संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रेमीजोड़े गांव छोडऩे की समझदारी दिखाएं
सुनील कुमार ने लिखा है
12-Jul-2025 6:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : प्रेमीजोड़े गांव छोडऩे की समझदारी दिखाएं

ओडिशा की खबर है कि वहां रायगड़ा जिले में एक ही गोत्र के युवक-युवती के बीच प्रेम हो जाने से समाज और गांव ने उन्हें सजा देने के लिए हल में बैलों की जगह जोता, खेत जुतवाया, और कोड़े मार-मारकर गांव से निकाल दिया। इसका वीडियो जब चारों तरफ फैला, तो अब पुलिस ने मामले की जांच चालू की है, लेकिन यह जोड़ा अब कहीं मिल नहीं रहा है। इन्हें सजा देने के पहले गांव में देवी की पूजा करवाई गई, और वहां के आदिवासी समाज की प्रचलित प्रथाओं के मुताबिक इस वर्जित संबंध पर सामाजिक बैठक ने सजा तय कर दी, और इस तरह इस अवांछित जोड़े से छुटकारा पा लिया गया। यह जोड़ा किसी दूसरी जगह बसकर जिंदगी गुजार सकता है, या यह धरती ही छोडक़र जा सकता है। दोनों ही नौबतों में इस जोड़े से उसका गांव छूट जा रहा है। भारतीय समाज में जगह-जगह ऐसा होता है, और हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़े की खुदकुशी की खबर आती है।

हम अपने अखबार में अपने या दूसरों के प्रति जानलेवा हिंसा के बारे में कम से कम लिखना चाहते हैं, लेकिन समाज की जैसी नौबत है, उसमें इस बारे में अधिक से अधिक लिखने की एक बेबसी रहती है। ऐसे मुद्दों पर लिखना इसलिए भी जरूरी लगता है कि समाज में समझ की कमी है, और हो सकता है कि हमारी लिखी किसी बात से कुछ लोगों की सोच बदल सके। यह चर्चा करते हुए भारत के अलग-अलग प्रदेशों, अलग-अलग धर्म या जातियों की चर्चा भी की जा सकती है, की जानी चाहिए, लेकिन इससे परे यह बात भी होनी चाहिए कि गांव या शहर ऐसे मामलों में किस तरह अलग-अलग बर्ताव करते हैं। बहुत से लोगों के दिमाग में गांवों को लेकर एक बड़ी रूमानियत की कल्पना रहती है, उन्हें कुछ लेखकों या कवियों की गांवों की गौरव-गाथा सूझती है, और किस तरह वे सोचते हैं कि रिटायरमेंट की जिंदगी वे गांव जाकर ही गुजारेंगे। इस तरह के प्रेमीजोड़े के साथ जो बर्ताव हुआ है, उसे देखते हुए भारत के गांवों के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है।

शहरों में आबादी इतनी अधिक रहती है, बाहर से आए हुए लोग इतने अधिक रहते हैं किसके पड़ोस में आकर कौन रहने लगे, इसकी भी कोई मामूली सी जानकारी हो जाए तो हो जाए, लोग बहुत हद तक एक-दूसरे से अलग-थलग भी रह लेते हैं। फिर यह भी है कि शहरों में धर्म और जाति की व्यवस्था तो टूट ही रही है, शादी नाम की संस्था भी शहरों में कुछ कमजोर पड़ रही है क्योंकि देश में अब अनगिनत अविवाहित जोड़े जब तक चाहें साथ रह लेते हैं, उन्हें किराए पर मकान पाने के लिए चाहे कोई मामूली सा झूठ बोलना पड़ता हो, काम खींचतान कर चल जाता है। शहरों में लोग कामकाज में लगे रहते हैं, और अपने काम से काम अधिक रहता है। गांवों की हालत यह है कि वहां न सिर्फ एक सामंती सामाजिक व्यवस्था चली आ रही है जिसमें कोई बड़े किसान, या कि ऊंची समझी जाने वाली जाति के कोई व्यक्ति दबदबा रखते हैं, और वे पंच-सरपंच जैसे चुनावों में भी रूतबा और दखल रखते हैं। वे गांवों में कई किस्म की अघोषित सरपंची भी करते हैं, और जमीन-जायदाद के झगड़ों का निपटारा उनके बाहुबल से हो जाता है, और समाज की दूसरी बातों में भी उनका असंवैधानिक दखल रहता है। जाति व्यवस्था बड़ी मजबूत रहती है, और कई जगहों का तजुर्बा लोगों ने बताया है कि वहां ऊंचे हिस्से में ऊंची कही जाने वाली जातियों की बसाहट रहती है, और नीची कही जाने वाली जातियां ढलान पर नीचे रहती हैं, ताकि इन जातियों का पानी ‘ऊंची जातियों’ की बस्ती तरफ न जाए। राजस्थान और मध्यप्रदेश से हर महीने ऐसी खबरें आती हैं कि गांवों में किसी दलित दूल्हे को बारात में घोड़ी पर चढऩे से पुलिस हिफाजत के बावजूद ‘ऊंची जातियों’ के लोगों ने मारा, और सावधानी बरतते हुए कई बारातों में दूल्हे सहित पुलिसवाले भी हेलमेट लगाकर चलने को मजबूर रहते हैं ताकि ‘ऊंची जातियों’ के पथराव से बच सकें। गांवों में बलात्कार के आंकड़ों को देखें, तो दलित-आदिवासी तबके की लड़कियां और महिलाएं ही सबसे अधिक शिकार होती हैं।

