आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने अभी एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से मंदिर-मस्जिद विवादों के फिर से उठने को लेकर फिक्र जाहिर की है। उन्होंने कहा कि मंदिर-मस्जिद के रोज नए विवाद निकालकर कोई नेता बनना चाहते हैं, तो ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं। उन्होंने कहा- हमारे यहां हमारी ही बातें सही, बाकी गलत, यह चलेगा नहीं..., अलग-अलग मुद्दे रहे तब भी हम सब मिलजुलकर रहेंगे। हमारी वजह से दूसरों को तकलीफ न हो, इस बात का ख्याल रखेंगे। जितनी श्रद्धा मेरी खुद की बातों में है, उतनी श्रद्धा मेरी दूसरों की बातों में भी रहनी चाहिए। हर धर्म और दूसरों के आराध्य का सम्मान करना चाहिए। मोहन भागवत ने पुणे में एक व्याख्यानमाला में कहा- हर दिन एक नया विवाद उठाया जा रहा है, इसकी इजाजत कैसे दी जा सकती है। हाल के दिनों में मंदिरों का पता लगाने के लिए मस्जिदों की सर्वेक्षण की मांगें अदालतों में पहुंची हैं। उन्होंने कहा कि दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो रहा है? अक्सर भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर चर्चा की जाती है, अब दूसरे देशों में अल्पसंख्यक समुदायों को किस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
इसके दो-चार दिन पहले ही दिन मोहन भागवत ने कहा था कि व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए, नहीं तो वह गड्ढे में गिर सकता है। उन्होंने कहा था कि हर व्यक्ति में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर होता है जो समाज की सेवा करने की प्रेरणा देता है, लेकिन अहंकार भी होता है। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र की प्रगति केवल सेवा तक सीमित नहीं है, सेवा का उद्देश्य नागरिकों को विकास में योगदान देने में सक्षम बनाना होना चाहिए। यहां यह भी चर्चा के लायक है कि मोहन भागवत ने कुछ महीने पहले एक ऐसा बयान दिया था जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना माना जा रहा था। मोदी ने अपने आपको एक खास मकसद पूरा करने के लिए ईश्वर का भेजा हुआ बताया था, और इसके बाद आए भागवत के एक बयान में उन्होंने कहा था कि इंसान पहले सुपरमैन फिर भगवान बनना चाहता है। उन्होंने एक और बयान में मणिपुर के बारे में कहा था कि मणिपुर जल रहा है उस पर कौन ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना कर्तव्य है।
मोहन भागवत हिन्दुओं के सबसे पुराने और सबसे बड़े संगठन, आरएसएस के मुखिया हैं। और उनके बयान कई बार परस्पर विरोधाभासी भी रहते हैं, और कई बार उनसे गैरजरूरी विवाद भी खड़े होते हैं। लेकिन इस बार के उनके बयान को हम एक हिन्दू नेता, और एक हिन्दुस्तानी की एक जायज फिक्र से उपजे हुए मानते हैं। कुछ अरसा पहले भी उन्होंने कहा था कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने की कोशिश गलत है, यह नहीं होना चाहिए, और अभी फिर उन्होंने जगह-जगह मस्जिद के नीचे मंदिर विवाद पर साफ-साफ आपत्ति जाहिर की है। ऐसा लगता है कि भागवत पिछले कुछ अरसे में आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण करके, चाहे अस्थाई और तात्कालिक रूप से ही सही, इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि अधिकतर हिन्दू आबादी वाले देश में एक हिन्दूवादी सरकार के रहते अगर हिन्दुओं को लगातार खतरे में बताया जाता रहेगा, और लगातार साम्प्रदायिक तनाव खड़े किए जाते रहेंगे, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दुओं को ही होगा, और हो भी रहा है। देश की अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े हिस्से पर हिन्दू ही काबिज हैं, और देश में किसी भी तरह के तनाव की वजह से जब कानून व्यवस्था बिगड़ती है, उत्पादकता मार खाती है, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दू समाज को होता है, और इससे दुनिया भर में साख हिन्दूवादी सरकार की खराब हो रही है। दुनिया भर में यह माना जा रहा है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। और अभी भागवत ने बांग्लादेश के हिन्दुओं पर हमले की जो चर्चा की है, उसके बारे में भी यह समझने की जरूरत है कि उसे मुद्दा बनाने का भारत का, और हिन्दू समाज का नैतिक अधिकार भारत में जगह-जगह खड़े किए जा रहे, और स्थाई बनाए जा रहे साम्प्रदायिक तनावों से कमजोर हो जा रहा है। पड़ोस का छोटा सा बांग्लादेश भी वहां चल रहे साम्प्रदायिक तनाव के जवाब में भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को गिना रहा है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान के पीछे की उनकी नीयत पर हम जाना नहीं चाहते, उनके जो शब्द हैं, उनकी साफगोई की हम आज के इस वक्त में तारीफ करते हैं। उनका यह कहना कि हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं, यह देश संविधान के मुताबिक चलता है, और पुरानी लड़ाईयों को भूलकर हमें सबको संभालना चाहिए, सबको एक साथ रहना चाहिए, ये बातें मायने रखती हैं। इसके बाद आरएसएस से जुड़े हुए राजनीतिक दल भाजपा, और संघ परिवार के दूसरे दर्जनों अलग-अलग संगठन मस्जिदों की नींव खोदने के फतवों से हो सकता है कुछ अरसा परे रहें। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने इस धंधे पर पूरी ही रोक लगा दी है, और धर्मस्थल उपासना कानून पर व्यापक विचार-विमर्श कर रहा है, लेकिन देश भर जो माहौल खराब किया जा रहा है, उस पर हो सकता है कि भागवत के बयान के बाद कुछ रोक लगे।
हमारा वैसे भी यह मानना है कि देश में अगर नरेन्द्र मोदी की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के रहते अगर हिन्दुत्व पर खतरा बार-बार कहा जाता है, अगर हिन्दू को असुरक्षित बताया जाता है, तो इससे सरकार की साख खराब होती है, और ऐसा लगता है कि क्या 80 फीसदी हिन्दू आबादी के सौ करोड़ लोग भी इतने कमजोर हैं कि वे अपने को बचा नहीं पा रहे हैं? अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत की साख में सबसे बड़ा बट्टा भारत के साम्प्रदायिक तनाव को लेकर ही लगता है। और मोहन भागवत जिस विचारधारा के अगुवा हैं, उन्हें भी यह बात शायद अच्छी नहीं लगेगी कि हिन्दुओं की बहुतायत वाले देश की साख अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खराब हो। कांग्रेस सांसद शशि थरूर से लेकर बहुत से मुस्लिम नेताओं ने भी मोहन भागवत के इस ताजा बयान और रूख का गर्मजोशी से स्वागत किया है। हमारा भी यही मानना है कि संघ के इतिहास की नींव खोदने के बजाय उसके इस ताजा रूख का सार्वजनिक समर्थन किया जाना चाहिए, और पुरानी बातों का हवाला देकर भागवत को नीचा दिखाने के बजाय उनके इस ताजा रूख को आगे बढ़ाना चाहिए ताकि देश में फैलाई जा रही साम्प्रदायिक हिंसा को भागवत के असर से रोका जा सके। देश और कई प्रदेशों की सरकारों के साथ-साथ हिन्दुओं का कई हिस्से भागवत के बयानों से सहमत होते हैं, ऐसे में उनकी अभी कही गई बातों का देश के हित में फायदा उठाना चाहिए।
संसद सत्र के दौरान कल जिस तरह कांग्रेस और भाजपा के सांसदों पर दूसरे पक्षों से धक्का-मुक्की करने के आरोप लगे हैं, और भाजपा के दो सांसद घायल होने की बात कहते हुए, या घायल होने पर अस्पताल में भर्ती हुए हैं, वह पूरा सिलसिला लोकतंत्र को बड़ा निराश करता है। भाजपा ने प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने भाजपा सांसदों को धक्का देकर गिराया जिससे वे जख्मी हुए। दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी ने कहा है कि उनके सामने ही राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को धक्का दिया गया, और वे गिर पड़े, इसके बाद एक सीपीएम सांसद को धक्का दिया गया, और वे खरगे पर गिर पड़े। उन्होंने कहा कि राहुल अंबेडकर की तस्वीर लेकर जय भीम के नारे लगाते हुए संसद में जा रहे थे, और उन्होंने (भाजपा सांसदों ने) विरोध किया, धक्का-मुक्की की, और यह गुंडागर्दी हुई। उसके बाद यह साजिश फैलाना शुरू किया गया कि राहुल ने किसी को धक्का दिया है। यह संसद भवन के एक प्रवेश द्वार पर भाजपा सांसदों द्वारा इंडिया-गठबंधन के सांसदों का दाखिला रोकने के दौरान हुई घटना बताई जा रही है। इसके बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने निर्देश जारी किए हैं कि संसद के किसी भी गेट पर कोई भी सदस्य, उनके समूह, या राजनीतिक दल के सदस्य धरना-प्रदर्शन नहीं करेंगे।
हम न तो इस घटना को लेकर लोगों और पार्टियों के चाल-चलन पर किसी पूर्वाग्रह को काम में लाना चाहते, न ही कोई अटकल लगाना चाहते कि क्या हुआ होगा। अगर कोई ईमानदार जांच होगी, तो यह साफ हो जाएगा कि किसने किसे रोका, और किसने किसे धक्का दिया। हम इस बात पर भी जाना नहीं चाहते कि आज जख्मी होने की बात जिस सांसद के बारे में की जा रही है वह एक वक्त ओडिशा में ग्राह्म स्टेंस और उनके बच्चों को जिंदा जला देने के मामले से किस तरह जुड़ा हुआ था। वह इतिहास कल की घटना में प्रासंगिक नहीं है, और हम इसमें भी जाना नहीं चाहते कि राहुल गांधी को किसी भी कीमत पर घेरने की कैसी कोशिशें चल रही हैं। इन सबसे परे हम भारत के संसदीय लोकतंत्र की कुछ बुनियादी बातों पर आना चाहते हैं कि क्या 140 करोड़ जनता के बीच से चुने गए जनप्रतिनिधियों से देश की जनता ऐसे ही संसदीय आचरण की उम्मीद करती है? क्या संसद का कुख्यात रियायती खाना, सांसदों पर होने वाला बड़ा खर्च, और उन्हें मिले हुए असाधारण विशेषाधिकार क्या इसीलिए हैं कि वे छात्र संघ चुनाव की तरह की धक्का-मुक्की करें? हम कल की घटना के किसी जिम्मेदार के नाम पर अटकल लगाने का काम नहीं करना चाहते, बल्कि देश के संसदीय माहौल पर अपनी निराशा दिखाना चाहते हैं कि संसद की इमारत ही नई नहीं बनी है, इसके चाल-चलन में गिरावट के नए रिकॉर्ड भी बन रहे हैं।
किसी इमारत से किसी संस्था की इज्जत नहीं बढ़ती। अनाथाश्रम या अस्पताल की इमारतें जर्जर हो सकती हैं, लेकिन वे सम्मान का प्रतीक रहती हैं। दूसरी तरफ जुआघर या शराबखाने आलीशान हो सकते हैं, लेकिन वे कलंक ही रहते हैं, उन पर किसी को सम्मान नहीं हो सकता। इसलिए हजारों करोड़ रूपए लगाकर भारतीय संसद की इमारत को आलीशान बनाना, और वहां की परंपराओं को शर्मनाक बनाना, इस पर जाने किसे गर्व हो सकता है। सत्ता और विपक्ष के बीच असहमति एक स्वस्थ लोकतंत्र का सुबूत रहती है, लेकिन जब असहमति बढक़र हिकारत और नफरत में, हिंसा में तब्दील हो जाती है, तो जनता क्या करे? कल की धक्का-मुक्की को लेकर अभी दोनों तरफ की तोहमतें हवा में तैर रही हैं, लेकिन इसी नई आलीशान इमारत के भीतर वह गाली-गलौज याद पड़ती है जो कि सत्तारूढ़ भाजपा के एक सांसद ने बसपा के एक मुस्लिम सांसद को दी थी, तरह-तरह की गंदी साम्प्रदायिक गालियां दी थीं, देश का गद्दार कहा था, और उस पर क्या हुआ, यह याद भी नहीं पड़ता। देश की राजधानी की एक सीट, दक्षिण दिल्ली के भाजपा सांसद रमेश विधुड़ी ने संसद के बाहर के अपने तेवरों की निरंतरता में जिस तरह संसद के भीतर अश्लील और हिंसक, साम्प्रदायिक और राष्ट्रविरोधी जुबान में बसपा के सांसद दानिश अली को गालियां दी थीं, और ऐसी गाली देने वाले के पीछे बैठे बड़े-बड़े नेता जिस अंदाज में हँस रहे थे, वह संसद की नई इमारत पर कालिख पोतने का काम था। अब कल की जिसकी भी जिससे धक्का-मुक्की हुई, उससे यह कालिख कुछ और फैल गई।
यह बात भी कुछ अजीब है कि संसद में जब-जब कुछ जलते-सुलगते मुद्दों पर चर्चा का दौर शुरू होने को रहता है, किसी न किसी तरह का एक असंसदीय बवाल खड़ा हो जाता है, और सदन का पूरा ध्यान उस पर चले जाता है, और जलता-सुलगता मुद्दा हाशिए पर। लोगों को याद होगा कि किस तरह कभी एक चुम्बन-चर्चा शुरू हो जाती है, तो किस तरह कभी एक अरबपति वकील-सांसद की सीट के नीचे 50 हजार रूपए मिलने को लेकर दिन खराब हो जाता है। क्या देश की संसद ऐसे ही निहायत गैरजरूरी और नाजायज विवादों के लिए बनी है? क्या पांच किलो राशन पर जिंदा 80 करोड़ आबादी के साथ अब ऊंची बना दी गई दुकान के इस फीके संसदीय पकवान को इंसाफ कहा जाएगा? ऐसा लगता है कि हम किसी दूसरे ग्रह पर बैठे हुए भारतीय संसद को यह सलाह देते रहते हैं कि एक वक्त यह देश से परे भी पूरी दुनिया के मुद्दों पर चर्चा करती थी, और बहुत से ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय दौर और घटनाएं भारत की राय से प्रभावित रहते थे। आज तो ऐसा लगता है कि किसी मतदान केन्द्र पर दो प्रमुख पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच हो रहा हिंसक टकराव, और उनके बीच चलती गाली-गलौज संसद के भीतर तक पहुंच चुके हैं। क्या ऐसे सांसदों को, और ऐसे सदन को किसी भी विशेषाधिकार का हक होना चाहिए? क्या इसकी अवमानना करने को बाहर के किसी व्यक्ति की जरूरत है? क्या इसके अपने लोग इसकी इतनी अवमानना नहीं कर रहे हैं जितनी कि बाहर के लोगों के लिए मुमकिन भी हो?
संसद की इस नई और ऐतिहासिक खर्चीली, महंगी इमारत के ढांचे के आकार को लेकर कई लोग इसे ताबूत सरीखी बताते हैं। हमें आकार की तो अधिक समझ नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्य, संसदीय परंपराएं, और बुनियादी इंसानियत जरूर यहां दफन होते दिख रही हैं। आज सांसद जिस किस्म की खेमेबाजी का शिकार हो चुकी है, उसके प्रति जनता के मन में शायद ही कोई विश्वास बचा हो। और यह भी हो सकता है कि हम ही कुछ अधिक बारीकी से और उम्मीद से इस ऊंची दुकान के फीके पकवानों से मिठास की उम्मीद करते हैं, और हमारी निराशा आम जनता की निराशा से कुछ अधिक है, लेकिन लोकतंत्र को लेकर हमारी जो बुनियादी समझ है, उसमें हम इससे कम कोई उम्मीद रख नहीं सकते, फिर चाहे यह लोकतंत्र हमें, बार-बार, कितनी ही बार, हर बार ही निराश क्यों न करता चले। बाहुबल और बहुमत लोकतंत्र नहीं होता, और अल्पमत लोकतंत्र में कम मायने नहीं रखता। संसद भवन से निकलती लोकतांत्रिक और संसदीय निराशा दिल्ली के धुंध और धुएं के मुकाबले अधिक गहरी है, और अधिक दमघोंटू भी।
हिन्दुस्तान में गरीबों के इलाज के लिए केन्द्र सरकार, और राज्य सरकारों के अलग-अलग कई तरह के कार्यक्रम हैं। इलाज का बीमा इनमें सबसे बड़ा कार्यक्रम है, और हर प्रदेश में हजारों रूपए सालाना इस बीमे के एवज में सरकार अस्पतालों को देती है। चूंकि इलाज के लिए निजी अस्पतालों में जाने की छूट रहती है, इसलिए सरकारी अस्पतालों पर लोगों की निर्भरता कुछ मामलों में घटी है। नतीजा यह भी है कि सरकार खुद अपने अस्पतालों के लिए कुछ या अधिक हद तक लापरवाह हो गई हैं। नई बाजार व्यवस्था के तहत बड़े निजी अस्पताल, और स्वास्थ्य बीमा का चलन बढ़ गया है। लेकिन बीमे की रकम तो सरकारों को ही देनी होती है। और यह सब तो केवल खर्च की बात हुई, असल बात सेहत की है जो कि किसी भी दाम से ऊपर है, और एक बार सेहत अधिक बिगडऩे पर पूरी तरह सुधरती भी नहीं है।
अभी छत्तीसगढ़ के एक छोटे जिले बैकुंठपुर के जिला अस्पताल में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (चिरायु) के तहत बच्चों की सेहत परखी गई। राजधानी रायपुर से गए हृदय रोग विशेषज्ञों ने बच्चों की जांच की, और प्रारंभिक जांच के बाद 49 बच्चों में से 23 में हृदय रोग के लक्षण पाए गए। और इनमें से 18 बच्चों को दिल की गंभीर बीमारी निकली। अब इनको राजधानी लाकर यहां बड़े अस्पताल में इनका इलाज करवाया जाएगा। यह तो एक बात हुई, अब एक दूसरी खबर गैरसंक्रामक रोगों की जांच, और उनके इलाज के लिए भी सरकार कर रही है, और 30 साल की उम्र के लोगों की हाई बीपी, डायबिटीज, स्तन कैंसर, और गर्भाशय के कैंसर की जांच करने का सरकारी अभियान चलाया जा रहा है। सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने अपने अमले को कहा है कि अस्पताल में किसी भी बीमारी के इलाज के लिए आने वाले इस उम्र के लोगों की ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की जांच अनिवार्य रूप से की जाए। लोगों को ध्यान होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही हमने एक कैंसर विशेषज्ञ का साक्षात्कार अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, के लिए किया था, और उन्होंने कहा था कि कैंसर विशेषज्ञ तक 80 फीसदी मरीज बहुत देर से आते हैं, और उनके पूरी तरह ठीक होने की संभावना तब तक बहुत घट चुकी रहती है। दूसरी तरफ जल्दी आने वाले मरीजों के पूरी तरह ठीक हो जाने की पूरी-पूरी संभावना रहती है।
हम सरकार के स्तर पर होने वाली जांच को इलाज के खर्च, या बीमे के खर्च से परे और ऊपर मानते हैं। अब देश भर में अधिकतर गरीबों का काफी कुछ इलाज सरकारी योजनाओं में होता है। और ऐसे में अगर समय रहते बीमारी का पता लग जाए, तो उनके ठीक होने, और देश में एक उत्पादक नागरिक की तरह योगदान देने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए एक जिले में ही अगर इतने बच्चे हृदयरोगी मिल रहे हैं, तो पूरे प्रदेश में ऐसे हजारों बच्चों की शिनाख्त हो सकती है जिन्हें दिल के गंभीर इलाज की जरूरत हो। इसी तरह दूसरी बीमारियों का हाल भी देश में खतरनाक स्तर पर पहुंचा हुआ है। डायबिटीज का हाल यह है कि इस देश को दुनिया की डायबिटीज-राजधानी कहा जाता है। अब शहरों से निकलकर यह बीमारी गांव के गरीबों तक पहुंचने लगी है, और बहुत कम उम्र के बच्चे भी डायबिटीज के शिकार मिलने लगे हैं। अगर इसकी शिनाख्त में देर होती है तो यह बहुत जाहिर बात है कि इससे आंखों और किडनी सहित शरीर के दूसरे कई अंगों पर बुरा असर पड़ते रहता है। इसलिए जितनी जल्दी इसकी पहचान हो जाए, इलाज शुरू हो जाए, बीमारी का नुकसान उतनी जल्दी थम सकता है। कुछ इसी तरह का हाल महिलाओं के स्तन कैंसर, और गर्भाशय के कैंसर का है। भारत की आम महिलाएं परिवार की फिक्र में अपने आपको इस हद तक झोंक देती हैं, कि खुद की बीमारी का कोई अहसास होने पर भी उसकी चर्चा नहीं करतीं कि परिवार का ध्यान उनकी तरफ बंटेगा। नतीजा यह होता है कि कैंसर जैसी बीमारी बढक़र जब जानलेवा हो चुकी रहती है, तब जाकर इलाज शुरू होता है, और उस वक्त डॉक्टरों के हाथ में भी करने का बहुत कम रह जाता है।
केन्द्र और राज्य सरकारों के स्वास्थ्य जांच के कार्यक्रम इलाज के मुकाबले कहीं भी कम अहमियत नहीं रखते। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अलग-अलग शहरों में अलग-अलग संगठनों को जोडक़र उनके बैनरतले जांच के ऐसे कार्यक्रम करवाए ताकि लोगों की जल्द शिनाख्त हो सके। सरकार का अपना ढांचा ऐसे जांच कार्यक्रम के लिए नाकाफी होता है, और महंगा भी पड़ता है। इसमें सामाजिक भागीदारी बड़े पैमाने पर की जा सकती है। अगर जरूरत हो तो एनसीसी और राष्ट्रीय सेवा योजना के छात्रों को भी ऐसे शिविरों से जोड़ा जा सकता है ताकि वे कम उम्र से ही बीमारियों की जांच के प्रति जागरूक भी होते चलें। आज एनएसएस के छात्र-छात्राओं को कहीं पर झाडिय़ां और कचरा साफ करते देखा जा सकता है, इनके मुकाबले स्वास्थ्य जांच शिविर अधिक बड़ा योगदान हो सकते हैं।
सरकार के लोगों को भी लोगों की जागरूकता के लिए अलग-अलग मंचों पर जाकर जांच की जरूरत बखान करनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि रोटरी इंटरनेशनल नाम के संगठन ने पूरे हिन्दुस्तान में पोलियो ड्रॉप्स के अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और देश भर में रोटरी के लाखों सदस्यों ने बच्चों को पोलियो ड्रॉप्स पिलाने में संगठित रूप से सरकार का साथ दिया था। देश भर में भी कुछ ऐसे संगठनों को अलग-अलग बीमारियों की जांच के इंतजाम से जोड़ा जा सकता है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार जब तक ऐसा कुछ न करे, तब तक स्वास्थ्य विभाग या जिला प्रशासन के उत्साही लोग भी सेहत की जांच के कैम्प लगा सकते हैं, और जल्द शिनाख्त ही सबसे बड़ा बचाव हो सकती है। यह बात भी समझने की जरूरत है कि समाज में जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे लोग अपने आसपास के दूसरे लोगों को भी जांच के लिए भेजने की कोशिश करेंगे। इसकी शुरूआत अधिक महत्वपूर्ण है, और एक सीमा के बाद लोग खुद होकर जांच के लिए आने लगेंगे।
ब्रिटेन का शाही परिवार एक बार फिर एक विवाद में फंस गया है। वहां के किंग चार्ल्स के छोटे भाई प्रिंस एंड्रयू के एक करीबी चीनी कारोबारी को लेकर अब यह दावा किया जा रहा है कि वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का करीबी था, और वह ब्रिटिश राजमहल में आना-जाना करता था। अब ब्रिटिश सरकार ने इस पर रोक लगाई है, और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए ब्रिटेन आने से रोक दिया गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि चीन से अंग्रेजी पढऩे के नाम पर ब्रिटेन आए हुए इस कारोबारी ने चीन के संभावित पूंजीनिवेशकों की ओर से ब्रिटेन के शाही परिवार को प्रभावित करने की कोशिश की होगी। अब अधिक बारीकियों तक जाना जरूरी नहीं है, सिवाय इसके कि अलग-अलग जिस देश में जैसी सत्ता रहती है, उसमें सत्तारूढ़ परिवार के आसपास दुनिया भर के दलाल मंडराते ही हैं, और उनसे बचना कैसे चाहिए?
इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। सत्ता के इर्द-गिर्द दलालों और कारोबारियों के मंडराने का बड़ा पुराना इतिहास है। भारत के भी कई प्रधानमंत्रियों के आसपास इस किस्म के लोगों की चर्चा हमेशा से रहती आई है। आज देश के जो सबसे बड़े कारोबारी घराने हैं, उनमें से कुछ प्रधानमंत्री के स्तर पर देश की आयात-निर्यात नीतियों को प्रभावित करने, और फिर उनसे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की तोहमत आधी सदी पहले भी झेल चुके हैं। एक वक्त सरकार और कारोबार में कम से कम जनता को दिखाने के लिए कुछ फासला रहता था। अब तो दुनिया के अधिकतर देशों में कारोबार ही सरकार पर हावी दिखते हैं, और शायद यह भी एक वजह है कि एक वक्त जो हिन्दुस्तान फिलीस्तीन का दोस्त और मददगार था, उस हिन्दुस्तान में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए ही अपना रूख पूरी तरह इजराइल की तरफ मोड़ दिया था। शायद इसलिए कि इजराइल से भारत की खरबों डॉलर की खरीदी होती थी, और उस वक्त ही इजराइल के निर्यात का आधे से अधिक आयात अकेले भारत में होता था। आज भी अगले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह भारत से लेकर ब्राजील तक, और कनाडा के भी सामानों पर अमरीका में एक अतिरिक्त टैरिफ लगाने की बात कही है, तो उससे भी हो सकता है कि इन देशों के कारोबारियों के कुछ एजेंट ट्रम्प परिवार को प्रभावित करने में लग चुके हों। वहां पर दलाली की जगह लॉबिंग शब्द का इस्तेमाल होता है, और उसे अधिक औपचारिक रूप से, थोड़ी सी अधिक इज्जत के साथ किया जाता है। ट्रम्प परिवार के कई लोग दुनिया के कारोबारियों से संबंध रखने के लिए जाने जाते हैं, और अब तो ट्रम्प के पास एलन मस्क सरीखे कारोबारी सहायक भी हैं, और दुनिया के अलग-अलग देशों के लिए, कारोबारियों के लिए अमरीकी सरकार की नीतियों को तय करने में मस्क सरीखे लोगों की भी भूमिका रहेगी।
आज अमरीका और चीन इन दो ध्रुवों के बीच कुछ या अधिक हद तक खेमों में बंटे हुए देशों को दुनिया भर के देशों में सत्ता के दलालों का भी ख्याल रखना पड़ता है। भारत में एक वक्त प्रधानमंत्री निवास में सत्ता के दलाल प्रधानमंत्री परिवार के एक सदस्य को मोटी रकम देकर पीएम से मुलाकात का इंतजाम करते थे, ऐसी चर्चा रहती थी। राज्यों में भी कई जगहों पर ब्रिटिश राजघराने की तरह के राज्यों के राजभवनों से दलाली और भ्रष्टाचार का सिलसिला चलता रहा है। कई जगहों पर सत्तारूढ़ नेता के परिवार खुलकर राजपाट में दखल और अपनी पहुंच बेचते दिखते हैं। ऐसे सिलसिले रोकने के लिए देश में संवैधानिक संस्थाओं का मजबूत होना जरूरी रहता है। जब सत्ता पर निगरानी रखने के लिए बनी संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र और स्वायत्त रहती हैं, जिन पर मनोनीत लोग महज सत्ता के पसंदीदा नहीं रहते, वहीं पर शासन या संविधान प्रमुख लोगों के कुकर्मों पर निगरानी रखी जा सकती है। और जहां पर ऐसी निगरानी की कुर्सियां चहेतों को दी जाती हैं, वहां पर जांच एजेंसियों से लेकर संवैधानिक संस्थाओं तक का काम संदेह के घेरे में रहता है। आज अमरीका में ट्रम्प अपने एकदम चहेते लोगों को ऐसी तमाम नाजुक कुर्सियों पर बिठाने पर आमादा हैं, और उसका नतीजा एकदम साफ रहेगा। जब रोकने-टोकने वाले तमाम लोगों की जगह पर सिर्फ अपने चापलूस और दरबारी बिठा दिए जाते हैं, तो फिर मुखिया की गलतियों और गलत कामों की कोई सीमा नहीं रह जाती। जब आसपास के तमाम लोग ट्रम्प के यस मैन (वीमेन भी) रहेंगे, तो फिर कार्यकाल के अंत में वे बहुत से कलंक छोडक़र जाएंगे।
हमने ब्रिटिश राजघराने के एक प्रमुख सदस्य तक चीनी घुसपैठिए की शिनाख्त से यह बात शुरू की थी, और उसी पर अगर लौटें तो यह साफ दिखता है कि सरकार या संविधान प्रमुख परिवारों को अपने आपको सत्ता के दलालों से दूर रखना चाहिए। सत्ता तक पहुंच चुके नेताओं के सफल और महान होने के बीच में बहुत बड़ा फर्क रहता है। सत्ता पर काबिज होना एक सफलता रहती है, लेकिन महानता की राह वहां से शुरू भर होती है। हिन्दुस्तान में ही कई ऐसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री रहे, राष्ट्रपति और राज्यपाल रहे, जो कि किसी भी किस्म के विवाद से पूरी तरह दूर रहे, और उनमें से कोई एक पुरानी कार का कर्ज छोडक़र मरा, तो किसी ने विरासत में एक झोपड़ा की अपने कुनबे को दिया। एक राष्ट्रपति ऐसे भी रहे जिनके शपथ ग्रहण में उनके परिवार के कुछ लोग ट्रेन के साधारण दर्जे में सफर करके पहुंचे, और उसके बाद दुबारा कभी नहीं आए। कुछ ऐसे प्रधानमंत्री भी रहे जिन्होंने किसी भी कारोबारी से अकेले मिलने से मना कर दिया, और वे व्यापारिक प्रतिनिधि मंडलों से ही मिलने को तैयार हुए। अब यह तो अलग-अलग लोगों के अपने मिजाज पर भी निर्भर करता है कि वे नैतिकता को कितना ओढऩा चाहते हैं, या उसे कचरे की टोकरी में डाल देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश में चारों तरफ से अंधविश्वास की खबरें आती हैं कि किस तरह किसी तांत्रिक के कहे लोग किसी बच्चे की बलि दे देते हैं, या टोनही कहते हुए किसी महिला को मार डालते हैं। कुछ जगहों पर जादू-टोने के शक में किसी बुुजुर्ग का भी कत्ल हुआ है। और अब ताजा मामला छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके का है जहां पर 35 बरस के एक गैरआदिवासी आदमी को शादी के 15 बरस बाद बेटा हुआ, और किसी तांत्रिक के चक्कर में मनौती मानने के लिए पांच महीने के बेटे के मुंडन के दिन ही एक जिंदा चूजा निगल लिया, और गले की नली में इसके फंस जाने से वह मर गया। मुंडन के जश्न के लिए घर पर इकट्ठा रिश्तेदारों के बीच उसके अंतिम संस्कार की तैयारियां होती रहीं। जिस बेटे के लिए 15 बरस कोशिश और मनौतियां चलीं, उसके साथ कुल 5 महीने जीना हो पाया। खबरें बताती हैं कि यह आदमी नियमित रूप से किसी तांत्रिक के संपर्क और चक्कर में रहता था। और मनौती भी मानी तो ऐसी भयानक कि जिंदा चूजे को निगल लेने की!
अंधविश्वास को सिर्फ अशिक्षा और आर्थिक पिछड़ेपन से जोडक़र देखना भी गलत होगा। बड़े-बड़े लोग तरह-तरह के धार्मिक और आध्यात्मिक पाखंडों में पड़े रहते हैं, बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े अफसर जाने कितने किस्म के तांत्रिक अनुष्ठान करवाते हैं। छत्तीसगढ़ में अभी ऐसी ही तंत्र साधना से जुड़े एक तांत्रिक की फरारी चल रही है जिसने राज्य की पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान सत्ता के राजतंत्र को भी तंत्र साधना की तरह चलाया था, और जिसकी पेशाब से उन दिनों सत्ता के गलियारों में चिराग जला करते थे। इसलिए अंधविश्वास के शिकार होने की बात महज अनपढ़ या गरीब लोगों पर लागू नहीं होती, सत्ता और संपन्नता के आसमान पर पहुंचे हुए लोग भी परले दर्जे के अंधविश्वासी रहते हैं। हिन्दुस्तान में अंधविश्वासों का कोई अंत ही नहीं होता, जिन लोगों को दस अंधविश्वासों पर भरोसा होने लगता है, उनके सामने लोग और बीस अंधविश्वास पेश कर देते हैं क्योंकि उन्हें एक बेवकूफ ग्राहक मिल जाता है।
धर्म के नाम पर हिन्दुस्तान में किस-किस किस्म का पाखंड नहीं चलता! अगर कोई व्यक्ति चंगाई सभा के नाम पर किसी बड़ी सभा के मंच पर यह दावा करे कि उसकी प्रार्थना से अंधे देखने लगेंगे, और लंगड़े चलने लगेंगे, लोगों का लकवा ठीक हो जाएगा, तो इस पर भी भरोसा करने वाले दसियों हजार लोग रहते हैं। कोई व्यक्ति यह तरकीब सिखाए कि बेलपत्री पर शहद या चंदन लगाकर उसे शिवलिंग पर चढ़ा दिया जाए, तो बिल्कुल भी पढ़ाई न करने वाला बच्चा भी शर्तिया पास हो जाएगा, और इस पर न सिर्फ अंधभक्तों की भीड़ भरोसा करती है, बल्कि सत्ता के तमाम लोग भी ऐसे प्रवचनकर्ताओं की महिमा बढ़ाने का काम करते हैं, उन्हें स्थापित करते हैं। हिन्दुस्तान में हर सौ-पचास किलोमीटर पर कोई न कोई पाखंडी अंधविश्वास की दुकान चलाते मिल जाते हैं।
कहने के लिए देश में अंधविश्वास फैलाने और चमत्कार दिखाने, गंभीर बीमारियां ठीक करने के दावों के खिलाफ बड़ा कड़ा कानून बना हुआ है। लेकिन फर्जी बाबाओं की शोहरत से वोट दुह लेने की नीयत के चलते सत्ता पर बैठे नेता ऐसे जुर्म पर कोई कार्रवाई नहीं होने देते। नतीजा यह होता है कि आसाराम नाम के पाखंडी संत से लेकर गांव-कस्बे के अघोरी-तांत्रिक होने का दावा करने वाले लोग भी अंधविश्वासी भक्तजनों से बलात्कार करते रहते हैं, और उनके कैद काटने के दौरान भी उनके भक्त उनकी पूजा करते रहते हैं। देश में जनता की वैज्ञानिक चेतना को मिट्टी में मिला दिया गया है। भयानक गर्मी की लू को देखते हुए जब शासन-प्रशासन लोगों को घर से न निकलने की सलाह देते हैं, तब लाखों की भीड़ का दावा करने वाले प्रवचनकर्ताओं को प्रवचन की इजाजत दी जाती है, फिर चाहे उसमें पहुंचे लोगों की मौत ही क्यों न हो जाए। लोग विज्ञान की जुटाई गई सहूलियतों का इस्तेमाल करते हुए धर्म और आध्यात्म के नाम पर किए जा रहे तमाम पाखंड को बढ़ावा देते हैं। प्लेन से लेकर कार तक, और लाउडस्पीकर से लेकर टीवी चैनलों तक, सब कुछ मुहैया तो विज्ञान की वजह से हुआ है, लेकिन वैज्ञानिक समझ को नाली में बहाकर लोग बाबाओं के कहे कहीं किसी का सिर काट रहे हैं, तो कहीं पर जिंदा चूजा निगलकर जान दे रहे हैं।
भारत का संविधान सरकारों और नागरिकों से भी यह उम्मीद करता है कि वे वैज्ञानिक सोच, मानवता, और सवाल व सुधार की भावना का विकास करेंगे। संविधान की धारा 51-ए (एच) इस बात को हर नागरिक का दायित्व मानती है। लेकिन बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोग इसके खिलाफ कामकाज करते हैं। देश में एक बहुत बड़ा तबका धर्म की मान्यताओं को विज्ञान से मिली समझ, और संविधान से दिए गए अधिकारों से ऊपर मानता है। इस बारे में विज्ञान के एक प्रोफेसर तेजल कानिटकर ने कुछ बरस पहले एक लेख में लिखा था कि देश के प्रतिष्ठित लोग अपने बयानों और कामों के जरिए संविधान की बातों का उल्लंघन कर रहे हैं, और यह देश के लिए बहुत नुकसानदेह है। अब हालत यह है कि धर्म और अंधविश्वास के बीच की सीमा रेखा खत्म हो चुकी है। धर्म और धर्मान्धता में कोई बड़ा फर्क नहीं रह गया, धर्मन्धता और साम्प्रदायिकता भाई-भाई हो गए हैं, और नफरत को एक धार्मिक काम मान लिया गया है। जब देश के लोगों की न्याय की समझ को इतना कमजोर कर दिया जाता है, विज्ञान के ऊपर अंधविश्वास को स्थापित कर दिया जाता है, तो फिर लोग 15 बरस की मनौती, या मेहनत से पैदा बच्चे के साथ खेलना छोडक़र, उसे प्यार करना छोडक़र, जिंदा चूजा खाकर मनौती पूरी कर रहे हैं, और मर जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतना लोगों में टुकड़े-टुकड़े में नहीं आ पाती, वह या तो आती है, या नहीं आती है। आज हिन्दुस्तान में जिस अंदाज में अंधविश्वास और कट्टरता को बढ़ाया जा रहा है, लोगों के दिमाग में अपने बच्चों को गोद में खिलाने के मुकाबले चूजा निगलकर जान देने में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
हिन्द महासागर के एक छोटे टापू मायोट में सदी का सबसे ताकतवर चक्रवाती तूफान टकराया है। कुल सवा तीन लाख आबादी वाले इस टापू पर फ्रांस का कब्जा है, और अभी वहां सैकड़ों लोगों के मारे जाने की आशंका है। फ्रांस सरकार की ओर से कहा गया है कि मौतों की गिनती हजार तक जा सकती है, और हजारों भी हो सकती है। यहां के एक नागरिक ने टेलीफोन पर बताया है कि वहां तबाही का मंजर किसी परमाणु युद्ध के बाद जैसा लग रहा है, और उसके बगल की पूरी बस्ती ही गायब हो गई है। अफ्रीका के करीब का यह टापू कभी ऐसी तबाही से नहीं गुजरा था। लेकिन हम इसी एक घटना को लेकर कुछ लिखना नहीं चाहते, पूरी दुनिया के लिए मौसम की अधिकतम बुरी मार इतनी जल्दी-जल्दी आ रही है, इतनी नई-नई जगहों पर नए किस्म की मार पड़ रही है कि तबाही का कोई अंदाज लगा पाना मुमकिन ही नहीं है।
हम यहां पर प्राकृतिक विपदाओं की बढ़ती भयावहता की लिस्ट गिनाना नहीं चाहते, उसे बड़ी आसानी से तलाशा जा सकता है। लेकिन मौसम के बदलाव के चलते बहुत सी ऐसी जगहों पर सूखा पड़ रहा है जहां बाढ़ आती थी, और जहां पर बाढ़ आती थी, वहां अब सूखा पड़ रहा है। बारिश के महीने बदल जा रहे हैं, और फसलों को पकने का भी वक्त कहीं-कहीं पर नहीं मिल रहा है। तमाम आशंकाओं से अधिक बर्फ गिर रही है, और कई इलाके बर्फबारी में पट जा रहे हैं, कोई देश बाढ़ से तबाह हो जा रहा है, और अफ्रीकी महाद्वीप के बहुत से देशों में पानी की कमी से ऐसा विस्थापन हो रहा है कि पूरा देश ही शरणार्थी की जिंदगी जी रहा है, और उनमें से बड़ी संख्या में लोग मौत के करीब हैं। इन सबके ऊपर फिक्र की बात यह है कि दुनिया के जिन संपन्न देशों की समान और साधन की खपत के चलते धरती पर मौसम का बदलाव हो रहा है, उनके बीच इस बदलाव को धीमा करने, इसके नुकसान की भरपाई करने, और आगे अपनी जीवनशैली को पर्यावरण के मुताबिक ढालने की कोई इच्छा नहीं है। अब एक खतरनाक घटना और हो गई है, अमरीकी राष्ट्रपति पद के लिए डोनल्ड ट्रंप चुन लिया गया है, और वह महज 25 दिन दूर रह गया है काम संभालने के। लोगों को याद होगा कि पिछली बार जब ट्रंप राष्ट्रपति बना था, तो उसने पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन को धीमा करने की तमाम कोशिशों को दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन फ्रॉड कहा था, और जलवायु-समझौते को छोड़ भी दिया था। अब ट्रंप फिर अमरीका को संभालने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए विनाशकारी बहुत से विकसित, संपन्न, और पश्चिमी देशों की अगुवाई करने जा रहा है, और उसके चार बरस के कार्यकाल में धरती की किसी बेहतरी की उम्मीद करना मुश्किल होगा।
जलवायु परिवर्तन से बहुत से लोग अपने आपको सुरक्षित मानकर चलते हैं क्योंकि उन्हें उनकी संपन्नता की वजह से इस बात का भरोसा है कि धरती पर किसी सहूलियत के आखिरी दौर में भी वे सरकारी खर्च से, या अपनी गोरी या बुरी कमाई से उसे अपने लिए तो जुटा ही लेंगे। इसलिए उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि धरती के ध्रुवों पर बर्फ किस रफ्तार से पिघल रही है, समंदर का पानी कितना ऊंचा जा रहा है, कितने शहर या देश अगले कुछ दशकों में डूबने वाले हैं, कहां पर सूखे की वजह से फसल खत्म होने वाली है, कहां पर बाढ़ की वजह से शहर खत्म हो रहे हैं, और कहां-कहां तूफान तबाही ला रहे हैं। अपनी खुद की सहूलियत की अगले कुछ दशकों की गारंटी लोगों को जिम्मेदार बनने ही नहीं दे रही है, और ऐसे लोग अपने देश के साथ-साथ दुनिया को बचाने के भी जिम्मेदार हैं। ऐसे में दुनिया के कमजोर देश, और उनके कमजोर लोग उम्मीद भी क्या कर सकते हैं? संपन्न का पैदा किया गया प्रदूषण विपन्न पर कहर बनकर टूटे पड़ रहा है, और विपन्न के हाथ उसे झेलने के अलावा और कुछ भी नहीं है।
दुनिया के लोगों को अपनी खपत की हवस को काबू में रखने के लिए कहना आसान इसलिए भी नहीं है कि बाजार इस हवस को कोंच-कोंचकर आगे बढ़ाते चलने में लगे रहता है। और चूंकि दुनिया की बहुत सी सरकारें अब कारोबार के हाथों काबू में हैं, सरकार के लोग कारोबार के पैसों से सत्ता में आते हैं, कारोबार के अघोषित भागीदार रहते हैं, और देश की कमाई के आंकड़ों को अधिक दिखाने में कारोबार काम भी आते हैं, इसलिए सरकारों की नीतियां कारोबार को बढ़ाने की रहती हैं, और इसका मतलब खपत बढ़ाना भी रहता है। कहीं डीजल-पेट्रोल की खपत बढ़ाना, कहीं बिजली, तो कहीं खनिजों से बनने वाले सामान की खपत बढ़ावा। और यह सब कुछ धरती पर कार्बन बढ़ाए बिना, प्रदूषण बढ़ाए बिना मुमकिन नहीं होता, एक जगह की खपत दूसरी जगह के लिए कहर में तब्दील हो जाती है। जिन गरीब देशों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के कोई काम नहीं हैं, वहां भी मौसम की ऐसी बुरी मार पड़ रही है कि क्या पूछें।
