संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी-किसी देश में लहरें ट्रम्पों के खिलाफ भी हैं...
सुनील कुमार ने लिखा है
04-May-2025 3:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  किसी-किसी देश में लहरें  ट्रम्पों के खिलाफ भी हैं...

हिन्दुस्तान जैसे देश में जिसे पश्चिम कहते हैं, वहां के देशों में राजनीतिक विचारधाराएं किस तरह जनता का समर्थन या विरोध पा रही हैं, वह देखने लायक है। सबसे ताजा नतीजे ऑस्ट्रेलिया के चुनाव के हैं, और वहां सत्तारूढ़ लेबर पार्टी को दूसरा कार्यकाल मिला है, और उसके प्रधानमंत्री एंथनी एल्बनीज दुबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। एक चौंकाने वाली बात यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया की जनता ने इस सेंटर-लेफ्ट पार्टी को इस कदर जिताया है कि यहां पर विपक्ष के नेता पीटर डटन 24 साल से एक ही सीट पर लगातार जीत के बाद इस बार हार गए हैं। इस बार लेबर पार्टी की एक महिला उम्मीदवार ने उन्हें हरा दिया है। दूसरी तरफ कनाडा के नतीजे अभी-अभी सामने आए हैं, और इनके मुताबिक यहां की लिबरल (उदारवादी) पार्टी ने तकरीबन बहुमत पा लिया है, और उसे जरा सी सीटों की जरूरत पड़ेगी। और यहां पर भी दक्षिणपंथी पार्टी के नेता पियरे पाइलिवरे अपनी सीट पर हार गए हैं। एक हफ्ते में इन दो बड़े देशों में दक्षिणपंथी हारे हैं, और उदारवादी, या सेंटर-लेफ्ट पार्टियां जीती हैं। अभी कुछ समय पहले इसी बरस जर्मनी में सेंटर-राईट कही जाने वाली दक्षिणपंथी पार्टी सबसे आगे थी, और इसके पहले के नवंबर-24 के चुनावों में अमरीका के अब तक के सबसे दक्षिणपंथी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ऐतिहासिक तरीके से जीतकर आए थे। जर्मनी, और अमरीका के बाद कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में उदारवादी और सेंटर-लेफ्ट पार्टियों की जीत एक अलग किस्म का संकेत है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि अभी-अभी यूके में स्थानीय चुनावों में दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी को बड़ी जीत मिली है। लेकिन यूनाइटेड किंगडम पर लेबर पार्टी का राज है जिसने कि 2024 के आम चुनाव में भारी बहुमत से संसद पर कब्जा किया था, और 14 बरस का कंजरवेटिव पार्टी का राज खत्म किया था। आज भी लेबर पार्टी यूके पर काबिज है ही जो कि सेंटर-लेफ्ट पार्टी कही जाती है, और यह सामाजिक न्याय, कामगारों के अधिकार, और आर्थिक समानता की हिमायती पार्टी है।

