संपादकीय

फेसबुक पर कई लोग एक पोस्टर पोस्ट कर रहे हैं कि बुलेट ट्रेन उन देशों के लिए बनी है जहां समय की कमी हो, भारत में तो अगर कहीं जेसीबी लगी है, तो भी आधा गांव उसे देखने चले जाता है, और ड्राइवर बैक कर रहा हो, तो 15 आदमी उसे आने दे-आने दे कहने में लगे रहते हैं। यह बात भारत की अधिकांश आबादी पर तो लागू होती है, लेकिन आबादी का एक हिस्सा ऐसा भी रहता है जिसके लिए समय की कीमत रहती है। बहुत से कामकाजी लोग एक-एक घंटे का हिसाब लगाकर अपना काम तय करते हैं, और हवाई सफर करने वाले लोग यह भी ध्यान रखते हैं कि सामान अपने साथ केबिन में ही रखा जाए, ताकि बाद में उसे लेने का इंतजार न करना पड़े। देश में दिल्ली में हवाई अड्डे की क्षमता चुक सी गई है, इसलिए दिल्ली के करीब जेवर में एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बन रहा है जिसका अगले 25-50 बरस तक विस्तार भी हो सकेगा। इस बीच देश के कुछ प्रमुख शहरों के बीच बुलेट ट्रेन की योजना भी बन रही है, और इससे इन शहरों के बीच सफर का समय आधे से भी कम रह जाने का हिसाब योजना में बताया गया है। अब जैसा कि किसी भी योजना के साथ होता है, उसमें पूंजीनिवेश के अनुपात में कमाई कितनी होगी, बचत कितनी होगी, यह भी देखा जाता है। लेकिन तात्कालिक बचत से परे यह भी समझने की जरूरत रहती है कि अगले 25-50 बरस की जरूरतों में ऐसे रेल ढांचे की जरूरत कितनी है।
हम लागत और सहूलियत का अनुपात बैठाने जितनी जानकारी नहीं रखते, इसलिए हम इस योजना को पूरी तरह खारिज नहीं कर रहे हैं। फिर यह बात भी है कि महंगी बुलेट ट्रेन हवाई मुसाफिरों के लिए एक विकल्प की तरह रहेगी, और इसकी टिकट और सफर के समय को हवाई सफर के कुल समय से मिलाकर देखना होगा, जिसमें शहर के बीच से एयरपोर्ट तक आने-जाने का समय और खर्च भी देखा जाएगा। हमने चीन में सैकड़ों शहरों को हवाई सफर से जुड़े हुए देखा है, और डेढ़ सौ से अधिक शहर बुलेट ट्रेन से जुड़े हुए हैं। भारत में डेढ़ सौ से कम शहर विमान सेवा से जुड़े हुए हैं, और चीन में ढाई सौ से अधिक शहर। चीन की अर्थव्यवस्था 17.7 ट्रिलियन डॉलर की है, और भारत की अर्थव्यवस्था 3.9 ट्रिलियन डॉलर की है। भारत से चार गुना अधिक अर्थव्यवस्था वाले चीन का ट्रेन और प्लेन का ढांचा भी बहुत बड़ा है, लेकिन बड़े आकार के साथ-साथ एक दूसरी बात यह भी है कि चीन में सफर भारत के मुकाबले बहुत अधिक व्यवस्थित है, और बेहतर भी। इसलिए सफर के ढांचे का वहां पर अधिक इस्तेमाल होता है।
भारत में पिछले कुछ बरसों में, खासकर कोरोना-लॉकडाउन के वक्त से ट्रेनों में जिस तरह की कटौती हुई है, और ट्रेनों के डिब्बों की गिनती घटी है, छोटे-छोटे स्टेशन खत्म किए गए हैं, उनसे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के ढांचे पर तो फर्क नहीं पड़ा है क्योंकि वह तो सबसे गरीब पर सीधे टिकी हुई नहीं रहती, लेकिन रेलवे की जनकल्याणकारी भूमिका बहुत बुरी तरह पिछड़ गई है कि छोटे गांव-कस्बे के लोग रोजगार के लिए, कारोबार या पढ़ाई के लिए पास के शहर तक आने-जाने की सुविधा खो बैठे हैं। राष्ट्रीय उत्पादकता के आंकड़ों में सबसे गरीब लोगों की जिंदगी में पडऩे वाले ऐसे बुरे असर की झलक कम ही दिखती है क्योंकि गांव के बच्चे पढऩे के लिए शहर आ सकें , या नहीं, इससे आज की उत्पादकता पर फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मानव-क्षमता के पिछडऩे का फर्क लंबे दौर में जाकर दिखता है। आज चीन में हर इंसान को हुनरमंद बनाने का जो जिम्मा सरकार ने उठा रखा है, वही वजह है कि दुनिया की हर कंपनी चीन में अपने सामानों को बनाने के कारखाने चला रही हैं। और ऐसा हुनर गांव में बैठे बेरोजगारों को वहीं रखकर विकसित नहीं किया जा सकता।
