विचार / लेख
इसराइल ने पिछले हफ्ते जब ईरान पर हमला किया, तो एक ध्रुवीकृत दुनिया में भारत के लिए किसी का भी पक्ष लेना आसान नहीं था।
लेकिन करीब एक महीने पहले ही भारत ने पाकिस्तान के कुछ इलाकों में हमला किया था, तो इसराइल खुलकर भारत के समर्थन में था।
पाकिस्तान के मामले में इसराइल के लिए भारत का पक्ष लेना आसान है, क्योंकि पाकिस्तान ने अब तक एक राष्ट्र के रूप में इसराइल को स्वीकार नहीं किया है।
दूसरी तरफ ईरान से भारत के संबंध अच्छे रहे हैं और कहा जाता है कि दोनों मुल्कों में सभ्यता के स्तर के संबंध हैं।
भारत में बीजेपी की सरकार का रुख इसराइल को लेकर बाकी सरकारों की तुलना में उदार रहा है। इसके बावजूद पश्चिम एशिया में भारत का रुख किसी के प्रति झुके होने की तुलना में संतुलन का होता था।
पिछले कुछ दिनों में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिसके बाद ऐसा कहा जा रहा है कि भारत इसराइल के पक्ष में ज़्यादा झुका हुआ है।
जैसे 12 जून को संयुक्त राष्ट्र महासभा में गाजा में तत्काल यु्द्धविराम को लेकर वोटिंग हुई।
149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में वोट किया। 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया और 19 देशों ने ख़ुद को वोटिंग से दूर रखा। भारत इन्हीं 19 देशों में एक था।
इन 19 देशों को देखेंगे तो भारत को छोड़ सभी देश वैश्विक राजनीति में बहुत अहमियत नहीं रखते हैं। ये देश हैं- पनामा, साउथ सूडान, टोगो, मालावी इत्यादि।
जिन 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया, उनमें अमेरिका शामिल है। लेकिन बाकी के 11 देश वैसे हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई खास दखल नहीं है। ये देश हैं- फिजी, पलाऊ, पापुआ न्यू गिनी, टोंगा इत्यादि।
लेकिन जिन 149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में मतदान किया, उनमें लगभग सभी अहम देश हैं, जिनका वैश्विक राजनीति में दखल है।
चीन, जापान से लेकर पूरा यूरोप तक इनमें शामिल हैं। लेकिन भारत इन अहम देशों के साथ नहीं है। यहाँ तक कि भारत जिन वैश्विक संगठनों का सदस्य है, वहाँ भी इसराइल के मामले में वो अलग है।
भारत के लिए राजनयिक चुनौती
14 जून को शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) ने एक बयान जारी कर ईरान पर इसराइल के हमले की निंदा की थी।
भारत भी एससीओ का सदस्य है लेकिन 14 जून को ही भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि वह एससीओ के बयान का हिस्सा नहीं है।
दूसरी तरफ भारत ब्रिक्स का सदस्य है, लेकिन ब्रिक्स के भी लगभग सभी देशों ने ईरान पर इसराइली हमले की निंदा की है।
यहां भी भारत अलग-थलग दिख रहा है। यूएनजीए में भी ब्रिक्स के लगभग सभी सदस्यों ने गज़़ा में तत्काल युद्धविराम के पक्ष में मतदान किया था। ब्रिक्स सदस्य देश के तौर पर मतदान से दूर रहने वाले देश थे- भारत और इथियोपिया।
क्वॉड को चीन विरोधी गुट के रूप में देखा जाता है। इसमें जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका हैं। इसमें भी जापान और ऑस्ट्रेलिया ने यूएनजीए में युद्धविराम के समर्थन में मतदान किया था। ऐसे में भारत के रुख को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं।
भारत के अंग्रेजी अखबार द हिन्दू की डिप्लोमैटिक अफेयर्स एडिटर सुहासिनी हैदर ने एससीओ में भारत के रुख को लेकर लिखा है, ‘यूएनजीए में एससीओ एकजुट नहीं रहा और अब भारत ने ईरान पर इसराइली हमले की आलोचना वाले एससीओ के बयान से ख़ुद को अलग कर लिया है। पश्चिम एशिया में भारत बहुत सतर्कता से संतुलनवादी रुख रखता था। क्या अब किसी एक पक्ष की तरफ झुकता दिख रहा है?’
भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने एक्स पर लिखा है, ‘राजनयिक रूप से हम एक मुश्किल स्थिति में हैं। इसराइल के साथ करीबी संबंध और एससीओ जैसे गुटों की सदस्यता के बीच संतुलन बनाना मुश्किल स्थिति है।’
जाने-माने डिप्लोमैट और संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे सैयद अकबरुद्दीन ने 12 जून को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा है कि इस ध्रुवीकृत दुनिया में भारत के लिए जटिलता और बढ़ गई है।
सैयद अकबरुद्दीन उस प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे, जिसे पहलगाम हमले और पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव के बाद भारत का पक्ष रखने के लिए विदेश भेजा गया था।
भारत की चुप्पी के मायने
अकबरुद्दीन ने लिखा है, ‘मतदान से बाहर रहने को भी कई बार चुप्पी के रूप में देखा जाता है और संकट की घड़ी में चुप्पी के कई मायने निकाले जाते हैं। मोदी के नेतृत्व में भारत में राजनयिक स्तर पर आत्मविश्वास आया है। इससे लोगों का ध्यान भी हमारी तरफ आकर्षित हुआ है। लेकिन आप किसी का ध्यान आकर्षित करते हैं तो इस पर लोगों की निगरानी भी बढ़ती है। अब वो दुनिया नहीं है, जिसमें केवल ये पूछा जाएगा कि भारत ने क्या किया।’
‘अब ये भी पूछा जाएगा कि भारत क्या कह रहा है और क्या नहीं कह रहा है। भारत को इस विरोधाभास का समाधान तलाशना होगा। जब आपकी हैसियत बढ़ती है, तो दुनिया एक्शन और ख़ामोशी दोनों का मूल्यांकन करती है। भारत को हर संकट पर टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन जब आपकी चुप्पी एक संदेश बन जाती है तो सामने आना पड़ता है। खामोशी अर्थ ग्रहण कर लेती है और इसे एक धारणा मजबूत होने लगती है।’
सैयद अकबरुद्दीन ने लिखा है, ‘ग्लोबल साउथ कोई एक जैसी राय वाला समूह नहीं है। इसके हित और विचारधारा अलग हो सकती है। नेतृत्व स्पष्ट, न्यायोचित और सिद्धांतवादी होने चाहिए। भारत पर लोगों की नजर अब पहले से ज़्यादा रहती है।’
थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूशन की सीनियर फ़ेलो तन्वी मदान ने एक्स पर लिखा है, ‘भारत पारंपरिक रूप से पश्चिम एशिया में इसराइल, खाड़ी के अरब देश और ईरान के बीच संतुलनवादी रुख़ रखता है। हालांकि यह त्रिकोणीय संबंध बराबरी का नहीं है। इसराइली पीएम बिन्यामिन नेतन्याहू से बातचीत के बाद पीएम मोदी ने जो कहा, उसमें इसराइल के लिए स्पष्ट समर्थन नहीं है। लेकिन मोदी ने इसराइली हमले की निंदा भी नहीं की है।’ रूस से भारत की ऐतिहासिक दोस्ती रही है, लेकिन वह इसराइल की खुलकर आलोचना कर रहा है।
शनिवार को रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव और ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अरागची की फोन पर बात हुई थी। रूसी विदेश मंत्री ने ईरान पर इसराइल के हमले की निंदा की और तनाव कम करने के लिए मदद की भी पेशकश की। ईरान ब्रिक्स और एससीओ दोनों का सदस्य है।
भारत भी ईरान से दोस्ती को मुकाम तक ले जाने में लंबे समय से हिचकता रहा है।
1991 में शीतयुद्ध खत्म होने के बाद सोवियत संघ का पतन हुआ तो दुनिया ने नई करवट ली। भारत के अमेरिका से संबंध बढ़े तो उसने भारत को ईरान के करीब आने से हमेशा रोका।
1990 में भारत के आर्थिक संकट की कुछ वजहें अंतरराष्ट्रीय भी थीं।
1990 में गल्फ वॉर शुरू हुआ और इसका सीधा असर भारत पर पड़ा। वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ गईं और इसकी चपेट में भारत भी आ गया।
1990-91 में पेट्रोलियम आयात बिल दो अरब डॉलर से बढक़र 5.7 अरब डॉलर हो गया। ऐसा तेल की कीमतें बढऩे और आयात के वॉल्यूम में वृद्धि के कारण हुआ। (bbc.com/hindi)