दिक्कत यह है कि धरती एक है, उसकी जलवायु मिलीजुली और साझा सामान है, लेकिन जलवायु को बर्बाद करने का हक धरती पर नक्शों की सरहदों में बंटा हुआ है। और सबसे ताकतवर के हाथों सबसे अधिक तबाही हो रही है। ताकतवर देशों में सरकारों को बनाने और बिगाडऩे का काम कारोबार करते हैं, और पर्यावरण उनकी लागत में कहीं जगह नहीं पाता। यह सिलसिला इतना खतरनाक होते चल रहा है कि भारत में सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की आपसी सहमति से जो नदी जोड़ परियोजना चल रही है, उसके बारे में भी एक आशंका खड़ी होती है कि आज जिन इलाकों से अधिक बाढ़ के पानी को देश के जिन सूखे इलाकों की नदियों में ले जाने के लिए देश का सबसे बड़ी लागत का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है, उसका क्या इस्तेमाल रह जाएगा, अगर आज के बाढ़ वाले इलाके कल सूखे हो जाएंगे, और आज के सूखे इलाकों में कल बाढ़ आने लगेगी? मौसम का बदलाव किसी भी भविष्यवाणी से परे हो रहा है, और मौसम विज्ञानी भी तबाही के कुछ दिन पहले ही खतरे की सूचना दे पाते हैं, कई मामलों में महज कुछ घंटे पहले। ऐसे में कुदरत का कोड़ा तो पडऩा ही पडऩा है, संपन्न देश अपनी बीमा व्यवस्था की वजह से, और सरकार की आर्थिक ताकत की वजह से इसके बाद भी जिंदा रह लेंगे, लेकिन गरीब देशों की तो मौत है। दिक्कत यह है कि कहीं चार, और कहीं पांच बरस के लिए चुनी जाने वाली सरकारों के सामने जब अगली आधी-एक सदी की परवाह करने की चुनौती रहती है, तो वह बहुत आकर्षक चुनावी समीकरण नहीं रहती। आम जनता की जागरूकता कोशिश करके कमजोर और नीची रखी जाती है ताकि वह जिंदगी के असल मुद्दों को समझ न ले। और यह भी एक वजह है कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, और मौसम की मार जैसी बातों से अधिकतर दुनिया के तकरीबन तमाम आम लोग नावाकिफ और बेफिक्र रहते हैं। ऐसे में न सिर्फ तूफान से तबाही वाले इलाकों में बिजली चौपट हो जाने से अंधेरा है, बल्कि धरती का भविष्य ही अंधकारमय है। कम से कम नई पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाना जरूरी है, क्योंकि उसके सामने पहाड़ सी बाकी जिंदगी बाकी है, आज के नेताओं, और कारोबारियों की अधेड़ और बूढ़ी हो चली पीढ़ी को तो आधी सदी बाद के खतरे दिखने की कोई गुंजाइश है नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल ने अभी यह फैसला लिया है कि 15 जनवरी से 15 फरवरी तक रायपुर में एक ऑटो एक्सपो लगेगा, और उसमें बिकने वाले तमाम वाहनों को 15 बरस के लिए लगने वाले रजिस्ट्रेशन शुल्क में 50 फीसदी की छूट दी जाएगी। यह आरटीओ टैक्स छोटा नहीं होता है, और प्रदेश में जितनी गाडिय़ां बिकती हैं, उनके मुताबिक इसकी रकम बहुत बड़ी होती है। हमारे सामने आरटीओ के आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 23-24 में नई दुपहिया गाडिय़ों की संख्या साढ़े 4 लाख से अधिक रही, और इनसे सरकार को 365 करोड़ से अधिक आरटीओ टैक्स मिला। इसी दौर में चारपहिया गाडिय़ों की संख्या 60 हजार के करीब रही, और इनसे 629 करोड़ रूपए से अधिक आरटीओ टैक्स मिला। मतलब यह कि दुपहिया संख्या में 8 गुना से अधिक थे, लेकिन उनसे टैक्स चौपहियों के मुकाबले आधे के करीब मिला।
आज हमारा मकसद सरकार की कमाई के आंकड़े गिनाना नहीं है, बल्कि जनता को मिलने वाली रियायत को तर्कसंगत बनाने पर चर्चा है। प्रदेश में अधिकतर दुपहिए एक-दो लाख दाम के भीतर ही रहते हैं, और कारें पांच लाख से लेकर एक-दो करोड़ तक की रहती हैं। अब अगर इन सबको रोड टैक्स में आधी छूट मिल रही है, तो इसका मतलब एक करोड़ की गाड़ी पर भी तीन फीसदी की छूट, और एक लाख की स्कूटर या मोपेड पर भी तीन फीसदी की छूट। जबकि दुपहिया सडक़ों पर कम जगह घेरते हैं, प्रदूषण कम फैलाते हैं, पार्किंग की जगह कम मांगते हैं, और आमतौर पर मध्यम वर्ग और उसके ऊपर-नीचे के लोग ही इसका इस्तेमाल करते हैं। दूसरी तरफ कारों का इस्तेमाल मध्यम वर्ग के ऊपर शुरू होता है, जो कि अतिसंपन्न तबके तक चले जाता है। एक-दो करोड़ की कारों पर मोपेड की अनुपात में ही रियायत न तर्कसंगत है, न न्यायसंगत है। कायदे से तो इन दो किस्मों की गाडिय़ों के लिए ईंधन का दाम भी अलग-अलग होना चाहिए, लेकिन उसे लागू करना आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ रोड टैक्स को लागू करना तो बड़ा ही आसान है। हमारा ख्याल है कि रोड टैक्स को दुपहियों पर अधिक घटाना चाहिए, और महंगी होती जाती कारों पर यह कटौती कम होनी चाहिए। लाख रूपए से लेकर करोड़ रूपए तक के वाहनों पर उनके दाम पर अनुपात में ही छूट मिलनी चाहिए, कम दाम को अधिक छूट, और अधिक दाम को कम। सरकार अपनी सालाना कमाई में जितना भी घाटा झेलने को तैयार है, उसे उस रकम को इसी फॉर्मूले के तहत बांटना चाहिए। अब कोई यह कहे कि कूलर पर जितना टैक्स लगता है, उतना ही टैक्स एसी पर भी लगना चाहिए, तो यह तर्क सही नहीं होगा। राज्य सरकार को गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के दुपहियों को अधिक छूट देनी चाहिए, और एक सीमा के ऊपर की कारों को कोई भी छूट नहीं देनी चाहिए। एक सीमा के बाद कारें सुविधा की नहीं, ऐशोआराम की चीज बन जाती हैं, और किसी रियायत का हक खो बैठती हैं।
छत्तीसगढ़ में हफ्ते भर पहले अग्निवीर भर्ती की दौड़ में हिस्सा ले रहे एक बेरोजगार नौजवान की मौत हो गई थी। उस पर मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की ओर से दस लाख रूपए मुआवजे की घोषणा हुई थी। यह तेजी से शायद इसलिए भी हो पाया था कि राज्य के वित्तमंत्री ओ.पी.चौधरी के विधानसभा क्षेत्र रायगढ़ में यह घटना हुई थी। इसके बाद पिछले पांच-छह दिनों में दो अलग-अलग जगहों पर वनरक्षक भर्ती की शारीरिक परीक्षा के लिए दौड़ते हुए बेरोजगारों में से दो की मौत हुई। मुख्यमंत्री ने इनके लिए भी दस-दस लाख रूपए की राहत घोषित की है। टैक्स देने वाले लोगों को यह रकम बड़ी लग सकती है, लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि अगर एक बेरोजगार शर्तों को पूरा करते हुए एक नौकरी पाने के लिए मुकाबले में शामिल हुआ था, और इसी दौरान उसकी मौत हुई थी, तो उसके परिवार का ऐसे किसी मुआवजे या राहत का हक तो बनता है। और यह बात भी ठीक है कि चाहे देश में चर्चित अग्निवीर के लिए भर्ती हो, या प्रदेश के वनरक्षक के लिए, या प्रदेश में पुलिस भर्ती के लिए हो, अगर मुकाबले के दौरान बेरोजगार के साथ ऐसा हादसा होता है तो सरकार को उसके परिवार को मदद करनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि राज्य को ऐसा एक पैमाना तय कर देना चाहिए कि भर्ती के दौरान ऐसा तकलीफदेह हादसा सामने आने पर बिना किसी अतिरिक्त मंजूरी के सरकार परिवार के साथ खड़ी रहे।
बहुत से नौजवान ऐसे मुकाबलों के लायक शारीरिक रूप से चुस्त नहीं रहते हैं, इतने दौडऩे की आदत नहीं रहती है, और कभी-कभी ऐसी मौतें सुनाई पड़ती हैं। सरकार या सेना, जो भी भर्ती कर रहे हों, उन्हें बहुत लंबी दौड़ करवाने के पहले कुछ छोटी दौड़ करवाकर लोगों की क्षमता बढ़वाने की कोशिश भी करनी चाहिए, ताकि ऐसे हादसे कम हो सकें। जिस तरह कई प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सरकारें कोचिंग और प्रशिक्षण का इंतजाम करती हैं, ऐसे कड़े शारीरिक मुकाबले के लिए भी सरकार को अलग-अलग शहरों में खिलाडिय़ों, या खेल शिक्षकों की अगुवाई में ऐसी तैयारी करवानी चाहिए। कुछ बड़े शहरों में कुछ कोचिंग सेंटर ऐसे शारीरिक इम्तिहानों के लिए नौजवानों को तैयार करवाते दिखते भी हैं, लेकिन जो लोग उनकी फीस न उठा सकें, उनके लिए भी सरकार या खेल संगठनों को क्षमता विकास की कोशिश करनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की विष्णुदेव साय सरकार का पहला बरस कल पार्टी और सरकार ने जनादेश परब के नाम से मनाया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, और पहले पार्टी के छत्तीसगढ़ प्रभारी रह चुके केन्द्रीय मंत्री जे.पी.नड्डा इस मौके पर समारोह में आए, और उन्होंने पिछली कांग्रेस सरकार पर खासे हमले भी किए। और दरअसल सच्चाई भी यही है कि पिछली कांग्रेस सरकार की पृष्ठभूमि में जब मौजूदा भाजपा सरकार को देखा जाता है, तो राज्य के लोकतंत्र के लिए यही एक राहत की पहली बात दिखती है कि अब राज्य शासन के नाम से संविधानेत्तर सत्ता काम नहीं कर रही है, और जो घोषित और निर्वाचित सरकार है, वही सरकार के एक नियमित ढांचे के भीतर काम कर रही है। यह कम राहत की बात नहीं है कि अब सरकार में कोई मनमाने फैसले लिए जाते नहीं दिखते जो कि पिछली कांग्रेस सरकार के पूरे कार्यकाल की एक खास पहचान रही। कुछ लोगों को लग सकता है कि विष्णुदेव साय की सरकार सत्ता के भीतर, और सत्ता के बाहर संगठन या संघ के स्तर पर कई जगह बंटे हुए अधिकारों की सरकार है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि नेहरू के वक्त भी सत्ता और संगठन से बाहर के गांधी अपने कड़े फैसलों, और जिद के साथ सरकार पर हावी रहते थे, और सरकार उनके अनकहे दबाव में भी फैसले लेती थी। नेहरू बहुत विचलित होते थे, लेकिन गांधी के सामने बेबस थे। बाद की कई सरकारों में भी सरकार से परे सत्ता के केन्द्र रहते थे। लोगों को याद होगा कि इंदिरा के राजनीतिक जीवन में संजय गांधी संगठन और सरकार पर किस हद तक हावी रहते थे, और एक दुर्घटना में उनकी अकाल-मौत की वजह से उनके एक बेहतर भाई, राजीव गांधी को मौका मिला, या उन्हें मजबूरी में राजनीति में आना पड़ा, और संजय गांधी का बदनाम युग खत्म हुआ। लोगों को याद होगा कि जब-जब देश-प्रदेश में भाजपा की सरकारें रहीं, संघ का उन पर एक बड़ा वैचारिक दबाव रहा, और यह बात पूरी तरह से लुकी-छिपी भी नहीं रही। मनमोहन सिंह के दस बरस के कार्यकाल में सोनिया गांधी की अगुवाई में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनी थी, जिसका एक सरकारी दर्जा भी था, और इसमें तमाम गैरराजनीतिक सदस्य थे जो कि जनसंगठनों से, या जनसरोकारों से आए हुए थे, और सरकार के बहुत से फैसले इसी परिषद के लिए हुए थे। हम मनमोहन सिंह सरकार का वह एक दिन देखें जब दिल्ली प्रेस क्लब में राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह कैबिनेट के मंजूर किए गए एक विधेयक के मसौदे को फाडक़र फेंक दिया था, और उनका यह फैसला कैबिनेट को मानना पड़ा था। इसलिए आज अगर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार में अलग-अलग मंत्रियों की कुछ मजबूती दिखती है, अगर भाजपा-संगठन या संघ परिवार की पकड़ दिखती है, तो यह किसी मजबूरी में सत्ता का बंटवारा नहीं है, किसी भी जिम्मेदार संगठन को अपनी सरकार के अलग-अलग स्तरों पर अपनी पकड़ या दखल रखनी चाहिए। इसलिए विष्णुदेव साय सरकार के बारे में यह धारणा निराधार है कि इसमें सत्ता के बहुत से केन्द्र हैं। सच तो यह है कि पार्टी ने बिना मुनादी किए हुए कुछ कड़े फैसले लिए, और मुख्यमंत्री साय की स्थिति को अधिक मजबूत करके सबको एक संदेश दिया। मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के बारे में जब यह लगने लगा कि वे मुख्यमंत्री के समानांतर एक प्रभामंडल बना रहे हैं, तो पार्टी ने उन्हें राज्य की राजनीति से अलग करके सांसद बना दिया, और गृहमंत्री विजय शर्मा जिस तरह नक्सल मोर्चे को अपना विभागीय मामला मानकर नीतियां तय कर रहे थे, घोषणाएं कर रहे थे, उन्हें किसी अदृश्य ताकत ने बंद कर दिया। इन दो बातों से दूसरे लोगों तक यह साफ संदेश चले गया कि पार्टी विष्णुदेव साय के मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारों के साथ किसी दूसरे मंत्री या नेता की दखल नहीं चाहती। यह एक अलग बात है कि किसी भी जिम्मेदार पार्टी को अपनी सरकार के राजनीतिक फैसलों और कामकाज पर नजर भी रखनी चाहिए, और उसे मार्गदर्शन भी देते रहना चाहिए। इसलिए हम सरकार पर संगठन की पकड़ को संविधानेत्तर नहीं मानते, अगर वह कामकाज में सीधी दखल नहीं है, और निर्वाचित-सत्तारूढ़ नेताओं के माध्यम से पार्टी की रीति-नीति में अमल करवाना है। इसी बात की कमी ने पिछले कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को तबाह किया, और उन्हें एक तानाशाह मिजाज पाने का मौका दिया। कोई भी जिम्मेदार पार्टी होती, तो वह कांग्रेस सरकार की भयानक गलतियों, गलत कामों, और अपराधों को बर्दाश्त नहीं करती। लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन के कमजोर हो जाने, और गिने-चुने राज्यों में सरकार रह जाने का नतीजा यह था कि कांग्रेस एक किस्म से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के पास गिरवी रख दी गई थी, और भाजपा ऐसे किसी भी दबाव से मुक्त है।
अब हम साय सरकार के पहले बरस के प्रदर्शन को देखें, तो विधानसभा चुनाव में पार्टी जिन चुनावी वायदों के साथ सत्ता में आई थी, उनमें से अधिकतर प्रमुख वायदों पर अमल हो चुका है। बड़े-बड़े आर्थिक कार्यक्रम ठीक से चल रहे हैं। चूंकि छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार बनने के बाद साल भर में लोकसभा और म्युनिसिपल-पंचायत चुनाव होते हैं, इसलिए सरकार का यह पहला साल किसी ठोस काम को करने का नहीं रहता है, बल्कि चुनावी वायदों पर अमल करने का रहता है ताकि सत्ता पर आने के बाद अगले ये दो चुनाव हारने की नौबत न आ जाए। जब खजाने से किसी बड़े काम को करने के बजाय लोगों को सीधा फायदा पहुंचाने वाले रियायत और अनुदान के आर्थिक कार्यक्रम लागू किए जाएं, तो इनकी वजह से लोकप्रियता और वाहवाही मिलना आसान भी रहता है। अब पंचायत-म्युनिसिपल चुनावों के बाद इस सरकार की असली और कड़ी चुनौतियां सामने आएंगी कि राज्य के दीर्घकालीन हितों के लिए क्या किया जा सकता है? राज्य के औद्योगिक विकास, ढांचागत विस्तार, जीडीपी में बढ़ोत्तरी, बेरोजगारी में कमी, और राज्य की नौजवान पीढ़ी की हुनर में इजाफा, इन मोर्चों पर सरकार की सफलता या विफलता पहले बरस में सामने नहीं आती है, इसलिए आने वाले बरस इसका सुबूत बनेंगे। फिलहाल यह पहला बरस भ्रष्टाचार के किसी स्कैंडल के बिना गुजरा है, जो कि पिछले पांच बरस की तुलना में कोई छोटी कामयाबी नहीं है।
सरकार ने अपना जो रिपोर्ट कार्ड पेश किया है, उसकी कुछ बातों की चर्चा करें, तो कांग्रेस के पांच बरसों में कुल जितने नक्सली मारे गए थे, उससे अधिक नक्सली इस एक बरस में भाजपा सरकार के राज में उन्हीं सुरक्षाबलों ने मारे हैं। यह हैरानी की बात है कि कांग्रेस राज में 2023 में कुल 20 नक्सली मारे गए थे, और 2024 में भाजपा राज में इसके दस गुना से अधिक! चूंकि हथियारबंद आंदोलनों को खत्म करना सरकार की जिम्मेदारी है इसलिए यह एक बड़ा काम हुआ है, लेकिन सरकार के पहले दिन से गृहमंत्री विजय शर्मा नक्सलियों से शांतिवार्ता की बात करते आ रहे थे, और सरकार अब तक किसी शांतिवार्ता की जमीन तैयार नहीं कर पाई है। सुरक्षाबलों की इतनी बड़ी तैनाती की बहुत बड़ी लागत रहती है, इसलिए भी, और बेकसूर आदिवासियों की मौतें रोकने के लिए भी शांतिवार्ता की जरूरत है। सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए। पिछली सरकार के समय प्रधानमंत्री आवास योजना में इतने अड़ंगे लगे थे कि चुनाव हो गए, और लाखों मकान बनना रह गए थे। इस बार केन्द्र से कोई टकराव न होने से डबल इंजन की सरकार के चलते 18 लाख से अधिक प्रधानमंत्री आवास बनने जा रहे हैं जो कि 70 लाख से अधिक नागरिकों की बसाहट बनेंगे। लोगों को याद होगा कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मोदी सरकार से टकराव के चलते ये मकान न बनने पर इसी के विरोध में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री टी.एस.सिंहदेव ने यह विभाग छोड़ दिया था।
हम यहां पर एक-एक कार्यक्रम और उपलब्धि के आंकड़ों पर चर्चा करना नहीं चाहते, लेकिन हम मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय सरकार के एक बरस की चर्चा को पिछली सरकार से कुछ बातों पर तुलना किए बिना पूरा नहीं कर पा रहे हैं, और आज की इस कॉलम की जगह इसी में खत्म हो गई। बाकी फिर कभी।
देश में मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर ढूंढने के सिलसिले पर सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल रोक लगा दी है। 1991 के उपासना स्थल अधिनियम की वैधता को दी गई चुनौती पर देश की सबसे बड़ी अदालत में सुनवाई चल रही है, और कल उसी दौरान मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली तीन जजों की विशेष बेंच ने यह आदेश दिया कि देश भर में धर्मस्थलों या तीर्थस्थलों के बारे में किसी अदालत में कोई नया मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा। अदालत ने यह भी आदेश दिया कि अलग-अलग अदालतों में जो मामले पहले से चल रहे हैं उनमें भी सर्वेक्षण या कोई आदेश पारित नहीं किया जाएगा। और यह रोक तब तक लागू रहेगी जब तक सुप्रीम कोर्ट इस मौजूदा मामले की सुनवाई का निपटारा नहीं कर देता। यहां यह समझने की जरूरत है कि राम मंदिर आंदोलन के दौर में नरसिंह राव सरकार ने 1991 में उपासना स्थल कानून बनाया था जिसके मुताबिक देश के सभी धर्मस्थल 15 अगस्त 1947 की धार्मिक मान्यता की स्थिति में रखे गए थे, और सिर्फ अयोध्या के राम मंदिर को इससे बाहर किया गया था। अब देश भर में जगह-जगह मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर होने का दावा करते हुए हिन्दू संगठन अदालतों में जा रहे हैं, और अदालतों ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को कुछ जगहों के सर्वे के आदेश भी दिए हैं। ऐसे ही सर्वे के दौरान उत्तरप्रदेश के संभल में जब जयश्रीराम के नारे लगाते लोग सर्वे टीम के साथ एक मस्जिद में घुसे, तो उसके बाद हुए तनाव और हिंसा में कुछ मौतें भी हुई थीं। इसलिए अब जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी तमाम अदालती कार्रवाईयों पर रोक लगाई है, तो हिन्दू संगठनों की तरफ से इस पर आपत्ति की गई, और अदालत ने यह साफ किया कि क्या वे यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट जिस मुद्दे पर सुनवाई कर रहा है, जिला अदालतें उस पर आदेश देती रहें?