गांव और शहर के माहौल के ऐसे फर्क में प्रेमीजोड़े गांवों में शादी तक पहुंचने के पहले बहुत से मामलों में ऊपर पहुंच जाते हैं, और कई मामलों में उनके प्रेम को तुड़वा दिया जाता है। अब समाज में एक नई चेतना आने के बाद यह भी हो रहा है कि ऐसे पुराने प्रेमीजोड़े शादी से अलग कर दिए गए हैं, लेकिन शादी के बाद भी उनका प्रेम सुलगते रहता है, और वे किसी हिंसा तक पहुंच जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि गांवों में प्रेम के खिलाफ बगावत का एक माहौल रहता है, लोग जात का ख्याल करते हैं, गोत्र का ख्याल करते हैं, अमीरी-गरीबी का फर्क मानकर चलते हैं, और कुछ पीढिय़ों पहले की दुश्मनी को भी हिन्दी फिल्मों की तरह असल जिंदगी में निभाते हैं। इसलिए गांव एक किस्म से प्रेम के दुश्मन रहते हैं, लेकिन लड़कियों और महिलाओं के शोषण के लिए उपजाऊ जमीन रहते हैं।

भारतीय समाज में प्रेमीजोड़ों के साथ होने वाला सुलूक हत्या-आत्महत्या की नौबत आने पर तो खबर बनता है, लेकिन अलग कर दिए गए ऐसे जोड़े जिस निराशा में जीते हैं, उसकी कोई खबर नहीं बनती है। देश-प्रदेश की सरकारों को इस बात की कोई परवाह भी नहीं रहती है कि प्रेम को हिफाजत दी जाए। और समाज में जिन लोगों की धाक चलती है, वे पिछली पीढिय़ों के लोग रहते हैं, और उन्हें दकियानूसी परंपराएं ही पसंद रहती हैं। इसलिए गांवों में रहते हुए प्रेम का भविष्य अमूमन अंधकारमय रहता है। शहरों में आने के बाद प्रेम कभी-कभी पनपकर एक तर्कसंगत अंत, शादी तक भी पहुंच सकता है। इसलिए जो लोग गांवों में रहना या बसना चाहते हैं, वे आमतौर पर ऐसे रिटायर्ड बुजुर्ग रहते हैं जिनके प्रेम की उम्र निकल चुकी है, और गांव के सामाजिक बागी तेवरों से उन्हें कोई निजी दिक्कत नहीं रहती। फिर ऐसे लोग भी गांवों में जाकर बसने की बात अधिक करते हैं, जो वहां पहुंचने के बाद अपनी आर्थिक स्थिति या अपनी जाति की वजह से एक ताकत की जगह पर रहेंगे। इन सब बातों को देखते और सोचते हुए यह साफ लगता है कि प्रेम करने वालों को जल्द से जल्द गांव छोड़ देना चाहिए, इसके पहले कि गांव उन्हें दुनिया छोडऩे के लिए मजबूर कर दे। जिंदगी से बढक़र गांव नहीं हो सकता, और जो गांव सपनों को कुचलने वाला रहता है, जो कि हिंसक जाति व्यवस्था, और जाति रिवाजों को कायम रखता है, उससे छुटकारा पा लेना ही समझदारी है। जो प्रेम की सीमा पार कर चुके हैं, जो दलित तबके के नहीं हैं, जो बहुत गरीब नहीं हैं, वे जरूर गांव में खुश रहने की तरकीबें ढूंढ सकते हैं। हमने आज की बात शुरू तो की थी प्रेम से लेकर, लेकिन वह पटरी से उतरकर भटकते हुए गांव पर आ गई है। आखिर सबसे अधिक हिंसा का शिकार प्रेम को गांव में ही तो होना पड़ता है। प्रेमीजोड़ों की खुदकुशी की अधिकतर खबरें गांवों से ही निकलती हैं, यह बात कभी नहीं भूलना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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