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हमको मालूम है धरती की जन्नत की हक़ीक़त लेकिन...
24-Apr-2025 4:51 PM
हमको मालूम है धरती की  जन्नत की हक़ीक़त लेकिन...

-अमिता नीरव

‘हाफ-विडो’ 2017 की फिल्म है। हालाँकि कश्मीर की पृष्ठभूमि में कश्मीरी महिलाओं की स्थिति पर ये फिल्म बनाई गई है, मगर ये शब्द हाफ-विडो अटक गया। इस शब्द का उपयोग मूल रूप से कश्मीर की उन महिलाओं के लिए किया जाता है, जिन्हें अपना मेरिटल स्टेटस ही नहीं पता है, उन्हें ये भी नहीं पता कि उनके पति जिंदा भी हैं या नहीं?

नब्बे के दशक के मध्य में जब पंजाब से आतंकवाद का सफाया हो चला था, पंजाब के आतंकवाद पर कई लेख, रिपोर्ट्स और स्टोरीज आने लगी थी। ज्यादातर के केंद्र में वो रणनीति थी, जिससे पंजाब को आतंकवाद से मुक्त करवा लिया गया। उसी दौरान एक-दो रिपोर्ट्स उन लोगों पर भी पढ़ी थी, जिनके परिवार उनके लौट आने की आस लगाए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे।

किसी एक रात युवा लडक़ों या पुरुषों को पुलिस पकडक़र ले जाती और फिर वे कभी नहीं लौटते। उनके पीछे उनके परिवारों की मानसिक स्थिति क्या होगी आप समझ नहीं सकते हैं।

हम जो शांत-क्षेत्रों में रहते हैं, हम कभी समझ ही नहीं पाएँगे कि जो आपदग्रस्त क्षेत्रों में रहते हैं, उनके जीवन क्या और कैसे होते होंगे! इसे ही समझने के लिए उन क्षेत्रों पर बनाई गई गंभीर फिल्में, कहानियाँ, रिपोर्ट्स से हम सिर्फ जान सकते हैं, भयावहता का तो अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं।

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पिछले साल इन्हीं दिनों हम कश्मीर में थे औऱ दो दिन पहलगाम में बिताए थे। कई कश्मीरियों से बात की थी, उस भयानक आतंकवाद के दौर को याद करते सिहरते कश्मीरियों को देखकर सहानुभूति होने लगी थी। बहुत सरसरी तौर पर वे आपको बताते हैं कि वे और कुछ नहीं चाहते बस शांति चाहते हैं, सामान्य जीवन जीना चाहते हैं,कि आतंकवाद के दौर में उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं होती है, उनके रोजगार नहीं चलते हैं। हर वक्त दो तरफा दहशत बनी रहती है, कब सुरक्षा बल शक के आधार पर हमें उठा कर ले जाएँगे और कब आतंकी आतंकवादी घटना को अंजाम देने के लिए हमारे घर और हमारे बच्चों का इस्तेमाल कर लेंगे।

फर्राटे से बंगाली बोलने वाले दो कश्मीरी भाई, जो मूलत: तो श्रीनगर के हैं, लेकिन पहलगाम में दुकान चलाते हैं। जब उनसे उनके इतनी अच्छी बंगाली बोलने का कारण पूछा तो वे अचानक गंभीर हो गए। बोले, ‘जिस वक्त यहाँ हालात खराब थे, उस वक्त यहाँ कोई बिजनेस नहीं था। अब्बा के साथ मैं कलकत्ता चला गया था। कई साल कलकत्ता में रहा, वहीं से बंगाली सीखी। अब भी मैं पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए सर्दियों के मौसम में कलकत्ता जाता हूँ, बिजनेस के सिलसिले में।’, मैं चकित थी।

नब्बे और उसके बाद के सालों में कश्मीर के हालात पर बात करते हुए उनकी आवाज अतिरिक्त रूप से सतर्क, गहरी और उदास हो उठती है। वे बताते हैं, ‘अपने घर की औरतों और बच्चों को यहीं छोडक़र हम कई साल बंगाल में क्यों रहे? व्यापार करना था, आखिर घर भी तो चलाना था, बच्चों की पढ़ाई का भी खर्च था।’

‘क्या माहौल था?’, मैं पूछती हूँ तो शब्बीर भाई बताते हैं, ‘माहौल तो खैर बहुत खराब था।’ छोटे भाई ने इसी बीच इंटरप्ट किया। बताने लगे, ‘मैं तीन साल रहा होऊँगा, 1992 में। उस वक्त ईदी तक पाँच रूपए मिलती थी, उस वक्त छोटे-छोटे बच्चों को पाँच-पाँच सौ रूपए और बंदूक दे दी जाती थी, सोचिए, पाँच रूपए ईदी मिलने वाले बच्चे को जब पाँच सौ रुपए दिए जाए तो वह क्या करेगा?’