सुप्रीम कोर्ट ने एकदम सही आदेश दिया है, और हम भी अपने अखबार में लगातार यही लिखते आए हैं, और यूट्यूब चैनल पर भी हमने इसी बात की वकालत की थी कि ऐसी खुदाई तो हिन्दू धर्मस्थलों के नीचे भी बौद्ध या जैन धर्मस्थल निकाल देगी, और भारत का मौजूदा लोकतंत्र पाषाण युग के चकमक पत्थर तक चले जाएगा, जिन्हें रगडक़र गुफा मानव आग जलाते थे। हैरानी की बात यह है कि जिन हिन्दू संगठनों के लोग देश भर में जगह-जगह हर मस्जिद और दरगाह के पीछे लग गए हैं, उन्हीं हिन्दू संगठनों में सबसे प्रमुख, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत कुछ अरसा पहले बोल चुके हैं कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने की जरूरत नहीं है। भला दुनिया का कौन सा ऐसा देश हो सकता है जो अपनी आबादी के करीब 15 फीसदी लोगों (2011 की जनगणना के मुताबिक 17.22 करोड़ मुस्लिम) लोगों के साथ एक अंतहीन टकराव चलाते ही रहे। देश में हिन्दू आबादी मुस्लिमों से पांच गुना से जरा अधिक है, ऐसे में उसे असुरक्षित मानने का मतलब देश-प्रदेश की सरकारों पर अविश्वास करना है, एक तरफ तो कहा जाता है कि देश बहुत मजबूत हाथों में है, और फिर कहा जाता है कि हिन्दू खतरे में हैं। तो इस विरोधाभासी बयानबाजी की नीयत को समझने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने देश की कई छोटी अदालतों की धर्मनिरपेक्षता की संदिग्ध समझ पर फिलहाल जो रोक लगाई है, और 1991 के कानून की व्याख्या शुरू की है, वह आज के मौजूदा, और सायास खड़े किए गए तनाव को रोकने की बात है। यह जरूरी इसलिए भी है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज का ताजा बयान अभी सामने है जिसमें उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के मंच और माईक से खुलकर यह कहा है कि भारत बहुसंख्यकों का देश है, और उन्हीं के हिसाब से चलेगा। उन्होंने मुस्लिमों के लिए नफरती गाली-गलौज का इस्तेमाल भी किया है, और हो सकता है कि राज्यसभा में उनके खिलाफ एक महाभियोग आ भी जाए। जब देश में हाईकोर्ट जज की बुनियादी समझ में इतनी खोट घुस गई है, तो सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी को समझना ही होगा।
अब हम इससे बिल्कुल ही अलग एक मुद्दे पर आना चाहते हैं। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इन्द्र मीत गिल ने भारतीय उद्योग संगठन सीआईआई के एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें उनका कहना है कि भारत एक तरफ तो 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में खड़े होने का दावा कर रहा है, लेकिन उसकी प्रति व्यक्ति आय इतनी कम है कि उसे अमरीका की आज की अर्थव्यवस्था का एक चौथाई बनने में ही 75 साल लग जाएंगे। उसने कहा है कि भारत में कुशलता और क्षमता की कमजोरी देश को विकसित बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। उन्होंने कहा कि दुनिया में कम आय वाले देशों के लिए आर्थिक प्रगति लगातार चुनौतीपूर्ण होती जा रही है, कारोबार के संरक्षण पर विकसित देशों का रूख कड़ा होता जा रहा है, ब्याज दर ज्यादा है, और प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती चली जा रही है। ऐसे में भारत आज कम-मध्यम आय वाले देशों में बना हुआ है। विश्व बैंक की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में प्रति व्यक्ति आय 37 हजार 683 डॉलर है, जबकि उसी वर्ष भारत में यह आय 2393 डॉलर थी। अगर भारत में बड़े सुधार नहीं किए गए तो अमरीकी आय का एक चौथाई पाने में भी भारत को 75 साल लगेंगे। उन्होंने कहा है कि जिस तरह अमरीका ने 60-70 के दशक में सभी को बराबरी का अवसर दिया, भारत को वैसा ही करना पड़ेगा।
अब हम यह देखकर हैरान होते हैं कि जिन पार्टियों पर देश और इसके प्रदेशों को चलाने की जिम्मेदारी है, उनका, और उनके लोगों का कितना बड़ा ध्यान धार्मिक और पुरातात्विक विवादों को खड़ा करने में लगा हुआ है। देश की 15 फीसदी आबादी को लगातार तनाव, हीनभावना, असुरक्षा, और भड़ास से भरकर रखने से किसी अर्थव्यवस्था का क्या भला हो सकता है? इससे यह जरूर हो सकता है कि जिन नौजवानों के पास रोजगार नहीं है, उन्हें एक झूठे धार्मिक गौरव में डुबा दिया जाए, उन्हें अपना दिन गुजारने के लिए नफरत का ईंधन दे दिया जाए, और उम्मीद की जाए कि वे एक झूठे स्वाभिमान में जीते हुए इतिहास में डूबे रहें, और वर्तमान और भविष्य की चर्चा न करें। लेकिन क्या इससे भारत दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, एक महाशक्ति, और विश्वगुरू बन जाएगा? अपने की तख्ती पर नाम के सामने विश्वगुरू लिखाकर कोई भी व्यक्ति अपने घर के सामने टांग सकते हैं, उस पर कोई कानूनी रोक नहीं है। रजनीश कभी अपने को आचार्य लिखते रहे, फिर भगवान लिखते रहे, और फिर ओशो हो गए। उसी तरह हिन्दुस्तान की आबादी को इस झूठे आत्मगौरव में रखा जा सकता है कि वह विश्वगुरू है। ऐसा करने पर वर्तमान और भविष्य को लेकर उसके मन में सवाल उठ नहीं पाएंगे, और वह महज इतिहास में डूबा रहेगा। जो लोग सडक़ पर किसी भी तरह की गाड़ी चलाते हैं, वे जानते हैं कि पीछे का दिखाने वाले शीशे, बैक व्यू मिरर में देखते हुए आगे का सफर नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल इस मामले में पर अपने फैसले तक देश के जजों पर बैक व्यू मिरर ड्राइविंग पर रोक लगा दी है, जो कि समझदारी का काम है, और देश के संविधान के मुताबिक इसे किया ही जाना चाहिए था। पिछले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चन्द्रचूड़ को 1991 के कानून के बारे में दो बरस पहले एक टिप्पणी कर दी थी, और उसी को मिसाल मानकर देश भर में नीचे की अदालतों ने यह मान लिया था कि अब उपासना स्थल कानून को मानने की जरूरत नहीं है। हमें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस लोकतंत्र को खुदाईतंत्र में बदलने से रोक सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
धरती पर जब भूकम्प आता है तो उसके पीछे धरती के नीचे की टेक्टॉनिक प्लेट खिसकने की वजह रहती है। धरती की ऊपर की सतह बहुत मोटी नहीं रहती, और उसके नीचे ये प्लेट्स किसी पहेली के टुकड़ों की तरह एक-दूसरे पर टिकी रहती हैं, लेकिन वो बीच-बीच में खिसकती भी हैं, और उनकी वजह से भूकम्प आते हैं। ये प्लेट्स अरबों-खरबों बरस से खिसक रही हैं, लेकिन वे जितनी अधिक खिसकती हैं, भूकम्प उतना ही अधिक तगड़ा होता है। कभी-कभी प्लेट्स ऐसी खिसकने की वजह से आए भूकम्प से समंदर में हलचल होती है तो वह सुनामी तक पहुंच सकती है। लेकिन अभी हम भू-गर्भ शास्त्र पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, बल्कि मध्य-पूर्व के देशों में आए भूकम्प पर चर्चा करना चाहते हैं। सीरिया का मामला इतना जटिल है कि उस पर चर्चा शुरू करते समय हमें यह आशंका है कि इसके तमाम पहलुओं को आज इस जगह शायद छू पाना मुमकिन नहीं होगा।
गृहयुद्ध से गुजर रहे सीरिया के घरेलू पहलू भी किसी हीरे की अलग-अलग फलकों की तरह अनगिनत हैं। आधी सदी से वहां एक ही परिवार की तानाशाही चली आ रही थी, और पिछले करीब डेढ़ दशक से वहां हथियारबंद विद्रोह करने वाले कई अलग-अलग समूह अलग-अलग इलाकों में काम कर रहे थे। इसके साथ-साथ पड़ोस के अलग-अलग देश भी सीरिया में या तो वहां की सरकार को बढ़ावा दे रहे थे, या किसी हथियारबंद समूह को। इसके साथ-साथ सीरिया उन इस्लामिक आतंकियों का अड्डा भी बन रहा था जिन्हें 11 सितंबर के बाद से अमरीका मारने पर उतारू था। चूंकि अमरीका सीरिया में आतंकी ठिकानों के नाम पर कई तरह के हवाई हमले कर रहा था, इसलिए रूस सीरिया की सरकार के साथ था। और पड़ोस का ईरान इसलिए सीरिया के साथ था कि इजराइल को परेशान करने के लिए लेबनान में बसे हुए एक और हथियारबंद संगठन हिजबुल्ला को फौजी रसद भेजने के लिए सीरिया जरूरी था। इस तरह सीरिया एक ऐसा मंच बना हुआ था जिस पर कई अलग-अलग देशों के किरदार अपनी-अपनी हरकतें और करतब दिखा रहे थे। ऐसे में वहां के एक सबसे बड़े हथियारबंद विद्रोही संगठन ने पिछले कुछ महीनों में अपनी पकड़ अधिक मजबूत कर ली जब यूक्रेन में जंग छेड़े हुए रूस ने सीरिया से अपनी फौजें वापिस बुला लीं। दूसरी तरफ अमरीका और उसके कई पश्चिमी साथी देश सीरिया की सरकार के खिलाफ फौजी हवाई हमलों को जारी रखे हुए थे। ऐसे में एचटीएस नाम के इस विद्रोही संगठन ने फिलहाल राजधानी दमिश्क से राष्ट्रपति असद को खदेड़ दिया, वे भागकर रूस में शरण ले चुके हैं, और एचटीएस का मुखिया मोहम्मद अल जुलानी आज सीरिया का अघोषित मुखिया बन गया है जिसे असद के प्रधानमंत्री रहे सत्तारूढ़ नेता ने सत्ता का हस्तांतरण कर लिया है। दिलचस्प बात यह है कि अमरीका और उसके साथी देश राष्ट्रपति असद के खिलाफ थे क्योंकि वे ईरान और रूस के दोस्त थे। और अब सीरिया पर काबिज जुलानी के सिर पर अमरीका ने एक करोड़ डॉलर का ईनाम रखा हुआ है, उसका जाने क्या होगा। कुछ लोगों का मानना है कि यह मध्य-पूर्व में अमरीका की दखल की समाप्ति सरीखी है। सीरिया के बगल के इजराइल का मानना है कि सीरिया में आज जो इस्लामिक विद्रोही काबिज हुए उनके हाथ अगर असद की सरकार के हथियार लग जाते हैं, तो वह इजराइल के लिए फौजी खतरा हो सकता है, इसलिए उसने अभी एक हफ्ते में पांच सौ से अधिक हवाई हमले करके सीरिया की नौसेना को खत्म कर दिया, सीरिया के बाकी फौजी ठिकानों के चिथड़े उड़ा दिए।
अब लगे हाथों यह भी समझ लेना जरूरी है कि फिलीस्तीन के गाजा पर मनमाने हमलों से इजराइल ने 45 हजार लोगों को तो मार ही डाला, वहां के हथियारबंद संगठन हमास की भी कमर तोड़ दी है, जिसे ईरान से मदद मिलने की बात कही जाती है। इसके साथ-साथ लेबनान के हथियारबंद संगठन हिजबुल्ला पर हवाई हमलों से इजराइल ने उसकी सारी लीडरशिप खत्म कर दी, और अब इन दोनों के बीच एक युद्धविराम स्थापित हुआ है। इस बीच इजराइल ने ईरान पर बड़े हमले किए, और यह जाहिर है कि ईरान कोई जवाबी कार्रवाई नहीं कर पाया है। कुल मिलाकर पिछले दो-चार हफ्तों के भीतर ही मध्य-पूर्व का शक्ति संतुलन पूरी तरह से इजराइल के पक्ष में हो गया है, और उसके सारे विरोधी बुरी शिकस्त पाकर बैठे हैं। रूस की मौजूदगी यूक्रेन मोर्चे की वजह से इस इलाके से खत्म हो गई है, और ईरान अब तक सीरिया में राष्ट्रपति असद के साथ था, इसलिए रातों-रात इस्लामी विद्रोहियों से उसका भाईचारा होना भी आसान नहीं दिख रहा है। एक दिलचस्प उत्सुकता यह भी हवा में है कि क्या इजराइल सीरिया के आज के शासक बन रहे एचटीएस-विद्रोहियों के साथ संपर्क या संबंध रखकर ईरान के खिलाफ अपनी स्थिति और मजबूत करना चाहेगा? लेकिन ऐसी ही उत्सुकता आसपास के कई देशों के साथ है कि वे सीरिया के साथ अपनी कैसी नीति रखेंगे। और सबसे बड़ी उत्सुकता तो यह है कि खुद सीरिया की नई एचटीएस सरकार की नीतियां क्या होंगी? अफगानिस्तान के तालिबान के महिला विरोधी रूख से परे सीरिया के एचटीएस के विद्रोही नेता अपने आपको उदारवादी दिखा तो रहे हैं, और उन्होंने साफ-साफ कहा है कि महिलाओं के लिए वे किसी तरह की पोशाक लादने नहीं जा रहे हैं, साथ ही यह भी कहा है कि वे देश में हर तबके को साथ लेकर चलेंगे, और उनकी सरकार जनता की प्रतिनिधि सरकार रहेगी। लेकिन लोगों को अभी तालिबान का तजुर्बा भूला नहीं है जिन्होंने तीन बरस पहले अफगानिस्तान में अमरीका के छोडक़र भाग जाने के बाद कई तरह की उदार बातें कही थीं, और वे पहले से भी अधिक कट्टर सरकार चला रहे हैं। आने वाला वक्त यह भी बताएगा कि तालिबान सीरिया के एचटीएस को कुछ सिखाएगा, या उससे कुछ सीखेगा।
देश-विदेश की नीतियों से परे एक बड़ा मुद्दा सीरिया में यह है कि वहां पिछले बरसों के गृह युद्ध के चलते करीब सवा करोड़ लोग बेदखल हुए हैं जो कि देश के दूसरे हिस्सों में, पड़ोसी देशों में, और दूर-दूर के देशों में पड़े हैं। नब्बे फीसदी से अधिक सीरियाई लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। पूरा देश भारी बेरोजगारी, महंगाई, और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। सडक़, पुल, स्कूल, अस्पताल तबाह हो चुके हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत खराब हालत में और बंद सरीखी हैं। सीरिया दुनिया के दस सबसे भुखमरी से शिकार देशों में से एक है। देश में महिलाओं और ट्रांसजेंडरों पर अनगिनत हमले होते हैं, और बच्चों के जुल्म के मामले में सीरिया सबसे भयानक देशों में से एक है। और ऐसी हालत में इस देश की लीडरशिप कल तक के ऐसे विद्रोहियों के हाथ में है जिन्हें सरकार का कोई तर्जुबा नहीं है। साथ-साथ ऐसी नई सरकार के प्रति संयुक्त राष्ट्र और बाकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों का रूख इसकी अपनी नीतियों से तय होगा, और तब तक इसके हाथ में जिंदा रहने लायक भी कुछ नहीं है। अफगानिस्तान में तालिबान की नीतियों की वजह से अंतरराष्ट्रीय रूख सबका देखा हुआ है।
मध्य-पूर्व की धरती के नीचे तो नहीं, धरती के ऊपर ही टेक्टॉनिक प्लेट्स इस रफ्तार से खिसकी हैं, और खिसकना जारी है कि अभी किसी को समझ नहीं पड़ रहा है कि सीरिया किन देशों से कैसे रिश्ते रखेगा, और कौन से देश सीरिया से कैसे रिश्ते रखेंगे। इसके साथ-साथ यह भी साफ नहीं है कि सीरिया के भीतर पड़ोस के अलग-अलग देशों के समर्थन से चलने वाले अलग-अलग विद्रोही समूहों का अब क्या होगा? इस भूकम्प के थम जाने के बाद समझ आएगा कि मध्य-पूर्व को लेकर रूस, अमरीका, और इस इलाके के देशों में से कौन कहां खड़े हैं।
विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों का एक कार्यक्रम अदालत के परिसर में ही हुआ, और उसमें हाईकोर्ट के दो मौजूदा जज भी शामिल हुए। एक जज तो सिर्फ कार्यक्रम का उद्घाटन करके चुप रह गए, उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन जस्टिस शेखर यादव ने वहां भारत में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बारे में जो कहा, उसके बारे में उन्होंने खुद ही यह भी कहा कि मीडिया को इसमें से जो छापना रहे छाप ले, और अब उनके भाषण के वीडियो सार्वजनिक होने के बाद सुप्रीम कोर्ट तक सनसनी फैली हुई है। एक संगठन, द कैम्पेन फॉर ज्युडिशियल अकाऊंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठी लिखकर एक हाईकोर्ट जज के भयानक बयान की जांच करने कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेसनोट में यह कहा है कि उसने जस्टिस शेखर यादव के भाषण का संज्ञान लिया है, और इस पर जानकारी मांगी है।
इस पर आगे चर्चा के पहले यह जान लेना जरूरी है कि जस्टिस शेखर यादव ने आखिर कहा क्या है। उन्होंने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर कहा कि हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। एक से ज्यादा पत्नी रखने, तीन तलाक, और हलाला के लिए कोई बहाना नहीं है, और अब ये प्रथाएं नहीं चलेंगीं। उन्होंने कहा कि भारत में जिस नारी को हमारे यहां देवी का दर्जा दिया जाता है, उसके बारे में आप नहीं कह सकते कि आपके यहां चार पत्नियां रखने का अधिकार है, आपके हलाला का अधिकार है, ये सब नहीं चलने वाला है। उन्होंने कहा कि उन्हें यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि ये हिन्दुस्तान है, और यहां के बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा, यही कानून है। कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है, परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिए, जहां पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं उसी को माना जाता है। उन्होंने कहा कि कठमुल्ले देश के लिए घातक हैं। उन्होंने कहा कि यह शब्द गलत है लेकिन उन्हें यह कहने में कोई गुरेज नहीं हैं, क्योंकि वो देश के लिए घातक हैं, जनता को बहकाने वाले लोग हैं, देश आगे न बढ़े इस प्रकार के लोग हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
देश के बहुत से लोगों ने हाईकोर्ट के एक मौजूदा जज के ऐसे बयान पर गंभीर आपत्ति की है, और उन्हें बर्खास्त करने की मांग की है। अलग-अलग बहुत सी पार्टियों के लोगों ने जस्टिस शेखर यादव के विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में जाने, और वहां भाषण देने को न्यायपालिका की संवैधानिक निष्पक्षता के खिलाफ करार दिया है। एक प्रमुख मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने 1997 के एक कानून, न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनस्र्थापन, का हवाला देते हुए कहा है कि उसके मुताबिक कोई जज ऐसी सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होगा जो अदालत में लंबित मामलों पर है, या जिनके अदालत में आने की संभावना है। कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि जस्टिस शेखर यादव इसके पहले भी धर्मान्धता की बातें अदालत में कह चुके हैं, उन्होंने एक मामले में कहा था कि गाय की सुरक्षा को हिन्दू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए, और गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि गाय एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन छोड़ती है।
इस देश में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हमेशा ही धार्मिक मामलों को लेकर कोई न कोई केस चलते ही रहते हंै। ऐसे में जाहिर तौर पर साम्प्रदायिक बात करने वाली विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम का हाईकोर्ट परिसर में होना भी भयानक है, और जजों का उसमें जाना भी। फिर इससे भी भयानक यह है कि एक जज ने उसमें घोर साम्प्रदायिकता की बातें कहीं, और मुस्लिमों के लिए नफरत की जुबान का इस्तेमाल किया। सीजेएआर ने मुख्य न्यायाधीश को लिखी चिट्ठी में इस जज के बारे में जो लिखा है वह गौर करने लायक है कि इनका भाषण संविधान की धारा 14, 21, 25, और 26 के खिलाफ है, और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत को खत्म करता है। इससे जनता के बीच न्यायपालिका की निष्पक्षता की छवि खत्म होती है। और यह भाषण एक जज की संविधान की शपथ के भी ठीक खिलाफ है। इस चिट्ठी में लिखा गया है कि जस्टिस यादव ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अक्षम्य भाषा का इस्तेमाल किया है, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज की कुर्सी को शर्मिंदा किया है। इस जज ने मुस्लिम समुदाय के बच्चों के बारे में खतरनाक और खराब टिप्पणी की है। इस संगठन ने लिखा है कि इससे उनके जज बनने की काबिलीयत पर गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं, खासकर एक संवैधानिक कोर्ट (हाईकोर्ट का जज बनने के लिए) मुख्य न्यायाधीश से मांग की गई है कि जब तक इस मामले की जांच न हो जाए, तब तक जस्टिस यादव को सभी मामलों की सुनवाई से अलग कर दिया जाए।
चूंकि अदालती कामकाज से जुड़े हुए एक प्रमुख संगठन ने ही इन मुद्दों को उठाया है, इसलिए हमें इनसे सहमत होते हुए इन्हें दुहराने की जरूरत नहीं है। देश में आज बहुत से जज अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग फैसलों में, या सुनवाई के दौरान जुबानी जमा-खर्च में ऐसी साम्प्रदायिक बातें करते हैं। दिक्कत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी हाईकोर्ट जज की साम्प्रदायिकता के खिलाफ कार्रवाई की कोई मिसाल पेश नहीं की है। अगर हाईकोर्ट के किसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलटा भी है, तो भी किसी जज के खिलाफ कार्रवाई की कोई सिफारिश याद नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज को हटाना एक नामुमकिन सा काम है क्योंकि उसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई के बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करना होगा, और फिर संसद राष्ट्रपति से ऐसे जज को हटाने का अनुरोध करेगा। अब सवाल यह उठता है कि जब लोकसभा में सत्तारूढ़ भाजपा का सांसद बसपा के एक मुस्लिम विधायक को साम्प्रदायिक गालियां देता है, आतंकवादी और दलाल कहता है, और उस पर उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता वहीं बैठे हँसते रहते हैं, तो फिर ऐसी संसद में एक साम्प्रदायिक जज के खिलाफ महाभियोग की क्या गुंजाइश रह जाती है? लोकसभा के इस भाषण पर कश्मीर के उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत आज इस तरह मुख्यधारा में आ गई है जैसी पहले कभी नहीं थी। उन्होंने लिखा कि इस सांसद की जुबान से एक मुस्लिम सांसद के खिलाफ किस आसानी से गालियां निकल रही हैं।
हमारी नजर में यह मामला बिल्कुल साफ है। अगर इस देश में लोकतंत्र है, और सुप्रीम कोर्ट को अपने आपको अदालत मानने की जरूरत है, तो जस्टिस यादव को तुरंत ही बर्खास्त किया जाना चाहिए। इसकी महाभियोग से परे क्या तरकीब हो सकती है? और अगर बर्खास्तगी मुमकिन न हो, तो क्या सुप्रीम कोर्ट किसी जज को सारे काम से अलग कर सकता है? इस बारे में सोचना चाहिए। फिलहाल देश के जनसंगठन इस मुद्दे को लेकर संसद से भी खुली अपील कर सकते हैं, और अदालत में भी एक जनहित याचिका लगा सकते हैं। इस तरह के बढ़ते हुए मामले एक असाधारण कार्रवाई की जरूरत बताते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस बात हैरानी और फिक्र जाहिर की है कि केन्द्र सरकार की तरफ से देश की 81 करोड़ जनता को मुफ्त राशन कब तक दिया जाता रहेगा? अदालत कोरोना-लॉकडाउन के दौर में प्रवासी मजदूरों की हालत को लेकर खुद ही शुरू किए गए एक मामले की सुनवाई के दौरान देश के एक प्रमुख और चर्चित वकील प्रशांत भूषण के तर्क सुन रही थी, और जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन ने यह सवाल उठाते हुए कहा कि मुफ्त कब तक दिया जा सकता है? इन प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार की संभावनाएं, नौकरियां, और उनकी क्षमता बढ़ाने का काम क्यों नहीं किया जाता। अदालत ने कहा कि 81 करोड़ को मुफ्त राशन का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ करदाताओं को छोड़ दिया गया है, और उनके टैक्स के पैसों से यह किया जा रहा है। एक एनजीओ की तरफ से खड़े हुए प्रशांत भूषण ने इसे जारी रखने की वकालत की, और कहा कि प्रवासी मजदूरों को ई-श्रम पोर्टल पर दर्ज होने के बाद वे जहां रहें वहां राशन मिलना चाहिए। केन्द्र सरकार के वकील और प्रशांत भूषण के बीच इसे लेकर नोंकझोंक होती रही, और केन्द्र के वकील ने कहा कि प्रशांत भूषण सरकार की छवि खराब करने में लगे हैं।
