संपादकीय

महाराष्ट्र में भाषा को लेकर एक ताजा विवाद चालू हुआ है जिसमें ताजा-ताजा साथ आए ठाकरे बंधु सडक़ों पर हिंसा करके मानो अपने साथ आने, और शिवसेना के पुराने तेवर लौटने की मुनादी कर रहे हैं। वहां राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने कुछ इलाकों में गैरमराठी दुकानदारों, और ठेलेवालों पर इस बात को लेकर हमले किए कि वे मराठी नहीं बोलते। इसमें नया कुछ भी नहीं है। शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के रहते हुए यह सैकड़ों बार हो चुका है, और शायद शिवसेना की स्थापना भी मुम्बई में बाहर से आकर काम करने वाले लोगों के खिलाफ एक हमलावर संगठन के रूप में ही हुई थी। बाद के बरसों में बाला साहब के भतीजे राज ठाकरे घरेलू पार्टी से बाहर हो गए, और एक के बाद दूसरे चुनाव ने यह साबित किया कि वे अप्रासंगिक भी हो गए, परिवार से बाहर जाने पर वे सेना-समर्थकों के दिलों से भी बाहर हो गए। उद्धव ठाकरे अकेले ही पार्टी के सर्वेसर्वा बने रहे, और महाराष्ट्र की घरेलू राजनीति के चलते वे एनसीपी और कांग्रेस के साथ एक गठबंधन में आए, जो शुरूआती कामयाबी के बाद अब इसलिए खत्म सरीखा हो गया कि एनसीपी दो फाड़ हो गई, और भतीजा अजीत पवार पार्टी के विधायकों को लेकर सरकार में शामिल हो गया, और चाचा शरद पवार महज अपनी बेटी को स्थापित करते हुए बची हुई एनसीपी में रह गए। शिवसेना का तो और भी बुरा हाल हुआ जब एकनाथ शिंदे ने विधायकों के बहुमत को लेकर भाजपा के साथ गठबंधन में जाना तय किया, और बाद में तो चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट तक यही साबित हुआ कि शिंदे ही असली शिवसेना है, और उद्धव ठाकरे अपने घर में ही बेघर हो गए। शायद ऐसे माहौल में उद्धव ठाकरे को भी अब यह लग रहा होगा कि उन्हें शिवसेना के पुराने तेवरों में लौटने की जरूरत है, क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन ने पार्टी के चिन्ह शेर की धारियां उतारकर रख दी थीं, और घोर हिन्दुत्व, घोर मराठीवाद की धार खत्म हो गई थी, जो कि शिवसेना की पहचान थीं। ऐसे में अब जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत महाराष्ट्र की भाजपा-सेना-एनसीपी गठबंधन सरकार ने पहली से पांचवीं तक हिन्दी को अनिवार्य रूप से तीसरी भाषा बनाने का आदेश दिया, तो ठाकरे बंधुओं की अगुवाई में बड़ा विरोध हुआ। महाराष्ट्र, और खासकर मुम्बई महानगर उग्र क्षेत्रवाद, और भाषावाद के लिए जाने जाते हैं। इसलिए वहां इस भावना को भडक़ाना बड़ा आसान था कि यह मराठी की उपेक्षा है। जबकि हिन्दी को पढ़ाई का माध्यम नहीं बनाया जा रहा था, उसे महज एक भाषा के रूप में लागू किया जा रहा था। महाराष्ट्र का हिन्दी विरोध का तमिलनाडु किस्म का कोई लंबा इतिहास भी नहीं रहा है, लेकिन किसी भावनात्मक मुद्दे की तलाश में रात-रात फटफटी पर घूमते हुए ठाकरे बंधुओं के हाथ यह बटेर लग गई, और उनके लोग सडक़ों पर गैरमराठीभाषी लोगों को पीटकर अपना महाराष्ट्र-प्रेम साबित करने लगे।
सोशल मीडिया की मेहरबानी से अब अखबारों के आम पाठकों को कई ऐसे आक्रामक लेखकों का लिखा हुआ पढऩे मिल जाता है जिन्हें अखबार अपने विचार के पन्नों पर शायद नहीं छापते। बहके-बहके अंदाज में भडक़ाऊ बातें लिखने वाले ऐसे लेखकों को महाराष्ट्र के ताजा भाषा विवाद में एक नया मसाला मिल गया, और आमतौर पर संतुलित लिखने वाले, गैरमराठीभाषी, गैरमहाराष्ट्रनिवासी लोग भी इन हमलों को सही करार देने में लग गए कि महाराष्ट्र में रहना है, तो मराठी बोलना है, में कुछ गलत नहीं है। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा कि राज ठाकरे के लोग मराठी न बोलने वाले लोगों को पीटते हुए दो जूते उनकी तरफ से भी मारें। एक हिंसक क्षेत्रवाद को भी अच्छे-खासे लोकतांत्रिक और समझदार लोगों में अपने चीयरलीडर्स मिल गए, यह बात कुछ हैरान करने वाली रही। भारत में दर्जनों भाषाएं बोली जाती हैं, और सैकड़ों बोलियां। कामकाज और रोजी-रोटी के फेर में, या सरकारी-निजी नौकरियों में तबादले के चलते लोगों को देश भर में कहीं भी जाना पड़ता है, रहना और काम करना पड़ता है। जिस मुम्बई को देश का सबसे अधिक सुलझा हुआ, और विविधताभरा महानगर माना जाता था, उस मुम्बई ने ठाकरे बंधुओं की इस ताजा राजनीति का शिकार होकर एक बार फिर गैरमहाराष्ट्रवासियों को परदेसी सा साबित करने की कोशिश की है। हम पूरी मुम्बई पर यह तोहमत लगाना नहीं चाहते, क्योंकि ठाकरे बंधु मुम्बई के सबसे बड़े बाहुबलि हो सकते हैं, लेकिन वे मुम्बई की आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं। आज सत्ता की राजनीति के चलते शिवसेना को अपने पुराने तेवरों वाली वही पहचान फिर से पानी है, इसलिए भाईयों की यह जोड़ी बदन पर शेर की धारियां पेंट करवाकर अपने को असली शिवसेना साबित करना चाहती है। देश को यह बात अच्छी तरह समझना चाहिए कि यह सिर्फ भाषा विवाद नहीं है, यह उग्र क्षेत्रवाद का सिलसिला है, जो कि चुनाव जीतने के लिए किसी-किसी राज्य में, कभी-कभी मददगार भी होता है। छत्तीसगढ़ जैसा राज्य अभी तक उग्र क्षेत्रवाद, और उग्र भाषावाद से बचा हुआ है, और यही वजह है कि इनके नाम पर राजनीति करने वाले कोई लोग अब तक न पार्टी बना पाए, न कोई सीट जीत पाए। महाराष्ट्र आधुनिक महानगर होने के बावजूद इस उग्र क्षेत्रवाद का शिकार रहा है। देश के हिन्दीभाषी राज्यों को एक नजर देखें, तो यूपी, बिहार, एमपी-सीजी, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा में से शायद ही किसी में उग्र भाषावाद या क्षेत्रवाद पनप पाया हो। लेकिन गैरहिन्दीभाषी राज्यों में अलग-अलग समय पर, अलग-अलग मुद्दों को लेकर यह सामने आया। इसमें तमिलनाडु हिन्दीविरोध में सबसे अधिक आक्रामक रहा, लेकिन हाल ही में अभिनेता कमल हासन के एक बयान को लेकर कर्नाटक में घोर तमिलविरोधी भावनाएं भडक़ गई थीं। महाराष्ट्र तो हमेशा से ऐसी खबरों में रहा है, और लोगों को याद होगा कि एक वक्त ओडिशा में मारवाड़ी भगाओ आंदोलन चला था, और इस व्यापारिक समुदाय के हजारों लोगों को राज्य छोडक़र पड़ोसी छत्तीसगढ़ में काम शुरू करना पड़ा था। असम में बंगालियों के खिलाफ एक माहौल बने रहता है, और गैरहिन्दीभाषी कुछ और राज्यों में आक्रामकता और हिंसा के दर्शन होते रहते हैं। यह बात हम हिन्दी के लिए किसी रियायत को न्यायोचित ठहराने के लिए नहीं कह रहे, राज्यों के मुद्दों को याद करते हुए अचानक यह बात सूझी है।
आज महाराष्ट्र में जो लोग मराठी जानने, बोलने को अनिवार्य करने को न्यायोचित ठहरा रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि यह आक्रामकता बढक़र फिर वहीं पहुंचेगी जहां एक वक्त यूपी-बिहार से मुम्बई जाकर ऑटो-टैक्सी चलाने वालों, और दूध का धंधा करने वालों के खिलाफ हमले में तब्दील हुई थी। बात भाषा की नहीं है, वह तो लोग जरूरत के मुताबिक सीख लेते हैं, और काम चला लेते हैं, बात है भाषा को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की, और यह हथियार मुम्बई में बाहर से आकर बसे हुए लोगों को भगाने तक आगे बढ़ेगा, बात भाषा पर नहीं थमेगी, दूसरे प्रदेश से आए हुए लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाए बिना चुप नहीं बैठेगी। लोकतंत्र में ऐसा घोर उग्र क्षेत्रवाद देश की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक है। आज जब योरप के दर्जनों देश मिलकर यूरोपीय समुदाय बनाकर एक बेहतर भविष्य, और बेहतर वर्तमान पा चुके हैं, तब इस तरह भारत के भीतर लोगों में फर्क करना इस देश को यूरोपीय समुदाय के पहले के योरप के देशों की तरह बांट देगा। आज समझदार दुनिया एक होने के तरफ बढ़ रही है, दोनों जर्मनी जाने कब से एक हो गए, योरप के देश बिना पासपोर्ट आवाजाही और साझा कारोबार की हद तक एक हो गए, और ऐसे में भारत को टुकड़ों में बांटने की यह कोशिश उजागर होनी चाहिए कि यह एक राज्य का चुनाव जीतने के लिए की जा रही साजिश से अधिक कुछ नहीं है। मराठी भाषा का सम्मान वैसे भी महाराष्ट्र में इतना अधिक है, उसका साहित्य, उसमें शिक्षा सब कुछ इतने विकसित हैं कि उसे दूसरे राज्यों से पहुंचे कुछ लाख लोगों के मुंह से बोले जाने की जरूरत नहीं है, वह उसके बिना भी एक समृद्ध भाषा है। उसे राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की चाल को समझना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)