इसी सारे माहौल की वजह से अब्बा हम दोनों को यहाँ से कलकत्ता ले गए। हम वहीं रहते और व्यापार करते थे। फिर बड़े भाई बताने लगे, ‘ये उन दिनों की बात है, जब इसकी (छोटे भाई की तरफ इशारा किया था) सगाई होनी थी। तमाम मेहमान आ गए थे, टेंट लग गए, खाना बन रहा था। गाना-बजाना हो रहा था कि एकाएक पुलिस की जीप घर के सामने आकर रूकी।’ वो चुप हो गए, हम सन्न होकर कहने का इंतजार करने लगे। वे फिर बोले, ‘पुलिस ने कहा, आपको पूछताछ करने लिए थाने चलना होगा। इससे पहले कि हम कुछ कहें, सोचें, करे, इसे पकडक़र जीप में बैठा लिया। अब मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ? इसका तो जो हैं सो है, लडक़ी वालों को क्या कहूँगा! फिर मोहल्ले में लोगों को पता चला तो सारा मोहल्ला इक_ा होकर पुलिस थाने गया। वहाँ जाकर धरना दिया, तब इसे छोड़ा गया।’

 

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हम जो अपने-अपने घरों-दफ्तरों औऱ दुकानों में मुतमईन बैठे हुए इस घटना पर चर्चा कर रहे हैं और स्थानीय कश्मीरियों और फिर मुसलमानों को टारगेट कर रहे हैं, इसलिए कर पा रहे हैं कि हम संकटग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की मुश्किलों का न तो अंदाजा है, न इतनी संवेदनशीलता और न ही जरूरत। हम तुरंत ही दोषी को ढूँढने लगते हैं।

और दुर्भाग्य से दोषी दूर नहीं, आसपास ही मिल जाता है, मुसलमान।

कश्मीर या ऐसी किसी जगह जाएँ जो आपदाग्रस्त हैं तो थोड़ा वहाँ के लोगों से भी बात करें, उन्हें टटोले कि वे कैसे जी रहे हैं यहाँ! वो भी इंसान हैं, शांति और चैन से जीना चाहते हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह, जन्म और जन्मदिन, वार-त्योहार मनाना चाहते हैं।

कोई इंसान इस किस्म की दहशत, अविश्वास और अनिश्चितता में नहीं जीना चाहता है, मगर वो मजबूर हैं क्योंकि वे ऐसी जगह रह रहे हैं। आज जो आप यहाँ बैठकर स्थानीय कश्मीरी पर लानतें भेज रहे हैं न, यदि आप ऐसी स्थिति में फँस जाएं तो आप इससे भी बदतर सिद्ध होंगे।

हमारी सारी सदाशयता, सहृदयता, सारी बहादुरी, सारी समझ सिर्फ उस वक्त तक है, जब तक कि हमारा पैर हमारे ही जूते में हैं। जूता बदलते ही सारी हकीकत बदल जाती है।

बहुत बड़ा आतंकी हमला है, सवाल कई है। कई परिवार उजड़ गए हैं, कइयों ने तो अपनी जिंदगी ठीक से शुरू भी नहीं की होगी, जाहिर है दुख है, गुस्सा है, आक्रोश है। मगर सवाल सरकारों से होने चाहिए, इंटेलिजेंस, सेना, प्रशासन से होने चाहिए।

इस सरकार की ये ही खासियत है कि पिछले कुछ सालों में बिना कुछ किए ही सारा नैरेटिव मुसलमानों की तरफ मोड देती है।

इस घटना की प्रतिक्रिया में कई लोगों ने अपनी खाल छोड़ दी है। लोग अनफ्रेंड कर रहे हैं, मैं नहीं कर रही हूँ, जो लोग मुझे अनफ्रेंड करना चाहें शौक से कर सकते हैं।

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बहुत दुख है, बहुत उद्वेलन है। पीडि़तों के परिवारों से संवेदना है। उनके जीवन का ऐसा नुकसान है जिसे कभी भरा नहीं जा सकेगा।

मगर उन निर्दोषों के प्रति भी सहानुभूति हैं जिनसे बिना वजह किसी और के गुनाहों के जवाब माँगे जा रहे हैं?

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