हम इस अदालती मामले को लेकर और अधिक चर्चा करना नहीं चाहते, लेकिन दो और खबरों को इससे जोडक़र एक तस्वीर बताना चाहते हैं। आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने इसी पखवाड़े यह कहा है कि जोड़ों को कम से कम तीन बच्चे पैदा करना चाहिए क्योंकि अभी जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 से नीचे जा रही है, और इस दर पर आबादी घटती चली जाती है। आज की जनसंख्या नीति 25 बरस पहले की है, लेकिन अब समाज को जीवित रखने के लिए तीन बच्चे पैदा करने की जरूरत है। एक दूसरी खबर एक लेख की शक्ल में सामने आई है जो पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मुखिया पूनम मटरेजा ने लिखा है। उन्होंने इस सोच को ही गलत बताया कि 2.1 प्रतिशत से कम प्रजनन वाले समाज धरती से गायब हो सकता है। दरअसल भागवत की बात भारत में मुस्लिमों की हिन्दुओं से अधिक जनसंख्या वृद्धि दर होने से उपजी हुई है, और अक्सर ही हिन्दुत्ववादी ऐसे आंकड़े गिनाते हैं कि कितने दशकों या सदियों में मुस्लिम आबादी हिन्दू आबादी से अधिक हो जाएगी। पूनम मटरेजा ने लिखा है कि 2060 के दशक तक भारत की आबादी 170 करोड़ तक पहुंच सकती है, और फिर धीरे-धीरे सदी के अंत तक वह 150 करोड़ तक आ जाएगी। वे पहले भी इस बात को लिख चुकी हैं कि मुस्लिम आबादी बढऩे की ऐसी आशंका बेबुनियाद है कि वह कभी हिन्दू आबादी को पार कर लेगी।
अब हम भागवत के हिन्दू-मुस्लिम आबादी के अनुपात को छोडक़र अगर सुप्रीम कोर्ट की फिक्र की तरफ लौटें, तो यह बात साफ है कि देश में अगर 81 करोड़ लोगों को सरकार की तरफ से राशन मिलने पर ही वे भरपेट खा पा रहे हैं, तो फिर इन 81 करोड़ लोगों की अपनी क्षमता क्या है? क्या आजादी की पौन सदी गुजरने पर भी केन्द्र और राज्य की सरकारें मिलकर भी आबादी को अपना खाना जुटाने लायक नहीं बना पा रही हैं? लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले आंध्र के मुख्यमंत्री एन.चन्द्राबाबू नायडू ने प्रदेश के लोगों से अपील की थी कि वे दो से अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि राज्य में आबादी बुजुर्ग होती जा रही है, और गांव के गांव जवान लोगों से खाली होते जा रहे हैं। उनका तर्क यह है कि तेलुगु लोग पढ़-लिखकर देश-विदेश में काम के लिए बाहर चले जाते हैं, और राज्य में जवान आबादी नहीं रह जा रही है। अब अगर पूरा देश आंध्र की तरह का हो जाए, तो 81 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन नहीं देना पड़ेगा, और भागवत के मुताबिक अगर तीन-तीन बच्चे भी पैदा किए जाएंगे, तो भी वे देश पर बोझ नहीं रहेंगे। अगर आंध्र-तेलंगाना के औसत कामगार को देखें जो कि पूरी दुनिया में जाकर काम कर रहे हैं, तो वे देश के लिए कमाऊ हैं, देश पर बोझ नहीं हैं। दूसरी तरफ देश की औसत कमाई को ही गरीबों की भी कमाई मान लेना नाजायज बात है। अडानी-अंबानी की कमाई को जोडक़र औसत कमाई निकालना मूढ़ अर्थशास्त्रियों के पैमाने हैं, सामाजिक और जमीनी हकीकत यह है कि देश की नीचे की आधी गरीब आबादी की हालत खराब है, वह एक बच्चे का बोझ भी नहीं उठा पा रही है, और यह आबादी अगर भागवत या तोगडिय़ा जैसे लोगों की बात सुनकर तीसरा बच्चा पैदा करने लगेंगी, तो वही एक कटोरी दूध दो के बजाय तीन बच्चों में बंटने लगेगा, और देश में कुपोषण बढ़ते चले जाएगा। बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाएगा, उनका इलाज नहीं हो पाएगा, और इंसानी सहूलियतें उनकी पहुंच से दूर रहेंगी। दो बच्चों को काबिल बनाना, उन्हेें सेहतमंद रखना किसी भी धर्म, जाति, या समाज के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, बेहतर है, बजाय तीन-चार बच्चे पैदा करके उन्हें भूखे मारना।
अब इस पूरी बहस में हम इसके सबसे बड़े पहलू पर आते हैं। जिस भारतीय महिला के लिए देश के मर्द तय कर रहे हैं कि उसे दो के बजाय तीन बच्चे पैदा करना चाहिए, वह तो पति और दो बच्चों को खाना खिलाते हुए भी कई बार भूखी सोती है, वह खुद लगातार खून की कमी का शिकार रहती है, और किसी तरह बंधुआ मजदूर की जिंदगी जीते हुए बच्चों, पति, और पति के परिवार को ढोती है। तीसरे बच्चे का मतलब यह होगा कि वह दूर-दूर तक जाकर जो पानी ढोकर लाती है, उसे एक और सदस्य के लिए पानी लाना पड़ेगा, एक और को खिलाने के बाद अगर कुछ बचेगा तो खाना नसीब होगा। और तीसरे बच्चे को पैदा करते हुए उसके गरीब, कमजोर, और जर्जर बदन का क्या हाल होगा इसे पूछे बिना अपने-अपने धर्म के लोगों की गिनती बढ़ाने पर आमादा नेता आबादी बढ़ाने के फतवे देते हैं। सबसे पहले हिन्दुस्तान को अपने नागरिकों को काम देने, रोजगार से लगाने, और उन्हें उत्पादक बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी, इसके बाद ही किसी को बच्चे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। 140 में से 81 करोड़ आबादी जहां मुफ्त सरकारी राशन की वजह से जिंदा है, वहां भूखों की भीड़ बढ़ाने के फतवे गैरजिम्मेदारी की बात हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के लोग दे रहे हों। इस देश में सबसे कम लोग पारसी धर्म के हैं, लेकिन सबसे अधिक संपन्नता और आर्थिक ताकत उसी समाज के हाथ है। आबादी बढ़ाने के बजाय क्षमता बढ़ाने की सोचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ साइबर-फ्रॉड की खबरें चल रही हैं, और इस बीच एक मामला ऐसा आया जिसमें एक रिटायर्ड कर्मचारी से उसकी पत्नी और पत्नी के भाई ने ही 80 लाख रूपए ठग लिए। एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह एक नौजवान ने अपने रिश्तेदार के नवजात बच्चे की किडनी खराब होने की झूठी मेडिकल रिपोर्ट बनवाकर दिखा दी, और उसके बाद डेढ़ लाख रूपए का बताकर हर महीने एक-एक इंजेक्शन लगवाने के नाम पर ठगी की, और मोबाइल पर फर्जी मैसेज भेजकर एक करोड़ 80 लाख रूपए झटक लिए। अब राजस्थान पुलिस ने छत्तीसगढ़ आकर इस नौजवान को गिरफ्तार किया है। बहुत सारे मामलों में लोग परिवार के भीतर सेक्स-क्राईम करते हैं, कत्ल कर देते हैं, और बाकी तमाम किस्म के जुर्म भी करते हैं।
लोगों के बीच यह आम सोच रहती है कि खून का रिश्ता, या पारिवारिक रिश्ता ही सबसे मजबूत होता है। हमने घरों के भीतर ही इतने किस्म की साजिशें देखी हैं, और इतने किस्म के जुर्म देखे हैं कि लगता है कि दुश्मन पाने के लिए घर के बाहर जाने की जरूरत भी नहीं है। फिर एक बात यह भी रहती है कि घर के भीतर, जहां धोखे का खतरा बड़ा कम लगता है, वहां पर जब धोखा होता है, तो लोग उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं रहते हैं। हर कुछ हफ्तों में कोई न कोई ऐसा मामला आता है जिसमें पति, पत्नी, और प्रेमी या प्रेमिका के बीच के प्रेम-त्रिकोण में से कोई दो कोने तीसरे कोने का कत्ल करते हैं। और लोग इसकी जरा भी उम्मीद नहीं रखते, कोई आशंका नहीं रहती, इसलिए उन्हें निपटाना बड़ा आसान भी रहता है। निजी पारिवारिक संबंधों से परे भरोसे के कारोबारी रिश्तों में भी लोग इतना गहरा धोखा देते हैं कि भागीदार को सडक़ पर ला देते हैं।
अब चारों तरफ से जब ऐसी खबरें आती हैं, उसके बाद भी अगर लोगों का भरोसा खून के रिश्तों पर अधिक रहता है, या निजी प्रेमसंबंध, या निजी दोस्ती पर अधिक रहता है, तो क्या कहा जा सकता है। हर किसी को अपने आसपास हर किस्म के रिश्ते में धोखाधड़ी दिखाई देती है, बस लोग यह मानकर चलते हैं कि उनके आसपास के लोग कभी ऐसा नहीं करेंगे। लोगों को अपने खुद के मन की ऐसी गारंटी पर कुछ काबू पाना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि उनके आज के करीबी लोग भी वैसे ही हाड़-मांस के इंसान हैं जैसे इंसान दूसरों को धोखा देने वाले भी रहते हैं। अगर लोग धोखा खाने के खतरे की तरफ से थोड़ी सी सावधानी बरतेंगे, तो हो सकता है कि असीमित विश्वास न रहने से धोखा देने की नीयत रखने वाले को भी पीठ में छुरा उतना गहरा भोंकने का मौका न मिले। थोड़ी सी सावधानी हर किस्म के रिश्ते में जरूरी रहती है, इसे हम अविश्वास नहीं कहेंगे, महज सावधानी कहेंगे।
जिस तरह कुछ लोग धर्म के मामले में, आध्यात्म या गुरू के मामले में, जादू-टोने, पूजा-पाठ, या तांत्रिक क्रिया के मामले में अंधविश्वासी रहते हैं, और उनका अंधविश्वास उनकी तर्कशक्ति, और उनकी न्यायशक्ति दोनों को खत्म कर देता है। नतीजा यह होता है कि वे धोखा देने वाले बाबाओं या तांत्रिकों को भी इतना अतिआत्मविश्वासी बना देते हैं कि उनका अंत जेल पहुंचकर होता है। अंधविश्वास सिर्फ भक्त के लिए घातक नहीं होता, वह आगे चलकर गुरू को भी डुबाकर छोड़ता है। इसलिए अंधविश्वास न तो ऊपर की लाईनों में लिखे गए लोगों पर होना चाहिए, न ही परिवार के भीतर। हर किस्म के रिश्ते में एक प्राकृतिक सावधानी बरतना जरूरी रहता है, ताकि किसी के दिमाग में धोखा देना आसान काम न लगे, और न कोई अपने आपको धोखा पाने के लिए आसान निशाना बनाकर पेश करे।
यह बात लोगों को अटपटी लगेगी क्योंकि लोग बहुत करीबी रिश्तों में अंधविश्वास को एक स्वाभाविक बात मानते हैं। लेकिन सच तो यह है कि दुनिया में दूसरे लोगों को लगी ठोकरों से बाकी लोगों को भी समझना चाहिए। दूसरों के तजुर्बों से अगर बाकी लोग सावधानी बरतना सीखें, तो यह उनके आसपास के लोगों के लिए भी भली बात होगी। लोगों को अपने बहुत ही मजबूत रिश्तों में बंधे हुए परिवार के लिए भी साफ-साफ वसीयत करके जाना चाहिए, और यह वसीयत जाते-जाते नहीं हो सकती, क्योंकि भला किसको पता रहता है कि उन्हें कब रवाना होना है। आजकल तो किसी भी उम्र के लोग सडक़ हादसों में, या खेल के मैदान में जवान मौत मरते दिखते हैं। इसलिए वसीयत को बुढ़ापे से जोडक़र नहीं देखना चाहिए, वसीयत को संपत्ति से जोडक़र देखना चाहिए कि जैसे ही कोई संपत्ति जुड़े, उसके लिए वसीयत तय कर दी जाए। फिर चाहे वह वसीयत अपनी जिंदगी खत्म होने के बाद लागू होने वाली हो। जिस तरह हमने सुझाया है कि अंधविश्वास से बचना अपने गुरू को भी खतरे से बचाना होता है, उसी तरह परिवार के भीतर वसीयत परिवार के लोगों के बीच मुकदमेबाजी के खतरे को भी खत्म करती है। एक वक्त ऐसा रहता है जब परिवार के भीतर सबको एक-दूसरे से खूब प्रेम रहता है, लेकिन जब भाईयों के बीच दीवार उठती है, तो जरूरत से खासी अधिक ऊंची उठती है। जिन लोगों में किसी वक्त इतना प्रेम रहता है कि एक खाए दूसरे का पेट भरने लगे, उनके बीच किसी तरह गोलीबारी होती है, इसे उत्तर भारत के सबसे बड़े शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा के परिवार में देखा गया था जिसमें दसियों हजार करोड़ की दौलत रहते हुए भी दो सगे भाईयों के बीच ऐसी गोलीबारी हुई कि उन दोनों के साथ-साथ कई और लोग भी मारे गए। पैसा कुछ न बचा पाया, और घर के भीतर इतना खून-खराबा हो गया। दौलत और कमाई इतनी थी कि अगली सैकड़ों पीढिय़ों तक कुछ और कमाने की जरूरत नहीं थी, लेकिन मौजूदा पीढ़ी ही उसे भोग नहीं पाई, और आपसी गोलियों ने उन्हें खत्म कर दिया।
हमारी आज की बात कुछ लोगों को पढऩे में खराब लग सकती है, लेकिन हम जिंदगी की कड़वी हकीकत को अनदेखा करना नहीं चाहते, और लोगों को भी अपने रिश्ते अधिक अच्छे बनाने के लिए, बनाए रखने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए, और अंधविश्वास से बचना चाहिए। दुनिया के तजुर्बे, और अपनी तर्कशक्ति पर टिके हुए रिश्ते अधिक मजबूत और महफूज होंगे।
जाते हुए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने गंभीर मामलों में गुनहगार पाए गए, और सजा सुनने का इंतजार कर रहे अपने बेटे हंटर बाइडन को सारे मामलों में जिस तरह से राष्ट्रपति के विशेषाधिकार से माफी दे दी है, उससे अमरीकी राष्ट्रपति की कुर्सी देश के भीतर भी एक बड़ी नैतिक शर्मिंदगी से घिर गई है। इसके पहले पिछले ही राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अपने दामाद को सभी तरह की माफी दे दी थी, और कुछ अरसा पहले नैतिकता के बड़े दावे करने वाले बाइडन ने भी वही काम किया है। अमरीका देश के बाहर तो दुनिया का सबसे अलोकतांत्रिक देश है, लेकिन राष्ट्रपति के ऐसे विशेषाधिकार और उनके ऐसे बेशर्म इस्तेमाल से अब अमरीकी राष्ट्रपति की कुर्सी देश के भीतर भी बड़ी अलोकतांत्रिक साबित हो रही है। अब एक बड़े अमरीकी अखबार की रिपोर्ट है कि जो बाइडन अपने आखिरी छह हफ्तों में अपने समर्थकों और अपनी सरकार का हिस्सा रहे ऐसे लोगों की लिस्ट बना रहे हैं जिन पर अगले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प बदले की कार्रवाई कर सकते हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिन पर अभी कोई जुर्म के मामले नहीं चल रहे, जिन्हें कोई सजा नहीं हुई है, लेकिन जिन पर आगे कोई मुकदमे चलाए जा सकते हैं, ऐसे लोगों को भी जो बाइडन आशंका के तहत जुर्म के पहले माफी दे सकते हैं। यह बड़ी ही अजीब बात है, और भारतीय संदर्भ में न तो हम शासन प्रमुख के ऐसे अधिकारों की कल्पना कर सकते, न ही जुर्म सामने आने के पहले महज उसकी आशंका या अटकल से उसकी माफी की सोच सकते। अमरीका में जो भी आंतरिक लोकतंत्र हो, उसके भीतर यह तानाशाही से भी बढक़र माफी का विशेषाधिकार अमरीकी राष्ट्रपति के पास है, और पता नहीं उस देश की जनता की स्वतंत्रता की धारणा के साथ यह विशेषाधिकार किस तरह एक ही संविधान के तहत चल सकता है?
खबरें बताती हैं कि 1977 में उस वक्त के अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भी मुकदमों के पहले ही एक तबके को सामूहिक माफी दी थी। उन्होंने वियतनाम युद्ध में गए अमरीकी सैनिकों पर लगे आरोपों को लेकर उन भूतपूर्व सैनिकों को अपराध पूर्व सामूहिक आम माफी दी थी। अब अगर जो बाइडन अपनी सरकार और पार्टी के लोगों को आशंका-आधारित आम माफी देते हैं, तो क्या खुद अमरीका के भीतर इसके खिलाफ कोई जागरूकता नहीं बची है? बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी के मुकाबले अधिक लोकतांत्रिक मानी जाती है। लेकिन महज आशंका से ऐसी आम माफी तो उसकी लोकतांत्रिक छवि को पूरी तरह खत्म कर देगी। ऐसी भी चर्चा है कि खुद उनकी पार्टी के बहुत से लोग ऐसी कार्रवाई के खिलाफ हैं। यह बड़ी अजीब बात रहेगी कि अब तक जिन लोगों पर कोई तोहमत भी नहीं लगी है, उन्हें ऐसी एडवांस माफी दी जाए कि अगर कभी उन पर कोई मुकदमा चले, और अगर उन्हें सजा हो, तो यह एडवांस माफी उन्हें बचा ले, या शायद इसके चलते उनके खिलाफ कोई मुकदमे भी दर्ज न हो सकें। तो क्या कोई अमरीकी राष्ट्रपति वहां के किसी भी नागरिक को, या दूसरे देश के अमरीका में बसे नागरिक को ऐसी एडवांस-माफी दे सकता है जो उस देश के कानून को इन लोगों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से रोक दे? इस लिस्ट में ऐसे लोगों के नामों की अटकल लगाई जा रही है जिन्होंने डोनल्ड ट्रम्प के कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद उनके खिलाफ, या उनके समर्थकों के खिलाफ कोई जांच की थी, अमरीकी संसद पर हुए हमले की जांच की थी, या कोरोना के उनके फैसलों को लेकर उन पर ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में किसी कार्रवाई की आशंका है। ट्रम्प इस बात को कई बार बोल चुके हैं, और उनके मनोनीत एफबीआई के अगले संभावित डायरेक्टर (भारतवंशी) कश पटेल भी 2020 के चुनावों को लेकर कब्रें खोदने की बात कहते आए हैं। ऐसे में जिन लोगों पर ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में खतरा दिख रहा है, उन्हें बचाने के लिए जो बाइडन इस तरह की एडवांस आम माफी की बात सोच रहे हैं।
हम अमरीकी राजनीति और संवैधानिक व्यवस्थाओं को लेकर आमतौर पर यह मानते हैं कि वहां दुश्मनी निकालने की गुंजाइश कुछ कम है, और सरकार से असहमत रहने पर भी लोग वहां महफूज रह सकते हैं। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि अगर शासन-प्रमुख ट्रम्प सरीखा हो, तो वह ठीक उसी तरह राजनीतिक बदला निकाल सकता है जिस तरह भारत-पाकिस्तान, बांग्लादेश, या इस तरह के कई और देशों में आमतौर पर निकाला जाता है। अमरीकी लोकतंत्र में इस तरह की बदले की कार्रवाई, और इस तरह की एडवांस माफी, दोनों ही वहां के लोकतंत्र की कुछ बुनियादी कमियों और खामियों के सुबूत हैं। इस देश को कुछ बेहतर लोकतांत्रिक परंपराओं से सीखना चाहिए। इस बात की जरूरत आज इसलिए भी लग रही है कि निर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अपनी अगली सरकार के लिए जिस तरह के मंत्री और सहयोगी घोषित किए हैं, वे बदले की अपनी भावना के लिए अधिक जाने जा रहे हैं, और उनके बेसब्र उत्साह को लेकर भी अमरीका में तरह-तरह की आशंकाएं हैं। यह भी लगता है कि अमरीका में एक बार किसी के राष्ट्रपति उम्मीदवार मनोनीत हो जाने के बाद से लेकर उसकी जीत जाने, और उसका कार्यकाल खत्म हो जाने तक पार्टी का कोई दखल नहीं रह जाता है। अमरीकी राष्ट्रपति के इस पूरे चुनाव में, और अब ट्रम्प द्वारा लोगों को छांटने के मनमानी फैसलों में पार्टी कहीं नहीं रह गई है। हमें नेता और पार्टी के जटिल संबंधों की अधिक समझ नहीं है, लेकिन अमरीका में ऐसा लगता है कि उम्मीदवार तय होने के बाद से पार्टी घर बैठती है, और उम्मीदवार अपने मिजाज के मुताबिक मनमानी से लेकर तानाशाही तक, जहां तक चाहे पहुंच सकता है। जानकार या जिज्ञासु लोगों को इस बारे में भी सोचना चाहिए, और दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना करके देखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राज्यसभा में कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी को आबंटित सीट के नीचे पांच सौ रूपए के नोटों का एक बंडल सुरक्षा जांच के दौरान मिला। और इसे लेकर वहां ऐसा हंगामा हुआ मानो किसी नशीले सामान, या प्रतिबंधित हथियार की बरामदगी हो गई हो। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं। सदन के भीतर हर दिन सुरक्षा जांच होती है, और जाहिर है कि यह गड्डी वहां बहुत पुरानी नहीं हो सकती। और पिछले दिन अभिषेक मनु सिंघवी ने समय देखकर बताया है कि वे सदन में कुल तीन मिनट थे, और जेब में कुल पांच सौ रूपए लेकर आए थे। उन्हें भी इस गड्डी को लेकर हैरानी है, और ऐसी घटना हो जाने पर उन्होंने कहा है कि क्या सदस्यों की सीट के नीचे कोई कुछ डाल न सके इसलिए ताला-चाबी जैसा कोई इंतजाम करना चाहिए? सिंघवी की कांग्रेस पार्टी के साथ सत्तारूढ़ एनडीए का बड़ा टकराव चल रहा है, और इस मामले को भी एक बहुत बड़ी घटना बताते हुए भाजपा सांसदों ने कई तरह के बयान दिए हैं, और शक जाहिर किए हैं। और अभी संसद के दोनों सदनों में जिस तरह से विपक्ष सरकार पर हमले कर रहा है, उसमें विपक्ष को चुप करने या घेरने का अगर किसी का मकसद हो सकता है, तो वह मकसद भी कम से कम घंटे दो घंटे के लिए तो पांच सौ के नोटों की एक गड्डी के पचास हजार रूपयों ने पूरा करवा दिया है।
अब इस मामले को तथ्यों के आधार पर देखें, तो अभी सदन में कोई मत विभाजन भी नहीं हो रहा था कि कोई सांसद खरीदने के लिए वहां नोट लेकर आए। दूसरी बात यह कि सदन और सांसदों को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि देश में आज पचास हजार रूपए में पंच और पार्षद भी नहीं बिकते, सांसद तो क्या बिकेंगे? तीसरी बात यह कि सिंघवी की पार्टी को या सिंघवी को आज किसी को राज्यसभा के भीतर कोई भुगतान करना हो, ऐसा भी नहीं लगता। यह भी नहीं लगता कि इन्हें सदन के बाहर किसी राज्यसभा सदस्य को भुगतान करना हो। फिर पचास हजार रूपए की रकम इतनी बड़ी भी नहीं है कि सिंघवी की सीट के नीचे से उसकी बरामदगी सिंघवी पर काली कमाई की तोहमत लगा सके। वे सुप्रीम कोर्ट के एक सबसे काबिल और व्यस्त वकील हैं, और उनके एक बार खड़े होने की फीस ही लाखों रूपए है। इसलिए पचास हजार रूपए की बरामदगी कुछ साबित नहीं करती। यह रकम इतनी बड़ी भी नहीं है कि इसे काला धन मानकर इंकम टैक्स या ईडी किसी की जांच की बारी आए। यह भी मुमकिन नहीं लगता कि सिंघवी किसी मुवक्किल से राज्यसभा में राह चलते पचास हजार रूपए की फीस नगद लेंगे, और फिर उस बंडल को सीट के नीचे छोडक़र जाएंगे। यह बात यहां तक तो समझ आती है कि राज्यसभा के सभापति सदन को इस बारे में सूचित करें और इसकी जांच करवाएं, लेकिन ज्यादा बड़ा सवाल तो राज्यसभा की सुरक्षा व्यवस्था का है कि क्या किसी ने राज्यसभा का समय बर्बाद करने के लिए, असल मुद्दों से ध्यान बंटाने के लिए ऐसा कुछ किया? राज्यसभा में चप्पे-चप्पे पर कैमरों से निगरानी रहती है, और सुरक्षा व्यवस्था के लिए सभापति ही जिम्मेदार और जवाबदेह हैं। इसकी जांच में जाहिर तौर पर तमाम किस्म की रिकॉर्डिंग देखी जानी चाहिए कि सिंघवी की सीट के नीचे पचास हजार रूपए का यह बवाल कहां से आया, किससे गिरा, या किसने वहां प्लांट किया।
दिक्कत यह है कि भारतीय संसदीय राजनीति में सडक़ से संसद तक सत्ता और विपक्ष के खेमों के बीच अविश्वास, हिकारत, और नफरत इतनी गहरी हो चुकी है कि ऐसी असाधारण घटना के तथ्यों की पड़ताल के बजाय कुछ सांसद इसे कांग्रेस के सत्तर बरस के भ्रष्टाचार से जोडक़र बयान दे रहे हैं। क्या कांग्रेस का सत्तर बरस का भ्रष्टाचार पांच सौ के नोटों की एक गड्डी में समा सकता है? अगर सचमुच ही ऐसा है तो इस पार्टी को देश की सबसे ईमानदार पार्टी का दर्जा देना चाहिए। हम इस घटना को अधिक से अधिक एक अटपटी घटना, या साजिश करार दे सकते हैं। इसने कुल मिलाकर सदन का समय बर्बाद करने, वहां बहस के लिए आने वाले किसी जरूरी मुद्दे को हाशिए पर धकेलने का काम ही किया है। इससे न सिंघवी की साख बिगड़ती, न ही कांग्रेस की। बल्कि अब इस घटना के हो जाने के बाद ऐसा लगता है कि साख तो राज्यसभा की सुरक्षा व्यवस्था और वहां लगे कैमरों की दांव पर लग गई है क्योंकि सिंघवी भी अगर वहां बंडल गिराकर जाते हैं, तो भी इस पर किसी न किसी कैमरे की नजर तो रहनी ही चाहिए थी।
जहां तक सिंघवी के सदन में पचास हजार रूपए लेकर आने की बात है, और इसे लेकर आरोप लगाए जा रहे हैं, तो क्या संसद का कोई नियम-कानून सांसदों के वहां निजी रकम लेकर आने के खिलाफ है? वहां कई सांसद बड़ी-बड़ी जेबों वाले कपड़े और जैकेट पहनकर आते हैं, और क्या उनकी तलाशी होती है कि वे कितने रूपए लेकर आए हैं? और किसी सांसद को आते-आते कहीं से कुछ पैसे मिले, तो क्या वे उसे सदन के बाहर कहीं जमा कराकर भीतर आएंगे? या सदन की कार्रवाई के बाद उन्हें कहीं भुगतान करने जाना है, तो क्या वे पैसे लेकर सदन न आएं? ऐसा लगता है कि राजनीतिक तनातनी, और असहिष्णुता ने लोगों के दिमाग से तर्क और न्याय की समझ को बाहर धकेल दिया है। जब देश के सामने, और हर पार्टी के सामने असल मुद्दों की भरमार हो, उस वक्त पचास हजार रूपयों की बरामदगी को लेकर इस तरह का हलकट बवाल चल रहा है कि मानो ये देश के सुरक्षा राज बेचकर पाए गए पचास हजार रूपए हों। यह विवाद यह भी बताता है कि संसदीय और नैतिक रूप से भारतीय सांसद कितने खोखले हो गए हैं कि उन्हें बहस और बवाल के लिए यही एक मुद्दा मिल रहा है।
जब देश की जनता चटपटी और सनसनीखेज बातों को ही अपनी अक्ल की खुराक बना लेती है, तो उसे इसी तरह के फूहड़ बवाल परोसे जाते हैं। देश की जनता को इतना जागरूक छोड़ा नहीं गया है कि वह संसद से कुछ सवाल कर सके। फिर भारत में संसद और विधानसभाओं ने अपने आपको इस तरह के सुरक्षा कवच से घेर रखा है कि जनता उनसे कोई सवाल नहीं कर सकती, उनकी कार्रवाई के बारे में अवमानना झेलने के खतरे के बिना कुछ बोल नहीं सकती। ऐसे में भारत की एक वक्त की गौरवशाली संसद आज बिना किसी सार्थक बहस के महज खेमेबाजी का अखाड़ा बनकर रह गई है, और इसके एक दिन के वक्त का दाम पांच सौ के नोटों की एक गड्डी जितना मान लिया गया है, इससे अधिक राष्ट्रीय-नुकसान और क्या हो सकता है?
