विचार / लेख
-संजय श्रमण
डॉ अंबेडकर और संविधान के साथ जब भी धर्म और लोकतंत्र की बात छिड़ती है, वेदांती बाबाओं के गले में अचानक वर्ण और जाति का फंदा फँस जाता है।
बड़ी चतुराई से फिर वे भागने का रास्ता निकालते हैं। अंबेडकर को टुकड़ों-टुकड़ों में कोट करते हैं। उनके किसी भी वक्तव्य को पूरी तरह डिस्कस नहीं करते, और खासकर उनके बौद्ध बन जाने की तो बात ही नहीं करते। ऐसी चर्चाओं से भागने के लिए वे बड़ी-बड़ी जलेबियाँ बनाते हैं। सीधे सीधे इस मुद्दे पर बात ही नहीं करते। उनका अंतिम तर्क-ब्रह्म और आत्मा एक ही है की तरह आता है। लेकिन जैसे ही स्व या आत्मा में गहरे जाने की कोशिश होती है, वे भाग खड़े होते हैं।
भारत के अलावा किसी अन्य समाज पर भले ही ये लागू होता हो या ना लागू होता हो। भारत के बारे में बुद्ध से लेकर अंबेडकर और जिद्दू कृष्णमूर्ति तक बुद्धिमान लोगों का साफ़ कहना है कि अजर-अमर आत्मा और इसके पुनर्जन्म की मान्यता ही भारत की वास्तविक समस्या है।
इस बिंदु पर कभी बात नहीं होती। या होती भी है तो प्रश्न पूछने वाले या मॉडरेटर महोदय या श्रोतागण अचानक जाने किस श्रद्धा के जलाल में आकर हाँफने लगते हैं। जैसी ही ब्रह्म और आत्मा के बारे में हवा हवाई एकता की बात शुरू होती है, इस श्रद्धा का पैनिक अटैक सबको घेर लेता है और अचानक मुद्दा बदल जाता है। जबकि ठीक से देखें तो बात इसी बिंदु से शुरू होनी चाहिए। लेकिन असल बात शुरू होने के पहले ही वे पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। इस चर्चा में यही हो रहा है, इस वीडियो को ठीक से देखिए।
मॉडरेटर ज़मीनी सवाल पूछता है फिर वेदांती बाबा एक ख़ास गहराई में जाते हुए नजऱ आते हैं। लेकिन जैसे ही लगता है कि वेदान्त और अन्य शास्त्रों पर सीधा सवाल उठ सकता है-वे वहाँ से बचकर भागते हैं। इस तरह जब भारतीय वेदांती भागते हैं तो उनका सबसे बड़ा क्लेम होता है - भेदभाव मनुष्य का स्वभाव है, भेदभाव पूरी दुनिया में होता है। लेकिन ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि दुनिया में अन्य समाजों का भेदभाव उनके ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत नहीं हैं। लेकिन भारतीय समाज का भेदभाव भारतीय ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत है। यही वो असली बात है जिससे वेदांती घबराते हैं। इसलिए मैं बार बार कहता हूँ। जब तक इस आत्मा के सिद्धांत का ख़ात्मा नहीं होता, कम से कम भारत में सभ्यता का सही अर्थों में जन्म नहीं हो सकता।
पश्चिम ने ईश्वर की हत्या करके सभ्यता और लोकतंत्र कमाया है।
भारत को आत्मा की हत्या करके ये सभ्यता और लोकतंत्र कमाना होगा।
सेमिटिक धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र उनका ईश्वर है। भारतीय धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र सनातन आत्मा और पुनर्जन्म है। ये बहुत गहरी और बड़ी जटिल बात है। जन्म जन्मांतर का ये सिद्धांत, धीरे धीरे जन्म जन्मांतर तक जाने वाले अच्छे और बुरे संस्कारों का सिद्धांत बन जाता है। इसी के आधार पर कोई जन्म से श्रेष्ठ, कोई दूसरा जन्म से नीच बन जाता है। इसी के आधार पर अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी को वैध ठहराकर बदलाव की चेतना हो खत्म किया जाता है।
गली मुहल्लों से लेकर अच्छे अच्छे विश्वविद्यालय के लोगों से बात करके देखिए। वे हर चीज को नकारने का साहस रखते हैं। लेकिन आत्मा और पुनर्जन्म की बात आते ही उनकी सारी पढ़ाई लिखाई धरी की धरी राह जाती है।
