज्जियां कैसे उड़ रही है? इसका उदाहरण अस्पतालों, स्कूलों और कॉलेजों के आसपास डीजे के तेज आवाज के साथ निकलने वाले विसर्जन जुलूस और रैलियां हैं लेकिन आयोजक और प्रशासन इस दिशा में बेपरवाह नजर आते हैं। जिला प्रशासन द्वारा हर साल स्कूलों और कॉलेजों के परीक्षा के दौरान ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर बंदिश लगाने का फरमान जारी किया जाता है लेकिन इस दौरान भी डीजे सहित तमाम ध्वनि विस्तारक यंत्रों की तेज आवाज छात्रों के पढ़ाई में खलल डालने से बाज नहीं आती।अलबत्ता धुमाल और डीजे का शोर सिर्फ मानव स्वास्थ्य पर ही असर नहीं डाल रहा है बल्कि इसका दुष्प्रभाव पशु-पक्षियों पर उनके स्वभावगत परिवर्तन के तौर पर देखा जा रहा है।
विचारणीय है कि नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल, ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण और नियम अधिनियम 2000 तथा अनेक अदालतों द्वारा डीजे व धुमाल को प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद प्रशासनिक अमला दिखावे की कार्रवाई कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने वाहनों में डीजे या धुमाल रखकर इसके उपयोग को मोटर व्हीकल एक्ट के विरुद्ध मानते हुए जिला प्रशासन को इसके लिए लिए जिम्मेदार मानते हुए संबंधित वाहन को जब्त करने और जुर्माना लगाने का आदेश दिया है । केंद्र सरकार के ध्वनि प्रदूषण नियमन एवं नियंत्रण नियम 2000 , पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत निर्धारित डेसीबल से ज्यादा ध्वनि विस्तारकों को प्रतिबंधित किया गया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ शासन के परिवहन विभाग द्वारा 25 अक्टूबर 2021 को जारी परिपत्र में मोटर व्हीकल एक्ट 1988 की धारा 182 ए (1) के तहत वाहन पर आल्टर या साउंड सिस्टम रखकर बजाने पर वाहन जब्ती और 1 लाख जुर्माना का प्रावधान है।
आश्चर्यजनक तौर पर इन प्रावधानों और आदेशों का पालन अभी तक संभव नहीं हो पाया था। गौरतलब है कि एक आम व्यक्ति के लिए सामान्य तौर पर 65 डेसीबल तक का आवाज सुरक्षित रहता है। इससे अधिक आवाज पर व्यक्ति के सेहत और सुनने की क्षमता पर दुष्प्रभाव डालता है। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक डीजे और धुमाल के तेज आवाज की वजह से व्यक्ति के सुनने की क्षमता या तो कमजोर हो सकती है अथवा खत्म हो सकती है। इसी प्रकार तेज आवाज का असर मस्तिष्क के नसों पर पड़ सकता है, हृदयगति असमान्य होने और हार्ट अटैक का की संभावना रहती है। मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार डीजे जैसे ध्वनि विस्तारकों के काफी तेज आवाज का असर बच्चों से लेकर सभी उम्र के व्यक्तियों के दिमाग पर पड़ता है जिससे अनिद्रा, डर, एंजायटी और तनाव जैसे मानसिक रोग हो सकते हैं। डीजे का तेज आवाज उच्च रक्तचाप व मानसिक रोगियों तथा गर्भवती महिलाओं के लिए घातक हो सकता है। इसके अलावा डीजे के तेज आवाज से होने वाले कंपन की वजह से पुरानी इमारतों और पुलों के गिरने की वजह से जनहानि की संभावना भी रहती है।
ध्वनि प्रदूषण अधिनियम और नियम 2000 में कमर्शियल, इंडस्ट्रियल और रेसिडेंशियल इलाके के लिए आवाज की सीमा तय है। इसके मुताबिक इंडस्ट्रियल एरिया में दिन में आवाज 75 डेसीबल और रात में 70 डेसीबल होना चाहिए। इसी तरह कमर्शियल इलाकों के लिए दिन में आवाज 65 डेसीबल और रात में 55 डेसीबल तथा रेसिडेंशियल इलाकों के लिए दिन में 50 डेसीबल और रात में 40 डेसीबल तय है। बहरहाल वास्तविकता इन अधिनियमों और नियमों में तय मानकों से अलग होती है। आश्चर्यजनक तौर पर रेसिडेंशियल इलाकों में अनेक सार्वजनिक भवनों, होटलों में वैवाहिक एवं अन्य समारोहों में देर रात तक तेज आवाज में डीजे और आर्केस्ट्रा की आवाज ने रहवासियों का नींद हराम कर रखा है। रिहायशी इलाकों में गोदामों और फैक्ट्रियों की अनुमति किस तरह से मिलती है? यह किसी से छिपी नहीं है लेकिन इनसे होने वाले शोरगुल का असर आम नागरिकों पर ही देखा जा रहा है।
बहरहाल डीजे सहित तमाम ध्वनि प्रदूषकों के उपयोग पर प्रभावी प्रतिबंध नहीं लग पाने की मुख्य वजह प्रशासन तंत्र पर राजनीतिक हस्तक्षेप या दबाव ही है। दरअसल आज देश की राजनीति धर्म और जाति पर केंद्रित हो चुकी है हर राजनीतिक दल इन मुद्दों को उभार देने में पीछे नहीं है। धार्मिक आयोजनों या विसर्जन जूलूसों के दौरान डीजे और धुमाल के बेजा उपयोग पर बंदिश में कोताही के लिए धार्मिक संवेदनशीलता जैसे कारण जिम्मेदार हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो हमारे राजनीतिक और धार्मिक संगठन किसी भी धर्म के आयोजन में प्रशासनिक दखल को धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए मुद्दे को विस्फोटक बनाने से नहीं हिचक रहे हैं। देश में जब भी दीपावली के दौरान भारी शोर वाले पटाखों या चीन निर्मित पटाखों पर बंदिश लगाने या डीजे को प्रतिबंधित करने की बात होती है संबंधित पक्ष अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म स्थलों पर इबादत के दौरान बजने वाले लाउडस्पीकर की दुहाई या उलाहना देने से नहीं चूकते।आखिरकार डीजे और पटाखों की पैरवी करने वालों को कौन समझाए कि लाउडस्पीकर और डीजे व पटाखों के ध्वनि तीव्रता और अवधि में काफी अंतर होता है?
बहरहाल केवल धार्मिक भावना या धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अनुचित परंपराओं को उचित ठहराने की प्रवृत्ति के चलते ही समाज में विसंगतियों को बढ़ावा मिल रहा है। विसर्जन जुलूस के दौरान तेज आवाज वाले डीजे के अश्लील गाने पर नशे में मदमस्त युवाओं की भीड़ समाज के सामने बड़ी चुनौती बन रही है। डीजे और नशे का डबल तडक़ा हमारे धार्मिक आस्था पर लगातार चोट कर रही है लेकिन हमारे धर्मगुरु, धार्मिक संगठनों के अगुआ और प्रबुद्ध वर्ग ऐसी भक्ति को देखकर मौन रहने में ही अपनी भलाई समझ रहा है। हमारे सामने अनेक ऐसे धर्मों और पंथों के उदाहरण हैं जिसमें उनके धार्मिक आयोजनों के दौरान भारी शोरगुल वाले ध्वनि विस्तारक यंत्रों और शराब जैसे सभी नशीले पदार्थों का पूरी तरह से निषेध है। हर धर्म और जाति के लोगों को किसी दूसरे समुदाय के ऐसे अनुकरणीय फैसलों को जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए ताकि धर्म और जाति में प्रगतिशीलता का भाव पैदा हो सके। बहरहाल देश के युवाओं का धर्म के प्रति आस्थावान होना राष्ट्र और समाज के लिए साकारात्मक संदेश है धार्मिक आयोजनों में युवाओं के बढ़-चढक़र हिस्सा लेने में भी कोई बुराई नहीं है अलबत्ता उन्हें ऐसे आयोजनों के दौरान नशा, डीजे जैसे ध्वनि प्रदूषकों और अश्लीलता के खिलाफ खुद लामबंद होना चाहिए ताकि हर वर्ग इन उत्सवों का हिस्सा बन सकें और उनका जान सलामत रहे। बिलाशक कोई भी उत्सव बिना गीत और संगीत अधूरा है लिहाजा हर धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में उन परंपरागत गीतों और वाद्ययंत्रों के संगीत को एक बार फिर से अपनाने की दरकार है जो आधुनिकता की भीड़ में गुम हो चुकी है आखिरकार सुकून भी उन्हीं में है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है.