राज्यों के अखबार इन खबरों से पटे रहते हैं कि कहां पर करोड़ों लगाकर लगाए गए फौव्वारे कुछ हफ्ते भी नहीं चले, किस तरह दसियों लाख से बनाए गए महंगे हाईटेक सार्वजनिक शौचालय जरा भी काम नहीं आ पाए, किस तरह सरकारी अस्पतालों में करोड़ों की मशीनें बरसों से बक्सों से ही नहीं निकलीं, और उनकी गारंटी-वारंटी सब खत्म हो गई, किस तरह किसी अस्पताल में मशीनें हैं, तो उनमें लगने वाले रसायन नहीं हैं, और जहां मशीनें नहीं हैं वहां ऐसे रसायन पड़े-पड़े खत्म हो गए। ये खबरें भी रहती हैं कि कहां कितनी किताबें सीधे कागज कारखाने में बेच दी गईं, कहां पर खेती के उपकरण ऐसे खरीदे गए कि वे चार दिन नहीं चले। इन खबरों का कोई अंत ही नहीं है। और हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को देखें, तो यहां पिछले 25 बरस की सरकारों में पहली सरकार तो महज तीन साल के कार्यकाल की थी, इसलिए उसके पास ऐसी बर्बादी की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन उसके बाद की तमाम सरकारों का यही सिलसिला चले आ रहा है कि कभी स्मार्टसिटी के बजट से, तो कभी मुआवजा-वृक्षारोपण के लिए बनाए गए कैम्पा फंड से, तो कभी डीएमएफ और उद्योगों के सीएसआर फंड से भयानक दर्जे की बर्बादी की गई। चूंकि इस तरह का पैसा अक्सर ही राज्य के बजट के बाहर का रहता है, इसलिए सरकार में मानो किसी को कोई दर्द ही नहीं रहता।
अब सवाल यह उठता है कि अब तक जो हो चुका है उससे सबक लेना कब शुरू किया जाएगा? या फिर पिछली मिसालों को आगे की राह मानकर पहले से अधिक ऊंचे दर्जे की बर्बादी की जाएगी? और यह बर्बादी किसी लापरवाही से नहीं होती है, यह पूरी तरह सोच-समझकर, साजिश तैयार करके कमीशन और रिश्वत खाने की नीयत से की जाती है, और मंत्रियों के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे पेशेवर जालसाज किस्म के निजी सहायक रहते हैं जो हर सरकार में किसी न किसी मंत्री-पद से जोंक की तरह चिपक जाते हैं, और जनता के लहू की बूंद-बूंद चूसने के लिए ओवरटाइम करते हैं। ऐसे लोग एक संगठित गिरोहबंद भ्रष्टाचार का सिलसिला चलाते हैं, जो कबाड़ किस्म की मशीनें खरीदता है, तोता-मैना किस्म की कहानियों की किताबें स्कूल-लाइब्रेरी के लिए खरीदता है, और तमाम किस्म की गैरजरूरी चीजें मनचाहे सप्लायरों से लेता है, और ठेकेदारों से बनवाता है। बिना जरूरत करोड़ों की पार्किंग बना ली जाती है, जिसका इस्तेमाल नहीं रहता, और बाद में वहां दूसरे सरकारी काम किए जाते हैं। कई जगहों पर तो कुछ महीनों के भीतर जो टेक्नॉलॉजी खत्म होने वाली है, उसके सामान करोड़ों के खरीद लिए जाते हैं।
अभी छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां स्थित आईआईएम के साथ मिलकर गुड गवर्नेंस का एक कोर्स शुरू करवाया है जिसमें पढऩे वाले लोगों की फीस राज्य सरकार ही देगी। इसके छात्र-छात्राओं को हफ्ते में पांच दिन सरकार के साथ काम करना होगा, और इस तजुर्बे के साथ हफ्ते में दो दिन आईआईएम में पढ़ाई होगी। हमारा ख्याल है कि इस कोर्स का नतीजा आने में तो वक्त लगेगा, राज्य सरकार को आईआईएम के साथ मिलकर प्रदेश सरकार के साधन-सुविधाओं की उत्पादकता-ऑडिट भी करवानी चाहिए। वैसे तो प्रदेश में कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल, सीएजी की तरफ से वित्तीय ऑडिट होती है, लेकिन हम सरकारी खर्च से खरीदे गए सामानों, और बनाए गए निर्माणों की उत्पादकता की एक अलग ऑडिट की सिफारिश कर रहे हैं। ऐसा कोई प्रोजेक्ट खुद आईआईएम के लिए अच्छा होगा जहां के छात्र-छात्राओं को मैनेजमेंट सीखना होता है, और राज्य सरकार के विभागों के इतने बड़े मैनेजमेंट से सीखने का मौका इन छात्र-छात्राओं को किसी बड़ी कंपनी में भी नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ सरकार डेढ़ लाख करोड़ सालाना के बजट तक पहुंच गई है, और सरकार की बहुत सी योजनाओं पर पांच-दस हजार करोड़ एक-एक पर खर्च होता है। डीएमएफ, सीएसआर, कैम्पा जैसे फंड, और अब बंद होने जा रहे स्मार्टसिटी प्रोजेक्ट के तहत जितने किस्म के काम हुए हैं, उनकी उत्पादकता-ऑडिट से खुद सरकारी अमले को यह समझ में आएगा कि भ्रष्टाचार में कितना पैसा डूब रहा है, और किस तरह करोड़ों से खरीदी या बनाई गई सहूलियत कूड़ा-करकट साबित हो रही है। हमें पूरा यकीन है कि आईआईएम जैसे विश्वविख्यात संस्थान के प्राध्यापक ऐसे अध्ययन और ऐसे ऑडिट को एक बड़ा दिलचस्प प्रोजेक्ट मानेंगे, और राज्य की बर्बादी, उसके भ्रष्टाचार के एक फीसदी से भी कम लागत से आईआईएम ऐसी रिपोर्ट बना सकती है।
वैसे सच तो यह है कि ऐसे विश्लेषण के लिए किसी बाहर विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार में बच्चे-बच्चे को यह मालूम है कि संगठित भ्रष्टाचार किस तरह होता है। लेकिन फिर भी अगर घर के भीतर ही हर सुधार मुमकिन होता, तो सीएजी या दूसरे ऑडिटर की जरूरत क्या रहती। आईआईएम जैसी एक बाहरी संस्था से एक ईमानदार विश्लेषण की उम्मीद की जा सकती है, और प्रदेश में हर बरस हजारों करोड़ रूपए डूबने से बच सकते हैं। हो सकता है कि सरकार में बैठे हुए बहुत से लोगों को यह सलाह न सुहाए क्योंकि जब भ्रष्टाचार का कद्दू कटता है, तो ही सबमें बंटता है। फिर भी हम अपनी जिम्मेदारी मानते हैं कि हम जनता के खून-पसीने की कमाई की बर्बादी रोकने की बात उठाते रहें। आगे तो फिर किसी भी देश-प्रदेश की निर्वाचित सरकार का यह विशेषाधिकार और एकाधिकार होता है कि वह जितना चाहे उतना भ्रष्टाचार जारी रखे, और चाहे तो पिछली सरकारों के भ्रष्ट तजुर्बों को पहली सीढ़ी मानकर और भी आगे बढ़े, और भी ऊपर चढ़े। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक शादी समारोह में एक नाबालिग लडक़ा खाना परोस रहे अपने ही परिचित या दोस्त से बार-बार रसगुल्ला मांग रहा था, और न मिलने उसने समारोह के बाहर चाकू से गोदकर उसे मार डाला, और जाकर पुलिस में अपने सहयोगी-साथी के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। यह भी बताया जा रहा है कि हत्यारोपी नाबालिग और मृत बालिग के बीच पहले से कुछ झगड़ा भी चल रहा था। कुछ लोगों को यह बात हैरान कर सकती है कि महज रसगुल्ले पर बात इतनी बढ़ गई कि कत्ल हो गया। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि झगड़े के तो बहुत से बहाने रहते हैं, रसगुल्ला नहीं रहता तो पानी हो सकता था, समोसा हो सकता था। जिसका मिजाज ही झगड़े का है, जिसने झगड़ा करना तय कर रखा है, उसने यह भी परवाह नहीं की कि दूसरे की जान गई, और वह तो जिंदगी की तकलीफों से मुक्त हो गया, लेकिन जिसने मारा है उसके तो कई बरस बाल सुधार गृह या जेल में गुजरेंगे, और आगे की जिंदगी भी तबाह सरीखी ही रहेगी। बालिग हो या नाबालिग, जिसने एक बार कत्ल कर दिया हो, उसे समाज तो दुबारा आसानी से जगह देगा नहीं। फिर ऐसे तमाम खतरों के साथ भी लोग ऐसी हिंसा पर कैसे उतारू हो जाते हैं?
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की इस घटना के बारे में खबरें बताती हैं कि इस हत्यारोपी लडक़े के मां-बाप का भी आपराधिक रिकॉर्ड है, और खुद यह लडक़ा भी कुछ इसी किस्म का था। जाहिर है कि जो चाकू लेकर घूमता हो, और समारोह के बाहर गली में खड़े होकर कत्ल करने के लिए राह तकता हो, वह सीधा-सरल तो होगा नहीं। अब नाबालिग लडक़ा इतनी हिंसा पाता कहां से है? और हिंसा तो पा ली, लेकिन यह जागरूकता बिल्कुल नहीं पाई कि इस हिंसा का नतीजा क्या होगा? सोच की यह हालत बहुत खतरनाक है। यह पीढ़ी लगातार तैश में, या साजिश बनाकर कई तरह के जुर्म कर रही है। हमने बहुत से नाबालिग लडक़ों को इकट्ठा होकर नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप करते देखा है, किसी का कत्ल करते देखा है, या दूसरे किस्म के बड़े जुर्म करते हुए। आमतौर पर किसी विकसित और सभ्य समाज में जिस उम्र के लडक़ों को स्कूल-कॉलेज में व्यस्त रहना चाहिए, आगे के दाखिला इम्तिहानों की तैयारी के बाद जिनके पास वक्त नहीं बचना चाहिए, उनके पास स्कूल या कॉलेज कुछ भी नहीं हैं, वे आवारा हैं, फुटपाथी हैं, बेघर हैं, नशेड़ी हैं, और ऐसे ही किसी खतरनाक अंत की तरफ बढ़ रहे हैं। यह नाबालिग उम्र न तो परिवार से समर्थन पा रही है क्योंकि उनका खुद का मुजरिम होने का जीवन है, और न ही समाज या सरकार को यह पड़ी है कि वे ऐसे आवारा तबके को पटरी पर लाने के लिए कुछ करें। हालत यह है कि बाल सुधार गृह में एक जुर्म के बाद पहुंचने वाले बच्चे वहां से कई और किस्म के जुर्म सीखकर निकलते हैं। इसलिए सरकार और समाज का जिम्मा यह बनता है कि ऐसी खतरनाक जिंदगी जी रहे ऐसे तबके के लिए कुछ योजना बनाएं क्योंकि इनके हर जुर्म की लागत समाज और सरकार को अधिक महंगी पड़ेगी।
अब हम ऐसे नाबालिग मुजरिमों की पहली जिम्मेदारी उनके परिवारों की मानते हैं कि उन्हें अपनी औलाद को नशे में पडऩे से बचाना चाहिए, निठल्ला बैठने नहीं देना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, या किसी कामकाज से लगाना चाहिए, और यह सोचकर उन्हें अपनी छाती पर मूंग नहीं दलने चाहिए कि कम से कम वे जिंदा तो हैं, कम से कम वे आंखों के सामने तो हैं। सही राह से उतरकर उनकी ऐसी औलादें कब किसी को मार डालेंगी, या कब मर जाएंगी, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। इसलिए औलाद का महज जिंदा रहना काफी नहीं है, उसका सही राह पर रहना भी खुद उसके लिए, और बाकी समाज के लिए जरूरी है। आज समाज में ऐसे कौन हो सकते हैं जो किसी न किसी छोटी-मोटी बहस से भी बच सकें, सडक़ पर भी चलते किसी से मामूली टक्कर हो सकती है, और अगर इनमें से कोई नाबालिग या बालिग चाकूबाज हो, तो एक मौत और दूसरे को उम्रकैद तो हो ही सकती है। इसलिए परिवारों को अपने बच्चों को संभालना आना चाहिए, और उसकी कोशिश करनी चाहिए। दूसरी बात यह समझ लेना बेहतर होगा कि बच्चे किसी के कहे नहीं सीखते, मिसालों से सीखते हैं। जिन परिवारों में मां-बाप शराबी हैं, या किसी जुर्म से जुड़े हुए हैं, उनके बच्चों के भी उसी राह पर चलने का खतरा बहुत अधिक रहता है। जहां मां-बाप शराबी रहते हैं, बच्चों के नशे में पड़ जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है। जहां मां-बाप सिगरेट, बीड़ी, या तम्बाकू जैसा कोई नशा करते हैं, उनके बच्चे घर से ही इसे सीखते हैं। इसलिए मां-बाप और घर के बाकी बड़ों को बच्चों के सामने अपनी मिसाल के बारे में सावधान रहना चाहिए।
हम एक बार फिर समाज और सरकार की बात पर लौटें, तो यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि नाबालिग लोगों के सामने जिंदगी को लेकर कोई सकारात्मक संभावना रहनी चाहिए। जब आगे की जिंदगी बेरोजगारी की गारंटी वाली हो, जब समाज की हवा में दर्जन भर किस्म की अलग-अलग नफरत का जहर तैर रहा हो, जब देश की बड़ी-बड़ी मिसालें, एक से बढक़र एक हिंसक बातें कर रही हों, तो उसका भी असर नई पीढ़ी पर हिंसक ही होता है, और उन्हें हिंसक बनाकर छोड़ता है। इसलिए देश-प्रदेश को भी अपने आपको एक स्वस्थ राज्य साबित करना होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि बाकी तमाम पीढिय़ों के बड़े-बड़े बकवासी लगातार हिंसा के फतवे देते रहें, और उनके साफ-साफ शब्दों, या दोहरी मतलब वाली बातों का हिंसक मतलब नई पीढ़ी न निकाले। नाबालिगों को हिंसा से दूर रखना एक बहुत ही जटिल मुद्दा है, और किसी भी जटिल मुद्दे का समाधान बहुत सरल नहीं हो सकता। किसी भी गंभीर कैंसर के मरीज को इलाज के लिए कीमोथैरेपी, रेडियेशन थैरेपी, या सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है, वही हाल किशोरावस्था के अपराधियों का भी है, जिन्हें सुधारने और बचाने का कोई आसान फॉर्मूला नहीं है। यहां इस कॉलम में इससे अधिक खुलासे की गुंजाइश भी नहीं है, लेकिन समाज को अपने आपको नई पीढ़ी के ऐसे जुर्म से बचाना है, तो उसे इस पीढ़ी के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। किसी देश-प्रदेश की तमाम पुलिस मिलकर भी पूरी नई पीढ़ी के हाथों हो सकने वाले जुर्म को नहीं रोक पाएंगी। इसके लिए उस पीढ़ी का ही ख्याल रखना पड़ेगा। चलते-चलते हम यह भी याद दिलाना चाहेंगे कि धर्म और आध्यात्म के भरोसे, प्रवचनकर्ताओं और कर्मकांडों के भरोसे कोई पीढ़ी न सुधर सकेगी, न बच सकेगी। इसके लिए सरकार, समाज, और परिवार को पूरी मेहनत करनी पड़ेगी, तभी यह नई पीढ़ी देश के सामने एक खतरनाक बोझ और खतरे के बजाय एक उत्पादक संभावना बन सकेगी। देश को अपनी नई पीढ़ी को देश के विकास में योगदान के लायक तैयार करना चाहिए, न कि जेलों के लायक। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बांग्लादेश की आबादी में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर वहां जो हमले चल रहे हैं, उसके खिलाफ भारत के बहुत से शहरों में कल प्रदर्शन हुए हैं। भारत की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने सरकार से तुरंत ही बांग्लादेश से पहल करने की अपील की है। और जैसा कि किसी भी घटना की प्रतिक्रिया होती है, बांग्लादेश में हिन्दुस्तानियों पर हो रहे हमले, और हिन्दू धर्म से जुड़े लोगों को निशाना बनाने की प्रतिक्रिया भी भारत में हुई है, और यहां त्रिपुरा में बांग्लादेश के उपउच्चायोग पर हमला हुआ है, जिसमें कुछ गिरफ्तारियां हुई हैं, कुछ पुलिस अधिकारी निलंबित किए गए हैं, और भारत सरकार ने बांग्लादेश से इसे लेकर अफसोस जाहिर किया है। लेकिन दोनों देशों के बीच तनातनी बांग्लादेश के जन्म के बाद से आज तक की सबसे अधिक गंभीर है। बांग्लादेश ने औपचारिक रूप से बार-बार यह बात कही है कि भारत का सत्ताधारी वर्ग बांग्लादेश विरोधी राजनीति में उलझा है। तनाव की एक बड़ी वजह यह भी है कि वहां की पिछली, जनआक्रोश से हटा दी गई प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत में शरण पाकर रह रही हैं, और बांग्लादेश की नई हुकूमत का यह मानना है कि भारत ने बांग्लादेश से अपने संबंध सिर्फ शेख हसीना तक सीमित कर रखे थे। बांग्लादेश के बहुत से लोग भारत सरकार को यह भी याद दिला रहे हैं कि उसे इस हकीकत का अहसास होना चाहिए कि अब बांग्लादेश में शेख हसीना का राज नहीं है। दोनों तरफ से तनातनी के बहुत से बयानों के बीच जमीनी हकीकत यह है कि बांग्लादेश में हिन्दू और हिन्दुस्तानियों का सुरक्षित रहना फिलहाल मुश्किल दिख रहा है, और भारत सरकार की कोशिशें अब तक बेअसर दिख रही हैं।
तनाव का यह माहौल इसलिए बड़ी फिक्र का सामान है कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में बांग्लादेश से अलग-अलग वक्त पर आकर बसे हुए लोगों की बड़ी मौजूदगी है, और इस देश के और भी राज्यों में वैध या अवैध बांग्लादेशी करोड़ों की संख्या में बसे हुए हैं जो कि बांग्लादेश के ताजा घरेलू तनाव के पहले भी भारत में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहते आए हैं। अधिकतर बांग्लादेशी भारत में भाजपा के लिए राजनीतिक नुकसान के माने जाते हैं क्योंकि उनमें तकरीबन तमाम लोग मुस्लिम हैं, और भाजपा को लगता है कि उनके नाम अगर वोटर लिस्ट में जुड़ते हैं, तो यह भाजपा का बड़ा चुनावी नुकसान रहेगा। ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ के नाम से जिन करोड़ों लोगों को देश से निकालने की चर्चा चलती है, वह कम गंभीर नहीं हैं, और मोदी सरकार ने कई कानून बनाकर भी भारत से इन लोगों को हटाने की कोशिश जारी रखी हुई है। यह नौबत दोनों ही देशों के लिए तनावपूर्ण चली ही आ रही थी, और इस बीच शेख हसीना की सरकार के वक्त भी बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर बड़े हमले होते रहते थे। भारत में शासन-प्रशासन अभी किसी भी पड़ोसी देश के मुकाबले बेहतर है, इसलिए बांग्लादेश में हिन्दुओं पर चलते आ रहे हमलों की कोई हिंसक प्रतिक्रिया भारत में नहीं हो रही है। वरना करोड़ों बांग्लादेशियों के खिलाफ हिंसक माहौल बनने पर भारत के भीतर एक बड़ी खराब नौबत आ सकती थी, या आ सकती है। बांग्लादेश सरकार की तरफ से अभी कहा गया है कि शेख हसीना की सरकार में अल्पसंख्यकों से सबसे अधिक नाइंसाफी हुई थी, और भारत बिना शर्त हसीना का समर्थन करता रहा। बांग्लादेश के कई लोगों ने बड़े खुलासे से यह कहा है कि भारत में मुस्लिमों के साथ जैसा बर्ताव हो रहा है, उसकी भी प्रतिक्रिया बांग्लादेश में हो रही है।
तनातनी के इस माहौल में बांग्लादेश भारत का अब तक का एक सबसे बड़ा पड़ोसी और भागीदार देश रहा है, और फौजी-रणनीति के मुताबिक चीन के करीब जाने से रोकने के लिए बांग्लादेश को भारत कई तरह से रियायत भी देते रहा, जिसके तहत भारत में बांग्लादेशियों की बेरोकटोक आवाजाही, और बसाहट शामिल रही। अब एकाएक बांग्लादेश में बगावत के बाद आई नई सरकार ने एक तरफ तो पाकिस्तान के साथ रिश्ते शुरू किए हैं, जो कि रफ्तार से गहरे होते चल रहे हैं, दूसरी तरफ उसने चीन के साथ बेहतर रिश्ते बनाना और बताना भी शुरू किया है। ये दोनों ही घटनाक्रम भारत के लिए बड़ी फिक्र का सामान हैं क्योंकि इन दोनों के साथ भारत की खुली दुश्मनी सरीखी नौबत बरसों से बनी हुई है। और अगर बांग्लादेश भारत के दुश्मन का दोस्त बनता है, तो यह भारत की एक और घेराबंदी हो सकती है। बांग्लादेश बनने के बाद से आज तक कभी नहीं हुआ था कि पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते बने हों, क्योंकि एक जंग के बाद ही बांग्लादेश का जन्म हुआ था, और पाकिस्तान से अलग होकर यह देश बना था। ऐसे में भारत बांग्लादेश से चार हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सरहद पर किसी भी तनाव को किस तरह झेल पाएगा? असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, और पश्चिम बंगाल, इतने राज्यों की सरहद बांग्लादेश से लगती है, और इन सभी में करोड़ों बांग्लादेशी पीढिय़ों से बसे हुए हैं। दोनों देशों के बीच तनातनी के अनुपात में ही भारत में बसे बांग्लादेशियों के खिलाफ एक तनाव हो सकता है, और आज भारत के हिन्दू संगठन जिस तरह विचलित हैं, उसे देखते हुए भी भारत सरकार को बांग्लादेश के साथ ठोस पहल करनी चाहिए। इसमें कोई देर होने, या नौबत बिगडऩे से इस देश के भीतर भी हालात खराब हो सकते हैं। कुल मिलाकर बांग्लादेश भारत के लिए एक बहुत बड़ी आर्थिक, सामाजिक, और सामरिक-रणनीतिक समस्या बन गया है, और बांग्लादेश की अस्थाई और तात्कालिक कामचलाऊ सरकार से भारत किस तरह के रिश्ते बना और चला सकता है, यह भारत की विदेश नीति के लिए, और उसकी समझबूझ के लिए एक बड़ी चुनौती है, और हालात अधिक खराब होने के पहले उसे काबू में करना जरूरी है।
म्युनिसिपल जैसी शहरी स्थानीय संस्थाओं में महापौर या अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों के माध्यम से हो, या सीधे वोटर ही उन्हें चुनें, इसे लेकर अलग-अलग पार्टियों, और अलग-अलग नेताओं के बीच मतभेद बना रहता है। इन दोनों ही तरीकों में जानकार लोग नफा और नुकसान गिनाते रहते हैं। छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल ने कल यह तय किया है कि नगर निगम, नगर पालिका, और नगर पंचायत के मुखिया का चुनाव मतदाता सीधे करेंगे। पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य बनने के बाद से चली आ रही व्यवस्था को बदलकर पार्षदों के मार्फत महापौर या अध्यक्ष चुनने की व्यवस्था की थी, नई भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की अध्यक्षता में कल मंत्रिमंडल में इसे पलट दिया। जब वोटर सीधे अपने शहर का प्रथम नागरिक चुनेंगे, तो यह बात जाहिर रहेगी कि पार्टी को एक लोकप्रिय उम्मीदवार मैदान में उतारना होगा। वरना अपनी पार्टी के, कुछ खरीदे हुए, और कुछ निर्दलीय, कुछ बागी पार्षदों के दम पर कोई पार्टी ऐसे भी महापौर/अध्यक्ष बना सकती हैं जो कि अपने दम पर जीतने की ताकत न रखते हों। ऐसी भी चर्चा थी कि भूपेश बघेल ने अपनी पसंद के, लेकिन जनता को कम पसंद कुछ लोगों को महापौर बनवाने के लिए सीधे निर्वाचन को खत्म किया था, और अब एक बार फिर हर वोटर बिना पार्षद सीधे अपने महापौर चुन सकेंगे।
अमरीका में राष्ट्रपति (भारत के प्रधानमंत्री की तरह के शासन प्रमुख) को जनता सीधे चुनती है, उन्हें संसद सदस्यों के मार्फत नहीं चुना जाता। इसलिए भारत में भी ऐसी व्यवस्था को राष्ट्रपति शासन प्रणाली कहते हैं। और बीच-बीच में देश में ऐसी सुगबुगाहट भी होती है कि क्या कभी कोई पार्टी अपने अपार लोकप्रिय नेता के चेहरे के दम पर देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की सोच सकती है? और क्या संविधान में ऐसी गुंजाइश निकाली जा सकती है? इंदिरा गांधी के बहुत लोकप्रिय दौर से लेकर नरेन्द्र मोदी तक कुछ मौकों पर उनकी बहुत लोकप्रियता की वजह से यह चर्चा शुरू होती थी, और फिर लस्सी के झाग की तरह बैठ जाती थी। देश में जनता सीधे प्रधानमंत्री चुने, राज्य में जनता सीधे मुख्यमंत्री चुने, तो उससे क्या नफा और क्या नुकसान हो सकता है? हम महाराष्ट्र जैसे राज्य को देखें जहां कुछ पार्टियों को दो फांक करके, और तरह-तरह के गठबंधन बनाकर, कम विधायकों वाले नेता को भी मुख्यमंत्री बना दिया गया था, या झारखंड से बड़ी मिसाल और क्या होगी जहां एक अकेले विधायक मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बना दिया गया था, अगर ऐसे राज्यों में राष्ट्रपति शासन प्रणाली रहती तो क्या होता? क्या भारतीय लोकतंत्र को प्रदेश और देश के स्तर पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ ले जाने से व्यक्तिवादी राजनीति दलीय और सैद्धांतिक राजनीति के ऊपर हावी नहीं हो जाएगी? क्या उसमें सांसदों या विधायकों की मदद के बिना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बने लोगों के मिजाज में तानाशाही नहीं आ जाएगी? फिर अगर हम देखें तो एक प्रणाली के रूप में जो देश या प्रदेश के लिए सही नहीं है, वह शहर के लिए कैसे सही हो सकती है? किन तर्कों के आधार पर हो सकती है?