भारत की नजर से पूरे योरप, अमरीका, और न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, और कनाडा को पश्चिमी देश ही कह दिया जाता है। ये अलग-अलग उपमहाद्वीप भी हैं, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे से बहुत अलग भी हैं, और ऐतिहासिक रूप से यहां पर अलग-अलग विचारधाराएं राज करते आई है। आज भी योरप के कई देशों में, संकीर्णतावादी पार्टियां राज कर रही हैं, जिनमें इटली का नाम सबसे ऊपर लिया जा सकता है जहां कि दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री बहुत आक्रामक तरीके से विश्वमंच पर दिखती हैं। इससे परे जर्मनी, बल्जियम, हंगरी, स्लोवाकिया, फिनलैंड, और नीदरलैंड्स में दक्षिणपंथी पार्टियां या गठबंधन राज कर रहे हैं। इनमें घरेलू मुद्दे अलग-अलग भी मायने रखते हैं, और कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो योरप के तमाम देशों पर एक तरह से हावी हो जाते हैं जो कि दूसरे देशों से आए हुए शरणार्थियों के हैं। जर्मनी में दक्षिणपंथी सरकार के आने के पीछे यह एक बड़ी वजह थी कि वहां पर आकर बसे हुए शरणार्थियों में तकरीबन तमाम लोग मुस्लिम थे, और लोगों को यह लगने लगा था कि इससे उस देश का चरित्र बदल रहा है। अब बाकी चीजों की तुलना किए बिना अगर हम सिर्फ एक छोटे से पहलू की तुलना करें, तो भारत में भी पिछले चुनावों में यह एक बड़ा मुद्दा रहा कि पड़ोसी देशों से आए हुए मुस्लिम भारत में इतनी अधिक संख्या में बस गए हैं, और मुस्लिम समाज की आबादी हिन्दू समाज के मुकाबले अधिक रफ्तार से बढ़ रही है, तो इससे क्या देश में हिन्दू और मुस्लिम आबादी का अनुपात खतरनाक तरीके से बदल जाएगा? अभी हम इस तर्क की बारीकी में जाना नहीं चाहते, लेकिन पश्चिम की नजर में भारत की जो हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी है, उस भाजपा को देश के लगातार तीसरे आम चुनाव में चाहे कम सीटों सहित, सत्ता पर वापिसी का मौका मिला, और देश के राज्यों में से सबसे अधिक राज्यों पर यही पार्टी राज कर रही है। इस तरह इटली, जर्मनी, और ब्रिटेन सरीखा हाल भारत में भी रहा, जहां पर शरणार्थी, और उनका धर्म एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बने रहे। यह मुद्दा ब्रिटेन में भी बन सकता था क्योंकि वहां भी प्रवासी बहुत अधिक हैं, और वहां बसे हुए मुस्लिमों के साथ गैरमुस्लिम अंग्रेज आबादी के हिंसक टकराव भी कई जगह हो चुके हैं, लेकिन इटली, जर्मनी, जैसे देशों का असर ब्रिटिश चुनावों पर नहीं हो पाया, और तकरीबन तीन चुनावों के बाद लेबर पार्टी वहां सत्ता पर लौटी।

हम बहुत सारे देशों की चर्चा एक साथ इसलिए कर रहे हैं कि हर लोकतंत्र दूसरे लोकतंत्रों से कुछ सीख सकते हैं। वे कम से कम इतना तो सीख ही सकते हैं कि जब दुनिया के दूसरे देशों में धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर कोई लहर चलती है, तो वह दूर-दूर तक असर कर सकती है। अब अगर दूसरे देशों में कुछ दूसरे स्थानीय मुद्दे बहुत अधिक हावी हैं, तो एक अलग बात है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो जिस तरह दुनिया में फैशन के ट्रेंड चलते हैं, उसी तरह धर्म और राष्ट्रीयता के मुद्दे भी सरहदों के आर-पार असर डालते हैं। ट्रम्प की शक्ल में अमरीका ने अपने ताजा इतिहास का सबसे अधिक दक्षिणपंथी, सबसे अधिक कट्टर राष्ट्रपति देखा है, और दुनिया के कई देशों में उसकी प्रतिक्रिया से हो सकता है कहीं कट्टरता बढ़े, और हो सकता है कि कहीं कट्टरता को शिकस्त भी मिले। ट्रम्प के मामले में यह भी समझना होगा कि उसकी आर्थिक नीतियां, उसकी विस्तारवादी नीयत ने भी अमरीका की इस संकीर्णतावादी-दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी की साख को प्रभावित किया है।

आज की यहां की हमारी बातचीत का कोई एक अकेला निष्कर्ष नहीं है, लेकिन कम से कम यह बात समझने की है कि ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे गोरे देशों में, या यूनाइटेड किंगडम जैसे पूरे ही गोरे इतिहास वाले देश में भी आज उदारवादी, या सेंटर-लेफ्ट पार्टियां चुनाव जीतकर आ रही हैं जो कि कामगारों के हक की हिमायती हैं, जो दूसरे देशों से आए हुए मजबूर शरणार्थियों का साथ देती हैं, जो अपने देश में ट्रांसजेंडरों जैसे अलग-अलग तबकों के हक का सम्मान करती है, मोटेतौर पर जो ट्रम्प को नापसंद तमाम चीजों को पसंद करती हैं। ऐसी पार्टियां भी आज दुनिया के कुछ बड़े-बड़े देशों में सत्ता पर दुबारा आ रही हैं, या कुछ वक्त के बाद फिर से आ रही हैं। आज की यह चर्चा सिर्फ इस दिलचस्प उतार-चढ़ाव को सामने रखने की है, लोग इन लहरों पर अपने देश-प्रदेश के उतार-चढ़ाव को भी देख सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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