भारत की पर्यावरण अदालत इस बात की जांच कर रही है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है।
इस मामले में भारत की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है। इस विशाल वन क्षेत्र से भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने मई में एक मामला दर्ज किया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढऩे का दावा गलत है। याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक 23,000 वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है।
क्या है दावे का आधार?
यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से विश्व भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है। हाल की तस्वीरों से पता चला है कि 2013 से 2023 के बीच भारत में 95 फीसदी पेड़ों का नुकसान प्राकृतिक जंगलों में हुआ है, यानी जंगलों की सेहत ठीक नहीं है।
लेकिन जीएफडब्ल्यू का यह शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है। सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।
भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव विविधता वाले आवासों में से एक हैं। लेकिन बाजार की मांगों के कारण उन पर दबाव लगातार बढ़ा है। देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का एक चौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है।
परिभाषा में बदलाव
सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया था।
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, ‘इन आंकड़ों में दिखाई देने वाली वृद्धि मुख्य रूप से भारतीय सरकार द्वारा 'वन' की परिभाषा को बदलने के कारण है, जिसमें वनों के बाहर के हरे क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।’
जीएफडब्ल्यू की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है: जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है; और भूमि उपयोग, जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है।
मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो। इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।
वह कहते हैं, ‘अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसदी पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया।’
आंकड़ों में झोल
मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है। इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी। उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है।
रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया।
स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में झोल पाए गए हैं।
अमेरिकी वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई। इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया।
इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं।
नए नियम
स्वतंत्र कानून और नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहते हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है।
कोहली कहते हैं, ‘वन भारतीय सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है। भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं। यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और व्यापार मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों के लिए।’
मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है लेकिन सरकारें वनों की वैश्विक कार्बन व्यापार में संभावनाएं भी देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र देशों को अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं।
नवंबर में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है। भारत और अन्य देशों ने तर्क दिया है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके।
एनजीटी ने एफएसआई और अन्य केंद्रीय विभागों से इस बारे में सफाई मांगी है कि वे अपने वन आंकड़े कैसे प्राप्त करते हैं और वन बढ़े हैं या नहीं। इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर को है। कोहली ने कहा कि जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी इस मामले में जांच हो सकती है। इस मामले का असर इस बात पर भी पड़ेगा कि भारत पर्यावरण की सुरक्षा के अपने दावों को कितनी ईमानदारी और सच्चाई से पेश कर रहा है।
कोहली कहते हैं, ‘भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपने वनों के बारे में एक अच्छी कहानी पेश करे।’ (dw.com/hi)
आतिशी दिल्ली की नई मुख्यमंत्री होंगी। इस बारे में आम आदमी पार्टी के नेता गोपाल राय ने मंगलवार को मीडिया को जानकारी दी।
गोपाल राय ने कहा कि आतिशी मुश्किल हालात में दिल्ली की सीएम बन रही हैं।
गोपाल राय ने आरोप लगाया, ‘बीजेपी ने आम आदमी पार्टी को तोडऩे और सरकार को गिराने की कोशिश की। लेकिन हमने उनकी हर कोशिश को नाकाम कर दिया।’
अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के बाद आतिशी को नया मुख्यमंत्री बनाए जाने पर पार्टी के विधायक दल की बैठक में सहमति बनी।
विधायक दल की बैठक में खुद अरविंद केजरीवाल ने आतिशी के नाम का प्रस्ताव रखा।
रविवार को जब अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि वह दो दिन बाद इस्तीफा दे देंगे, तभी से इस पद की दौड़ में आतिशी का नाम भी शामिल था।
हालांकि, उनके अलावा गोपाल राय और कैलाश गहलोत के साथ ही अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल के नामों पर भी चर्चा थी। लेकिन अब 43 साल की आतिशी के नाम पर मोहर लग गई है। विधानसभा चुनावों तक आतिशी दिल्ली की मुख्यमंत्री रहेंगी।
आतिशी के हक में गईं ये बातें?
दरअसल, सोमवार को हुई बैठक के बाद आतिशी को इस दौड़ में सबसे आगे माना जा रहा था। केजरीवाल के जेल में रहते हुए आतिशी के पास सर्वाधिक मंत्रालय और विभाग रहे हैं।
उन्होंने मनीष सिसोदिया के शिक्षा मंत्री रहते, शिक्षा क्षेत्र में भी कई अहम काम किए थे और मनीष सिसोदिया की ग़ैर मौजूदगी में शिक्षा विभाग भी संभाला।
माना जाता है कि आतिशी केजरीवाल की विश्वासपात्र हैं। पार्टी से जुड़े कई सूत्रों ने भी बीबीसी से बातचीत में ये संकेत दिए थे कि मौजूदा परिस्थिति में वो ही सबसे आगे हैं।
जब आतिशी को नहीं मिला था मंत्री पद
2020 विधानसभा चुनाव के बाद केजरीवाल की कैबिनेट में आतिशी समेत किसी भी महिला को जगह नहीं मिली थी।
तब आतिशी को कैबिनेट में जगह ना दिए जाने को लेकर पार्टी के ही कुछ नेताओं ने इस कदम की आलोचना की थी।
ये वह चुनाव था जब आम आदमी पार्टी को 70 में से 62 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी। इनमें से आठ महिला विधायक थीं।
लेकिन इसके बाद भी अरविंद केजरीवाल ने अपनी कैबिनेट में एक भी महिला नेता को जगह नहीं दी थी।
लेकिन वक्त के साथ-साथ दिल्ली के राजनीतिक हालात भी बदले।
मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और फिर खुद अरविंद केजरीवाल के जेल जाने के बाद आतिशी सरकार से लेकर पार्टी तक के मसले पर मोर्चा संभालते दिखीं।
आतिशी साल 2023 में पहली बार केजरीवाल सरकार में शिक्षा मंत्री बनीं।
‘आप’ के संपर्क में आतिशी कैसे आईं
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, आतिशी दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह और तृप्ता वाही की बेटी हैं।
आतिशी ने दिल्ली के स्प्रिंगडेल्स स्कूल से पढ़ाई की थी। आतिशी ने सेंट स्टीफेंस कॉलेस से इतिहास की पढ़ाई की है।
आतिशी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स डिग्री हासिल की। बाद में आतिशी को चिवनिंग स्कॉलरशिप भी मिली।
बाद में आतिशी ने आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। वो ऑर्गेनेकि फार्मिंग और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े कामों में सक्रिय रहीं।
बाद में आतिशी भोपाल आ गईं। यहां वो कई एनजीओ के साथ काम करने लगीं। इसी दौरान वो आम आदमी पार्टी और प्रशांत भूषण के संपर्क में आईं।
