विचार / लेख

-विकास शर्मा
बस्तर की किस्मत बदलने वाला सपना, जो अधूरा रह गया था
अब फिर से पूरा होता दिख रहा है
छत्तीसगढ़ की बहुप्रतीक्षित बोधघाट परियोजना को लेकर एक बार फिर उम्मीदें जगी हैं। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की पहल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना को दोबारा शुरू करने के प्रस्ताव पर सहमति जताई है। साथ ही महानदी–इंद्रावती नदी लिंक योजना को लेकर भी बातचीत आगे बढ़ी है।
बोधघाट कोई नई बात नहीं है। इसकी योजना 50 साल पहले बनी थी। लेकिन लगातार अटकते-अटकते यह सपना अधूरा रह गया। अब जब फिर से केंद्र से समर्थन मिल रहा है, तो माना जा रहा है कि ये सिर्फ एक बिजली या सिंचाई परियोजना नहीं, बल्कि पूरे बस्तर के विकास की लाइफलाइन बन सकती है।
इंद्रावती नदी पर शुरू हुआ था विचार
1955 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू बस्तर दौरे पर आए थे, तभी इंद्रावती पर पनबिजली संयंत्र का विचार आया। फिर 1970 में पहली रिपोर्ट बनी जिसमें 240 मेगावॉट की क्षमता वाली तीन इकाइयों का प्रस्ताव था। इसके अलावा भविष्?य में नेलगोरा, कुटरू और माजिमेन्द्री जैसे इलाकों में बिजली संयंत्र लगाने की योजना भी थी।
डॉ. नागराजा राव की रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि इस इलाके में खनिज और वन आधारित उद्योगों की बड़ी संभावनाएं हैं।
कभी 37 करोड़, अब 29 हज़ार करोड़!
जब योजना बनी थी, तब लागत सिर्फ 37.5 करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन फाइलें घूमती रहीं और कीमतें बढ़ती गईं।
1986 तक ये 600 करोड़ हो गई। जब 2020 में इसे मुख्य रूप से सिंचाई परियोजना के रूप में फिर से लाया गया, तब इसकी लागत 22 हज़ार करोड़ थी। अब इसका अनुमानित खर्च 29 हज़ार करोड़ पहुंच चुका है।
विश्व बैंक तक पहुंची थी योजना
लागत बढ़ती देख भारत सरकार ने 1983 में विश्व बैंक से कर्ज लेने की मंजूरी दी। वाशिंगटन तक चर्चा हुई और 1985 में विश्व बैंक ने 300 मिलियन डॉलर देने का फैसला भी कर लिया।
शिलान्यास और शुरुआती काम
1979 में जब पर्यावरणीय मंजूरी मिल गई, तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुद बारसूर पहुंचे और शिलान्यास किया। एमपी विद्युत मंडल की टीम तैनात हुई। पुल, सुरंग, आवास, हेलीपैड – सबका काम शुरू हो गया था। 53 लाख रुपये देकर 500 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण भी हो चुका था।
फिर अटक गई परियोजना
1980 में लागू हुआ वन संरक्षण अधिनियम एक बड़ी बाधा बन गया। परियोजना को दोबारा मंजूरी लेनी पड़ी, लेकिन फाइलों में समय बीतता गया। पर्यावरणीय चिंता और स्थानीय विरोध के बीच 1986 में काम रोक दिया गया और 1993 में इसे बंद करने का फैसला हो गया।
राज्य बनने के बाद फिर कोशिशें
छत्तीसगढ़ बनने के बाद फिर से इस परियोजना को शुरू करने की बात उठी। 2004 में इसे बहुउद्देश्यीय परियोजना का रूप दिया गया, लेकिन कुछ ठोस नहीं हो पाया। पिछली सरकार ने डीपीआर बनाने की जिम्मेदारी वैपकॉस को दी थी, पर वह भी ठंडी पड़ गई।
क्या मिलेगा बस्तर को?
बोधघाट परियोजना अगर अब पूरी होती है, तो बस्तर को सिर्फ बिजली नहीं, सिंचाई, पीने का पानी, मत्स्य पालन, रोजगार और पर्यटन के नए रास्ते मिलेंगे। ये बस्तर को खनिज और वनोपज के साथ-साथ कृषि और टूरिज्म के नक्शे पर मजबूत करेगा।
अब ज़रूरत इस बात की है कि ये सपना सिर्फ योजनाओं में न रहे, बल्कि ज़मीन पर दिखे।
(प्रकाशन अधिकारी, CSPDCL, रायपुर)