लेकिन हम सैद्धांतिक रूप से महापौर/अध्यक्ष को सीधे चुनने के खिलाफ भी नहीं हैं। उसे देश-प्रदेश की मिसाल से परे अगर देखें, तो यह समझ पड़ता है कि सीधे निर्वाचित मुखिया पार्षदों की ब्लैकमेलिंग या सौदेबाजी से ऊपर रहेंगे, और सीधे निर्वाचित नेता को हटाना भी उतना आसान नहीं रहेगा। कुछ लोगों का मानना है कि मतदाता के वोट से सीधे चुने जाने वाले मुखिया अधिक मनमानी करेंगे, और पार्षदों के काबू के बाहर के रहेंगे। लोगों के चेहरों के बारे में सोचे बिना ऐसा विश्लेषण आसान नहीं है। लोगों का यह भी मानना है कि स्थानीय निकायों के काम का दायरा, और काम की प्रकृति, ये दोनों राज्य या केन्द्र शासन से बिल्कुल अलग किस्म के रहते हैं, और स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मेयर सीधे बनना बेहतर होता है। हमारा ख्याल है कि पार्टी की नीतियों और स्थानीय शासन की जरूरतों के बजाय अधिक बड़ा तर्क यह रहता है कि किस पार्टी के पास लोकप्रिय चेहरे अधिक हैं। जिन लोगों को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा अधिक होगा, वे लोग ऐसे फैसले के हिमायती होंगे। यह बात कुछ हद तक सही लगती है कि बहुत छोटे-छोटे वार्ड होने से कुछ दर्जन वोटों से भी जीत-हार होती है, और अलग-अलग तरह के विधायकों में जोड़तोड़ करके, खरीद-फरोख्त की ताकत रखने वाले किसी माफिया के मेयर-अध्यक्ष बन जाने से बेहतर यह है कि एक-एक वोटर के वोट से शहर के प्रथम नागरिक चुने जाएं।
कुछ अधिक निराशा के नजरिए से अगर भारत के किसी भी चुनाव को देखें तो लगता है कि अब चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों पर, लोकप्रियता या पार्टी के नीति-कार्यक्रम पर कम जीते जाते हैं, वोटरों को सीधे फायदे पहुंचाने के पार्टी के वायदों, या रेवडिय़ों से अधिक जीते जाते हैं। यह बात हर चुनाव पर लागू होती है। इसके साथ-साथ प्रदेश या देश स्तर के चुनावों में जाति और साम्प्रदायिकता के मुद्दे लगातार हावी होते जा रहे हैं। फिर मानो यह भी अधिक न हो, वोटरों को शराब या नगदी से खरीदना भी बढ़ते चले जा रहा है। फिर किसी जाति या धर्म के वोटरों को वोट डालने से रोकने के लिए चुनाव के एक दिन पहले उन्हें भुगतान करके उनकी उंगलियों पर स्याही लगा देने जैसी बातें भी हो रही हैं। या उत्तरप्रदेश के ताजा उपचुनावों को देखें, तो जगह-जगह जिस तरह पुलिस मुस्लिम वोटरों को भगाते और वापिस भेजते दिखी है, उसके बाद उन नतीजों को क्या कहा जाए? इस तरह कुल मिलाकर इतने सारे अलोकतांत्रिक पहलू भारत के चुनावों पर हावी होने लगे हैं कि कोई भी चुनाव अपने आपमें पाखंड लगने लगे हैं। ऐसे में अब छत्तीसगढ़ में म्युनिसिपल चुनाव में शहर के मुखिया को सीधे चुनने से क्या नफा, क्या नुकसान होगा, नेताओं और पार्टियों को क्या-क्या सहूलियतें और दिक्कतें होंगी, यह तो हर चुनाव का तजुर्बा ही साबित कर सकता है। क्या ऐसा भी हो सकता है कि करोड़ों खर्च करने की ताकत रखने वाले व्यक्ति को ही उम्मीदवार बनाना पार्टी का एक पैमाना हो सकता है? क्या अब चुनावों में सिर्फ ऐसे ही धन-बल वाले नेताओं की गुंजाइश रह जाएगी? या फिर शहर में माफिया अंदाज में कारोबार करने वाले लोग उन्हें हिफाजत देने वाले नेताओं को जिताने के लिए करोड़ों खर्च करेंगे? और क्या आज भी माफिया कारोबारी अपने कारोबार के वार्डों में पार्षदों को जिताने के लिए दसियों लाख खर्च नहीं करते होंगे? शहरी निकायों के चुनावों को जितनी बारीकी से देखें, उतना ही अधिक यह लगता है कि ये चुनाव भ्रष्ट व्यवस्था के साये तले होते हैं, और भ्रष्ट व्यवस्था जारी रखने के लिए भी। लेकिन क्या किसी भी तरह का भ्रष्टाचार लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार की व्यवस्था को खारिज करने का तर्क हो सकता है? ऐसे कई सवाल चुनाव व्यवस्था पर चर्चा के दौरान दिल-दिमाग में उठते हैं, जैसे कि अभी शहर-मुखिया के सीधे निर्वाचन के फैसले से उठ रहे हैं। वोटरों को भी ऐसी संभावनाओं और आशंकाओं के बीच अपनी बेहतर पसंद के बारे में सोचना चाहिए कि सीमित संभावनाओं के बीच कम बुरा विकल्प क्या रहेगा?
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल जिले एमसीबी (मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-बैकुंठपुर) की खबर है कि वहां जनकपुर सरकारी स्कूल में एक शिक्षक 19 बच्चियों से गंदी बातें और अश्लील हरकत करते आ रहा था। बच्चियों ने यह बात महिला प्रधान पाठक को बताई लेकिन वह इसे दबाती रही। अब जब बच्चियों ने बाल संरक्षण अधिकारियों से टोल फ्री नंबर पर इसकी जानकारी दी तो जांच कमेटी बनी, और जांच में शिकायत सही मिलने पर शिक्षक और प्रधान पाठक के खिलाफ जुर्म दर्ज किया गया, और दोनों फरार हो गए हैं। शिक्षक सुमन कुमार रवि और प्रधान पाठक अनिता बेक को जांच कमेटी ने लंबे समय से ऐसी हरकत और उसे बचाने का दोषी पाया है। स्कूल में कुछ अरसा पहले जिला बाल संरक्षण अधिकारी ने एक जागरूकता शिविर लगाया था जिसमें बच्चियों को अच्छे और बुरे स्पर्श की जानकारी दी थी, और उसी के बाद बच्चियों ने सहायता नंबर पर फोन लगाकर शिकायत दर्ज कराई थी। अभी हफ्ता भर भी नहीं गुजरा है छत्तीसगढ़ में ही एक दूसरे स्कूल के प्रिंसिपल, हेडमास्टर और शिक्षक ने एक दूसरी स्कूल की नाबालिग आदिवासी छात्रा के साथ गैंगरेप किया था। इन्होंने इस छात्रा का कोई अश्लील वीडियो बना लिया था, और उसे ब्लैकमेल करके वीडियो फैला देने की धमकी देकर कई दिन तक बलात्कार करते रहे। एक हफ्ते के भीतर यह दूसरा मामला बताता है कि प्रदेश के आदिवासी इलाकों में छात्राएं स्कूलों में बहुत सुरक्षित नहीं हैं। यह समझने की जरूरत है कि जब 19 छात्राएं शिक्षक की अश्लील हरकत के बारे में शिकायत कर रही हैं, तो फिर 18 लोगों से ऐसी हरकत तक तो सब लड़कियां बर्दाश्त ही कर रही थीं।
इस मामले में इस बात की तरफ ध्यान देने की जरूरत है कि बाल संरक्षण के लिए तय किए गए टोल फ्री नंबर पर फोन करने से इन बच्चियों को मदद मिली, और इस मामले का भांडाफोड़ हुआ। सरकार का स्कूल चलाने वाला विभाग अगर इस नौबत को आने से रोक नहीं पाया था, तो सरकार का दूसरा विभाग बच्चों के अधिकारों को बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुआ। हम ऐसे मामलों को बहुत खुलासे से इसलिए लिखते हैं कि सरकार में बैठे लोगों को अपनी खामियों, और अपनी खूबियों को बारीकी से समझना चाहिए। हफ्ते भर में स्कूलों की इन दो घटनाओं में गिरफ्तारी हो जाना ही काफी नहीं होगा, इनसे सबक लेकर सरकारी अमले को पूरे प्रदेश में संवेदनशील बनाना पड़ेगा, सरकारी इंतजाम की जो खामियां हैं, उन्हें दूर करना होगा, और जो खूबियां हैं उन्हें बाकी जगहों पर भी अमल में लाना पड़ेगा। प्रदेश में स्कूलें चलाने वाले दो सरकारी विभाग हैं, स्कूल शिक्षा विभाग तो है ही, आदिवासी इलाकों में आदिम जाति कल्याण विभाग भी स्कूल और छात्रावास चलाता है। ये घटनाएं आदिवासी इलाकों से अधिक आ रही हैं, अब वहां पर ये किस विभाग के तहत की स्कूलों में हो रही हैं, इसे सरकार को देखना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ में बहुत छोटे-छोटे जिले बन गए हैं, और हर जिले में अधिकारी बढ़ते चले गए हैं। इसलिए अब लापरवाही और जुर्म की अनदेखी की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। वैसे भी प्रदेश में सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों की कतारें इतनी लंबी हैं कि जरा भी गड़बड़ी करने वाले कर्मचारियों-अधिकारियों की नौकरी खत्म करनी चाहिए, और उनकी जगह नए लोगों को मौका मिलना चाहिए। आज जब आम जनता को सरकारी राशन के अनाज की वजह से दो वक्त का खाना नसीब होता है, तब अगर सरकारी नौकरी मिलने के बाद अगर लोगों को रिश्वत लेने, बदसलूकी करने, अश्लील हरकत करने, या दारू पीकर स्कूल में पड़े रहने से फुर्सत नहीं है, तो ऐसे सरकारी कर्मचारियों को अधिक वक्त तक नहीं ढोना चाहिए। सरकार का कार्रवाई न करना बहुत से जुर्म करने वाले लोगों के लिए हौसला अफजाई हो जाता है। और ऐसे मामलों में बच्चों के यौन शोषण के आरोपों से घिरे लोगों को तो पहली जांच रिपोर्ट मिलते ही नौकरी से हटाना चाहिए, अदालती फैसले तो जब आते हैं तब आते हैं।
बच्चियों के यौन शोषण के मामले खतरनाक इसलिए हैं कि ऐसी हर घटना के बाद बाकी बच्चियों के मां-बाप भी उन्हें स्कूल या कहीं और भेजने से हिचकने लगते हैं। किसी भी सभ्य समाज में लड़कियों को लडक़ों के बराबर ही मौके और हिफाजत मिलने चाहिए। संस्थानों में शोषण की एक घटना संस्थानों की साख भी खत्म करती है, चाहे वह स्कूल रहे, चाहे वह कुश्ती संघ रहे, और वहां पढऩे या खेलने वाली सभी बच्चियों के सामने साख का संकट आता है। देश का सबसे भयानक मामला, अजमेर सेक्सकांड जिसमें सैकड़ों लड़कियों के साथ संगठित रूप से सिलसिलेवार और लगातार बलात्कार होते रहा, उससे एक वक्त ऐसा आ गया था कि अजमेर की उस पीढ़ी की लड़कियों की शादी में दिक्कत होने लगी थी। इसलिए स्कूल, खेलकूद, एनसीसी, या ऐसी किसी भी गतिविधि और जगह की साख को बनाए रखना महिला सशक्तिकरण के लिए भी जरूरी है।
इस ताजा घटना से पता लगता है कि लड़कियों का हौसला बढ़ाया जाए तो वे शिकायत दर्ज कराती हैं। शिकायत के ऐसे नंबरों की जानकारी और अधिक फैलानी चाहिए, और स्कूलों में लडक़े-लड़कियों को अच्छे और बुरे स्पर्श की बेहतर समझ देनी चाहिए। इन दिनों नाबालिग लडक़े बलात्कार के मामलों में चारों तरफ पकड़ा रहे हैं, स्कूल-कॉलेज के लडक़ों को भी यह समझाने की जरूरत है कि वे लड़कियों के साथ कैसा बर्ताव नहीं कर सकते, और कैसा बर्ताव करने पर कितनी कैद होती है, जिंदगी किस तरह बर्बाद हो जाती है। स्कूलों में यौन शोषण के मामलों को सिर्फ पुलिस और अदालत के लायक मान लेना गलत होगा। समाज के स्तर पर भी लडक़े-लड़कियों के बीच एक बेहतर जागरूकता जरूरी है। एक स्कूल के एक शिक्षक की 19 छात्राओं से अश्लील हरकतों पर भी वहां की प्रधान पाठिका ने महिला होते हुए भी सब कुछ दबाने की जो कोशिश की, वह बहुत निराश करती है। बहुत सी जगहों पर तो महिला अधिकारी और कर्मचारी को रखा इसीलिए जाता है कि वे बच्चों और लड़कियों के मामलों में कुछ अधिक संवेदनशील रहेंगी। ऐसा लगता है कि सरकारी कामकाज इस महिला की संवेदनशीलता खत्म कर गया था, सरकार को इस बारे में भी सोचना चाहिए। बल्कि लगे हाथों हम यह भी सलाह देंगे कि सरकार को अपने तमाम अमले को धर्म और जाति के आधार पर, औरत-मर्द के आधार पर, लडक़े-लडक़ी के आधार पर, विकलांगता के आधार पर, गरीबी के आधार पर भेदभाव के खिलाफ जागरूक करना चाहिए, और संवेदनशील बनाना चाहिए, इससे भी कई किस्म के जुर्म कम होंगे, और लोगों को बुनियादी हक मिलेंगे।
सोशल मीडिया पर लोग अपने मन की अराजकता, और हिंसा खुलकर उजागर करते हैं। हम लगातार लोगों के मन की जातीय, या साम्प्रदायिक नफरत की मिसालों के खिलाफ लिखते हैं, जिसका कि सिलसिला खत्म ही नहीं होता है। लेकिन इसके अलावा राजस्थान के उपमुख्यमंत्री के बेटे सहित देश भर के बहुत से ताकतवर, और आम-मामूली लोग भी कभी अपना जन्मदिन मनाते हुए, तो कभी सडक़ों पर गाडिय़ों की कलाबाजी दिखाते हुए अपने वीडियो बनाते हैं, और पोस्ट करते हैं। बहुत से लोग सडक़ों पर अपने जन्मदिन का केक काटते हैं, और कुछ अधिक उत्साही लोग तलवार से केक काटते हुए, पिस्तौल-बंदूक से हर्ष-फायरिंग करते हुए वीडियो भी पोस्ट करते हैं। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो कि असली या नकली चाकू-पिस्तौल लिए हुए अपनी फोटो और वीडियो पोस्ट करते हैं, और अभी पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की शिनाख्त करके उन्हें गिरफ्तार करके छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की पुलिस उनसे माफी के वीडियो बनवा रही है, और जारी कर रही है।
लेकिन यह सिलसिला आगे कैसे और क्यों बढ़ रहा है? एक प्रमुख वेबसाइट, द वायर, पर भारत में पनप रही गैंगस्टर संस्कृति और बच्चों पर उसके बुरे असर पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह लगातार खबरों में आए हुए लॉरेंस बिश्नोई सरीखे गैंगस्टर देश के बहुत से बच्चों के लिए आदर्श बन रहे हैं, और ऑनलाईन शॉपिंग की बहुत सी वेबसाइटों पर ऐसे खतरनाक गैंगस्टर की फोटो और नाम वाले कपड़े और दीगर सामान बिकना शुरू होने पर मुम्बई की पुलिस ने इनके खिलाफ जुर्म भी दर्ज किया है। वायर की यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह इस गैंगस्टर की शोहरत को आगे बढ़ाने में संगीत वाली वेबसाइटें, और पॉडकास्ट भी मदद कर रहे हैं जहां इनकी ‘बहादुरी’ के गाने पटे हुए हैं, और लाखों लोग इन गानों को देख रहे हैं।
हमारा मानना है कि हिन्दुस्तान में जिस तरह लॉरेंस बिश्नोई को न सिर्फ बिश्नोई समाज के एक हीरो की तरह पेश किया जा रहा है, बल्कि उसे हिन्दू नौजवानों के नायक की तरह भी बताया जा रहा है जो कि एक मुस्लिम, सलमान खान को मार डालने में लगा हुआ है। देश की हवा में साम्प्रदायिकता का जो जहर है वह लॉरेंस बिश्नोई को एक गैंगस्टर के बजाय मुस्लिम को मारने की ताकत रखने वाला हिन्दू-नायक साबित कर रहा है। जब जुर्म और साम्प्रदायिकता मिलकर लोगों की धार्मिकता की जगह ले लेती हैं, तो फिर ऐसे भयानक मुजरिम भी नौजवानों के रोल मॉडल बन जाते हैं, और उनकी ‘वीरता’ के गुणगान में गीतकार, और गायक-संगीतकार चारण और भाट की तरह लग जाते हैं। लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा और खतरनाक गुंडा, दाऊद इब्राहिम, दुबई में अपनी सालगिरह का जश्न करता है, और उसमें फिल्म इंडस्ट्री के बहुत से गायक, संगीतकार, अभिनेता-अभिनेत्री नाचते-गाते हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह अनु मलिक जैसे गायक-संगीतकार ने दाऊद की दावत में नाच-नाचकर गाया था- अमीरों को किसने अमीरी सिखाई, गरीबों की जिसने कुटिया सजाई, घर अपना छोड़ा खुशियां गंवाईं, पूछो तो पूछो वो कौन है, सबका भाई दाऊद भाई।
यह गाना अनु मलिक ने ही लिखा था, और गाया था। इसका वीडियो चारों तरफ फैला था, और हिन्दुस्तानी जनता इतनी महान हैं कि ढाई सौ से अधिक लोगों को मुम्बई धमाकों में मार डालने का मुजरिम, दाऊद इब्राहिम, दुबई में जन्मदिन मनाता है, और उसमें नाचने-गाने वाले, बाकी नए गायकों को ले जाने वाले अनु मलिक को यह देश अब तक संगीत के रियलिटी शो में जज बने देखता है। देश की सामूहिक चेतना नाम का शब्द इस देश के चरित्र से ही गायब है। देश के सबसे बड़े कातिल और मुजरिम के भाट यहां सिर पर बिठाए जाते हैं, और वे बच्चों की गायिकी के जज बनकर बैठते हैं। ऐसे में कोई हैरानी नहीं है कि बच्चों की पीढ़ी से लेकर उनके मां-बाप की पीढ़ी तक मुजरिमों के जुर्म के प्रति संवेदनशील नहीं रह जातीं।
लोगों को याद होगा कि एक समय इस देश में खालिस्तान के लिए, सिक्ख धर्म की आड़ में भिंडरावाले ने सैकड़ों हत्याएं करवाई थीं, और उसकी तस्वीर छपे टी-शर्ट पहनने वाले भी बहुत नौजवान अभी हाल के बरसों तक दिखते थे, और कारों के पीछे उसके बड़े-बड़े स्टिकर चिपके रहते थे। जब लोगों के दिमाग में धर्म छाया रहता है, तो कातिल भी उसे हीरो लगने लगते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में अलग-अलग प्रदेशों में दूसरे धर्म के लोगों का कत्ल करने वाले, दूसरे धर्म की बच्चियों से बलात्कार करने वाले लोगों को समाज के नायक बनाने वाले लोग कम नहीं हैं। जगह-जगह हत्यारों और बलात्कारियों का माला पहनाकर अभिनंदन होता है, और ऐसे हर अभिनंदन को देखने, और उसके बारे में सुनने वाली पीढ़ी के मन से मुजरिमों के लिए नापसंदगी खत्म होती जाती है। जिस देश में हिन्दू नौजवान पीढ़ी को लॉरेंस बिश्नोई इसलिए अच्छा लगने लगता है कि उसने एक मुस्लिम फिल्म स्टार को खत्म करने की कसम खाई हुई है, तो ऐसी पीढ़ी की चेतना की हत्या तो पहले ही हो चुकी है, सलमान की कभी हो पाए या नहीं।
एक समाज के रूप में हिन्दुस्तान आज परले दर्जे का गैरजिम्मेदार और मूढ़ समाज हो चुका है। इसे अपने व्यापक हित की समझ नहीं रह गई है, और यह अपनी साम्प्रदायिकता को, जातीय नफरत को अपनी ताकत मानकर बैठा है। जब देश के लोगों की वैज्ञानिक चेतना को, लोकतांत्रिक समझ और मानवीय मूल्यों को सिलसिलेवार और लगातार खत्म किया जाता है, तो फिर इससे होने वाली बर्बादी महज एक पीढ़ी में खत्म नहीं हो जाती। और अभी तो बर्बादी का यह सिलसिला जारी ही है, यह तो थमने के बाद जब समाज में सुधार होना चालू होगा तब जाकर इसमें बरसों लगेंगे, फिलहाल तो सभ्यता का उजडऩा जारी है, और ऐसे में एक मुस्लिम को मारने की कसम हिन्दू हृदय सम्राट बनने के लिए काफी मानी जा रही है, और नौजवान उसके छापे वाले टी-शर्ट पहनने पर आमादा हैं, और वह अनगिनत नौजवानों का रोल मॉडल बन ही चुका है। यह हिंसक सिलसिला समाज में जाने कब थमेगा, लोगों को अपनी पीढिय़ों की फिक्र करनी चाहिए, और अपने बच्चों को धर्म और जुर्म में फर्क करना सिखाना चाहिए, न कि धर्म के नाम पर जुर्म करना।
उत्तरप्रदेश के संभल में एक स्थानीय अदालत के आदेश पर वहां की शाही जामा मस्जिद का सर्वेक्षण किया गया, और इस दौरान वहां हुए तनाव और हिंसा में कुछ मौतें हुई हैं। अब स्थानीय अदालत के ऐसे आदेश के बाद एक दिन के भीतर सर्वेक्षण करने, और उसे अचानक दो दिनों बाद फिर से दुहराने पर सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जाहिर की है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थानीय अदालत की कार्रवाई पर रोक लगा दी है, और प्रशासन को हिदायत दी है कि उसे तटस्थ रहना है। यह उत्तरप्रदेश के पुलिस और प्रशासन को सुप्रीम कोर्ट से बार-बार मिलने वाली हिदायतों के लंबे सिलसिले की ताजा कड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद कमेटी को हाईकोर्ट जाने कहा है, और हाईकोर्ट को कहा है कि वह इनकी याचिका पर तीन दिन में सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि जिला अदालत के जज के आदेश पर उसे भी संदेह है, और आपत्ति है, लेकिन वह चाहती है कि मस्जिद कमेटी पहले हाईकोर्ट जाए, तब तक सुप्रीम कोर्ट इस मामले को अपने पास रख रही है, और मस्जिद का जो सर्वे जिला अदालत के आदेश पर हुआ है उस रिपोर्ट को बंद रखने को भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है। इस मामले को अजमेर की एक स्थानीय अदालत के आदेश के साथ जोडक़र देखा जाना चाहिए जिसमें वहां की आठ सौ बरस पुरानी और विश्वविख्यात दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने का दावा सुनवाई के लिए मंजूर किया गया है, और दरगाह सहित सभी पक्षों को नोटिस दिया गया है। इस मामले को देश के करीब डेढ़ दर्जन वरिष्ठ रिटायर्ड अफसरों द्वारा प्रधानमंत्री को लिखी गई एक चिट्ठी से भी जोडक़र देखना चाहिए जो देश में साम्प्रदायिकता खड़ी करने की कोशिशों के बारे में लिखी गई है।