अन्ना आंदोलन के समय से ही आतिशी संगठन में सक्रिय रही हैं और अब आम आदमी पार्टी के प्रमुख चेहरों में शुमार हैं।
आतिशी साल 2013 में आम आदमी पार्टी से जुड़ीं।
वह साल 2015 से लेकर 2018 तक दिल्ली के तत्कालीन शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की सलाहकार के तौर पर काम कर रही थीं।
आम आदमी पार्टी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार- मनीष सिसोदिया की सलाहकार रहते हुए उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने, स्कूल मैनेजमेंट कमिटियों के गठन और निजी स्कूलों को बेहिसाब फ़ीस बढ़ोतरी करने से रोकने के लिए कड़े नियम बनाने जैसे कामों में अहम भूमिका निभाई।
आतिशी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति की भी सदस्य हैं।
आतिशी के पास फिलहाल दिल्ली सरकार में जो विभाग हैं उनमें शिक्षा, उच्च शिक्षा, टेक्निकल ट्रेनिंग एंड एजुकेशन (टीटीई), पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (पीडब्ल्यूडी), ऊर्जा, राजस्व, योजना, वित्त, विजिलेंस, जल, पब्लिक रिलेशंस और कानून-न्याय जैसे डिपार्टमेंट शामिल हैं।
वह दिल्ली के कालकाजी इलाके से विधायक हैं।
जब आतिशी ने हटाया था अपना उपनाम
आतिशी को पहली बार साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘आप’ ने उनको पूर्वी दिल्ली सीट से उम्मीदवार बनाया था। उस वक्त वह आतिशी मार्लेना के तौर पर जानी जाती थीं।
इससे पहले आतिशी आम तौर पर पर्दे के पीछे सक्रिय नेताओं में गिनी जाती थीं।
2019 में आम चुनावों के दौरान अचानक आम लोगों की भीड़ के सामने आतिशी के हाथ में माइक देखकर इसका अंदाजा होने लगा था कि वो चुनावी राजनीति में ‘आप’ की एक अहम महिला चेहरा बन सकती हैं।
उसी चुनाव में प्रचार के दौरान आतिशी ने पार्टी के सभी रिकॉर्ड और चुनाव अभियान से जुड़े सभी कागज़ातों से अपना उपनाम यानी ‘मार्लेना’ हटा दिया था।
उस समय भारतीय जनता पार्टी ने आतिशी के सरनेम की वजह से उन्हें विदेशी और ईसाई बताकर घेरना शुरू कर दिया था।
हालांकि, आतिशी ने कहा था कि वह अपना सरनेम इसलिए हटा रही हैं क्योंकि वह अपनी पहचान साबित करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहतीं।
दरअसल, आतिशी के माता-पिता को वामपंथी झुकाव वाला माना जाता है और कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन के नामों के अक्षरों को जोडक़र आतिशी को ‘मार्लेना’ सरनेम दिया गया था।
आतिशी के सरनेम पर छिड़े विवाद के बीच उस समय मनीष सिसोदिया उनके बचाव में उतरे और उन्हें ‘राजपूतानी’ बताया था।
सिसोदिया ने एक ट्वीट में लिखा था, ‘मुझे दुख है कि बीजेपी और कांग्रेस मिलकर हमारी पूर्वी दिल्ली की प्रत्याशी आतिशी के धर्म को लेकर झूठ फैला रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस वालों! जान लोग- आतिशी सिंह है उसका पूरा नाम। राजपूतानी है। पक्की क्षत्राणी। झांसी की रानी है। बच के रहना। जीतेगी भी और इतिहास भी बनाएगी।’
2019 चुनाव में आतिशी तीसरे नंबर पर रही थीं और बीजेपी की टिकट पर गौतम गंभीर चुनाव जीते थे।
हालांकि, इसके बाद आतिशी ने अपने एक्स हैंडल पर भी अपना सरनेम हटा दिया। (bbc.com/hindi)
बीते कुछ दिनों में बीजेपी के बड़े नेताओं की ओर से ख़ुद के शीर्ष पद पर देखे जाने से जुड़े कई बयान दिए गए। हरियाणा से सांसद और केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह और राज्य के पूर्व गृह मंत्री अनिल विज ने मुख्यमंत्री बनने की ख़्वाहिश जाहिर की।
वहीं पिछले हफ्ते केंद्रीय सडक़ एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दावा किया, मुझसे किसी नेता ने कहा कि अगर आप प्रधानमंत्री बनते हैं तो हम लोग आपको समर्थन करेंगे।
कई बार विपक्षी नेता नितिन गडकरी को बीजेपी के एक ऐसे नेता के रूप में पेश करते रहे हैं, जिनके पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से संबंध अच्छे नहीं हैं।
ऐसी अटकलों को हवा कई बार गडकरी के कुछ बयानों से भी मिली। इन बयानों को जानकारों ने संकेत की तरह देखा। इसी कड़ी में गडकरी का ताजा बयान भी शामिल है।
नितिन गडकरी ने क्या कहा?
14 सितंबर 2024 को केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने नागपुर में एक कार्यक्रम में शिरकत की।
इस कार्यक्रम में गडकरी ने कहा, मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन एक बार किसी ने कहा था कि अगर आप प्रधानमंत्री बनने जा रहे हो तो हम आपका समर्थन करेंगे।
गडकरी ने कहा, मैंने पूछा कि आप मेरा समर्थन क्यों करेंगे और मैं आपका समर्थन क्यों लूं? प्रधानमंत्री बनना मेरी जि़ंदगी का लक्ष्य नहीं है। मैं अपने संगठन और प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदार हूँ। मैं किसी पद के लिए इससे समझौता नहीं करूंगा। मेरे लिए दृढ़ता सर्वोपरि है।
गडकरी कहते हैं- कभी न कभी मुझे लगता है कि ये दृढ़ता ही भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त है।
गडकरी के बारे में कहा जाता है कि वह विपक्षी पार्टियों में भी अच्छी पैठ रखते हैं।
हाल ही में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम ‘आइडिया एक्सचेंज’ में गडकरी से इसे लेकर सवाल पूछा गया।
गडकरी से पूछा गया, आप उन कुछ बीजेपी नेताओं में से हैं, जो विपक्ष को दुश्मन या देश विरोधी नहीं मानते हैं। इस संदर्भ में क्या मज़बूत विपक्ष राजनीति के लिए बेहतर है या तब ठीक था जब सदन में बीजेपी बहुमत में थी?
गडकरी ने जवाब दिया, हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम मदर ऑफ डेमोक्रेसी हैं। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्षी दल होते हैं। ये कार या ट्रेन के पहियों की तरह अहम होते हैं और संतुलन जरूरी होता है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हम विपक्ष में थे और अब सरकार में भी हैं। सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास। हमारी भावना यही होनी चाहिए।
गडकरी के बयान पर प्रतिक्रियाएं
नितिन गडकरी के इस बयान पर विपक्षी दलों के नेता प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
शिव सेना (यूटी) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने सोशल मीडिया पर लिखा, नितिन गडकरी जी शीर्ष की कुर्सी के लिए अपनी दिली ख़्वाहिश व्यक्त कर रहे हैं। वो इसके लिए विपक्षी दलों के बहाने मोदी जी को संदेश भेज रहे हैं। इंडिया गठबंधन में कई काबिल नेता हैं जो देश का नेतृत्व कर सकते हैं। हमें बीजेपी से नेता उधार लेने की ज़रूरत नहीं है। बढिय़ा खेले...नितिन जी।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, आरजेडी नेता मनोज कुमार झा ने कहा- बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के लिए लड़ाई शुरू हो गई है। आने वाले महीनों में आपको इसके नतीजे देखने को मिल सकते हैं। क्या इस बार बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुना था? टाइमलाइन चेक कीजिए। एनडीए ने चुना था।
दरअसल 2024 के लोकसभा चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल की बैठक नहीं हुई थी बल्कि एनडीए की बैठक हुई थी।
बीजेपी की वेबसाइट पर भी 2024 के चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल नहीं, एनडीए की बैठक से जुड़ी प्रेस रिलीज जारी की गई।
वहीं, 2019 में 303 सीटें जीतने के बाद चुनावी नतीजों के अगले दिन 24 मई को बीजेपी संसदीय दल की बैठक हुई थी न कि एनडीए की बैठक।
संसद के सेंट्रल हॉल में सात जून को नीतीश कुमार ने मोदी को संसदीय दल का नेता बताया था।
चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के सहारे बीजेपी
बीजेपी के लोकसभा में 240 सांसद हैं। जेडीयू और टीडीपी के सहारे नरेंद्र मोदी सरकार बनाने और प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।
राज्यसभा के पूर्व सांसद और राजनीतिक विश्लेषक कुमार केतकर से सवाल पूछा गया था कि क्या गडकरी बीजेपी में नरेंद्र मोदी की जगह ले सकते हैं?
