संपादकीय

फोटो, कार्टूनिस्ट आलोक निरंतर
जंग के दौर में पहली शहादत सच की होती है। गोलियों से लाशें, और मिसाइलों से छतें तो बाद में गिरती हैं, जंग की हवा चलना शुरू होता है, और सच को सबसे पहले मारा जाता है। इसकी एक वजह यह रहती है कि सच न राष्ट्रवाद को माकूल बैठता, न ही युद्धोन्माद को। और सच आंखों की किरकिरी जैसा रहता है, जिसे लोग जल्द से जल्द निकाल फेंकना चाहते हैं, सच केसरिया पुलाव में आ गए कंकड़ सरीखा रहता है जो कि खाने का मजा किरकिरा कर देता है, लोग दांतों में उसका अहसास होते ही उसे भी निकाल फेंकते हैं। सच इतना अकेला होता है कि वह रेगिस्तान में सैकड़ों किलोमीटर की खाली जगह के बीच में खड़े एक अकेले कैक्टस जैसा रहता है, और बोलचाल की भाषा में भी अकेले सच को पचाना मुश्किल रहता है, इसलिए उसके साथ मुच जोडक़र उसे सचमुच बनाया जाता है, ताकि लोगों के गले उतर सके। जंग के माहौल में सच एक अवांछित नवजात शिशु की तरह रहता है जिसे तुरंत ही घूरे पर फेंक देना, या नाले में बहा देना बेहतर माना जाता है।
जंग के माहौल में सरहद के दोनों तरफ के लोग इस असाधारण दबाव और तनाव में रहते हैं कि अपनी मातृभूमि, या फॉदरलैंड के प्रति वफादारी दिखाने के लिए वे सच और झूठ का फर्क किए बिना एक मनोवैज्ञानिक युद्ध का हिस्सा बन जाएं। वैसे भी सत्य की खोज बड़ी मुश्किल रहती है, समंदर की तलहटी में मोती शायद अधिक आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन जंग के बादलों के नीचे अंधेरा इतना रहता है कि वहां हाथ को हाथ नहीं सूझता, आंखों से दिखता भी है तो दिमाग उसे रजिस्टर करने से मना कर देता है। जंग के बारे में एक पुरानी कही हुई बात बिल्कुल सही साबित होती है कि सच जब तक जूतों के तस्मे बांधता है, तब तक झूठ पूरे शहर का फेरा लगाकर लौट आता है। और जंग के माहौल में कुछ खास किस्म के झूठ देशभक्ति, देशप्रेम, और राष्ट्रवाद के सुबूत भी माने जाते हैं, और लोग उन्हें गर्व के साथ कंधों पर पुलिसिया और फौजी सितारों की तरह सजाकर चलते हैं। जंग के माहौल में जितना इस्तेमाल हथियारों का रहता है, खुफिया जानकारी का रहता है, उससे थोड़ा अधिक ही इस्तेमाल सोचे-समझे, और गढ़े हुए झूठ का रहता है जिसे कि मनोवैज्ञानिक युद्ध में एक कारगर हथियार माना जाता है। जानकार विशेषज्ञ होने का दंभ भरने वाले लोग टीवी चैनलों पर साइकोलॉजिकल वॉर को साई वॉर, साई वॉर कहते हुए थकते नहीं हैं, और छोटा शब्द कहने से बचे हुए वक्त का इस्तेमाल वे दूसरे तरह के विशेषज्ञ-झूठ सामने रखने में करते हैं।
अब अभी से कुछ मिनट पहले हमने गूगल खबरों के पेज पर आखिरी में आने वाले फैक्ट चेकर वाले हिस्से को देखा तो उसमें बड़ी दिलचस्प खबरें हैं। एक खबर ऐसे वीडियो के बारे में है जिसके बारे में यह जोडक़र उसे फैलाया जा रहा है कि भारत-पाक फौजी तनाव की वजह से पाकिस्तान में लोगों ने बैंकों से पैसे निकालना शुरू कर दिया है। इसे एक फैक्ट चेकर वेबसाइट ने बताया है कि यह अफगानिस्तान का वीडियो है, न कि पाकिस्तान का। और उसका इस जंग से कुछ भी लेना-देना नहीं है। दूसरा फैक्ट चेक पाकिस्तान के उस दावे का है जिसमें उसने भारत के ड्रोन गिराने का दावा किया था। अब इस फैक्ट चेकर ने पाया है कि यह वीडियो रूस-यूक्रेन जंग का है, न कि भारत-पाकिस्तान के बीच हमलों का। एक तीसरा फैक्ट चेक पाकिस्तान के आतंकी बताए जा रहे ठिकानों पर भारत के किए गए कथित हमले से हुई तबाही का है, लेकिन फैक्ट चेकर ने पाया कि यह गाजा पर इजराइली हमले का वीडियो है, और इसे पाकिस्तान का बताकर फैलाया जा रहा है। एक चौथा समाचार पाकिस्तान पर भारत के हवाई हमले के बताए जा रहे वीडियो का है, और इसे भी एक फैक्ट चेकर ने बताया कि यह इजराइल के फौजी हवाई अड्डे पर हुए हमले का वीडियो है, जिसे अब पाकिस्तान का बताकर फैलाया जा रहा है।