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देश के सबसे प्रमुख कुछ ओहदों पर रहे हुए करीब डेढ़ दर्जन लोगों ने प्रधानमंत्री को लिखा है कि यह अकल्पनीय है कि एक स्थानीय अदालत सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की 12वीं सदी की दरगाह पर सर्वेक्षण का आदेश दे। यह भिक्षुक संत सूफी/भक्ति आंदोलन का अविभाज्य अंग था, और प्रधानमंत्री खुद हर बरस इस दरगाह के उर्स पर चादर भेजते आए हैं। इन लोगों ने प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा है ताकि देश में साम्प्रदायिकता को घटाने के बारे में कुछ सोचा और किया जा सके।
अब हम भारत के पड़ोस के बांग्लादेश की बात करना चाहते हैं जहां पर कई हिन्दू मंदिरों के खिलाफ हिंसा की खबरें आ रही हैं, और इस्कॉन संगठन के एक प्रमुख स्वामी को वहां राजद्रोह के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है। भारत सरकार ने इस पर बांग्लादेश की मौजूदा कार्यवाहक सरकार से विरोध दर्ज किया है, और इस पर ढाका का कहना है कि देशविरोधी गतिविधियों के कारण यह गिरफ्तारी हुई है। सडक़ों पर भी इस्कॉन को प्रतिबंधित करने के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। शेख हसीना सरकार को जनाक्रोश से बेदखल करने के बाद अब वहां भारत विरोधी माहौल भी बना हुआ है, और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जो हिंसक माहौल चल रहा है, उसका भी असर शायद बांग्लादेश पर पड़ रहा हो।
भारत में 787 जिले हैं, इनमें से तकरीबन हर किसी में अदालतें हैं। और आज देश का जैसा माहौल है, उसमें किसी भी किस्म के ओहदों पर बैठे हुए लोगों के बीच भी साम्प्रदायिकता उसी तरह घुसपैठ कर गई है जिस तरह समाज के दूसरे तबकों में। वरना सुप्रीम कोर्ट को यूपी के संभल के प्रशासन को यह हिदायत क्यों देनी पड़ती कि उसे निष्पक्ष रहना है, और कल ही यूपी की पुलिस को एक दूसरे मामले में चेतावनी देनी पड़ी कि अगर उसने अदालती आदेश के खिलाफ काम किया, तो उसे ऐसी सजा दी जाएगी कि सब याद रखेंगे। यूपी में मुस्लिमों के मकान-दुकान पर बुलडोजर चलाने को लेकर कितनी ही अदालती चेतावनियां आ चुकी हैं, और देश के कुछ दूसरे प्रदेशों में भी अदालतों को सरकार को ऐसी चेतावनी देनी पड़ी है। हमने बांग्लादेश में हिन्दुओं और बाकी भारतीयों के खिलाफ सत्ता पलट के तुरंत बाद हिंसा के वक्त बांग्लादेशियों को यह याद दिलाया था कि ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया भारत में उन लाखों बांग्लादेशियों के खिलाफ हो सकती है जो कि भारत में वैध या अवैध रूप से बसे हुए, और जिन्हें भारत ने 1971 की जंग के दौरान शरण दी थी। ठीक वैसी ही सलाह हम दुनिया के उन तमाम देशों में बसे लोगों को देना चाहते हैं कि वे वहां दूसरे समुदाय के साथ जैसा बर्ताव करेंगे, वह दुनिया के किसी दूसरे कोने में उनके समुदाय के दूसरे लोगों के साथ कोई और करेंगे। साल भर से अधिक से इजराइल फिलीस्तीनियों पर जो कहर ढा रहा है, उसी का नतीजा है कि अभी योरप में एमस्टरडम में इजराइलियों और यहूदियों पर एक फुटबॉल टूर्नामेंट के बाद हमला हुआ। योरप के एक विशेषज्ञ-जानकार के मुताबिक फिलीस्तीन पर इजराइली हमले शुरू होने के बाद से पूरी दुनिया में जगह-जगह यहूदी विरोधी हिंसा या हमले की नौबत आ रही हैं। कई जगहों पर जहां हिंसा तो नहीं होती, वहां भी सामाजिक बहिष्कार होता है, और उसकी गिनती पुलिस के आंकड़ों में नहीं हो पाती।
भारत में आज चारों तरफ जिस तरह एक मुस्लिम लहर पैदा की जा रही है, और उसे बढ़ाया जा रहा है, उसके नतीजे न तो देश के भीतर अच्छे होंगे, और न देश के बाहर उन देशों में जहां पर कि भारतवंशी बसे हुए हैं। जिन लोगों ने दुनिया देखी नहीं है, सिर्फ वही लोग यह मानकर चल सकते हैं कि वे अपने देश में जिससे जैसा चाहे बर्ताव करें, और उसकी दुनिया में कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। अब यह ताजा प्रतिक्रिया तो बांग्लादेश में ही देखने मिल रही है। हर देश में किसी न किसी धर्म या जाति के लोग अल्पसंख्यक हो सकते हैं, जैसे कि बांग्लादेश में हिन्दू हैं।
देश के जिन प्रमुख, और जागरूक भूतपूर्व अफसरों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। हालांकि इस चिट्ठी में ही उन्होंने यह लिखा है कि उन्हें इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री मौजूदा परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। भारत में अगर कुछ मुस्लिमों को बरसों तक बिना सुनवाई, बिना जमानत जेलों में बंद रखा गया है, देश की सुप्रीम कोर्ट भी न उनका मामला एक इंच आगे बढ़वा पाई, न उन्हें जमानत दे पाई, तो किसी के ऐसे पांच बरस दुनिया के बाकी लोग भी देखते हैं, और ऐसी बातों का भी असर भारत के बाहर बसे हिन्दू और हिन्दुस्तानियों को झेलना पड़ता है। आज भारत की कुछ जिला अदालतों के छोटे-छोटे जज जिस अंदाज में इस देश के उपासना स्थलों को लेकर बने कानून की अनदेखी कर रहे हैं, वह हैरान कर देने वाली बात है। दो दिन पहले ही हमने अपने यूट्यूब चैनल पर यह कहा था कि अगर हर पूजा स्थल की खुदाई करके मौजूदा धर्म के कब्जे को खारिज करना, और पिछले कब्जे को स्थापित करना है, तो फिर इस देश में हजारों हिन्दू मंदिरों के नीचे से बौद्ध मठ निकल आएंगे, और धर्मान्ध-साम्प्रदायिक लोग खुदाई करते-करते गुफा मानव तक पहुंच जाएंगे, और तब तक देश इस लायक ही रह जाएगा कि वह चकमक पत्थर से आग जलाएगा। कुछ उसी किस्म की बात कल भूतपूर्व अफसरों की चिट्ठी में भी है। देखते हैं प्रधानमंत्री क्या करते हैं।
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहरों के साथ यह एक आम दिक्कत है कि वहां जमकर अवैध निर्माण होता है, कुछ या अधिक हद तक सार्वजनिक जगह पर अवैध कब्जा होता है, और उसके साथ-साथ अपने दायरे से बाहर जाकर सामान फैलाकर कारोबार होता है। दूसरी तरफ सडक़ों पर जमकर ट्रैफिक जाम भी रहता है। जिन जगहों से गाडिय़ां निकलनी चाहिए वहां दुकानदारों का सामान पटे रहता है, नुमाइशी पुतले सजाकर खड़े कर दिए जाते हैं, और फुटपाथी कारोबारी भी सडक़ की चौड़ाई को खत्म कर देते हैं। जिनको बड़ी दुकान हासिल है, उनकी नीयत भी सामने सडक़ को दस-पन्द्रह फीट तक घेरने की रहती है। अभी कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल की मिलीजुली टीम ने एक-दो जगह से ऐसे अवैध कब्जे हटाए, तो लोगों का तर्क था कि वे 20-25 बरस से वहां कारोबार कर रहे हैं। इसका मतलब यही है कि 20-25 बरस में अवैध कब्जा करने वालों को हटाने की कार्रवाई की नहीं गई थी।
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहर किसी योजनाबद्ध कॉलोनी की तरह नहीं हैं, और वे धीरे-धीरे फैलते हुए मनमाने बने हुए हैं, लेकिन किसी भी तरह का अवैध काम अगर वह सडक़ किनारे के निर्माण का है तो वह छुप तो नहीं सकता, और वह जब कभी बनना शुरू होता है, तब से ही वह म्युनिसिपल के अधिकारियों और कर्मचारियों को दिखता ही है, हर इलाके के चुने हुए वार्ड मेम्बर रहते हैं, और ऐसे पार्षदों की मर्जी के बिना तो उनके वार्ड में एक गुमटी भी नहीं लग सकती। इसलिए ऐसे कब्जे चाहे दस बरस से हों, चाहे पच्चीस बरस से, ये इन तमाम जिम्मेदार लोगों की नजरों में रहते हैं, और वे लोग ऐसे अवैध कब्जे या अवैध निर्माण के लिए जिम्मेदार भी रहते हैं। प्रमुख सडक़ों के किनारे कई मंजिलों की इमारत अगर अवैध बन जाती है, तो इसमें जब तक तमाम जिम्मेदार लोगों की कम या अधिक हिस्सेदारी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। स्थानीय संस्थाओं में तकरीबन सौ फीसदी कर्मचारी और मझले अधिकारी स्थानीय ही होते हैं, और गलत निर्माण, गलत कब्जा करने वाले लोगों के साथ उनके पुराने रिश्ते रहते हैं, इसलिए इन पर कार्रवाई आसान नहीं रहती है। गिने-चुने बड़े अफसर म्युनिसिपल के बाहर से आते हैं, और वे अकेले कुछ अधिक कर नहीं पाते।
स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अपने कई किस्म के स्वार्थ रहते हैं। अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वालों से उन्हें मोटी कमाई होती है, और इसलिए वे कई जगहों पर तो अवैध कामों को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं। अगर सब कुछ नियम से बने, तो न कोई चुने हुए नेताओं को पैसे दे, और न ही म्युनिसिपल के कर्मचारियों-अधिकारियों को। जहां से गैरकानूनी काम शुरू होते हैं, वहीं से ऊपरी कमाई की संभावना भी शुरू होती है। इसलिए अभी जब 20-25 बरस से किसी जगह पर काबिज लोगों को हटाया गया, तो यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं था कि आम जनता की सहूलियत खत्म करने वाले ऐसे कब्जों को इतने बरस किसकी मेहरबानी से रहने दिया गया था।
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल ने मिलकर पहली बार ऐसी कार्रवाई की है। आज से 40 बरस पहले भी इस शहर में एक सीएसपी, और एक एडीएम, म्युनिसिपल कमिश्नर के साथ सडक़ों पर निकलते थे, और तमाम अवैध कब्जे कुछ घंटों में ही अपने आप हट जाते थे, सडक़ तक रखे गए सामान जब्त हो जाते थे। यह तो बाद के बरसों में वोटरों से डरे हुए सांसदों, विधायकों, और म्युनिसिपल नेताओं ने गैरकानूनी कामों को अनदेखा करना शुरू किया, और जब अनदेखा ही करना था, तो फिर जिस-जिससे बन पड़ता था, उन्होंने वसूली और उगाही भी शुरू कर दी। बहुत से नेता तो अपने समर्थकों से ही कब्जा करवा देते हैं ताकि उनकी कमाई चलती रहे तो वे नेता के उपकार के बदले उनका काम करते रहें।
यह तो भारत में पंचायती राज व्यवस्था के तहत म्युनिसिपल और पंचायत के चुनाव अनिवार्य हो गए हैं, और हर इलाके को स्थानीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिलना जरूरी है। वरना इसके पहले बीच-बीच में चुनाव न होने पर राज्य शासन किसी म्युनिसिपल में प्रशासक बिठा देती थी। और वैसे प्रशासक कभी-कभी निर्वाचित नेताओं के मुकाबले ज्यादा अच्छा काम करते थे क्योंकि उन पर स्थानीय दबाव नहीं रहता था। कुछ लोग प्रशासक की व्यवस्था को ही बेहतर मान लेते थे, लेकिन अगर इसी पैमाने पर देखें, तो फिर राज्य शासन ठीक न चलने पर मुख्य सचिव को उसका प्रशासक बना देना चाहिए, और प्रधानमंत्री का काम ठीक न रहने पर कैबिनेट सचिव को देश का प्रशासक बना देना चाहिए। लोकतंत्र की भावना को देखते हुए स्थानीय संस्थाएं चाहे कितनी ही भ्रष्ट हो जाएं, चाहे कितना ही खराब काम करें, उन्हें निर्वाचित लोगों के तहत ही काम करना है। इसलिए चुनाव होते रहेंगे, और अच्छे या बुरे जैसे भी हों, नेता उन पर काबिज रहेंगे।
स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था इस किस्म की रहती है कि वहां म्युनिसिपल कमिश्नर राज्य शासन की तरफ से तैनात होते हैं, जो कि शासन के लिए ही जवाबदेह रहते हैं, और निर्वाचित नेताओं के मनमाने फैसलों पर काफी हद तक रोक-टोक करने का हक उनको रहता है। अगर वे ही ईमानदारी और सख्ती से काम करें, तो वे बहुत सारे गलत काम रोक सकते हैं। हमें इस सिलसिले में नागपुर में एक वक्त तैनात म्युनिसिपल कमिश्नर याद पड़ते हैं जो कि वहां के एक आईएएस अफसर थे, और उन्हें राज्य सरकार ने शहर को सुधारने की खुली छूट दी थी। एक अकेले अफसर ने पूरे शहर की सडक़ों से अवैध कब्जे हटवा दिए थे, सारे रास्ते चौड़े हो गए थे, और शहर एक बार फिर जिम्मेदार शहर लगने लगा था, खूबसूरत भी, और सहूलियतों वाला भी। इसलिए शहरों को सुधारने का काम उन नेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता जिन्हें उसी शहर से वोट पाकर म्युनिसिपल, या विधानसभा-लोकसभा तक जाने की हसरत रहती है। इसके लिए एक संतुलन बनाकर राज्य सरकार को काबिल अफसरों को म्युनिसिपल भेजना चाहिए, और इस तैनाती को कम से कम दो बरस का रखना चाहिए ताकि ये अफसर शहर को समझ भी सकें।
बरसों बाद जब किसी शहर में कार्रवाई शुरू होती है, तो लोग इंतजार इसी बात का करते हैं कि कब राजनीतिक दबाव इसे रोक देगा। सरकार को प्रदेश के हित में ऐसी राजनीतिक दखल से बचना चाहिए, और अफसरों को कड़ाई से सुधार करने का जिम्मा देना चाहिए। कोई शहर कितना व्यवस्थित है, उससे न सिर्फ उस शहर की साख बनती है, बल्कि उस प्रदेश की भी इज्जत बनती या बिगड़ती है। अब तो टेक्नॉलॉजी बड़ी सस्ती हो गई, इसलिए म्युनिसिपल को अपने पूरे इलाके की हर बरस वीडियो रिकॉर्डिंग करानी चाहिए ताकि यह अच्छी तरह दर्ज रहे कि कहां पर नए कब्जे हो रहे हैं, या नए अवैध निर्माण हो रहे हैं। एक तरफ गैरकानूनी काम करने वाले सडक़ों पर कब्जा करें, और दूसरी तरफ आम लोग सडक़ों से गुजर न पाएं, यह बहुत शर्मनाक नौबत है। यह सारा काम सरकार और स्थानीय संस्थाओं की बुनियादी जिम्मेदारी है, इसलिए इसके लिए अदालत तक जाने की नौबत लाना ठीक नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला आया है कि महज आरक्षण का फायदा पाने के लिए किसी का धर्म परिवर्तन करना जायज नहीं है। इस मकसद से किए गए धर्म परिवर्तन पर ऐसा कोई फायदा नहीं दिया जा सकता। मद्रास हाईकोर्ट ने इसी साल जनवरी में ऐसा ही फैसला दिया था जिसके खिलाफ अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे जारी रखा है। एक हिन्दू, अनुसूचित जाति के पिता और ईसाई माता की बेटी को जन्म के बाद जल्द ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी। बाद में बड़े होने पर उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए एससी प्रमाण पत्र मांगा, लेकिन उसे देने से मना कर दिया गया क्योंकि परिवार ईसाई परंपरा पर चल रहा था, ईसाई हो भी चुका था, और नियमित चर्च जाता था। यहां याद रखने की बात यह है कि अनुसूचित जनजाति के लोग, आदिवासी अगर ईसाई बनते भी हैं, तो भी उनका आरक्षित दर्जा कायम रहता है। लेकिन अगर अनुसूचित जाति, एससी के लोग ईसाई बनते हैं, तो चूंकि ईसाई समाज में जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए वे ईसाई होकर अछूत नहीं रह जाते, और इसी आधार पर उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना बंद हो जाता है। इस पुरानी संवैधानिक व्यवस्था को लेकर लोगों के बीच जानकारी थोड़ी सी कम इसलिए रहती है कि एसटी-एससी आरक्षित तबकों को लोग आमतौर पर एक साथ गिनते हैं, लेकिन दोनों तबकों के लिए धर्म बदलने पर व्यवस्था अलग-अलग है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कहा है कि ईसाई बने दलित अपनी जातिगत पहचान खो देते हैं, और अगर वे दलित होने की वजह से आरक्षण दुबारा चाहते हैं, तो इसके लिए उन्हें दुबारा हिन्दू होने, और अपनी आरक्षित दलित जाति में जाने, वहां मंजूर किए जाने के ठोस सुबूत देने होंगे। और यह सहूलियत भी उन लोगों को हासिल नहीं होगी जो कि ईसाई परिवार में ही पैदा हुए हैं। जो लोग जन्म से हिन्दू-दलित रहे हों, और बाद में ईसाई बने हों, वे कई तरह की कानूनी और सामाजिक औपचारिकताओं को पूरा करके, अपनी पिछली जाति में शामिल होने के बाद आरक्षण का दावा कर सकते हैं।
भारत में आरक्षण हमेशा से एक दिलचस्प बहस का मुद्दा रहा है क्योंकि संविधान के तहत अलग-अलग तबकों को दी गई रियायत का समाज के अनारक्षित तबके बड़ा विरोध करते हैं, और लोगों को लगता है कि आरक्षण से बाकी लोगों की संभावनाएं सीमित होती चली जाती हैं। फिर शुरूआत से ही चले आ रहे एसटी-एससी आरक्षण से परे बाद के दशकों में जोड़े गए ओबीसी आरक्षण, उसके बाद महिला आरक्षण, उसके बाद अनारक्षित तबके के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण भी विवाद का सामान बने रहे। फिर यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में सरकारी नौकरियों में तो ओबीसी आरक्षण है, स्कूल-कॉलेज के दाखिले में भी है, लेकिन संसद और विधानसभा के चुनावों में ओबीसी आरक्षण नहीं है। अब अगली जनगणना के बाद होने वाले डी-लिमिटेशन के बाद महिला आरक्षण लागू होगा, और वह संसद और विधानसभाओं की पूरी तस्वीर बदल देने वाला होगा। ऐसे देश में जब धर्म में जाना, या धर्म को बदलना भी दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था बदल देता है, तो फिर इस मुद्दे पर अभी सुप्रीम कोर्ट के इस लंबे फैसले को बारीकी से समझना जरूरी हो जाता है, और इसीलिए आज हम इस पर यहां लिख रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने इस फैसले में यह साफ किया है कि जाति व्यवस्था का नुकसान तभी तक ध्यान में रखा जा सकता है जब तक कोई व्यक्ति जाति आधारित धर्म का पालन कर रहे हों। जब वे जातिविहीन धर्म में चले जाते हैं, तो फिर वहां वे अपने पिछले धर्म के तहत अपनी पिछली जाति के आरक्षण-नफे का दावा नहीं कर सकते। इस सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में डी-लिस्टिंग नाम से आंदोलन का एक पुराना इतिहास है। आदिवासी समाज के जो लोग ईसाई बन जाते हैं, लेकिन उसके बाद भी आरक्षण का फायदा पाते हैं, उनके खिलाफ बाकी आदिवासी समाज की तरफ से एक डी-लिस्टिंग आंदोलन दशकों पहले झारखंड में शुरू हुआ था, और कांग्रेस के एक बड़े नेता उसके पीछे थे, और हाल के बरसों में छत्तीसगढ़ में यह आंदोलन जोर पकड़ रहा है। इसमें राज्य सरकार से अपील जरूर की जा रही है, लेकिन यह केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात है। कुछ लोग इसे आदिवासी जनजागरण का दौर भी मान रहे हैं कि ईसाई बने आदिवासियों से आरक्षण का लाभ वापिस ले लेना चाहिए। लेकिन दलितों के विपरीत आदिवासियों के ईसाई बनने पर भी यह व्यवस्था इसलिए जारी रहती है कि दलित तो अछूत से छूत हुए मान लिए जाते हैं, लेकिन ईसाई बनने के बाद भी आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को जारी रखते हैं। फिलहाल देश में जहां-जहां आदिवासियों के ईसाई बनने के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं, उन्हें इससे रोका जा रहा है, वहां पर डी-लिस्टिंग का मुद्दा एक बड़े हथियार की तरह हवा में लहराया जा रहा है।
भारत में स्कूल-कॉलेज के दाखिलों से लेकर नौकरी और चुनाव आरक्षण तक जातियों की जागरूकता का एक नवजागरण का दौर चल रहा है। सभी समुदायों के लोग अपने-अपने हक के लिए उठ खड़े हुए हैं, और अगले कुछ दशक तक यह एक बड़ा चुनावी, राजनीतिक, और सामाजिक मुद्दा बने रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)