केतकर ने कहा कि अगर मोदी विश्वास प्रस्ताव हारते हैं तो दूसरे उम्मीदवार की मांग होगी, ऐसे में नितिन गडकरी उभर सकते हैं।
केतकर ने कहा था, पत्रकार होने के नाते मैं आपको बता सकता हूँ कि गडकरी को आगे करने को लेकर बीजेपी और संघ दोनों में माहौल तैयार होने लगा था। क्या मोदी की जगह कोई और ले सकता है? इस सवाल के जवाब में ज़रूरी ये है कि संकट की कोई स्थिति पैदा हो और मोदी विश्वासमत खो दें।
आम बजट में इस बार आंध्र प्रदेश और बिहार को लेकर अलग से एलान किए गए थे।
जानकारों का मानना था कि ये बजट सरकार के सहयोगी दलों को संतुष्ट करने और सरकार बचाए रखने वाला वाला बजट था।
नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की भूमिका के बारे में केतकर ने कहा था, मुझे लगता है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू नरेंद्र मोदी पर ज़्यादा निर्भर हैं न कि मोदी उन पर। दोनों नेताओं में से कोई एक चला जाए, तब भी मोदी पीएम बने रहेंगे। मोदी ये जानते हैं कि नीतीश, चंद्रबाबू को इंडिया गठबंधन में जाकर कुछ नहीं मिलेगा। ऐसे में मोदी सरकार बची रहेगी।
किसी सियासी संकट आने पर पीएम मोदी के विकल्प की स्थिति में गडकरी के नाम का जिक्र करते हुए केतकर ने कहा- वो बीजेपी में भी पसंद किए जाते हैं और संघ में भी।
गडकरी के बयान और अटकलें
ये पहला मौका नहीं है, जब नितिन गडकरी ने ऐसा कोई बयान दिया हो, जिससे बीजेपी के अंदर और बाहर चर्चा छिड़ गई हो।
जनवरी 2019 में मुंबई में गडकरी ने कहा था, सपने दिखाने वाले नेता लोगों को अच्छे लगते हैं पर दिखाए हुए सपने अगर पूरे नहीं किए तो जनता उनकी पिटाई भी करती है। इसलिए सपने वही दिखाओ जो पूरे हो सकें। मैं सपने दिखाने वालों में से नहीं हूं। मैं जो बोलता हूँ, वो 100 फीसदी डंके की चोट पर पूरा होता है।
इंदिरा गांधी की बीजेपी अक्सर आलोचना करती रही है। वहीं 2019 में गडकरी ने इंदिरा गांधी की तारीफ की थी।
मई 2019 में गडकरी ने कहा था, बीजेपी एक वैचारिक पार्टी है। बीजेपी न कभी सिफऱ् अटल-आडवाणी की पार्टी थी और न अब मोदी-शाह की।
साल 2019 में लोकसभा की कार्यवाही के दौरान नितिन गडकरी ने कहा था, ये मेरा सौभाग्य है कि सभी पार्टी के सांसद मानते हैं कि मैंने अच्छा काम किया हैं।
गडकरी के इस बयान पर सोनिया गांधी ने भी अपनी टेबल थपथपाई थी और सहमति जताई थी।
2018 में सोनिया गांधी ने गडकरी को ख़त लिखा था और इस ख़त में रायबरेली में उनके मंत्रालय के काम की तारीफ की थी।
मार्च 2022 में गडकरी ने कहा था, एक लोकतंत्र में विपक्षी पार्टी की भूमिका काफ़ी अहम है। मैं दिल से कामना करता हूं कि कांग्रेस मजबूत बनी रहे। आज जो कांग्रेस में हैं, उन्हें पार्टी के लिए प्रतिबद्धता दिखाते हुए पार्टी में बने रहना चाहिए। उन्हें हार से निराश न होते हुए काम करना जारी रखना चाहिए।’
जुलाई 2022 में नितिन गडकरी ने कहा था, अक्सर राजनीति को अलविदा कह देने का मन करता है क्योंकि लगता है कि राजनीति के अलावा भी जीवन में करने के लिए बहुत कुछ है।
जुलाई 2022 में गडकरी ने कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाले सोचते हैं कि वो जो भी मांग रखें, उन्हें मान लिया जाए।
ऐसे ही कुछ बयानों के तीन हफ्ते बाद गडकरी को बीजेपी संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया था। गडकरी को बीजेपी ने केंद्रीय चुनाव समिति से भी हटा दिया था जबकि देवेंद्र फडणवीस को शामिल कर लिया गया था।
2024 के चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे ने कहा था, अगर नितिन गडकरी को लगता है कि बीजेपी में उनकी ‘बेइज्ज़ती’ हो रही है तो उन्हें हमारे पास आना चाहिए। हम सुनिश्चित करेंगे कि वो 2024 का चुनाव जीतें।
इस पर जवाब देते हुए गडकरी ने कहा था, उद्धव ठाकरे को बीजेपी नेताओं को लेकर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।
जब गडकरी बने थे बीजेपी अध्यक्ष
नितिन गडकरी को आरएसएस के पसंदीदा नेताओं में से एक माना जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह से गडकरी के संबंधों को लेकर कई बातें कही जाती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी से कहा था, जब नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे तब अमित शाह को अदालत के आदेश के चलते गुजरात राज्य छोडऩा पड़ा और गडकरी से मुलाक़ात करने के लिए उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता था। ऐसे में जब पार्टी पर मोदी और शाह का प्रभुत्व बढ़ा तो धीरे-धीरे गडकरी के पर कटने शुरू हो गए।
नितिन गडकरी को 2013 के बाद भी बीजेपी का अध्यक्ष बनाए रखने की बात कही गई थी। इसके लिए पार्टी के संविधान में संशोधन तक किया गया था।
लेकिन उसी दौरान नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। इस्तीफ़े के बाद गडकरी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप की चर्चा एकदम से बंद हो गई थी। गडकरी के इस्तीफे के बाद राजनाथ सिंह को पार्टी कमान मिली थी।
राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में ही नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया गया था।
कहा जाता है कि अगर पार्टी की कमान नितिन गडकरी के पास होती तो नरेंद्र मोदी शायद ही बीजेपी की ओर से पीएम चेहरा बन पाते। (www.bbc.com/hindi)
-अभय कुमार सिंह
14 फरवरी 2014- वो तारीख जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर पहली बार इस्तीफा दिया था।
बारिश के बीच केजरीवाल ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘दोस्तों, मैं बहुत छोटा आदमी हूं। मैं यहां कुर्सी के लिए नहीं आया हूं। मैं यहां जनलोकपाल बिल के लिए आया हूं। आज लोकपाल बिल गिर गया है और हमारी सरकार इस्तीफा देती है। लोकपाल बिल के लिए सौ बार मुख्यमंत्री की कुर्सी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। मैं इस बिल के लिए जान भी देने के लिए तैयार हूं।’
उस वक्त अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी नई-नई अस्तित्व में आई थी। कार्यकर्ता उनके इस एलान से उत्साहित थे। उन्हें भरोसा था कि वो दोबारा चुनाव में जाएंगे और जीत दजऱ् करेंगे। हुआ भी यही।
अब एक दशक से ज़्यादा समय हो चुका है, अरविंद केजरीवाल तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री चुने गए हैं और पार्टी भी तमाम राजनीतिक जोर-आज़माइश में पहले से कहीं ज़्यादा अनुभवी हो गई है।
15 सितंबर 2024 को एक बार फिर अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा देने की तारीख का ऐलान किया है और इस बार भी वो दोबारा चुनाव में जाने और सत्ता हासिल करने का भरोसा जता रहे हैं।
उनका कहना है कि जब तक जनता उनको इस पद पर बैठने के लिए नहीं कहेगी, तब तक वो फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे।
रविवार को पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘जब तक दिल्ली में चुनाव नहीं होंगे तब तक कोई अन्य नेता दिल्ली का मुख्यमंत्री होगा।’
इसके लिए दो दिनों के भीतर आम आदमी पार्टी के विधायक दल की बैठक होगी, उसी में नए मुख्यमंत्री का नाम तय होगा।
केजरीवाल ने कहा, ‘मैं जनता के बीच में जाऊंगा, गली-गली में जाऊंगा, घर-घर जाऊंगा और जब तक जनता अपना फैसला न सुना दे कि केजरीवाल ईमानदार है तब तक मैं सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा।’
उनकी इस घोषणा को बीजेपी ने पीआर स्टंट करार दिया है। लेकिन उनके इस एलान के बाद कई सवाल उठ रहे हैं। बीबीसी हिंदी ने ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जानने की कोशिश की है।
पहला ये कि इस्तीफे का एलान इस वक्त क्यों, इसका हरियाणा चुनाव से कोई कनेक्शन तो नहीं?
दूसरा ये कि पहले चुनाव कराने की मांग का आधार क्या है? तीसरा ये कि, अगला मुख्यमंत्री चुनने का आधार क्या होगा, और क्या दिल्ली बीजेपी की रणनीति पर इसका असर होगा?