अभी हम यह भी नहीं जानते कि जिन चार समाचारों का जिक्र हम यहां कर रहे हैं, वे फैक्ट चेकर भी असली हैं, या नकली हैं, या वे किसी देश की फौज की तरफ से, या किसी देश के राष्ट्रवादी नजरिए से गढ़े गए हैं। जंग में गोलीबारी, और गोलाबारी से उठे धूल और धुएं के गुबार में साफ-साफ देख पाना मुमकिन नहीं रहता है।
आज सुबह दुनिया के कुछ प्रमुख, और भरोसेमंद समाचार स्रोतों ने भारत और पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर छाए हुए युद्धोन्माद का जिक्र किया है, और कहा है कि इनकी वजह से जनता में जो तनाव पैदा हो रहा है, वह उन देशों की सरकारों पर एक बड़ा दबाव है। और यह तो सब लोग जानते ही हैं कि दबाव में किसी भी सरकार के फैसले सबसे अच्छे नहीं हो सकते। आज ही सुबह ट्विटर पर भारतीय समाचार चैनलों के नोएडा स्थित स्टूडियो और दफ्तर की भीड़ के बारे में एक पत्रकार ने लश्कर-ए-नोएडा लिखा है, और कहा है कि इन टीवी चैनलों को देखने से यह लगने लगा कि अब हिन्दुस्तानी पैदल जाकर लाहौर में कुल्फी खा सकते हैं, और करांची में बिरयानी। फिर बाद में कुछ पश्चिमी समाचार चैनलों को देखा, तो समझ पड़ा कि अभी ऐसी सैर मुमकिन नहीं है, और सरहद अभी बाकी है। हम चूंकि पाकिस्तान के चैनल देख नहीं पा रहे हैं, इसलिए उन पर छाई हुई नफरत के बारे में, झूठ की सुनामी के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन दुनिया के जिन तीसरे, चौथे, और पांचवें देशों के जिम्मेदार पत्रकार दोनों देशों के समाचार चैनलों की तुलना कर पा रहे हैं, उनका कहना है कि असली जंग फौजों के बीच सरहद पर नहीं चल रही है, असली जंग टीवी समाचार चैनलों के स्टूडियो के बीच चल रही है, और माहौल सही बनाने के लिए चैनलों ने अपने रिपोर्टरों, और एंकर-एंकरानियों को फौजी वर्दी में भी खड़ा कर दिया है, और स्टूडियो का सेट भी फौजी बना दिया है। अब अपने देश के प्रति झूठ का समर्पण देश का कुछ भला कर पाता है या नहीं, इसकी खबर हमें नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि तनातनी और जंग के ऐसे माहौल में शायद अखबार थोड़े से अधिक भरोसेमंद हो सकते हैं, अगर आप एक भरोसेमंद अखबार छांटना जानते हों।
झूठ की सुनामी की लहरें जब जंग में शामिल दो देशों की सरहद पर एक-दूसरे से टकरा रही हों, तो उनमें सबसे पहले बह जाने वाले मकान सच के होते हैं। झूठ, और नफरत को देशभक्ति के नाम पर, राष्ट्रवाद या युद्धोन्माद के लिए आगे बढ़ाने से किसी देश का भला नहीं होता। हर देश के भीतर कई तरह के विरोधाभास, और विसंगतियों की बसाहट रहती है। भारत और पाकिस्तान के बीच तो 75 बरस के तनातनी के रिश्तों में, और दोनों देशों में सभी धर्मों की बसाहट रहने की वजह से ऐसी विसंगतियां कुछ अधिक ही हैं, जो कि जंग में मनोवैज्ञानिक-युद्ध का एक हथियार बन जाती हैं। लोगों को दूसरों को देखते हुए ऐसे मानसिक दबाव में नहीं रहना चाहिए कि वे अगर देशप्रेम का दिखावा करने वाले झूठ को आगे नहीं बढ़ाएंगे, तो समाज उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। आज ही फेसबुक पर हमने लिखा है- जंग के गुबार में एक बूढ़े की लाश गिरी जिसने अपने बेटे अमन को आवाज दी थी।