विचार / लेख

अपना प्यारा शहर मर गया
06-May-2025 12:02 PM
अपना प्यारा शहर मर गया

-दीपक तिरुआ
मैंने अपने जीवन का लगभग 50त्न हिस्सा नैनीताल में बिताया है। मैं यहाँ 1998 में पढऩे आया था।

यानी 2002 में, गोधरा कांड और उसके बाद के बखेड़े वाले समय में भी, मैं नैनीताल में ही था। तब यहाँ भी एहतियातन 3-4 दिन का कफ्र्यू लगाया गया था।

मैं, जफर खान, असीम खान और सचिन जो कि रूम मेट थे। इस दौरान एक साथ एक रूम में बंद रहे थे।

इस कांड का हमारी दुनिया पे क्या असर हुआ, ये बात बाद में, पहले हम नैनीताल को तो जान लें।

मेरे जैसे, एक गांव से आए हुए, पहाड़ी किशोर की ख़ुशकिस्मती थी, कि नैनीताल टूरिस्ट प्लेस होने के अलावा साहित्य, कला और रंगमंच का गढ़ भी था।

यहाँ झील के किनारे एक शांत ख़ूबसूरत लाइब्रेरी थी। शारदा संघ था, जिसमें हर महीने शास्त्रीय संगीत और गीत गजल की बैठकी होती थी। कवि सम्मेलन होते थे। नंदा देवी का सालाना मेला तो था ही।

यहाँ की होली में गिर्दा जैसा कवि अपने जनपक्षधर गीत गाता था। यहाँ युगमंच था, जिसने रंगमंच की अपनी शानदार यात्रा का पच्चीसवें से लेकर चालीसवां साल तक मेरे सामने ही मनाया था। यहाँ जगमोहन जोशी मंटू , प्रभात शाह गंगोला, जहूर आलम, मंजूर हुसैन, राजेश आर्य, नवीन बेगाना, मदन मेहरा, मनु कुमार, सुभाष चंद्रा, मुक्की दा, जावेद हुसैन, दाऊद हुसैन, मिथिलेश पांडे, शबनी राणा, भारती जोशी जैसे समर्पित और मूर्धन्य कलाकारों की पीढिय़ां थीं।

जिन्होंने यहाँ की ख़ास होली और रामलीला से लेकर रंगमंच तक को नए आयाम दिए थे।

इसी दौरान नैनीताल हिंदी सिनेमा को निर्मल पांडे और इदरीस मलिक जैसे अभिनेता, शालिनी शाह जैसी नेशनल अवॉर्ड विनिंग डॉक्यूमेंट्री मेकर, राजेश शाह जैसे सिनेमेटोग्राफर दे रहा था।
हमारे पास राजीव लोचन शाह, महेश जोशी, गिर्दा जैसे लोगों से लैस नैनीताल समाचार जैसा प्रतिबद्ध अखबार भी था।

हमारे पास पहाड़ जैसी पत्रिका थी तो उत्तरा जैसी महिला पत्रिका भी। हमारे पास शेखर पाठक जैसे इतिहासकार थे और बटरोही जैसे साहित्यकार भी।

हमने यहीं अनिल कार्की को जोशीले युवा से पहाड़ का प्रतिनिधि कवि और कथाकार बनते देखा। इस शहर से जुड़े ऐसे और भी कितने ही नामों का सिलसिला है।

यूपी के दौर में नैनीताल अलग उत्तराखंड राज्य आंदोलन का भी सक्रिय केंद्र रहा। कल तक भी देश दुनिया के हर संवेदनशील मुद्दे पर सजग प्रतिक्रिया रखने वाले नागरिकों से नैनीताल हमेशा समृद्ध रहा है।

नैनीताल की छोटी सी कटोरे जैसी दुनिया में सब कुछ था, पर सांप्रदायिकता कभी भी, ऐसी नहीं थी। यहाँ तक कि गोधरा कांड से पहले, हम चारों यानी दो हिंदू और दो मुस्लिम रूममेट्स को, जो हिंदू पड़ोसी हिंदू त्योहारों पर और मुस्लिम पड़ोसी मुस्लिम त्योहारों पर अपने घरों में बुलाकर खाना खिलाते थे। वे हमें इस कांड के बाद भी वैसे ही बुलाते रहे। यानी नैनीताल सिर्फ एक शहर नहीं, एक तहज़ीब का नाम था।

अब मगर ये जगह बदल गई है। जिन लोगों ने पहलगाम में धर्म पूछकर हत्याएं की, वे दुश्मन देश के आतंकी थे। लेकिन एक आदमी के अपराध के लिए, एक खास धर्म के सभी लोगों को निशाना बनाने वाले तो हमारे अपने शहर के लोग हैं।

ऐसा लग रहा है, जैसे अपना प्यारा शहर मर गया है।

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