एक अहम सवाल ये भी कि 2014 के केजरीवाल के इस्तीफे से 2024 के इस्तीफे तक आम आदमी पार्टी कितनी बदली?
इस्तीफे का ऐलान अभी क्यों?
कऱीब पांच महीने जेल में रहने और जेल के अंदर से ही सरकार चलाने के बाद, अरविंद केजरीवाल 13 सितंबर देर शाम ज़मानत मिलने के बाद बाहर आए। इसके दो दिन बाद ही उन्होंने दो दिन बाद इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी। आखऱि अभी ही इस्तीफ़े की पेशकश क्यों की गई?
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं कि अचानक लिए गए इस फ़ैसले को अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक शैली से जोडक़र देखना चाहिए।
वो कहते हैं, ‘अगर आप 10-12 साल के केजरीवाल के राजनीतिक इतिहास को देखें तो उनके फैसलों में कुछ न कुछ नाटकीयता होती है। नाटकीयता ऐसी कि जिसमें ‘आदर्श’ भी दिख जाए और उसके पीछे कोई रणनीति भी छिपी हो, वो बतौर राजनेता इतने सरल व्यक्ति नहीं हैं।’
प्रमोद जोशी का मानना है, ‘केजरीवाल इस अचानक लिए फ़ैसले से संदेश देना चाहते हैं, ‘मैं इन सब चीज़ों से ऊपर हूं और मैं साधारण व्यक्ति हूं’।’
प्रमोद जोशी का मानना है कि केजरीवाल जिस समय गिरफ़्तार हुए थे तभी इस्तीफ़ा दे सकते थे, क्योंकि इससे पहले भी जो नेता ऐसे गिरफ़्तार हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दिया। लेकिन अब जेल से बाहर आने के बाद इस्तीफ़ा देने के कारणों के पीछे प्रमोद जोशी मानते हैं, ‘हो सकता है कि वो ये भी साबित करना चाहते हों तो उन्होंने कानूनी लड़ाई लड़ी और सिद्धांतों की वजह से इस्तीफा नहीं दिया। आज वो मान रहे हैं कि वो दूसरे सिद्धांत की बात कर रहे हैं कि वो जनता के फ़ैसलों पर ही मुख्यमंत्री की गद्दी लेंगे।’
‘टू लेट, टू लिटिल’
वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष, केजरीवाल के इस फ़ैसले को ‘टू लेट, टू लिटिल’ बताते हैं।
उन्होंने कहा, ‘केजरीवाल ने इस फ़ैसले को लेने में देरी कर दी है। ये डेस्परेट लगता है, लोगों के बीच गिरती छवि को बचाने वाले कदम जैसा लगता है। जिस दिन गिरफ़्तारी वाली बात सामने आई थी तभी उन्हें ऐसा करना चाहिए था।’
आशुतोष भी प्रमोद जोशी की राय से सहमत हैं कि ये एलान नाटकीयता भरा दिखता है। उनका कहना है, ‘दो दिन पहले इस तरह का एलान करना ‘रहस्य’जैसा है और उन्हें इस ‘नाटक’ से बचना चाहिए था।’
बता दें कि दिल्ली की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल अगले साल फऱवरी में समाप्त हो रहा है। इसके बाद यहां चुनाव होना है। मतलब ये है कि चुनाव में अब कऱीब 5 महीने का ही वक्त बचा है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता इसे हालिया चुनाव और कानूनी बंदिशों से जोडक़र देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘कोर्ट से बाहर आने के बाद भी उनके हाथ में कुछ नहीं है। वो कोई फ़ैसला नहीं ले सकते, कैबिनेट की मीटिंग में भाग नहीं ले सकते। बाहर आने के बाद लोग उन पर काम करने और वादे पूरा करने का दबाव बनाते, अब उनके पास ये कहने के लिए हो जाएगा कि ‘मैं मुख्यमंत्री नहीं हूं, कुछ नहीं कर सकता, लेकिन हमारी पार्टी कर सकती है’।’
शरद गुप्ता यह भी कहते हैं, ‘इस फैसले का दूसरा पहलू हरियाणा और दिल्ली चुनाव भी हो सकता है। बतौर मुख्यमंत्री बंदिशें खत्म होने के बाद वो हरियाणा चुनाव में ज़ोर लगाएंगे। अगले कुछ महीनों में दिल्ली चुनाव आने वाले हैं। तीन बार जीतने के बाद चौथा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए इतना आसान नहीं होगा।''
2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी 46 सीटों पर लड़ी थी। मगर पार्टी का प्रदर्शन काफ़ी निराशाजनक रहा था और वो एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। इस बार पार्टी सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
इस्तीफे से दो दिन पहले इसकी घोषणा को वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता ‘हेडलाइन मैनेजमेंट’ की तरकीब बताते हैं।
उनका कहना है कि ऐसा कर के पार्टी ख़बरों में बने रहना चाहती है। वो कहते हैं, ‘जब इस्तीफ़ा देना चाहिए घोषणा उसी दिन करनी चाहिए, पहले करने का मतलब क्या है? या, ये हो सकता है कि केजरीवाल को इस बात का डर था कि कहीं ये ख़बर लीक न हो जाए। इसके अलावा अब तक बीजेपी हैडलाइन मैनेजमेंट की मास्टर मानी जाती रही है, लेकिन अब आम आदमी पार्टी भी इसमें आगे है।’
हालांकि, इस्तीफ़े के लिए दो दिन की मोहलत मांगने के सवाल पर दिल्ली सरकार में मंत्री आतिशी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘इसका सीधा सा कारण है। आज रविवार है और कल सोमवार को ईद की छुट्टी है। इसलिए अगले वर्किंग डे यानी मंगलवार को केजरीवाल इस्तीफ़ा देंगे।’
आबकारी नीति में कथित घोटाले के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को जमानत तो दे दी है लेकिन उन पर कई शर्तें लागू हैं। कोर्ट ने कहा है कि ईडी मामले में लगाई गई शर्तें इस मामले में भी लागू होंगी।
उन पर लगी शर्तों के अनुसार केजरीवाल मुख्यमंत्री कार्यालय और दिल्ली सचिवालय नहीं जाएंगे, वो अदालत में विचाराधीन अपने मामले को लेकर कोई सार्वजनिक बयान नहीं देंगे। वो किसी भी सरकारी फाइल पर तब तक हस्ताक्षर नहीं करेंगे जब तक कि ऐसा करना आवश्यक न हो और दिल्ली के उपराज्यपाल की मंजूरी लेने के लिए ये जरूरी न हो।
इसके अलावा वो मामले में अपनी भूमिका के संबंध में सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। वो न तो किसी गवाह से बात करेंगे और न ही मामले से जुड़ी किसी भी आधिकारिक फाइल तक पहुंच बनाएंगे।
नए चुनाव पर ‘कॉन्फिडेंस’ में है
आम आदमी पार्टी?