किसी देश की आज की अर्थव्यवस्था, और भविष्य का उसका अनुमान दो अलग-अलग आंकड़े रहते हैं। आज पूरी दुनिया यह महसूस कर रही है कि देशों की गिरती हुई आबादी उनकी भविष्य की गिरती हुई अर्थव्यवस्था का एक संकेत है। अमरीकी राष्ट्रपति ने अभी एक-दो दिनों में ही यह कहा है कि वे हर बच्चे के पैदा होने पर उसकी मां को पांच हजार डॉलर देंगे, ताकि अमरीका की आबादी गिरने की नौबत जारी न रहे, और रिटायर्ड बूढ़ों के साथ नौजवान कामगारों का अनुपात बना रहे। भारत में आज आबादी का यह अनुपात तो बना हुआ है, लेकिन आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा चीन की तरह का हुनरमंद बिल्कुल नहीं है, वह ऐसा बेरोजगार बैठा है कि फेसबुक का यह पोस्टर पहली नजर में सही लगता है कि एक जेसीबी को चलते देखने के लिए आधा गांव इकट्ठा हो जाता है। हम तो शहरों में देखते हैं कि म्युनिसिपल की जेसीबी जैसी मशीनें जब नालों को साफ करती हैं, तो उस गंदगी को देखने के लिए भी आधा-चौथाई मोहल्ला तो इकट्ठा हो ही जाता है।
बुलेट ट्रेन और नए-नए हवाई अड्डे उस संपन्न और हुनरमंद बड़े कामगारों के लिए जरूरी और ठीक हैं जिनके समय की बहुत अधिक कीमत होती है। लेकिन देश की बहुत बड़ी आबादी के समय को यह देश इतना फिजूल मानता है कि उनसे कदम-कदम पर कतारें लगवा लेता है। सुबह से गैस सिलेंडर ले-लेकर लोग एजेंसियों के सामने कतारें लगाए दिखते हैं, फिर अस्पतालों में लंबी कतारें, और कई-कई दिन बाद मिलने वाली जांच की बारी का सामना करना पड़ता है। पटवारी और तहसील बिना किसी बात के महीनों और बरसों लगाने के लिए जाने जाते हैं, और इसी वक्त को बचाने के लिए लोग रिश्वत देते हैं। अदालतों में अधिकतर मामलों में दर्जनों या सैकड़ों पेशियां चलते रहती हैं, और सरकार के हर ऑफिस में लोग धक्के और चक्कर दोनों खाते रहते हैं, एक टीवी सीरियल के मुसद्दीलाल की तरह।
इसलिए बुलेट ट्रेन इस देश में एक ऐसी विसंगति भी बताती है कि आबादी का पांच-दस फीसदी हिस्सा कुछ घंटे बचाने की सहूलियत पा रहा है, और 90-95 फीसदी आबादी फिसड्डी बनाकर रखी गई है, या कि सरकारी दफ्तरों में अपने वक्त को बर्बाद करने को बेबस है। एक ही वक्त देश के एक हिस्से में बुलेट ट्रेन चलेगी, और सरकार आम जनता की जरूरत के काम कछुए की रफ्तार से करेगी। यह विसंगति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के ताजा आंकड़ों के सिर चढक़र नहीं बोलती, लेकिन यह है बहुत भयानक। भारत एक पैर 22वीं सदी में ले जाना चाह रहा है, और दूसरा पैर 20वीं सदी के अंग्रेजों की बेरहम व्यवस्था में टिका हुआ है। ऐसे में इन दोनों पैरों पर टिके हुए बाकी धड़ का क्या हाल होता है, हम उस खून-खराबे की चर्चा करना नहीं चाहते। जब देश को कतरे-कतरे में देखा जाएगा, तो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, और बुलेट ट्रेन सबको जायज ठहराया जा सकेगा, और सबकी जरूरत साबित की जा सकेगी, लेकिन जब देश की अधिकतर आबादी की संभावनाओं के साथ इसे जोडक़र देखा जाएगा, तो एक अलग ही बेइंसाफ तस्वीर दिखेगी। और यह बेइंसाफी सिर्फ देश की अधिकतर आम आबादी के साथ ही नहीं है, यह बेइंसाफी देश के भविष्य के साथ भी है क्योंकि आने वाले दशकों की अर्थव्यवस्था आम लोगों के हुनरमंद और उत्पादक हुए बिना नहीं बढ़ पाएगी। आज पूरी दुनिया आबादी को बढ़ाना चाहती है, और उसे हुनरमंद बनाकर अपनी अर्थव्यवस्था के भविष्य की गारंटी करना चाहती है। भारत अपनी आबादी को इस हालत में रखकर कैसे आगे बढ़ेगा कि आधा गांव जेसीबी देखने के लिए इकट्ठा हो जाता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)