विचार / लेख
-डॉ. संजय शुक्ला
मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की एक क्रांतिकारी नज़्म है ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, तेरा सुतवॉं जिस्म है तेरा।’ फैज़ साहब की ये शब्द हमारे सियासतदानों और दूसरे लोगों के सिर चढक़र बोल रहा है।
गौरतलब है कि भारत मे अभिव्यक्ति यानि बोलने की आजादी संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल है लेकिन हालिया दौर में इस आजादी का प्रकटीकरण उच्चश्रृंखलता या स्वच्छंदता के रूप में भी हो रहा है। देश में आपदा, महामारी, आतंकी हमलों, सांप्रदायिक दंगों और चुनावों के दौरान राजनेताओं, सेलेब्रिटियों और पत्रकारों के विवादास्पद बयानों या बदजुबानी के कारण सियासत और समाज शर्मसार हो रहा है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद कुछ राजनेताओं, पत्रकारों और यूट्यूबर्स के बदजुबानी का ज्वार इतना बढ़ गया कि कुछ यूट्यूबर्स के खिलाफ जहां मामला दर्ज हुआ है वहीं कुछ पत्रकारों के यूट्यूब न्यूज चैनल पर बैन लगा दिया गया है।
सोशल मीडिया जिसे आम आदमी का संसद कहा जाता है इन दिनों नफरत फैलाने का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यूजर्स ने इस आतंकी हमले पर जिस तरह धार्मिक नफरत के जहर घोला है उससे इस माध्यम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग चुका है। कुछ दिनों पहले ही बॉलीवुड के निर्देशक अनुराग कश्यप ने ब्राह्मण समुदाय पर की गई अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी ने अभिव्यक्ति की आजादी के बेजा इस्तेमाल की पोल खोलकर रख दी है। अनुराग कश्यप ने विप्र समाज के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया है उसे सभ्य समाज कभी स्वीकार नहीं करता।
अलबत्ता अनुराग कश्यप के बयानों से जहां देश का ब्राह्मण समुदाय काफी उद्वेलित हो गया और उनके खिलाफ विभिन्न शहरों में विरोध-प्रदर्शन के साथ पुलिस में मामले भी दर्ज कराए गए। सोशल मीडिया से लेकर सडक़ों पर भारी बवाल के बीच आखिरकार अनुराग ने अपनी टिप्पणी पर सार्वजनिक माफी मांग ली लेकिन इस माफी के बाद भी जिस प्रकार कमान से निकली हुई तीर और जुबां से निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता उसी प्रकार अनुराग के शब्द आगे भी टीस पैदा करती रहेगी।
इसी बीच लोकसभा के भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने वक्फ बिल पारित होने के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहे कथित ‘सिविल वार’ के लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ‘सीजेआई’ जस्टिस संजीव खन्ना को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाना है तो संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए। न्यायपालिका पर टिप्पणियों का सिलसिला यहीं नहीं थमा बल्कि राज्यसभा के भाजपा सांसद दिनेश शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट पर कटाक्ष करते हुए कहा कि किसी को भी संसद या राष्ट्रपति को निर्देश जारी करने का अधिकार नहीं है। हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने दोनों पार्टी सांसदों के बयानों से पार्टी को अलग बताते हुए इसे निजी बयान बता दिया। भाजपा अध्यक्ष के इस बचाव के बावजूद भाजपा सांसदों द्वारा की गई टिप्पणियों पर बवाल अभी थमा नहीं है।
गौरतलब है कि कालांतर में भी अनेक राजनेताओं, सेलेब्रिटियों और कुछ पत्रकारों के धर्म, जाति, महापुरुषों, वेशभूषा और महिलाओं के बारे में किए गए बदजुबानी से देश, सियासत और समाज शर्मसार हुआ है। बदजुबानी के पन्ने पलटें तो साल 2012 में दिल्ली के निर्भया के साथ बर्बरतापूर्ण दुष्कर्म के विरोध हो रहे प्रदर्शन में शामिल महिलाओं के बारे में कांग्रेस के पूर्व सांसद अभिजीत मुखर्जी ने काफी आपत्तिजनक बयान दिया था। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी के प्रमुख स्व. मुलायम सिंह यादव के महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार पर ‘लडक़े हैं गलती हो जाती ह’ जैसी टिप्पणी उनके महिलाओं के प्रति सोच को प्रदर्शित किया। इसी पार्टी के पूर्व सांसद और महिलाओं के बारे में हमेशा अभद्र टिप्पणी करने वाले आजम खान के लोकसभा के पीठासीन सभापति और भाजपा सांसद रमादेवी और रामपुर से भाजपा प्रत्याशी जयाप्रदा पर की गई अत्यंत अशोभनीय टिप्पणी आज भी राजनीति के काले अध्याय में दर्ज है। महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान तब के वरिष्ठ सांसद और राजनेता स्व. शरद यादव ने कहा था कि इस बिल से सिर्फ ‘परकटी औरतों’ को ही फायदा होगा जैसे बयान राजनीति में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की चुगली करता है। अलबत्ता सिर्फ राजनेताओं के ही जुबां से बदजुबानी नहीं हुई है बल्कि राजनीति में सक्रिय नेत्रियों जैसे भाजपा की पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा, कंगना रनौत, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत जैसे अनेक नेताओं ने ऐसे बयान दिए हैं जिसने मर्यादा की हदें लांघी है। बहरहाल बोलने की आजादी के नाम पर विवादास्पद टिप्पणियां सिर्फ राजनेता ही नहीं कर रहे हैं बल्कि अनेक पत्रकार, धर्मगुरु, मौलवी और पादरी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनल्स के कार्यक्रमों और धार्मिक आयोजनों में कर रहे हैं जिससे देश में तनाव बढ़ रहा है।
आजकल कॉमेडी के नाम पर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किसी राजनेता, व्यक्ति या महिलाओं के बारे में अत्यंत भौंडा, अश्लील और आपत्तिजनक टिप्पणियों या छींटाकशी का चलन काफी बढ़ रहा है। कुल दिनों पहले स्टैंड?-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने अपने एक पैरोडी सांग में महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर आपत्तिजनक कटाक्ष किया था जिसके खिलाफ शिवसेना के कार्यकर्ताओं में काफी गुस्सा देखा गया और फिलहाल मामला अदालत में है।इसी तरह यूट्यूबर और सोशल मीडिया इन्फलुएंसर रणवीर अलाहबादिया ने ‘इंडिया गॉट लेटेस्ट’ शो में अपने माता-पिता के नितांत निजी क्षणों के बारे में जिस तरह से अत्यंत भद्दी टिप्पणी की उसने तो पूरे देश को शर्मसार कर दिया।
इस शो में अन्य कॉमेडियन समय रैना और अपूर्वा माखिजा ने भी अत्यंत अश्लील और आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया था। इस शो में जिस तरह से मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता परोसी गई तथा गाली-गलौज की मर्यादा लांघी गई उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही सवालिया निशान लगा दिया। सोशल मीडिया और समाज में इस शो पर भारी आलोचना के बाद शो से जुड़े लोगों के खिलाफ जहां पुलिस में मामले दर्ज हुए वहीं इस शो से जुड़े यूट्यूबर रणवीर अलाहाबदिया को अगले कार्यक्रम के लिए ‘बैन’ कर दिया था लेकिन बीते दिनों कुछ शर्तों के साथ अदालत ने यह बैन हटाते हुए पुलिस को उनका पासपोर्ट वापस करने का आदेश दिया है। अलबत्ता इन दिनों जिस तरह से ओटीटी और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर मनोरंजन और अभिव्यक्ति के नाम पर अश्लीलता, हिंसा और नफरत फैलाया जा रहा है वह भारतीय समाज के लिए एक चिंता और चुनौती का सबब बन गया है।
गौरतलब है कि भारत इन दिनों सांप्रदायिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, भाषाई और वैचारिक असहिष्णुता और संक्रमण के दौर से गुजर रहा है जिसे सोशल मीडिया से खूब खाद-पानी मुहैया हो रहा है।सियासत और सिनेमा समाज को दिशा देते हैं लेकिन यदि इन क्षेत्रों से जुड़े लोग गैर जवाबदेही पूर्ण आचरण करें तो इसके सार्थकता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। बेशक अभिव्यक्ति की आजादी हमें अन्याय के खिलाफ विरोध का मौलिक अधिकार मुहैया कराता है लेकिन इसकी मर्यादा की सीमा भी तय होना जरूरी है। देश में बढ़ते बदजुबानी और सोशल मीडिया पर फेक व भडक़ाऊ पोस्ट पर नकेल कसने के लिए सरकार और अदालतों ने भी कानूनी सख्ती की जरूरत जताई है।
बहरहाल पचहत्तर साल के बूढ़े लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के दुरूपयोग पर कानूनी डंडे नहीं बल्कि लोगों को अपने विचारों को शब्द देने के दौरान स्वअनुशासन की जरूरत है। लोकतंत्र एक जीवंत व्यवस्था है जिसमें सबको समान रूप से विचार अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन यह अभिव्यक्ति शालीनता और शिष्टतापूर्वक हो तभी देश में समाज में मर्यादा की रक्षा हो सकती है। बिलाशक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सवाल उठाना और विचारों की अभिव्यक्ति एक जायज हक है लेकिन इसमें शब्दों की मर्यादा भी जरूरी है।
आखिरकार संत कबीर दास ने भी कहा है ‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।’