मुख्यमंत्री केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के तकरीबन सभी चेहरे इस बात को कहते नजऱ आ रहे हैं कि पार्टी चुनाव में जाने के लिए तैयार है। इसके बावजूद केजरीवाल की तरफ से विधानसभा भंग करने की बात नहीं की गई और कहा गया है कि अब कोई नया चेहरा मुख्यमंत्री बनेगा।
आशुतोष और प्रमोद जोशी दोनों ही इसे ‘कॉन्फिडेंस’ के तौर पर नहीं देखते हैं।
आशुतोष कहते हैं, ‘अगर ऐसा कुछ होता तो पार्टी को विधानसभा भंग करनी चाहिए थी। ऐसा नहीं किया गया और नए मुख्यमंत्री की बात की जा रही है। मतलब ये है कि चुनाव के लिए पार्टी को वक्त चाहिए। हालांकि, पार्टी की तरफ से महाराष्ट्र के साथ दिल्ली में चुनाव कराए जाने की बात कही जा रही है लेकिन ऐसा भी था तो कैबिनेट को इस्तीफा देना चाहिए था।’
हालांकि, प्रमोद जोशी ये भी कहते हैं कि पिछले कुछ महीनों में जिस तरह की परिस्थितियां बनी हैं, उससे पार्टी को ऐसा लग रहा है कि अगर चुनाव जल्दी हो जाते हैं तो उसे उसका फायदा मिलेगा।
वो कहते हैं, ‘अगर 6 महीने बाद या 8 महीने बाद चुनाव हो, या 10 महीने बाद हो, तो वो पार्टी के लिए उतना प्रभावी नहीं होगा। ऐसे में पार्टी का बनाया गया गुब्बारा फूट सकता है। इसलिए यहां से वो यह चाह रहे होंगे कि चुनाव पहले हो जाएं। ऐसा है तो उन्हें विधानसभा भंग करनी चाहिए और जल्दी चुनाव कराने की बात रखनी चाहिए।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता इसे आम आदमी पार्टी के कई नेताओं के जेल में रहने और उसके बाद पैदा हुई सहानुभूति से जोडक़र देखते हैं। उनका कहना है कि पार्टी इस सहानुभूति को भुनाना चाहती है।
वो कहते हैं, ‘इतने दिन केजरीवाल, सिसोदिया और संजय सिंह जेल में थे, तो अब पार्टी को लग रहा है कि इस सहानुभूति को बटोर लेना चाहिए। क्योंकि समय के साथ-साथ लोग इसे भूल भी सकते हैं, इसलिए पार्टी चाहती होगी कि चुनाव जल्द से जल्द हो जाएं।’
हालांकि रविवार को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में विधानसभा भंग करने के सवाल पर आतिशि ने कहा दिल्ली विधानसभा को भंग करने की जरूरत नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘किसी भी विधानसभा का अगर छह महीने से कम का कार्यकाल रह जाता है तो केंद्र सरकार और चुनाव आयोग कभी भी चुनाव करवा सकता है। इसके लिए विधानसभा भंग करने की जरूरत नहीं है।’
नए मुख्यमंत्री के लिए कौन लेगा फैसला?
केजरीवाल के इस्तीफ़े की घोषणा के बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री कौन हो सकता है।
कई नामों की चर्चा भी हो रही है। इनमें अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल, सरकार में मंत्री आतिशि, मंत्री सौरभ भारद्वाज, मंत्री कैलाश गहलोत समेत कुछ और नामों पर कयास लगाए जा रहे हैं।
लेकिन ये किस आधार पर तय किया जाएगा?
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘ये जो नए मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला है, इसका कोई मतलब नहीं लगता। क्योंकि सब जानते हैं कि मुख्यमंत्री जो भी बने वो बस दिखावे के लिए होगा, जैसा जयललिता के केस में या लालू यादव के केस में हुआ था। इसके बहाने थोड़ा माहौल बनाने की कोशिश रहेगी।’
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ये मानते हैं कि सिद्धांत चाहें कुछ भी हों लेकिन नया मुख्यमंत्री चुनने में मुख्य भूमिका अरविंद केजरीवाल की होगी।
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘जो भी चेहरा होगा, वो उनका वफादार होगा, इसमें दोराय नहीं है। जैसे आतिशी का नाम आ रहा है, क्योंकि उन्होंने सरकार का काम अच्छे से किया है। लेकिन जैसा सरप्राइज केजरीवाल ने इस्तीफे़ में दिया, वैसा सरप्राइज़ अगर नए मुख्यमंत्री के तौर पर मिल जाए, तो इसकी भी संभावना है।’
सुनीता केजरीवाल की दावेदारी पर वो कहते हैं, ‘वो भी बन सकती हैं, इसमें हैरानी नहीं होगी। ये थोड़ा अजीब तो होगा, लेकिन अब इस पार्टी में इस तरह की कोई हिचक बची नहीं है।’
शरद गुप्ता भी कहते हैं कि इस चेहरे की पहली योग्यता यही होगी कि वो अरविंद केजरीवाल का बेहद वफ़ादार होना चाहिए।
वो इसे ‘यस मिनिस्टर’ का नाम देते हैं। वो कहते हैं, ‘इसे, चेहरा चुने जाने की पहली योग्यता के तौर पर देखा जाएगा। आप सोचिए कि अरविंद केजरीवाल ने जेल में रहकर झंडा फहराने के लिए किसे आगे भेजा था?’
शरद यहां आतिशि की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, हालांकि आतिशि ने अब तक इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है। उनका कहना है कि ये फ़ैसला विधायक दल की बैठक में होगा।
बीजेपी और कांग्रेस के नजरिए से फ़ैसला कैसा है?
बीजेपी केजरीवाल के इस कदम को ‘नाटक’ बता रही है। दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा का कहना है कि लोकसभा चुनाव में ही दिल्ली की जनता ने अपना फैसला सुना दिया था।
वो कहते हैं, ‘केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने तीन महीने पहले ही अपना फै़सला सुना दिया है। आप दिल्ली की सडक़ों पर खुद घूमे थे और आपने कहा था कि जेल के बदले वोट दीजिए और दिल्ली की जनता ने आपको माकूल जवाब दिया।’
रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने 48 घंटे पहले इस्तीफे के एलान पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा, ‘जब केजरीवाल जी ने इस्तीफे की बात की तो हम ये कह सकते हैं कि उनके जुर्म का ये इकबालिया बयान हो गया। यानी, आपने मान लिया कि आप पर जो आरोप हैं वो इस लायक है कि आप इस पद पर नहीं रह सकते।’
हालांकि प्रमोद जोशी मानते हैं कि दिल्ली बीजेपी के लिए ये फैसला चौंकाने वाला और अप्रत्याशित होगा। वो कहते हैं, ‘बीजेपी दिल्ली में विधानसभा के लिए उतनी आश्वस्त अभी नहीं होगी क्योंकि पहला, बीजेपी का दिल्ली का संगठन बहुत मजबूत नहीं है,
इसमें आंतरिक लेवल पर भी कोई बहुत ताकत नहीं है। दूसरा, ये कि शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर दिल्ली को लेकर बीजेपी के अंदर असमंजस रहता है।’ ‘इसका तीसरा कारण भी है। हरियाणा में चुनाव होने जा रहे हैं, तो इसका कुछ न कुछ असर दिल्ली के परिणामों पर पड़ेगा। मतलब बीजेपी को इन्होंने एक बार चौंका तो दिया है, इसमें कोई दोराय नहीं है।’
हालांकि, आशुतोष इस राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखते हैं, उनका मानना है कि इसका बीजेपी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
वो कहते हैं, ‘दिल्ली चुनाव में कुछ महीनों का ही वक्त है और बीजेपी इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार है। मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल के इस क़दम का बीजेपी की रणनीति या राजनीति पर कोई ख़ास फर्क पड़ेगा।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता मानते हैं कि केजरीवाल का ये कदम बीजेपी के लिए एक तरह से हैरानी भरा है, जो कि किसी भी तरह से बीजेपी के पक्ष में नहीं है।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी चाहती थी कि केजरीवाल मुख्यमंत्री बने रहें और उन पर कीचड़ उछलता रहे। अब केजरीवाल ये कह सकते हैं कि कोर्ट ने उन्हें छोड़ दिया और छूटते ही उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया, वो कह सकते हैं कि उन्हें सत्ता का कोई लालच नहीं है।’