ख़ैर, ये बात यहाँ खुलकर नहीं बताई जा सकती लेकिन एक संकेत किया जा सकता है। आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत असल में एक राजनीतिक सिद्धांत है - राजा और राजसत्ता के लिए आम आदमी को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की सबसे बेजोड़ टेक्नोलॉजी। वज्रयान में ईश्वर की कोई जगह नहीं थी। इसलिए उन्होंने अजर अमर आत्मा और पुनर्जन्म बनाया। आगे सहजयान में भी यही हो रहा है। सगुण-निर्गुण और न जाने क्या-क्या।
लगभग डेढ़ हज़ार सालों से भारत में जिस संप्रदाय को भारत का सबसे बड़ा धर्म या संप्रदाय कहा जाता है,
वो असल में बिगड़ा हुआ वज्रयान है। इसी वज्रयान ने ना जाने किस दुर्भाग्य के क्षणों में क्षण भंगुर आत्मा को अजर-अमर आत्मा निरूपित करके स्कंधों के पुनर्भव को आत्मा का पुनर्जन्म बता दिया था।
इसी तरह तिब्बत में भी दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में यही घटना घटी। फिर अवलोकितेश्वर का एक रूप विष्णु बना दूसरा शिव बना। तिब्बत में इसी अवलोकितेश्वर का एक रूप या अवतार दलाई लामा बना। ये सब वज्रयानियों की करामात है। ठीक यही वो समय है जब कम्बोडिया के खमेर राजाओं ने अवलोकितेश्वर के विष्णु रूप की कल्पना को बहुत बड़ा आकार दिया और अवलोकितेश्वर को समर्पित अंकोर वाट मंदिर बनाया।
इसी ग्यारहवीं सदी में भारत में शैव और वैष्णव संप्रदाय अपने अपने अवतारवादी फ्ऱेमवर्क को लेकर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
ये आदिशंकर और अभिनवगुप्त के तुरंत बाद का समय है। एक तरफ़ अवलोकितेश्वर का विष्णु रूप दूसरी तरफ़ उन्हीं अवलोकितेश्वर का शिव रूप - दोनों अलग मार्ग पकड़ लेते हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों संप्रदाय न सिफऱ् इंसान के बारंबार पुनर्जन्म का बल्कि एक काल्पनिक सृष्टिकर्ता के पुनर्जन्म (अवतार) का सिद्धांत भी ले आते हैं।
इंसान के पुनर्जन्म के सिद्धांत में ही सभ्यता और संस्कृति को धूल चटा देने की काफ़ी ताक़त होती है। लेकिन ये वहीं नहीं रुके, इंसान तो छोडि़ए इन्होंने ईश्वर तक के बारंबार पुनर्जन्म की व्यवस्था कर डाली। दो-दो ज़हरीले सिद्धांत। भारत तो क्या दुनिया का कोई भी समाज और देश इतना ज़हर नहीं झेल सकता। नतीजा आपके सामने है, हम कभी संगठित, साहसी और विकसित नहीं हो सके। बार बार बँटे और ग़ुलाम हुए।
लोगों को ये बातें बड़ी अजीब लगती हैं। वे पूछते हैं - संविधान, लोकतंत्र, सभ्यता, नैतिकता और न्यायबोध का आत्मा और पुनर्जन्म से क्या संबंध हो सकता है?
ये समझाना कठिन है। लेकिन आप यक़ीन मानिए, भारत की मूल समस्या आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत ही है।
दुर्भाग्य की बात है कि जब भी प्रचलित अर्थों के धार्मिक और आध्यात्मिक लोग इन मुद्दों पर बात करने बैठते हैं तो वे इस बिंदु से बचकर निकल जाते हैं। भारत में अभी तक सार्वजनिक रूप से एक भी बड़ा संवाद नहीं हुआ है जिसमें पुनर्जन्म के सिद्धांत और लोकतंत्र को एक साथ रखकर बात की गई हो।
याद रखिए, लोकतंत्र और संविधान - ये दोनों न तो ईश्वर के साथ चल सकते हैं, ना पुनर्जन्म के साथ।
जिन देशों ने ईश्वर से छुटकारा पा लिया वे समय रहते तुलनात्मक रूप से सभ्य एवं लोकतांत्रिक हो चुके हैं। अब भारत की बारी है, भारत जब तक आत्मा और पुनर्जन्म से मुक्त नहीं होगा जाति और वर्ण ख़त्म नहीं होंगे। फिर सच्चे लोकतंत्र की संभावना भी क्षीण ही रहेगी।