जहां तक कांग्रेस की बात है तो दिल्ली में पहली बार चुनाव लडऩे के बाद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाई थी। इसके लिए भी वो कई इलाक़ों में दिल्ली की आम जनता के बीच गए थे।
इस बार लोकसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ी थीं। लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए दोनों के बीच गठबंधन नहीं हुआ है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में गठबंधन से कमोबेश कांग्रेस को फ़ायदा मिला था। लेकिन आम आदमी पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं मिला। अब वो हरियाणा में साथ नहीं लड़ रही हैं। ऐसे में ज़ाहिर है कि कांग्रेस कि प्रतिक्रिया केजरीवाल के खिलाफ एक विपक्षी पार्टी की जैसी होगी।’
वो कहते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही दिल्ली में अपने नेतृत्व को मजबूत नहीं किया। वो कहते हैं, ‘प्रदेश संगठन में कोई भी ऐसा नेता नहीं दिखता, जो केजरीवाल जैसी शख़्सियत रखता हो। इसका ख़ामियाज़ा कांग्रेस को चुनाव में भुगतना में पड़ सकता है।’
कांग्रेस की तरफ़ से प्रतिक्रिया की बात करें तो कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने केजरीवाल के इस्तीफे को ‘नाटक’ कहा है और कहा है कि उन्हें बहुत पहले सीएम पद को छोड़ देना चाहिए था।
उन्होंने कहा, ‘जब उन्हें जेल हो गई थी तभी उन्हें सीएम पद छोड़ देना चाहिए था, लेकिन उसक वक्त उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब बचा क्या है, अब ये घोषणा करने का क्या मतलब है।’
2014 के इस्तीफे से लेकर अब के इस्तीफे तक कितनी बदली पार्टी? इस सवाल पर आशुतोष कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी अब आंदोलन से जन्मी वो पार्टी नहीं रही। वो अलग दौर था जब देश बदलने का सपना था, आदर्शवाद था, नई तरह की राजनीति की उम्मीदें थीं। लेकिन 10 साल में चीज़ें बहुत बदल गई हैं। अब संगठन भी वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था और इससे जुडऩे वाले लोग भी अब अलग तरह के हैं।’
आशुतोष कहते हैं कि इस बार दिल्ली की जनता भी ‘फ्री बिजली या फ्री पानी’ जैसे नारों पर जाने वाली नहीं है, अब तो तकऱीबन हर पार्टी ऐसा ही नारा दे रही है।
साल 2014 के इस्तीफ़े पर प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘उस वक्त आम आदमी पार्टी आंदोलन से जन्मी हुई पार्टी थी और कार्यकर्ताओं में एक अलग तरह का उत्साह था। पार्टी ने जगह-जगह सभाएं की थीं, लोगों से पूछा था कि हमें सरकार बनानी चाहिए या हमें समर्थन लेना चाहिए। इस बार स्थिति अलग है। इन 10 सालों में पार्टी बहुत हद तक बदल चुकी है। अब पार्टी एक सामान्य राजनीतिक दल बन गई है।’
‘मुझे नहीं लगता कि कार्यकर्ताओं में अब उतनी एनर्जी है। पार्टी में अब कई लोग शामिल हो गए हैं, जो अपने लिए अलग-अलग तरह के फ़ायदे देखते हैं। आपने देखा कि राज्यसभा में मेंबर बनाने के लिए बाहर के लोग लाए गए, कार्यकर्ताओं की जगह नहीं दी गई। अब कार्यकर्ता वही नहीं रहे, जो शुरुआती दौर में थे।’ (www.bbc.com/hindi)
-जन्नतुल तन्वी
बीते कई दिनों से बड़े पैमाने पर लोडशेडिंग यानी बिजली कटौती से बांग्लादेश के लोग परेशान हैं।
डॉलर के संकट की वजह से ईंधन की सप्लाई नहीं होने के कारण बिजली केंद्रों में उत्पादन में गिरावट आई है।
इसके साथ ही ईंधन के आयात पर निर्भर रहने के कारण सरकार पर निजी बिजली कंपनियों का बकाया भी बढ़ रहा है। इसके कारण मांग के अनुरूप बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
देश की मौजूदा बिजली उत्पादन क्षमता 27 हजार मेगावाट से ज्यादा होने के बावजूद इसकी घरेलू मांग 16 हजार मेगावाट से भी कम है।
शेख़ हसीना सरकार ने बीते 15 वर्षो में एक के बाद एक कई बिजली उत्पादन संयंत्रों का निर्माण किया है। आरोप है कि इन बिजली संयंत्रों का निर्माण ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना अनियोजित तरीके से किया गया है। कई मामलों में तो निर्माण से पहले घरेलू मांग पर भी विचार नहीं किया गया।
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि शेख़ हसीना की सरकार अपने पीछे जो आर्थिक तबाही छोड़ गई है उसकी वजह से ही पूरा बिजली उद्योग गंभीर खतरे में पड़ गया है।
मौजूदा परिस्थिति में अंतरिम सरकार को इस मद में प्राथमिकता के आधार पर धन आवंटित करना होगा। अगर पूरा भुगतान संभव नहीं हो तो भी बिना किसी रुकावट के बिजली की सप्लाई बनाए रखने के लिए जरूरी रकम आवंटित करनी होगी।
इस बीच, बिजली और ऊर्जा सलाहकार मोहम्मद फ़ौज़ुल कबीर खान ने बताया है कि इस संकट के समाधान के लिए सामयिक उपाय किए गए हैं। ईंधन के आयात के लिए डॉलर में भुगतान किया जा रहा है।
इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि डॉलर संकट ही बांग्लादेश में बिजली की कमी की मूल वजह है। दूसरी तमाम समस्याएं भी इसी वजह से पैदा हुई हैं।
आम लोगों को पिछली सरकार की ओर से बिना सोचे-समझे शुरू की गई बिजली परियोजनाओं का ख़मियाजा भुगतना पड़ रहा है।
डॉलर का संकट
देश में गैस-आधारित बिजली परियोजनाओं से ही सबसे ज्यादा बिजली की सप्लाई की जाती है। ऐसी परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता करीब 12 हजार मेगावाट है।
पहले इन परियोजनाओं से साढ़े छह हजार मेगावाट तक बिजली का उत्पादन किया जा चुका है। लेकिन अब पांच हजार मेगावाट से ज्यादा उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
बिजली उत्पादन के लिए रोजाना 120 से 130 करोड़ घन फुट (क्यूबिक फीट) तक गैस की सप्लाई की गई है। लेकिन पावर डेवलपमेंट बांग्लादेश (पीडीबी) ने बताया है कि फिलहाल यह सप्लाई 80 से 85 करोड़ घन फुट तक रह गई है।
कॉक्स बाजार के महेशखाली स्थित दो फ्लोटिंग एलएनजी टर्मिनलों के जरिए रोजाना करीब 110 करोड़ घन फुट गैस की सप्लाई होती है।
लेकिन समिट का एलएनजी टर्मिनल बीती दस मई से ही बंद है। इसकी वजह से फिलहाल 60 करोड़ घन फुट गैस की ही सप्लाई हो रही है।
यांत्रिक गड़बड़ी के कारण बड़ोपुकुरिया बिजली संयंत्र की सभी यूनिट बंद हो गई हैं। इसी वजह से मंगलवार को करीब तीन हजार मेगावाट बिजली की कमी पैदा हो गई थी और बड़े पैमाने पर लोडशेडिंग हुई।
भारत में झारखंड स्थित अदानी के बिजली उत्पादन केंद्र से सबसे ज्यादा बिजली की सप्लाई की जाती है। वहां से रोजाना डेढ़ हजार मेगावाट तक बिजली मिलती थी।
लेकिन पता चला है कि बकाया रकम का भुगतान नहीं होने के कारण कंपनी फिलहाल एक हजार मेगावाट बिजली की सप्लाई ही कर रही है।
शेख हसीना सरकार ने बैंक से बॉन्ड जारी कर निजी मद में बकाया बिजली के बिल को कुछ कम करने का प्रयास किया था।
गैस बिल, सरकारी और निजी बिजली उत्पादन केंद्रों और भारतीय बिजली उत्पादन केंद्रों की कुल बकाया रकम 33 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा हो गई है।
इस बीच, भारत के अदानी समूह के चेयरमैन गौतम अडानी ने अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस को एक पत्र भेजा है।
कैब (कंज्यूमर्स एसोसिएशन ऑफ़ बांग्लादेश) के ऊर्जा सलाहकार शमसुल आलम कहते हैं, ‘फिलहाल वित्तीय संकट ही सबसे गंभीर समस्या है। दूसरे मद में खर्च की कटौती कर यहां गैस की सप्लाई बढ़ानी होगी। तेल-आधारित बिजली उत्पादन केंद्रों का संचालन बढ़ाना होगा। इसके साथ ही डॉलर का इंतजाम कर बिजली का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है। बिजली उत्पादन में 15 फीसदी की वृद्धि के लिए गैस की राशनिंग करनी होगी। ऐसा होने की स्थिति में ही लोडशेडिंग की समस्या का समाधान किया जा सकता है।’
आयात पर निर्भरता
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में जो सबसे बड़ी नीतिगत गलती हुई है वह यह है कि मजबूत अर्थव्यवस्था को देखते हुए पूरी बिजली व्यवस्था को आयात पर निर्भर बना दिया गया था।
शेख हसीना की सरकार अर्थशास्त्र की दोषपूर्ण अवधारणा के आधार पर एक के बाद एक बिजली संयंत्र स्थापित करती रही।
इन सभी केंद्रों में बिजली के उत्पादन के लिए गैस के साथ ही तेल और कोयले का इस्तेमाल भी बढ़ा है।
इस ईंधन का ज्यादातर हिस्सा विदेशों से आयात किया जाता है। सरकार ने इससे पहले कभी प्राथमिक ईंधन के बारे में कोई फैसला नहीं किया था।
साथ ही वैकल्पिक ईंधन के रूप में नवीकरणीय (रिन्यूएबल) ऊर्जा स्रोतों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया।
विश्लेषकों का कहना है कि ईंधन के लिए आयात पर निर्भरता की वजह से बिजली उत्पादन की लागत बढ़ी है। इससे डॉलर पर दबाव बढ़ा है।
विश्लेषक आयात पर निर्भर होने के खतरे के तौर पर वर्ष 2022-23 का जिक्र कर रहे हैं। उस साल ईंधन के आयात पर 13 अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च आया था।
ऊर्जा विशेषज्ञ प्रोफेसर शमसुल आलम कहते हैं, ‘निजी बिजली केंद्र उधार पर बिजली की सप्लाई कर रहे हैं। वो अपने खर्च पर ईंधन खरीद रहे हैं। लेकिन बाकी ज़रूरी चीजों और बिजली उत्पादन का खर्च तो बकाया रह रहा है।’
आलम का कहना है कि इस क्षेत्र में मौजूदा संकट को दूर करने के लिए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर धन का आबंटन करना होगा।
कम से कम उतनी रकम जारी करनी होगी जिससे सप्लाई बिना किसी बाधा के बरकरार रह सके।
बांग्लादेश में बिजली संयंत्र और सप्लाई की हालत
ऊर्जा विशेषज्ञ बिजली क्षेत्र को चरम अव्यवस्था का शिकार बताते हैं।
अवामी लीग के सत्ता में आने के बाद नए बिजली केन्द्रों की स्थापना पर काफी जोर दिया गया।
बिजली और ईंधन की आपूर्ति में तीव्र वृद्धि अधिनियम पारित करके उन्हें छूट दी गई।
इस कानून के तहत बिना किसी टेंडर के ही एक के बाद कई बिजली उत्पादन केंद्रों का निर्माण किया गया। व्यापारियों के अलावा अवामी लीग के कई नेताओं ने भी बिजली उत्पादन केंद्रों का मालिकाना हक हासिल कर लिया।
विशेषज्ञों का कहना है कि कई बिजली उत्पादन केंद्रों की स्थापना के बावजूद उनसे उम्मीद के मुताबिक फायदा नहीं हो रहा है।
इसकी वजह यह है कि पैसों की कमी के कारण तेल और गैस खरीदने में दिक्कत हो रही है।
देश में कोयला आधारित चार बड़े बिजली उत्पादन केंद्र हैं। इनके नाम क्रमश: पायरा, रामपाल, एस। आलम और मातारबाड़ी बिजली केंद्र हैं।
इन चारों की कुल उत्पादन क्षमता पांच हजार मेगावाट है। लेकिन सप्लाई लाइन नहीं होने के कारण वहां पैदा होने वाली बिजली को ढाका तक लाना संभव नहीं हो रहा है।
बावजूद इसके उनको कैपेसिटी चार्ज का भुगतान करना पड़ता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि देश में कैपेसिटी यानी क्षमता की दिक्कत नहीं है। लेकिन सप्लाई लाइन पर्याप्त नहीं होने की वजह से उत्पादन क्षमता के बावजूद बिजली की सप्लाई नहीं हो पा रही है।
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि 60 फीसदी ईंधन के आयात के कारण यह क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है।
एक ऊर्जा विशेषज्ञ नाम नहीं छापने की शर्त पर बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, ‘अदानी के साथ हुए समझौते के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है। लेकिन इस समय अगर अदानी के संयंत्र से मिलने वाली बिजली की सप्लाई बंद हो गई तो परिस्थिति और भयावह हो जाएगी।’
उन्होंने कहा, ‘अदानी को जो 80 करोड़ डॉलर मिलने हैं वह तो समझौते के मुताबिक उनका अधिकार है। लेकिन अगर इस समय हम उनको पैसे नहीं दे सकते तो वो लोग कब तक उधारी में बिजली की सप्लाई करते रहेंगे?’
उनका कहना था, ‘अदानी समूह का कहना है कि बकाए की रकम 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा होने की स्थिति में यह सस्टेनेबल यानी टिकाऊ नहीं होगा। कंपनी 50 करोड़ डॉलर तक बकाया देने को तैयार है।’
वो कहते हैं, ‘दरअसल, समझौते के मुताबिक उसके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं है। लेकिन अदानी समूह ने इस पर सहमति दे दी है। लेकिन सवाल है कि बकाए की रकम 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा होने की स्थिति में क्या होगा?...उनको भी तो कोयले का आयात करना पड़ता है। उसके अलावा लॉजिस्टिक और मेंटेनेंस पर होने वाला खर्च भी है।’
ऊर्जा सलाहकार क्या कहते हैं
तकनीकी गड़बड़ी के कारण बड़ोपुकुरिया बिजली केंद्र फिलहाल बंद है। इसके साथ ही अदानी के बिजली उत्पादन केंद्र से भी सप्लाई कम कर दी गई है।
ऊर्जा सलाहकार मोहम्मद फौज़ुल कबीर खान ने पत्रकारों से कहा है, ‘बड़ोपुकुरिया में एक बिजली संयंत्र है। वहां एक तकनीकी समस्या पैदा हो गई है। उम्मीद है कि 18 तारीख तक उसे दूर कर लिया जाएगा और बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगी। इसके अलावा हम अदानी से जो बिजली खरीदते हैं वहां भी सप्लाई कुछ कम हो गई थी। हमने उनसे संपर्क किया है। उसके बाद सप्लाई दोबारा बढ़ गई है। यही वजह है कि स्थिति में कुछ सुधार आया है।’
गैस की कमी को बिजली की सप्लाई में गिरावट की मुख्य वजह बताते हुए खान का कहना था, ‘समिट स्थित एफएसआरयू बीते करीब साढ़े तीन महीनों से बंद था। वह अब ठीक हो गया है।’
वो कहते हैं, ‘हमने गैस का नया ऑर्डर दे दिया है। इसके लिए निविदा मांगी गई है। यह प्रक्रिया पूरी होने पर तीन सप्ताह के भीतर गैस यहां पहुंच जाएगी। इससे पांच सौ एमसीएफडी को गैस से जोड़ा जा सकेगा। उसके बाद बिजली के लिए आनुपातिक रूप से ज्यादा गैस मिलने लगी।’
उन्होंने उम्मीद जताई कि उसके बाद लोडशेडिंग की स्थिति में सुधार होगा।
ख़ान ने बताया है कि बीते तीन दिनों में जिस स्तर पर लोडशेडिंग हुई है वैसा आगे नहीं होगा। इस सामयिक संकट को दूर करने के लिए जरूरी उपाय किए गए हैं।
ऊर्जा सलाहकार खान कहते हैं, ‘परिस्थिति में सर्वांगीण सुधार के लिए 10 तारीख से एफआरएसयू को शुरू किया गया है। यह नहीं होता तो हम गैस नहीं ले आ सकते थे। इसके लिए मैंने क्रय समिति से विचार विमर्श किया है। आज ही निविदा बुलाई गई है।’
खान के मुताबिक, इस प्रक्रिया के पूरी होने में सात दिनों का समय लगेगा। वह कहते हैं, ‘प्रक्रिया पूरा होने के बाद शिपमेंट आने में और दस दिनों का समय लगेगा। उसके आने के बाद तीन सप्ताह के भीतर पांच सौ एमसीएफडी को गैस से जोड़ा जा सकेगा। उसके बाद हमें ज्यादा गैस मिलने लगेगी। तब बिजली का संकट और कम हो जाएगा।’
डॉलर का संकट के करण बकाया बकाया बिलों का भुगतान संभव नहीं हो पा रहा है। इससे निजी क्षेत्र में उत्पादन प्रभावित हो रहा है। अदानी के बिजली केंद्र ने भी सप्लाई कम कर दी है।
डॉलर संकट का जिक्र करते हुए खान कहते हैं, ‘हम डॉलर में भुगतान कर रहे हैं। इसकी उपलब्धता कुछ बढ़ी है। हम लगातार परिस्थिति की निगरानी कर रहे हैं।’ (www.bbc.com/hindi)